"मैं परवाह नहीं करता, मर जाना कोई बुरी बात नहीं है। क्या फायदा है यदि मौत का इंतजार करते हुए हम बूढ़े हो जाएँ? ऐसा करना कोई अच्छी बात नहीं है। यदि हम मरना चाहते हैं तो युवावस्था में मरें। यही अच्छा है और यही मैं कर रहा हूँ।
"मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ।"
(‘I don’t care, I don’t mind dying. What Is the use of waiting till you get old? This Is no good. You want to die when you are young. That is good, that Is what I am doing’.
‘I am dying for my country’.)
उपरोक्त शब्द अमर शहीद ऊधम सिंह के अन्तिम शब्द थे।
देश को अंग्रेजों के अत्याचार तथा गुलामी से स्वतन्त्र कराने के लिए अनगिनत देशभक्त क्रान्तिकारियों ने हँसते-अपने प्राणों की आहुति दी है। उन्हीं शूरवीरों में अमर शहीद ऊधम सिंह का नाम आदर व श्रद्धा से लिया जाता है।
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था। उस दिन डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी तथा रोलट एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया था। देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत लगभग 10,000 से भी अधिक लोग उस सभा में उपस्थित थे। ऊधम सिंह वहाँ पर प्यासे लोगों को पानी पिलाने के पुनीत कार्य में लीन थे।
अंग्रेज सरकार से भारतीयों का देशप्रेम देखा नहीं गया। अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी जनरल ओ’डायर के सैनिकों ने पूरे बाग को घेर लिया और निहत्थे आबालवृद्ध लोगों पर मशीनगनों से अंधाधुंध गोलीबारी करनी शुरू दी। हजारों भारतीय मारे गए। पंडित मदन मोहन मालवीय के अनुसार कम से कम 1300 लोग मारे गए थे।
इस घटना ने वीर ऊधम सिंह को विचलित करके रख दिया। तत्काल ही उन्होंने ओ’डायर को सबक सिखाने के लिए शपथ ले लिया। ऊधम सिंह ने बहुत प्रयास किया किन्तु ओ’डायर के भारत में रहते तक उन्हे अपने शपथ को पूरा करने का मौका नहीं मिला। ओ’डायर वापस इंगलैंड चला गया। ओ’डायर के वापस चले जाने पर भी ऊधम सिंह अपना शपथ नहीं भूले। प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने 20 मार्च 1933 के दिन लाहौर में अपना पासपोर्ट बनवाया और इंगलैंड चले गए। अपना उद्देश्य पूर्ण करने के लिए उन्हें वहाँ लगभग सात साल और इंतजार करना पड़ा।
अन्ततः इंतजार की घड़ियाँ खत्म हुईं। 13 मार्च 1940 को ओ’डायर लंदन के काक्सटन हाल में एक सभा में शामिल होने के लिए गया। ऊधम सिंह ओ’डायर का वध करने के लिए 45 स्मिथ एण्ड वेसन रिवाल्वर पहले ही खरीद चुके थे। एक मोटी किताब के पन्नों को बीच से काटकर तथा किताब के भीतर अपने रिवाल्वर को छिपाकर ऊधम सिंह भी उस सभा में पहुँच गए। मौका मिलते ही उन्होंने मंच पर उपस्थित ओ’डायर को लक्ष्य करके 6 राउंड गोलियाँ दाग दीं। ओ’डायर को दो गोलियाँ लगीं और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
प्रतिशोध के पूर्ण हो जाने पर ऊधम सिंह कायरतापूर्वक भागे नहीं बल्कि उन्होंने वीरतापूर्वक स्वयं गिरफ्तार करवा दिया। उन्होंने कहा "मेरी उससे शत्रुता थी इसीलिए मैंने उसे मारा। वह इसी लायक था। ऐसा मैंने किसी अन्य या किसी संस्था के कहने से नहीं किया है वरन् ऐसा करना मेरा अपना फैसला था।" (“I did it because I had a grudge against him, he deserved it. I don’t belong to any society or anything else.)
ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम गांव में हुआ था। 1901 में उनकी मां और 1907 में उनके पिता का निधन हो गया और उन्हें अपने बड़े भाई के साथ अमृतसर के एक अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। ऊधम सिंह के बचपन का नाम शेर सिंह और उनके भाई का नाम मुक्ता सिंह था, जिन्हें अनाथालय में क्रमश: ऊधम सिंह और साधु सिंह के रूप में नए नाम दिए गए। 1917 में उनके बड़े भाई का भी स्वर्गवास हो गया। 1919 में वे अनाथालय छोड़ क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गए।
मेट्रोपोलिटन पोलिस रिपोर्ट फाइल क्र. MEPO 3/1743, दिनांक 16 मार्च 1940 के में लिखा है "हमें उसके जीवन के विषय में सूचना मिली है कि वह एक बेहद सक्रिय, अनेक स्थानों की यात्रा किया हुआ, राजनीति से प्रेरित, धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाला युवक था तथा उसके पास अपने जीवन का महान उद्देश्य था। वह साम्यवाद का समर्थक था और भारत में ब्रिटश शासन के प्रति उसके हृदय में प्रबल घृणा थी।" (we find information concerning his life, which reveals him to be a highly active, well-travelled, politically motivated, secular-minded young man with some great purpose in his life, a supporter of Bolshevism and driven by an ardent hatred of British rule in India.)
दुःख का विषय है कि हमें बताए जाने वाले इतिहास में देशभक्तो के विषय में नहीं के बराबर ही सामग्री पाई जाती है।
Thursday, December 30, 2010
Wednesday, December 29, 2010
हिन्दी कहावतें तथा लोकोक्तियाँ - 6 (Hindi Proverbs)
प्रस्तुत हैं हिन्दी की कुछ लोकोक्तियाँ तथा मुहावरे और उनके अर्थ। उनके अर्थ मैंने अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार बनाए हैं और उनमें त्रुटि की सम्भावना है अतः यदि आपको त्रुटियाँ नजर आएँ तो कृपया टिप्पणी करके सही अर्थ बताने का कष्ट करें।
इन तिलों में तेल नहीं
अर्थः किसी प्रकार का आसरा न होना।
इसके पेट में दाढ़ी है
अर्थः कम उम्र में बुद्धि का अधिक विकास होना।
इस हाथ दे उस हाथ ले
अर्थः किसी कार्य का फल तत्काल चाहना।
ईद का चॉद
अर्थः लम्बे अरसे के बाद दिखाई देने वाला
उँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ना
अर्थः थोड़ा आसरा पाकर पूर्ण अधिकार पाने का प्रयास करना।
उल्टा चोर कोतवाल को डॉंटे
अर्थः दोषी होने पर भी दूसरों पर धौंस जमाना।
उगले तो अंधा, खाए तो कोढ़ी
अर्थः दुविधा में पड़ना।
उत्त़र जाए या दक्खिन, वही करम के लक्ख़न
अर्थः स्थान बदल जाने पर भी व्यक्ति के लक्षण नहीं बदलते।
उलटी गंगा पहाड़ चली
अर्थः असंभव कार्य।
उलटे बाँस बरेली को
अर्थः विपरीत कार्य करना।
ऊँची दुकान फीका पकवान
अर्थः तड़क-भड़क करके स्तरहीन चीजों को खपाना।
ऊँट किस करवट बैठता है
अर्थः सन्देह की स्थिति में होना।
ऊँट के मुँह में जीरा
अर्थः अत्यन्त अपर्याप्त।
ऊधो का लेना न माधो का देना
अर्थः किसी के तीन-पाँच में न रहना, स्वयं में लिप्त होना।
एक अंडा वह भी गंदा
अर्थः बेकार की वस्तु।
एक अनार सौ बीमार
अर्थः किसी वस्तु की मात्रा बहुत कम किन्तु उसकी माँग बहुत अधिक होना।
एक आवे के बर्तन
अर्थः सभी का एक जैसा होना।
एक और एक ग्यारह होते हैं
अर्थः एकता में बल है।
एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा
अर्थः बहुत अधिक खराब होना।
एक गंदी मछली सारे तलाब को गंदा कर देती है
अर्थः अनेकों अच्छाई पर भी एक बुराई भारी पड़ती है।
इन तिलों में तेल नहीं
अर्थः किसी प्रकार का आसरा न होना।
इसके पेट में दाढ़ी है
अर्थः कम उम्र में बुद्धि का अधिक विकास होना।
इस हाथ दे उस हाथ ले
अर्थः किसी कार्य का फल तत्काल चाहना।
ईद का चॉद
अर्थः लम्बे अरसे के बाद दिखाई देने वाला
उँगली पकड़ कर पहुँचा पकड़ना
अर्थः थोड़ा आसरा पाकर पूर्ण अधिकार पाने का प्रयास करना।
उल्टा चोर कोतवाल को डॉंटे
अर्थः दोषी होने पर भी दूसरों पर धौंस जमाना।
उगले तो अंधा, खाए तो कोढ़ी
अर्थः दुविधा में पड़ना।
उत्त़र जाए या दक्खिन, वही करम के लक्ख़न
अर्थः स्थान बदल जाने पर भी व्यक्ति के लक्षण नहीं बदलते।
उलटी गंगा पहाड़ चली
अर्थः असंभव कार्य।
उलटे बाँस बरेली को
अर्थः विपरीत कार्य करना।
ऊँची दुकान फीका पकवान
अर्थः तड़क-भड़क करके स्तरहीन चीजों को खपाना।
ऊँट किस करवट बैठता है
अर्थः सन्देह की स्थिति में होना।
ऊँट के मुँह में जीरा
अर्थः अत्यन्त अपर्याप्त।
ऊधो का लेना न माधो का देना
अर्थः किसी के तीन-पाँच में न रहना, स्वयं में लिप्त होना।
एक अंडा वह भी गंदा
अर्थः बेकार की वस्तु।
एक अनार सौ बीमार
अर्थः किसी वस्तु की मात्रा बहुत कम किन्तु उसकी माँग बहुत अधिक होना।
एक आवे के बर्तन
अर्थः सभी का एक जैसा होना।
एक और एक ग्यारह होते हैं
अर्थः एकता में बल है।
एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा
अर्थः बहुत अधिक खराब होना।
एक गंदी मछली सारे तलाब को गंदा कर देती है
अर्थः अनेकों अच्छाई पर भी एक बुराई भारी पड़ती है।
Monday, December 27, 2010
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते
पिछले डेढ़ दो साल के भीतर पेट्रोलियम उत्पादों के दाम चार बार बढ़े। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
दाल न मिलने पर आदमी प्याज के साथ रोटी खा लेता था भले ही प्याज काटने पर आँख से आँसू निकलते थे पर अब प्याज की कीमत सुनते ही आँख से आँसू निकलने लगते हैं। प्याज की कीमत आसमान छू रही है। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
टमाटर की लाली से हमारा मोहभंग हो गया है क्योंकि टमाटर खरीदने का अब हममें साहस नहीं रह पाया है। टमाटर के दाम सुनकर अब हम टमाटर खाने की इच्छा को भीतर ही भीतर कहीं दफन कर देते हैं। टमाटर के दाम इतने बढ़ चुके हैं की हम खरीद नहीं सकते। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
दाल खाना तो पहले ही मुहाल हो गया था, अब रोटी के भी लाले पड़ने लगे हैं। गेहूँ का दाम बढ़ गया है। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
हम तो जनता-जनार्दन हैं। वोट देकर सरकार बनाते हैं। फिर वही सरकार हमें महँगाई के गर्त में धकेलती चली जाती है। पर हम सब तो जनता होने के नाते निरीह प्राणी हैं। हम कर ही क्या सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
दाल न मिलने पर आदमी प्याज के साथ रोटी खा लेता था भले ही प्याज काटने पर आँख से आँसू निकलते थे पर अब प्याज की कीमत सुनते ही आँख से आँसू निकलने लगते हैं। प्याज की कीमत आसमान छू रही है। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
टमाटर की लाली से हमारा मोहभंग हो गया है क्योंकि टमाटर खरीदने का अब हममें साहस नहीं रह पाया है। टमाटर के दाम सुनकर अब हम टमाटर खाने की इच्छा को भीतर ही भीतर कहीं दफन कर देते हैं। टमाटर के दाम इतने बढ़ चुके हैं की हम खरीद नहीं सकते। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
दाल खाना तो पहले ही मुहाल हो गया था, अब रोटी के भी लाले पड़ने लगे हैं। गेहूँ का दाम बढ़ गया है। पर हम क्या कर सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
हम तो जनता-जनार्दन हैं। वोट देकर सरकार बनाते हैं। फिर वही सरकार हमें महँगाई के गर्त में धकेलती चली जाती है। पर हम सब तो जनता होने के नाते निरीह प्राणी हैं। हम कर ही क्या सकते हैं?
हम कुछ भी तो नहीं कर सकते।
Saturday, December 25, 2010
विश्व-साहित्य की प्रमुखतम कृति - रामायण
जरा कल्पना करें कि आपने कभी कोई रचना नहीं पढ़ी है और आपके पास किसी प्रकार का सन्दर्भ नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या आप कुछ लिख पाएँगे? वाल्मीकि के साथ ऐसी ही स्थिति थी, वे आदिकवि थे, प्रथम काव्य रचने वाले। किसी भी प्रकार का सन्दर्भ उनके पास नहीं था किन्तु उन्होंने रामायण जैसा महाकाव्य रच डाला जो कि विश्व-साहित्य में आज भी अपना प्रमुख स्थान रखता है। रामायण के प्रमुख पात्र 'राम' जहाँ आज्ञाकारी पुत्र हैं वहीं आदर्श पति भी हैं; वे आदर्श राजा हैं, प्रजा की भावना के समक्ष उनके लिए अपने सुख का कुछ भी मूल्य नहीं है; जहाँ दीन-हीनों के प्रति उनके हृदय में करुणा तथा दया का भाव है वहीं दुष्टों के प्रति वे अत्यन्त कठोर भी हैं; वे प्रबल योद्धा और परम शूरवीर हैं; राम समस्त मर्यादाओं को निबाहने वाले हैं अतः मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। समस्त विश्व-साहित्य में राम जैसा कोई अन्य पात्र देखने में नहीं आता। राम, रावण जैसे महान अत्याचारी और उसके समर्थकों का विनाश करने वाले हैं, आर्य-संस्कृति की पताका को देश-देशान्तर में फहराने वाले हैं; कहा जाए तो राम भारत के आदिनिर्माता हैं।
राम की कीर्ति-गाथा देश-देशान्तर में फैली हुई है। उनके चरित्र पर अनगिनत ग्रंथों की रचना हुई हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-’रामायण सत कोटि अपारा’। न केवल हमारे देश की प्रमुख भाषाओं में बल्कि विश्व के अन्य देशों की भी प्रमुख भाषाओं में रामायण की रचना हुई है। समस्त विश्व में रामकथा की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राम की कीर्ति-गाथा ने मलेशिया में ‘हिकायत सिरी राम’, थाईलैंड में रामकथा को ‘रामकियेन’ या ‘रामकीर्ति’, कम्बोडिया में ‘रामकोर’, लाओस में ‘फालाक फालाम’ तथा दूसरा ‘फोमचक्र’ जैसे ग्रंथों का रूप धारण किया हुआ है। राम के प्रति श्रद्धा विश्व के सभी समुदाय के लोगों के हृदय में पाई जाती है। जावा, वियतनाम, बर्मा, चीन, जापान, मैक्सिको तथा मध्य अमरीका में रामकथा अत्यन्त लोकप्रिय है।
रामकथा ग्रंथों में वाल्मीकि रचित रामायण का अत्यन्त उच्च स्थान है। वाल्मीकि रामायण एक विशद् ग्रंथ है और आज के जमाने में विस्तृत ग्रंथों को पढ़ने के लिए लोगों के पास समय की कमी है। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने वाल्मीकि रामायण का संक्षिप्तीकरण किया है ताकि सभी लोग उसे पढ़ सकें। अब हमारा लक्ष्य है "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" के सात काण्डों को ईपुस्तक के रूप में अत्यन्त सस्ते दाम में प्रत्ये कम्प्यूटर तक पहुँचाना। अब संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण ईपुस्तक के रूप में उपलब्ध है!
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जी.के. अवधिया, द्वारा अभय फ्यूल्स, विधानसभा मार्ग, लोधीपारा, रायपुर छ.ग. के पते पर ड्राफ्ट, चेक या मनीआर्डर करके भी ईपुस्तक खरीदी जा सकती है।
रामायण महाकाव्य आयु तथा सौभाग्य को बढ़ाता है और पापों का नाश करता है। इसका नियमित पाठ करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूरी होती हैं और अन्त में परमधाम की प्राप्ति होती है। सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में एक भार स्वर्ण का दान करने से जो फल मिलता है, वही फल प्रतिदिन रामायण का पाठ करने या सुनने से होता है। यह रामायण काव्य गायत्री का स्वरूप है। यह चरित्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। इस प्रकार इस पुरान महाकाव्य का आप श्रद्धा और विश्वास के साथ नियमपूर्वक पाठ करें। आपका कल्याण होगा।
राम की कीर्ति-गाथा देश-देशान्तर में फैली हुई है। उनके चरित्र पर अनगिनत ग्रंथों की रचना हुई हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-’रामायण सत कोटि अपारा’। न केवल हमारे देश की प्रमुख भाषाओं में बल्कि विश्व के अन्य देशों की भी प्रमुख भाषाओं में रामायण की रचना हुई है। समस्त विश्व में रामकथा की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राम की कीर्ति-गाथा ने मलेशिया में ‘हिकायत सिरी राम’, थाईलैंड में रामकथा को ‘रामकियेन’ या ‘रामकीर्ति’, कम्बोडिया में ‘रामकोर’, लाओस में ‘फालाक फालाम’ तथा दूसरा ‘फोमचक्र’ जैसे ग्रंथों का रूप धारण किया हुआ है। राम के प्रति श्रद्धा विश्व के सभी समुदाय के लोगों के हृदय में पाई जाती है। जावा, वियतनाम, बर्मा, चीन, जापान, मैक्सिको तथा मध्य अमरीका में रामकथा अत्यन्त लोकप्रिय है।
रामकथा ग्रंथों में वाल्मीकि रचित रामायण का अत्यन्त उच्च स्थान है। वाल्मीकि रामायण एक विशद् ग्रंथ है और आज के जमाने में विस्तृत ग्रंथों को पढ़ने के लिए लोगों के पास समय की कमी है। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने वाल्मीकि रामायण का संक्षिप्तीकरण किया है ताकि सभी लोग उसे पढ़ सकें। अब हमारा लक्ष्य है "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" के सात काण्डों को ईपुस्तक के रूप में अत्यन्त सस्ते दाम में प्रत्ये कम्प्यूटर तक पहुँचाना। अब संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण ईपुस्तक के रूप में उपलब्ध है!
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Friday, December 24, 2010
तुम क्यों लिखते हो?
पोस्ट का शीर्षक मेरा अपना नहीं है बल्कि रामाधारी सिंह 'दिनकर' जी की एक कविता का है। पता नहीं दिनकर जी ने अपनी कविता में यह प्रश्न किससे पूछा था, किन्तु कई सालों बाद इस कविता को फिर से पढ़ कर मुझे लगा कि कहीं उन्होंने यह प्रश्न मुझ जैसे अकिंचन ब्लोगर, जिसने 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' जैसा अपना एक ब्लोग बना रखा है, से तो नहीं किया है! लीजिए आप भी पढ़ें दिनकर जी की इस कविता को -
तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?
यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई! तुमने यह बुरा किया।
है किसे फिक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अदभुत मान लिया?
कहनेवाले, जाने क्या-क्या कहते आए,
सुनने वालों ने मगर, कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ,
उत्तर क्या उनका कभी जगत ने पाया है?
अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा,
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?
तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने को?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना,
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।
दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का,
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कंपन उठते हैं जिस गहराई से,
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?
जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल,
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं;
उत्तर शायद, हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।
तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग, मानो सारा,
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो, मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर,
मानो, कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।
मृतिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन, मनुष्य की द्वाभा और सघन होती,
धरती की किस्मत और भरमती जाती है।
धो डालो फूलों का पराग गालों पर से,
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो
कितने पानी में हो, इसको जग भी देखे,
तुम पल भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।
सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को;
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जान बूझ गंदला करते अपने जल को।
तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?
यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई! तुमने यह बुरा किया।
है किसे फिक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अदभुत मान लिया?
कहनेवाले, जाने क्या-क्या कहते आए,
सुनने वालों ने मगर, कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ,
उत्तर क्या उनका कभी जगत ने पाया है?
अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा,
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?
तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने को?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना,
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।
दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का,
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कंपन उठते हैं जिस गहराई से,
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?
जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल,
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं;
उत्तर शायद, हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।
तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग, मानो सारा,
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो, मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर,
मानो, कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।
मृतिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन, मनुष्य की द्वाभा और सघन होती,
धरती की किस्मत और भरमती जाती है।
धो डालो फूलों का पराग गालों पर से,
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो
कितने पानी में हो, इसको जग भी देखे,
तुम पल भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।
सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को;
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जान बूझ गंदला करते अपने जल को।
Thursday, December 23, 2010
क्या किसी ब्लोगर को यह दिखाई नहीं पड़ता ....
