Saturday, April 16, 2011

पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है

"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"

"नमस्काऽऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"

"सुनाइये क्या चल रहा है?"

"चलना क्या है? अभी अभी एक पोस्ट लिखकर डाला है अपने ब्लॉग में और अब हम अन्य मित्रों के पोस्टों को देख रहे हैं।"

"अच्छा यह बताइये लिख्खाड़ानन्द जी, आप इतने सारे पोस्ट लिख कैसे लेते हैं? भइ हम तो बड़ी मुश्किल से सिर्फ टिप्पणी ही लिख पाते हैं, कई बार तो कुछ सूझता ही नहीं तो सिर्फ nice , बहुत अच्छा, सुन्दर, बढ़िया लिखा है जैसा ही कुछ भी लिख देते हैं। पोस्ट लिखना तो सूझ ही नहीं पाता हमें।"

"अरे टिप्पण्यानन्द जी! पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है।"

"कैसे?"

"बताता हूँ पर पहले आप यह बताइये कि दया करना पुण्य और क्रोध करना पाप होता है कि नहीं?"

"जी हाँ, ऐसा ही है, बिल्कुल सही कह रहे हैं आप!"

"अब मान लीजिये कि आप कहीं जा रहे हैं और रास्ते में देखते हैं कि एक आदमी किसी मासूम बच्चे को पीट रहा है और बहुत से लोग चुपचाप देख रहे हैं। आपके पूछने पर लोग बताते हैं कि बच्चे को मारने वाला वह आदमी बच्चे से भीख मँगवाता है। आज बच्चे ने भीख में कुछ भी नहीँ लाया इसीलिये वह बच्चे को मार रहा है। ऐसे में आप क्या करेंगे? आप तो हट्टे-कट्टे आदमी हैं, क्या आप उस आदमी को छोड़ देंगे?"

"अजी, मैं तो फाड्डालूँगा स्साले को। मार मार कर कचूमर निकाल दूँगा। इतना मारूँगा स्साले को कि फिर कभी बच्चे को पीटना ही भूल जायेगा।"

"क्यों मारेंगे उसे आप? क्योंकि उस मासूम बच्चे पर दया आई आपको इसीलिये ना?"

"जी हाँ!"

"तो बच्चे पर दया करके आपने पुण्य किया कि नहीं?"

"बिल्कुल किया जी!"

"अच्छा अब बताइये उस आदमी को मारने के लिये क्रोध भी किया था ना आपने? बिना क्रोध किये तो किसी को मारा नहीं जा सकता!"

"हाँ जी, बहुत गुस्सा आया मुझे।"

"तो क्रोध करके आपने पाप किया कि नहीं?"

"अजी आप फँसाने वाली बात कर रहे हैं।"

"आप तो बस इतना बताइये कि क्रोध करके आपने पाप किया कि नहीं?"

"हाँ जी किया?"

"तो मुझे बताइये कि वास्तव में आपने क्या किया? दया किया कि क्रोध? पुण्य किया कि पाप?"

"अब मैं क्या बताऊँ जी! मेरा तो दिमाग ही घूम गया।"

"देखिये टिप्पण्यानन्द जी! वास्तव में आपने बच्चे पर दया किया किन्तु सिर्फ दया करके आप उस बच्चे को बचा नहीं सकते थे। उसे बचाने के लिये आपको बच्चे को उस दुष्ट आदमी से छुटकारा नहीं दिला सकते थे, बच्चे को उस जालिम से बचाने के लिये उसको मारना भी जरूरी था जो कि बिना क्रोध किये हो ही नहीं सकता। है कि नहीं?"

"जी, बिल्कुल!"

"तो इसका मतलब यह हुआ कि दया करने के लिये क्रोध का सहारा लेना जरूरी है। पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है। पाप और पुण्य का एक दूसरे के बिना काम ही नहीं चल सकता। याने कि पाप और पुण्य एक दूसरे के पूरक हैं।"

"आप की बात सुनने के बाद मुझे भी ऐसा ही लगने लगा है कि पाप और पुण्य एक दूसरे के पूरक हैं।"

"अब हम दोनों के बीच अभी जो बातें हुई हैं उसी को यदि मैं 'पुण्य करने के लिये पाप भी करना पड़ता है' शीर्षक देकर अपने ब्लोग में डाल दूँ तो बन गई ना एक पोस्ट?"

