Saturday, April 23, 2011

अपने लिखे को लोगों को है पढ़वाना! वरना कैसे पचेगा खाना?

ब्लोगर का काम है पोस्ट लिखना! वह तो हर हाल में पोस्ट लिखेगा ही। नहीं लिखेगा तो ब्लोगर कैसे कहलाएगा? और फिर लिखना कौन सी बड़ी बात है? लिखने में आखिर मेहनत ही कौन सी लगती है? हमने भी लिखा और बहुत लिखा। पर पत्र-पत्रिकाओं के संपादकों ने हमारे लिखे को हमेशा "खेद सहित वापस" कर दिया, हमारा कोई लेख कभी प्रकाशित ही नहीं हुआ। आखिर इन संपादकों को अच्छे लेखन की समझ ही कहाँ है? वो तो भला हो ब्लोगिंग का! लिखो और झट से प्रकाशित कर दो! हींग लगे न फिटकरी रंग आए चोखा!

अब जब हमने अपना ब्लोग बना लिया और हमारे लिखे लेख प्रकाशित होने लग गए तो हमें एक नई चिंता ने घेरना शुरू कर दिया, वह चिन्ता थी अपने लिखे को लोगों को पढ़वाने की। क्या मतलब हुआ लिखने का यदि किसी ने पढ़ा ही नहीं? असली मेहनत तो अपने लिखे को दूसरों को पढ़वाने में लगती है। बड़ी माथा-पच्ची करनी पड़ती है। पाठक जुटाना कोई हँसी खेल नहीं है। ढूँढ-ढूँढ कर सैकड़ों ई-मेल पते इकट्ठे करने होते हैं। लिखने के बाद सभी को ई-मेल से सूचित करना पड़ता है कि मेरा ब्लोग अपडेट हो गया है।

अब आप पूछेंगे कि जब एग्रीगेटर्स आपके लेख को लोगों तक पहुँचा ही देते हैं तो फिर मेल करने की जरूरत क्या है? तो जवाब है - भाई कोई जरूरी तो नहीं है कि सभी लोग एग्रीगेटर्स को देख रहें हों और मानलो देख भी रहें हों तो आपके लेख को मिस भी तो कर सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि लोगों को मेल करो, इंस्टेंट मैसेजिंग करो।

अब अगर आप कहेंगे कि यदि लेख अच्छा होगा तो लोग पढ़ेंगे ही, जहाँ गुड़ होगा वहाँ मक्खियाँ अपने आप आ जाएँगी, चाशनी टपकाओगे तो चीटियाँ तो आयेंगी ही। इसके जवाब में मैं बताना चाहूँगा कि आप पाठकों की नब्ज नहीं पहचानते। आप नहीं जानते कि ये पाठक बड़े विचित्र जीव होते हैं, कुछ भी ऊल-जलूल चीजों को तो पढ़ लेते हैं पर अच्छे लेखों की तरफ झाँक कर देखते भी नहीं। पर पाठकों को अच्छे लेख पढ़वाना हमारा नैतिक कर्तव्य है इसलिए मेल करके उनका ध्यान खींचो, उन्हें सद्‍बुद्धि दो और सही रास्ते पर लाओ।

खैर, मुझे तो अपनी उम्र का भी लाभ मिलता है और कुछ पाठक वैसे ही मिल जाते हैं क्योंकि लोग सोचते हैं - वयोवृद्ध ब्लोगर ने लिखा है अवश्य पढ़ना चाहिये (अब मैं तो स्वयं को वयोवृद्ध ही कहूँगा ना भले ही यह अलग बात है कि लोग कहते होंगे कि आज साले बुड़्ढे ने भी लिखा है चलो एक नजर डाल ही लें)। फिर भी मैंने हजारों ई-मेल पते संग्रह कर रखे हैं और उनके द्वारा सभी को अपने लेख के बारे में सूचित करता हूँ। यदि आपको भी कभी मेरा मेल मिल जाए तो आपसे गुजारिश हैं कि न तो उसे मिटाइयेगा और न ही उसका बुरा मानियेगा।

Friday, April 22, 2011

हे पृथ्वी! हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो!