हम लुटते रहे थे, लुटते रहे हैं और लुटते रहेंगे
हजारों वर्षों पूर्व सिकन्दर, मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मोहम्मद गोरी आदि के द्वारा हम लुटते रहे थे। फिर पुर्तगाली, फ्रांसीसी आदि लुटेरों ने आकर हमें लूटा और व्यापारी का भेष धारण कर भारत को लूटने वाले अंग्रेज लुटेरों ने तो विश्व के समृद्धतम देश भारत को कंगाल बना कर ही छोड़ा। हमारे देश की धन-सम्पदा हमारे यहाँ न रहकर विदेशों में चली गई।
आज हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा धन-लोलुप तथाकथित व्यापारियों और सत्ता-लोलुप राजनीतिबाजों के द्वारा लुट रहे हैं। आज भी हमारे देश की धन-सम्पदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने देशों में ले जा रही हैं और हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व उसे स्विस बैंकों में भेजे जा रहे हैं।
आज अमरीका, रूस, जर्मनी, प्रांस और चीन जैसे शक्तिशाली देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमन्त्री आदि का भारत आगमन हो रहा है। क्या वे भारत की विदेशों में बढ़ी हुई साख या सुदृढ़ आर्थिक अर्थ-व्यवस्था से प्रभावित होकर यहाँ आ रहे हैं? कदापि नहीं! उनका मात्र उद्देश्य भारत के बाजार का दोहन करना ही है। स्पष्ट है कि भविष्य में भी हम लुटते ही रहेंगे क्योंकि हमारे देश के कर्ता-धर्ता, अपने राष्ट्र के हितों को ताक में रखकर, उनकी योजनाओं को स्वीकार करते हुए हमारे लुटे जाने के दस्तावेजों पर मुहर लगाए चले जा रहे हैं।
पर हम हैं कि अपनी रचनाओं और उन पर मिली टिप्पणियों पर मुग्ध हैं। हमें अपना लुटना दिखाई ही नहीं देता। हमें लगता ही नहीं कि हम ऐसा कुछ लिखें जिसे देश के करोड़ों लोग पढ़ें और उन्हें समझ में आ जाए कि हम सब लुटे जा रहे हैं, वे अपना लुटना देखकर आक्रोश में आ जाएँ, क्रान्ति करने की ठान लें।
पर क्यों लिखें हम कुछ ऐसा? ऐसा लिखने से हमें टिप्पणियाँ तो नहीं मिलने वाली हैं, गैर-ब्लोगर लोग हमारे पोस्टों को पढ़कर या तो अप्रभावित ही चले जाते हैं या फिर प्रभावित होकर कुछ करने की ठान लेते हैं (सिवा टिप्पणी करने के)। और यह तो जग जाहिर है कि हम टिप्पणी न मिलने वाली कोई बात लिखते ही नहीं हैं क्योंकि टिप्पणियाँ ही तो हम ब्लोगरों की वास्तविक सम्पदा है।
हजारों वर्षों पूर्व सिकन्दर, मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मोहम्मद गोरी आदि के द्वारा हम लुटते रहे थे। फिर पुर्तगाली, फ्रांसीसी आदि लुटेरों ने आकर हमें लूटा और व्यापारी का भेष धारण कर भारत को लूटने वाले अंग्रेज लुटेरों ने तो विश्व के समृद्धतम देश भारत को कंगाल बना कर ही छोड़ा। हमारे देश की धन-सम्पदा हमारे यहाँ न रहकर विदेशों में चली गई।
आज हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा धन-लोलुप तथाकथित व्यापारियों और सत्ता-लोलुप राजनीतिबाजों के द्वारा लुट रहे हैं। आज भी हमारे देश की धन-सम्पदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने देशों में ले जा रही हैं और हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व उसे स्विस बैंकों में भेजे जा रहे हैं।
आज अमरीका, रूस, जर्मनी, प्रांस और चीन जैसे शक्तिशाली देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमन्त्री आदि का भारत आगमन हो रहा है। क्या वे भारत की विदेशों में बढ़ी हुई साख या सुदृढ़ आर्थिक अर्थ-व्यवस्था से प्रभावित होकर यहाँ आ रहे हैं? कदापि नहीं! उनका मात्र उद्देश्य भारत के बाजार का दोहन करना ही है। स्पष्ट है कि भविष्य में भी हम लुटते ही रहेंगे क्योंकि हमारे देश के कर्ता-धर्ता, अपने राष्ट्र के हितों को ताक में रखकर, उनकी योजनाओं को स्वीकार करते हुए हमारे लुटे जाने के दस्तावेजों पर मुहर लगाए चले जा रहे हैं।
पर हम हैं कि अपनी रचनाओं और उन पर मिली टिप्पणियों पर मुग्ध हैं। हमें अपना लुटना दिखाई ही नहीं देता। हमें लगता ही नहीं कि हम ऐसा कुछ लिखें जिसे देश के करोड़ों लोग पढ़ें और उन्हें समझ में आ जाए कि हम सब लुटे जा रहे हैं, वे अपना लुटना देखकर आक्रोश में आ जाएँ, क्रान्ति करने की ठान लें।
पर क्यों लिखें हम कुछ ऐसा? ऐसा लिखने से हमें टिप्पणियाँ तो नहीं मिलने वाली हैं, गैर-ब्लोगर लोग हमारे पोस्टों को पढ़कर या तो अप्रभावित ही चले जाते हैं या फिर प्रभावित होकर कुछ करने की ठान लेते हैं (सिवा टिप्पणी करने के)। और यह तो जग जाहिर है कि हम टिप्पणी न मिलने वाली कोई बात लिखते ही नहीं हैं क्योंकि टिप्पणियाँ ही तो हम ब्लोगरों की वास्तविक सम्पदा है।
Monday, December 20, 2010
भारत में मुसलमानों की सफलता के कारण
(सामग्री 'आचार्य चतुरसेन' के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)
हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ
लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-ये ही आज राजपूत, गूजर, जाट, खत्री, अहीर आदि के रूप में हैं।
परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापित करते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।
विभाजक सत्ता
जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।
भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन
मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।
हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण
जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।
दूषित युद्धनीति
राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।
दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।
तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।
मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।
हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।
यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।
सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।
मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके - उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।
हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ
लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-ये ही आज राजपूत, गूजर, जाट, खत्री, अहीर आदि के रूप में हैं।
परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापित करते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।
विभाजक सत्ता
जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।
भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन
मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।
हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण
जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।
दूषित युद्धनीति
राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।
दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।
तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।
मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।
हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।
यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।
सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।
मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके - उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।
Saturday, December 18, 2010
हम.... याने कि करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े
शिरीष के सूखे फल की भाँति, जो कि वृक्ष के फूल-पत्ते झड़ जाने तथा पेड़ के ठूँठ जैसा हो जाने के बावजूद भी, पेड़ से लटकते और खड़खड़ाते ही रहता है, हम भी, साठ साल की उम्र पार कर जाने परवाह न करते हुए, ब्लोगिंग और इंटरनेट के संसार रूपी वृक्ष के सूखे फल बनकर लटके ही हुए हैं। साफ जाहिर है कि "कब्र में पाँव लटक रहा है" फिर भी हम "सींग कटा कर बछड़ों में शामिल" हैं। हमें पता है कि "अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता" और "अकेला हँसता भला न रोता भला", फिर भी हम यह सोचकर कि "जब ओखली में सर दिया तो मूसलों से क्या डरना" अपने ब्लोग में अकेले "अपनी ही हाँके जा रहे हैं" क्योंकि यह ब्लोगिंग हमारे लिए "उगले तो अंधा, खाए तो कोढ़ी" याने कि "साँप के मुँह में छुछूंदर" बनकर रह गई है।
पाँच-छः साल पहले स्वेच्छा से सेवानिवृति लेकर अतिरिक्त आमदनी की आशा लेकर नेट की दुनिया में आए थे, शुरू-शुरू में अंग्रेजी ब्लोगिंग से कुछ कमाई की भी, भले ही वह "ऊँट के मुँह में जीरा" जैसी रही हो। किन्तु बाद में फँस गए हिन्दी ब्लोगिंग के चक्कर में और हमारी "गरीबी में आटा गीला" होने लगा क्योंकि इस चक्कर में फँस जाने के बाद ही हमें पता चला कि "इन तिलों में तेल नहीं है"। अब तो आप समझ ही चुके होंगे कि हम सिर्फ यही कहना चाहते हैं कि "आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास"। हमारे साथ तो अब तक "करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े" जैसी ही स्थिति बनी रही है पर हमने भी सोच लिया है "जितना पावे उतना खावे, ना पावे तो भूखे सो जावे" क्योंकि ये हिन्दी ब्लोगिंग तो हमारे पास "आई है जान के साथ पर जाएगी जनाजे के साथ"। इतना पढ़कर अब तो आप यही सोच रहे होंगे कि अजब सनकी बुड्ढा है ये तो, "अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग" वाला।
भले ही हमारा ब्लोग "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा" हो पर हम तो "कर लिया सो काम, भज लिया सो राम" का सिद्धान्त अपना कर अपने इस ब्लोग में पोस्ट पेले ही चले जाएँगे। कभी न कभी तो "अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी" जैसे हमारा भी कोई पोस्ट आप लोगों को पसंद आएगा ही। हम तो सिर्फ यही जानते हैं कि "अटकेगा सो भटकेगा", और फिर "खाली बनिया क्या करे, इस कोठी का धान उस कोठी में धरे"। हो सकता है "कर सेवा तो खा मेवा" जैसे कभी हिन्दी ब्लोगिंग से आमदनी होना भी चालू हो जाए क्योंकि आप तो जानते ही हैं "बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख"। पर हमें तो यह भी सोचना पड़ता है कि ऐसा होना हमारे लिए "का वर्षा जब कृषी सुखाने" जैसा न हो जाए क्योंकि वैसा समय आने तक कहीं हम लुढ़क ना चुके हों। पर चिंता करने की कोई बात ही नहीं है क्योंकि "आदमी को ढाई गज कफन काफी है"!
पाँच-छः साल पहले स्वेच्छा से सेवानिवृति लेकर अतिरिक्त आमदनी की आशा लेकर नेट की दुनिया में आए थे, शुरू-शुरू में अंग्रेजी ब्लोगिंग से कुछ कमाई की भी, भले ही वह "ऊँट के मुँह में जीरा" जैसी रही हो। किन्तु बाद में फँस गए हिन्दी ब्लोगिंग के चक्कर में और हमारी "गरीबी में आटा गीला" होने लगा क्योंकि इस चक्कर में फँस जाने के बाद ही हमें पता चला कि "इन तिलों में तेल नहीं है"। अब तो आप समझ ही चुके होंगे कि हम सिर्फ यही कहना चाहते हैं कि "आए थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास"। हमारे साथ तो अब तक "करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े" जैसी ही स्थिति बनी रही है पर हमने भी सोच लिया है "जितना पावे उतना खावे, ना पावे तो भूखे सो जावे" क्योंकि ये हिन्दी ब्लोगिंग तो हमारे पास "आई है जान के साथ पर जाएगी जनाजे के साथ"। इतना पढ़कर अब तो आप यही सोच रहे होंगे कि अजब सनकी बुड्ढा है ये तो, "अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग" वाला।
भले ही हमारा ब्लोग "कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा जोड़ा" हो पर हम तो "कर लिया सो काम, भज लिया सो राम" का सिद्धान्त अपना कर अपने इस ब्लोग में पोस्ट पेले ही चले जाएँगे। कभी न कभी तो "अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी" जैसे हमारा भी कोई पोस्ट आप लोगों को पसंद आएगा ही। हम तो सिर्फ यही जानते हैं कि "अटकेगा सो भटकेगा", और फिर "खाली बनिया क्या करे, इस कोठी का धान उस कोठी में धरे"। हो सकता है "कर सेवा तो खा मेवा" जैसे कभी हिन्दी ब्लोगिंग से आमदनी होना भी चालू हो जाए क्योंकि आप तो जानते ही हैं "बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख"। पर हमें तो यह भी सोचना पड़ता है कि ऐसा होना हमारे लिए "का वर्षा जब कृषी सुखाने" जैसा न हो जाए क्योंकि वैसा समय आने तक कहीं हम लुढ़क ना चुके हों। पर चिंता करने की कोई बात ही नहीं है क्योंकि "आदमी को ढाई गज कफन काफी है"!
Friday, December 17, 2010
हर कोई यह सोचता है कि मैं संसार को बदल दूँगा
हर कोई यह सोचता है कि मैं संसार को बदल दूँगा पर यह कोई नहीं सोचता कि मैं स्वयं को बदल लूँ।
लियो टॉल्स्टाय
अपनी तुलना इस संसार के किसी अन्य व्यक्ति से कभी भी न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो स्वयं का अपमान करते हैं।
एलेन स्ट्राइक
यदि हम उस व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते जिसे कि हम देख रहे हैं तो हम भगवान से कैसे प्रेम कर सकेंगे जिन्हें कि हम देख नहीं सकते?
मदर टेरेसा
विजय का अर्थ हमेशा सर्वप्रथम होना नहीं होता बल्कि विजय का अर्थ होता है कि आप किसी काम को पहले से बेहतर ढंग से कर रहे हैं।
बोनी ब्लेयर
मैं यह नहीं कहूँगा कि मैं 1000 बार असफल हुआ बल्कि मैं यह कहूँगा कि असफल होने के 1000 रास्ते हैं।
थामस एडीसन
हर किसी पर विश्वास कर लेना खतरनाक बात है पर उस से भी खतरनाक बात है किसी पर भी विश्वास न करना।
अब्राहम लिंकन
यदि कोई यह समझता है कि उसने अपने जीवन में कभी भी कोई गलती नहीं की है तो इसका मतलब हुआ कि उसने अपने जीवन में कभी भी कुछ नया नहीं किया।
आइंसटीन
विश्वास, वादा, सम्बन्ध और दिल - इन चारों में से कभी किसी को न तोड़ें टूटने पर ये आवाज उत्पन्न नहीं करते सिर्फ अत्यधिक दर्द उत्पन्न करते हैं।
चार्ल्स
लियो टॉल्स्टाय
अपनी तुलना इस संसार के किसी अन्य व्यक्ति से कभी भी न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो स्वयं का अपमान करते हैं।
एलेन स्ट्राइक
यदि हम उस व्यक्ति से प्रेम नहीं कर सकते जिसे कि हम देख रहे हैं तो हम भगवान से कैसे प्रेम कर सकेंगे जिन्हें कि हम देख नहीं सकते?
मदर टेरेसा
विजय का अर्थ हमेशा सर्वप्रथम होना नहीं होता बल्कि विजय का अर्थ होता है कि आप किसी काम को पहले से बेहतर ढंग से कर रहे हैं।
बोनी ब्लेयर
मैं यह नहीं कहूँगा कि मैं 1000 बार असफल हुआ बल्कि मैं यह कहूँगा कि असफल होने के 1000 रास्ते हैं।
थामस एडीसन
हर किसी पर विश्वास कर लेना खतरनाक बात है पर उस से भी खतरनाक बात है किसी पर भी विश्वास न करना।
अब्राहम लिंकन
यदि कोई यह समझता है कि उसने अपने जीवन में कभी भी कोई गलती नहीं की है तो इसका मतलब हुआ कि उसने अपने जीवन में कभी भी कुछ नया नहीं किया।
आइंसटीन
विश्वास, वादा, सम्बन्ध और दिल - इन चारों में से कभी किसी को न तोड़ें टूटने पर ये आवाज उत्पन्न नहीं करते सिर्फ अत्यधिक दर्द उत्पन्न करते हैं।
चार्ल्स
Thursday, December 16, 2010
देवनागरी लिपि - पूर्णतः वैज्ञानिक लिपि
शायद आपको पता होगा कि हमारी हिन्दी की वर्णमाला, वास्तव में देवनागरी वर्णमाला, पूर्णतः वैज्ञानिक है। वर्ण या अक्षर ध्वनि को प्रदर्शित करने वाले संकेत होते हैं और देवनागरी वर्णमाला को पूर्णतः ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर ही बनाया गया है। मनुष्य ध्वनि उत्पन्न करने के लिये अर्थात् बोलने के लिये कंठ से होठों तक के तंत्र का प्रयोग करता है और देवनागरी वर्णमाला में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि एक ही प्रकार से उत्पन्न होने वाली ध्वनियों का विशेष वर्ग हो।
कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है और उन ध्वनियों को जिनके उच्चारण के लिये उनके साथ स्वरों का मेल होना आवश्यक होता है व्यंजन कहा जाता है। देवनागरी के स्वर अ, आ इ, ई, उ, ऊ ए, ऐ, ओ, औ, अं तथा अः सीधे कंठ से उत्पन्न होते हैं तथा इनके बोलने में अन्य स्वर तंत्र जैसे कि जीभ, तालू, मूर्धा, होठ आदि का कहीं प्रयोग नहीं होता। इन 12 स्वरों के अतिरिक्त देवनागरी के चार और स्वर ऋ, ॠ, ऌ तथा ॡ हैं जो कि सीधे कंठ से उत्पन्न नहीं होते किन्तु माने स्वर ही जाते हैं। इनमें से अंतिम तीन स्वरों का प्रयोग केवल संस्कृत में ही होता है, इनका प्रयोग हिन्दी में बिल्कुल ही नहीं होता। अन्य लिपियों में भी सीधे कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर (vowel) कहा जाता है जैसे कि अंग्रेजी में a e i o u स्वर (vowel) हैं।
शेष 36 व्यंजन हैं जिन्हें कि उनकी उत्पत्ति के आधार पर आठ वर्गों में बाँटा गया है जो कि नीचे दर्शाये जा रहे हैं
क ख ग घ ङ (क वर्ग)
च छ ज झ ञ (ख वर्ग)
त थ द ध न (त वर्ग)
ट ठ ड ढ ण (ट वर्ग)
प फ ब भ म (प वर्ग)
य र ल व
स श ष ह
क्ष त्र ज्ञ
एक वर्ग के वर्णो के उच्चारण करने पर हर बार ध्वनि तंत्रों की एक ही जैसी क्रिया होती है जैसे कि प वर्ग के वर्णों को बोलने में दोनों होठ आपस में जुड़ कर अलग होंगे।
यहाँ पर यह भी बता देना उचित है कि ड़ तथा ढ़ की गणना देवनागरी के 52 अक्षरों में नहीं होती बल्कि ये संयुक्ताक्षर कहलाते हैं।
देवनागरी लिपि का पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर होने के ही कारण माना जाता है कि यह कम्प्यूटर के लिये सर्वथा उपयुक्त लिपि है किन्तु अक्षरों के अनेकों प्रकार से मेल होने की जटिलता के कारण इस लिपि में कैरेक्टर्स की संख्या का निर्धारण न हो पाने के कारण इसका कम्प्यूटर की भाषा में सही सही प्रयोग हो पाना अभी तक सम्भव नहीं हो सका है।
कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर कहा जाता है और उन ध्वनियों को जिनके उच्चारण के लिये उनके साथ स्वरों का मेल होना आवश्यक होता है व्यंजन कहा जाता है। देवनागरी के स्वर अ, आ इ, ई, उ, ऊ ए, ऐ, ओ, औ, अं तथा अः सीधे कंठ से उत्पन्न होते हैं तथा इनके बोलने में अन्य स्वर तंत्र जैसे कि जीभ, तालू, मूर्धा, होठ आदि का कहीं प्रयोग नहीं होता। इन 12 स्वरों के अतिरिक्त देवनागरी के चार और स्वर ऋ, ॠ, ऌ तथा ॡ हैं जो कि सीधे कंठ से उत्पन्न नहीं होते किन्तु माने स्वर ही जाते हैं। इनमें से अंतिम तीन स्वरों का प्रयोग केवल संस्कृत में ही होता है, इनका प्रयोग हिन्दी में बिल्कुल ही नहीं होता। अन्य लिपियों में भी सीधे कंठ से निकलने वाली ध्वनियों को स्वर (vowel) कहा जाता है जैसे कि अंग्रेजी में a e i o u स्वर (vowel) हैं।
शेष 36 व्यंजन हैं जिन्हें कि उनकी उत्पत्ति के आधार पर आठ वर्गों में बाँटा गया है जो कि नीचे दर्शाये जा रहे हैं
क ख ग घ ङ (क वर्ग)
च छ ज झ ञ (ख वर्ग)
त थ द ध न (त वर्ग)
ट ठ ड ढ ण (ट वर्ग)
प फ ब भ म (प वर्ग)
य र ल व
स श ष ह
क्ष त्र ज्ञ
एक वर्ग के वर्णो के उच्चारण करने पर हर बार ध्वनि तंत्रों की एक ही जैसी क्रिया होती है जैसे कि प वर्ग के वर्णों को बोलने में दोनों होठ आपस में जुड़ कर अलग होंगे।
यहाँ पर यह भी बता देना उचित है कि ड़ तथा ढ़ की गणना देवनागरी के 52 अक्षरों में नहीं होती बल्कि ये संयुक्ताक्षर कहलाते हैं।
देवनागरी लिपि का पूर्णतः वैज्ञानिक आधार पर होने के ही कारण माना जाता है कि यह कम्प्यूटर के लिये सर्वथा उपयुक्त लिपि है किन्तु अक्षरों के अनेकों प्रकार से मेल होने की जटिलता के कारण इस लिपि में कैरेक्टर्स की संख्या का निर्धारण न हो पाने के कारण इसका कम्प्यूटर की भाषा में सही सही प्रयोग हो पाना अभी तक सम्भव नहीं हो सका है।
Wednesday, December 15, 2010
महमूद गजनवी का सत्रह बार आक्रमण - इतिहास का सच या कपोल कल्पना?
हमारा इतिहास हमें बताता है कि महमूद गज़नवी ने सन् 1000-1027 के बीच भारत के राजाओं के साथ 17 बार आक्रमण किया था तथा भारत के पंजाब, मथुरा, गुर्जर आदि विस्तृत क्षेत्रों पदाक्रान्त किया था।
मथुरा किसी अन्य दिशा में है तो सोमनाथ किसी अन्य दिशा में। इसका अर्थ यह हुआ कि महमूद ने चतर्दिक् आक्रमण किया था और जिन क्षेत्रों में उसने आक्रमण किया था वह हजारों मील के दायरे में विस्तीर्ण था। उसके साथ हजारों-लाखों की संख्या में घुड़सवारों के साथ ही पैदलों की सेना थी। उस काल में आज जैसे मोटरयान, रेलयान और वायुयान जैसी सुविधाए उपलब्ध नहीं थीं अर्थात् महमूद की कुछ सेना तो घोड़ों पर चला करती थी और अधिकतर सेना पैदल चला करती थी। अब सवाल यह उत्पन्न होता है कि हजारों मील के क्षेत्र को पार करने के लिए उस पैदल सेना को कितना समय लगा होगा? आखिर उसकी सेना की गति क्या थी? क्या उसकी सेना दिन-रात चौबीसों घंटे चलते ही रहती थी या उन्हें पड़ाव भी डालना पड़ता रहा होगा?
भारत के क्षेत्र उसके लिए अनजाने स्थान थे इसलिए भारत के विभिन्न आक्रमणस्थलों तक पहुँचने के मार्गों का पता लगाने के लिए अवश्य ही उसे अपने जासूसों के साथ ही स्थानीय लोगों की सहायता भी लेनी पड़ती रही होगी। अपने आक्रमण के लिए सहायता पहुँचाने वाले स्थानीय लोग क्या तत्काल प्राप्त हो जाया करते थे? और यदि तत्काल नहीं प्राप्त होते थे तो वैसे लोगों को बहलाने-फुसलाने या खरीदने के लिए उसे कितना समय लगता था?
गज़नी से विभिन्न आक्रमण स्थलो तक के मार्ग भौगोलिक रूप से सिर्फ मैदानी ही नहीं थे जो कि आसानी के साथ पार कर लिए जा सकते हैं, बल्कि उनके मध्य अनेक अगम्य पर्वत-मालाएँ, अथाह जल को कलकल ध्वनि से प्रवाहित करने वाली चौड़ी तथा गहरी नदियाँ, जलरहित, कँटीले कैक्टस के रक्तवर्ण पुष्पों तथा रेत से सुसज्जित विशाल मरुभूमि भी थे। इन दुर्गम पहाड़ों-नदियों-मरुभूमि आदि को वह तथा उसकी सेना कैसे और कितने समय में पार किया करती थी?
मार्ग के मध्य अवश्य ही अनेक छोटे-मोटे राज्य, जागीर आदि भी थे जिनकी सुरक्षा के लिए उनके अपने दुर्ग थे। हो सकता है कि उनमें से अधिकांश ने महमूद के समक्ष समर्पण कर दिया हो, पर कुछ ने अवश्य ही युद्ध किया होगा। उस काल में युद्ध के दौरान अनेक बार दुर्गों को महीनों तक घेरा भी डालना होता था। ऐसे दुर्गों को जीतने के लिए उसकी सेना ने कितने समय तक घेरा डाला होगा?
