Saturday, November 28, 2009

"जब जीरो दिया मेरे भारत ने"... पर कैसे दिया भारत ने जीरो?

बड़े गर्व से हम कहते हैं कि हमारे भारत ने विश्व को शून्य दिया। आइये देखते हैं कि आखिर भारत ने विश्व को शून्य दिया?

यदि शून्य न हो तो क्या आप गणितीय गणना कर सकते हैं?

जी हाँ, कर तो सकते हैं पर उसकी विधि अवश्य ही अत्यंत दुरूह होगी।

किंतु यह भी सत्य है कि कई हजार वर्ष बिना शून्य के ही बीते हैं। लोगों को यह तो ज्ञात होता था कि उनके पास कुछ नहीं है पर इस कुछ भी नहीं के लिये उनके पास कोई गणितीय संकेत नहीं था।

शून्य का आविष्कार किसने और कब किया यह आज तक अंधकार के गर्त में छुपा हुआ है परंतु सम्पूर्ण विश्व में यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि शून्य का आविष्कार भारत में ही हुआ। ऐसी भी कथाएँ प्रचलित हैं कि पहली बार शून्य का आविष्कार बेबीलोन में हुआ और दूसरी बार माया सभ्यता के लोगों ने इसका आविष्कार किया पर दोनों ही बार के आविष्कार संख्या प्रणाली को प्रभावित करने में असमर्थ रहे तथा विश्व के लोगों ने इन्हें भुला दिया।

फिर भारतीयों ने तीसरी बार शून्य का आविष्कार किया। भारत में हुए इस तीसरी बार शून्य के आविष्कार ने संख्या प्रणाली को ऐसा प्रभावित किया कि सम्पूर्ण विश्व में शून्य का प्रयोग होने लगा। भारतीयों ने शून्य के विषय में कैसे जाना यह आज भी अनुत्तरित प्रश्न है। अधिकतम विद्वानों का मत है कि पांचवीं शताब्दी के मध्य में शून्य का आविष्कार किया गया।

इंटरनेट के सबसे बड़े विश्वकोष 'विकीपेडिया' के अनुसारः

"सन् 498 में भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलवेत्ता आर्यभट ने कहा 'स्थानं स्थानं दसा गुणम्' अर्थात् दस गुना करने के लिये (उसके) आगे (शून्य) रखो। और शायद यही संख्या के दशमलव सिद्धांत का उद्गम रहा होगा। आर्यभट द्वारा रचित गणितीय खगोलशास्त्र ग्रंथ 'आर्यभटीय' के संख्या प्रणाली में शून्य तथा उसके लिये विशिष्ट संकेत सम्मिलित था (इसी कारण से उन्हें संख्याओं को शब्दों में प्रदर्शित करने का भी अवसर मिला)।

"शून्य तथा संख्या के दशमलव के सिद्धांत का सर्वप्रथम अस्पष्ट प्रयोग ब्रह्मगुप्त रचित ग्रंथ ब्रह्मस्फुट सिद्धांत में पाया गया है। इस ग्रंथ में नकारात्मक संख्याओ और बीजगणितीय सिद्धांतों का भी प्रयोग हुआ है।

कुछ शोधकार्यों के अनुसार प्रचीन भारतीय 'बक्षाली' लिपि में भी शून्य का प्रयोग किया गया है और उसके लिये उसमें संकेत भी निश्चित है। बक्षाली लिपि का सही काल अब तक निश्चित नहीं हो पाया है परंतु निश्चित रूप से उसका काल आर्यभट के काल से प्राचीन है। इससे सिद्ध होता है कि भारत में शून्य का प्रयोग पाँचवी शताब्दी से पहले भी होता था।"

उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि भारत में शून्य का प्रयोग ब्रह्मगुप्त के काल से भी पूर्व के काल में होता था। किन्तु सातवीं शताब्दी, जो कि ब्रह्मगुप्त का काल था, में भारत का यह शून्य कम्बोडिया तक पहुँच चुका था और दस्तावेजों से यह भी ज्ञात होता है कि बाद में ये कम्बोडिया से यह शून्य चीन तथा अन्य मुस्लिम संसार में फैल गया।"

भारतीयों के द्वारा आविष्कारित शून्य ने समस्त विश्व की संख्या प्रणाली को प्रभावित किया और संपूर्ण विश्व को जानकारी मिली कि शून्य का अर्थ 'कुछ नहीं' होता है।