"बिल्कुल बन गई जी!"

"तो जब मैं कहता हूँ कि 'पोस्ट लिखना कौन सा कठिन काम है, कोई भी लिख सकता है' तो क्या गलत कहता हूँ?"

"बिल्कुल सही कहते हैं जी आप!"

"चाय पियेंगे आप? मँगवाऊँ?"

"नहीं लिख्खाड़ानन्द जी, फिर कभी पी लूँगा, आज जरा जल्दी में हूँ। चलता हूँ, नमस्कार!"

"नमस्कार!"

Friday, April 15, 2011

भारतीय सार्वजनिक सेवा प्रसारण का सबसे बड़ा नेटवर्क - दूरदर्शन

दूरदर्शन (Doordarshan) भारतीय सार्वजनिक सेवा प्रसारण का सबसे बड़ा नेटवर्क है जिसे भारत सरकार की निगम प्रसार भारती संचालित करती है। स्टूडिओ एवं ट्रांसमीटरों के के आधारभूत संरचना के हिसाब से यह विश्व की सबसे बड़ी प्रसारण संस्था है। दूरदर्शन का पहला प्रसारण 15 सितंबर, 1959 को हुआ था। आरम्भिक दिनों में दूरदर्शन से प्रतिदिन आधे घण्टे का प्रसारण हुआ करता था जो कि शैक्षिक और विकास कार्यक्रमों के रूप में हुआ करता था।

भारत में नियमित टेलिविजन सेवा का आरम्भ दिल्ली में सन् 1965 से हुई। टेलिविजन की नियमित सेवा सन् 1972 में मुम्बई और सन् 1975 में कोलकाता तथा चेन्नई में शुरू कर दी गई। उन दिनों टेलिविजन सेवा आकाशवाणी के एक भाग के रूप में हुआ करता था। सन् 1975 तक भारत के केवल सात नगरों में ही टेलिविजन सेवा उपलब्ध थी और दूरदर्शन ही भारत का एक मात्र टेलिविजन चैनल था।

सन् 1976 में दूरदर्शन को आकाशवाणी से अलग कर दिया गया और यह भारत सरकार के एक स्वतन्त्र विभाग में परिणित हो गया। सन् 1982 के एशियाई खेलों के दौरान दिल्ली से रंगीन प्रसारण की शुरुवात हुई और इसके साथ ही देश में नेशनल टेलिकास्ट का आरम्भ भी हुआ। 1982 में ही भारत के बाजारों का रंगीन टेलिविजन से परिचय हुआ। दूरदर्शन के द्वारा एशियाई खेलों के रंगीन लाइव्ह प्रसारण ने भारतीय जनता का मन मोह लिया। इसके बाद देश भर में टेलिविजन प्रसारण नेटवर्क बनाने का आरम्भ भी हो गया, सन् 1984 में तो देश में लगभग हर दिन एक ट्रांसमीटर लगाया जाने लगा।

सन् 1984 में दूरदर्शन पर पहला सोप ऑपेरा "हम लोग" का प्रसारण हुआ जिसके 156 एपीसोड लगातार 17 महीने तक प्रसारित किये गये जिसका आनन्द देश के 5 करोड़ दर्शकों ने उठाया था। उसके बाद तो दूरदर्शन ने एक के बाद एक कई सफल टीवी सीरियल्स के प्रसारण किए जिनमें बुनियाद, ये जो है जिन्दगी, नुक्कड़, रामायण, महाभारत आदि प्रमुख हैं।

आज भारत की 90 प्रतिशत से भी अधिक जनसंख्या तक दूरदर्शन अपने 1400 स्थानीय ट्रांसमीटरों के माध्यम से अपने कार्यक्रम पहुँचाती है।

Thursday, April 14, 2011

नोबल प्राइज़ के समय लिखा गया रवीन्द्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