इतिहास यह भी बताता है कि प्रायः अपनी जीत के पश्चात् वह लूटी अपार सम्पदा को सुरक्षित करने तथा युद्धबन्दियों को गुलाम के रूप में बेचने के लिए वापस गज़नी चला जाया करता था। कुछ काल वहाँ रह कर वह पुनः आक्रमण के लिए भारत आता था। इस प्रकार बार-बार आने-जाने में उसने कितना समय व्यतीत किया होगा?
उस काल की परिस्थितियों तथा सुविधाओं को दृष्टिगत रखते हुए सत्रह बार आक्रमण करने के लिए क्या सत्ताइस-अट्ठाइस वर्षों का समय पर्याप्त है? यदि यह समय पर्याप्त नहीं है तो गज़नी के महमूद द्वारा भारत पर सत्रह बार आक्रमण करना इतिहास का सच है या मात्र कपोल कल्पना?
मथुरा किसी अन्य दिशा में है तो सोमनाथ किसी अन्य दिशा में। इसका अर्थ यह हुआ कि महमूद ने चतर्दिक् आक्रमण किया था और जिन क्षेत्रों में उसने आक्रमण किया था वह हजारों मील के दायरे में विस्तीर्ण था। उसके साथ हजारों-लाखों की संख्या में घुड़सवारों के साथ ही पैदलों की सेना थी। उस काल में आज जैसे मोटरयान, रेलयान और वायुयान जैसी सुविधाए उपलब्ध नहीं थीं अर्थात् महमूद की कुछ सेना तो घोड़ों पर चला करती थी और अधिकतर सेना पैदल चला करती थी। अब सवाल यह उत्पन्न होता है कि हजारों मील के क्षेत्र को पार करने के लिए उस पैदल सेना को कितना समय लगा होगा? आखिर उसकी सेना की गति क्या थी? क्या उसकी सेना दिन-रात चौबीसों घंटे चलते ही रहती थी या उन्हें पड़ाव भी डालना पड़ता रहा होगा?
भारत के क्षेत्र उसके लिए अनजाने स्थान थे इसलिए भारत के विभिन्न आक्रमणस्थलों तक पहुँचने के मार्गों का पता लगाने के लिए अवश्य ही उसे अपने जासूसों के साथ ही स्थानीय लोगों की सहायता भी लेनी पड़ती रही होगी। अपने आक्रमण के लिए सहायता पहुँचाने वाले स्थानीय लोग क्या तत्काल प्राप्त हो जाया करते थे? और यदि तत्काल नहीं प्राप्त होते थे तो वैसे लोगों को बहलाने-फुसलाने या खरीदने के लिए उसे कितना समय लगता था?
गज़नी से विभिन्न आक्रमण स्थलो तक के मार्ग भौगोलिक रूप से सिर्फ मैदानी ही नहीं थे जो कि आसानी के साथ पार कर लिए जा सकते हैं, बल्कि उनके मध्य अनेक अगम्य पर्वत-मालाएँ, अथाह जल को कलकल ध्वनि से प्रवाहित करने वाली चौड़ी तथा गहरी नदियाँ, जलरहित, कँटीले कैक्टस के रक्तवर्ण पुष्पों तथा रेत से सुसज्जित विशाल मरुभूमि भी थे। इन दुर्गम पहाड़ों-नदियों-मरुभूमि आदि को वह तथा उसकी सेना कैसे और कितने समय में पार किया करती थी?
मार्ग के मध्य अवश्य ही अनेक छोटे-मोटे राज्य, जागीर आदि भी थे जिनकी सुरक्षा के लिए उनके अपने दुर्ग थे। हो सकता है कि उनमें से अधिकांश ने महमूद के समक्ष समर्पण कर दिया हो, पर कुछ ने अवश्य ही युद्ध किया होगा। उस काल में युद्ध के दौरान अनेक बार दुर्गों को महीनों तक घेरा भी डालना होता था। ऐसे दुर्गों को जीतने के लिए उसकी सेना ने कितने समय तक घेरा डाला होगा?
इतिहास यह भी बताता है कि प्रायः अपनी जीत के पश्चात् वह लूटी अपार सम्पदा को सुरक्षित करने तथा युद्धबन्दियों को गुलाम के रूप में बेचने के लिए वापस गज़नी चला जाया करता था। कुछ काल वहाँ रह कर वह पुनः आक्रमण के लिए भारत आता था। इस प्रकार बार-बार आने-जाने में उसने कितना समय व्यतीत किया होगा?
उस काल की परिस्थितियों तथा सुविधाओं को दृष्टिगत रखते हुए सत्रह बार आक्रमण करने के लिए क्या सत्ताइस-अट्ठाइस वर्षों का समय पर्याप्त है? यदि यह समय पर्याप्त नहीं है तो गज़नी के महमूद द्वारा भारत पर सत्रह बार आक्रमण करना इतिहास का सच है या मात्र कपोल कल्पना?
Tuesday, December 14, 2010
भारत में नापतौल पद्धति
मनुष्य जीवन के लिए नापतौल की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। यह कहना अत्यन्त कठिन है कि नापतौल पद्धति का आविष्कार कब और कैसे हुआ होगा किन्तु अनुमान लगाया जा सकता है कि मनुष्य के बौद्धिक विकास के साथ ही साथ आपसी लेन-देन की परम्परा आरम्भ हुई होगी और इस लेन-देन के लिए उसे नापतौल की आवश्यकता पड़ी होगी। प्रगैतिहासिक काल से ही मनुष्य नापतौल पद्धतियों का प्रयोग करता रहा है। समय मापने के लिए वृक्षों की छाया को नापने चलन से लेकर कोणार्क के सूर्य मन्दिर के चक्र तक अनेक पद्धतियों का प्रयोग किया जाता रहा है।
भारत में विभिन्न कालों में नापतौल की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। मनुस्मृति के 8वें अध्याय के 403वें श्लोक में कहा गया हैः
राजा को प्रति छः माह पश्चात् भारों (बाटों) तथा तुला (तराजू) की सत्यता सुनिश्चित करके राजकीय मुहर द्वारा सत्यापित करना चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से नापतौल की पद्धतियाँ रही हैं। प्रचलित जानकारी के अनुसार सिन्धु घाटी की पुरातात्विक खुदाई में मिले नापतौल के विभिन्न अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व 3000-1500 में सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों ने मानकीकरण की एक परिष्कृत प्रणाली विकसित किया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के इस नापतौल पद्धति को विश्व के प्राचीनतम पद्धतियों में से एक माना जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की नापतौल प्रणाली कितनी परिष्कृत थी यह इसी से पता चलता है कि उस काल में भवन निर्माण के लिए प्रयोग की जाने वाली ईंटों की लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की माप सुनिश्चित थी जो कि 4:2:1 के अनुपात में होती थीं।
आज से लगभग 2400 वर्ष पहले चंद्रगुप्त मौर्य काल में भी माप तथा नापतौल के लिए अच्छी प्रकार से परिभाषित पद्धति का प्रयोग किया जाता था तथा राज्य के द्वारा माप के भारों (बाटों) एवं तुला (तराजू) की सत्यता सत्यापिक करने की परम्परा थी। उस काल की प्रणाली के अनुसार भार की सबसे छोटी इकाई एक परमाणु तथा लंबाई की सबसे छोटी इकाई अंगुल थी। लम्बी दूरी के लिए योजन का प्रयोग किया जाता था।
मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर ने भी नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया था जिसका प्रयोग सम्पूर्ण देश में किया जाता था। अबुल फज़ल रचित आईने अकबरी के अनुसार उस काल में भूमि नापने की इकाई "इलाही गज" हुआ करती थी जो कि वर्तमान 33 इंच से 34 के बराबर थी। वजन नापने की इकाई "सेर" हुआ करता था।
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भी देश भर में नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया वजन की इकाइयाँ मन, सेर, छँटाक, तोला, माशा और रत्ती थीं। भूमि मापने के लिए मील, एकड़, गज, फुट, इंच का प्रयोग किया जाता था। अंग्रेजों के द्वारा विकसित उस प्रणाली का प्रयोग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी सन् 1956 तक होता रहा। सन् 1956 में भारत सरकार ने नापतौल के नए मानक स्थापित किया और देश भर में नापतौल की मीटरिक पद्धति का चलन हो गया।
नीचे नापतौल की कुछ ब्रिटिश पद्धतियों के रूप दिए जा रहे हैं:
वजन
8 रत्ती = 1 माशा
12 माशा = 1 तोला
5 तोला = 1 छँटाक
16 छँटाक = 1 सेर
40 सेर = 1 मन
लंबाई
12 इंच = 1 फुट
3 फुट = 1 गज
220 गज = 1 फर्लांग
8 फर्लांग = 1 मील
मुद्रा
4 पैसा = 1 आना
16 आना = 1 रुपया
भारत में विभिन्न कालों में नापतौल की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलित रही हैं। मनुस्मृति के 8वें अध्याय के 403वें श्लोक में कहा गया हैः
राजा को प्रति छः माह पश्चात् भारों (बाटों) तथा तुला (तराजू) की सत्यता सुनिश्चित करके राजकीय मुहर द्वारा सत्यापित करना चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से नापतौल की पद्धतियाँ रही हैं। प्रचलित जानकारी के अनुसार सिन्धु घाटी की पुरातात्विक खुदाई में मिले नापतौल के विभिन्न अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व 3000-1500 में सिन्धु घाटी सभ्यता के निवासियों ने मानकीकरण की एक परिष्कृत प्रणाली विकसित किया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के इस नापतौल पद्धति को विश्व के प्राचीनतम पद्धतियों में से एक माना जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता की नापतौल प्रणाली कितनी परिष्कृत थी यह इसी से पता चलता है कि उस काल में भवन निर्माण के लिए प्रयोग की जाने वाली ईंटों की लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊँचाई की माप सुनिश्चित थी जो कि 4:2:1 के अनुपात में होती थीं।
आज से लगभग 2400 वर्ष पहले चंद्रगुप्त मौर्य काल में भी माप तथा नापतौल के लिए अच्छी प्रकार से परिभाषित पद्धति का प्रयोग किया जाता था तथा राज्य के द्वारा माप के भारों (बाटों) एवं तुला (तराजू) की सत्यता सत्यापिक करने की परम्परा थी। उस काल की प्रणाली के अनुसार भार की सबसे छोटी इकाई एक परमाणु तथा लंबाई की सबसे छोटी इकाई अंगुल थी। लम्बी दूरी के लिए योजन का प्रयोग किया जाता था।
मध्यकाल में मुगल बादशाह अकबर ने भी नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया था जिसका प्रयोग सम्पूर्ण देश में किया जाता था। अबुल फज़ल रचित आईने अकबरी के अनुसार उस काल में भूमि नापने की इकाई "इलाही गज" हुआ करती थी जो कि वर्तमान 33 इंच से 34 के बराबर थी। वजन नापने की इकाई "सेर" हुआ करता था।
ब्रिटिश काल में अंग्रेजों ने भी देश भर में नापतौल की एकरूप (uniform) प्रणाली विकसित किया वजन की इकाइयाँ मन, सेर, छँटाक, तोला, माशा और रत्ती थीं। भूमि मापने के लिए मील, एकड़, गज, फुट, इंच का प्रयोग किया जाता था। अंग्रेजों के द्वारा विकसित उस प्रणाली का प्रयोग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी सन् 1956 तक होता रहा। सन् 1956 में भारत सरकार ने नापतौल के नए मानक स्थापित किया और देश भर में नापतौल की मीटरिक पद्धति का चलन हो गया।
नीचे नापतौल की कुछ ब्रिटिश पद्धतियों के रूप दिए जा रहे हैं:
वजन
8 रत्ती = 1 माशा
12 माशा = 1 तोला
5 तोला = 1 छँटाक
16 छँटाक = 1 सेर
40 सेर = 1 मन
लंबाई
12 इंच = 1 फुट
3 फुट = 1 गज
220 गज = 1 फर्लांग
8 फर्लांग = 1 मील
मुद्रा
4 पैसा = 1 आना
16 आना = 1 रुपया
Monday, December 13, 2010
हिन्दी ब्लोगरों के गुणवत्तादल (Bloggers' Quality Circles)
यद्यपि अन्य भाषाओं, विशेषतः अंग्रेजी भाषा, में ब्लोगिंग की तुलना में हिन्दी ब्लोगिंग का विकास बहुत धीरे हुआ किन्तु यह भी सही है कि हिन्दी ब्लोगिंग अब बड़ी तेजी के साथ पैर पसारते जा रही है। हिन्दी ब्लोगिंग को अब मीडिया भी महत्व देने लगी है। निकट भविष्य में केन्द्र तथा राज्यों के सरकारों को भी हिन्दी ब्लोगिंग को महत्व देने के लिए विवश होना पड़ेगा। हिन्दी ब्लोग्स को अब सर्च इंजिन से भी पाठक प्राप्त होने लग गए हैं तथापि हिन्दी ब्लोग्स के पाठकों की संख्या आज भी बहुत कम है।
देखा जाए तो अंग्रेजी ब्लोगिंग और हिन्दी ब्लोगिंग में बहुत सारे अन्तर हैं किन्तु सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जहाँ अंग्रेजी ब्लोगिंग एक आभासी दुनिया (virtual world) के रूप में लोगों के समक्ष आया वहीं हिन्दी ब्लोगिंग एक ब्लोगर परिवार या ब्लोगर समाज के रूप में उभर रहा है। हिन्दी ब्लोगिंग का परिवार या समाज के रूप में उभरने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि देश-विदेश के हिन्दी ब्लोगरों में परस्पर प्रेम बढ़ते जा रहा है और वे एक-दूसरे के सुख-दुःख के सहभागी होते जा रहे हैं। किन्तु इसका एक ऋणात्मक पहलू यह भी है कि हिन्दी ब्लोगरों को पाठकों से जितना जुड़ना चाहिए, उतना वे जुड़ नहीं पा रहे हैं। पोस्ट लेखन के समय जितना ध्यान ब्लोगरों तथा उनसे मिलने वाली टिप्पणियों का रखा जा रहा है, उतना ध्यान पाठकों की रुचि की ओर नहीं दिया जा रहा है और इसीलिए ब्लोगरों के पोस्टों को प्रायः ब्लोगर ही पढ़ते हैं तथा उन्हें सामान्य पाठक नहीं मिल पाते। यदि हम सिर्फ अपनी और अन्य ब्लोगरों की रुचि को ही ध्यान में रखकर पोस्ट लिखेंगे और नेट पर आने वाले लोग क्या चाहते हैं इस बात का ध्यान ही नहीं रखेंगे तो हमें सामान्य पाठक कैसे मिल पाएँगे? ब्लोगरों में परस्पर सौहार्द्र यद्यपि बहुत अच्छी बात है किन्तु ब्लोगरों के लिए एक बड़ी संख्या में सामान्य वर्ग के पाठकों का होना भी अति आवश्यक है।
ब्लोग के रूप में हमें एक बहुत ही सशक्त माध्यम मिला है। ब्लोग में आपके द्वारा लिखे गए पोस्ट को अस्वीकार करके छपने से रोक देने वाला कोई संपादक नहीं है। यहाँ पर आपको अपनी बात कहने से कोई रोक नहीं सकता। आप चाहें तो अपने ब्लोग के माध्यम से देश और समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। आप अपनी भाषा का चतुर्दिक विकास कर सकते हैं। क्या यह दुःख की बात नहीं है कि हमारी भाषा हिन्दी आज भी अपने ही देश में अंग्रेजी की तुलना में दोयम दर्जे की बनी हुई है? हमारे बच्चों को अंग्रेजी की वर्णमाला रटे हुए हैं किन्तु वे हिन्दी की वर्णमाला जानते तक नहीं, वे अंग्रेजी के बारह माह का नाम बता सकते हैं किन्तु भारतीय कैलेण्डर के महीनों नाम नहीं जानते, यहाँ तक कि कभी चौंसठ कहने पर उन्हें पूछना पड़ता है कि चौंसठ का अर्थ "सिक्स्टी फोर" ही होता है न? याने कि हमारे बच्चे हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। हम अपने पोस्ट के माध्यम से सरकार को एक ऐसी शिक्षा नीति बनाने के लिए विवश कर सकते हैं जो अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी को प्रधानता दे। ऐसा कहने में मेरा मन्तव्य अंग्रेजी का विरोध करना नहीं है, मैं अंग्रेजी तो क्या विश्व के किसी भी भाषा का विरोध कर ही नहीं सकता क्योंकि मेरा मानना है कि सभी भाषाएँ महान हैं। किन्तु मैं अपनी भाषा को अपने ही देश में किसी दूसरी भाषा की तुलना में दोयम दर्जे का होते देखना भी सहन नहीं कर सकता। और मेरा विश्वास है कि हिन्दी के ब्लोगर होने के नाते आप भी मेरे मत से सहमत होंगे। हम अपनी ब्लोगिंग से अपनी भाषा को उच्च स्थान दिला सकते हैं।
विक्रम संवत और शक संवत की अपेक्षा हमारे देश में ग्रैगेरियन कैलेण्डर को ही प्रधानता मिली हुई है। शक संवत को भारतीय पंचांग बनने के लिए ग्रैगेरियन कैलेण्डर का सहारा लेना पड़ता है। हमारे देश की नीतियों ने हमारी ही संस्कृति और सभ्यता को हमारी नजरों में गौण बना कर रख दिया है। आप अपने पोस्ट में इन बातों को उभार कर अपनी संस्कृति और सभ्यता को पुनः उनका स्थान दिला सकते हैं।
आज देश भर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद छाए हुए हैं। साधारण नमक तक हमें दूसरे देश की कम्पनियों से खरीदना पड़ता है। हमारी सरकार की नीति ने ही उन्हें बढ़ावा दे रखा है भारी मुनाफे लेकर अपने उत्पाद बेचकर हमें लूटने के लिए। हमारे देश के कुटीर उद्योग इनके कारण से पंगु हो गए हैं। हम ब्लोगर्स चाहें तो अपने पोस्ट के माध्यम से अपने देश की संपत्ति को दूसरे देशों में लूट कर ले जाने से रोक सकते हैं।
हम ब्लोगर सब कुछ करने में समर्थ हैं किन्तु सब कुछ तभी सम्भव होगा जब हमारे पास पाठकों की विशाल संख्या हो, हम अपने पोस्ट के माध्यम से देश के लाखों-करोड़ों लोगों को प्रभावित कर सकें। हमारे ब्लोग के पाठकों का न होना हमारे लिए एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का निराकरण करने के लिए सबसे अच्छा तरीका होगा हिन्दी ब्लोगरों के गुणवत्ता दल (Bloggers' Quality Circles) बनाना।
क्या है गुणवत्ता दल (Quality Circle)
गुणवत्ता दल उन व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष क्रिया-कलाप या प्रक्रिया का मूल्यांकन करने, उसकी समस्याओं को समझ कर समस्या-समाधान का प्रयास करते हैं। प्रायः यह समूह स्वयंसेवी व्यक्तियों का होता है। समूह के सदस्यों का कार्य होता है समस्यों को पहचानना, उनका विश्लेषण करना और उनका समाधान ढूँढना। वैसे तो प्रायः गुणवत्ता दलों का गठन संस्था आदि के प्रबंधन की समस्याओं के निराकरण के लिए होता है किन्तु ऐसे लोगों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जो कि एक ही प्रकार के कार्य में रत हों जैसे कि एक ही संस्थान के विद्यार्थियों, एक ही क्षेत्र के उपभोक्ताओं, एक ही मुहल्ले के सदस्यों आदि के गुणवत्ता दल। चूँकि हिन्दी के समस्त ब्लोगर भी एक ही प्रकार के कार्य में रत हैं इसलिए हिन्दी ब्लोगरों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जिनका उद्देश्य हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं, जैसे कि पाठकों की कमी, किसी प्रकार के आय का न होना, सरकारी विभाग से ब्लोगों को मान्यता तथा विज्ञापनादि दिलवाना आदि, का निराकरण करना हो।
गुणवत्ता दल की अवधारणा
कहा जाता है कि जूता पहनने वाले को ही पता होता है कि जूता कहाँ काटता है, किसी अन्य को इसका पता नहीं होता। इसी प्रकार से एक ही प्रकृति के कार्य में रत व्यक्तियों को ही अपने कार्य की समस्याओं का सही आकलन कर सकते हैं तथा उनका निराकरण कर सकते हैं। समस्या समाधान हेतु किसी एक ही व्यक्ति के प्रयास की अपेक्षा यदि उस समस्या से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक समस्या का समाधान सुझाए तो वह समाधान अधिक प्रभावशाली और सार्थक होगा। मूलतः यही सिद्धान्त गुणवत्ता दल की परिकल्पना का आधार है।
गुणवत्ता दल का इतिहास
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान के उत्पादों की विश्वनीयता निम्नतम स्तर पर पहुँच गई जिसके परिणामस्वरूप जापान की अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। जापान सरकार ने इस स्थिति से उबरने के लिए सन् 1950 में अमरीकी प्रबंधन विद्वानों डॉ. डेमंग तथा डॉ. जुरान को आमन्त्रित कर सेमिनार करवाए किन्तु उसका भी कुछ अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ। अन्ततः सन् 1962 में डॉ. इशिकावा ने गुणवत्ता नियन्त्रक दल के विचार को जन्म दिया जो कि समस्याओं के निराकरण में अनअपेक्षित रूप से प्रभावशाली रहा। उस समय उपजी गुणवत्ता दल के सिद्धान्त की उस चिंगारी ने आज दावानल का रूप धारण कर लिया है तथा समस्त विश्व में करोड़ों की संख्या में लोग गुणवत्ता दलों का गठन कर चुके हैं।
मेरा मानना है कि यदि हिन्दी ब्लोगर्स भी गुणवत्ता दलों का गठन करें तो हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं का आसानी के साथ निराकरण हो सकेगा।
देखा जाए तो अंग्रेजी ब्लोगिंग और हिन्दी ब्लोगिंग में बहुत सारे अन्तर हैं किन्तु सबसे बड़ा अन्तर यह है कि जहाँ अंग्रेजी ब्लोगिंग एक आभासी दुनिया (virtual world) के रूप में लोगों के समक्ष आया वहीं हिन्दी ब्लोगिंग एक ब्लोगर परिवार या ब्लोगर समाज के रूप में उभर रहा है। हिन्दी ब्लोगिंग का परिवार या समाज के रूप में उभरने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि देश-विदेश के हिन्दी ब्लोगरों में परस्पर प्रेम बढ़ते जा रहा है और वे एक-दूसरे के सुख-दुःख के सहभागी होते जा रहे हैं। किन्तु इसका एक ऋणात्मक पहलू यह भी है कि हिन्दी ब्लोगरों को पाठकों से जितना जुड़ना चाहिए, उतना वे जुड़ नहीं पा रहे हैं। पोस्ट लेखन के समय जितना ध्यान ब्लोगरों तथा उनसे मिलने वाली टिप्पणियों का रखा जा रहा है, उतना ध्यान पाठकों की रुचि की ओर नहीं दिया जा रहा है और इसीलिए ब्लोगरों के पोस्टों को प्रायः ब्लोगर ही पढ़ते हैं तथा उन्हें सामान्य पाठक नहीं मिल पाते। यदि हम सिर्फ अपनी और अन्य ब्लोगरों की रुचि को ही ध्यान में रखकर पोस्ट लिखेंगे और नेट पर आने वाले लोग क्या चाहते हैं इस बात का ध्यान ही नहीं रखेंगे तो हमें सामान्य पाठक कैसे मिल पाएँगे? ब्लोगरों में परस्पर सौहार्द्र यद्यपि बहुत अच्छी बात है किन्तु ब्लोगरों के लिए एक बड़ी संख्या में सामान्य वर्ग के पाठकों का होना भी अति आवश्यक है।
