Saturday, October 10, 2009

तुम्हारी उपेक्षा के बाद भी तुम्हारे साथ की अपेक्षा

रातों में तेरा ही ख्वाब ...
दिन में तेरा ही खयाल ...
सभी लोगों से दूर भाग कर ...
अकेले हो जाने के बाद ...
तेरी यादों में डूब जाना ...
एक तेरे सौन्दर्य के सिवा ...
प्रकृति के सारे सौन्दर्य को भूल जाना ...
तुम्हारी उपेक्षा के बाद भी ...
तुम्हारे साथ की अपेक्षा ...
कभी तुम्हें भूलने के लिए ...
तो कभी तुम्हें याद करने के लिए ...
पीना ...
और केवल घुट घुट कर ...
जीना ...
सिर्फ यही दीवानापन ...
बन गया है मेरा जीवन ...

अब ये न सोच लीजियेगा कि इस बुढ़ौती में पगला गया हूँ। :)

भई ये तो सन् 1980 में अपनी डायरी में लिखा था मैंने। आज दिवाली की सफाई करते समय हाथ लग गई तो इसे पोस्ट कर दिया।

Thursday, October 8, 2009

ह्यूम साहब को भारतीयों के हित की ऐसी क्या चिन्ता हो गई जो उन्होंने कांग्रेस बनाया?

आप जानते ही होंगे कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसी भारतीय ने नहीं बल्कि एक अंग्रेज ए.ओ. (अलेन ऑक्टेवियन) ह्यूम ने सन् 1885 में, ब्रिटिश शासन की अनुमति से, किया था। कांग्रेस एक राजनैतिक पार्टी थी और इसका उद्देश्य था अंग्रेजी शासन व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी दिलाना। ब्रिटिश पार्लियामेंट में विरोधी पार्टी की हैसियत से काम करना। अब प्रश्न यह उठता है कि ह्यूम साहब, जो कि सिविल सर्विस से अवकाश प्राप्त अफसर थे, को भारतीयों के राजनैतिक हित की चिन्ता क्यों और कैसे जाग गई?

सन् 1885 से पहले अंग्रेज अपनी शासन व्यवस्था में भारतीयों का जरा भी दखलअंदाजी पसंद नहीं करते थे। तो फिर एक बार फिर प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों दी ब्रिटिश शासन ने एक भारतीय राजनैतिक पार्टी बनाने की अनुमति?

यदि उपरोक्त दोनों प्रश्नों का उत्तर खोजें तो स्पष्ट हो जाता है कि भारतीयों को अपनी राजनीति में स्थान देना अंग्रेजों की मजबूरी बन गई थी। सन् 1857 की क्रान्ति ने अंग्रेजों की आँखें खोल दी थी। अपने ऊपर आए इतनी बड़ी आफत का विश्लेषण करने पर उन्हें समझ में आया कि यह गुलामी से क्षुब्ध जनता का बढ़ता हुआ आक्रोश ही था जो आफत बन कर उन पर टूटा था। यह ठीक उसी प्रकार था जैसे कि किसी गुब्बारे का अधिक हवा भरे जाने के कारण फूट जाना।

समझ में आ जाने पर अंग्रेजों ने इस आफत से बचाव के लिए तरीका निकाला और वह तरीका था सेफ्टी वाल्व्ह का। जैसे प्रेसर कूकर में प्रेसर बढ़ जाने पर सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते निकल जाता है और कूकर को हानि नहीं होती वैसे ही गुलाम भारतीयों के आक्रोश को सेफ्टी वाल्व्ह के रास्ते बाहर निकालने का सेफ्टी वाल्व्ह बनाया अंग्रेजों ने कांग्रेस के रूप में। अंग्रेजों ने सोचा कि गुलाम भारतीयों के इस आक्रोश को कम करने के लिए उनकी बातों को शासन समक्ष रखने देने में ही भलाई है। सीधी सी बात है कि यदि किसी की बात को कोई सुने ही नहीं तो उसका आक्रोश बढ़ते जाता है किन्तु उसकी बात को सिर्फ यदि सुन लिया जाए तो उसका आधा आक्रोश यूँ ही कम हो जाता है। यही सोचकर ब्रिटिश शासन ने भारतीयों की समस्याओं को शासन तक पहुँचने देने का निश्चय किया। और इसके लिए उन्हें भारतीयों को एक पार्टी बना कर राजनैतिक अधिकार देना जरूरी था। एक ऐसी संस्था का होना जरूरी था जो कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारतीयों का पक्ष रख सके। याने कि भारतीयों की एक राजनैतिक पार्टी बनाना अंग्रेजों की मजबूरी थी।

