Friday, November 6, 2009

लिखना तो बहुत आसान काम है पर सूझना बहुत मुश्किल है ... आइये जानें कि लिखना सूझता कैसे है

आप एक पोस्ट लिखना चाहते हैं किन्तु आपको कुछ सूझ नहीं रहा। कल के मेरे पोस्ट की टिप्पणियों में कुछ लोगों ने पूछा है कि लिखने के लिये कुछ सूझे तो कैसे सूझे? इस प्रश्न का उत्तर देने के पहले मैं आपको एक छोटी सी कथा बताना चाहता हूँ जो इस बात पर प्रकाश डालती है कि कोई चीज कैसे सूझती है।

प्राचीन काल में एक विद्यार्थी अपनी शिक्षा पूर्ण कर के गुरु के आश्रम से अपने घर वापस आ रहा था। वह वैश्य वर्ण का था अतः उसने व्यवसाय विषय की ही शिक्षा ली थी। रास्ते में रात हो गई और उसे एक बस्ती में रुकना पड़ा। उस बस्ती के सबसे बड़े व्यवसायी ने उसे अपना अतिथि बना लिया। रात्रि के भोजन के पश्चात् उसने व्यवसायी को पुत्र के साथ वार्तालाप करते देखा। व्यवसायी अपने पुत्र की भर्त्सना करते हुए कह रहा था कि तुम किसी योग्य नहीं हो, मैंने तुम्हें अपना व्यवसाय करने के लिये तीन बार धन दिया और तीनों बार तुम असफल हुए। एक योग्य व्यवसायी तो (वहाँ पर एक मरे हुए चूहे की ओर इशारा करके) इस मरे हुए चूहे से भी अपना व्यवसाय शुरू कर सकता है। व्यवसायी का पुत्र तो शर्मिंदा होकर वहाँ से चला गया किन्तु उस विद्यार्थी ने व्यवसायी के पास आकर कहा कि वे उस मरे हुए चूहे को उसे ऋण के रूप में दे दे। व्यवसायी ने कहा कि ऋण क्या, तुम उसे वैसे ही ले लो। अब उस विद्यार्थी ने गाँव में घूम कर पता किया कि एक व्यक्ति ने बिल्ली पाला हुआ है। उसने वाक्‌पटुता (सेल्समेनशिप) का प्रयोग करके मरा हुआ चूहा उसे बेच दिया। मिले हुये पैसों से उसने एक घड़ा और कुछ सत्तू खरीद लिया और घड़े में पानी भर कर तथा सत्तू लेकर पास के जंगल वाले रास्तें में बैठ गया। जंगल से लकड़ी काट कर आने वाले लकड़हारों को उस ने सत्तू बेचकर पानी पिलाया। इस प्रकार से कमाये गये धन से वह अपना व्यवसाय बढ़ाता गया। कुछ ही वर्षों के बाद वह राज्य का प्रमुख व्यसायी बन गया और एक सोने का चूहा बनवा कर अपने ऋणदाता को वापस कर के उसने अपने ऋण से मुक्ति पाई।

इस कथा से स्पष्ट है कि "मरे हुए चूहे से भी अपना व्यवसाय शुरू किया जा सकता है" कथन ने विद्यार्थी को एक सूझ दी। वह कथन ही उसकी प्रेरणा थी। कुछ सूझने के लिये आवश्यक है एक प्रेरणा का होना और अपनी सूझ को क्रियान्वित करने के लिये भरपूर लगन तथा परिश्रम। प्रेरणाएँ आपके चारों ओर बिखरी रहती हैं। आपका लाडला आपसे एक प्रश्न करता है वह आपकी प्रेरणा बन सकती है, आपकी श्रीमती जी परेशान होती हैं कि मँहगाई में कैसे घर चलाया जाये तो वह भी आपकी एक प्रेरणा बन सकती है, आटो रिक्शा वाला अपना किसी दुर्घटना के विषय में बताता है तो वह भी आपकी प्रेरणा बन सकती है, यहाँ तक कि किसी कली का खिलना या फूल का मुरझाना भी आपकी प्रेरणा बन सकती है। और ईश्वर ने आपको अपने कार्य के प्रति भरपूर लगन एवं परिश्रम करने की क्षमता भी प्रदान की है। जरूरत है तो अपनी उस क्षमता को प्रयोग करने की।