पृथ्वी दिवस पर विशेष

दिवस मनाने की आजकल परम्परा चल पड़ी है। शायद इस परम्परा का कारण यह है कि जिन्हें हम हृदय में बसाये रखा करते थे उन्हें अब हमने भुला दिया है तथा यह सोचकर कि वर्ष में कम से कम एक दिन उन्हें याद कर लें उनके नाम पर दिवस मनाना शुरू कर दिया है जैसे कि मातृ दिवस, पितृ दिवस आदि। किसी को कभी याद न करने से यही अच्छा है कि उसे कम से कम साल में एक दिन तो याद कर लिया जाए, लोकोक्ति भी है - "नहीं मामा से काना मामा अच्छा"!

दिवस मनाने के इसी परम्परा के अन्तर्गत आज पृथ्वी दिवस मनाया जा रहा है। भले ही हम वर्षपर्यन्त खनिज प्राप्त करने के लिए भूमि और पर्वतों को खोदने का कार्य करते रहें, वनों को काटते रहें, सरिताओं के स्वच्छ जल में कल-कारखानों यहाँ तक कि मद्यनिष्कर्षशाला याने कि दारू भट्टी तक से भी निकली हुई गंदगी को मिलाते रहें और अपने इन कार्यों से पृथ्वी के सौन्दर्य को नष्ट करते रहें किन्तु वर्ष में एक दिन उसी पृथ्वी के सौन्दर्य को बढ़ाने और पर्यावरण की रक्षा करने की बात करना भी तो हमारा नैतिक कर्तव्य है! तो क्यों न पृथ्वी दिवस मनाया लिया जाए! भले ही हम प्रकृति, जिसका पृथ्वी भी एक महत्वपूर्ण अंग है, से सदैव प्राप्ति की आशा करते रहें, वर्ष में कम से कम एक दिन उसके सन्तुलन के विषय में कुछ सोचना भी तो हमारा कर्तव्य है।

पृथ्वी अर्थात् -

पृथवी, पृथिवी, भूमि, भूमी, अचला, अनन्ता, रसा, विश्वम्भरा, स्थिरा, धरा, धरित्री, धरणी, धरणि,  वसुमती, वसुधा, वुसंधरा, अवनि, अवनी, मही, विपुला, रत्नगर्भा, जगती, सागराम्बरा, उर्वी, गोत्रा, क्ष्मा क्षमा, मेदिनी, गह्वरी, धात्री, गौरिला, कुम्भिनी, भूतधात्री, क्षोणी, क्षोणि, काश्यपी, क्षिति, सर्वेसृहा!

क्या कभी आपने विचार भी किया है कि उषाकाल में आकाश की लालिमा, रक्तवर्ण सूर्य का उदय, लता-विटपों की हरीतिमा, सरिता का कलकल नाद के साथ प्रवाहित होना, गगनचुम्बी पर्वतमालाओं का सौन्दर्य जैसी प्राकृतिक दृश्य एवं प्राकृतिक क्रिया-कलाप ने ही तो मनुष्य के भीतर जीवनपर्यन्त भावनाएँ तथा संवेदनाएँ उत्पन्न करके उसे महान कलाकार, महान कवि, महान विचारक बनाया है।

भूमि, सर, सरोवर, नद्, पर्वत आदि से प्राप्त भावनाओं और संवेदनाओं ने ही तो वनवास के समय राम के मुँह से अनायास ही कहलवाया था -

"हे जननी! तुम सदैव मेरे लिये प्रेरणामयी रही हो। तुम्हारी धूलि मुझे चन्दन की भाँति शान्ति देती है, तुम्हारा जल मेरे लिये अमृतमयी और जीवनदायी है।"


यह पृथ्वी और प्रकृति ही तो है जो -

"सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥"

मैथिलीशरण गुप्त (पंचवटी)

चलिए, एक दिन के लिए ही सही किन्तु पूरे लगन और समर्पण भाव से यदि हम एक अरब पन्द्रह करोड़ भारतवासी पृथ्वी तथा प्रकृति के विषय में सिर्फ कुछ सोचने के बजाय कुछ सार्थक कार्य करने की ठान लें तो आज भी हमारे देश का पर्यावरण देश को प्रचुर मात्रा में शुद्ध जल, शुद्ध वायु, हरे-भरे वन आदि प्राकृतिक सम्पदा प्रदान करने में पूर्णतः समर्थ हो सकता है और हमारा में पुनः दूध-दही की नदियाँ बह सकती हैं, हमारा देश फिर से विश्व भर में "सोने की चिड़िया" के नाम से विख्यात हो सकता है!

