Friday, February 26, 2010

बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के हाँ जी हाँ जी कहना

कुतिया ले गई बाघ को धर के,
हाँ जी हाँ जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

कोई कविता करे पोस्ट में,
कोई लिखे कहानी।
कोई लिखे कुछ ऐसा यारों,
समझ नहीं जो आनी।
ब्लोगर लिखते चिंतन कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

हिन्दी में अंगरेजी डाले,
वो ज्ञानी कहलाये।
हिन्दी मे है शर्म कहाँ जो,
पानी पानी हो जाये।
जोश दिलाओ टिप्पी कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

ज्ञान ध्यान की बात मिले ना,
तो निराश मत होना।
कुत्ता-बिल्ली पगला-पगली,
पढ़कर तुम मत रोना॥
लिखा है इसको मेहनत कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

ऊपर-ऊपर से जो निकले,
दर्शन उसे बताओ।
समझ ना आया कहकर क्यों तुम,
अज्ञानी कहलाओ?
दुःखी ना होना उसको पढ़ के,
हाँ जी हाँ जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

अन्धों की नगरी में भैया,
राजा होता काना।
हिन्दी ब्लोगिंग भी है ऐसी,
लोगों ने है जाना॥
गर कोई कह जाये ऐसा,
ना जी ना जी कहना।
बुद्धू बढ़ गया ब्लोगिंग कर के,
हाँ जी हाँ जी कहना॥

Thursday, February 25, 2010

आप तो बस लिख दीजिये ... आपने क्या लिखा है यह आपके टिप्पणीकर्ता खुद बता देंगे

ये मैं नहीं कह रहा हूँ बल्कि लिख्खाड़ानन्द जी के द्वारा हमें दिया गया गुरु मन्त्र है। उनका कहना है कि पोस्ट लिखने के लिये यह समझने की जरूरत नहीं है कि मैं क्या लिख रहा हूँ। आप तो बस लिख दीजिये! आपने क्या लिखा है यह आपके टिप्पणीकर्ता खुद ही बता देंगे। उदाहरण के तौर पर उन्होंने हमें अपना निम्न पोस्ट और उस पर आई टिप्पणियों को दिखायाः

पोस्टः
[शीर्षक] भ्रमजाल [शीर्षक]

ईश्वर का एक होना अद्वैतवाद है किन्तु सरिता का प्रवाहित होना द्वैतवाद है। सरिता का प्रवाहित होना अपने प्रियतम सागर से मिलन के लिये ही होता है। इसलिये जब हम कहते हैं कि सरिता प्रवाहित होती है तो वह द्वैतवाद होता है। सरिता के साथ अपरोक्ष रूप से सागर सम्मिलित ही रहता है। सरिता प्रवाहित होती है को अद्वैत कहना शोभनीय नहीं है और न ही यह वांछनीय है। सरिता की गति काल की गति के समान एक ही दिशा में होती है। किन्तु जब सरिता का जल किसी विशाल पाषाण से टकरा कर कुछ दूरी तक वापस प्रवाहित होता है तो सरिता की गति काल की गति से भिन्न हो जाती है। जब इतिहास स्वयं को दुहराता है तो आभास होता है कि काल की गति पुनः विरुद्ध दिशा में हो गई है किन्तु यह हमारा भ्रम है।

अद्वैत और द्वैत अत्यन्त जटिल विषय हैं। इन्हें समझने के लिये सरिता, सागर और काल को पहले समझना जरूरी है।

हम सभी भ्रम में जीते हैं और भ्रम में ही मर जाते हैं। हम समझते हैं कि सिगरेट पीने वाले का स्तर बीड़ी पीने वाले के स्तर से ऊँचा होता है। यह हमारा भ्रम है। वास्तव में हम सिगरेट और बीड़ी को ध्यान में रख कर सोचते हैं इसलिये हमें दोनों के स्तरों में अन्तर का भ्रम होता है किन्तु सिगरेट और बीड़ी दोनों का ही उद्देश्य धूम्रपान है इसलिये यदि हम धूम्रपान को ध्यान में रख कर सोचें तो हमें दोनों का स्तर एक ही लगेगा।

