दीपावली की रात्रि को छत्तीसगढ़ के गोंड़ "गोंड़िन गौरा" पर्व मनाते हैं। दीपावली की रात्रि आरम्भ होते ही गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इसके लिए लकड़ी के एक पाटे पर चारों कोनों में खम्भे बनाये जाते हैं तथा उनके ऊपरी भाग में दिये रखने के लिये गढ़े कर दिये जाते हैं। बीच में शिवजी की मूर्ति बनाई जाती है। शिव जी की मूर्ति की बायीं ओर गौरा माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता है। फिर खम्भों और मूर्तियों को रुपहले और सुनहले वर्क से आच्छादित किया जाता है। उसके बाद लाल सिन्दूर की मोटी लकीर से भरी हुई माँग वाली एक स्त्री बाल बिखरा लिये और पाटे को सिर पर रखती है। उस स्त्री के साथ युवक, वृद्ध, बच्चे और स्त्रियाँ बाजे-गाजे के साथ जुलूस के रूप में पूरे गाँव भर या शहरों में मुहल्ले मुहल्ले घूमते हैं। यह जुलूस शिव जी की बारात होती है।
लटें बिखरा कर औरतों का झूमना, हाथों में 'साँटी' (कोड़े) लगवाना आदि इस बारात के आकर्षण होते हैं।
रात भर गलियों में घूमने के बाद 'गौरा चबूतरे' पर पाटा रख दिया जाता है और औरतें गाती हैं -
महादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।
अन्त में मूर्तियाँ तालाब में विसर्जित कर दी जाती हैं।
शिव-पार्वती की इस पूजा को 'गोड़िन गौरा' कहा जाता है जो कि वास्तव में शिव-विवाह की वार्षिक स्मृति है।