अब देखिये ना, आज के लिये हमने एक दूसरा ही पोस्ट तैयार कर रखा था किन्तु आप लोगों की टिप्पणियों ने कुछ और सुझा दिया जिसे कि आप झेल रहे हैं। तो पहले से तैयार पोस्ट को अब हम कल आपके सामने पेश करेंगे।

चलते-चलते

हेयर कटिंग सेलून में एक आदमी एक बच्चे के साथ पहुँचा और नाई से अपनी और बच्चे की कटिंग करने के लिये कहा। नाई बच्चे की कटिंग करने के लिये कुर्सी पर पाटा लगा रहा था तो आदमी ने कहा, "देखो भाई, मुझे बाजार में कुछ जरूरी काम है। तुम पहले मेरी कटिंग बना दो ताकि जब तक तुम बच्चे की कटिंग करोगे मैं अपना काम निबटा लूंगा।"

नाई ने वैसा ही किया। कटिंग बन जाने पर आदमी बाजार के लिये निकल गया और नाई ने बच्चे की कटिंग करना शुरू किया।

बच्चे की कटिंग बन जाने पर भी आदमी वापस नहीं आया तो नाई ने बच्चे से पूछा, "बेटे, पापा किधर गये हैं?"

"वो मेरे पापा नहीं हैं।" बच्चे ने बताया।

"तो चाचा होंगे।"

"वो मेरे चाचा भी नहीं हैं।"

"तो कौन हैं?"

"उन अंकल को तो मैं जानता ही नहीं। मैं खेल रहा था तो वे आकर बोले कि बेटे फ्री का कटिंग करवाओगे? और मेरे हाँ कहने पर मुझे अपने साथ यहाँ ले आये।" बच्चे ने उत्तर दिया।


(तो देखा! यह भी एक सूझ है फ्री कटिंग करवाने की!!)


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खर-दूषण से युद्ध - अरण्यकाण्ड (7)

Thursday, November 5, 2009

मैं जानता हूँ कि मेरा कौन सा पोस्ट हिट होगा और कौन सा पटखनी खायेगा

एग्रीगेटर्स तो सभी पोस्ट्स को दर्शाते हैं किन्तु कुछ पोस्ट्स को सभी पढ़ते हैं और कुछ सिर्फ पाठको का इंतिजार ही करते रहते हैं। तो आखिर क्यों कुछ पोस्ट हिट होते हैं और क्यों कुछ पोस्ट पटखनी खाते हैं?

यदि आप जरा सा इस बात का विश्लेषण करेंगे कि आखिर ज्यादा पढ़े जाने वाले पोस्टों में क्या विशेषताएँ होती हैं तो निश्चय ही आप भी यही कहेंगे कि "मैं जानता हूँ कि मेरा कौन सा पोस्ट हिट होगा और कौन सा पटखनी खायेगा"।

कैसे करें विश्लेषण

पोस्ट को पढ़ने वाला सबसे पहले क्या देखता है? सबसे पहले देखी जाने वाली चीज होती है 'शीर्षक' (heading)। शीर्षक ही वह चीज है जो सबसे पहले पाठकों को प्रभावित करती है। पाठकों को खींचने के लिये एक आकर्षक और अच्छा सा शीर्षक बहुत जरूरी है। यदि आपको अपने पोस्ट के लिये अच्छा और आकर्षक शीर्षक मिल गया तो समझ लीजिये कि आधी सफलता आपको मिल गई। किन्तु याद रखें कि शीर्षक का आकर्षक होने के साथ ही साथ आपके पोस्ट के विषयवस्तु से सम्बन्धित भी होना भी जरूरी है।