रवीन्द्रनाथ टैगोर को जब नोबल पुरस्कार से नवाजा गया था, तो उस समय अंग्रेजी में उनकी संक्षिप्त जीवनी लिखी गई थी जिसे कि Les Prix Nobel पुस्तक श्रंखला में प्रथम बार प्रकाशित किया गया था। अंग्रेजी में लिखा गया रवीन्द्रनाथ टैगोर का वह जीवन परिचय नोबलप्राइज.ऑर्ग में उपलब्ध है (लिंक है - Rabindranath Tagore) । प्रस्तुत है उसी अंग्रेजी लेख का हिन्दी भावानुवाद -




रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941) देबेन्द्रनाथ टैगोर के कनिष्ठ पुत्र थे, देबेन्द्रनाथ ब्रह्मसमाज, जो कि उन्नीसवीं सदी के बंगाल का एक नया धार्मिक पंथ था तथा उपनिषद में वर्णित परम वेदान्त के आधार पर हिन्दू धर्म के पुनरुद्धार के उद्देश्य से बना था, के प्रमुख थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा-दीक्षा घर में ही हुई थी, यद्यपि सत्रह वर्ष की आयु में उन्हें औपचारिक शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा गया, किन्तु उन्होंने वहाँ पर वे अपनी शिक्षा पूर्ण न कर सके। परिपक्व अवस्था प्राप्त होने पर उन्हें अपने बहु-आयामी साहित्यिक गतिविधियों के अलावा अपने पारिवारिक भू-संपदा की व्यवस्था भी करनी पड़ी जिसके कारण वे सामान्य लोगों के सम्पर्क में आए और सामाजिक सुधारों के प्रति उनकी रुचि विकसित हुई। साथ ही उन्होंने शान्तिनिकेतन में एक प्रयोगात्मक स्कूल का संचालन भी आरम्भ कर दिया जिसमें वे उपनिषदों में निहित आदर्शों की शिक्षा देने का प्रयास करते थे। समय समय पर उन्होंने गैर भावुक तथा दूरदर्शी तरीकों से भारतीय राष्ट्रवादी आन्दोलनों में भी भाग लिया ‌तथा आधुनिक भारत के राजनीतिक पिता गांधी उनके समर्पित मित्र थे। टैगोर को 1915 में सत्तारूढ़ ब्रिटिश सरकार ने नाइट की उपाधि प्रदान की, लेकिन कुछ ही वर्षों के भीतर उसे उन्होंनें भारत में ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ एक विरोध के रूप में वापस कर दिया।

जल्दी ही वे अपनी मातृभूमि बंगाल में सफल लेखक के रूप में ख्याति मिल गई। उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद के कारण उन्होंने पश्चिम में भी अपनी पहचान बना ली। वास्तव में उनकी ख्याति ऊँचाइयों को छूने लगी और उन्हें व्याख्यान तथा मित्रता के उद्देश्य से महद्वीपों की यात्राएँ करवाने लगी। संसार के लिए वे भारत की आध्यात्मिक विरासत की आवाज बन गए, और भारत के लिए, वशेषतः बंगाल के लिए, वे एक जीती-जागती महान संस्था बन गए। यद्यपि उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई किन्तु मूलतः वे एक कवि थे।

उनके पचास बेजोड़ कविता संग्रहों में से कुछ हैं - मानसी (1890) [एक आदर्श], सोनार तारी (1894) [सुनहरी नाव], गीतांजलि (1910) [गीत प्रस्तुति], गीतिमाल्य (1914) [गानों का पुष्पहार], और बालक (1916) [क्रेन की उड़ान]। उनकी कविताओं के अंग्रेजी प्रस्तुतीकरण, जिसमें Gardener (1913), Fruit-Gathering (1916), और The Fugitive (1921) शामिल हैं, आम तौर पर मूल बंगाली प्रस्तुति के अनुरूप नहीं हैं किन्तु उनमें से अधिकतर प्रशंसित हैं।

