मोटे तौर पर तो यही लगता है कि शिक्षक और गुरु पर्यायवाची शब्द हैं किन्तु यदि गहराई में जाया जाए तो यह सही नहीं लगता। शिक्षक का काम है विद्यार्थी को शिक्षा देना, ऐसी शिक्षा जो उन्हें डिग्री, डिप्लोमा या सर्टिफिकेट दिलवा सके जिसकी बदौलत शिक्षा पाने वाला अपनी आजीविका चला सके जबकि गुरु अपने शिष्य को ज्ञान देता है, ऐसा ज्ञान जो उसे स्वावलम्बी तो बनाता ही है, साथ ही शिष्य के भीतर नैतिकता, न्यायप्रियता, मानवता, राष्ट्रप्रेम, स्वाभिमान जैसी भावनाओं को भी कूट-कूट कर भरता है। शिक्षक विद्यार्थियों को सिर्फ किताबों में लिखी बातों को ही सिखाता है जबकि गुरु अपने शिष्य को सत्य से परिचित करवाता है, उस सत्य से जो पुस्तकों में कहीं भी नहीं मिलता। सत्य को पुस्तकें पढ़ कर नहीं जाना जा सकता, उसे सिर्फ ज्ञान और अनुभव से ही जाना जा सकता है। सत्य को न जानने वाला सदैव अपने इन्द्रियों के वश में रहता है किन्तु सत्य को जान लेने वाले में अपने इन्द्रियों को नियन्त्रित करने की क्षमता आ जाती है और वह इन्द्रियों के वश में न रह कर इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है।
शिक्षक शिक्षा देने के लिए नियत वेतन लेता है, नियत फीस लेता है, नियत पारश्रमिक लेता है अर्थात शिक्षा का मोल लेता है किन्तु गुरु ज्ञान देने के लिए बदले में कुछ भी नहीं माँगता क्योंकि वह जानता है कि ज्ञान का कोई मोल नहीं होता। विद्या अमोल होती है, ज्ञान का मोल चुकाने का सामर्थ्य संसार में किसी के भी पास नहीं है, तो भला गुरु विद्या की कीमत कैसे लगा सकता है? हाँ, शिष्य की श्रद्धानुसार दी गई दक्षिणा को वह अवश्य स्वीकार करता है। यह दक्षिणा न तो वेतन है, न फीस है और न ही पारश्रमिक है़, यह तो शिष्य का गुरु के प्रति मात्र आभार प्रदर्शन है, गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा और समर्पण है। दक्षिणा की राशि नियत नहीं होती, दक्षिणा शिष्य की श्रद्धानुसार स्वेच्छा से दी जाती है। वसिष्ठ को दक्षिणा के रूप में राम जितनी राशि दे सकते हैं उतनी राशि गुह, जो कि भील होने के नाते राम के कहीं बहुत अधिक निर्धन है, दे ही नहीं सकता, सन्दीपनि जानते हैं कि दक्षिणा में कृष्ण जितनी राशि सुदामा दे ही नहीं सकता। फिर भी गुरुओं की दृष्टि में उनके सभी शिष्य एक समान होते हैं और वे उन्हें एक जैसा ही ज्ञान देते हैं।
अंग्रेजों के आने के बाद भी कुछ समय तक गुरु-दक्षिणा की यह परम्परा जारी रही। हजारों ब्राह्मण अध्यापक अपने घरों में ही अपने शिष्यों को ज्ञान प्रदान करते थे। दक्षिणा के रूप में जहाँ उन्हें राजा-महाराजाओं, जमींदारों आदि धनाढ्य लोगों से जमीन, जायजाद, सोना, चाँदी और बहुत अधिक मात्रा में नगदी मिल जाती थी वहीं वे निर्धन शिष्यों को निःशुल्क ही ज्ञान बाँटा करते थे। दक्षिणा में मिली सम्पत्ति का भी वे उतना ही उपयोग करते थे जितने की उन्हें आवश्यकता होती थी और शेष सम्पत्ति को वे उन्हीं राजा-महाराजाओं तथा जमींदारों की अमानत समझते थे और जरूरत पड़ने पर वे उस राशि को राज्य और समाज के हित में भी व्यय कर दिया करते थे।
शिष्य का गुरु के प्रति सम्मान की भावना जीवन-पर्यन्त बनी रहती थी और गुरु-पूर्णिमा के दिन इस भावना का विशेष प्रदर्शन होता था। आज विद्यार्थी का शिक्षक के प्रति सम्मान की कितनी भावना है यह बताने की आवश्यकता नहीं है, यह तो आप सभी जानते हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि शिक्षक दिवस मना कर भले शिक्षक स्वयं को गर्वान्वित महसूस कर ले।
वसिष्ठ और विश्वामित्र जैसे गुरुओं के दिए ज्ञान ने राम जैसा शासक का निर्माण किया जिनके लिए प्रजा ही सर्वोपरि थी, यहाँ तक कि उन्होंने प्रजा की भावनाओं का सम्मान करके अपनी धर्मपत्नी तक का भी त्याग कर दिया। और आज शिक्षकों की दी गई शिक्षा नें हमें किस प्रकार के शासक दिए हैं यह तो आप देख ही रहे हैं।