ब्लोग के रूप में हमें एक बहुत ही सशक्त माध्यम मिला है। ब्लोग में आपके द्वारा लिखे गए पोस्ट को अस्वीकार करके छपने से रोक देने वाला कोई संपादक नहीं है। यहाँ पर आपको अपनी बात कहने से कोई रोक नहीं सकता। आप चाहें तो अपने ब्लोग के माध्यम से देश और समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। आप अपनी भाषा का चतुर्दिक विकास कर सकते हैं। क्या यह दुःख की बात नहीं है कि हमारी भाषा हिन्दी आज भी अपने ही देश में अंग्रेजी की तुलना में दोयम दर्जे की बनी हुई है? हमारे बच्चों को अंग्रेजी की वर्णमाला रटे हुए हैं किन्तु वे हिन्दी की वर्णमाला जानते तक नहीं, वे अंग्रेजी के बारह माह का नाम बता सकते हैं किन्तु भारतीय कैलेण्डर के महीनों नाम नहीं जानते, यहाँ तक कि कभी चौंसठ कहने पर उन्हें पूछना पड़ता है कि चौंसठ का अर्थ "सिक्स्टी फोर" ही होता है न? याने कि हमारे बच्चे हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। हम अपने पोस्ट के माध्यम से सरकार को एक ऐसी शिक्षा नीति बनाने के लिए विवश कर सकते हैं जो अंग्रेजी की अपेक्षा हिन्दी को प्रधानता दे। ऐसा कहने में मेरा मन्तव्य अंग्रेजी का विरोध करना नहीं है, मैं अंग्रेजी तो क्या विश्व के किसी भी भाषा का विरोध कर ही नहीं सकता क्योंकि मेरा मानना है कि सभी भाषाएँ महान हैं। किन्तु मैं अपनी भाषा को अपने ही देश में किसी दूसरी भाषा की तुलना में दोयम दर्जे का होते देखना भी सहन नहीं कर सकता। और मेरा विश्वास है कि हिन्दी के ब्लोगर होने के नाते आप भी मेरे मत से सहमत होंगे। हम अपनी ब्लोगिंग से अपनी भाषा को उच्च स्थान दिला सकते हैं।
विक्रम संवत और शक संवत की अपेक्षा हमारे देश में ग्रैगेरियन कैलेण्डर को ही प्रधानता मिली हुई है। शक संवत को भारतीय पंचांग बनने के लिए ग्रैगेरियन कैलेण्डर का सहारा लेना पड़ता है। हमारे देश की नीतियों ने हमारी ही संस्कृति और सभ्यता को हमारी नजरों में गौण बना कर रख दिया है। आप अपने पोस्ट में इन बातों को उभार कर अपनी संस्कृति और सभ्यता को पुनः उनका स्थान दिला सकते हैं।
आज देश भर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद छाए हुए हैं। साधारण नमक तक हमें दूसरे देश की कम्पनियों से खरीदना पड़ता है। हमारी सरकार की नीति ने ही उन्हें बढ़ावा दे रखा है भारी मुनाफे लेकर अपने उत्पाद बेचकर हमें लूटने के लिए। हमारे देश के कुटीर उद्योग इनके कारण से पंगु हो गए हैं। हम ब्लोगर्स चाहें तो अपने पोस्ट के माध्यम से अपने देश की संपत्ति को दूसरे देशों में लूट कर ले जाने से रोक सकते हैं।
हम ब्लोगर सब कुछ करने में समर्थ हैं किन्तु सब कुछ तभी सम्भव होगा जब हमारे पास पाठकों की विशाल संख्या हो, हम अपने पोस्ट के माध्यम से देश के लाखों-करोड़ों लोगों को प्रभावित कर सकें। हमारे ब्लोग के पाठकों का न होना हमारे लिए एक बहुत बड़ी समस्या है और इस समस्या का निराकरण करने के लिए सबसे अच्छा तरीका होगा हिन्दी ब्लोगरों के गुणवत्ता दल (Bloggers' Quality Circles) बनाना।
क्या है गुणवत्ता दल (Quality Circle)
गुणवत्ता दल उन व्यक्तियों का समूह है जो किसी विशेष क्रिया-कलाप या प्रक्रिया का मूल्यांकन करने, उसकी समस्याओं को समझ कर समस्या-समाधान का प्रयास करते हैं। प्रायः यह समूह स्वयंसेवी व्यक्तियों का होता है। समूह के सदस्यों का कार्य होता है समस्यों को पहचानना, उनका विश्लेषण करना और उनका समाधान ढूँढना। वैसे तो प्रायः गुणवत्ता दलों का गठन संस्था आदि के प्रबंधन की समस्याओं के निराकरण के लिए होता है किन्तु ऐसे लोगों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जो कि एक ही प्रकार के कार्य में रत हों जैसे कि एक ही संस्थान के विद्यार्थियों, एक ही क्षेत्र के उपभोक्ताओं, एक ही मुहल्ले के सदस्यों आदि के गुणवत्ता दल। चूँकि हिन्दी के समस्त ब्लोगर भी एक ही प्रकार के कार्य में रत हैं इसलिए हिन्दी ब्लोगरों के भी गुणवत्ता दल बनाए जा सकते हैं जिनका उद्देश्य हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं, जैसे कि पाठकों की कमी, किसी प्रकार के आय का न होना, सरकारी विभाग से ब्लोगों को मान्यता तथा विज्ञापनादि दिलवाना आदि, का निराकरण करना हो।
गुणवत्ता दल की अवधारणा
कहा जाता है कि जूता पहनने वाले को ही पता होता है कि जूता कहाँ काटता है, किसी अन्य को इसका पता नहीं होता। इसी प्रकार से एक ही प्रकृति के कार्य में रत व्यक्तियों को ही अपने कार्य की समस्याओं का सही आकलन कर सकते हैं तथा उनका निराकरण कर सकते हैं। समस्या समाधान हेतु किसी एक ही व्यक्ति के प्रयास की अपेक्षा यदि उस समस्या से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक समस्या का समाधान सुझाए तो वह समाधान अधिक प्रभावशाली और सार्थक होगा। मूलतः यही सिद्धान्त गुणवत्ता दल की परिकल्पना का आधार है।
गुणवत्ता दल का इतिहास
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान के उत्पादों की विश्वनीयता निम्नतम स्तर पर पहुँच गई जिसके परिणामस्वरूप जापान की अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। जापान सरकार ने इस स्थिति से उबरने के लिए सन् 1950 में अमरीकी प्रबंधन विद्वानों डॉ. डेमंग तथा डॉ. जुरान को आमन्त्रित कर सेमिनार करवाए किन्तु उसका भी कुछ अधिक प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ। अन्ततः सन् 1962 में डॉ. इशिकावा ने गुणवत्ता नियन्त्रक दल के विचार को जन्म दिया जो कि समस्याओं के निराकरण में अनअपेक्षित रूप से प्रभावशाली रहा। उस समय उपजी गुणवत्ता दल के सिद्धान्त की उस चिंगारी ने आज दावानल का रूप धारण कर लिया है तथा समस्त विश्व में करोड़ों की संख्या में लोग गुणवत्ता दलों का गठन कर चुके हैं।
मेरा मानना है कि यदि हिन्दी ब्लोगर्स भी गुणवत्ता दलों का गठन करें तो हिन्दी ब्लोगिंग की समस्याओं का आसानी के साथ निराकरण हो सकेगा।
Sunday, December 12, 2010
सौ साल पहले चाँवल और गेहूँ के दाम
यह जानना कि आज से सौ साल पहले याने कि सन् 1910 में अनाजों के दाम क्या थे क्या आपको रोचक नहीं लगेगा? यहाँ प्रस्तुत है आज से सौ साल पहले विभिन्न प्रान्तों के प्रमुख नगरों के अनुसार चाँवल गेहूँ इत्यादि अनाजों के औसत दामः
सन् 1910 में चाँवल के औसत दामः
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.4.890 = (लगभग) 4 रुपये 14 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 0 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.13 प्रति कि.ग्रा.
बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.4.396 = (लगभग) 4 रुपये 06 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.
दिल्ली में - रु.5.714 = (लगभग) 5 रुपये 11 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.
इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.4.405 = (लगभग) 4 रुपये 6 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.
पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.150 = (लगभग) 3 रुपये 2 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) - में रु.3.559 = (लगभग) 3 रुपये 9 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.370 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.524 = (लगभग) 3 रुपये 8 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - रु.5.391 = (लगभग) 5 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा
सन् 1910 में गेहूँ के औसत दामः
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.3.953 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.5.882 = (लगभग) 5 रुपये 14 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.
दिल्ली में - रु.3.413 = (लगभग) 3 रुपये 06 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.941 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.249 = (लगभग) 3 रुपये 4 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) में - रु.3.347 = (लगभग) 3 रुपये 5 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.387 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.460 = (लगभग) 3 रुपये 7 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - आँकड़ा उपलब्ध नहीं
(मूल आँकड़े डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी से साभार)
उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि आज से सौ साल पहले और आज के चाँवल और गेहूँ के दामों में लगभग साढ़े तीन सौ गुना अन्तर है।
सन् 1910 में चाँवल के औसत दामः
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.4.890 = (लगभग) 4 रुपये 14 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 0 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.13 प्रति कि.ग्रा.
बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.4.396 = (लगभग) 4 रुपये 06 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.
दिल्ली में - रु.5.714 = (लगभग) 5 रुपये 11 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.
इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.4.405 = (लगभग) 4 रुपये 6 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 3 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.11 प्रति कि.ग्रा.
पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.150 = (लगभग) 3 रुपये 2 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) - में रु.3.559 = (लगभग) 3 रुपये 9 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.370 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.524 = (लगभग) 3 रुपये 8 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - रु.5.391 = (लगभग) 5 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा
सन् 1910 में गेहूँ के औसत दामः
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में - रु.3.953 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
बम्बई (वर्तमान मुम्बई) में - रु.5.882 = (लगभग) 5 रुपये 14 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 2 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.14 प्रति कि.ग्रा.
दिल्ली में - रु.3.413 = (लगभग) 3 रुपये 06 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
इलाहाबाद (तत्कालीन यूनाइटेड प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) में - रु.3.941 = (लगभग) 3 रुपये 15 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
पटना (तत्कालीन बिहार तथा उड़ीसा प्रान्त का प्रमुख शहर) में - रु.3.249 = (लगभग) 3 रुपये 4 आना 0 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस की राजधानी) में - रु.3.347 = (लगभग) 3 रुपये 5 आना 2 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
रायपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.387 = (लगभग) 3 रुपये 6 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 1 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.08 प्रति कि.ग्रा.
जबलपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्राव्हिंसेस का प्रमुख शहर) - में रु.3.460 = (लगभग) 3 रुपये 7 आना 1 पैसा प्रति मन = (लगभग) 1 आना 2 पैसा प्रति सेर = (आज के हिसाब से लगभग) रु.0.09 प्रति कि.ग्रा.
मद्रास (तत्कालीन मद्रास प्रान्त की राजधानी) में - आँकड़ा उपलब्ध नहीं
(मूल आँकड़े डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी से साभार)
उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि आज से सौ साल पहले और आज के चाँवल और गेहूँ के दामों में लगभग साढ़े तीन सौ गुना अन्तर है।
Saturday, December 11, 2010
लिखाई ऐसी जैसे कि चींटे को स्याही में डुबाकर कागज पर रेंगा दिया हो
क्या आप कभी टायपिस्ट रहे हैं और अलग अलग लोगों की हैंडराइटिंग में लिखे गये पत्रों से आपका पाला पड़ा है?
अरे मैं भी कैसी मूर्खता की बातें कर रहा हूँ, आज के जमाने में टाइपराइटर और टायपिस्ट? अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। क्या करें भाई उम्र अधिक हो जाने के कारण से भूलने की बीमारी हो गई है। हाँ तो मैं बात कर रहा था लिखाई याने कि हैंडराइटिंग की। मेरा पाला बहुत लोगों के हस्तलेख से पड़ा है, टायपिस्ट जो था मैं। सन् 1973 में नौकरी लगी थी मेरी भारतीय स्टेट बैंक में। नरसिंहपुर शाखा में जॉयन करने का आदेश आया था। कॉलेज में पढ़ रहा था मैं उन दिनों, एम.एससी. (फिजिक्स) फायनल में। पिताजी उसी महीने रिटायर हुए थे। प्रायवेट संस्था में शिक्षक थे अतः पेन्शन मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। चार भाइयों और एक बहन में सबसे बड़ा मैं ही था। ठान लिया कि पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने की। नौकरी भी तो अच्छी मिली थी, विश्व के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक में, मोटी तनख्वाह वाली। पिताजी परेशान। दो परेशानियाँ थी उन्हें। एक तो वे चाहते थे कि मैं अपनी शिक्षा पूरी करूँ और दूसरी यह कि यदि मैं नौकरी में जाना ही चाहता हूँ तो किसी को अपने साथ लेकर जाऊं, मैं कभी रायपुर से कहीं बाहर जो नहीं गया था। खैर साहब, पिताजी के लाख कहने के बावजूद मैं अकेले ही नरसिंहपुर गया।
अब आप सोच रहे होंगे कि बात तो हैंडराइटिंग की हो रही थी और ये साहब तो पता नहीं कहाँ कहाँ की हाँकने लग गये, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यस्त चौराहे में मदारी डमरू बजाकर साँप नेवले की लड़ाई वाला खेल दिखाने की बात कह कर मजमा इकट्ठा कर लेता है और आखिर तक साँप नेवले की लड़ाई नहीं दिखाता बल्कि ताबीज बेच कर चला जाता है। धीरज रखिये भाई, आ रहा हूँ हैंडराइटिंग की बात पर, आखिर पहले कुछ न कुछ भूमिका तो बांधनी ही पड़ती है। तो उन दिनों एक महाराष्ट्रियन सज्जन स्थानान्तरित होकर हमारी शाखा में आये हमारे शाखा प्रबन्धक बनकर। एकाध साल बाद रिटायर होने वाले थे। उनकी एक विशेषता यह भी थी कि 'परंतु' को "पणतु" ही कहा करते थे, कभी भी मैंने उनके मुख से परंतु शब्द नहीं सुना। तो मैं उन्हीं सज्जन की हैंडराइटिंग की बात कर रहा था। उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की भाषा अंग्रेजी हुआ करती थी, हिन्दी का चलन तो बहुत बाद में हुआ। जब पहली बार उन्होंने मेसेन्जर के हाथ मेरे पास टाइप करने के लिये एक पत्र भेजा तो उसका एक अक्षर भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा। बिल्कुल ऐसा लगता था कि किसी चींटे को स्याही में डुबा कर कागज पर रेंगा दिया हो। उसमें क्या लिखा है समझने तथा सही टाइप करने के लिये मुझे शाखा प्रबन्धक महोदय के केबिन में 20-25 बार जाना पड़ा था। पर वे जरा भी नाराज नहीं हुये मेरे बार बार आकर पूछने पर। बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे वे! उनके लिखे आठ दस पत्र टाइप कर लेने के बाद मैं उनके लिखने का "मोड" समझने लग गया और फिर मेरी परेशानी खत्म हो गई। खैर उनकी हैंडराइटिंग जैसी भी थी पर अंग्रेजी का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। उनके लिखे एक पत्र में एक बार mutatis-mutandis शब्द आया। मेरे लिये वह शब्द एकदम नया था। मैंने फौरन आक्सफोर्ड इंग्लिश टू इंग्लिश डिक्शनरी निकाली और उस शब्द का मायने खोजने लगा, पर मुझे नहीं मिला। तो मैंने शाखा प्रबन्धक के केबिन जाकर उसका अर्थ पूछा। मेरा प्रश्न सुनकर वे 'हो हो ऽ ऽ ऽ' करके हँसे और बोले अरे अवधिया डिक्शनरी में देख लो ना। मैं बोला कि मैं डिक्शनरी में देख कर ही आया हूँ, मुझे नहीं मिला। तो वे बोले कि डिक्शनरी के पीछे अन्य भाषाओं से अपनाये गये शब्दों वाला अपेन्डिक्स देखो। वहाँ मुझे उस शब्द का अर्थ मिल गया।
उनके अंग्रेजी ज्ञान से बहुत प्रभावित था मैं और समझता था कि वे अंग्रेजी में एम.ए. अवश्य होंगे। बहुत दिनों बाद मुझे पता चला कि वे इम्पीरियल बैंक के समय के थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता थी -
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दसवीं फेल।
अरे मैं भी कैसी मूर्खता की बातें कर रहा हूँ, आज के जमाने में टाइपराइटर और टायपिस्ट? अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। क्या करें भाई उम्र अधिक हो जाने के कारण से भूलने की बीमारी हो गई है। हाँ तो मैं बात कर रहा था लिखाई याने कि हैंडराइटिंग की। मेरा पाला बहुत लोगों के हस्तलेख से पड़ा है, टायपिस्ट जो था मैं। सन् 1973 में नौकरी लगी थी मेरी भारतीय स्टेट बैंक में। नरसिंहपुर शाखा में जॉयन करने का आदेश आया था। कॉलेज में पढ़ रहा था मैं उन दिनों, एम.एससी. (फिजिक्स) फायनल में। पिताजी उसी महीने रिटायर हुए थे। प्रायवेट संस्था में शिक्षक थे अतः पेन्शन मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। चार भाइयों और एक बहन में सबसे बड़ा मैं ही था। ठान लिया कि पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने की। नौकरी भी तो अच्छी मिली थी, विश्व के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक में, मोटी तनख्वाह वाली। पिताजी परेशान। दो परेशानियाँ थी उन्हें। एक तो वे चाहते थे कि मैं अपनी शिक्षा पूरी करूँ और दूसरी यह कि यदि मैं नौकरी में जाना ही चाहता हूँ तो किसी को अपने साथ लेकर जाऊं, मैं कभी रायपुर से कहीं बाहर जो नहीं गया था। खैर साहब, पिताजी के लाख कहने के बावजूद मैं अकेले ही नरसिंहपुर गया।
अब आप सोच रहे होंगे कि बात तो हैंडराइटिंग की हो रही थी और ये साहब तो पता नहीं कहाँ कहाँ की हाँकने लग गये, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यस्त चौराहे में मदारी डमरू बजाकर साँप नेवले की लड़ाई वाला खेल दिखाने की बात कह कर मजमा इकट्ठा कर लेता है और आखिर तक साँप नेवले की लड़ाई नहीं दिखाता बल्कि ताबीज बेच कर चला जाता है। धीरज रखिये भाई, आ रहा हूँ हैंडराइटिंग की बात पर, आखिर पहले कुछ न कुछ भूमिका तो बांधनी ही पड़ती है। तो उन दिनों एक महाराष्ट्रियन सज्जन स्थानान्तरित होकर हमारी शाखा में आये हमारे शाखा प्रबन्धक बनकर। एकाध साल बाद रिटायर होने वाले थे। उनकी एक विशेषता यह भी थी कि 'परंतु' को "पणतु" ही कहा करते थे, कभी भी मैंने उनके मुख से परंतु शब्द नहीं सुना। तो मैं उन्हीं सज्जन की हैंडराइटिंग की बात कर रहा था। उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की भाषा अंग्रेजी हुआ करती थी, हिन्दी का चलन तो बहुत बाद में हुआ। जब पहली बार उन्होंने मेसेन्जर के हाथ मेरे पास टाइप करने के लिये एक पत्र भेजा तो उसका एक अक्षर भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा। बिल्कुल ऐसा लगता था कि किसी चींटे को स्याही में डुबा कर कागज पर रेंगा दिया हो। उसमें क्या लिखा है समझने तथा सही टाइप करने के लिये मुझे शाखा प्रबन्धक महोदय के केबिन में 20-25 बार जाना पड़ा था। पर वे जरा भी नाराज नहीं हुये मेरे बार बार आकर पूछने पर। बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे वे! उनके लिखे आठ दस पत्र टाइप कर लेने के बाद मैं उनके लिखने का "मोड" समझने लग गया और फिर मेरी परेशानी खत्म हो गई। खैर उनकी हैंडराइटिंग जैसी भी थी पर अंग्रेजी का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। उनके लिखे एक पत्र में एक बार mutatis-mutandis शब्द आया। मेरे लिये वह शब्द एकदम नया था। मैंने फौरन आक्सफोर्ड इंग्लिश टू इंग्लिश डिक्शनरी निकाली और उस शब्द का मायने खोजने लगा, पर मुझे नहीं मिला। तो मैंने शाखा प्रबन्धक के केबिन जाकर उसका अर्थ पूछा। मेरा प्रश्न सुनकर वे 'हो हो ऽ ऽ ऽ' करके हँसे और बोले अरे अवधिया डिक्शनरी में देख लो ना। मैं बोला कि मैं डिक्शनरी में देख कर ही आया हूँ, मुझे नहीं मिला। तो वे बोले कि डिक्शनरी के पीछे अन्य भाषाओं से अपनाये गये शब्दों वाला अपेन्डिक्स देखो। वहाँ मुझे उस शब्द का अर्थ मिल गया।
उनके अंग्रेजी ज्ञान से बहुत प्रभावित था मैं और समझता था कि वे अंग्रेजी में एम.ए. अवश्य होंगे। बहुत दिनों बाद मुझे पता चला कि वे इम्पीरियल बैंक के समय के थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता थी -
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दसवीं फेल।
Friday, December 10, 2010
हेमन्त ऋतु से बढ़कर साइकियाट्रिस्ट भला कौन होगा?