ब्लोगजगत को आभासी कहा जाता है किन्तु यह आभासी होते हुए भी आभासी नहीं है। पर यह भी हमें स्मरण रखना होगा कि यह आभासी न होते हुए भी आभासी है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि ईश्वर होते हुए भी नहीं है और नहीं होते हुए भी है।

यह संसार एक भ्रमजाल है और जीवन अनेक भ्रमों से घिरा हुआ है। इन भ्रमों को तोड़ कर वास्तविक जीवन जीना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये।

टिप्पणियाँ:
टिप्पणी (1)

........ ने कहा

अत्यन्त गहन चिन्तन!

टिप्पणी (2)

........ ने कहा

सरिता, सागर और काल के विषय में अच्छी जानकारी मिली।

ब्लोगजगत और ईश्वर की सटीक तुलना अच्छी लगी!

टिप्पणी (3)

........ ने कहा

अद्वैतवाद और द्वैतवाद की जानकारी देती हुई सुन्दर पोस्ट!

टिप्पणी (4)

........ ने कहा

गम्भीर दर्शन!

टिप्पणी (5)

........ ने कहा

सरिता, सागर और काल को अद्वैत और अद्वैत से जोड़ने वाली सार्थक पोस्ट!

टिप्पणी (6)

........ ने कहा

हमेशा की तरह आपकी लेखनी का अद्भुत चमत्कार!

टिप्पणी (7)

........ ने कहा

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता! :)

टिप्पणी (8)

........ ने कहा

सार्थक लेखन!

टिप्पणी (9)

........ ने कहा

दर्शन और चिन्तन का सुन्दर संयोग!

टिप्पणी (10)

........ ने कहा

आपकी लेखनी की प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाना है!

टिप्पणी (11)

........ ने कहा

अत्यन्त जटिल विषय को सरलता के साथ समझाने के लिये आभार!

टिप्पणी (12)

........ ने कहा

सुन्दर प्रस्तुति!

टिप्पणी (13)

........ ने कहा

आभार!

टिप्पणी (14)

........ ने कहा

शिक्षाप्रद आलेख!

टिप्पणी (15)

........ ने कहा

अद्वैत और द्वैत को व्यक्त करती महत्वपूर्ण पोस्ट!

टिप्पणी (16)

........ ने कहा

अद्वैत और द्वैत अत्यन्त जटिल विषय हैं। इन्हें समझने के लिये सरिता, सागर और काल को पहले समझना जरूरी है।

nice

टिप्पणी (17)

........ ने कहा

यह टिप्पणी ब्लोग एडमिनिस्ट्रेटर के द्वारा मिटा दी गई है।

(आपकी जानकारी के लिये बता दें कि यहाँ पर टिप्पणी की गई थी "आप एक नंबर के गधे हैं।")

टिप्पणी (18)

लिख्खाड़ानन्द ने कहा

हमसे जेलेसी रखने वाले कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अनाप शनाप टिप्पणी करते हैं। ऐसे लोगों के साथ जब हम स्ट्रिक्तता से पेश आयेंगे तो निश्चतली इन्हें बहुत बुरा परिणाम भुगतना पड़ेगा।

टिप्पणी (19)

........ ने कहा

हमेशा की तरह बेहतरीन पोस्ट!

टिप्पणी (20)

........ ने कहा

सही कहा आपने!

टिप्पणी (21)

........ ने कहा

समझ में आ गया कि जब केवल ईश्वर होता है तो अद्वैत होता है और जब ईश्वर और माया दोनों होते हैं तो द्वैत होता है।

टिप्पणी (22)

........ ने कहा

आपका भी जवाब नहीं!