Thursday, April 21, 2011

गायें आखिर पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा में खड़े होने का ही प्रयास क्यों करती हैं?

गूगल अर्थ सेटेलाइट इमेजेस की सहायता से किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि मवेशियों के झुंड प्रायः पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा में खड़े होने का प्रयास करते हैं। विश्व के 308 स्थानों में 8,510 मवेशियों पर किए गए अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार यही पता चला है कि प्रायः मवेशी पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण का ही सामना करते हैं। हाँ यह बात अवश्य है कि हवा के तेज झौंके और सूर्य की प्रखर किरणें मवेशियों के इस स्वभाव पर प्रभाव डालते हैं।


चेज रिपब्लिक में किए गए एक अन्य शोध के अनुसार 2,974 पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि, सिर्फ मवेशी ही नहीं, हिरण भी पृथ्वी के चुम्बकीय उत्तर-दक्षिण दिशा का सामना करना पसंद करते हैं।

(स्रोत - Cows Have Strange Sixth Sense)

उल्लेखनीय है भारत में प्राचीन काल से ही दक्षिण दिशा की ओर सिर तथा उत्तर दिशा की ओर पैर कर के सोने की परम्परा रही है क्योंकि हमारे यहाँ यह माना जाता है कि इस प्रकार से सोने या लेटने से मनुष्य की जीवनी शक्ति में वृद्धि होती है और यही कारण है कि हिन्दुओं में मृत्यु-शय्या पर पड़े व्यक्ति को जमीन पर उतार कर उत्तर दिशा की ओर सिर तथा दक्षिण दिशा की ओर पैर करके लिटाने का रिवाज है जिससे कि मरने वाले व्यक्ति की जीवनी शक्ति का ह्रास हो और उसके प्राण आसानी के साथ निकल सके।

Wednesday, April 20, 2011

क्या जानवर किसी की मौत के विषय में भविष्यवाणी कर सकते हैं?

न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के जुलाई 2007 अंक में एक नर बिल्ली के विषय में बहुत ही रोचक स्टोरी प्रकाशित हुई थी जिसके अनुसार नर्सिंग होम के एक कर्मचारी द्वारा पाला गया ऑस्कर नामक बिल्ला उस नर्सिंग होम में मरने वाले रोगियों की मृत्यु की भविष्यवाणी उनकी मौत से कई घंटे पहले कर दिया करता था। उस बिल्ले ने नर्सिंग होम में मरने वाले 25 रोगियों की मृत्यु की सफल भविष्य किया था, मरने वाले रोगियों की मृत्यु के कई घंटे पहले ही वह उन रोगियों के पास जाकर उनके बिस्तर पर उनके साथ बैठ जाया करता था। नर्सिंग होम के कर्मचारियों को जब इस बात की जानकारी हुई तो उन्होंने रोगियों के परिजनों को इस बात की चेतावनी देना भी शुरू कर दिया था। रोगियों के अधिकतर सम्बन्धी या तो इस चेतावनी को अंधविश्वास समझकर उसे गम्भीरता से नहीं लेते थे या फिर भय की आशंका से बिल्ले को रोगी के बिस्तर से भगा देते थे। मरने वाले रोगी के बिस्तर से भगा दिए जाने पर वह बिल्ला परेशान-सा हो जाता था तथा घबराहट के साथ म्याऊँ शब्द करते रोगी के कमरे के दरवाजे पर चक्कर लगाते रहता था।

ऑस्कर दिन भर पूरे नर्सिंग होम में चक्कर लगाते रहता था तथा मृत्यु के निकट पहुँच जाने वाले रोगियों के कमरे में जानबूझ कर घुसकर उनके बिस्तरों पर उनके साथ बैठ जाया करता था। प्रायः रोगी के मृत्युपर्यन्त वह उसके साथ ही बिस्तर पर बैठा रहा करता था और रोगी की मृत्यु हो जाने के बार उसके बिस्तर को छोड़ कर चला जाया करता था।

ऑस्कर को रोगी की मृत्यु की पूर्वसूचना कैसे मिल जाती थी? क्या उसके पास किसी प्रकार की अतीन्द्रिय क्षमता थी? क्या मरने वालों के शरीर से किसी विशेष प्रकार की गंध आने लगती है जिसे हम सूँघ नहीं सकते किन्तु ऑस्कर सूँघ लिया करता था?