कहते हैं कि साइकियाट्रिस्ट्स किसी आदमी को हिप्नोटाइज करके उसे उसके उम्र के पीछे ले जाते हैं। ऐसा करने के लिए साइकियाट्रिस्ट को अपनी शक्ति का प्रयोग करके उस व्यक्ति को हिप्नोटिक ट्रांस में लाना पड़ता है। किन्तु हेमन्त ऋतु तो किसी भी व्यक्ति को प्राकृतिक रूप से ही उसके उम्र के पीछे धकेल देने का सामर्थ्य रखती है। प्रतिवर्ष इस ऋतु की ठिठुरा देने वाली ठण्ड, ठण्डे मौसम के बीच "विन्टर मानसून" की फुहारें और अगहन या पौष माह में सावन जैसी झड़ी, झड़ी खत्म होने पर उठने वाली भोर का घनघोर कुहासा, साँस छोड़ने तथा मुँह खोलने पर भाप का निकलना आदि बरबस ही मुझे मेरे उम्र से पीछे ठकेलते हुए मेरे बचपन तक ले जाती है। आँखों के सामने बचपन में सूखे हुए चरौटे के पौधों को उखाड़ कर उसका “भुर्री जलाने” याने कि अलाव जलाने और “भुर्री तापने” के दृश्य एक दिवास्वप्न की भाँति तैरने लगते हैं। याद आने लगता है भुर्री तापते हुए चोरी-छिपे कद्दू की सूखी हुई बेल के टुकड़े को सिगरेट बनाकर धूम्रपान करके मुँह और नाक से धुआँ निकालने का आनन्द लेना, ठण्ड में ठिठुरते हुए साइकल पर घूमने जाना, एकाध मील दूर निकलते ही खेतों का सिलसिला शुरू हो जाना, खेतों में तिवरा और अलसी और मेढ़ों में अरहर के पौधों का लहलहाना, खेतों से चोरी छिपे तिवरा उखाड़ कर खाना या वापस आकर तिवरा को जलते “भुर्री” में डाल कर “होर्रा” बनाकर खाना!
कितनी ठण्ड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल! अब तो रायपुर आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है और यहाँ ठण्ड पड़ती ही नहीं, यदि थोड़ी सी ठण्ड पड़ती भी है तो सिर्फ शीत लहर चलने पर ही पड़ती है।
एक ओर तो हेमन्त ऋतु मुझे हर्षाती है तो दूसरी ओर यह सोचकर दुःख भी होता है कि आज मेरे ही बच्चों को छः ऋतुओं के नाम तक नहीं मालूम हैं। मेरे बार-बार यह बताने के बाद भी कि वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर नामक छः ऋतुएँ और पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य, पश्चिम, नैऋत्य, दक्षिण तथा आग्नेय नामक आठ दिशाएँ होती हैं, वे इन ऋतुओं और दिशाओं के नाम को याद नहीं रख पाते।
अस्तु, यदि वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो हेमन्त ऋतु का अपना अलग सुख है। यह हेमन्त ऋतु श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि रामायण में लिखते हैं:
कितनी ठण्ड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल! अब तो रायपुर आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है और यहाँ ठण्ड पड़ती ही नहीं, यदि थोड़ी सी ठण्ड पड़ती भी है तो सिर्फ शीत लहर चलने पर ही पड़ती है।
एक ओर तो हेमन्त ऋतु मुझे हर्षाती है तो दूसरी ओर यह सोचकर दुःख भी होता है कि आज मेरे ही बच्चों को छः ऋतुओं के नाम तक नहीं मालूम हैं। मेरे बार-बार यह बताने के बाद भी कि वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर नामक छः ऋतुएँ और पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य, पश्चिम, नैऋत्य, दक्षिण तथा आग्नेय नामक आठ दिशाएँ होती हैं, वे इन ऋतुओं और दिशाओं के नाम को याद नहीं रख पाते।
अस्तु, यदि वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो हेमन्त ऋतु का अपना अलग सुख है। यह हेमन्त ऋतु श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि रामायण में लिखते हैं:
सरिता के तट पर पहुँचने पर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की सबसे प्रिय ऋतु रही है। वे तट पर घड़े को रख कर बोले, “भैया! यह वही हेमन्त काल है जो आपको सर्वाधिक प्रिय रही है। आप इस ऋतु को वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब शीत अपने चरमावस्था में पहुँच चुकी है। सूर्य की किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन हो जाने के कारण उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। अग्नि की उष्मा प्रिय लगने लगा है। रात्रियाँ हिम जैसी शीतल हो गई हैं। जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति चमक रहे हैं। ओस के जल से भीगी हुई रेत पैरों को घायल कर रही है। …
Thursday, December 9, 2010
क्या सन्देश दे रहे हैं आज के टीव्ही कार्यक्रम हमें?
सामान्यतः मैं टीव्ही के कार्यक्रम नहीं देखा करता और यदि कभी अपनी पसन्द का कोई कार्यक्रम देखना भी चाहूँ तो देख नहीं सकता क्योंकि घर के किशोर या युवा बच्चों को उसी समय बिग बॉस देखना जरूरी होता है। बिग बॉस के एक दो एपीसोड मैंने देखे तो स्वाभाविक रूप से मेरे भीतर एक प्रश्न उभरा कि क्या सन्देश दे रही हैं आज के टीव्ही कार्यक्रम हमें?
क्या बिग बॉस के घर में कुछ ऐसा हो रहा है जिससे हमारी युवा पीढ़ी को कुछ अच्छा ज्ञान मिल सके या हमारे समाज का और हमारे देश का उत्थान हो सके?
आखिर रियलिटी शो के नाम से प्रसारित होने वाले आज के टीव्ही कार्यक्रमों में क्या कुछ भी ऐसा है जो हमारे आगे बढ़ने में किसी भी प्रकार से सहायक हो सके?
आखिर क्यों ये कार्यक्रम आज की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श बने हुए हैं?
इस बात को तो प्रायः सभी मानते हैं कि सिनेमा और टीव्ही देश के जन-सामान्य, विशेषतः कच्ची उम्र के बच्चों पर सर्वाधिक प्रभाव डालते हैं।
आज टीव्ही पर जिन कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है, वे विष परोस रहे हैं या अमृत?
क्या उनका प्रभाव हमारे समाज पर नहीं पड़ेगा?
क्या बिग बॉस के घर में कुछ ऐसा हो रहा है जिससे हमारी युवा पीढ़ी को कुछ अच्छा ज्ञान मिल सके या हमारे समाज का और हमारे देश का उत्थान हो सके?
आखिर रियलिटी शो के नाम से प्रसारित होने वाले आज के टीव्ही कार्यक्रमों में क्या कुछ भी ऐसा है जो हमारे आगे बढ़ने में किसी भी प्रकार से सहायक हो सके?
आखिर क्यों ये कार्यक्रम आज की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श बने हुए हैं?
इस बात को तो प्रायः सभी मानते हैं कि सिनेमा और टीव्ही देश के जन-सामान्य, विशेषतः कच्ची उम्र के बच्चों पर सर्वाधिक प्रभाव डालते हैं।
आज टीव्ही पर जिन कार्यक्रमों का प्रसारण हो रहा है, वे विष परोस रहे हैं या अमृत?
क्या उनका प्रभाव हमारे समाज पर नहीं पड़ेगा?
Tuesday, December 7, 2010
गुरु – कबीर की दृष्टि में
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय॥
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय।
सात समुन्द की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा ना जाय॥
कबिरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर॥
यह तन विष की बेल री, गरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़त खोट।
भीतर से अवलम्ब है, ऊपर मारत चोट॥
जा के गुरु है आंधरा, चेला निपट निरंध।
अंधे अंधा ठेलिया, दोना कूप परंत॥
कबीर जोगी जगत गुरु, तजै जगत की आस।
जो जग की आसा करै, तो जगत गुरू वह दास॥
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय॥
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बनराय।
सात समुन्द की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा ना जाय॥
कबिरा ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहि ठौर॥
यह तन विष की बेल री, गरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान॥
गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़त खोट।
भीतर से अवलम्ब है, ऊपर मारत चोट॥
जा के गुरु है आंधरा, चेला निपट निरंध।
अंधे अंधा ठेलिया, दोना कूप परंत॥
कबीर जोगी जगत गुरु, तजै जगत की आस।
जो जग की आसा करै, तो जगत गुरू वह दास॥
Sunday, December 5, 2010
भारत में सर्वाधिक लम्बा, ऊँचा और बड़ा (Longest, Highest and Largest in India)
- सबसे लम्बा राष्ट्रीय राजमार्ग - राजमार्ग नं. 7 (वाराणसी से कन्याकुमारी)
- सबसे लम्बी सड़क - ग्रांडट्रंक रोड
- सबसे लम्बा सड़क का पुल - महात्मा गांधी सेतु (पटना)
- सबसे लम्बी सुरंग - जवाहर सुरंग (जम्मू काश्मीर)
- सबसे लम्बी नदी - गंगा
- सबसे लम्बा रेलमार्ग - जम्मू से कन्याकुमारी
- सबसे लम्बा प्लेटफॉर्म - खड़गपुर (पश्चिम बंगाल)
- सबसे लम्बी तटरेखा वाला राज्य - गुजरात
- सबसे लम्बा बाँध - हीराकुण्ड बाँध (उड़ीसा)
- सबसे ऊँची चोटी - गॉडविन ऑस्टिन (K-2)
- सबसे ऊँचा जलप्रपात - गरसोप्पा या जोग
- सबसे ऊँचा बाँध - भाखड़ा नांगल बाँध
- सबसे ऊँचा पत्तन - लेह (लद्दाख)
- सबसे ऊँची मीनार - कुतुबमीनार
- सबसे ऊँचा दरवाजा - बुलन्द दरवाजा
- सबसे ऊँची मूर्ति - गोमतेश्वर
- सबसे ऊँची झील - देवताल झील
- सबसे ऊँची मार्ग - लेह-मनाली मार्ग
- सबसे ऊँचा पशु - जिराफ
- सबसे बड़ी झील (मीठे पानी की) - वूलर झील (काश्मीर)
- सबसे बड़ी झील (खारे पानी की) - चिल्का झील (उड़ीसा)
- सबसे बड़ा गुफा मन्दिर - कैलाश मन्दिर (एलोरा)
- सबसे बड़ा रेगिस्तान - थार (राजस्थान)
- सबसे बड़ा डेल्टा - सुन्दरवन
- सबसे बड़ा प्राकृतिक बन्दरगाह - मुम्बई
- सबसे बड़ा लीवर पुल - हावड़ा ब्रिज (कोलकाता)
- सबसे बड़ा गुरुद्वारा - स्वर्ण मन्दिर (अमृतसर)
- सबसे बड़ा तारामण्डल (प्लेनेटोरियम) - बिड़ला तारामण्डल (प्लेनेटोरियम)
- सबसे बड़ी मस्जिद - जामा मस्जिद (दिल्ली)
- सबसे बड़ा पशुओं का मेला - सोनपुर (बिहार)
- सबसे बड़ा चिड़ियाघर - जूलॉजिकल गॉर्डन्स (कोलकाता)
- सबसे बड़ा अजायबघर - कोलकाता अजायबघर
Saturday, December 4, 2010
क्या हम अपने अतीत से शिक्षा लेते हैं?
सन् 712 में मोहम्मद-बिन-कासिम बिलोचिस्तान की विस्तृत मरुभूमि को पार करके सिन्ध तक चला आया। केवल बीस वर्ष आयु वाले उस लुटेरे के मात्र छः हजार घुड़सवारों के समक्ष सिन्ध के राजा दाहिर के दस हजार अश्वारोही और बीस हजार पैदल सैनिकों की सेना टिक न सकी और राजा दाहिर मारा गया। उस दुर्दान्त लुटेरे ने न केवल भारत-भूमि को पदाक्रान्त किया बल्कि वह भारत से सत्रह हजार मन सोना, छः हजार ठोस सोने की मूर्तियाँ, जिनमें से एक मूर्ति तीस मन की थी, और असंख्य हीरे-मोती-माणिक्य लूट कर ले गया।
सन् 1000 से 1027 के बीच गज़नी के महमूद ने 17 बार आक्रमण किया और भारत भूमि को रौंदता रहा। सन् 1000 में प्रथम बार पंजाब में राजा जयपाल पर आक्रमण करने के बाद निरन्तर उसका साहस बढ़ते रहा तथा सन् 1025 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर की अकूत धन-सम्पदा को वह लूट ले गया।
चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर केवल पन्द्रह दिन भारत में रहा और लूट-खसोट और कत्ले-आम करके लौट गया।
इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। यद्यपि मुगलों द्वारा भारत को ही अपना घर बना लेने के कारण भारत की सम्पत्ति उनके काल में भारत में ही रही, किन्तु लूटा तो उन्होंने भी हमें।
भारत की अकूत धन-सम्पदा ने सदैव ही लुटेरों को आकर्षित किया किन्तु अनेक बार लुटने के बावजूद भी भारत माता की अकूत धन-सम्पदा में किंचित मात्र भी कमी नहीं आई। सोने की चिड़िया कहलाती थी वह! दूध-दही की नदियाँ बहती थीं उसकी भूमि में! रत्नगर्भा वसुन्धरा थी उसके पास! शाहजहाँ और औरंगजेब का जमाना आने तक भारत भूमि न जाने कितनी बार लुट चुकी थी पर उसकी अपार सम्पदा वैसी की वैसी ही बनी हुई थी। इस बात का प्रमाण यह है कि दुनिया का कोई भी इतिहासज्ञ शाहजहाँ की धन-दौलत का अनुमान नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। तीस करोड़ की सम्पदा तो उसे अकेले गोलकुण्डा से ही प्राप्त हुई थी। उसके धनागार में दो गुप्त हौज थे। एक में सोने और दूसरे में चाँदी का माल रखा जाता था। इन हौजों की लम्बाई सत्तर फुट और गहराई तीस फुट थी। उसने ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें गोलकुण्डा का सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था और जिसका मूल्य एक करोड़ रुपया था, मक्का में काबा की मस्जिद में भेंट की थी। लोग कहते थे कि उसके पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। सोने के ठोस पायों पर बने हुए तख्त-ए-ताउस में दो मोर मोतियों और जवाहरात के बने थे। इसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।
कालान्तर में भारत की इस अकूत धन-सम्पदा को पुर्तगालियों, फ्रांसिसियों और अंग्रेजों ने भी लूटा। सही मायनों में तो भारत माता को इन फिरंगियों ने ही लूटा और इस अकूत धन-सम्पदा की स्वामिनी को दरिद्रता की श्रेणी में लाकर रख दिया।
आखिर हमारी किस कमजोरी ने हमें हजार से भी अधिक वर्षों तक परतन्त्रता की बेड़ियाँ पहनाए रखी थीं?
हमारी कमजोरी थी हममें राष्ट्रीय भावना की कमी! कभी हम वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म जैसे सैकड़ों मत-मतान्तर वाले बनकर बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहे तो कभी जाति भेद के आधार पर आपस में लड़ते रहे। सम्राट हर्षवर्धन के बाद अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य से लोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लगभग नौ सौ वर्ष के समय में कोई सशक्त राजनीतिक शक्ति ऐसी न उत्पन्न हो पाई, जो समस्त भारत को एक सूत्र में बाँध सके। इन नौ सौ सालों में भारत छोटी-बड़ी, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतों के युद्ध का अखाड़ा बना रहा।
आज भी क्या हममें राष्ट्रीयता की भावना का उदय हो पाया है? क्या आज भी हम बोली-भाषा-प्रान्तीयता आदि के आधार पर आपस में लड़ नहीं रहे हैं? क्या आज भी हमारी गाढ़ी कमाई को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लूटकर विदेशों में पहुँचा रहे है? क्या हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व हमारी सम्पदा को स्विस बैंकों में जमा नहीं कर रहे हैं?
क्या हमने कभी अपने अतीत से शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न किया है?
(इस पोस्ट में आँकड़े तथा विचार आचार्य चतुरसेन की कृतियों से लिए गए हैं।)
सन् 1000 से 1027 के बीच गज़नी के महमूद ने 17 बार आक्रमण किया और भारत भूमि को रौंदता रहा। सन् 1000 में प्रथम बार पंजाब में राजा जयपाल पर आक्रमण करने के बाद निरन्तर उसका साहस बढ़ते रहा तथा सन् 1025 में गुजरात के सोमनाथ मंदिर की अकूत धन-सम्पदा को वह लूट ले गया।
चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर केवल पन्द्रह दिन भारत में रहा और लूट-खसोट और कत्ले-आम करके लौट गया।
इसके कोई सवा सौ वर्ष बाद बाबर ने आक्रमण किया। यद्यपि मुगलों द्वारा भारत को ही अपना घर बना लेने के कारण भारत की सम्पत्ति उनके काल में भारत में ही रही, किन्तु लूटा तो उन्होंने भी हमें।
भारत की अकूत धन-सम्पदा ने सदैव ही लुटेरों को आकर्षित किया किन्तु अनेक बार लुटने के बावजूद भी भारत माता की अकूत धन-सम्पदा में किंचित मात्र भी कमी नहीं आई। सोने की चिड़िया कहलाती थी वह! दूध-दही की नदियाँ बहती थीं उसकी भूमि में! रत्नगर्भा वसुन्धरा थी उसके पास! शाहजहाँ और औरंगजेब का जमाना आने तक भारत भूमि न जाने कितनी बार लुट चुकी थी पर उसकी अपार सम्पदा वैसी की वैसी ही बनी हुई थी। इस बात का प्रमाण यह है कि दुनिया का कोई भी इतिहासज्ञ शाहजहाँ की धन-दौलत का अनुमान नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। तीस करोड़ की सम्पदा तो उसे अकेले गोलकुण्डा से ही प्राप्त हुई थी। उसके धनागार में दो गुप्त हौज थे। एक में सोने और दूसरे में चाँदी का माल रखा जाता था। इन हौजों की लम्बाई सत्तर फुट और गहराई तीस फुट थी। उसने ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें गोलकुण्डा का सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था और जिसका मूल्य एक करोड़ रुपया था, मक्का में काबा की मस्जिद में भेंट की थी। लोग कहते थे कि उसके पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। सोने के ठोस पायों पर बने हुए तख्त-ए-ताउस में दो मोर मोतियों और जवाहरात के बने थे। इसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।
कालान्तर में भारत की इस अकूत धन-सम्पदा को पुर्तगालियों, फ्रांसिसियों और अंग्रेजों ने भी लूटा। सही मायनों में तो भारत माता को इन फिरंगियों ने ही लूटा और इस अकूत धन-सम्पदा की स्वामिनी को दरिद्रता की श्रेणी में लाकर रख दिया।
आखिर हमारी किस कमजोरी ने हमें हजार से भी अधिक वर्षों तक परतन्त्रता की बेड़ियाँ पहनाए रखी थीं?
हमारी कमजोरी थी हममें राष्ट्रीय भावना की कमी! कभी हम वैष्णव, शाक्त, तान्त्रिक, वाममार्गी, कापालिक, शैव और पाशुपत धर्म जैसे सैकड़ों मत-मतान्तर वाले बनकर बड़ी कट्टरता से परस्पर संघर्ष करते रहे तो कभी जाति भेद के आधार पर आपस में लड़ते रहे। सम्राट हर्षवर्धन के बाद अर्थात् ईसा की सातवीं शताब्दी के मध्य से लोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक लगभग नौ सौ वर्ष के समय में कोई सशक्त राजनीतिक शक्ति ऐसी न उत्पन्न हो पाई, जो समस्त भारत को एक सूत्र में बाँध सके। इन नौ सौ सालों में भारत छोटी-बड़ी, एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतों के युद्ध का अखाड़ा बना रहा।
आज भी क्या हममें राष्ट्रीयता की भावना का उदय हो पाया है? क्या आज भी हम बोली-भाषा-प्रान्तीयता आदि के आधार पर आपस में लड़ नहीं रहे हैं? क्या आज भी हमारी गाढ़ी कमाई को विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ लूटकर विदेशों में पहुँचा रहे है? क्या हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व हमारी सम्पदा को स्विस बैंकों में जमा नहीं कर रहे हैं?
क्या हमने कभी अपने अतीत से शिक्षा प्राप्त करने का प्रयत्न किया है?
(इस पोस्ट में आँकड़े तथा विचार आचार्य चतुरसेन की कृतियों से लिए गए हैं।)
Thursday, December 2, 2010
कितनी तेजी से बदला है जमाना
अधिक नहीं, मात्र चालीसेक साल पहले हमारे समाज में स्टील के बर्तनों में खाना खाने को अकरणीय माना जाता था। जहाँ सम्पन्न परिवारों में सोने-चाँदी के बर्तनों का चलन था वहीं सर्वसाधारण लोग फूलकाँस के बर्तनों का प्रयोग किया करते थे। स्टील और अल्यूमीनियम के बर्तनों को हिकारत की नजर से देखा जाता था। आज फूलकाँस के बर्तन गाँवों में तो शायद कहीं दिखाई दे जाएँ किन्तु नगरों में तो ये विलुप्तप्राय हो चुके हैं। शहरों में ये बर्तन यदि कहीं दिखाई देते भी हैं तो विवाहादि समारोहों में जहाँ पर परम्परा के अनुसार कन्या को पाँच बर्तन दहेज के रूप में दिए जाते हैं।
सिर्फ पारम्परिक बर्तन ही नहीं बल्कि खाना पकाने की पारम्परिक विधि भी आज समाप्त हो चुकी है। आज मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी की हांडी में चाँवल, मिट्टी के ही बर्तन में, जिसे छत्तीसगढ़ में कुरेड़िया कहा जाता है, सब्जी और पीतल की बटलोई में दाल पका कर मेरी माँ मुझे परसा करती थी उस खाने के लिए आज भी मेरा मन तरसता है।
सिर्फ पारम्परिक बर्तन ही नहीं बल्कि खाना पकाने की पारम्परिक विधि भी आज समाप्त हो चुकी है। आज मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में खाना पकाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। मिट्टी के चूल्हे पर मिट्टी की हांडी में चाँवल, मिट्टी के ही बर्तन में, जिसे छत्तीसगढ़ में कुरेड़िया कहा जाता है, सब्जी और पीतल की बटलोई में दाल पका कर मेरी माँ मुझे परसा करती थी उस खाने के लिए आज भी मेरा मन तरसता है।
Wednesday, December 1, 2010
गद्य की विधाएँ - उपन्यास
उपन्यास हिन्दी गद्य की विधाओं में से एक प्रमुख विधा है। उपन्यास का अर्थ है प्रस्तुत करना। उपन्यास लेखक अपने उपन्यास के पात्रों के चरित्र-चित्रण के बहाने तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, सास्कृतिक तथा आर्थिक वातावरण का प्रस्तुतीकरण करता है।
हिन्दी उपन्यासों का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से हुआ। भारतेन्दु युग के प्रमुख उपन्यास हैं बाबू देवकीनन्दन खत्री रचित "चन्द्रकान्ता" और "चन्द्रकान्ता सन्तति", बालकृष्ण भट्ट रचित "नूतन ब्रह्मचारी" हरिऔध रचित "अधखिला फूल" और "ठेठ हिन्दी का ठाठ", अम्बिकादत्त व्यास रचित "आदर्श-वृत्तान्त" आदि।
बाद में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का उदय हुआ जिन्होंने विषय, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से उपन्यास विधा में उल्लेखनीय परिवर्तन किया। प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास हैं - गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि आदि। प्रेमचन्द के काल में जयशंकर 'प्रसाद', आचार्य चतुरसेन, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विश्वम्भर नाथ कौशिक, वृन्दावन लाल वर्मा आदि लेखकों ने उपन्यास विधा के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। "कंकाल", "वैशाली की नगरवधू", "सोमनाथ", "चित्रलेखा", "तितली", "मृगनयनी" आदि उस युग के श्रेष्ठतम उपन्यास हैं।
हिन्दी के अन्य उपन्यासकारों में यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणु', रांगेय राघव, धर्मवीर भारती, विष्णु प्रभाकर, हिमांशु जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, शिवानी आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी उपन्यासों का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से हुआ। भारतेन्दु युग के प्रमुख उपन्यास हैं बाबू देवकीनन्दन खत्री रचित "चन्द्रकान्ता" और "चन्द्रकान्ता सन्तति", बालकृष्ण भट्ट रचित "नूतन ब्रह्मचारी" हरिऔध रचित "अधखिला फूल" और "ठेठ हिन्दी का ठाठ", अम्बिकादत्त व्यास रचित "आदर्श-वृत्तान्त" आदि।
बाद में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का उदय हुआ जिन्होंने विषय, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से उपन्यास विधा में उल्लेखनीय परिवर्तन किया। प्रेमचंद के प्रमुख उपन्यास हैं - गोदान, गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि आदि। प्रेमचन्द के काल में जयशंकर 'प्रसाद', आचार्य चतुरसेन, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, विश्वम्भर नाथ कौशिक, वृन्दावन लाल वर्मा आदि लेखकों ने उपन्यास विधा के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। "कंकाल", "वैशाली की नगरवधू", "सोमनाथ", "चित्रलेखा", "तितली", "मृगनयनी" आदि उस युग के श्रेष्ठतम उपन्यास हैं।
हिन्दी के अन्य उपन्यासकारों में यशपाल, फणीश्वर नाथ 'रेणु', रांगेय राघव, धर्मवीर भारती, विष्णु प्रभाकर, हिमांशु जोशी, भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, शिवानी आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
Tuesday, November 30, 2010
क्या आर्य जाति ने सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करके उसे विनष्ट किया था?