किसी भारतीय को एक राजनैतिक पार्टी का गठन करने का गौरव भी नहीं देना चाहते थे वे अंग्रेज। और इसीलिए बड़े ही चालाकी के साथ उन्होंने ह्यूम साहब को सिखा पढ़ा कर भेज दिया भारतीयों के पास एक राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए। इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह भी मिला कि एक अंग्रेज हम भारतीयों के नजर में महान बन गया, हम भारतीय स्वयं को अंग्रेजों का एहसानमंद भी समझने लगे। ये था अंग्रेजों का एक तीर से दो शिकार!

इस तरह से कांग्रेस की स्थापना हो गई और अंग्रेजों को गुलाम भारतीयों के आक्रोश को निकालने के लिए एक सेफ्टी वाल्व्ह मिल गया।

Wednesday, October 7, 2009

हम तुम्हें गाली दें, तुम हमारे मुँह पे थूको

खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!!

अभी तक अगर सावधान नहीं हुए हो तो अब हो जाओ।

हिन्दी ब्लोग जगत में एक खतरनाक पागल खुल्ला घूम रहा है।

इस पागल को अपने मुँह पर थुकवाने का शौक है इसलिए वह लोगों को गाली देते फिरता है। उसे पता है कि कोई यूँ ही तो उसके मुँह पर थूकेगा नहीं, हाँ लोग गाली खायेंगे तो जरूर उसके मुँह पर थूकेंगे। इसीलिए उसने सिद्धान्त बना रखा है "हम तुम्हें गाली दें, तुम हमारे मुँह पे थूको"

कल तो यह खतरनाक पागल "दरबार" में जा पहुँचा था और वहाँ उसने 13 बार गाली दी थी। 13 की इस संख्या से उस पागल का एकदम नजदीकी रिश्ता है। 13 को उसका जन्म हुआ था, 13 बार पागल हुआ है, 13 टिप्पणी देख कर इसका पागलपन चरमसीमा में पहुँच जाता है, खुद भी अपनी एक ही टिप्पणी को 13 बार टिपियाता है।

टिप्पणी मॉडरेशन सक्षम देखकर तो इसका पागलपन एकदम बढ़ जाता है और फिर इसे सिर्फ दूसरों को 'रौंद डालने' का ही विचार आता है। दूसरों को रौंदने की कल्पना कर कर के अपनी हीन भावना को बढ़ाता है। हमारे बारे में तो यह हमेशा यही कहता है कि "खूँसट बुड्ढे, मैं तेरा खून पी जाउँगा"।

पर अब तो लोग उसकी गाली को भी हँसकर टाल देते हैं और उसके मुँह पर बिल्कुल भी नहीं थूकते। बहुत मायूस है बेचारा।

वैसे यह सिद्धांत कि "हमे तुम्हें गाली दें, तुम हमारे मुँह पे थूको" कोई नया सिद्धान्त नहीं है। यह तो बहुत पुराना है। इस सिद्धान्त का जन्म हमारे पड़ोसी देश के जन्म के साथ ही हुआ था और वहाँ की सरकार शुरू से ही अपने इसी सिद्धान्त के अनुसार हमारे देश को गाली देती थी। जब जब भी उस देश की भूखी नंगी जनता का ध्यान अपनी बेबसी की तरफ जाता था तो वहाँ की सरकार अपने सिद्धान्त को अमल में लाकर हमारे देश के साथ युद्ध की स्थिति पैदा कर देती थी और वहाँ की जनता का ध्यान अपनी बेबसी से हट कर युद्ध की तरफ चला जाता था। जनता का ध्यान हटने से वहाँ की सरकार मजे के साथ टिकी रह जाती थी। आज भी वो इसी सिद्धान्त का पालन कर रही है।