टिप्पणी (23)

........ ने कहा

उस्ताद जी! आज पूरे फॉर्म में दिखाई पड़ रहे हैं

टिप्पणी (24)

........ ने कहा

क्या बात कही.. मुझे लगता है कि जिस पर आप लिखते हैं, उन विषयों में आप पारंगत हैं इसीलिये एक सार्थक और सशक्त लेख निकल कर आता है।

टिप्पणी (25)

........ ने कहा

"यह संसार एक भ्रमजाल है और जीवन अनेक भ्रमों से घिरा हुआ है। इन भ्रमों को तोड़ कर वास्तविक जीवन जीना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिये।"

गम्भीर किन्तु सच्चा जीवन दर्शन! गहन चिन्तन!!


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लिख्खाड़ानन्द जी हमें बताया, "जब हमने इस पोस्ट को लिखा तो हमें खुद नहीं पता था कि हम क्या लिख रहे हैं पर टिप्पणियाँ आने बाद हमें पता चला कि हमने तो दर्शन और गहन चिन्तन से सम्बन्धित पोस्ट लिखा है। इसीलिये हम आपसे कहते हैं कि आप तो बस लिख दीजिये! आपने क्या लिखा है यह आपके टिप्पणीकर्ता खुद ही बता देंगे।"

Tuesday, February 23, 2010

खुद ऊपर नहीं जा सकते तो क्या हुआ टाँग खींच कर ऊपर वाले को नीचे तो ला सकते है

टॉप याने कि सर्वोच्च! टॉप में रहने की चाहत भला किसे नहीं होती। पर ऊपर चढ़ना हरेक के बस की बात नहीं है। फिर क्या करें? सामने वाला तो ऊपर ही ऊपर चढ़े जा रहा है। अरे भइ हम ऊपर नहीं जा सकते तो क्या हुआ उसकी टाँगे खींच कर उसे नीचे तो ला सकते हैं ना! यही तो संसार का नियम है। हम ऊपर नहीं जा सकते तो साला कोई दूसरा क्यों ऊपर रहे।

ये टाँग खीचने वाला काम मनुष्य तो क्या देवता तक भी करते हैं। विष्णु तक को भी दैत्यराज बलि का ऊँचा जाना नहीं भाया और उसने उसकी टाँग खींचने के बजाय अपने पैरों के नीचे ही दबा कर रख दिया। अब देखो ना, इन्द्र खुद तो तपस्या कर सकता नहीं पर चाहे शिव जी तपस्या करें कि नारद करें या और कोई करे, भेज देता है कामदेव को उसकी तपस्या भंग करने के लिये। ये टाँग खींचना नहीं है तो क्या है?

टाँग खींचने का काम तो युगों से चला आ रहा है। सतयुग में सत्यवादी हरिश्चन्द्र की टाँग खींचने के लिये विश्वामित्र आ गये थे और उन्हें राजा से ऐसा कंगाल बनाया कि डोम का काम करने के लिये विवश हो जाना पड़ा। त्रेता युग में राम ने बालि की टाँग खींच कर रख दिया। द्वापर में तो कृष्ण ने कितनों की टाँग खिंचाई की है इसका तो हिसाब ही नहीं मिलता। उन्होंने तो अपनी बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से करने के लिये अपने बड़े भाई बलराम तक की भी टाँग खिंचाई कर कर दी थी।