पश्चिमी विद्वानों का मत है कि आर्यों का एक समुदाय भारत मे लगभग 2000 इस्वी ईसा पूर्व आया। इन विद्वानों की कहानी यह है कि आर्य इण्डो-यूरोपियन बोली बोलने वाले, घुड़सवारी करने वाले तथा यूरेशिया के सूखे घास के मैदान में रहने वाले खानाबदोश थे जिन्होंने ई.पू. 1700 में भारत की सिन्धु घाटी की नगरीय सभ्यता पर आक्रमण कर के उसका विनाश कर डाला और इन्हीं आर्य के वंशजों ने उनके आक्रमण से लगभग 1200 वर्ष बाद आर्य या वैदिक सभ्यता की नींव रखी और वेदों की रचना की।
इस बात के सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के के लोग बहुत अधिक सभ्य और समृद्ध थे जबकि इन तथाकथित घुड़सवार खानाबदोश आर्य जाति के विषय में कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आखिर सिन्धु घाटी के लोग इनसे हारे कैसे? यदि यह मान भी लिया जाए कि वे घुड़सवार खानाबदोश अधिक शक्तिशाली और बर्बर थे इसीलिए वे जीत गए तो सवाल यह पैदा होता है कि इस असभ्य जाति के लोग आखिर इतने सभ्य कैसे हो गए कि वेद जैसे ग्रंथों की रचना कर डाली? और यह स्वभाव से घुमक्कड़ जाति 1200 वर्षों तक कहाँ रही और क्या करती रही। दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि आर्यो के भारत मे आने का कोई प्रमाण न तो पुरातत्त्व उत्खननो से मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से। मजे की बात यह भी है कि उन्हीं आर्यों द्वारा रचित वेद आदि ग्रंथों में भी आर्यों के द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करने का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। आर्य शब्द तो स्वयं ही कुलीनता और श्रेष्ठता का सूचक है फिर यह शब्द असभ्य, घुड़सवार, घुमन्तू खानाबदोश जाति के लिए कैसे प्रयुक्त हो सकता है?
वास्तविकता यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में एब्बे डुबोइस (Abbé Dubois) नामक एक फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता भारत आया। वह कितना ज्ञानी था इस बात का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रलय के विषय में पढ़कर प्रलय को नूह और उसकी नाव के साथ जोड़ने का प्रयास किया था जो कि एकदम मूर्खतापूर्ण असंगत बात थी। एब्बे की पाण्डुलिपि आज के सन्दर्भ में पूरी तरह से असामान्य हो चुकी है। इन्हीं एब्बे महोदय ने भारतीय साहित्य का अत्यन्त ही त्रुटिपूर्ण तथा कपोलकल्पित वर्णन, आकलन और अनुवाद किया जिस पर जर्मन पुरातत्ववेत्ता मैक्समूलर ने, जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के नाक के बाल बने हुए थे, अपनी भूमिका लिखकर सच्चाई का ठप्पा लगा दिया। मैक्समूलर के द्वारा सच्चाई का ठप्पा लग जाने ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आर्यों के द्वारा सिन्धुघाटी सभ्यता पर आक्रमण की कपोलकल्पित कहानी को इतिहास बना दिया।
इस बात के सैकड़ों पुरातात्विक प्रमाण हैं कि सिन्धु घाटी के के लोग बहुत अधिक सभ्य और समृद्ध थे जबकि इन तथाकथित घुड़सवार खानाबदोश आर्य जाति के विषय में कहीं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। आखिर सिन्धु घाटी के लोग इनसे हारे कैसे? यदि यह मान भी लिया जाए कि वे घुड़सवार खानाबदोश अधिक शक्तिशाली और बर्बर थे इसीलिए वे जीत गए तो सवाल यह पैदा होता है कि इस असभ्य जाति के लोग आखिर इतने सभ्य कैसे हो गए कि वेद जैसे ग्रंथों की रचना कर डाली? और यह स्वभाव से घुमक्कड़ जाति 1200 वर्षों तक कहाँ रही और क्या करती रही। दूसरी ओर यह भी तथ्य है कि आर्यो के भारत मे आने का कोई प्रमाण न तो पुरातत्त्व उत्खननो से मिला है और न ही डी एन ए अनुसन्धानो से। मजे की बात यह भी है कि उन्हीं आर्यों द्वारा रचित वेद आदि ग्रंथों में भी आर्यों के द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता पर आक्रमण करने का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। आर्य शब्द तो स्वयं ही कुलीनता और श्रेष्ठता का सूचक है फिर यह शब्द असभ्य, घुड़सवार, घुमन्तू खानाबदोश जाति के लिए कैसे प्रयुक्त हो सकता है?
वास्तविकता यह है कि उन्नीसवीं शताब्दी में एब्बे डुबोइस (Abbé Dubois) नामक एक फ्रांसीसी पुरातत्ववेत्ता भारत आया। वह कितना ज्ञानी था इस बात का अनुमान तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रलय के विषय में पढ़कर प्रलय को नूह और उसकी नाव के साथ जोड़ने का प्रयास किया था जो कि एकदम मूर्खतापूर्ण असंगत बात थी। एब्बे की पाण्डुलिपि आज के सन्दर्भ में पूरी तरह से असामान्य हो चुकी है। इन्हीं एब्बे महोदय ने भारतीय साहित्य का अत्यन्त ही त्रुटिपूर्ण तथा कपोलकल्पित वर्णन, आकलन और अनुवाद किया जिस पर जर्मन पुरातत्ववेत्ता मैक्समूलर ने, जो कि तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के नाक के बाल बने हुए थे, अपनी भूमिका लिखकर सच्चाई का ठप्पा लगा दिया। मैक्समूलर के द्वारा सच्चाई का ठप्पा लग जाने ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने आर्यों के द्वारा सिन्धुघाटी सभ्यता पर आक्रमण की कपोलकल्पित कहानी को इतिहास बना दिया।
Monday, November 29, 2010
हम ब्लोगर इसलिए हैं क्योंकि हममें लेखन प्रतिभा है
ईश्वर ने हमें अपने विचारों को लेखनीबद्ध करने कि प्रतिभा दी है इसीलिए हम ब्लोगर हैं। जाने कितने ही लोग हैं जो चाहकर भी अपने विचारों को कागज पर उतार नहीं सकते। तीनेक साल पहले तक मैं भी स्वयं को लेखन प्रतिभा से विहीन समझता था किन्तु अभ्यास करके मैंने इस प्रतिभा को अपने भीतर विकसित कर लिया। और मुझमें जब अपने विचारों को लेखनीबद्ध करने की योग्यता आ गई तो मैं ब्लोगर बन गया।
मनुष्यमात्र का यह स्वभाव है कि वह अपनी प्रतिभा का उपयोग करता है। यह उपयोग या तो सदुपयोग हो सकता है या दुरुपयोग हो सकता है या फिर महज एक उपयोग ही हो सकता है। जब कोई अपनी योग्यता का उपयोग करता है और उस उपयोग से समाज का, राष्ट्र का या अन्य अनेक लोगों का कल्याण होता है, राष्ट्र, समाज और लोगों तक उसकी योग्यता के माध्यम से कोई सार्थक सन्देश पहुँचता है तो योग्यता का यह उपयोग निःसन्देह सदुपयोग ही होता है और यदि इसके विपरीत होता है तो दुरुपयोग। किन्तु किसी की प्रतिभा से यदि किसी का न तो कल्याण होता है और न ही राष्ट्र, समाज और लोगों को किसी प्रकार की हानि ही पहुँचती है तो यह योग्यता का महज उपयोग हुआ।
कई बार मेरे मन में प्रश्न उठता है कि मैं अपनी प्रतिभा का उपरोक्त तीन प्रकार के उपयोगों में से किस प्रकार का उपयोग कर रहा हूँ? स्वयं को ही लगने लगता है कि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग मात्र कर रहा हूँ। और शायद वह भी इसलिए क्योंकि अपनी प्रतिभा का प्रयोग करने के लिए मुझे ब्लोगर रूपी मुफ्त मंच (free plateform) मिल गया है। जी हाँ, यह सही है कि यदि मुझे ब्लोगर बनने के लिए अपनी जेब से रुपये खर्च करने पड़ते तो मैं कदापि ब्लोगर न बना होता।
मैं जानता हूँ कि जिनमें लेखन की यह प्रतिभा नहीं है वे दूसरों को पढ़ना पसन्द करते हैं। किन्तु वे लोग मुझे पढ़ने के लिए लालायित कभी नहीं होते क्योंकि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग कर रहा हूँ, सदुपयोग नहीं।
यदि कभी मैं अपनी इस प्रतिभा से राष्ट्र, समाज, भाषा तथा अन्य लोगों का किंचित मात्र भी भला कर पाया तो मैं स्वयं को धन्य मानूँगा।
मनुष्यमात्र का यह स्वभाव है कि वह अपनी प्रतिभा का उपयोग करता है। यह उपयोग या तो सदुपयोग हो सकता है या दुरुपयोग हो सकता है या फिर महज एक उपयोग ही हो सकता है। जब कोई अपनी योग्यता का उपयोग करता है और उस उपयोग से समाज का, राष्ट्र का या अन्य अनेक लोगों का कल्याण होता है, राष्ट्र, समाज और लोगों तक उसकी योग्यता के माध्यम से कोई सार्थक सन्देश पहुँचता है तो योग्यता का यह उपयोग निःसन्देह सदुपयोग ही होता है और यदि इसके विपरीत होता है तो दुरुपयोग। किन्तु किसी की प्रतिभा से यदि किसी का न तो कल्याण होता है और न ही राष्ट्र, समाज और लोगों को किसी प्रकार की हानि ही पहुँचती है तो यह योग्यता का महज उपयोग हुआ।
कई बार मेरे मन में प्रश्न उठता है कि मैं अपनी प्रतिभा का उपरोक्त तीन प्रकार के उपयोगों में से किस प्रकार का उपयोग कर रहा हूँ? स्वयं को ही लगने लगता है कि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग मात्र कर रहा हूँ। और शायद वह भी इसलिए क्योंकि अपनी प्रतिभा का प्रयोग करने के लिए मुझे ब्लोगर रूपी मुफ्त मंच (free plateform) मिल गया है। जी हाँ, यह सही है कि यदि मुझे ब्लोगर बनने के लिए अपनी जेब से रुपये खर्च करने पड़ते तो मैं कदापि ब्लोगर न बना होता।
मैं जानता हूँ कि जिनमें लेखन की यह प्रतिभा नहीं है वे दूसरों को पढ़ना पसन्द करते हैं। किन्तु वे लोग मुझे पढ़ने के लिए लालायित कभी नहीं होते क्योंकि मैं अपनी प्रतिभा का महज उपयोग कर रहा हूँ, सदुपयोग नहीं।
यदि कभी मैं अपनी इस प्रतिभा से राष्ट्र, समाज, भाषा तथा अन्य लोगों का किंचित मात्र भी भला कर पाया तो मैं स्वयं को धन्य मानूँगा।
Sunday, November 28, 2010
गद्य की विधाएँ - कहानी
अंग्रेजी में जिसे 'शार्ट स्टोरी' कहते हैं उसी का प्रचलन हिंदी में कहानी के नाम से हुआ। बंगला में इसे गल्प कहा जाता है। कहानी ने अंग्रेजी से हिंदी तक की यात्रा बंगला के माध्यम से की। कहानी गद्य कथा साहित्य का एक अन्यतम भेद तथा उपन्यास से भी अधिक लोकप्रिय साहित्य का रूप है।
मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।
प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'वाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है।
इसके पश्चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और धर्म पर अधर्म की विजय दिखाई गई हैं।
किन्तु वर्तमान कहानियों पर सर्वाधिक प्रभाव अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' का है जिनके अनुसार एक सफल कहानी में एक केन्द्रीय कथ्य होता है जिसे प्रभावशाली और सघन बनाने के लिये कहानी के सभी तत्वों - कथानक, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, उद्देश्य - का उपयोग किया जाता है। श्री पो के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार हैः
"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"
हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले 'प्रेमचन्द' ने भी श्री पो के विचारों को स्वीकारते हुये कहानी की परिभाषा इस प्रकार से की हैः
"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"
कहानी के तत्व
रोचकता, प्रभाव तथा वक्ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच यथोचित सम्बद्धता बनाये रखने के लिये सभी प्रकार की कहानियों में कमोबेस निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं:
कथावस्तु: किसी कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं - आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह।
कथोपकथन अथवा संवाद: कहानी के पात्रों के द्वारा किये गये उनके विचारों की अभिव्यक्ति को संवाद अथवा कथोपकथन कहते हैं। संवाद के द्वारा पात्रों के मानसिक अन्तर्द्वन्द एवं अन्य मनोभावों को प्रकट किया जाता है।
देशकाल अथवा वातावरण: कहानी में वास्तविकता का पुट देने के लिये देशकाल अथवा वातावरण का प्रयोग किया जाता है। यदि किसी कहानी में शाहजहाँ और मुमताज महल को आधुनिक कार में घूमते हुये बताया जाता है तो उसे हास्यास्पद ही माना जायेगा।
भाषा-शैली: कहानीकार के द्वारा कहानी के प्रस्तुतीकरण के ढंग को उसकी भाषा शैली कहा जाता है। प्रायः अलग-अलग कहानीकारों की भाषा-शैली भी अलग-अलग होती है।
उद्देश्य: कहानी केवल मनोरंजन के लिये ही नहीं होती, उसे एक निश्चित उद्देश्य लेकर लिखा जाता है।
मनुष्य के जन्म के साथ ही साथ कहानी का भी जन्म हुआ और कहानी कहना तथा सुनना मानव का आदिम स्वभाव बन गया। इसी कारण से प्रत्येक सभ्य तथा असभ्य समाज में कहानियाँ पाई जाती हैं। हमारे देश में कहानियों की बड़ी लंबी और सम्पन्न परंपरा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों में वर्णित 'यम-यमी', 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सौपणीं-काद्रव', 'सनत्कुमार-नारद', 'गंगावतरण', 'श्रृंग', 'नहुष', 'ययाति', 'शकुन्तला', 'नल-दमयन्ती' जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।
प्राचीनकाल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस, समुद्री यात्रा, अगम्य पर्वतीय प्रदेशों में प्राणियों का अस्तित्व आदि की कथाएँ, जिनकी कथानक घटना प्रधान हुआ करती थीं, भी कहानी के ही रूप हैं। 'गुणढ्य' की "वृहत्कथा" को, जिसमें 'उदयन', 'वासवदत्ता', समुद्री व्यापारियों, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य है, प्राचीनतम रचना कहा जा सकता है। वृहत्कथा का प्रभाव 'दण्डी' के "दशकुमार चरित", 'वाणभट्ट' की "कादम्बरी", 'सुबन्धु' की "वासवदत्ता", 'धनपाल' की "तिलकमंजरी", 'सोमदेव' के "यशस्तिलक" तथा "मालतीमाधव", "अभिज्ञान शाकुन्तलम्", "मालविकाग्निमित्र", "विक्रमोर्वशीय", "रत्नावली", "मृच्छकटिकम्" जैसे अन्य काव्यग्रंथों पर साफ-साफ परिलक्षित होता है।
इसके पश्चात् छोटे आकार वाली "पंचतंत्र", "हितोपदेश", "बेताल पच्चीसी", "सिंहासन बत्तीसी", "शुक सप्तति", "कथा सरित्सागर", "भोजप्रबन्ध" जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ ही साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और धर्म पर अधर्म की विजय दिखाई गई हैं।
किन्तु वर्तमान कहानियों पर सर्वाधिक प्रभाव अमेरिका के कवि-आलोचक-कथाकार 'एडगर एलिन पो' का है जिनके अनुसार एक सफल कहानी में एक केन्द्रीय कथ्य होता है जिसे प्रभावशाली और सघन बनाने के लिये कहानी के सभी तत्वों - कथानक, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, उद्देश्य - का उपयोग किया जाता है। श्री पो के अनुसार कहानी की परिभाषा इस प्रकार हैः
"कहानी वह छोटी आख्यानात्मक रचना है, जिसे एक बैठक में पढ़ा जा सके, जो पाठक पर एक समन्वित प्रभाव उत्पन्न करने के लिये लिखी गई हो, जिसमें उस प्रभाव को उत्पन्न करने में सहायक तत्वों के अतिरिक्त और कुछ न हो और जो अपने आप में पूर्ण हो।"
हिंदी कहानी को सर्वश्रेष्ठ रूप देने वाले 'प्रेमचन्द' ने भी श्री पो के विचारों को स्वीकारते हुये कहानी की परिभाषा इस प्रकार से की हैः
"कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता।"
कहानी के तत्व
रोचकता, प्रभाव तथा वक्ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच यथोचित सम्बद्धता बनाये रखने के लिये सभी प्रकार की कहानियों में कमोबेस निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं:
कथावस्तु: किसी कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिये कथावस्तु का होना अनिवार्य है क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथानक के चार अंग माने जाते हैं - आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह।
- 'आरम्भ' में कहानीकार कहानी के शीर्षक तथा प्रारमंभिक अनुच्छेदों के द्वारा पाठक को कथासूत्र से अवगत कराता है जिससे कि वह कहानी के प्रति आकर्षित होकर उसमें रमने लगे। सफल आरम्भ वह होता है जिसमें कि कहानी शुरू करते ही पाठका का मन कुतूहल और जिज्ञासा से भर जाये।
- कहानी के विकास की अवस्था को कहानी का 'आरोह' कहते हैं। आरोह में कहानीकार घटनाक्रम को सहज रूप में प्रस्तुत करता है और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन करता है।
- जब कहानी पढ़ते-पढ़ते पाठक कौतूहल की पराकाष्ठा में पहुँच जाये तो उसे कहानी की 'चरम स्थिति' कहते हैं।
- पाठक को जब कहानी के उद्देश्य का प्रतिफल प्राप्त होता है उसे कहानी का 'अवरोह' अथवा 'अंत' कहते हैं। कहानी के अवरोह में संक्षिप्तता तथा मार्मिकता पर अधिक जोर दिया जाता है।
कथोपकथन अथवा संवाद: कहानी के पात्रों के द्वारा किये गये उनके विचारों की अभिव्यक्ति को संवाद अथवा कथोपकथन कहते हैं। संवाद के द्वारा पात्रों के मानसिक अन्तर्द्वन्द एवं अन्य मनोभावों को प्रकट किया जाता है।
देशकाल अथवा वातावरण: कहानी में वास्तविकता का पुट देने के लिये देशकाल अथवा वातावरण का प्रयोग किया जाता है। यदि किसी कहानी में शाहजहाँ और मुमताज महल को आधुनिक कार में घूमते हुये बताया जाता है तो उसे हास्यास्पद ही माना जायेगा।
भाषा-शैली: कहानीकार के द्वारा कहानी के प्रस्तुतीकरण के ढंग को उसकी भाषा शैली कहा जाता है। प्रायः अलग-अलग कहानीकारों की भाषा-शैली भी अलग-अलग होती है।
उद्देश्य: कहानी केवल मनोरंजन के लिये ही नहीं होती, उसे एक निश्चित उद्देश्य लेकर लिखा जाता है।
Saturday, November 27, 2010
फोकट में पाइस अउ मरत ले खाइस
छत्तीसगढ़ी में एक लोकोक्ति है "फोकट में पाइस अउ मरत ले खाइस" जिसका अर्थ है मुफ्त में खाने को मिला तो इतना खाया कि प्राण ही निकल गए। इस लोकोक्ति से यही सन्देश मिलता है कि अधिक लालच प्राणघाती होता है। इसीलिए तो कबीरदास जी ने भी कहा हैः
माखी गुड़ में गड़ि रहै पंख रह्यौ लिपटाय।
हाथ मलै और सिर धुनै लालच बुरी बलाय॥
लालच अर्थात् लोभ व्यक्ति को हमेशा नुकसान ही पहुँचाता है। छत्तीसगढ़ी के एक अन्य लोकोक्ति में कहा गया है - "लोभिया ला लबरा ठगे" जिसका अर्थ है "लोभी व्यक्ति को झूठा आदमी ठग लेता है"।
वास्तविकता तो यह है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोभी या लालची होता है, लालच या लोभ प्राणीमात्र की स्वाभाविक मानसिकता है। चारे की लालच में मछली बंशी में फँस कर जान गवाँ देती है, पक्षी जाल में फँस जाते हैं, वन्य पशु भी मनुष्य की गिरफ्त में आ जाते हैं। मछली, पक्षी, वन्य पशुओं आदि के लालच का फायदा मनुष्य उठाता है चारे की लालच देकर।
मनुष्य न केवल अन्य प्राणियों के बल्कि मनुष्यों के भी लालच की मानसिकता का फायदा उठाता है चारे के रूप में "फोकट" या "मुफ्त" शब्द का इस्तेमाल करके। वास्तव में "फ्री", "मुफ्त", "फोकट" जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों के भीतर की लालच को उभारने के लिए। ये शब्द लोगों को बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोड़ देना कोई भी पसंद नहीं करता। वो कहते हैं ना “माले मुफ्त दिले बेरहम”। किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।
बाजार में आप "दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!" जैसी स्कीम रोज ही देखते होंगे। और इस स्कीम को जान कर हम खुश हो जाते हैं यह सोचकर कि एक साबुन हमें मुफ्त मिल रहा है, परिणामस्वरूप हम एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं। तीन साबुन की फिलहाल हमें कतइ जरूरत नहीं है फिर भी हम तीन साबुन खरीद लेते हैं। क्यों? सिर्फ लालच में आकर। किन्तु हमें यह पता होना चाहिए कि जिसने हमें दो साबुन की कीमत में तीन साबुन दिए हैं उसने घाटा खाने के लिए दुकान नहीं खोला है, उसने हमसे कुछ न कुछ कमाया ही है। उसने अपनी कमाई के लिए हमारी लालच की मानसिकता का लाभ उठाते हुए हमें बेवकूफ बनाया है।
कैसे बेवकूफ बनाया है उसने?