तो दोस्तों, सावधान हो जाओ और टिप्पणी मॉडरेशन सक्षम कर दो। टिप्पणी मॉडरेश सक्षम करने का अर्थ यह नहीं होता कि आप 'अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता' का हनन कर रहे हैं। नहीं, आप तो मात्र किसी पागल के प्रलाप का ही नाश कर रहे हैं क्योंकि पागल का प्रलाप को किसी भी मायने में अभिव्यक्ति की संज्ञा नहीं दी जा सकती। 'ब्लोगर बाबा' उर्फ 'गूगल महराज' ने यही सोच कर मॉडरेशन बनाया है किः

दुनिया में पागलों की कमी नहीं, एक ढूंढो हजार मिलते हैं।
न ढूंढो तो भी दो चार मिलते हैं।

चलते-चलते

हमारे मुहल्ले में भी एक पागल है पर वो खतरनाक नहीं सीधा सादा पागल है। चुपचाप रहता है किसी को तंग नहीं करता यहाँ तक कि किसी से बात भी नहीं करता। कभी किसी मकान के पाटे पर तो कभी किसी मकान के पाटे पर रात बिताता है। खाने के लिए कुछ दे दो तो खा लेता है और न मिले तो भूखा ही रह जाता है।

पर हमें याने कि महामूरख, गधासूरत, बुड्ढाधिराज जी.के. अवधिया को देखते ही वो खतरनाक हो जाता है। हम दिखे नहीं कि "भाग यहाँ से", "दूर हो जा नजरों से", "खबरदार जो फिर इधर आया" आदि आदि चिल्लाना शुरू कर देता है।

बहुत दिनों तक तो हम डरते रहे। समझ में ही नहीं आया कि आखिर मामला क्या है? आखिर एक बार हिम्मत करके उससे पूछ ही लिया, "भाई मेरे, आखिर तुझे मुझसे इतनी खुन्दक क्यों है?"

जवाब में वो कड़ककर बोला, "एक मुहल्ले में एक ही रहेगा।"

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आपको "और मारो, और मारो,..." भी अवश्य पसंद आएगा। क्लिक करके वहाँ पर "चलते-चलते" को पढ़ें।
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Tuesday, October 6, 2009

गूगल सर्च में अब हिन्दी सर्च बढ़ते जा रहा है

हिन्दी में गूगल सर्च करने के प्रति अब लोगों की रुचि बढ़ते जा रही है। यकीन नहीं होता तो http://google.co.in खोलिए और अंग्रेजी के एक दो अक्षर टाइप कीजिए। फौरन आपके समक्ष ड्रॉपडाउन बॉक्स खुलेगा और हिन्दी में किए गए सर्च की लिस्ट दिखाई देने लगेगी। स्क्रीनशॉट देखें


याने कि गूगल सर्च में अब हिन्दी सर्च बढ़ते जा रहा है!

वैसे यदि आप यह जानना चाहें कि आज भारत में गूगल सर्च में सबसे अधिक सर्च क्या किया गया तो गूगल ट्रेंड्स याने कि http://www.google.co.in/trends खोल लीजिए। खुलते ही वह आपको दस सबसे अधिक किए गए सर्च्स की सूची दिखा देगा। स्क्रीनशॉट देखें

हमने तो सोचा था कि आज सबसे ज्यादा किए गये सर्च को टॉपिक बना कर एक पोस्ट लिख देंगे पर यह क्या? पता नहीं क्या क्या खोजते रहते हैं लोग? धत्तेरे की! इन खोज पर तो एक अच्छा सा पोस्ट भी नहीं लिखा जा सकता।

