Saturday, March 27, 2010

कुत्ते का भी अपना एक दिन आता है

अंग्रेजी कहावत है कि Every dog has its day याने कि "कुत्ते का भी अपना एक दिन आता है"। इसी को हिन्दी मुहावरे के रूप में कहते हैं - "घूरे के भी दिन बदलते हैं"। कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो इसी बात को ध्यान में रख सोचने लगते हैं कि क्या हुआ जो कल तक हमें किसी ने नहीं पूछा, पर आज अब अपना दिन आ गया है और फिर बड़ी बड़ी बातें करके लोगों पर अपनी विद्वता का रोब झाड़ना शुरु कर देते हैं।

किन्तु इनका ज्ञान बाँटना Empty vessels make most noise/sound याने कि "खाली बर्तन अधिक आवाज करते हैं", जिसे "अधजल गगरी छलकत जाय" भी कहा जाता है, जैसा ही होता है क्योंकि इनके पास अपनी बुद्धि न होकर सिर्फ सिखाई गई बुद्धि ही होती है। छत्तीसगढ़ी में मुहावरा है "सिखोवन बुद्धि उपजारन माया" अर्थात् सिखाई गई बुद्धि और उपजाई गई माया काम नहीं करती। किन्तु ये अपने आदत से मजबूर होते हैं और लोगों को मूर्ख बनाने के अपने प्रयास में लगे ही रहते हैं।

लोग भी जानते हैं कि Fool me once, shame on you. Fool me twice, shame on me याने कि "यदि तुमने मुझे एक बार मूर्ख बनाया तो यह तुम्हारे लिये लज्जाजनक है किन्तु तुमने मुझे दो बार मूर्ख बनाया तो वह मेरे लिये लज्जाजनक है" और वे तैश में आकर उन्हें लात मारने पर उतारू हो जाते हैं। वैसे Even a dog can distinguish between being stumbled over and being kicked याने कि "ठोकर लगने और लात खाने में क्या अन्तर है यह एक कुत्ता भी जानता है" पर ये लोग इस अन्तर को समझ कर भी नहीं समझते और पूरी तल्लीनता के साथ लगे ही रहते हैं अपने काम में। धन्य हैं ऐसे लोग!

Friday, March 26, 2010

सपनों के बारे में कुछ विस्मयकारी तथ्य ... अंधे भी सपने देखते हैं

अंधे भी सपने देखते हैं

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अंधे लोग भी सपने देखते हैं। वे लोग, जो जन्म से अंधे नहीं होते, अपने सपनों में चित्र, प्रतिबिंब, छाया आदि देख सकते हैं किन्तु जन्मांध लोग आंख को छोड़ कर अन्य इंद्रियों के क्रियाकलाप से सम्बन्धित विषयों जैसे कि ध्वनि, गंध, स्पर्श आदि से सम्बद्ध सपने देखते हैं। वास्तव में आदमी सपनों में अपने चेतन तथा अचेतन में उभरी कल्पनाओं को साकार होते देखता है।

लोग 90% सपनों को भूल जाते हैं

जागने के 5 मिनट के भीतर ही आदमी अपने द्वारा देखे गये आधे सपनों को भूल जाता है और 10 मिनट के भीतर 90% सपनों को।

प्रत्येक व्यक्ति सपने देखता है

अन्वेषणों से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति सपने देखता है (कुछ चरम मनोवैज्ञानिक रोगों के प्रकरण वाले व्यक्ति इसके अपवाद हो सकते हैं)। पुरषों और महिलाओं के द्वारा देखे गये सपने अलग अलग प्रकार के होते हैं और उन पर उनकी भौतिक प्रतिक्रियाएँ भी अलग अलग होती हैं। जहाँ पुरूषों का झुकाव अधिकतर अन्य परुषों से सम्बन्धित सपने देखने में होता है वहीं महिलाओं का झुकाव अधिकतर अन्य महिलाएँ तथा अन्य परुषों दोनों से सम्बन्धित सपने देखने में होता है।