टाँग खींचना तो कलियुग का धर्म ही है। राजनीति हो, मीडिया हो, ब्लोगिंग हो चाहे जो भी हो टाँग खिंचाई का ही काम होता है वहाँ। ब्लोगवाणी ने तो नापसंद बटन देकर टाँग खिंचाई के काम को और भी आसान बना दिया है। एक ब्लोगर अपने पोस्ट में बताता है कि फलाने के ब्लोग की फलाने अखबार में चर्चा हुई है और दूसरा ब्लोगर तड़ से उस पोस्ट को नापसंद करके उसकी टाँग खींच देता है। किसी के ब्लोग की किसी अखबार में चर्चा भी कोई पसंद करने वाली चीज है भला? किसी पोस्ट लिखा है कि आज फलाने ब्लोगर का जन्मदिन है तो उस पर भी नापसंद का चटका लग जाता है। आखिर उस ब्लोगर जन्म हुआ ही क्यों? क्या जरूरत थी उसे इस संसार में आने की? चलो संसार में आ गया तो आ गया पर ब्लोगजगत क्या करने आया? हम तो भाई नापसंद ही करेंगे इसे। समझ में ही नहीं आता कि यह पोस्ट नापसंद है या ब्लोगर नापसंद? पसंद या नापसंद करने के लिये पोस्ट को पढ़ना जरूरी थोड़े ही है! वैसे हमारे लिख्खाड़ानन्द जी एक बार बता चुके हैं कि टिप्पणी करने के लिये भी पोस्ट को पढ़ना जरूरी नहीं है।

अब कहाँ तक लिखें टाँग खिंचाई की महिमा? इसकी महिमा तो अपरम्पार है!

चलते-चलते

फागुन का महीना है, होली नजदीक आ रही है, इसलिये प्रस्तुत है एक फागगीतः

नचन सिखावै राधा प्यारी
हरि को नचन सिखावै राधा प्यारी

जमुना पुलिन निकट वंशीवट
शरद रैन उजियारी
हरि को सिखावै राधा प्यारी

रूप भरे गुण हाथ छड़ी लिये
डरपत कुंज बिहारी
हरि को सिखावै राधा प्यारी

चन्द्रसखि भजु बालकृष्ण छवि
हरि के चरण बलिहारी
हरि को सिखावै राधा प्यारी

Monday, February 22, 2010

बेवकूफ ब्लोगर अब टिप्पणी पर भी पोस्ट निकालने लग गये हैं

"नमस्कार लिख्खाड़ानन्द जी!"

"नमस्काऽर! आइये आइये टिप्पण्यानन्द जी!"

"क्या बात है लिख्खाड़ानन्द जी, कुछ परेशान से लग रहे हैं?"

"क्या बतायें टिप्पण्यानन्द जी, बहुत दुःखी हैं भाई हम तो। अजब-अजब लोग आ गये हैं हिन्दी ब्लोगिंग में। हम तो समय निकाल कर उनके ब्लोग में जाकर टिप्पणी करते हैं पर उनको टिप्पणी पर भी ऐतराज हो जाता है। और लोग तो खुश होते हैं कि हमने याने कि उस्ताद जी ने टिप्पणी की है उनके पोस्ट में जाकर, हम चाहे जो भी टिप्पणी करें सामने वाला पढ़ता तक नहीं है बल्कि हमारी टिप्पणी पाकर खुद को सम्मानित समझता है। पर ऐसे लोगों को क्या कहें जो टिप्पणी का अर्थ निकालना चाहते हैं। भई टिप्पणी तो शान होती है पोस्ट की! उसका भी कुछ अर्थ होता है क्या? हमारे टिप्पणी करने का एहसान मानना तो दूर उल्टे हमारी उस टिप्पणी पर भी पोस्ट निकाल लेते हैं कि ऐसी टिप्पणी क्यों किया तुमने? हमारी टिप्पणी ही उनको चिपक जाती है और उसी पर पोस्ट तान देते हैं। अब कहाँ तक हम सफाई दें उनको? सफाई देते भी हैं तो उस सफाई पर भी एक पोस्ट लिख देंगे। लोग तो अधिक से अधिक टिप्पणी पाने के लिये तरसते हैं और ये ऐसे बेवकूफ हैं कि कहते हैं टिप्पणी में क्या धरा है? पाठक बढ़ाओ। अब आप ही बताइये कि दूसरे ब्लोगर पाठक नहीं होते क्या? पर इनकी उल्टी खोपड़ी तो उन्हें ही पाठक समझती है जो ब्लोगर न होकर केवल पाठक ही हों। ऐसे पाठकों से क्या भला होना है हिन्दी का? ये तो सिर्फ पढ़ना जानते हैं लिखना कहाँ जानते हैं कि पढ़ने के बाद कम से कम एक टिप्पणी ही लिख सकें। भाई ब्लोग तो होता है ब्लोगरों के लिये! तुम हमें टिपियाओ हम तुम्हें टिपयायेंगे। पाठकों का क्या लेना देना है उससे?