चलते-चलते

बोर हो रहा था वो। सोचा चलो हिन्दी ब्लोग्स ही पढ़ लें। जी.के. अवधिया जैसे ब्लोगर्स के एक दो पोस्ट्स पढ़ कर और भी बोर हो गया बेचारा। तो अब क्या करे? चला गया फिल्म देखने। अंग्रेजी पिक्चर! किस-विस वाले बहुत से सीन थे उसमें। उत्तेजित हो कर निकला। दूर से देखा एक घर के दरवाजे पर एक खूबसूरत महिला खड़ी है। जब उस घर के पास पहुँचा तो महिला घर के भीतर जाने लगी। वह भी उसके पीछे घर में घुस गया। महिला के कमरे तक जा पहुँचा और उत्तेजना के वशीभूत उसे किस करने लगा।

महिला ऐतराज करते हुये कहे जा रही थी, "छोड़ो छोड़ो, जान न पहचान प्यार करते हो। शर्म नहीं आती बिना जान-पहचान के प्यार करते हए?"

आवाज सुन कर महिला का पति वहाँ आ पहुँचा। उसकी हरकत देख कर महिला के पति ने आव देखा न ताव, झपट कर उसे जमीन पर पटक दिया और उसकी छाती पर सवार हो कर उसकी धुनाई करने लगा।

महिला जोर जोर से कहने लगी, "और मारो, और मारो, जान न पहचान प्यार करता है। और मारो, और मारो, जान न पहचान प्यार करता है।"

वो भी कमजोर नहीं था। थोड़ी देर तक मार खाते रहा फिर जोर लगा कर महिला के पति को नीचे गिरा दिया और छाती पर सवार होकर खाये हुये मार का बदला निकालने लगा।

महिला फिर जोर जोर से चिल्लाने लगी, "और मारो, और मारो, खुद प्यार करता है दूसरे को प्यार करने देता है।"

Monday, October 5, 2009

कांग्रेस और मुस्लिम तुष्टिकरण

कांग्रेस के इतिहास को देखें तो स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि कांग्रेस ने सदा ही मुस्लिम तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया है। सन् 1885 में, अंग्रेजी शासन व्यवस्था में भारतीयों की भागीदारी दिलाने के उद्देश्य से, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। यह भारतीयों की संस्था थी। भारतीय का अर्थ है भारत में निवास करने वाला, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान या अन्य। किन्तु कांग्रेस के सदस्यों में मुसलमानों की संख्या बहुत ही कम थी। मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने के लिए कांग्रेस ने बहुत प्रयास किए। सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी के लिखे अनुसार - ”हम इस महान राष्ट्रीय कार्य में अपने मुसलमान देशवासियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रहे हैं। कभी-कभी तो हमने मुसलमान प्रतिनिधियों को आने-जाने का किराया तथा अन्य सुविधाएं भी प्रदान कीं।सन् 1887 में बदरुद्दीन तैयबजी, 1896 में सहिमतुल्ला सायानी, सन् 1919 में मोहम्मद बहारदुर, जो कि मुसलमान थे, कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने किन्तु भारत के अधिकतर मुसलमान फिर भी कांग्रेस से नहीं जुड़ पाए।

शुरुवात में तो कांग्रेस से भारतीय मुस्लिमों को जोड़ने का सिर्फ प्रयास ही होता रहा किन्तु सन् 1915 में गांधी जी के आ जाने और गांधीवादी कांग्रेस बन जाने के बाद से मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति का कांग्रेस में पदार्पण हुआ। उस समय तक कांग्रेस दो आन्तरिक दलों - गरम दल और नरम दल - में बँट चुका था। गांधी जी ने गोपाल कृष्ण गोखले वाला नरम दल को अपने लिए चुना था। बहुत ही जल्दी वे नरम दल के बड़े नेता बन गए और उनकी लोकप्रियता दिनों दिन बढ़ने लग गई। कांग्रेस एक प्रकार से गांधीवादी कांग्रेस बन गया। गांधीवादी कांग्रेस में 'महात्मा गांधी' और 'गांधी जी' शब्द कांग्रेस का पर्याय बन गए। गांधी जी के विचार कांग्रेस की नीति बन गई। (और स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त कांग्रेस की नीति, जो कि गांधी जी के विचारों पर आधारित थी, राष्ट्र की नीति बन गई।) गांधी जी ‘हिन्दू-मुस्ल्मि एकता’ के नाम से हमेशा मुस्लिम तुष्टिकरण को ही जोर देते रहे। पर उन्हें अपने इस कार्य में कभी भी वांछित सफलता नहीं मिली। भारतीय मुसलमानों की कुल जनसंख्या के मुश्किल से चार प्रतिशत लोग ही शायद कांग्रेस से जुड़ पाये होंगे। प्रत्येक असफलता के साथ गांधी जी की मुस्लिम तुष्टिकरण वाली जिद बढ़ते ही जाती थी। गांधी जी के लाख प्रयास करने के बावजूद भी भारतीय मुस्लिम कांग्रेस से न जुड़ सके।