सपने मनोविकृति से बचाव करते हैं

मनोवैज्ञनिक परीक्षणों के दौरान कुछ विद्यार्थियों को सपने देखते समय जगा दिया गया और कुछ देर के बाद उन्हें अपनी नींद पूरी करने के लिये फिर से सोने दिया गया। इस परीक्षण के परिणाम से पता चला कि सपने के पूरे न हो पाने की वजह से वे विद्यार्थी ध्यान केन्द्रित करने में असमर्थता, चिड़चिड़ापन जैसी मनोविकृतियों के अस्थाई रूप से शिकार हो गये। इससे सिद्ध होता है कि सपने मानसिक विकृतियों से बचाव करते हैं।

सपने में हम उन्हें ही देखते हैं जिन्हें हम जानते हैं

हमें ऐसा लगता है कि सपनों में हम बहुत से अपरिचित चेहरों को देखते हैं किन्तु आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उन सारे चेहरों को हमने अपने जीवन में कभी न कभी देखा होता है किन्तु भूल चुके होते हैं। हो सकता है कि जिस व्यक्ति को बचपन में कभी आपने रिक्शा चलाते हुये देखा हो वही व्यक्ति कल आपके सपने में ड़रावना रूप ले कर हत्यारे के रूप में आया हो। जीवन में हम हजारों-लाखों लोगों को देखते हैं और भूल जाते हैं इसलिये हमारे सपनों में आने वाले चरित्रों में कभी कमी नहीं आती।

सभी लोग रंगीन सपने नहीं देख सकते

अन्वेषणों से सिद्ध हो चुका है कि 12% लोग सिर्फ श्वेत-श्याम रंगों में ही सपने देखते हैं, वे कभी रंगीन सपने देख ही नहीं सकते। प्रायः लोगों का झुकाव स्कूल जाने, स्वयं का पीछा किये जाने, किसी स्थान में टहलने, कार्यालय में देर से जाने, किसी जीवित व्यक्ति की मृत्यु, दांत टूटने, परीक्षा में फेल हो जाने, आसमान में उड़ने जैसे सामान्य प्रसंगों के सपने देखने में होता है। इस बात की जानकारी अभी तक नहीं हो पाई है कि रंगीन सपनों का प्रभाव अधिक होता है या श्वेत-श्याम सपनों का।

सपने किसी विषय के होते हैं और हम उन्हें किसी और विषय का समझते हैं

प्रायः सपनों को हम जिस विषय का समझते हैं वे उस विषय के नहीं होते। वास्तव में सपने सांकेतिक भाषा बोलते हैं। हमारा अचेतन मन उस सांकेतिक भाषा वाले सपने की तुलना किसी न किसी वस्तु से करने लगता है। यह तुलना ठीक उस प्रकार की होती है जैसे कोई कवि अपनी कविता में लिखे कि चीटियाँ अनवरत क्रियाशील रहती हैं अतः वे एक मशीन हैं।

सिगरेट तम्बाखू की लत छोड़ने वालों को अधिक भड़कीले सपने दिखाई देने लगते हैं

एक विस्मयकारी तथ्य यह भी है कि यदि व्यक्ति अपने लंबे समय से लगे सिगरेट तम्बाखू के लत को छोड़ दे तो उसे सामान्य से अधिक भड़कीले सपने दिखाई देने लगते हैं। असामान्य मनोविज्ञान से सम्बन्धित एक पत्रिका के अनुसार लत छोड़े हुये 33% लोग लत छोड़ने के 1 से 4 सप्ताह तक अपने लत को पूरा करने तथा किसी के द्वारा पकड़े जाने एवं स्वयं में अपराधबोध होने का सपना देखते हैं।

ये तो हुये सपनों के विषय में विस्मयकारी मनोवैज्ञानिक तथ्य किन्तु कुछ प्रचलित धारणाएँ भी हैं जो कि मनोवैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है जैसे कि सपनों में मिले संकेतों का अर्थ होना, भोर के सपनों का सत्य होना आदि।

Thursday, March 25, 2010

कितना हित हो रहा है हिन्दी का हिन्दी ब्लोगिंग से?