"चिट्ठा चर्चाओं की बाढ़ आ रही है सो अलग परेशानी है। आप ही बताइये कोई औचित्य है इतनी सारी चिट्ठा चर्चाओं की? ऐसा लगता है कि लोगों के पास अब चर्चा लिखने के सिवाय कोई काम ही नहीं रह गया है। पहले तो सिर्फ हमारे ही लोगों का चिट्ठा चर्चा हुआ करता था और हमारे ही लोगों का संकलक भी। हम लोगों का ही राज चला करता था। अधिक से अधिक बैकलिंक्स हमें और हमारे लोगों को ही मिला करते थे और हमारे संकलक के टॉप लिस्ट में हम और हमारे साथी ही हुआ करते थे। अब इतने सारे चिट्ठा चर्चा आ जाने से बैकलिंक्स दूसरों को भी मिलने लग गये हैं।"

"पर आप वाले संकलक में तो अभी भी आप और आपके लोगों का ही वर्चस्व है।"

"अरे होगा कैसे नहीं भला? बेवकूफ नहीं हैं हम! हमने फॉर्मूला ही ऐसा बनाया है कि हम लोगों का ही वर्चस्व रहे। हमारे फार्मूले में हमने अपने और अपने लोगों का पूरा पूरा ध्यान रखा है। क्या किसी की मजाल है कि हमारे टॉप लिस्ट में आ जाये? लाख सिर पटक ले, दिन में पचासों पोस्ट लिख ले, लाख बैकलिंक्स पा ले पर हमारे टॉप लिस्ट में वही रहेगा जिसे हम चाहेंगे। हाँ एक दो बाहरी लोगों को भी टॉप लिस्ट में लेना पड़ा है क्योंकि उन्होंने पक्षपात वाला राग अलापना शुरू कर दिया था। वैसे उनको टॉप लिस्ट में शामिल करना एक प्रकार से अच्छा ही हुआ। एक तो उनका मुँह भी बंद हो गया और दूसरे हमारी निष्पक्षता का सन्देश भी प्रसारित हो गया।"

"तो फिर अब क्या परेशानी है आपको?"

"अभी तो कोई परेशानी नहीं है पर बाद में तो हो सकती है ना! ये भी हो सकता है कि और भी कई संकलक आ जायें। अभी हमारे संकलक के अलावा जो दूसरा संकलक है उससे तो खैर कोई परेशानी नहीं है हमें क्योंकि वह बिल्कुल ही निष्पक्ष है और उसमें कोई टॉप लिस्ट भी नहीं है। पर यदि कोई हमारे फॉर्मूले जैसा ही दूसरा संकलक आ गया तो क्या होगा? उस संकलक के टॉप लिस्ट में दूसरे लोग होंगे तो हमारा क्या होगा?"

"तो क्या सोचा है आपने?"