मध्य-पूर्व में स्थित अरब देशों ने भी शून्य को भारतीय विद्वानों से प्राप्त किया।

अंततः बारहवीं शताब्दी में भारत का यह शून्य पश्चिम में यूरोप तक पहुँचा।

चलते-चलते

1) एक केलकुलेटर लें।
2) उसमें अपने 7 अंकों वाली लैंडलाइन फोन नंबर के प्रथम तीन अंकों को डालें, फोन नंबर यदि 8 अंकों वाली हो तो प्रथम 4 अंक डालें। (जैसे यदि फोन नंबर 2382146 हो तो 238)
3) 80 से गुणा कर दें।
4) 1 जोड़ें।
5) 250 से गुणा कर दें।
6) अपने फोन नंबर के अन्तिम चार अंको वाली संख्या को जोड़ दें। (जैसे यदि फोन नंबर 2382146 हो तो 2146)
7) एक बार फिर अपने फोन नंबर के अन्तिम चार अंको वाली संख्या को जोड़ें।
8) 250 घटायें।
9) 2 से भाग दें दें।

अब स्क्रीन में दिखाई पड़ने वाली संख्या को देखें।

अरे! यह तो आपका ही फोन नंबर है।

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"यदि पाँचवी रोटी को खाने से पेट भर जाता है तो पाँचवी रोटी को पहले खाना चाहिये ताकि चार रोटियों की बचत हो सके।"

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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः

तपस्विनी स्वयंप्रभा - किष्किन्धाकाण्ड (12)

Friday, November 27, 2009

गाने के रेकॉर्डिंग के लिये माइक्रोफोन को गरम करना पड़ता था

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि फिल्मों में गानों के रेकॉर्डिंग के आरम्भिक दिनों में माइक्रोफोन इतने कमजोर हुआ करते थे कि अनेक बार रेकॉर्डिंग शुरू करने के पहले माइक्रोफोन को आँच दिखा कर गरम करना पड़ता था। गाना रेकॉर्ड करने के लिये माइक्रोफोन को बीच में रख कर गायक और साजिंदे उसके चारों ओर घेरा बनाते थे। जब माइक्रो फोन अधिक गरम हो जाता था तो घेरे को भी बड़ा करना पड़ता था ताकि रेकॉर्डिंग एक जैसा हो।

उन दिनों साज के नाम पर हारमोनियम, तबला, बाँसुरी जैसे केवल गिने-चुने वाद्ययंत्र ही उपलब्ध थे। साज कम होने के कारण आवाज का महत्व अधिक था। आवाज का महत्व अधिक होने के कारण ही एक अंतराल तक के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे जैसे गायक फिल्म संगीत के क्षेत्र में छाये रहे। फिल्मों में काम करने के लिये गीत-संगीत का ज्ञान होना अनिवार्य होता था क्योंकि प्ले बैक का सिस्टम नहीं था। कलाकारों को अपना गाना स्वयं गाना पड़ता था।


फिर जमाना बदला, नये-नये तकनीक आने लगे, साजों में भी वृद्धि होने लगी। सन् 1944 में संगीतकार नौशाद ने पहली बार फिल्म 'रतन' में साज और आवाज का भरपूर प्रयोग किया और फिल्म संगीत को एक नई दिशा मिली। नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम ने फिल्म संगीत को मधुर और सर्वप्रिय बना दिया। धुनों में साज और आवाज के समुचित अनुपात उन्हें और भी अधिक मधुर बना देते थे और सार्थक शब्द संरचना सोने में सुहागा का काम करती थीं।

सन् 1950 से 1980 तक का समय फिल्म संगीत का स्वर्ण युग रहा। मेलॉडियस संगीत उस काल के फिल्मों की आत्मा बन गई। एक एक गीत को परदे पर देखने और सुनने के लिये लोग अनेक बार एक ही फिल्म को देखने जाते थे और अधिकतम फिल्में सिल्व्हर जुबली, गोल्डन जुबली तथा प्लेटिम जुबली मनाया करती थीं। सारे के सारे संगीतकार अपनी धुनों को सुमधुर सुरों से सजाने के लिये अथक परिश्रम किया करते थे। शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, राजेन्द्र कृष्ण आदि भी गीतों को सार्थक बनाने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगा दिया करते थे। गायक गायिकाओं के कर्णप्रिय कंठस्वर उन दिनों के संगीत में चार चाँद लगा दिया करती थीं। कई बार तो फिल्में पिट जाती थीं पर उनका संगीत गूंजते रहता था। पारसमणि (गीत - उइ माँ, उइ माँ ये क्या हो गया........, सलामत रहो........), लुटेरा (गीत - किसी को पता ना चले बात का........), बादशाह (गीत - अभी कमसिन हो, नादां हो जानेजाना........) जैसी स्टंट फिल्मों के भी गीत आज तक लोकप्रिय हैं।