माना कि हिन्दी ब्लोगिंग अभी भी अपने शैशव काल में हैं लेकिन यह भी सही है कि इसे शुरू हुए एक अच्छा खासा-समय भी बीत चुका है और इस अन्तराल में हजारों की संख्या में हिन्दी पोस्ट आ चुके हैं। पर इन पोस्टों में कितने पोस्ट ऐसे हैं जिनमें हिन्दी ब्लोगिंग से अनजान लोग, नेट में कुछ खोजते-खोजते, आते हैं? क्या कोई पोस्ट कालजयी बन पाया है?

ऐसा लगता है कि जिस प्रकार से लोकतन्त्र "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है", उसी प्रकार से हिन्दी ब्लोगिंग "ब्लोगरों द्वारा, ब्लोगरों के लिए, ब्लोगरों की ब्लोगिंग है"। जैसे लोकतन्त्र में कोई राष्ट्र के हित के लिये नहीं सोचता वैसे ही हिन्दी ब्लोगिंग में कोई हिन्दी के हित के लिये नहीं सोचता। लोकतन्त्र नेतागिरी कर के पैसे पीटने के लिये है और हिन्दी ब्लोगिंग अधिक से अधिक संख्या मे टिप्पणी बटोरकर आत्म-तुष्टि के लिये है।

हमारे पोस्ट की अधिकतम उम्र उतनी ही होती है जब तक वह लोकप्रिय संकलकों में दिखाई देता है याने कि मात्र चौबीस घंटे की!

जरा हृदय पर हाथ रख कर सोचें कि हम क्या दे रहे हैं हिन्दीभाषी लोगों को? क्या स्तर है हमारे लेखन का? क्या हमारे लेखन से हिन्दी "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" वाली भाषा बन कर नेट में एकछत्र राज्य करने लायक बन पायेगी?

मैं उपरोक्त बातों को कई बार कह चुका हूँ (और भविष्य में भी कहता ही रहूँगा), कभी व्यंगात्मक लहजे में तो कभी रो-धो कर। मैं जानता हूँ कि मेरे इन पोस्ट को पढ़कर प्रायः लोग यह सोचते हैं कि यह तो दूसरों को नीचा दिखाने के लिये और स्वयं को हिन्दी का बहुत बड़ा हितचिन्तक बताने के लिये ऐसा लिखता रहता है। किन्तु मैं बार-बार इस मुद्दे को सिर्फ इसलिये उछालते रहता हूँ कि कोई तो मेरे व्यंग से तिलमिला कर या मेरे रुदन पर तरस खाकर यह सोचने लगे कि बुढ्ढे की बात कुछ तो सही है और ऐसा सोचकर ही आत्म-तुष्टि की भावना को त्याग कर हिन्दी के हित के लिए कुछ करने की ठान ले।

मेरे विषय में यदि कोई गलत राय बना भी लेता है तो क्या फर्क पड़ना है मुझे उससे?

पर मुझे पढ़ कर यदि कोई हिन्दी के हित के लिये जूझने के लिये तत्पर हो जाता है तो मुझे अवश्य ही बहुत फर्क पड़ेगा, सफलता प्राप्त करके भला किसे फर्क नहीं पड़ता?

Wednesday, March 24, 2010

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना ... प्रभु की यह मुस्कान ही तो माया है

रामनवमी पर विशेष

राम ...