शीर्षक बाद पहले पैराग्राफ की बारी आती है। यदि आपने बहुत अच्छा लेख लिखा है पर उसका पहला पैरा ही अच्छा नहीं बन पाया है तो समझ लीजिये कि सिर्फ एक दो लाइन पढ़ कर पाठक वापस चला जायेगा। इसके विपरीत पहला पैरा अत्यंत आकर्षक है और बाद के एक दो पैरा कुछ अच्छे नहीं बन पड़े हैं तो भी पाठक इस उम्मीद में पढ़ता चला जायेगा कि आगे भी पहले पैराग्राफ जैसी कुछ न कुछ उम्दा सामग्री मिल सकती है।

तीसरी बात ध्यान देने वाली यह है कि आप जो कुछ भी लिख रहे हैं वह आपके अपने लिये नहीं बल्कि पाठकों के लिये है। अतः लिखते वक्त ध्यान में रखें कि पाठक क्या पसंद करता है। वैसे भी आपके पाठक आपको एक विशेषज्ञ मानते हैं क्योंकि जो विचार आपके मन में आते हैं उन्हें शब्दों में समाहित कर एक आकृति देने क्षमता आप में है। विचार तो पाठकों के मन में भी आते हैं पर वे उसे लिख पाने में स्वयं को समर्थ नहीं पाते और इसीलिये वे आपको विशेषज्ञ मानते हैं। तो आपको अपने पाठकों की भावनाओं को ध्यान में रख कर लिखना है, न कि स्वयं की इच्छा के अनुसार।

फिर बारी आती है शब्दों के चयन, वाक्य-विन्यास, भाषा की शुद्धता, लेखन शैली आदि की। एक अच्छा पोस्ट इन सभी का एक संगम होता है। यह भी ध्यान रखें कि आपका पोस्ट ज्ञानवर्धक हो। पाठक आपके पोस्ट को ज्ञानवर्धन के लिये ही पढ़ता है। पोस्ट की भाषा भद्र हो और विषयवस्तु किसी की भावना को ठेस पहुँचाने वाला न हो।

और सबसे बड़ी बात है आत्मविश्वास। लिखना शुरू करने से पहले ही यदि मन में संशय आ जाये कि पता नहीं लोग इसे पढ़ेंगे या नहीं तो समझ लीजिये कि उस पोस्ट की सफलता के नहीं के बराबर अवसर हैं। और यदि आप में पूर्ण आत्मविश्वास है, आप यह सोच कर लिखते हैं कि मेरा यह पोस्ट सफल होगा ही तो मान के चलिये कि वह पोस्ट अवश्य ही सफल होगा।

पोस्ट की असफलता से निराश होने की आवश्यकता जरा भी नहीं है। आपको अनेक ऐसे अनेक पोस्ट मिल सकते हैं जो कि बहुत सुंदर और पठनीय हैं, फिर भी पाठकों का जुगाड़ नहीं कर पाये। जिन ब्लोगर्स के पोस्ट ज्यादा पढ़े जाते हैं उनके भी कई पोस्ट ऐसे होते हैं जो पाठकों की राह देखते रहते हैं। तो असफलता से निराश होने की जरा भी जरूरत नहीं है।

और फिर कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि कौन सा पोस्ट सफल होगा और और कौन सा नहीं।

मेरे इस पोस्ट को पढ़ने वाले अधिकांश मेरे ब्लोगर बन्धु ही हैं और वे सब अपने क्षेत्र में महारत रखते हैं। उपरोक्त लिखी बातों को वे अच्छी तरह से जानते हैं। उन्हें ज्ञान देने वाला मैं भला कौन होता हूँ? फिर भी यह विचार कर के कि कहीं हनुमान जी की तरह वे अपनी क्षमता को भूल न गये हों, अग्रज होने के नाते मैंने, जाम्बवन्त के जैसे, उन्हें याद दिलाना अपना कर्तव्य समझा।


चलते-चलते

एक जाने माने हिन्दी ब्लोगर से किसी ने पूछा, "ये आप इतना अच्छा लिख कैसे लेते हैं?"