Tuesday, April 19, 2011

ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है, यही है रंग रूप!


  • जीवन एक चुनौती है, स्वीकार करो!
  • जीवन एक संघर्ष है, संघर्ष करो!
  • जीवन एक कर्तव्य है, पूरा करो!
  • जीवन एक प्रतिज्ञा है, पूरी करो!
  • जीवन एक एक आत्मा (spirit) है, अनुभव करो!
  • जीवन एक उपहार है, स्वीकार करो!
  • जीवन एक खेल है, खेल भावना के साथ खेलो!
  • जीवन एक अवसर है, मत चूको!
  • जीवन एक यात्रा है, पूरी करो!
  • जीवन एक अभियान है, साहस करो!
  • जीवन एक पीड़ा है, सह कर दिखाओ!
  • जीवन एक रहस्य है, रहस्योद्घाटन करो!
  • जीवन एक गीत है, गा कर दिखाओ!
  • जीवन प्रेम है, प्यार करो!
  • जीवन एक सौन्दर्य है, पूजा करो!
  • जीवन एक पहेली है, बूझ कर दिखाओ!
  • जीवन एक लक्ष्य है, पा कर दिखाओ!

Monday, April 18, 2011

जीना अगर नहीं है तो मर जाना चाहिए

जिन्दगी!

कहा जाता है कि जिन्दगी ऊपर वाले की दी हुई सबसे बड़ी नेमत है! ईश्वर का दिया हुआ सबसे बड़ा दान है!

पर अनेक बार मन में सवाल कौंधता है कि आखिर क्या है यह जिन्दगी? क्या उद्देश्य है इस जीवन का? कैसे समझा जाए इसे? राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त भी ने भी तो कहा है -

यह जन्म हुआ किस अर्थ कहो?
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो!

कभी कभी लगता है कि जिन्दगी को समझना बहुत मुश्किल है। बड़े-बड़े मनीषियों, दर्शनशास्त्रियों, विद्वानों, लेखकों, कवियों, दिग्गजों नें इस जिन्दगी की व्याख्या की है और हर एक की व्याख्या अलग-अलग है। जितनी नजरिया, जिन्दगी के उतने ही रूप! ये जिन्दगी जिन्दगी ही है या ईश्वर, परमात्मा, प्रभु, हरि का रूप? -

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहिं सुनहिं बहु बिधि सब सन्ता॥

राजा हरिश्चन्द्र के लिए सत्य ही जिन्दगी है तभी तो उन्होंने अपना सर्वस्व सत्य के लिए त्याग दिया। ययाति के लिए यौन-सुख ही जिन्दगी है तभी तो उन्होंने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु की युवावस्था को माँगकर अपने लिए प्रयोग किया। राम के लिए पितृभक्ति ही जिन्दगी है तभी तो उन्होंने राज-पाट त्यागकर चौदह वर्ष वन में व्यतीत किए। रावण के लिए अभिमान ही जिन्दगी है तभी तो प्रकाण्ड पण्डित और वेदवेत्ता होते हुए भी उन्होंने सीता का अपहरण किया। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि कर्म ही जिन्दगी है। एकलव्य के लिए गुरुभक्ति जिन्दगी है। कर्ण के लिए दान ही जिन्दगी है, दान के समक्ष उनके लिए उनके अमोघ कवच और कुण्डल का भी कुछ भी महत्व नहीं है। मोक्षाभिलाषी योगियों के लिए मोक्ष ही जिन्दगी है।