टैगोर के प्रमुख नाटक हैं राजा (1910) [अंधेरी कोठरी का राजा], डाकघर (1912) [पोस्ट ऑफिस], अचलायतन (1912) [अचल], मुक्तधारा (1922) [झरना], और रक्तरवि (1926)। उन्होंने अनेक लघुकथाओं तथा उपन्यासों की भी रचना की है जिनमें से कुछ हैं - गोरा (1910), घरे-बारे (1916), और योगायोग (1929)। इसके अतिरिक्त उन्होंने संगीत नाटक, नृत्य नाटक, सभी प्रकार के निबंध, यात्रा डायरी, और दो आत्मकथाएँ भी लिखी हैं। टैगोर ने हमें अनेक चित्रकारी तथा पेंटिंग्स और गीत, जिनके लिए उन्होंने स्वयं सगीत रचना भी की थी, प्रदान किए हैं।

मूल अंग्रेजी लेख -

Biography

Rabindranath Tagore (1861-1941) was the youngest son of Debendranath Tagore, a leader of the Brahmo Samaj, which was a new religious sect in nineteenth-century Bengal and which attempted a revival of the ultimate monistic basis of Hinduism as laid down in the Upanishads. He was educated at home; and although at seventeen he was sent to England for formal schooling, he did not finish his studies there. In his mature years, in addition to his many-sided literary activities, he managed the family estates, a project which brought him into close touch with common humanity and increased his interest in social reforms. He also started an experimental school at Shantiniketan where he tried his Upanishadic ideals of education. From time to time he participated in the Indian nationalist movement, though in his own non-sentimental and visionary way; and Gandhi, the political father of modern India, was his devoted friend. Tagore was knighted by the ruling British Government in 1915, but within a few years he resigned the honour as a protest against British policies in India.
Tagore had early success as a writer in his native Bengal. With his translations of some of his poems he became rapidly known in the West. In fact his fame attained a luminous height, taking him across continents on lecture tours and tours of friendship. For the world he became the voice of India's spiritual heritage; and for India, especially for Bengal, he became a great living institution.
Although Tagore wrote successfully in all literary genres, he was first of all a poet. Among his fifty and odd volumes of poetry are Manasi (1890) [The Ideal One], Sonar Tari (1894) [The Golden Boat], Gitanjali (1910) [Song Offerings], Gitimalya (1914) [Wreath of Songs], and Balaka (1916) [The Flight of Cranes]. The English renderings of his poetry, which include The Gardener (1913), Fruit-Gathering (1916), and The Fugitive (1921), do not generally correspond to particular volumes in the original Bengali; and in spite of its title, Gitanjali: Song Offerings (1912), the most acclaimed of them, contains poems from other works besides its namesake. Tagore's major plays are Raja (1910) [The King of the Dark Chamber], Dakghar (1912) [The Post Office], Achalayatan (1912) [The Immovable], Muktadhara (1922) [The Waterfall], and Raktakaravi (1926) [Red Oleanders]. He is the author of several volumes of short stories and a number of novels, among them Gora (1910), Ghare-Baire (1916) [The Home and the World], and Yogayog (1929) [Crosscurrents]. Besides these, he wrote musical dramas, dance dramas, essays of all types, travel diaries, and two autobiographies, one in his middle years and the other shortly before his death in 1941. Tagore also left numerous drawings and paintings, and songs for which he wrote the music himself.

तो यह था रवीन्द्रनाथ टैगोर का वह परिचय जिसे कि उन्हें नोबल पुरस्कार प्रदान करते समय लिखा गया था। किन्तु इसके अलावा भी उनके विषय में अनेक उल्लेखनीय बाते हैं जैसे कि -
  • उन्होंने एक हजार से भी अधिक कविताओं तथा दो हजार से भी अधिक गीतों की रचना की है!
  • वे एक संगीतकार, अभिनेता, गायक और जादूगर भी थे!
  • उनके लिखे गीत दो देशों के राष्ट्रगान हैं - एक भारत का और दूसरा बँगलादेश का!
  • आज भी बंगाल में उनके गीत-संगीत के बगैर कोई समारोह शुरू नहीं होता!
....आदि-आदि-इत्यादि।

वास्तव में कहा जाए तो रवीन्द्रनाथ टैगोर उन साहित्य-स्रष्टाओं में से एक हैं जिन्हें भाषा स्थान, काल की सीमाओं में बाँधा ही नहीं जा सकता। उनकी कीर्ति अक्षय है।

Wednesday, April 13, 2011

क्या धर्म में आध्यात्मिकता का स्थान भौतिकता ने ले लिया है?