सभी संगीतकार अपनी मौलिकता बनाये रखना चाहते थे और सभी की अपनी अपनी स्टाइल थी। बर्मन दा अपनी धुनों में लोक संगीत का बहुत अच्छा समावेश कर लेते थे। आपको शायद पता हो कि सचिन देव बर्मन त्रिपुरा के राजपरिवार से सम्बंधित थे। बर्मन दा को वर्ल्ड म्युजिक कान्टेस्ट (world music contest) का जूरी होने का गौरव भी प्राप्त था। सलिल चौधरी भारतीय और पश्चिमी दोनों ही संगीत में पारंगत थे और दोनों का बहुत अच्छा समावेश किया करते थे। शंकर जयकिशन ज्यादातर एकॉर्डियन और बांसुरी के मेल से अपनी धुनों को सजाया करते थे। कल्याणजी आनंदजी क्लार्नेट का बहुत अच्छा इस्तेमाल करते थे। फिल्म नागिन में हेमंत कुमार के लिये बीन की धुन को कल्याणजी आनंदजी ने ही क्लार्नेट पर बजाया था। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ढोलक और बांसरी के प्रयोग से अपनी धुनों को मधुर बनाते थे। ओ.पी. नैयर ने संगीत की कोई शिक्षा ही नहीं प्राप्त की थी फिर भी इतनी मधुर धुनें बनाते थे कि लोग सुन कर झूम उठते थे।

सन् 1980 के बाद से मेलॉडी के स्थान पर डिस्को, पॉप इत्यादि पश्चिमी धुनों का प्रचलन बढ़ता गया। निरर्थक गीत लिखे जाने लगे और धुनों में वाद्ययंत्रों की बहुलता बढने लगी। गीतों की उम्र कम होने लगीं। ऐसा प्रतीत होता है कि अब तो शोर ही संगीत का पर्याय सा हो गया है।

चलते-चलते

"वो सुबह हमीं से आयेगी" या "वो सुबह कभी तो आयेगी"?

साहिर साहब ने एक गीत लिखा था "वो सुबह हमीं से आयेगी" किन्तु फिल्म "फिर सुबह होगी" में उन्होंने अपने उसी गीत को "वो सुबह कभी तो आयेगी" के रूप में बदल दिया था। प्रस्तुत हैं दोनों गीतः

साहिर लुधियानवी

वो सुबह हमीं से आयेगी

जब धरती करवट बदलेगी, जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे, जब ज़ुल्म के बन्धन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लायेंगे, वो सुबह हमीं से आयेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

मनहूस समाजों ढांचों में, जब जुर्म न पाले जायेंगे
जब हाथ न काटे जायेंगे, जब सर न उछाले जायेंगे
जेलों के बिना जब दुनिया की, सरकार चलाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

संसार के सारे मेहनतकश, खेतो से, मिलों से निकलेंगे
बेघर, बेदर, बेबस इन्सां, तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और खुशहाली के, फूलों से सजाई जायेगी
वो सुबह हमीं से आयेगी

वहीं वे अपने उसी गीत को कैसे निराशावादी रूप दे देते हैः

वो सुबह कभी तो आयेगी

इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से, हम सब मर-मर कर जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में, हम जहर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, इक दिन तो करम फर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

माना कि अभी तेरे मेरे, अर्मानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर, इन्सानों की कीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे, सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

दौलत के लिये जब औरत की, इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा, ग़ैरत को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर, जब ये दुनिया शर्मायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर, ये भूख के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर, दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों भीख न मांगेगा
ह़क मांगने वालों को जिस दिन, सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

फ़ाको की चिताओं पर जिस दिन, इन्सां न जलाये जायेंगे
सीनों के दहकते दोज़ख में, अर्मां न जलाये जायेंगे
ये नरक से भी गन्दी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी

Thursday, November 26, 2009

अपने अमान्य चाइना मोबाइल को बैन होने से ऐसे बचायें

क्या चाइना मोबाइल है आपके पास? कहीं 30 नवम्बर को आपको मोबाइल सेवा मिलनी बंद तो नहीं हो जायेगी?

भारत सरकार ने समस्त अमान्य IMEI नंबर वाले मोबाइल हैंडसेट्स पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय लिया है। प्रतिबन्धित मोबाइल सेट को 30 नवम्‍बर के बाद मोबाइल सेवाएँ मिलनी बंद हो जायेंगी। तो क्यों न आप अपने अमान्य IMEI नंबर वाले मोबाइल को 30 नवम्‍बर के पहले ही मान्य IMEI नंबर में बदलवा लें।

आपकी जानकारी के लिये मैं यह बता दूँ कि IMEI (International Mobile Equipment Identity) नंबर 15 अंकों वाली एक कूट संख्या होती है जो प्रत्येक मोबाइल हैंडसेट के लिये अलग और विशिष्ट (unique) होती है। यही कूट संख्या आपके मोबाइल हेंडसेट की पहचान होती है।

अपना IMEI नंबर कैसे जानें?

आप अपने मोबाइल स्क्रीन में *#06# टाइप करें, इसके टाइप होते ही आपके मोबाइल स्क्रीन पर आपका IMEI नंबर दिखाई देने लगेगा। जैसे कि IMEI : 352982031923785

कैसे जानें कि यह IMEI नंबर मान्य है या नहीं?