गांधी जी ने मुसलमानों का तुष्टिकरण करके उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए कट्टरवादी नेताओं का साथ देना तक उचित समझा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है खिलाफत आन्दोलन। खिलाफत आन्दोलन के विषय में आचार्य विष्णुकांत शास्त्री की पुस्तक के कुछ अंश ज्ञानदत्त जी के पोस्ट "आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री उवाच" में उद्धृत हैं जिसका स्क्रीनशॉट मैं नीचे दे रहा हूँ:

इन अंशों को पढ़ने से स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि गांधी जी का खिलाफत आन्दोलन सिर्फ मुस्लिम तुष्टिकरण के सिवा और कुछ नहीं था। गांधी जी का विचार था कि तुर्की के खलीफा, जो कि मुसलमान थे, को गद्दी से उतारे जाने का विरोध करने से भारत के मुसलमान खुश होकर कांग्रेस के पक्ष में आ जायेंगे। जबकि मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना ने ही खिलाफत आन्दोलन का विरोध यह कह कर किया था कि "तुर्की के खलीफा को किसी ने गद्दी से उतार दिया, तो इससे भारत के मुसलमानों का क्या लेना-देना है।" देखें http://khabar.ndtv.com/2009/08/25094428/Suderson-on-Jinnah.html

दरअसल उस समय तक मुस्लिम लीग के सदस्य शिक्षित मुसलमान थे, वे दकियानूस नहीं थे और अच्छी तरह से समझते थे कि तुर्की के खलीफा से भारत के मुसलमानों का कुछ भी लेना देना नहीं है खलीफा के समर्थन से कट्टवादियों को ही फायदा होगा। इसीलिए वे खिलाफत आन्दोलन से दूर रहे।

इस खिलाफत आन्दोलन के कारण मालाबार (केरल) में भयानक मोपला नरसंहार हुआ। हताश मुसलमानों ने अपना सारा आक्रोश हिन्दुओं पर उतारा। सारे देश में दंगों की लहरें उमड़ पड़ी और हिन्दुओं को भारी नुकसान उठाना पड़ा। बावजूद इन सबके गांधी जी ने (6 दिसम्बर 1924 के) ‘यंग इण्डिया’ अंक में लिखा: ”हिन्दू-मुस्लिम एकता" किसी भी तरह चरखा-कताई से कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह हमारे जीवन की श्वास-रेखा है।”

फिर देश का विभाजन हुआ। विभाजन के समय पाकिस्तान छोड़कर भारत आने वाले हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुए वह किसी से भी छुपा हुआ नहीं है किन्तु उस अत्याचार के विषय में गांधी जी ने कभी भी कुछ नहीं कहा, मौन धारण किये रहे। जब मुसलमानों के अत्याचार से आक्रोशित होकर हिन्दुओं ने भी वैसा ही कदम उठाना शुरू किया तब गांधी जी को दिखाई देने लग गया कि मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं और हिन्दुओं के इस अत्याचार को रोकने के लिए उनका मौन टूट गया। उन्हें मुस्लिमों पर हुए अत्याचार तो नजर आये पर हिन्दुओं पर हुए अत्याचार कभी भी नहीं दिखा। यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि उन दिनों गांधी जी का कहे को कांग्रेस का कहा माना जाता था। गांधी जी ही कांग्रेस थे।

बंकिम चन्द्र रचित गीत "वन्दे मातरम्" को सितम्बर १९०५ में कांग्रेस अधिवेशन में राष्ट्रगीत का दर्जा दे दिया गया था (हिन्दी विकीपेडिया) किन्तु मुसलमानों ने यह कह कर कि "मुस्लिम धर्म किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने को मना करता है और इस गीत में वस्तु की वन्दना की गयी है" इसका विरोध किया परिणामस्वरूप "जनगणमन" राष्ट्रगीत बना दिया गया। यह तुष्टिकरण नहीं है तो क्या है?