हूणों, तुर्कों, मुगलों, अंग्रेजों के लिए लूटमार ही जिन्दगी थी जिन्होंने भारतभूमि को पददलित किया। मंगलसिंह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रान्तिकारियों के लिए देश की स्वतन्त्रता के क्रान्ति करना ही जिन्दगी थी।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो सत्ता, धन और सुख प्राप्ति ही जिन्दगी है इसीलिए तो नेता भ्रष्टतम कार्य करने से नहीं चूकते, अधिकारियों ने घूँस लेना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ रखा है, व्यापारी खुलेआम कालाबाजारी करते हैं, शिक्षा-चिकित्सा जैसे सेवा कार्य व्यापार बन कर रह गए हैं।

अब कैसे कहा जाय कि जिन्दगी क्या है?

अजीब बात तो यह है कि हम जिन्दगी भले ही जाने-समझें नहीं किन्तु जिन्दगी है कि हमें अच्छी प्रकार से नचाती है, कभी सुख का बोध कराती है तो कभी दुःख का, कभी आशा के दीप जला देती है तो कभी निराशा के अन्धकार में धकेल देती है। हमें कठपुतली बनाकर डोर अपनी उँगलियों में बाँध लेती है और खूब नचाती है हमें, हम उसकी उँगलियों के इशारे पर नाचते हैं किन्तु समझते यही हैं कि जो कुछ भी हम कर रहे हैं वह स्वयं ही कर रहे हैं, हमें जरा भी भास नहीं होता कि हम किसी दूसरे के इशारे पर नाच रहे हैं।

विचित्र है यह जिन्दगी, हमेशा भरमाती रहती है हमें। हम बरसों के लिए सामान जुटा कर रख लेते हैं और यह पल भर में हमें चलता कर देती है, तभी तो किसी शायर ने कहा है -

ख़बर पल की नहीं,सामां उम्र भर का।

शायरों और गीतकारों ने भी जिन्दगी को अपने-अपने तौर पर शेरों और गीतों में ढाला है। जफ़र जिन्दगी को मात्र चार दिन का मान कर कहते हैं -

उम्रे दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरजू में कट गए दो इन्तजार में।

गुलजार जी को लगता है कि जिन्दगी सभी जगह है पर उनके घर में नहीं है, तभी तो कहते हैं -

जिन्दगी, मेरे घर आना जिन्दगी...

योगेश को जिन्दगी कभी हँसाने वाली तो कभी रुलाने वाली पहेली लगती है और वे कहते हैं -

जिन्दगी, कैसी है पहेली हाए
कभी तो हँसाए, कभी ये रुलाए...

जिन्दगी को अलग-अलग फिल्मी गीतकार अलग अलग रूप में देखते हैं, कोई कहता है -

जिन्दगी क्या है, गम का दरिया है
ना जीना यहाँ बस में, न मरना यहाँ बस में, अजब दुनया है

तो कोई कहता है -

जिन्दगी का सफर, है ये कैसा सफर
कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं

किसी को लगता है हार कर मुस्कुराना ही जिन्दगी है -

कोई जीत कर खुश हुआ तो क्या हुआ,
सब कुछ हार कर मुस्कुराना जिन्दगी हैं!

कोई जिन्दगी से बहुत खुश है तो कोई जिन्दगी से बहुत निराश।

कोमा में रहने वाले व्यक्ति की जिन्दगी जिन्दगी न होते हुए भी जिन्दगी ही है। असाध्य रोग के कारण असहनीय पीड़ा सहन करने वाला व्यक्ति मृत्यु की कामना करता है पर जिन्दगी को जीने के लिए विवश है। अनेक बार जिन्दगी मौत से भी बदतर होती है पर किसी को भी स्वयं अथवा किसी अन्य को मार डालने का अधिकार नहीं  है, भले ही दया करके मार डालने (murcy killing) का ही मामला क्यों न हो। यदि किसी हम जीवन नहीं दे सकते तो उसे मौत देने का अधिकार हमें हमें कैसे मिल सकता है। अच्छी हो या बुरी, जिन्दगी को जीना एक विवशता है।

पर क्यो विवश रहे कोई? जीने की इच्छा न होते हुए भी क्यों जिए कोई?

बैठे रहोगे दश्त में कब तक हसन रजा
जीना अगर नहीं है तो मर जाना चाहिए!