अपने मोबाइल से 53232 नंबर में निम्न संदेश भेजें:

IMEI आपके पन्द्रह अंकों वाली संख्या

उदाहरणः

IMEI 352982031923785

आपको इस एसएमएस के लिये रु.3/- चार्ज के रूप में लगेंगे।

यदि आपका IMEI नंबर मान्य होगा तो आपके सन्देश के जवाब में सफलता (SUCCESS) आयेगा अन्यथा अमान्य (INVELID) आयेगा।

यदि IMEI नंबर अमान्य हो तो क्या करें?

अपने पास के किसी अधिकृत GII Service Center में जाकर नया IMEI नंबर प्राप्त कर लें जिसके लिये आपको रु.199/- खर्च करने होंगे।

अपने पास के अधिकृत GII Service Center जानने के लिये यहाँ क्लिक करें।

चलते-चलते


"बिल्कुल मुफ्त" याने कि लोगों को लूटने के लिये सबसे बड़ा हथियार

फ्री, मुफ्त, फोकट जैसे शब्द अचूक हथियार हैं लोगों का आकर्षित करने के लिये। "बिल्कुल मुफ्त" पर लोगों का ध्यान बरबस ही चला जाता है।

अब मुफ्त में मिलने वाली चीज को भला कौन छोड़ना पसंद करेगा? वो कहते हैं ना "माले मुफ्त दिले बेरहम"।

किन्तु इस मुफ्त पाने के चक्कर में हम लोगों को कितना लूटा जाता है यह बहुत कम लोगों को ही पता होगा।

आप एक साबुन खरीदने जाते हैं। दुकानदार आपको बताता हैः

दो साबुन खरीदने पर एक साबुन बिल्कुल मुफ्त!

कितना खुश हो जाते हैं आप कि एक साबुन आपको मुफ्त मिल रहा है और आप एक के बजाय तीन साबुन खरीद लेते हैं।

अब मान लीजिये एक साबुन का दाम पन्द्रह रुपये हैं तो दो साबुन के दाम अर्थात् तीस रुपये में आपको तीन साबुन मिलते हैं। जरा सोचिये, साबुन बनाने वाली कम्पनी बेवकूफ तो है नहीं जो कि बिना किसी लाभ के साबुन बेचेगी। तीस रुपये में तीन साबुन बेचने पर भी उसे लाभ ही हो रहा है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि एक साबुन का मूल्य मात्र दस रुपये हैं। तो इस हिसाब से कम्पनी को साबुन का दाम पन्द्रह रुपये से कम करके दस रुपये कर देना चाहिये। पर कम्पनी दाम कम न कर के आपको एक मुफ्त साबुन का लालच देती है और आप लालच में आकर एक साबुन के बदले तीन साबुन खरीद लेते हैं जबकि दो अतिरिक्त खरीदे गये साबुनों की आपको फिलहाल कतइ आवश्यकता नहीं है। यदि कम्पनी ने दाम कम कर दिया होता तो आप दस रुपये में एक ही साबुन खरीदते और बाकी बीस रुपये का कहीं और सदुपयोग करते। इस तरह से दाम न घटाने का कम्पनी को एक और फायदा होता है वह यह कि यदि आप केवल एक साबुन खरीदेंगे तो आपको पन्द्रह रुपये देने पड़ेंगे। इस प्रकार से सिर्फ एक साबुन खरीदने पर मुनाफाखोर कम्पनी आपके पाँच रुपये जबरन लूट लेगी। बताइये यह व्यापार है या लूट?

भाई मेरे, यदि साबुन बिल्कुल मुफ्त है तो मुफ्त में दो ना, चाहे कोई दो साबुन खरीदे या ना खरीदे। ये दो साबुन खरीदने की शर्त क्यों रखते हो?

"एक साबुन खरीदने पर एक शैम्पू बिल्कुल फ्री!" जैसे स्कीम्स भी मात्र आपको लूटने का ही तरीका है।

विडम्बना तो यह है कि अपनी गाढ़ी कमाई की रकम को लुटाने के लिये हम सभी मजबूर हैं क्योंकि सरकार ऐसे मामलों अनदेखा करती रहती है। इन कम्पनियों से सभी राजनीतिक दलों को मोटी रकम जो मिलती है चन्दे के रूप में।

इंटरनेट में भी ये फ्री शब्द अपना खूब जादू चलाता है, बिल्कुल फ्री ईबुक, बिल्कुल फ्री डाउनलोड जैसे कई फ्री मिलेंगे आपको। एक बार आप इस फ्री के चक्कर में पड़े कि हमेशा के लिये आपको अपने मेलबॉक्स मे विज्ञापन वाले ईमेल्स को झेलते रहना होगा। गनीमत है कि ये बीमार अभी तक अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में ही है, हिन्दी अभी इससे बचा हुआ है। किन्तु एक बार हिन्दी व्यावसायिक हुई नहीं कि ये बीमारी भी तत्काल फैल जायेगी।

सच बात तो यह है कि फ्री या मुफ्त में कोई किसी को कुछ भी नहीं देता। किसी जमाने में पानी मुफ्त मिला करता था पर आज तो उसके भी दाम देने पड़ते हैं।

यदि कोई कुछ भी चीज मुफ्त में देता है तो अवश्य ही उसका स्वार्थ रहता है उसमें।

चलते-चलते

ट्रेन में एक पढ़े लिखे शहरी सज्जन और एक देहाती साथ साथ बैठे थे। शहरी सज्जन का टाइम पास नहीं हो पा रहा था इसलिये उसने देहाती से कहा कि कुछ बातचीत करो यार!