"अरे अभी तक हम टॉप रहे हैं तो आगे भी हम ही टॉप रहेंगे। सर कुचल कर रख देंगे स्सालों का जो हमसे आगे निकलने की कोशिश करेंगे। अंग्रेजी में हिन्दी, हिन्दी में अंग्रेजी के उपसर्ग और प्रत्यय जोड़-जोड़ कर और हिन्दी की टाँगें तोड़ कर ऐसे-ऐसे शब्द बनायेंगे कि लोग खिंचते चले आयेंगे हमारे ब्लोग में! क्या समझ रखा है हमें। आपने देखा नहीं है क्या कि हमारा पोस्ट आते ही पसंद और टिप्पणियों का सिलसिला शुरू हो जाता है!"

"हाँ ये बात तो है! हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ है कि आप सदा टॉप बने रहें। अच्छा तो चलते हैं अब हम। नमस्कार!"

"नमस्कार!"

40000 हजार से 1411 ... कैसे बजा बाघों का 12

बाघ!

वही बाघ जिसका मुँह खोलकर बालक भरत, जी हाँ दुष्यन्त और शकुन्तला का महान पुत्र भरत जिसके कारण हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ, ने उसके दाँत गिने थे!

वही बाघ जो हमारा राष्ट्रीय पशु है!

वही बाघ जिनकी संख्या एक सदी के भीतर 40000 हजार से 1411 हो गई। पता नहीं अब तक 1411 भी है या उससे भी कम हो गई है।

कहीं ऐसा हो कि बाघ विलुप्त ही हो जाये और हमें अपने बच्चों को बाघ दिखाने के लिये हमारे राष्ट्रीय प्रतीक को दिखाना पड़े कि बाघ यह होता है। कम से कम इतना तो है कि कोई कितना ही कोशिश कर ले पर राष्ट्रीय प्रतीक के चार बाघों, जिसके नीचे कठोपनिषद का उद्धरण "सत्यमेव जयते" है, का अवैध शिकार तो कर ही नहीं सकता। क्या बाघों का विनाश ही सत्य की विजय है?

हमारे देश में होने वाले अवैध शिकार ही तो इन बाघों के विनाश के मुख्य कारणों में से एक है। कैसे हो जाते हैं ये अवैध शिकार? क्या हमारे कानून में इतना दम नहीं है कि इन शिकारों को रोक सकें? क्या "बाघ परियोजना" (Project Tiger) अपना लक्ष्य पूर्ण कर सकेगी? वास्तविकता तो यह है कि बाघों के अवैध शिकार में कानून बनाने वालों और उसकी रक्षा करने वालों का भी सहयोग रहता है क्योंकि उससेसे हुई कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्हें भी मिलता है। रक्षक ही यदि भक्षक बनेंगे तो कैसे रुक पायेगा यह अवैध शिकार का देशद्रोही घृणित कर्म?

अब आप पूछेंगे कि इसमें हम क्या कर सकते हैं?

अजी आप तो बहुत कुछ कर सकते हैं। आप ब्लोगर हैं, आप के पास अपनी आवाज को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाने की शक्ति है। आपकी रचनाएँ अवश्य ही इनकी रक्षा कर सकती हैं, बाघों की रक्षा ही क्या ये तो क्रान्ति ला सकती हैं, भ्रष्टाचारियों का तख्ता पलट सकती हैं, देश को खुशहाल बना सकती हैं, युग बदल सकती हैं बशर्तें कि इन रचनाओं की कृति निःस्वार्थ भाव से अपने देश और अपनी भाषा के प्रति पूर्ण निष्ठा और लगन के साथ की जाये, यदि हमारी ये कृतियाँ लोगों को ऐसा प्रभावित करे कि वे एक नई क्रान्ति के लिये तत्पर हो जायें।

पर क्या हम आत्मप्रतिष्ठा को त्याग कर देश और भाषा के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो पायेंगे? क्या हम ऐसी प्रभावशाली कृतियाँ लोगों को दे पायेंगे?

Sunday, February 21, 2010

"पतली कमर मोरे लचके" शीर्षक वाले पोस्ट पर तो भीड़ उमड़ पड़ेगी पर "कृष्ण की वंशी गोपियों को मोहती थी" जैसे शीर्षक वाले पोस्ट को क्या कोई पढ़ना पसंद करेगा?