दो अक्षरों का एक ऐसा नाम जिस पर संसार का प्रत्येक हिन्दू की अथाह श्रद्धा है। राम हिन्दुओं के आराध्य देव हैं और राम का नाम उनके लिये भवसागर से मुक्ति देने वाला मन्त्र है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम के नाम को महामन्त्र बताते हुए कहा है "महामंत्र जोइ जपत महेसू"

राम साक्षात् ब्रह्म के अवतार हैं। ब्रह्म और माया एक दूसरे के पूरक हैं। विशुद्ध ज्ञान ही ब्रह्म है और सांसारिक मोह ही माया है। कृपालु भगवान जिस किसी के समक्ष प्रकट होते हैं तो वह विशुद्ध ज्ञान से परिपूरित हो जाता है और माया से मुक्त हो जाता है इसीलिये जब श्री राम माता कौसल्या के समक्ष प्रकट हुए तो उनके भीतर विशुद्ध ज्ञान उत्पन्न हो गया और वे कहने लगीं:

ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति प्रति बेद कहै।

अर्थात् हे नाथ! वेद कहते हैं कि आपके प्रत्येक रोम में माया के रचते हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह हैं।

प्रभु के दर्शन से उत्पन्न माता कौसल्या का यह विशुद्ध ज्ञान प्रभु की लीला में बाधक बन रहा था। इस ज्ञान के कारण ही माता कौसल्या प्रभु को अपना पुत्र मानने के लिये तैयार नहीं हो पा रही थीं अतः प्रभु के लिये उन्हें मोहबन्धन बाँधना आवश्यक हो गया और मुसका दियेः

उपजा जब ग्याना प्रभु मुसकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।

प्रभु की इस मुसकान में ही माया का वास है अतः माता कौसल्या मोह के बन्धन में बँध गईं और उनका ज्ञान लुप्त हो गया। और वे कहने लगीं:

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥

अर्थात् माता की मति डोल गई और बोलीं, "हे तात्! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय तथा अनुपम सुख प्रदान करने वाली बाललीला कीजिये।

आज राम जन्मोत्सव के विशिष्ट अवसर पर आप सभी को रामनवमी पर्व की शुभकामनाएँ!

Tuesday, March 23, 2010

क्या आपने SMS जोक्स पढ़े हैं?

मोबाइल सेवा के अन्तर्गत् आपके मनोरंजन के लिये एक सुविधा होती है SMS से Jokes याने लतीफे प्राप्त करना। इस सेवा को प्राप्त करने के लिये आपको प्रति माह एक निश्चित राशि का भुगतान करना पड़ता है। क्या कभी आपने कभी पढ़ा है इन लतीफों को? अभद्र भाषा में ऐसे अश्लील लतीफे होते हैं कि तौबा तौबा! पर धड़ल्ले के साथ यह सेवा चल रही है। और क्यों न चले भाई? इन्सान मूलतः आखिरकार एक जानवर ही तो है जिसे हिंसा और अश्लीलता हमेशा लुभाती है। तो लोगों के इस लोभ का फायदा क्यों नहीं उठाया जा सकता?

और सबसे मजे की बात तो यह है कि ये अश्लील लतीफे जहाँ आपके मोबाइल सेट में आते हैं वहीं आपके बेटे-बेटियों के भी मोबाइल सेट में आते हैं क्योंकि इन लतीफों के जितने शौकीन आप हैं उतने ही शौकीन आपके बेटे-बेटियाँ भी हैं। इन्हें आप अपने मित्रों को सुना-सुना कर आनन्द लेते हैं और आपके बेटे-बेटियाँ अपने दोस्त-यारों को! वाह! कितनी सुन्दर बनते जा रही है हमारी भारतीय संस्कृति!

मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों का यह काम किसी को भी अवैधानिक नहीं लगता। क्या सरकार को इस प्रकार से गैरकानूनी रूप से अभद्रता और अश्लीलता फैलाने के बारे में जानकारी नहीं है? या मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कंपनियों को इससे होने वाले मोटे मुनाफे की रकम सरकार चलाने वालों को भी मिलती है? क्या देश की युवा सोच को इस प्रकार से वासना में डुबो देना उचित है?

Monday, March 22, 2010

जो जलाता है किसी को खुद भी जलता है जरूर ..

ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जो कभी किसी से जला न हो। वह मुझसे आगे बढ़ गया, बस हो गई जलन शुरू। मैं जिस वस्तु की चाह रखता हूँ वह किसी और को प्राप्त हो गई और मेरा उससे जलना शुरू हो गया। कई बार तो लोग दूसरों से सिर्फ इसीलिये जलते हैं वे अधिक सुखी क्यों हैं। पर जो अधिक सुखी हैं वे भी अपने से अधिक सुखी से जलते हैं।

विचित्र भावना है यह जलन अर्थात् ईर्ष्या भी! आमतौर पर जलन की यह भावना असुरक्षा, भय, नकारात्मक विचारों आदि के कारण उत्पन्न होती है। क्रोध और उदासी ईर्ष्या के मित्र हैं और इसके उत्पन्न होते ही इसके साथ आ जुड़ते हैं। ये क्रोध और उदासी फिर आदमी को भड़काने लगते हैं कि तू अकेला क्यों जले? तू जिससे जल रहा है उसे भी जला। और आदमी शुरु कर देता है दूसरों को जलाना। किसी शायर ने ठीक ही कहा हैः

जो जलाता है किसी को खुद भी जलता है जरूर
शम्मा भी जलती रही परवाना जल जाने के बाद

इस ईर्ष्या के अलावा जलने और जलाने के और भी अर्थ होते हैं। चारों ओर यदि सिर्फ अन्धकार हो तो हमारी आँखें किस काम की हैं? छोटा सा दिया स्वयं जलकर हमें रात्रि के अन्धकार से निजात दिलाता है। दीपक की छोटी सी टिमटिमाहट रात्रि के गहन तम का नाश कर देती है।

किसी फिल्म के गीत की सुन्दर पंक्तियाँ याद आ रही हैं:

जगत भर की रोशनी के लिये
हजारों की जिन्दगी के लिये
सूरज रे जलते रहना ...

सूरज भी स्वयं जलकर हमारा कल्याण करता है।

जलने-जलाने की बात हो और अग्नि की चर्चा न हो तो बात ही अधूरी रह जाती है। अग्नि के बिना हमारा गुजारा ही नहीं हो सकता। अग्नि न हो तो खाना कैसे पके? अग्नि में हविष्य की आहुति देकर ही मानवकल्याण हेतु हवन किये जाते हैं। अग्नि को देवता माना गया है। ज्वलन, पावक, अनल, धनञ्जय, शुक्र, चित्रभानु आदि अग्नि के अन्य नाम हैं। संस्कृत में तो अग्नि के और भी बहुत सारे नाम हैं जिनमें से कुछ हैं:

वैश्वानर,वह्नि, वीतिहोत्र, कृपीटयोनि, जातवेराः, तनूनपाद्, वर्हिःशुष्मा, शोचिष्केश, उपबुर्ध, आश्रयाश, वृहद्भानु, कृशानु, लोहिताश्व, वायुजशख, शिखावान्, आशुशुक्षणि, हिरण्यरेताः, हुतभुग्, दहन, हव्यवाहन, सप्तार्चि, दमुनाः, विभावसु, शुचि और अप्पित्त

तो हम यदि ईर्ष्या की आग में जलेंगे तो स्वयं के साथ-साथ दूसरों का भी अहित ही करेंगे किन्तु हम यदि सूर्य और दीपक की भाँति जलें तो बहुत से लोगों का कल्याण कर सकते हैं।

Sunday, March 21, 2010

केक नहीं काट रहे ललित जी आज अपने जन्म दिन पर

जन्मदिन में केक काटना क्या जरूरी है? क्या हमारी यही प्रथा रही है?