देहाती बोला, "मैं भला आपसे क्या बातचीत कर सकता हूँ? मैं तो गँवार हूँ और आप पढ़े लिखे।"

"तो कुछ पहेली ही हो जाये, पर पहेली शर्त के साथ होगी" शहरी ने कहा।

देहाती फिर बोला, "साहब आप मुझसे ज्यादा बुद्धिमान हैं इसलिये यदि मैं कोई पहेली पूछूँगा और आप नहीं बता पायेंगे तो आपको मुझे सौ रुपये देने होंगे। पर जब आप पहेली पूछेंगे और मैं नहीं बता पाउँगा तो मैं आपको पचास रुपये ही दूँगा।"

शहरी मान गया और बोला, "अच्छा तो तुम्हीं शुरू करो।"

"वह कौन सी चिड़िया है जो उड़ती है तो उसके पंख आसमान में होते हैं और पैर जमीन पर?"

बहुत सोचने पर भी शहरी को जवाब नहीं सूझा इसलिये उसने देहाती को सौ रुपये देते हुए कहा, "मैं हार गया भाई, लो ये सौ रुपये और बताओ कि वो कौन सी चिड़िया होती है?"

सौ रुपये जेब में रख कर वापस पचास का नोट शहरी को देते हुए देहाती बोला, "मैं भी नहीं जानता, ये लीजिये आपके पचास रुपये।"

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दुकानदार के पास एक देहाती पहले ग्राहक के रूप में आ पहुँचा।

"ये साफा कितने का है?" देहाती ने पूछा।

"चालीस रुपये का।" दुकानदार ने कहा।

देहाती को गाँव से निकलते समय गाँव के सयाने ने समझाया था कि शहर वाले गाँव वालों को लूट लेते हैं। बिना मोलभाव किये कोई सामान मत लेना। इसलिये उसने दुकानदार से कहा, "बीस रुपये में दोगे तो दो।"

दुकानदार का नियम था कि पहले ग्राहक को वापस नहीं जाने देना है, भले ही घाटा खाना पड़े। इसलिये वह बोला, "ठीक है, बीस में ही ले लो।"

देहाती को लगा कि शायद उसने बीस रुपये में माँग कर गलती कर दी है। उसने फिर कहा, "नहीं बीस रुपये में मँहगा है, दस में देते हो तो दो।"

"ठीक है भाई, दस में ही ले लो।"

देहाती को सयाने की बात फिर से याद आ गई और उसने सोचा कि दस रुपये में ये साफा देकर दुकानदार मुझे लूट रहा है। इसलिये उसने कहा, "नहीं मैं तो इसे पाँच रुपये में लूँगा।"

अब दुकानदार ने झल्ला कर कहा, "मेरा नियम है कि मैं पहले ग्राहक को खाली नहीं जाने देता इसलिये भाई मेरे, तू अपने पाँच रुपये भी अपने पास रख और इसे मुफ्त में ले जा।"

"तो फिर दो साफा देना।"

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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः

वानरों को सीता की खोज का आदेश - किष्किन्धाकाण्ड (10)

Wednesday, November 25, 2009

प्यार से फिर क्यों डरता है दिल

प्यार शब्द इतना प्यारा है कि इसके आकर्षण से कोई भी अछूता नहीं रह सकता।

वैसे तो मानव जीवन भर आकर्षित रहता है प्यार से, किन्तु इसका आकर्षण किशोर अवस्था और युवावस्था के वयःसन्धि याने कि सोलह से पच्चीस वर्ष तक के उम्र मे अपनी चरमसीमा में रहता है। उम्र का ये सोलह से पच्चीस वर्ष का अन्तराल गधा-पचीसी कहलाता है और इस काल में प्रायः लोग आकर्षण को ही प्रेम समझने की भूल कर जाते हैं। विपरीत लिंग वालों का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होना प्राणीमात्र का ईश्वर प्रदत्त स्वभाव है। आप चाहे पुरुष हों या महिला, किन्तु आप में से कोई भी ऐसा नहीं होगा जिसे जीवन में कभी न कभी किसी विपरीत लिंग वाले ने आकर्षित न किया हो। जरा अपने कालेज के दिनों को याद कर के देखें, आपको स्वयं ही हमारी इस बात की सत्यता का प्रमाण मिल जायेगा। अजी आप ही क्या, हम स्वयं अपने गधा-पचीसी की उम्र में सैकड़ों बेवकूफियाँ कर चुके हैं। किन्तु अपनी उन बेवकूफियों को अपने इस पोस्ट में बता कर हमें अपने अनुजों तथा अनुजाओं के समक्ष लज्जित होना उचित नहीं लगता।