गांधी जी ने तो तुष्टिकरण के लिए भाषा तक को नहीं छोड़ा। मुसलमानों की भाषा उर्दू थी और अधिकतर हिन्दुओं की भाषा हिन्दी। गांधी जी ने कथितहिन्दू-मुस्लिम एकता" के लिए "बादशाह राम" और "बेगम सीता" वाली एक नई "हिन्दुस्तानी भाषा" ईजाद किया। इस हिन्दुस्तानी भाषा को कुछ समय के लिए स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया पर यह हमारा और हिन्दी का सौभाग्य है कि उस भाषा का जोरदार विरोध हुआ और उसे पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया। गांधी जी ने अपनी ईजाद की गई हिन्दुस्तानी में राम को 'बादशाह' और सीता को 'बेगम' तो बना दिया पर वे मोहम्मद साहब को कभी भी श्री या श्रीमान मोहम्मद नहीं बना पाये।

स्वतन्त्र भारत के प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को भारतीय जनसंघ जैसे हिन्दू राष्ट्रवादी पार्टियों से भय लगने लगा इसलिए वो फिर मुस्लिमों की तरफ झुकी। ‘सेक्युलरिज्म’ पर जोर दिया गया। पण्डित जवाहरलाल नेहरू हिन्दू धर्म को हेय दृष्टि से देखते थे। वे स्वयं मानते थे कि वे संयोग से ही हिन्दू हैं। कांग्रेस में हिन्दू प्रवृत्ति वाले लोगों, जैसे कि राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभभाई पटेल, पीडी टण्डन, केएम मुंशी आदि, से उन्हें परेशानी रहा करती थी। नेहरू की मृत्यु पर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि नेहरू जन्म से ब्राह्मण, शिक्षा में यूरोपीय और आस्था में मुसलमान थे। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने नेहरू को भारत का राष्ट्रवादी मुसलमान बताया था।

कांग्रेस सरकार ने 1959 में मुस्लिमों की हज सब्सिडी शुरू की थी। यह हज सब्सिडी आखिर है क्या? हिन्दुओं को तीर्थयात्रा के लिए क्यों सब्सिडी नहीं दी जाती? यह तो सभी जानते हैं कि राजीव सरकार ने, शाहबानो जजमेंट को ताक पर रख कर, मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया।

वोट बैंक को ध्यान में रखकर और राजनैतिक स्वार्थ के लिए तुष्टिकरण की नीति अपनाना आखिर कहाँ तक उचित है?

Sunday, October 4, 2009

थ्री कीबोर्ड, कैट एण्ड मून

इस चित्र को देखकर आपको क्या समझ में आता हैः

जी हाँ, ये ऑनलाइन टीशर्ट बेचने वाली साइट http://www.threadless.com/ की लेटेस्ट टीशर्ट डिजइन है। इस डिजाइन वाली साइट को लेख लिखते समय तक 1545 बार डिग किया गया है।

यदि आप भी टीशर्ट पसंद करते हैं तो फिर आपको ये कीबोर्ड, बिल्लियाँ और चन्द्रमा वाली टीशर्ट डिजाइन अवश्य पसंद आयेगी।


(ये कोई विज्ञापन नहीं है, बस अच्छा लगा, पसंद आया इसलिए पोस्ट भी कर दिया।)

चलते-चलते

ग्राहक सेवा से बचने के उपाय

(चित्र को क्लिक करके बड़ा करके देखें।)
स्थानः हैदराबाद का एक ईरानी कैफे
रजत गुप्ता के सौजन्य से http://rajatgupta.wordpress.com/2007/02/11/irani-cafe-hyderabad/

ये 'पूर्ण वर्तमान' क्या है?