मान लीजिये एक साबुन की कीमत पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?
भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?
विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।
सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।
यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।
माखी गुड़ में गड़ि रहै पंख रह्यौ लिपटाय।
हाथ मलै और सिर धुनै लालच बुरी बलाय॥
लालच अर्थात् लोभ व्यक्ति को हमेशा नुकसान ही पहुँचाता है। छत्तीसगढ़ी के एक अन्य लोकोक्ति में कहा गया है - "लोभिया ला लबरा ठगे" जिसका अर्थ है "लोभी व्यक्ति को झूठा आदमी ठग लेता है"।
वास्तविकता तो यह है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति लोभी या लालची होता है, लालच या लोभ प्राणीमात्र की स्वाभाविक मानसिकता है। चारे की लालच में मछली बंशी में फँस कर जान गवाँ देती है, पक्षी जाल में फँस जाते हैं, वन्य पशु भी मनुष्य की गिरफ्त में आ जाते हैं। मछली, पक्षी, वन्य पशुओं आदि के लालच का फायदा मनुष्य उठाता है चारे की लालच देकर।
मनुष्य न केवल अन्य प्राणियों के बल्कि मनुष्यों के भी लालच की मानसिकता का फायदा उठाता है चारे के रूप में "फोकट" या "मुफ्त" शब्द का इस्तेमाल करके। वास्तव में "फ्री", "मुफ्त", "फोकट" जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों के भीतर की लालच को उभारने के लिए। ये शब्द लोगों को बरबस ही आकर्षित कर लेते हैं। मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोड़ देना कोई भी पसंद नहीं करता। वो कहते हैं ना “माले मुफ्त दिले बेरहम”। किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।
बाजार में आप "दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!" जैसी स्कीम रोज ही देखते होंगे। और इस स्कीम को जान कर हम खुश हो जाते हैं यह सोचकर कि एक साबुन हमें मुफ्त मिल रहा है, परिणामस्वरूप हम एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं। तीन साबुन की फिलहाल हमें कतइ जरूरत नहीं है फिर भी हम तीन साबुन खरीद लेते हैं। क्यों? सिर्फ लालच में आकर। किन्तु हमें यह पता होना चाहिए कि जिसने हमें दो साबुन की कीमत में तीन साबुन दिए हैं उसने घाटा खाने के लिए दुकान नहीं खोला है, उसने हमसे कुछ न कुछ कमाया ही है। उसने अपनी कमाई के लिए हमारी लालच की मानसिकता का लाभ उठाते हुए हमें बेवकूफ बनाया है।
कैसे बेवकूफ बनाया है उसने?
मान लीजिये एक साबुन की कीमत पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?
भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?
विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।
सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।
यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।
Friday, November 26, 2010
गद्य की विधाएँ - निबन्ध
"निबन्ध" शब्द का मूल है "बन्ध", निबन्ध का अर्थ होता है बाँधना। किसी विषयवस्तु से सम्बन्धित ज्ञान को क्रमबद्ध रूप से बाँधते हुए लेखन को निबन्ध कहा जाता है। बाबू गुलाबराय ने निबन्ध को इस प्रकार से परिभाषित किया है -
एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय या वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव, सजीवता तथा सम्बद्धता के साथ किया जाना ही निबन्ध कहलाता है।
निबन्ध के निम्न मुख्य भेद होते हैं -
वर्णनात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति, दृश्य आदि का निरीक्षण के आधार पर रोचक तथा आकर्षक वर्णन किया जाए तो उसे वर्णनात्मक निबन्ध कहा जाता है।
विवरणात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में ऐतिहासि तथा सामाजिक घटनाओं, स्थानों, दृश्यों आदि का रोचक तथा आकर्षक विवरण दिया जाए तो उसे विवरणात्मक निबन्ध कहा जाता है।
भावात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में हृदय में उत्पन्न होने वाले भावों तथा रागों को दर्शाया जाए तो उसे भावात्मक निबन्ध कहा जाता है। ऐसे निबन्धों की भाषा सरल, मधुर, ललित तथा संगीतमय होती है और ये निबन्ध कवित्वपूर्ण तथा प्रवाहमय प्रतीत होते हैं।
एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय या वर्णन या प्रतिपादन एक विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव, सजीवता तथा सम्बद्धता के साथ किया जाना ही निबन्ध कहलाता है।
निबन्ध के निम्न मुख्य भेद होते हैं -
- विचारात्मक
- वर्णनात्मक
- विवराणात्मक
- भावात्मक
वर्णनात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति, दृश्य आदि का निरीक्षण के आधार पर रोचक तथा आकर्षक वर्णन किया जाए तो उसे वर्णनात्मक निबन्ध कहा जाता है।
विवरणात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में ऐतिहासि तथा सामाजिक घटनाओं, स्थानों, दृश्यों आदि का रोचक तथा आकर्षक विवरण दिया जाए तो उसे विवरणात्मक निबन्ध कहा जाता है।
भावात्मक निबन्ध - जब किसी निबन्ध में हृदय में उत्पन्न होने वाले भावों तथा रागों को दर्शाया जाए तो उसे भावात्मक निबन्ध कहा जाता है। ऐसे निबन्धों की भाषा सरल, मधुर, ललित तथा संगीतमय होती है और ये निबन्ध कवित्वपूर्ण तथा प्रवाहमय प्रतीत होते हैं।
Thursday, November 25, 2010
1947 मे काश्मीर के महाराजा हरी सिंह के द्वारा पाक आक्रमण के सन्दर्भ में स्वतन्त्र भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन को लिखे गए पत्र का हिन्दी भावानुवाद
जिस समय भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान का निर्माण हुआ तभी से ही पाकिस्तान की नीयत काश्मीर को हड़पने की थी और इसके लिए उस देश ने काश्मीर, जिसका विलय उस समय तक भारत में नहीं हुआ था, में छद्मरूप में अपने सैनिकों को भेजना शुरू कर दिया था। एक छोटा राज्य होने के कारण काश्मीर के राजा हरी सिंह के पास पाकिस्तान की सेना से निबटने का सामर्थ्य नहीं था अतः उन्होंने भारत सरकार को पत्र लिखकर सहायता का अनुरोध किया था। प्रस्तुत है अंग्रेजी में लिखे गए उसी पत्र का हिन्दी भावानुवादः
--------------------------------
(मूल अंग्रेजी पत्रों का, जो कि http://www.kashmir-information.com/LegalDocs/Maharaja_letter.html से साभार लिए गए हैं, हिन्दी भावानुवाद मैंने अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार किया है, यदि इसमें आपको त्रुटि का आभास हो तो कृपया आप अपने अनुसार सुधार कर पढ़ें।)
प्रिय लॉर्ड माउंटबेटन,मूल अंग्रेजी पत्रः
महामहिम को सूचित करना पड़ रहा है कि मेरे राज्य में एक गम्भीर आपात उत्पन्न हो गई है और मैं आपकी सरकार से तत्काल सहायता हेतु अनुरोध कर रहा हूँ। जैसा कि महामहिम को विदित है, जम्मू और काश्मीर राज्य ने भारत या पाकिस्तान में से किसी में भी अपना विलय स्वीकार नहीं किया है। भौगोलिक रूप से मेरा राज्य दोनों ही देशों को स्पर्श करता है। इसके अलावा, मेरे राज्य की सीमाएँ सोवियत सोशलिस्ट गणराज्यों के संघ (Union of Soviet Socialist Republics) तथा चीन की सीमाओं को भी छूती हैं। भारत और पाकिस्तान दोनों ही अपने वैदेशिक सम्बन्धों के अन्तर्गत इस सत्य की उपेक्षा नहीं कर सकते। यह तय करने के लिए कि मेरे राज्य का विलय भारत में हो या पाकिस्तान पाकिस्तान में या दोनों ही देशों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध बनाए रखते हुए मेरे देश स्वतन्त्र रहे, मैं समय लेना चाहता था। तदनुसार मैंने, मेरे राज्य के साथ ठहराव वाले समझौता हेतु, भारत और पाकिस्तान से सम्पर्क किया। पाकिस्तान की सरकार ने इस समझौते को स्वीकार किया। भारत सरकार इस सन्दर्भ में मेरे राज्य के प्रतिनिधि से आगे और भी बातचीत करना चाहती है। नीचे दर्शाए घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए मैं इसकी (भारत सरकार से आगे बातचीत करने की) व्यवस्था नहीं कर पाया। वास्तविकता यह है कि इस समझौते के अन्तर्गत पाकिस्तान सरकार मेरे राज्य के डाक-तार प्रणाली का परिचालन कर रही है। यद्यपि हमारा पाकिस्तान सरकार के साथ समझौता है, पाकिस्तान सरकार ने मेरे राज्य में भोज्य पदार्थ, नमक और पेट्रोल जैसी वस्तुओं की आपूर्ति के लिए एक सतत बढ़ते क्रम में गला घोंटने वाली स्वीकृति प्रदान की है।
आधुनिक हथियारों से सुसज्जित आफरीदी, सादे वस्त्र वाले सैनिक और आतताइयों को मेरे राज्य में घुसपैठ करने दिया जा रहा है, पहले पूंछ में फिर सियालकोट में और अन्त में रामकोट की ओर हजारा जिले से लगे एक बहुत बड़े क्षेत्र में घुसपैठ की गई। इसका परिणाम यह हुआ कि राज्य की सीमित संख्या की सैनिक टुकड़ियों को अनेक बिन्दुओं पर स्थित शत्रुओं का एक साथ सामना करने हेतु तितर-बितर हो जाना पड़ा और जीवन तथा संपत्ति के प्रचण्ड विनाश को रोकना दुःसाध्य हो गया, इसके अलावा महुरा पॉवर हाउस, जहाँ से सम्पूर्ण श्रीनगर को विद्युत प्रदाय होती है, को लूटकर जला डाला गया। अपहृत तथा बलात्कार की गई औरतों की संख्या ने मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया है। क्रूर सैनिकों की टुकड़ियाँ श्रीनगर, जो कि मेरे राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी है, पर अधिकार करने के उद्देश्य से राज्य के अनेक स्थानों पर कवायद कर रही हैं। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त के सुदूर क्षेत्रों से मनवेरा-मजफ्फराबाद मार्ग से मोटरट्रकों में भर-भर कर आने वालों हथियारों से लैस आदिवासियों के द्वारा सामूहिक घुसपैठ करना नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रान्त और पाकिस्तान सरकार की जानकारी में आए बिना सम्भव नहीं है। मेरे सरकार के द्वारा बारम्बार अनुरोध करने के बावजूद भी इन हमलावरों को रोकने या मेरे राज्य में घुसपैठ न करने देने के लिए किसी भी प्रकार का प्रयास नहीं किया गया है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान के रेडिओ और प्रेसे दोनों को ही इन घटनाओं की सूचना है। पाकिस्तान रेडियो ने यह कहानी गढ़ ली है कि एक अस्थायी सरकार कश्मीर में स्थापित किया गया है। मेरे राज्य के मुस्लिम और गैर-मुस्लिम लोगों का इन घटनाओं में सामान्यतः किसी भी प्रकार से सम्मिलित नहीं है। मेरे राज्य की वर्तमान स्थिति और आपात् अवस्था को ध्यान में रखते हुए मेरे पास भारत सरकार से सहायता प्राप्त करने के अलावा और कोई भी विकल्प नहीं रह गया है। स्वाभाविक है कि मेरे द्वारा अपने राज्य का भारत में विलय स्वीकार किए बगैर भारत सरकार मेरी सहायता नहीं कर सकती। अतः मैंने तदनुसार अपने राज्य का भारत में विलय स्वीकार करने का निश्चय कर लिया है और सम्बन्धित दस्तावेज आपकी सरकार की स्वीकृति हेतु इस पत्र के साथ नत्थी कर रहा हूँ। दूसरा विकल्प अपने राज्य एवं प्रजा को पदाक्रान्तित करने वालों को सौंपना ही होगा। इस आधार पर कोई सभ्य सरकार जीवित नहीं रह सकती है या अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है।
जब तक मैं इस राज्य का शासक हूँ और जब तक मेरे प्राणों में प्राण हैं, मैं इस दूसरे विकल्प को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। मैं आपके महाहिम के सरकार को सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा इरादा तत्काल एक अन्तरिम सरकार की स्थापना करने का तथा इस आपात् काल में उसकी जिम्मेदारियों को मेरे प्रधानमन्त्री के साथ मिलकर निबाहने के लिए शेख अब्दुला को निमन्त्रित करने का है। श्री वी.पी. मेनन स्थिति की गम्भीरता से पूर्णतः भिज्ञ हैं और, इस विषय में यदि आपको आवश्यकता हो तो, किसी भी प्रकार की स्पष्टीकरण दे सकते हैं।
शीघ्रता में तथा कृपालु सम्बन्धों सहित,
भवदीय
हरी सिंह
26 अक्टूबर, 1947
My dear Lord Mountbatten,महाराजा हरी सिंह के पत्र का लॉर्ड माउण्टबेटन के द्वारा जवाब का भावानुवादः
I have to inform Your Excellency that a grave emergency has arisen in my State and request the immediate assistance of your Government. As Your Excellency is aware,the State of Jammu and Kashmir has not acceded to either the Dominion of India or Pakistan. Geographically my State is contiguous wit h both of them. Besides, my State has a common boundary with the Union of Soviet Socialist Republics and with China. In their external relations the Dominion of India and Pakistan cannot ignore this fact. I wanted to take time to decide to which Dominion I should accede or whether it is not in the best interests of both the Dominions and of my State to stand independent, of course with friendly and cordial relations with both. I accordingly approached the Dominions of India and Pakistan to enter into standstill agreement with my State. The Pakistan Government accepted this arrangement. The Dominion of India desired further discussion with representatives of my Government. I could not arrange this in view of the developments indicated below. ln fact the Pakistan Goernment under the standstill agreement is operating the post and telegraph system inside the State. Though we have got a standstill agreement with the Pakistan Government, lhe Govemment permitted a steady and increasing strangulation of supplies like food, salt and petrol to my State.
Afridis, soldiers in plain clothes, and desperadoes wnh modern weapons have been allowed to infiltrate into the State, at first in the Poonch area, then from Sia1kot and finally in a mass in the area adjoining-Hazara district on the Ramkote side. The result has been that the limited number of troops at the disposal of the State had to be dispersed and thus had to face the enemy at several points simultaneously, so that it has become difficult to stop the wanton destruction of life ad property and the looting of the Mahura power house, which supplies electric current to the whole of Srinagar and which has been burnt. The number of women who have been kidnpped and raped makes my heart bleed. The wild forces thus let loose on the State are marching on with the aim of capturing Srinagar, the summer capital of my government, as a first step to overrunning the whole State.The mass infiltration of tribesman drawn from distant areas of the North-West Frontier Province, coming regularly in motortrucks, using the Manwehra-Mazaffarabad road and fully armed with up-to-date weapons, cannot possibly be done without the knowledge of the Provincial Govemment of the North-West Frontier Province and the Government of Pakistan. Inspite of repeated appeals made by my Government no attempt has been made to check these raiders or to stop them from coming into my State. In fact, both radio and the Press of Pakistan have reported these occurences. The Pakistan radio even put out the story that a provisional government has been set up in Kashmir. The people of my State, both Muslims and non-Muslims, generally have taken no part at all.
With the conditions obtaining at present in my State and the great emergency of the situation as it exists, I have no option but to ask for help from the Indian Dominion. Naturally they cannot send the help asked for by me without my State acceding to the Dominion of India. I have accordingly decided to do so, and I attach the instrument of accession for acceptance by your Government. The other alternative is to leave my state and people to free booters. On this basis no civilised government can exist or be maintained.
This alternative I will never allow to happen so long as I am the ruler of the State and I have life to defend my country. I may also inform your Excellency's Government that it is my intention at once to set up an interim government and to ask Sheikh Abdullah to carry the responsibilities in this emergency with my Prime Minister.
If my State is to be saved, immediate assistance must be available at Srinagar. Mr. V.P. Menon is fully aware of the gravity of the situation and will explain it to you, if further explanation is needed.
In haste and with kindest regards,
Yours sincerely,
Hari Singh
October 26, 1947
प्रिय राजा साहब,मूल अंग्रेजी पत्रः
आपका राजकीय पत्र दिनांक 26 अक्टूबर 1947 मुझे श्री वी.पी. मेनन के द्वारा सौंपा गया। राजकीय पत्र में उल्लेखित परिस्थियों को ध्यान में रखते हुए मेरे सरकार ने कश्मीर राज्य के भारत में विलय को स्वीकार करने का फैसला किया है। इस नीति के तहत कि यदि किसी राज्य के विलय में किसी प्रकार का विवाद हो तो उस विवाद का हल उस राज्य की जनता की इच्छानुसार तय किया जाना चाहिए, मेरी सरकार की इच्छा है कि जैसे ही कश्मीर में कानून और व्यवस्था फिर से बहाल होगी तथा उसकी भूमि आक्रमणकारियों से मुक्त हो जाएगी, जनता की मतानुसार ही कश्मीर के विलय को मंजूरी दी जाएगी।
इस बीच, सैन्य सहायता हेतु आपके राजकीय अनुरोध के जवाब में, आज कार्यवाही की गई है और आपकि सेना की सहायता तथा आपके राज्य तथा जनता के सम्मान, सम्पत्ति तथा जीवन की सुरक्षा हेतु काश्मीर में भारतीय सैनिक भेजे जा रहे हैं। एक अन्तरिम सरकार के गठन तथा उसकी जिम्मेदारियों को आपके प्रधानमन्त्री के साथ मिलकर वहन करने के लिए शेख अब्दुल्ला को आमन्त्रित करने के आपके निर्णय से मेरी सरकार तथा मैं सन्तुष्ट हैं।
बर्मा का माउण्टबेटन
27 अक्टूबर 1947
My dear Maharaja Sahib,काश्मीर में भारतीय सैन्य सहायता पहुँचने तक पाकिस्तान ने काश्मीर राज्य के एक बहुत बड़े भाग को हड़प लिया था जो कि आज आजाद काश्मीर के नाम से जाना जाता है। काश्मीर का भारत में विलय स्वीकार हो जाने पर क्या भारत सरकार को पाकिस्तान द्वारा हड़पे गए काश्मीर के उस भाग को वापस प्राप्त नहीं करना चाहिए था? आज भी जब पाकिस्तान काश्मीर का राग अलापता है तो भारत सरकार को आजाद काश्मीर के विवाद को सामने नहीं लाना चाहिए? क्या काश्मीर के महाराजा हरीसिंह ने सम्पूर्ण काश्मीर का भारत में विलय नहीं चाहा था?
Your Highness' letter dated 26 October 1947 has been delivered to me by Mr. V.P. Menon. In the circumstances mentioned by Your Highness, my Government have decided to accept the accession of Kashmir State to the Dominion of India. In consistence with their policy that in the case of any State where the issue of accession has been the subject of dispute, the question of accession should be decided in accordance with the wishes of the people of the State, it is my Government's wish that, as soon as law and order have been restored in Kashmir and its soil cleared of the invader, the question of the State's accession should be settled by a reference to the people.
Meanwhile, in response to Your Highness' appeal for military aid, action has been taken today to send troops of the Indian Army to Kashmir, to help your own forces to defend your territory and to protect the lives, property, and honour of your people. My Government and I note with satisfaction that Your Highness has decided to invite Sheikh Abdullah to form an interim Government to work with your Prime Minister.
Mountbatten of Burma
October 27, 1947
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(मूल अंग्रेजी पत्रों का, जो कि http://www.kashmir-information.com/LegalDocs/Maharaja_letter.html से साभार लिए गए हैं, हिन्दी भावानुवाद मैंने अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार किया है, यदि इसमें आपको त्रुटि का आभास हो तो कृपया आप अपने अनुसार सुधार कर पढ़ें।)
Wednesday, November 24, 2010
महानता का पैमाना
कौन महान है और कौन महान नहीं है और यदि कोई महान है तो कितना महान है जैसी बातों को जानने का एक पैमाना होता है जिसका मूल्य न केवल समय-काल-परिस्थितियों के अनुसार बल्कि महान व्यक्ति के कार्य के प्रकार के अनुसार बदलता रहता है। कभी राजा हरिश्चन्द्र के द्वारा अपने राज्य को विश्वामित्र को दे देना और श्मशान के डोम के यहाँ नौकरी कर लेने को महान कार्य माना जाता था किन्तु आज यदि कोई इसी जैसा कार्य करे तो उस कार्य को मूर्खता ही माना जाएगा।
एक जमाना था में मनुष्य के द्वारा किया सफल कार्य उसे महान बना देता था। जब बाबू देवकीनन्दन खत्री ने "चन्द्रकान्ता" उपन्यास का लेखन आरम्भ किया होगा तो क्या उन्हें पता रहा होगा कि उनका वह उपन्यास इतना लोकप्रिय होगा कि उसे पढ़ने के लिये लाखों लोग हिन्दी सीखने के लिए विवश हो जाएँगे? मुंशी प्रेमचंद ने कभी कल्पना भी नहीं की रही होगी कि उनकी कहानियाँ और उपन्यास उन्हें "कथा सम्राट" तथा "उपन्यास सम्राट" बना कर उन्हें चिरकाल के लिए अमर बना देंगे। चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने "उसने कहा था" लिखते समय क्या सोचा भी न रहा होगा कि उनकी इस कहानी का अनुवाद संसार के समस्त प्रमुख भाषाओं में हो जाएगी? किन्तु इन महानुभावों की कृतियों की सफलता ने उन्हें इतिहासपुरुष तथा महान बना दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी काल में व्यक्ति कार्य कार्य करता था और कार्य सफल हो जाने पर उसका कार्य उस व्यक्ति को महान बना देता था।
पर आज के जमाने में आदमी को पहले महान बनना पड़ता है क्योंकि आज सफल कार्य व्यक्ति को महान नहीं बनाता वरन महान व्यक्ति के द्वारा किया गए कार्य को सफल होना ही पड़ता है। इसलिये आजकर सफल करने के बजाय महान बनने के लिये उद्योग करना ही उचित है क्यों जमाने के अनुसार चलने में ही भलाई है। कहा भी गया है - जैसी बहे बयार पीठ तैसी कर लीजे!