"पतली कमर मोरे लचके" शीर्षक वाले पोस्ट पर तो भीड़ उमड़ पड़ेगी पर "कृष्ण की वंशी गोपियों को मोहती थी" जैसे शीर्षक वाले पोस्ट को क्या कोई पढ़ना पसंद करेगा? बिल्कुल नही करेगा। जमाना बदल गया है तो नये जमाने के लोगों का टेस्ट भी बदल गया है। लोग तो यही सोचेंगे कि यार क्या ये भी कोई कृष्ण गोपियों वाला जमाना है? क्यों ऐसे पोस्ट लिख कर बोर कर रहे हो हमें?

एक बार एक सज्जन से वैदिक मैथेमेटिक्स के विषय में कुछ कहने की गलती कर बैठा। सुनकर उन्होंने कहा, "क्या उपयोगिता है इस वैदिक गणित की आज के जमाने में? केलकुलेटर उठाओ और बात की बात में कुछ भी हिसाब कर लो!" तो मैंने कहा, "हाँ भाई उपयोगिता तो अब बूढ़े माँ बाप की भी नहीं रह गई है, काहे रखे हुए हो इन्हें अपने साथ? और ये तुमने अपने स्वर्गवासी दादा दादी की तस्वीर क्यों कमरे में लगा रखी है? निकाल कर क्यों नहीं फेंक देते इन तस्वीरों को?"

खैर साहेब, मैं तो यही समझता हूँ कि चीजें पुरानी हो या नयीं, उपयोगिता तो उनकी होती ही है। और नहीं तो कुछ न कुछ ज्ञानवर्द्धन तो होता ही है।

इतना सब कुछ मैंने इसलिये लिख मारा क्योंकि फागुन का यह महीना मुझे, इतनी उमर का हो जाने के बावजूद भी, मदमस्त कर देता है। फागगीतों का दीवाना हूँ मैं। आज के जमाने में फागुन के महीने में झाँझ, मंजीरा, मृदंग, ढोल, डफ, नगाड़े आदि के ताल धमाल बहुत ही कम सुनने को मिलते हैं। हमारे समय में तो बसंत पंचमी से लेकर रंग पंचमी तक एक भी दिन ऐसा नहीं होता था कि फाग की लय न सुनाई पड़े। कृष्ण और गोपियों के प्रेमरस से सने मधुर फाग!

तो प्रस्तुत हैं एक फागगीतः

मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया
अरे मोह लिये सब ग्वालनिया हो मोह लिये सब ग्वालनिया
मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया

काहेन के तोरे मूरलिया हो काहेन के तोरे मूरलिया
काहेन बंद लगाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया
मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया

सोनेन के तोरे मूरलिया हो सोनेन के तोरे मूरलिया
रेशम बंद लगाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया
मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया

कहँवा बाजे मूरलिया हो कहँवा बाजे मूरलिया
कहँवा शब्द सुनाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया
मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया

गोकुल बाजे मूरलिया हो गोकुल बाजे मूरलिया
मथुरा शब्द सुनाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया
मुरली धुन नेक बजाय हो साँवरिया मोह लिये सब ग्वालनिया

चलते-चलते

मिला बन में मुरलिया वाला सखी मिला बन में मुरलिया वाला सखी

कोई कहे देखो मोहन है आये
कोई कहे नन्दलाला सखी
मिला बन में मुरलिया वाला सखी

धर पिचकारी खड़े ग्वाल सब
कोई धरे है गुलाला सखी
मिला बन में मुरलिया वाला सखी

सारी साड़ी मेरो भिगोये
देखो नन्द के लाला सखी
मिला बन में मुरलिया वाला सखी

बैजनाथ कहे श्याम सलोना
लेकिन मन का काला सखी
मिला बन में मुरलिया वाला सखी