हिन्दी व्याकरण में काल के भागों में से एक भाग 'पूर्ण वर्तमान' है। ये 'पूर्ण वर्तमान' क्या है? वर्तमान तो तभी तक रहता है जब तक कि अपूर्ण हो, पूर्ण होते ही वह 'भूत' बन जाता है। हिन्दी के वर्ण और अंक तो देवनागरी से लिए गये हैं किन्तु व्याकरण के लिए अंग्रेजी ग्रामर का सहारा ले लिया गया है। अंग्रेजी में 'प्रेजेंट परफैक्ट' (Present Perfact) होता है जिसे हिन्दी में 'पूर्ण वर्तमान' कर दिया गया।

क्या संस्कृत में व्याकरण नहीं है जो अंग्रेजी ग्रामर का सहारा लिया गया? मेरी जानकारी के अनुसार, जिसे हम 'पूर्ण वर्तमान' कहते हैं उसे संस्कृत व्याकरण में 'हेतु हेतु मतभूत' कहा जाता है। चलन में न होने के कारण यह नाम कुछ कठिन सा लग सकता है किन्तु यह नाम कठिन नहीं है।

क्या हिन्दी व्याकरण के लिए अंग्रेजी ग्रामर का सहारा लेना उचित या जरूरी है?

चलत-चलते

वो क्लास महोदय टीचर थे, ऊपर से ब्राह्मण! "ब्राह्मन को धन केवल भिच्छा" वाले सिद्धांत के अनुसार हमेशा वे अपनी जरूरत की चीजें जैसे कि चाँवल, आटा, साबुन, तेल आदि कक्षा के विद्यार्थियों के घर से मंगवा लिया करते थे। पर उनकी कक्षा में हरीश एक ऐसा विद्यार्थी था जिसने कभी भी मास्साब के लिये कुछ नहीं लाया। डाँट-मार खाने पर यही कहता था, "मम्मी देती ही नहीं तो क्या करूँ।"

मास्साब ने हरीश से कुछ मंगाना ही छोड़ दिया। पूरा साल बीत चला। अंत में एक दिन हरीश कक्षा में एक हांडी ले कर आया और हांडी को मास्साब को देते हुये बोला, "सर, मम्मी ने आपके लिये भिजवाया है।"

भूख जगा देने वाली वाली जोरदार सुगंध उठ रही थी हांडी से। मास्साब ने ढक्कन खोल कर देखा, पिश्ता, काजू आदि से भरपूर खीर थी। रोक नहीं सके अपने आपको वे। झट से निकाल कर थोड़ी सी खीर खाई और बोले, "वाह वाह! बहुत अच्छी बनी है।"

फिर अनायास पूछ बैठे, "अरे हरीश, तेरी मम्मी तो मेरे लिये कभी कुछ देती ही नहीं थी, आज कैसे उसने ये खीर भिजवा दिया?"

"वो क्या है सर, घर में मेहमान आये थे और उनके लिये मम्मी ने ये खीर बनाया था। खीर बन जाने पर एक कुत्ते ने उस पर मुँह मार दिया। मम्मी तो फेंकने वाली थी खीर को पर मैने कहा मम्मी मत फेंको इसे, मैने सर को आज तक कुछ भी नहीं दिया है, मैं उन्हें दे आता हूँ और मम्मी मान गईं।"

सुन कर मास्साब को बहुत गुस्सा आया। पटक कर हांडी फोड़ दी, खीर बिखर गया। यह देख कर हरीश रोने लगा।

"अबे, धर्म तो मेरा भ्रष्ट हो गया। अब तू काहे को रो रहा है?" क्रोधित स्वर में मास्साब ने हरीश को फटकारा।

"आपने हांडी फोड़ दिया सर, अब हमारा पप्पू छिच्छी किसमें करेगा? हांडी वापस नहीं लाने पर मम्मी मुझे खूब मारेंगी।" सिसकते हुये हरीश ने जवाब दिया।