ये प्रश्न मेरे मन में इसलिये उठे क्योंकि आज मेरे प्रिय मित्र ललित शर्मा जी का जन्मदिन है। मोबाइल लगाकर बधाई देने के बाद मैंने उनसे कहा कि मैं आ रहा हूँ अभनपुर आपके जन्मदिन के जश्न में शामिल होने के लिये। वे सहर्ष बोले कि आ जाइये, केक आपका इंतजार कर रहा है। इस पर मैंने कह दिया कि भाई मैं न तो कोई उपहार दूँगा और न ही केक खाउँगा। मैं तो बस बड़े खाउँगा वो भी उड़द दाल के और उपहार के बदले सिर्फ अपना स्नेह और आशीर्वाद ही दूँगा।

हमारे छत्तीसगढ़ में किसी के जन्मदिन मनाने के लिये आँगन में चौक पूरा (रंगोली डाला) जाता था, सोहारी-बरा (पूड़ी और बड़ा) बनाये जाते थे। बड़े उड़द दाल के होते थे, हाँ स्वाद बढ़ाने के लिये थोड़ा सा मूँगदाल भी मिला दिया जाता था। सगे-सम्बन्धियों तथा मित्र-परिचितों को निमन्त्रित किया जाता था। जिसका जन्मदिन होता था उसे टीका-रोली आदि लगाकर उसकी आरती उतारी जाती थी। वह स्वयं अपने से बड़ों के पैर छूता था और उससे कम उम्र वाले उसके पैर छूते थे। फिर प्रेम के साथ खा-पीकर खुशी-खुशी सभी विदा लेते थे। न कोई भेटं न कोई उपहार, भेंट-उपहार की प्रथा ही नहीं थी।

जब मैंने ललित जी को अपने छत्तीसगढ़ के उपरोक्त प्रथा की याद दिलाई तो वे आज इसी प्रथा के अनुसार अपना जन्मदिन मनाने के लिये राजी हो गये। ललित जी से मेरा परिचय मात्र तीन-चार माह ही पुरानी है, पिछले दिसम्बर में पहली मुलाकात हुई थी मेरी उनसे। पर आज लगता है कि हमारी जान-पहचान बरसों पुरानी है। उम्र में लगभग उन्नीस साल छोटे हैं वे हमसे किन्तु हमारे बीच उम्र की यह दूरी कभी बाधा नहीं बनी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं ललित जी। छत्तीसगढ़ी, हिन्दी के साथ साथ पंजाबी, हरयाणवी आदि अनेक भाषाओं पर अधिकार रखते हैं। संस्कृत का गहन अध्ययन किया है उन्होंने। साहित्य-सृजन में तो सानी नहीं है उनका, अपने लेखन से चारों ओर अपने प्रदेश छत्तीसगढ़ और अपने देश भारत का परचम फहरा रहे हैं। फोटोग्राफी और कम्प्यूटर ग्राफिक्स में महारत हासिल है सो अलग।

आज उनके जन्मदिन के शुभ अवसर पर मैं उनके दीर्घायु की कामना करता हूँ।

हम ... याने कि धोबी का गधा घर का ना घाट का

एक बार इस हिन्दी ब्लोगिंग में क्या घुस गये कि लत लग गई इसकी और इसने हमें "धोबी का गधा घर का ना घाट का" बना कर रख दिया। अंग्रेजी ब्लोगिंग करते थे तो जहाँ एडसेंस से चेक मिलता था वहीं क्लिक बैंक के प्रोडक्ट बिकने पर कमीशन की रकम सीधे हमारे बैंक खाते में जमा हो जाया करती थी। अंग्रेजी ब्लोगिंग का मतलब ही है "आम के आम और गुठलियों के दाम"। तो हम बता रहे थे कि हमारे साथ तो वही मिसल हो गई कि "कौवा चला हंस की चाल, भूल गया अपनी भी चाल"। बड़े लोगों ने ठीक ही कहा है कि "जब गीदड़ की मौत आती है तो शहर की ओर भागता है"। हम भी अंग्रेजी ब्लोगगिंग के जंगल को छोड़ कर हिन्दी ब्लोगिंग के शहर में चले आये। "चौबे जी आये थे छब्बे बनने और दुबे बन कर रह गये"