जवाब मिला, "भई, जो कुछ भी सूझते जाता है उसे लिखता चला जाता हूँ।"

"तब तो लिखना बहुत आसान काम है।"

"हाँ लिखना तो तो बहुत आसान काम है पर ये जो सूझना है ना, वही बहुत मुश्किल है।"

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पंचवटी में आश्रम - अरण्यकाण्ड (5)

Wednesday, November 4, 2009

सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिट्रेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था

"सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिट्रेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था"
ये मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि ये उद्गार हैं प्रसिद्ध इतिहासज्ञ उपन्यासकार आचार्य चतुर सेन के। प्रस्तुत है उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति "सोना और खून" का एक अंशः

सोना और खून
पाँचवा खण्ड
1

सत्रहवीं शताब्दी में पहली बार भारत का ब्रिटेन से सम्पर्क हुआ। यह सम्पर्क दो परस्पर-विरोधी संस्कृतियों का परस्पर टकराना–मात्र था। उन दिनों समूचा ब्रिट्रेन अर्धसभ्य किसानों का उजाड़ देश था। उनकी झोपड़ियों नरसलों और सरकंडों की बनी होती थीं, जिनके ऊपर मिट्टी या गारा लगाया हुआ होता था। घास-फूस जलाकर घर में आग तैयार की जाती थी जिससे सारी झोपड़ी में धुआँ भर जाता था। धुँए को निकालने के कोई राह ही न थी। उनकी खुराक जौ, मटर, उड़द, कन्द और दरख्तों की छाल तथा मांस थी। उनके कपड़ों में जुएं भरी होती थीं।

आबादी बहुत कम थी, जो महामारी और दरिद्रता के कारण आए दिन घटती जाती थी। शहरों की हालत गाँवों से कुछ अच्छी न थी। शहरवालों का बिछौना भुस से भरा एक थैला होता था। तकिये की जगह लकडी का एक गोल टुकड़ा। शहरी लोग जो खुशहाल होते थे, चमड़े का कोट पहनते थे। गरीब लोग हाथ-पैरों पर पुआल लटेपकर सरदी से जान बचाते थे। न कोई कारखाना था, न कारीगर। न सफाई का इन्तजाम, न रोगी होने पर चिकित्सा की व्यवस्था। सड़कों पर डाकू फिरते थे और नदियां तथा समुद्री मुहाने समुद्री डाकुओं से भरे रहते थे। उन दिनो दुराचार का तमाम यूरोप में बोलबाला और आतशक-सिफलिस की बीमारी आम थी। विवाहित या अविवाहित, गृहस्थ पादरी, यहाँ कि पोप दसवें लुई तक भी इस रोग से बचे न थे। पादरियों का इंग्लैंड की एक लाख स्त्रियों को भ्रष्ट किया था। कोई पादरी बड़े से बड़ा अपराध करने पर भी केवल थोड़े-से जुर्माने की सज़ा पाता था। मनुष्य-हत्या करने पर भी केवल छः शिलिंग आठ पैंस- लगभग पांच रुपये-जुर्माना देना पड़ता था। ढोंग-पाखण्ड, जादू-टोना उनका व्यवसाय था।

सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लंदन नगर इतना गंदा था, और वहां के मकान इस कदर भद्दे थे कि उसे मुश्किल से शहर कहा जा सकता था। सड़कों की हालत ऐसी थी कि पहियेदार गाड़ियों का चलना खतरे से खाली न था लोग लद्दू टट्टुओं पर दाएं-बाएं पालनों में असबाब की भाँति लदकर यात्रा करते थे। उन दिनों तेज़ से तेज़ गाड़ी इंगलैंड में तीस से पचास मील का सफर एक दिन मे तय कर सकती थी। अधनंगी स्त्रियां जंगली और भद्दे गीत गाती फिरती थीं और पुरुष कटार घुमा-घुमाकर लड़ाई के नाच नाचा करते थे। लिखना-पढ़ना बहुत कम लोग जानते थे। यहाँ तक कि बहुत-से लार्ड अपने हस्ताक्षर भी नहीं कर सकते थे। बहुदा पति कोड़ों से अपनी स्त्रियों को पीटा करते थे। अपराधी को टिकटिकी से बाँधकर पत्थर मार-मारकर मार डाला जाता था। औरतों की टाँगों को सरेबाजार शिकंजों में कसकर तोड़ दिया जाता था। शाम होने के बाद लंदन की गलियां सूनी, डरावनी और अंधेरी हो जाती थीं। उस समय कोई जीवट का आदमी ही घर से बाहर निकलने का साहस कर सकता था। उसे लुट जाने या गला काट जाने का भय था। फिर उसके ऊपर खिड़की खोल कोई भी गन्दा पानी तो फेंक ही सकता था। गलियों में लालटेन थीं ही नहीं। लोगों को भयभीत करने के लिए टेम्स के पुराने पुल पर अपराधियों के सिर काट कर लटका दिए जाते थे। धार्मिक स्वतन्त्रता न थी। बादशाह के सम्प्रदाय से भिन्न दूसरे किसी सम्प्रदाय के गिरजाघर में जाकर उपदेश सुनने की सजा मौत थी। ऐसे अपराधियों के घुटने को शिकजे में कसकर तोड़ दिया जाता था। स्त्रियों को लड़कियों को सहतीरों में बाँधकर समुद्र के किनारे पर छोड़ देते थे कि धीरे-धीरे बढ़ती हुई समुद्र की लहरें उन्हें निगल जाएं। बहुधा उनके गालों को लाल लोहे से दागदार अमेरिका निर्वासित कर दिया जाता था। उन दिनों इंग्लैंड की रानी भी गुलामों के व्यापर में लाभ का भाग लेती थी।

इंग्लैंड के किसान की व्यवस्था उस ऊदबिलाव के समान थी जो नदी किनारे मांद बनाकर रहता हो। कोई ऐसा धंधा-रोजगार न था कि जिससे वर्षा न होने की सूरत में किसान दुष्काल से बच सकें। उस समय समूचे इंगलिस्तान की आबादी पचास लाख से अधिक न थी। जंगली जानवर हर जगह फिरते थे। सड़कों की हालत बहुत खराब थी। बरसात में तो सब रास्ते ही बन्द हो जाते थे। देहात में प्रायः लोग रास्ता भूल जाते थे और रात-रात भर ठण्डी हवा में ठिठुरते फिरते थे। दुराचार का दौरदौरा था। राजनीतिक और धार्मिक अपराधों पर भयानक अमानुषिक सजाएं दी जाती थीं।

http://vedantijeevan।com/bs/home.php?bookid=668 से साभार

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सीता की शंका - अरण्यकाण्ड (3)

सीता ने रामचन्द्र से कहा, "आर्यपुत्र! तीसरा कामजनित दोष है बिना वैरभाव के ही दूसरों के प्रति क्रूरतापूर्ण व्यवहार। यह तीसरा दोष अर्थात् क्रूरतापूर्ण व्यवहार ही आपके समक्ष उपस्थित है और आप इसे करने जा रहे हैं। आपने इन तपस्वियों के समक्ष राक्षसों को समूल नष्ट कर डालने की जो प्रतिज्ञा की है, उसी में मुझे दोष दृष्टिगत हो रहा है।"