एक जमाना था में मनुष्य के द्वारा किया सफल कार्य उसे महान बना देता था। जब बाबू देवकीनन्दन खत्री ने "चन्द्रकान्ता" उपन्यास का लेखन आरम्भ किया होगा तो क्या उन्हें पता रहा होगा कि उनका वह उपन्यास इतना लोकप्रिय होगा कि उसे पढ़ने के लिये लाखों लोग हिन्दी सीखने के लिए विवश हो जाएँगे? मुंशी प्रेमचंद ने कभी कल्पना भी नहीं की रही होगी कि उनकी कहानियाँ और उपन्यास उन्हें "कथा सम्राट" तथा "उपन्यास सम्राट" बना कर उन्हें चिरकाल के लिए अमर बना देंगे। चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने "उसने कहा था" लिखते समय क्या सोचा भी न रहा होगा कि उनकी इस कहानी का अनुवाद संसार के समस्त प्रमुख भाषाओं में हो जाएगी? किन्तु इन महानुभावों की कृतियों की सफलता ने उन्हें इतिहासपुरुष तथा महान बना दिया। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी काल में व्यक्ति कार्य कार्य करता था और कार्य सफल हो जाने पर उसका कार्य उस व्यक्ति को महान बना देता था।
पर आज के जमाने में आदमी को पहले महान बनना पड़ता है क्योंकि आज सफल कार्य व्यक्ति को महान नहीं बनाता वरन महान व्यक्ति के द्वारा किया गए कार्य को सफल होना ही पड़ता है। इसलिये आजकर सफल करने के बजाय महान बनने के लिये उद्योग करना ही उचित है क्यों जमाने के अनुसार चलने में ही भलाई है। कहा भी गया है - जैसी बहे बयार पीठ तैसी कर लीजे!
Tuesday, November 23, 2010
अलग-अलग भाषाओं में रामायण
तुलसीदास ने लिखा है ‘रामायण सतकोटि अपारा’!
अलग-अलग भाषाओं में कुछ रामायण हैं -
अध्यात्म रामायण - संस्कृत
वाल्मीकि कृत रामायण - संस्कृत
आनन्द रामायण - संस्कृत
अद्भुत रामायण -
रामचरितमानस - हिन्दी
सुन्दरानन्द रामायण तथा आदर्श राघव - नेपाली
कथा रामायण - आसामी
कृत्तिवास रामायण - बंगाली
जगमोहन रामायण - उड़िया
राम बालकिया - गुजराती
रामावतार - पंजाबी
रामावतार चरित - काश्मीरी
कम्ब रामायण - तमिल
रामचरितम् - मलयालम
रंगनाथ रामायण - तेलुगु
रघुनाथ रामायणम् - तेलुगु
कुमुदेन्दु रामायण - कन्नड़
तोरवे रामायण - कन्नड़
अलग-अलग भाषाओं में कुछ रामायण हैं -
अध्यात्म रामायण - संस्कृत
वाल्मीकि कृत रामायण - संस्कृत
आनन्द रामायण - संस्कृत
अद्भुत रामायण -
रामचरितमानस - हिन्दी
सुन्दरानन्द रामायण तथा आदर्श राघव - नेपाली
कथा रामायण - आसामी
कृत्तिवास रामायण - बंगाली
जगमोहन रामायण - उड़िया
राम बालकिया - गुजराती
रामावतार - पंजाबी
रामावतार चरित - काश्मीरी
कम्ब रामायण - तमिल
रामचरितम् - मलयालम
रंगनाथ रामायण - तेलुगु
रघुनाथ रामायणम् - तेलुगु
कुमुदेन्दु रामायण - कन्नड़
तोरवे रामायण - कन्नड़
Monday, November 22, 2010
जिन्दगी से हारा आदमी कभी सफल नहीं बन सकता
संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक अपनी जिन्दगी से सतत् संघर्ष करते रहता है और इस संघर्ष में प्रायः जिन्दगी ही जीतते रहती है। जो जिन्दगी से जीतने की क्षमता रखते हैं वे सफलता की ऊँचाई में पहुँच जाते हैं और जो हारते हैं वे नीचे ही रह जाते हैं। जिन्दगी से संघर्ष में जीत और हार मानव समाज को दो हिस्सों में बाँट देती है, ये बँटवारा हैः
जीतने वालों का और हारने वालों का!
ऊपर वालों का और नीचे वालों का!
और यह भी तय है कि अगर आप ऊपर नहीं है तो इसका मतलब है आप नीचे हैं। आप जिन्दगी की लड़ाई हारे हुए हैं। जिन्दगी के क्रिकेट में या तो जीत होती है या हार, जिन्दगी के क्रिकेट में ड्रा नहीं होता।
जिन्दगी से हारा हुआ आदमी कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, कभी भी ऊँचाई पर नहीं पहुँच सकता।
हो सकता है कि आप भी जिन्दगी की लड़ाई हारे हुए हों। आप सफलता चाहते हैं किन्तु आपको सफलता मिलती नहीं। आप ऊपर न होकर नीचे हों। आप जिन्दगी की दौड़ में आगे न होकर पीछे हों।
किन्तु चिन्ता करने और निराश होने की कोई जरूरत नहीं है। आप जिन्दगी की लड़ाई जीत सकते हैं। आप नीचे से ऊपर पहुँच सकते हैं। याद रखिए कि नीचे दुनिया भर की भीड़ होती है किन्तु ऊपर हमेशा जगह खाली रहती है, आपके लिए भी ऊपर एक जगह है जो आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
वास्तव में जिन्दगी की लड़ाई जीतना एक कला है। आपको यह कला सीखनी होगी।
क्या करना होगा आपको इस कला को सीखने के लिए?
सबसे पहले तो आपको इस प्रश्न का उत्तर खोजना होगा किः
जिन्दगी की लड़ाई में सफलता प्राप्त कर ऊपर चले जाने वाले लोग आखिर इस लड़ाई को जीत कैसे लेते हैं और आप इस लड़ाई में हार क्यों जाते हैं?
इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर है कि जो लोग जिन्दगी की लड़ाई जीतते हैं वे आत्मविश्वास से भरे होते हैं और आपमें आत्मविश्वास की कमी होती है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें बता देती हैं कि आपमें कितना आत्मविश्वास है। जरा याद करके बताइए कि क्या आप दूसरों से आँखों में आँखें डाल कर बात करते हैं? आप किसी से अकड़कर सख्ती के साथ हाथ मिलाते हैं या मरियल सा होकर?
आत्मविश्वास की इस कमी के कारण आप निराशावादी हो जाते हैं। आप को स्वयं के ऊपर भरोसा नहीं रह पाता। याद रखिए कि इस संसार में आपको यदि कोई व्यक्ति सफलता दिला सकता है तो वह व्यक्ति आप और केवल आप ही हैं। और यदि आपको खुद पर भरोसा न हो तो आप अपने आप को कभी सफलता नहीं दिला सकते। सफलता पाने के लिए स्वयं पर भरोसा करना अनिवार्य है और कोई व्यक्ति खुद पर भरोसा तभी कर सकता है जब उसके भीतर भरपूर आत्मविश्वास हो।
इस बात को कभी भी न भूलें कि कोई दूसरा व्यक्ति आपको सफलता कभी दिला ही नहीं सकता क्योंकि जिस सफलता को आप प्राप्त करना चाहते हैं, उसी सफलता को वह दूसरा व्यक्ति भी प्राप्त करना चाहता है। फिर क्यों वह आपको सफलता दिलाएगा? वह तो आपका प्रतिद्वन्द्वी है। सच पूछा जाए तो सफलता प्राप्त करने के मामले में संसार का प्रत्येक व्यक्ति आपका प्रतिद्वन्द्वी है और आपको उन सभी से द्वन्द्व करते हुए, उन्हें हरा कर, आगे बढ़ते जाना है।
और विश्वास मानिए कि आप स्वयं में भरपूर आत्मविश्वास पैदा कर सकते हैं। इसके लिए आपको अभ्यास की आवश्यकता है। वृन्द कवि ने कहा हैः
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
जब एक कमजोर रस्सी पत्थर पर निशान बना सकती है तो आप भला क्यों जिन्दगी की लड़ाई नहीं जीत सकते?
तो बिना एक पल की देर किए जुट जाइए जिन्दगी की लड़ाई जीतने के कार्य में। आप जीतेंगे तो आपका परिवार जीतेगा, आपका समाज जीतेगा, आपका देश जीतेगा!
जीतने वालों का और हारने वालों का!
ऊपर वालों का और नीचे वालों का!
और यह भी तय है कि अगर आप ऊपर नहीं है तो इसका मतलब है आप नीचे हैं। आप जिन्दगी की लड़ाई हारे हुए हैं। जिन्दगी के क्रिकेट में या तो जीत होती है या हार, जिन्दगी के क्रिकेट में ड्रा नहीं होता।
जिन्दगी से हारा हुआ आदमी कभी भी सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, कभी भी ऊँचाई पर नहीं पहुँच सकता।
हो सकता है कि आप भी जिन्दगी की लड़ाई हारे हुए हों। आप सफलता चाहते हैं किन्तु आपको सफलता मिलती नहीं। आप ऊपर न होकर नीचे हों। आप जिन्दगी की दौड़ में आगे न होकर पीछे हों।
किन्तु चिन्ता करने और निराश होने की कोई जरूरत नहीं है। आप जिन्दगी की लड़ाई जीत सकते हैं। आप नीचे से ऊपर पहुँच सकते हैं। याद रखिए कि नीचे दुनिया भर की भीड़ होती है किन्तु ऊपर हमेशा जगह खाली रहती है, आपके लिए भी ऊपर एक जगह है जो आपकी प्रतीक्षा कर रही है।
वास्तव में जिन्दगी की लड़ाई जीतना एक कला है। आपको यह कला सीखनी होगी।
क्या करना होगा आपको इस कला को सीखने के लिए?
सबसे पहले तो आपको इस प्रश्न का उत्तर खोजना होगा किः
जिन्दगी की लड़ाई में सफलता प्राप्त कर ऊपर चले जाने वाले लोग आखिर इस लड़ाई को जीत कैसे लेते हैं और आप इस लड़ाई में हार क्यों जाते हैं?
इस प्रश्न का सीधा सा उत्तर है कि जो लोग जिन्दगी की लड़ाई जीतते हैं वे आत्मविश्वास से भरे होते हैं और आपमें आत्मविश्वास की कमी होती है। रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें बता देती हैं कि आपमें कितना आत्मविश्वास है। जरा याद करके बताइए कि क्या आप दूसरों से आँखों में आँखें डाल कर बात करते हैं? आप किसी से अकड़कर सख्ती के साथ हाथ मिलाते हैं या मरियल सा होकर?
आत्मविश्वास की इस कमी के कारण आप निराशावादी हो जाते हैं। आप को स्वयं के ऊपर भरोसा नहीं रह पाता। याद रखिए कि इस संसार में आपको यदि कोई व्यक्ति सफलता दिला सकता है तो वह व्यक्ति आप और केवल आप ही हैं। और यदि आपको खुद पर भरोसा न हो तो आप अपने आप को कभी सफलता नहीं दिला सकते। सफलता पाने के लिए स्वयं पर भरोसा करना अनिवार्य है और कोई व्यक्ति खुद पर भरोसा तभी कर सकता है जब उसके भीतर भरपूर आत्मविश्वास हो।
इस बात को कभी भी न भूलें कि कोई दूसरा व्यक्ति आपको सफलता कभी दिला ही नहीं सकता क्योंकि जिस सफलता को आप प्राप्त करना चाहते हैं, उसी सफलता को वह दूसरा व्यक्ति भी प्राप्त करना चाहता है। फिर क्यों वह आपको सफलता दिलाएगा? वह तो आपका प्रतिद्वन्द्वी है। सच पूछा जाए तो सफलता प्राप्त करने के मामले में संसार का प्रत्येक व्यक्ति आपका प्रतिद्वन्द्वी है और आपको उन सभी से द्वन्द्व करते हुए, उन्हें हरा कर, आगे बढ़ते जाना है।
और विश्वास मानिए कि आप स्वयं में भरपूर आत्मविश्वास पैदा कर सकते हैं। इसके लिए आपको अभ्यास की आवश्यकता है। वृन्द कवि ने कहा हैः
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
जब एक कमजोर रस्सी पत्थर पर निशान बना सकती है तो आप भला क्यों जिन्दगी की लड़ाई नहीं जीत सकते?
तो बिना एक पल की देर किए जुट जाइए जिन्दगी की लड़ाई जीतने के कार्य में। आप जीतेंगे तो आपका परिवार जीतेगा, आपका समाज जीतेगा, आपका देश जीतेगा!
Sunday, November 21, 2010
भारत में प्रथम महिला (First Woman in India)
- राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष - एनी बेसेंट
- प्रधानमन्त्री - श्रीमती इन्दिरा गांधी
- राष्ट्रपति - श्रीमती प्रतिभा पाटिल
- राज्यपाल - श्रीमती सरोजनी नायडू
- लोकसभा अध्यक्ष - मीरा कुमार
- राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाली - कैप्टन लक्ष्मी सहगल
- मुख्यमन्त्री - श्रीमती सुचेता कृपलानी
- केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में मन्त्री - राजकुमारी अमृत कौर
- सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश - न्यायमूर्ति मीरा साहिब फातिमा बीबी
- उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश - न्यायमूर्ति लीला सेठ
- आई.ए.एस. - अन्ना जार्ज (मल्होत्रा)
- आई.पी.एस - किरण बेदी
- पायलट - फ्लाइंग आफीसर सुषमा मुखोपाध्याय
- माउंट एवरेस्ट विजेता पर्वतारोही - सुश्री बछेन्द्री पाल
- इंग्लिश चैनल को पार करने वाली - आरती साहा
- उत्तरी ध्रुव पर पहुँचने वाली - प्रीति सेनगुप्ता
- अन्टार्टिका पहुँचने वाली - मेहर मूसा
- नोबल पुरस्कार विजेता - मदर टेरेसा (शान्ति हेतु)
- भारत रत्न पुरस्कार प्राप्त करने वाली - श्रीमती इन्दिरा गांधी
- साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाली - अमृता प्रीतम
Saturday, November 20, 2010
ब्लोग और टिप्पणियाँ
ब्लोग टिप्पणियों पर बहस न केवल हिन्दी ब्लोगर्स के बीच होता है बल्कि अंग्रेजी ब्लोगर्स भी इस विषय पर बहस करते हैं, उदाहरण के लिए आप इस अंग्रेजी पोस्ट को देख सकते हैं - A New Debate on Blog Comments is Brewing ।
अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लोगर सेठ गॉडिन के ब्लोग में टिप्पणी करने का प्रावधान बंद रहता है जबकि उनके पाठक उनसे टिप्पणी बॉक्स खोलने का आग्रह करते रहते हैं। अपने पोस्ट Why I don't have comments में वे बताते हैं कि उन्हें टिप्पणियाँ क्यों नहीं चाहिए। उनका कहना है कि टिप्पणियों में उठाई गई आपत्तियाँ उन्हें विवश करती हैं कि वे उन आपत्तियों का जवाब दें जिसके लिए उनके पास समय नहीं है। साथ ही वे समझते हैं कि टिप्पणियों से प्रभावित होकर कहीं वे आम पाठकों के लिए लिखना छोड़ कर सिर्फ टिप्पणीकर्ताओं के लिए ही लिखना न शुरू कर बैठें।
अंग्रेजी का मशहूर ब्लोग एनगाडगेट (Engadget) एक और उदाहरण है जिसने अपने पाठकों के लिए टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया। अपने पोस्ट We're turning comments off for a bit में वे कहते हैं पिछले कुछ दिनों से उन्हें एक बहुत बड़ी तादाद में टिप्पणियाँ मिल रही हैं जिनमें से अधिकतर उनके पाठकों की टिप्पणियाँ न होकर अन्य लोगों की होती हैं और उनमें उनके लोकप्रिय ब्लोग के लिए विरोधपूर्ण स्वर होते हैं।
ब्लोग में टिप्पणियों का विकल्प रखने का मुख्य उद्देश्य है ब्लोगर और उसके पाठकों के बीच सीधे संवाद स्थापित करके ब्लोग को सामाजिक रूप से अधिक से अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी बनाना। पोस्ट के जरिए की गई ब्लोगर की अभिव्यक्ति के प्रतिक्रियास्वरूप पाठकों के मस्तिष्क में जो विचार आते हैं, उन विचारों से ब्लोगर को अवगत कराने की सुविधा पाठकों को उपलब्ध कराना ही टिप्पणी विकल्प का कार्य होता है।
किन्तु, जैसा कि आप जानते ही हैं कि, लोग किसी भी अच्छे उद्देश्य के लिए बनाई गई चीज का दुरुपयोग करने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। ब्लोग टिप्पणी विकल्प के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। टिप्पणियों के माध्यम से कोई किसी ब्लोगर से अपना विरोध जताता है तो कोई किसी ब्लोगर या स्वयं को लोकप्रिय बनाने के लिए टिप्पणियों का प्रयोग करता है।
कितना अच्छा हो यदि लोग टिप्पणियों का प्रयोग अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए न करके केवल सामाजिक उन्नति के लिए ही करें।
अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लोगर सेठ गॉडिन के ब्लोग में टिप्पणी करने का प्रावधान बंद रहता है जबकि उनके पाठक उनसे टिप्पणी बॉक्स खोलने का आग्रह करते रहते हैं। अपने पोस्ट Why I don't have comments में वे बताते हैं कि उन्हें टिप्पणियाँ क्यों नहीं चाहिए। उनका कहना है कि टिप्पणियों में उठाई गई आपत्तियाँ उन्हें विवश करती हैं कि वे उन आपत्तियों का जवाब दें जिसके लिए उनके पास समय नहीं है। साथ ही वे समझते हैं कि टिप्पणियों से प्रभावित होकर कहीं वे आम पाठकों के लिए लिखना छोड़ कर सिर्फ टिप्पणीकर्ताओं के लिए ही लिखना न शुरू कर बैठें।
अंग्रेजी का मशहूर ब्लोग एनगाडगेट (Engadget) एक और उदाहरण है जिसने अपने पाठकों के लिए टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया। अपने पोस्ट We're turning comments off for a bit में वे कहते हैं पिछले कुछ दिनों से उन्हें एक बहुत बड़ी तादाद में टिप्पणियाँ मिल रही हैं जिनमें से अधिकतर उनके पाठकों की टिप्पणियाँ न होकर अन्य लोगों की होती हैं और उनमें उनके लोकप्रिय ब्लोग के लिए विरोधपूर्ण स्वर होते हैं।
ब्लोग में टिप्पणियों का विकल्प रखने का मुख्य उद्देश्य है ब्लोगर और उसके पाठकों के बीच सीधे संवाद स्थापित करके ब्लोग को सामाजिक रूप से अधिक से अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी बनाना। पोस्ट के जरिए की गई ब्लोगर की अभिव्यक्ति के प्रतिक्रियास्वरूप पाठकों के मस्तिष्क में जो विचार आते हैं, उन विचारों से ब्लोगर को अवगत कराने की सुविधा पाठकों को उपलब्ध कराना ही टिप्पणी विकल्प का कार्य होता है।
किन्तु, जैसा कि आप जानते ही हैं कि, लोग किसी भी अच्छे उद्देश्य के लिए बनाई गई चीज का दुरुपयोग करने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। ब्लोग टिप्पणी विकल्प के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। टिप्पणियों के माध्यम से कोई किसी ब्लोगर से अपना विरोध जताता है तो कोई किसी ब्लोगर या स्वयं को लोकप्रिय बनाने के लिए टिप्पणियों का प्रयोग करता है।
कितना अच्छा हो यदि लोग टिप्पणियों का प्रयोग अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए न करके केवल सामाजिक उन्नति के लिए ही करें।
Friday, November 19, 2010
कुछ काम की बातें... यदि आपको पसंद आए तो
नीचे कुछ बातें, जिन्हें विभिन्न स्थानों से संकलित किया गया है, दी जा रही हैं जो शायद आपको पसंद आएँ -
दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार
दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार
- दूसरों को अपमानित न करें और न ही कभी दूसरों की शिकायत करें। याद रखें कि अपमान के बदले में अपमान ही मिलता है।
- दूसरों में जो भी अच्छे गुण हैं उनकी ईमानदारी के साथ दिल खोल कर प्रशंसा करें। झूठी प्रशंसा कदापि न करें। यदि आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों की निन्दा कभी भी न करें। किसी की निन्दा करके आपको कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल सकता उल्ट आप उसकी नजरों गिर सकते हैं।
- अपने सद्भाव से सदैव दूसरों के मन में अपने प्रति तीव्र आकर्षण का भाव उत्पन्न करने का प्रयास करें।
- दूसरों में वास्तविक रुचि लें। यदि आप दूसरों में रुचि लेंगे तो दूसरे भी अवश्य ही आप में रुचि लेंगे। दूसरों को सच्ची मुस्कान प्रदान करें।
- प्रत्येक व्यक्ति के लिये उसका नाम सर्वाधिक मधुर, प्रिय और महत्वपूर्ण होता है। यदि आप दूसरों का नाम बढ़ायेंगे तो वे भी आपका नाम अवश्य ही बढ़ायेंगे। व्यर्थ किसी को बदनाम करने का प्रयास कदापि न करें।
- अच्छे श्रोता बनें और दूसरों को उनके विषय में बताने के लिये प्रोत्साहित करें।
- दूसरों की रुचि को महत्व दें तथा उनकी रुचि की बातें करें। सिर्फ अपनी रुचि की बातें करने का स्वभाव त्याग दें।
- दूसरों के महत्व को स्वीकारें तथा उनकी भावनाओं का आदर करें।
- अपने सद्विचारों से दूसरों को जीतें।
- तर्क का अंत नहीं होता। बहस करने की अपेक्षा बहस से बचना अधिक उपयुक्त है।
- दूसरों की राय को सम्मान दें। 'आप गलत हैं' कभी भी न कहें।
- यदि आप गलत हैं तो अपनी गलती को स्वीकारें।
- सदैव मित्रतापूर्ण तरीके से पेश आयें।
- दूसरों को अपनी बात रखने का पूर्ण अवसर दें।
- दूसरों को अनुभव करने दें कि आपकी नजर में उनकी बातों का पूरा-पूरा महत्व है।
- घटनाक्रम को दूसरों की दृष्टि से देखने का ईमानदारी से प्रयास करें।
- दूसरों की इच्छाओं तथा विचारों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनायें।
- दूसरों को चुनौती देने का प्रयास न करें।
- बिना किसी नाराजगी के दूसरों में परिवर्तन लायें
- दूसरों का सच्चा मूल्यांकन करें तथा उन्हें सच्ची प्रशंसा दें।
- दूसरों की गलती को अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।
- आपकी निन्दा करने वाले के समक्ष अपनी गलतियों के विषय में बातें करें।
- किसी को सीधे आदेश देने के बदले प्रश्नोत्तर तथा सुझाव वाले रास्ते का सहारा लें।
- दूसरों के किये छोटे से छोटे काम की भी प्रशंसा करें।
- आपके अनुसार कार्य करने वालों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करें।
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