यहाँ पर यह बता देना हम उचित समझते हैं कि आकर्षण प्रेम नहीं है यद्यपि प्रेम में आकर्षण का होना स्वाभाविक है। जिस प्रकार से लोग आकर्षण को ही प्रेम समझ लेते हैं उसी प्रकार से अक्सर काम-वासना को भी प्रेम समझ लिया जाता है जबकि वासना प्रेम नहीं है। प्रेम में हमेशा वासना का होना भी आवश्यक नहीं है। जहाँ माँ-बेटा, भाई-बहन, बाप-बेटी के बीच स्नेह वासनारहित प्रेम होता है वहीं पति-पत्नी के बीच प्रेम में वासना का होना भी आवश्यक होता है।

विवाहित जीवन के लिये प्रेम का बहुत महत्व है और पति-पत्नी के मध्य प्रेम का होना आवश्यक है। वास्तव में विवाहित जीवन का आधार ही प्रेम होता है।

जिससे प्रेम किया जाता है उसके प्रति समर्पण की भावना होना ही प्रेम को सर्वोत्तम बनाता है। वासनारहित ऐसा प्रेम जिसमें सिर्फ पूर्ण समर्पण की भावना ही निहित होती है, प्लूटोरियन लव्ह अर्थात् आत्मिक प्रेम कहलाता है। कुछ लोगों के अनुसार प्लूटोरियन लव्ह या आत्मिक प्रेम मात्र काल्पनिक आदर्श है किन्तु ऐसे लोग भी हैं जो इसे एक वास्तविकता मानते हैं। सुप्रसिद्ध कहानीकार चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की विश्वविख्यात कहानी "उसने कहाथा" प्लूटोरियन लव्ह या आत्मिक प्रेम का एक उत्तम उदाहरण है।

चलते-चलते

जब से शादी हुई थी दम्पत्तिद्वय प्रतिसप्ताह रविवार को फिल्म देखने जाया करते थे। इस प्रकार से दस साल बीत गये।

एक रविवार को जब दोनों पिक्चर देखने के लिये निकले तो पति ने पत्नी से कहा, "तुम्हें फिल्में बहुत पसंद हैं इसीलिये, फिल्मों में अधिक रुचि न होने के बावजूद भी, मैं आज तक हर सप्ताह तुम्हें पिक्चर ले जाते रहा हूँ। मुझे तो बाग-बगीचों में घूमना फिरना ज्यादा अच्छा लगता है। यदि आज हम दोनों पिक्चर जाने के बदले किसी बगीचे में जायें तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा?"

पत्नी बोली, " मैं तो समझती थी कि आपकी फिल्मों में बहुत अधिक रुचि है इसीलिये आपके साथ फिल्म देखने चली जाया करती थी। मुझे भी फिल्मों में अधिक रुचि नहीं है और मैं भी बाग-बगीचों में घूमना बहुत पसंद करती हूँ।।"

तो बन्धुओं, वर्षों साथ रहने के बावजूद हम अनेक बार एक-दूसरे को पूरी तरह से जान नहीं पाते।


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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः

लक्ष्मण-सुग्रीव संवाद - किष्किन्धाकाण्ड (9)

Tuesday, November 24, 2009

चाय तो रोज ही पीते होंगे आप... पर क्या आप जानते हैं कि चाय के पेड़ की उम्र कितनी होती है?

हजारों कप चाय पी चुके होंगे आप आपने जीवन में, किन्तु कभी आपके मन में यह विचार भी न आया होगा कि चाय के विषय में कुछ जान लें। भाई, जिस पेय को हम रोजाना पीते हैं उसके विषय में थोड़ी सी तो जानकारी होनी ही चाहिये हमें।

भारतवर्ष में पुरातनकाल से ही चाय के विषय में जानकारी थी। प्राचीनकाल में हमारे देश में प्रायः इसका प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता था। उन दिनों चाय की खेती नहीं होती थी बल्कि चाय के पेड़-पौधे पर्वतीय क्षेत्रों के वनों में स्वयं ही उग जाया करते थे। माना तो यह भी जाता है कि रामायणकाल में रावण के वैद्य सुषेण ने लक्ष्मण की मूर्च्छा दूर करने के लिये जिस संजीवनी बूटी का प्रयोग किया था वह भी चाय प्रजाति की ही एक वनस्पति थी और उसे लाने के लिये ही हनुमान जी को भेजा गया था। यह भी मान्यता है कि चाय की खोज गौतम बुद्ध ने की थी। कहा जाता है कि एक बार जब वे समाधिस्त अवस्था में थे तो उनके पेय पात्र में चाय की कुछ पत्तियाँ गिर गई थीं जिसे उन्होंने पी लिया था। चाय की खोज के विषय में और भी बहुत सी कहानियाँ प्रचलित हैं।