Tuesday, November 3, 2009

आना मिश्रा जी का और बनना पोस्ट का याने कि ऐसे भी बनती है पोस्ट

अक्सर हमें ऐसा लगता है कि यदि हमने किसी दिन एक पोस्ट नहीं ठेला तो शायद बहुत बड़ा अनर्थ हो जायेगा। नदी-नालों का बहना रुक जाने या पर्वतों का टूटकर गिर जाने जैसा अनर्थ भले ही ना हो किन्तु उस रोज हमारा खाना न पचने जैसा अनर्थ तो अवश्य ही हो जायेगा। पर सबसे बड़ी समस्या तो यह होती है कि रोज-रोज लिखें तो आखिर लिखें क्या? अब रोज एक पोस्ट ठेलना है तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि कुछ भी ऊल-जुलूल बकवास ही ठेल दें? हम सोच ही रहे थे कि आज क्या ठेला जाये अपने ब्लोग में कि इतने में ही मिश्रा जी आ गये।

उन्होंने कहा, "अवधिया जी, बहुत परेशान हूँ। पेट में जलन है और दो दिनों से पेट अलग साफ नहीं हुआ है। बताइये क्या करूँ?"

हमने कहा, "अरे भाई हम कोई डॉक्टर थोड़े ही हैं। भला हम क्या बता सकते हैं। आप किसी डॉक्टर के पास जाइये।"

वे बोले, "डॉक्टर तो कम से कम 100 रुपये ले लेगा, और दवाई लिखेगा उसके दाम अलग।"

हमने भी सोचा कि ये कह तो सही रहे हैं। उनसे पूछ लिया, "कल कहीं अधिक तेल मसाले वाला खाना तो नहीं खाया था आपने?"

उन्होंने स्वीकार किया कि मामला कुछ वैसा ही था।

हमने कहा, "देखिये, पहले तो आप एक एसीलॉक या जिन्टेक गोली खा लीजिये। दो-तीन रुपये ही खर्च होंगे। एकाध घंटे में ठीक लगा तो ठीक, नहीं तो फिर डॉक्टर के पास चले जाइयेगा।"

मुश्किल से आधे घंटे बाद ही वे फिर आ गये और हमें धन्यवाद देते हुए बोले, "वाह, आपकी बताई गोली ने तो जलन को काफूर कर दिया। अब पेट साफ करने के लिये भी कोई दवा बता दीजिये।"

हमने कहा, "ठीक है, आप पंचसकार चूर्ण खरीद लीजिये। रात को सोने के पहले एक बड़ा चम्मच चूर्ण गुनगुने पानी के साथ ले लीजियेगा। पर लीजियेगा गुनगुने पानी के साथ ही, नहीं तो चूर्ण असर नहीं करेगा।"

तो आइये आपको भी बता दें कि पंचसकार चूर्ण बेहद फायदेमंद आयुर्वेदिक औषधि है। इसे सौम्य रेचक (पेट साफ करने वाला) माना जाता है। यह पाँच चीजों का मिश्रण होता है और उन पाँचों चीजों के नाम 'स' अक्षर से शुरू होते हैं। इसीलिये इस चूर्ण का नाम पंचसकार पड़ा। पेट साफ न होने याने कि कब्जियत में तो यह रामबाण है। इस चूर्ण का नियमित अन्तराल में सेवन करते रहना बहुत ही लाभप्रद है। किन्तु याद यह चूर्ण सिर्फ गुनगुने (गर्म) पानी के साथ ही लेने से असर करता है।

पंचसकार चूर्ण किसी भी आयुर्वेदिक औषधियों के दुकान में आसानी के साथ मिल जाता है। और चाहें तो आप इसे घर में ही बना सकते हैं। घर में बनाने से यह बहुत ही सस्ता पड़ता है। इसे बनाने के लिये किसी भी परचून की दूकान से निम्न सामान ले आइयेः