कल समस्त भारत में हर्षोल्लास का माहौल था, हर्ष और उल्लास था भगवान श्री रामचन्द्र जी के जन्म दिवस अर्थात् रामनवमी मनाने का! स्थान-स्थान पर भंडारे का आयोजन था, जगह-जगह हलुआ आदि मिष्ठान्न बाँटे जा रहे थे। मेरा बेटा भी पूर्ण अपनी निष्ठा से लोगों में हलुआ बाँटने में तल्लीन था। राम के प्रति उसकी इस निष्ठा को देखकर मैं सोचने लगा कि आज के युवाओं में अभी तक अपने धर्म और आदर्श के प्रति आस्था मरी नहीं है।

किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह आस्था केवल हर्षोल्लास मनाने तक ही सीमित है। हर्षोल्लास एक भौतिक सुख है और चूँकि यह किसी धार्मिक त्यौहार को मनाने से प्राप्त होता है इसलिए हम धर्म को मान रहे हैं। हम धर्म को मान रहे हैं भौतिकता प्राप्त करने के लिए, न कि अध्यात्म के लिए। धर्म में आध्यात्मिकता का स्थान भौतिकता ने ले लिया है। आज का युवा राम और कृष्ण के आदर्शों को न जानता है और न ही जानना चाहता है, यदि जान भी जाए तो उन आदर्शों का अनुगमन तो कदापि नहीं करना चाहता। राम ने अपने पिता की आज्ञा का अनुसरण करके चौदह वर्ष वन में रहकर बिताए, एक राजकुमार होने पर भी तपस्वियों-सा जीवन व्यतीत किया। किन्तु आज एक पिता अपने पुत्र को आज्ञा देने की स्थिति में ही नहीं है, यदि आज्ञा दे भी दे तो पुत्र उसे मानने से ही इन्कार कर देगा और उल्टे पिता को ही सीख देने लगेगा कि आप कुछ समझते तो हैं नहीं! पुत्र पिता से अधिक समझदार हो गया है। ऐसी बात नहीं है कि पहले पुत्र पिता से अधिक समझदार नहीं हुआ करते थे, अवश्य ही हुआ करते थे क्योंकि यह प्रकृति का नियम है कि बाद में आने वाली पीढ़ी अपनी पहली पीढ़ी से अधिक बुद्धिमान होती है। राम भी अपने पिता दशरथ से अधिक बुद्धिमान थे। किन्तु उन्होंने पिता की आज्ञा का अनुसरण किया और आज पिता की आज्ञा की अवहेलना होती है।

क्या कारण है आखिर इस प्रकार के अन्तर आने का?

इसका कारण सिर्फ हमारी शिक्षा है। पहले माता-पिता, गुरु आदि के प्रति सम्मान और निष्ठा की शिक्षा दी जाती थी किन्तु आज ऐसी शिक्षा का लोप हो चुका है। शिक्षा से संस्कार बनते हैं और संस्कार से विचार। यही कारण है कि आज हमें जिस प्रकार की शिक्षा मिलती है उसी के अनुरूप हमारे विचार बन गए हैं। आज की शिक्षा हमे अपने माता-पिता, गुरुजनों आदि के प्रति निष्ठा और सम्मान का भाव रखना नहीं सिखाती इसलिए आज हम उनकी अवहेलना करने लग गए हैं। हम अपने देश की महान शिक्षा को, जिसने भारत को विश्वगुरु कहलाने का श्रेय प्रदान किया था, भूल चुके हैं और पाश्चात्य शिक्षा के पीछे अंधे होकर भागे जा रहे हैं। हमारी प्राचीन शिक्षा अध्यात्म का पाठ सिखाती थी किन्तु आधुनिक शिक्षा केवल भौतिकता का पाठ सिखाती है। यही कारण है कि येन-केन-प्रकारेण हम सिर्फ भौतिक सुख ही प्राप्त करने में लिप्त हो चुके हैं। हमारा सिद्धान्त ही बन गया है -

घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद्रासभरोहण।
येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्॥


(घड़े तोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए।)

भौतिक सुख प्राप्त करने के लिए धन का होना आवश्यक है, धन के बिना आप भौतिक सुख प्राप्त नहीं कर सकते, बंगला, कार, बाइक, टीव्ही, फ्रीज जैसी वस्तुएँ, जो कि भौतिक सुख प्राप्त करने के साधन हैं, धन के बिना प्राप्त नहीं हो सकतीं। अतः धन प्राप्त करना ही हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य हो गया है भले ही इसके लिए हमें कुछ भी न क्यों करना पड़े। धन् प्राप्त करने के इसी उद्देश्य ने आज देश को भ्रष्टाचार के गर्त में धकेल कर रख दिया है।

Monday, April 11, 2011

भारत में क्रिकेट

क्रिकेट, भारत का राष्ट्रीय खेल न होने के बावूद भी, आज देश में सर्वाधिक लोकप्रिय खेल है। भारत में क्रिकेट के इतिहास पर यदि नजर डालें तो पता चलता है कि भारत में क्रिकेट के अस्तित्व का आधार वहाँ पर ब्रिटिश राज का पनपना और उसका विकास होना ही रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में सन् 1721 में ईस्ट इण्डिया कंपनी के अंग्रेज नौकाचालकों द्वारा बड़ोदा के निकट कॉम्बे में पहली बार क्रिकेट खेलने का निश्चित सन्दर्भ मिलता है। यद्यपि कलकत्ता क्रिकेट एवं फुटबाल क्लब सन् 1792 में अस्तित्व में आया किन्तु सम्भवतः इस क्ब की स्थापना उससे पहले ही हो चुकी थी। अंग्रेजों के द्वारा टीपू सुल्तान की घेराबन्दी करके पराजित करने के पश्चात् सन् 1799 में दक्षिण भारत के श्रीरंगापटनम्  एक और क्लब स्थापित किया। सन् 1864 में मद्रास और कलकत्ता के मध्य हुए मैच को भारत में प्रथम श्रेणी के क्रिकेट का आरम्भ माना जा सकता है। 19 वीं सदी में मुंबई में हुए त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय मैचों की भारत में क्रिकेट को स्थिरता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका रही।

भारतीयों में बंबई के अल्पसंख्यक पारसियों ने सर्वप्रथम उच्च स्तरीय क्रिकेट खेल का प्रदर्शन किया। सन् 1892 में एक क्रकेट मैच पारसियों तथा यूरोपियन्स के मध्य खेला गया, सन्  1907 और  1912 में क्रमशः हिन्दू और मुस्लिम टीम्स भी इस प्रतियोगिता में शामिल हो गए। पलवनकर बन्धु, शिवराम, गनपत और विट्ठल क्रिकेट के स्टार माने जाने लगे। उल्लेखनीय है कि पलवनकर बन्धु उस जाति से सम्बन्धित थे जिसे उस जमाने में अछूत समझा जाता था, किन्तु क्रिकेट के खेल में उन्हें बराबरी का दर्जा प्रदान किया गया।

सन् 1929 में 'बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल फॉर क्रिकेट इन इण्डिया' (Board of Control for Cricket in India) की स्थापना हुई जिसके तत्वावधान में पहली बार टेस्ट मैच का आयोजन हुआ। सन् 1935 में रनजी ट्रॉफी (Ranji Trophy) का आरम्भ हुआ जो कि आज तक जारी है।

भारतीय क्रिकेट टीम सन् 1983 में पहली बार विश्व चैम्पियन बनी, सन् 2003 में पुनः वर्ल्ड कप के फायनल मैच में पहुँची किन्तु भाग्य ने साथ नहीं दिया और फायनल मैच गई किन्तु आज सन् 2011 में उसे पुनः विश्व चैम्पियन बनने का अवसर प्राप्त हुआ।