भारत में बागान बना कर बकायदा चाय की खेती करना ईस्ट इंडिया कम्पनी ने आरम्भ किया। पहला चाय बागान आसाम में सन् 1837 में स्थापित किया गया था। भारत में चाय को लोकप्रिय पेय बनाने का श्रेय भी अंग्रेजों को ही जाता है। बचपन में हमारी दादी हमें बताती थीं कि ब्रुक बांड, लिपटन आदि चाय कंपनी वाले लोग चाय के प्रचार के लिये ड्रमों में चाय लेकर मुहल्ले-मुहल्ले घूमते थे और घर-घर में लोटा-लोटा चाय मुफ्त में दिया करते थे। इस प्रकार से लोग चाय पीने के आदी हो गये।

आपको जान कर आश्चर्य होगा कि चाय के पेड़ की उम्र लगभग सौ वर्ष होती है किन्तु अधिक उम्र के चाय पेड़ों की पत्तियों के स्वाद में कड़ुआपन आ जाने के कारण प्रायः चाय बागानों में पचास साठ वर्ष बाद ही पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नये पेड़ लगा दिये जाते हैं। चाय के पेड़ों की कटिंग करके उसकी ऊँचाई को नहीं बढ़ने दिया जाता ताकि पत्तियों को सुविधापूर्वक तोड़ा जा सके। यदि कटिंग न किया जावे तो चाय के पेड़ भी बहुत ऊँचाई तक बढ़ सकते हैं।

चाय के पेड़ के विषय में उपरोक्त जानकारी मुझे मेरे जलपाईगुड़ी प्रवास के दौरान वहाँ के लोगों से मिली थी इसलिये मेरी इस जानकारी को अधिकृत नहीं कहा जा सकता। ज्ञानी बन्धुओं से आग्रह है कि यदि यह सही है तो इसका अनुमोदन करें और गलत होने पर खंडन कर दें।

चलते-चलते

एक व्यक्ति एक रेस्टॉरेंट में चाय-नाश्ता के लिये रोज जाता था। वेटर को किसी न किसी बहाने से तंग करने में उसे बेहद मजा आता था इसलिये वह उसे रोज ही तंग किया करता था और टिप तो कभी देता ही नहीं था। कई महीने इसी प्रकार से बीत जाने पर एक दिन उसे लगा कि वह वेटर को नाहक सता कर बहुत गलत काम करता है। उसने निश्चय कर लिया कि आइंदे से वेटर को कभी नहीं सतायेगा और उसके साथ अच्छा व्यवहार करेगा।

उस रोज रेस्टॉरेंट में पहुँच कर उसने वेटर से कहा, "भाई, मुझे माफ कर देना। मैंने अब तक तुम्हें बहुत सताया है। अब से तुम्हें कभी भी नहीं सताउँगा और आज तुम्हें मोटी टिप भी दूँगा।"

वेटर बोला, "ठीक है साहब, तो फिर आज से मैं भी आपके लिये कप में चाय डालने से पहले थूका नहीं करूँगा।"

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हनुमान-सुग्रीव संवाद - किष्किन्धाकाण्ड (8)

Monday, November 23, 2009

क्यों उछाल रही है मीडिया सन् 2012 को? सिर्फ TRP बढ़ाने के लिये या फिर वास्तव में सन् 2012 में कुछ रहस्य छुपा है?

मैं टी.व्ही. बहुत कम देखता हूँ किन्तु कल शाम को यूँ ही आजतक चैनल लगाया तो उसमें सन् 2012 की ही कहानी चल रही थी। मीडिया में सन् 2012 की चर्चा होते ही रहती है तो क्या यह चर्चा सिर्फ TRP बढ़ाने के लिये ही है या फिर वास्तव में सन् 2012 में कुछ रहस्य छुपा है?

कल आज तक चैनल में बताया जा रहा था कि जहाँ माया कैलेंडर के अनुसार 21-12-2012 को पृथ्वी के विनाश हो जाने की भविष्यवाणी है वहीं मिस्र के एक पिरामिड के भीतर से प्राप्त लेख के अनुसार 21-12-2012 से पृथ्वी पर एक स्वर्ण युग के आरम्भ होने की भविष्यवाणी की गई है। इस स्वर्ण युग में पृथ्वी में विकास की सीमा अपनी चरम स्थिति में पहुँच जायेगी और लोग सुख-सुविधा से सम्पन्न रहेंगे।

मैंने इस विषय पर जब इंटरनेट को खंगाला तो मुझे एक और रोचक जानकारी मिलीं।

About.com Hinduism के एक लेख में पढ़ने को मिला कि "ब्रह्म-वैवर्त पुराण" में भगवान श्री कृष्ण ने देवि गंगा को बताया है कि कलियुग के आरम्भ से 5,000 वर्ष बाद एक स्वर्णयुग का आरम्भ होगा जो कि 10,000 वर्षों तक चलता रहेगा। इस लेख में बताया गया है कि इस स्वर्ण युग के आरम्भ के दिनांक की गणना करने पर 21-12-2012 का दिन ही आता है।

माया सभ्यता और मिस्र की सभ्यता के साथ ही साथ हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी सन् 2012 का विशिष्ट रूप से उल्लेख होना क्या संयोग मात्र है या इसमें कुछ रहस्य छुपा हुआ है?