सनाय - 40 ग्राम
सोंठ - 20 ग्राम
सौंफ - 20 ग्राम
शिव हरीतिका - 20 ग्राम
सेंधा नमक - स्वाद अनुसार

उपरोक्त सभी चीजों को मिला लें और कूट‍-पीस कर महीन चूर्ण बना कर रख लें। बस तैयार हो गया आपका पंचसकार चूर्ण।

तो इस प्रकार से मिश्रा जी का आना हुआ और हमारी पोस्ट भी बन गई। साथ ही साथ हमने आपको पंचसकार जैसे लाभदायक चूर्ण के विषय में कुछ जानकारी भी दे दिया।

चलते-चलते

उसने शहर के एक बड़े तथा नामी रेस्टोरेंट में जाकर मैनेजर से कहा, "मैं रेस्टोरेंट्स में कार्यक्रम देकर लोगों का मनोरंजन किया करता हूँ। क्या आप अपने रेस्टोरेंट में मेरा कार्यक्रम रखना पसंद करेंगे?"

"क्या प्रोग्राम देते हो तुम?" मैनेजर ने पूछा।

"50 आदमी का खाना लगवा दीजिये, मैं सिर्फ 5 मिनट में खा कर दिखा दूँगा।"

मैनेजर मान गया। शाम साढ़े सात बजे प्रोग्राम देने की बात तय हो गई। उस समय शाम के छः बज चुके थे। डेढ़ घंटे के थोड़े से समय में मैनेजर ने आनन-फानन में लाउड स्पीकर से पूरे शहर में लाउड स्पीकर से एनाउंसमेंट करवा कर पब्लिसिटी की।

नियत समय पर 50 आदमियों का खाना लगवा दिया गया। रेस्टोरेंट का हॉल आधा से ज्यादा भरा हुआ था। कार्यक्रम शुरू होने की घंटी बजी और उसने दोनों हाथों से ताबड़तोड़ खाना शुरू किया। पाँच मिनट तो क्या, साढ़े तीन मिनट में ही वो पूरा खाना चट कर गया।

लोग अवाक रह गये। बाहर जोरों की चर्चा होने लग गई कि खाने के मामले में तो वह राक्षस है। जोरदार "माउथ पब्लिसिटी" होने लग गई।

उसके इस पब्लिसिटी को देखकरर मेनेजर ने उससे कहा, "तुम्हारे प्रोग्राम को लोगों ने खूब पसंद किया है और जो लोग तुम्हारा प्रोग्राम नहीं देख पाये हैं वे भी तुम्हारा प्रोग्राम देखना चाहते हैं इसलिये तुम कल एक और प्रोग्राम हमारे यहाँ दे देना।"

वो बोला, "मैं तो सिर्फ आज के लिये आप के शहर में उपलब्ध हूँ क्योंकि कल के लिये मेरा प्रोग्राम एक अन्य महानगर में पहले से ही बुक्ड है। चलिये मेनेजर साहब आप भी क्या याद करेंगे मैं आज ही एक घंटे के बाद आपके रेस्टोरेंट में एक और प्रोग्राम दे देता हूँ। इस बार खाना 100 आदमियों का और समय वही 5 मिनट।"

मेनेजर खुश हो गया। अगले प्रोग्राम की घोषणा कर दी गई। इस बार पूरा हॉल ठसाठस भर गया। जिन्हें टिकिट नहीं मिल पाया वे बड़े मायूस थे। इस बार भी उसने अपने प्रोग्राम का सफल प्रदर्शन करके लोगों का दिल जीत लिया।

मैनेजर ने उससे कहा, "भइ, अभी तो नौ नहीं बजे हैं। एक प्रोग्राम और दे दो।"

"आप भी अजीब बात करते हैं मैनेजर साहब। क्या सारा दिन प्रोग्राम देते रहूँगा? मुझे भी घर जाना है, खाना-वाना खाना है।"

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दण्डक वन में विराध वध - अरण्यकाण्ड (1)

Monday, November 2, 2009

जब गीत और गान अलग अलग हो सकते हैं तो खेल और क्रीड़ा क्यों नहीं?