कमाई-धमाई तो खतम ही हो गई ऊपर से नेट का बिल अलग से पटाना पड़ रहा है।इसी को कहते हैं "धन जाये और धर्मो का नाश"। पर किसी को क्या दोष दें, हम खुद ही तो "आ बैल मुझे मार" जैसे यहाँ आये थे। लगता है कि यह हिन्दी ब्लोगिंग अब हमारे लिये "आई है जान के साथ, जायेगी जनाजे के साथ" बनकर रह गई है। लाख सोचते हैं कि आज नहीं तो कल इस हिन्दी ब्लोगिंग से कमाई होनी शुरू हो जायेगी पर लगता है "इन तिलों में तेल ही नहीं है"। हिन्दी ब्लोगिंग से कमाई तो करमहीन की खेती है, कहते हैं ना "करमहीन खेती करे, बैल मरे या सूखा पड़े"। कमाई तो पाठकों से ही होनी है पर यहाँ तो पाठक आने से रहे। यहाँ पर तो पाठक मिलना "टेढ़ी खीर" है। इतने दिनों से भिड़े हुए हैं यहाँ पर पर अब तक नतीजा सिर्फ "कोयल होय ना उजली सौ मन साबुन लाइ" है।

कमीशन मिलने की आस में अपने ब्लोग के साइडबार में कुछ भारतीय कम्पनियों के विज्ञापन लगा रखे हैं पर उन्हें कोई देखने वाला हो तब ना। ऐसा भी नहीं है कि इन विज्ञापनों से कमाई होती ही नही है, कभी कभी हो भी जाती है पर कमीशन के रूप में मिलने वाली रकम "ऊँट के मुँह में जीरा" ही होती है। आप तो जानते ही है कि "ओस चाटे प्यास नहीं बुझती"। चार छः महीने में यदि हमारे विज्ञापन के माध्यम से कोई फ्लाईट या होटल बुकिंग करा ले तो समझते हैं कि "अंधे के हाथ बटेर" लग गया।

अंग्रेजी ब्लोगिंग में तो लोग आते ही हैं कमाई करने के उद्देश्य से पर हिन्दी ब्लोगिंग वाले तो संतुष्ट प्राणी हैं, उनमें से अधिकतर को तो ब्लोगिंग से धन कमाने की चाह ही नहीं है। हिन्दी ब्लोगिंग तो "अनजान सुजान, सदा कल्याण" वाली दुनिया है, यहाँ पर सभी मस्त लोग हैं। हर कोई अपने ब्लोग को "अपना मकान कोट समान" मान कर चलते हैं, "अपनी अपनी खाल में सब मस्त" हैं और "अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग" अलापते हुए अलमस्त रहते हैं।

तो हम भी हिन्दी ब्लोगिंग के रंग में पूरी तरह से रंग गये हैं। जब अंग्रेजी ब्लोग लिखते थे इंटरनेट मार्केटिंग के लिये प्लानिंग किया करते थे, अब हिन्दी ब्लोग लिखते हैं तो योजना बनाते हैं कि किसकी टाँगें खींची जाये, किसके धर्म की बखिया उधेड़ी जाये, पुरुष हैं इसलिये कैसे नारी को नीचा दिखाया जाये किसी ने कहा है "काजर की कोठरी में कैसे हु जतन करो, काजर की रेख एक लागिहैं पै लागिहैं"। यहाँ एक रेख लगना तो क्या पूरी तरह से कजरारे बन गये हैं और "नवपंक लोचन पंक मुख कर पंक पद पंकारुणम" वाला हमारा एक नया ही रूप उभर कर सामने आ रहा है।

अब तो हम भी यहाँ आकर मस्त हो गये हैं। विषय आधारित ब्लोग न बना कर अपने "आधा तीतर आधा बटेर" ब्लोग से ही खुश रहते हैं। भले ही अब हमारा हाल "आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास" हो गया है पर किसी को बताते नहीं कि हम "धोबी के गधे, घर के ना घाट के" हो गये हैं। आखिर बताने से "अपनी जाँघ उघारिये, आपहि मरिये लाज" वाली मिसल ही तो चरितार्थ होगी। इसलिये "अब पछताये होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत" मंत्र को ध्यान में रखकर अपने ब्लोग में जो मन मे आता है वो लिख दिया करते हैं।