ब्लोगर का काम है पोस्ट लिखना! वह तो हर हाल में पोस्ट लिखेगा ही। नहीं लिखेगा तो ब्लोगर कैसे कहलाएगा? और फिर लिखना कौन सी बड़ी बात है? लिखने में आखिर मेहनत ही कौन सी लगती है? हमने भी लिखा और बहुत लिखा। पर पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने हमारे लिखे को हमेशा "खेद सहित वापस" कर दिया, हमारा कोई लेख कभी प्रकाशित ही नहीं हुआ। आखिर इन संपादकों को अच्छे लेखन की समझ ही कहाँ है? वो तो भला हो ब्लोगिंग का! लिखो और झट से प्रकाशित कर दो! हींग लगे न फिटकरी रंग आए चोखा!
अब जब हमने अपना ब्लोग बना लिया और हमारे लिखे लेख प्रकाशित होने लग गए तो हमें एक नई चिंता ने घेरना शुरू कर दिया, वह चिन्ता थी अपने लिखे को लोगों को पढ़वाने की। क्या मतलब हुआ लिखने का यदि किसी ने पढ़ा ही नहीं? असली मेहनत तो अपने लिखे को दूसरों को पढ़वाने में लगती है। बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। पाठक जुटाना कोई हँसी खेल नहीं है। ढूँढ-ढूँढ कर सैकड़ों ई-मेल पते इकट्ठे करने होते हैं। लिखने के बाद सभी को ई-मेल से सूचित करना पड़ता है कि मेरा ब्लोग अपडेट हो गया है।
अब आप पूछेंगे कि जब एग्रीगेटर्स आपके लेख को लोगों तक पहुँचा ही देते हैं तो फिर मेल करने की जरूरत क्या है? तो जवाब है - भाई कोई जरूरी तो नहीं है कि सभी लोग एग्रीगेटर्स को देख रहें हों और मानलो देख भी रहें हों तो आपके लेख को मिस भी तो कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि लोगों को मेल करो, इंस्टेंट मैसेजिंग करो।
अब अगर आप कहेंगे कि यदि लेख अच्छा होगा तो लोग पढ़ेंगे ही, जहाँ गुड़ होगा वहाँ मक्खियाँ अपने आप आ जाएँगी, चाशनी टपकाओगे तो चीटियाँ तो आयेंगी ही। इसके जवाब में मैं बताना चाहूँगा कि आप पाठकों की नब्ज नहीं पहचानते। आप नहीं जानते कि ये पाठक बड़े विचित्र जीव होते हैं, कुछ भी ऊल-जलूल चीजों को तो पढ़ लेते हैं पर अच्छे लेखों की तरफ झाँक कर देखते भी नहीं। पर पाठकों को अच्छे लेख पढ़वाना हमारा नैतिक कर्तव्य है इसलिए मेल करके उनका ध्यान खींचो, उन्हें सद्बुद्धि दो और सही रास्ते पर लाओ।
खैर, मुझे तो अपनी उम्र का भी लाभ मिलता है और कुछ पाठक वैसे ही मिल जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं - वयोवृद्ध ब्लोगर ने लिखा है अवश्य पढ़ना चाहिये (अब मैं तो स्वयं को वयोवृद्ध ही कहूँगा ना भले ही यह अलग बात है कि लोग कहते होंगे कि आज साले बुड़्ढे ने भी लिखा है चलो एक नजर डाल ही लें)। फिर भी मैंने हजारों ई-मेल पते संग्रह कर रखे हैं और उनके द्वारा सभी को अपने लेख के बारे में सूचित करता हूँ। यदि आपको भी कभी मेरा मेल मिल जाए तो आपसे गुजारिश हैं कि न तो उसे मिटाइयेगा और न ही उसका बुरा मानियेगा।
अब जब हमने अपना ब्लोग बना लिया और हमारे लिखे लेख प्रकाशित होने लग गए तो हमें एक नई चिंता ने घेरना शुरू कर दिया, वह चिन्ता थी अपने लिखे को लोगों को पढ़वाने की। क्या मतलब हुआ लिखने का यदि किसी ने पढ़ा ही नहीं? असली मेहनत तो अपने लिखे को दूसरों को पढ़वाने में लगती है। बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। पाठक जुटाना कोई हँसी खेल नहीं है। ढूँढ-ढूँढ कर सैकड़ों ई-मेल पते इकट्ठे करने होते हैं। लिखने के बाद सभी को ई-मेल से सूचित करना पड़ता है कि मेरा ब्लोग अपडेट हो गया है।
अब आप पूछेंगे कि जब एग्रीगेटर्स आपके लेख को लोगों तक पहुँचा ही देते हैं तो फिर मेल करने की जरूरत क्या है? तो जवाब है - भाई कोई जरूरी तो नहीं है कि सभी लोग एग्रीगेटर्स को देख रहें हों और मानलो देख भी रहें हों तो आपके लेख को मिस भी तो कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि लोगों को मेल करो, इंस्टेंट मैसेजिंग करो।
अब अगर आप कहेंगे कि यदि लेख अच्छा होगा तो लोग पढ़ेंगे ही, जहाँ गुड़ होगा वहाँ मक्खियाँ अपने आप आ जाएँगी, चाशनी टपकाओगे तो चीटियाँ तो आयेंगी ही। इसके जवाब में मैं बताना चाहूँगा कि आप पाठकों की नब्ज नहीं पहचानते। आप नहीं जानते कि ये पाठक बड़े विचित्र जीव होते हैं, कुछ भी ऊल-जलूल चीजों को तो पढ़ लेते हैं पर अच्छे लेखों की तरफ झाँक कर देखते भी नहीं। पर पाठकों को अच्छे लेख पढ़वाना हमारा नैतिक कर्तव्य है इसलिए मेल करके उनका ध्यान खींचो, उन्हें सद्बुद्धि दो और सही रास्ते पर लाओ।
खैर, मुझे तो अपनी उम्र का भी लाभ मिलता है और कुछ पाठक वैसे ही मिल जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं - वयोवृद्ध ब्लोगर ने लिखा है अवश्य पढ़ना चाहिये (अब मैं तो स्वयं को वयोवृद्ध ही कहूँगा ना भले ही यह अलग बात है कि लोग कहते होंगे कि आज साले बुड़्ढे ने भी लिखा है चलो एक नजर डाल ही लें)। फिर भी मैंने हजारों ई-मेल पते संग्रह कर रखे हैं और उनके द्वारा सभी को अपने लेख के बारे में सूचित करता हूँ। यदि आपको भी कभी मेरा मेल मिल जाए तो आपसे गुजारिश हैं कि न तो उसे मिटाइयेगा और न ही उसका बुरा मानियेगा।