"'जार्ज पंचम की स्तुति' का महत्व अधिक है या 'भारत माता की वन्दना' का?"
मुझे समझ में नहीं आता कि गीत और गान में क्या अन्तर है? मेरी मन्दबुद्धि के अनुसार तो दोनों का अर्थ एक ही होता है। फिर हमारे देश में एक 'राष्ट्रगीत' और एक 'राष्ट्रगान' क्यों है? यदि किसी विद्वान मित्र को गीत और गान का अन्तर ज्ञात है तो मुझे भी बताने की कृपा करे। और यदि दोनों में अन्तर है तो कौन बड़ा है और कौन छोटा? क्या 'जनगणमन' बीस है और 'वन्देमातरम्' उन्नीस है? 'जार्ज पंचम की स्तुति' का महत्व अधिक है या 'भारत माता की वन्दना' का?

जब राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दो हो सकते हैं तो 'राष्ट्रीय खेल' और 'राष्ट्रीय क्रीड़ा' क्यों नहीं हो सकते। राष्ट्रीय खेल हॉकी को तो अब अपने देश में कोई पूछता नहीं तो क्यों न क्रिकेट को राष्ट्रीय क्रीड़ा बना दिया जाये? इस प्रकार से अंग्रेजों के इस खेल को सम्मानित करके हम और भी बड़े अंग्रेज भक्त हो जायेंगे और हो सकता है कि सारे क्रिकेट प्रेमियों का वोट भी इस पुनीत कार्य करने वाले को मिले।

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भरत का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (24)

अयोध्या के अत्यन्त चतुर मन्त्री जाबालि ने कहा, "हे रामचन्द्र! सारे नाते मिथ्या हैं। संसार में कौन किसका बन्धु है? जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट होता है। सत्य तो यह है कि इस संसार में कोई किसी का सम्बन्धी नहीं होता। सम्बन्धों के मायाजाल में फँसकर स्वयं को विनष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। आप पितृऋण के मिथ्या विचार को त्याग दें और राज्य को स्वीकार करें। स्वर्ग-नर्क, परलोक, कर्मों का फल आदि सब काल्पनिक बातें हैं। जो प्रत्यक्ष है, वही सत्य है। परलोक की मिथ्या कल्पना से स्वयं को कष्ट देना आपके लिये उचित नहीं है।"

Sunday, November 1, 2009

सन् 1937 में छपा इकानॉमिक एटलास

स्कैन किये गये ये पेजेस हैं सन् 1937 में छपे इकानॉमिक एटलास के जो कि मेरे पिता जी स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया के विद्यार्थी जीवन काल की है।

(चित्रों को बड़ा कर के देखने के लिये उन पर क्लिक करें)


चलते-चलते

मास्टर जी क्लास में पढ़ा रहे थे।

उन्होंने कहा, "एक गधा"

बच्चे भी एक स्वर में बोले, "एक गधा"

मास्टर जी, "फिर एक गधा"

बच्चे, "फिर एक गधा"

मास्टर जी, "फिर मैं"

बच्चे, "फिर मैं"

मास्टर जी, "फिर देश"

बच्चे, "फिर देश"

प्रिंसिपल साहब देखने के लिये निकले थे कि सब ठीक चल रहा है या नहीं। उन्होंने क्लास का नजारा देखा। मास्टर साहब को अपने कार्यालय में बुला कर पूछा, "ये क्या कर रहे थे आप?"

मास्टर साहब ने कहा, "जनाब मैं तो बच्चों को ASSASSINATION की स्पेलिंग याद करवा रहा था।"

[एक गधा (ASS) फिर एक गधा (ASS) फिर मैं (I) फिर सारा देश (NATION)]

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दशरथ की अन्त्येष्टि - अयोध्याकाण्ड (22)