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सुग्रीव का अभिषेक - किष्किन्धाकाण्ड (7)

Sunday, November 22, 2009

महन्त जी कैसे हैं? ... कोई नई रख ली है या ... उर्फ कहानी सम्पन्न महन्त और उसके प्यारे कुत्ते की

धन-धान्य से परिपूर्ण एक मठ था। अत्यन्त ही श्री सम्पन्न! मठ का महन्त ही मठ की सम्पत्ति का स्वामी होता है अतः उस मठ के महन्त जी भी धनकुबेर ही थे।

उस मठ में बाहर से आनेवाले साधु महात्माओं और श्रद्धालुजनों के ठहरने के लिये एक धर्मशाला थी। एक बार तिब्बत से एक लामा उस मठ में दर्शन के लिये पधारे और वहाँ के धर्मशाला में एक रात के लिये ठहर गये। बातों ही बातों में लामा ने महन्त जी को बताया कि उनके देश में एक संस्था ऐसी है जो कुत्तों को भी इंसान की तरह बोलना सिखा देती है। महन्त जी ने भी एक कुत्ता पाल रखा था। उस कुत्ते को वे बहुत चाहते थे। एक प्रकार से वह कुत्ता महन्त जी की कमजोरी थी। महन्त जी की इच्छा हुई कि अपने कुत्ते को बोलना सिखा दें। उन्होंने लामा से तिब्बत की उस संस्था के विषय में समस्त जानकारी ले ली।

कुत्ते को बोलना सिखाने का कोर्स तीन माह का था और फीस बड़ी तगड़ी थी, समझ लीजिये कि दस लाख रुपये। दूसरे दिन महन्त जी ने अपने प्रिय शिष्य को बुला कर कुत्ता उसके हवाले किया, फीस और दिगर खर्चा-पानी के लिये रकम दी और कुत्ते को बोलना सिखा कर वापस ले आने की आज्ञा दे दी।

महन्त जी का वह चेला 'चेला' कम और 'चालू' ज्यादा था। कुत्ते को लेकर वह तिब्बत न जाकर सीधे अपने पसंद के महानगर में जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही उसने कुत्ते को मार कर उससे पीछा छुड़ाया और खूब ऐश के साथ समय बिताने लग गया।

तीन महीना बीत जाने पर नियत समय में वह अकेले फिर से वापस महन्त जी के पास मठ में पहुँच गया।

उसके साथ कुत्ते को न देखकर महन्त जी ने पूछा, "क्यों, कुत्ता कहाँ है? उसने बोलना सीखा कि नहीं?"

चेले ने कहा, "गुरूजी! आपका कुत्ता तो बहुत बुद्धिमान निकला और बहुत अच्छी तरह से बोलना सीख गया। वह भी आपसे उतना ही प्यार करता था जितना कि आप उसे। जब मैं उसे ले कर वापस आ रहा था तो उसको आपकी ही चिन्ता थी। रास्ते में उसने मुझसे पूछा था कि महन्त जी कैसे हैं? कोई नई रख ली है या उसी बुधियारिनबाई से काम चलाते हैं?"

फिर चेले ने रोनी सूरत बनाकर आगे कहा, "मैंने सोचा कि कुत्ता तो कुत्ता है, अगर मठ में सभी से यही पूछता फिरेगा तो गुरूजी की कितनी बदनामी होगी। इसीलिये मुझे उसे मार डालना पड़ा।"


चलते-चलते

संस्कृत के प्राध्यापक ने कक्षा मे विद्यार्थियों से निम्न श्लोक का अर्थ पूछाः

त्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानसि कुतो मनुष्यः॥

एक विद्यार्थी ने यह अर्थ बताया, "(त्रिया चरित्रं अर्थात्) त्रिया के चरित्र और (पुरुषस्य भाग्यं अर्थात्) पुरुष के भाग्य को (देवो न जानसि अर्थात्) देवता भी नही जान सकते (कुतो मनुष्यः अर्थात्) फिर मनुष्य तो कुत्ता है।"

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दो मक्खियाँ फिल्म देख कर निकलीं और एक ने दूसरी से 'आटो कर लें या तांगा' के तर्ज में पूछा, "अब घर जाने के लिये आदमी कर लें या कुत्ता?"


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तारा का विलाप - किष्किन्धाकाण्ड (6)