आज भारत की जनता देश में व्याप्त भ्रष्टाचार से उतनी ही त्रस्त है जितनी अंग्रेजों के जमाने में उनकी गुलामी तथा लूट से थी। उन दिनों देश का प्रत्येक व्यकि चाहता था कि गुलामी और लूट से हमें मुक्ति मिले और आज देश का प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है। देश के हर व्यक्ति को लग रहा है कि भ्रष्टाचार को संरक्षण देकर, भारत की जनता की मेहनत से की गई गाढ़ी कमाई को लूटकर अपने विदेशी बैंकों के खातों को सदैव अक्षुण्ण धन से भरपूर रखने वाले, भस्मासुरों का दल हमें भी भस्म करके रख देगा। यही कारण है कि देश के कोटि-कोटि लोग, जो भ्रष्टाचार के शिकंजे में फँसा हुए हैं, भ्रष्टाचार से मुक्ति की कामना कर रहे हैं।
किन्तु हर व्यक्ति के एक जैसा चाहने से तो मुक्ति नहीं मिल सकती, मुक्ति मिलती है एक सी कामना करने वालों के एक जुट होकर संघर्ष करने से! इतिहास गवाह है कि जब अंग्रेजों की गुलामी तथा लूट से मुक्ति की कामना करने वाले सभी लोग एकजुट हो गए तो अंग्रेजों को भारत छोड़ कर जाना ही पड़ा था। लोगों की उस एकजुटता ने अंग्रेंजो जैसे मक्कार किन्तु सशक्त शासकों के पैरों तले की जमीन को खिसका कर रख दिया था। आज इतिहास फिर से एक बार स्वयं को दुहरा रहा है। भ्रष्टाचार से मुक्ति की कामना करने वाले सारे लोग एकजुट हो गए हैं। और, उनकी इस एकजुटता से, भ्रष्टाचार खत्म करने का झूठा वादा करने वाली किन्तु वास्तव में भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाली सरकार सकते में आ गई है। सत्ता के नशे में चूर, हिरण्यकश्यपु, रावण तथा कंस के समान अहंकारी, राजनेताओं के दर्प से दमकते हुए चेहरे बुझे हुए नजर आ रहे हैं, उनकी जुबान से बोली तक नहीं निकल पा रही है।
भ्रष्टाचारी राजनेताओं को यह भय सताने लग गया है कि यदि जनता इसी प्रकार से एकजुट रही तो उन्हें भविष्य में फिर कभी सत्ता-सुख भोगने का अवसर ही नहीं मिल पाएगा। जनता की यह एकजुटता उन्हें बहुत ही खतरनाक नजर आ रही है। जनता पर अपनी मनमानी चलाने के लिए जनता में फूट का होना अति आवश्यक है। यही कारण था कि अंग्रेजों ने भारत की जनता को हिन्दू, मुसलमान तथा विभिन्न जातियों एवं उपजातियों के रूप में तोड़कर न केवल अलग-अलग कर रखा था बल्कि उन्हें आपस में लड़वाते भी रहते थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात के तथाकथित राजनेताओं ने भी वही किया जो अंग्रेज किया करते थे। उन्होंने भारत की जनता को दलित, सामान्य, जाति, जन-जाति, पिछड़ा वर्ग जैसे विभिन्न वर्गों में बाँट कर तथा व्होट की राजनीति चलाकर सिर्फ, और सिर्फ, अपने स्वार्थों की सिद्धि ही किया है। स्वतन्त्रता-पूर्व अंग्रेज हमें लूटते रहे और स्वतन्त्रता-पश्चात देश के तथाकथित राष्ट्रनिर्माता हमें लूटते रहे। अपनी लूट की इस प्रक्रिया को सतत् रूप से चलाने के लिए सदैव उन्होंने केवल इसी बात पर ध्यान दिया कि कहीं देश की जनता जागरूक न हो जाए, कहीं वे एकजुट न हो जाएँ। अपनी लूट को जारी रखने के लिए वे साम-दाम-दण्ड-भेद यहाँ तक कि अनैतिकता तथा क्रूरता तक का प्रयोग करते रहे। अपने देश के प्राचीन सिद्धान्तों, नीतियों, शास्त्रों, शिक्षा आदि को हेय बनाने वाले, भारतीयों के दिलो-दिमाग में अंग्रेजियत तथा पश्चिमी संस्कार भर देने वाले, अंग्रेजों के बनाये विधानों, नीतियों तथा शिक्षा पद्धति को, जो सिर्फ, और सिर्फ, भ्रष्टाचार, बेईमानी, प्रपंच आदि को ही बढ़ावा देते है, जारी रखा गया ताकि उनकी लूट-खसोट जारी रहे, अमीर भारत में केवल भ्रष्टाचारी ही अमीर बने रहें और शेष जनता गरीब हो जाए। चुनाव प्रक्रिया को ऐसा बना दिया गया कि, उम्मीदवारों की भीड़ में, सौ में से केवल तीस से चालीस लोगों का व्होट पाने वाला व्यक्ति चुनकर आ जाए, वह व्यक्ति चुनकर आ जाए जिसे कि सौ में से साठ से सत्तर लोगों ने नकार दिया है। ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि यदि हमें स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता तो किसी और को भी न मिले। केवल भ्रष्ट लोगों की टोली ही चुनकर आ पाएँ और देश की जनता को लूट-लूट कर आपस में बंदर-बाँट करते रहें। देश का सैकड़ों लाख करोड़ रुपया विदेशी बैंकों के खातों में समा जाए।
आज देश की समस्त जनता एकजुट दिखाई दे रही है पर प्रश्न यह उठता है कि यह एकजुटता कब तक बनी रहेगी? जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। पाँच साल के शासन काल में चार साल तक उसे कितना लूटा गया है यह वह भूल जाती है और याद रह जाता है तो शासन काल के अन्तिम समय में किए गए विकास के कुछ कार्य। वह भी इसलिए याद रह जाता है क्योंकि प्रचार माध्यमों तथा विज्ञापनों के द्वारा उसे जबरदस्ती याद रखवाया जाता है ताकि अगले चुनाव में जनता फिर से उन्हीं भ्रष्टाचार के भस्मासुरों के दल को सत्ता के सिंहासन में वापस ले आए। आज जरूरत है जनता को अपनी स्मरण शक्ति बढ़ाने की ताकि लोगों की एकजुटता हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहे।
Saturday, August 20, 2011
Monday, August 15, 2011
भ्रष्टाचार करके दौलत कमाते रहो, भ्रष्टाचार को ही गाली सुनाते रहो
क्या अगस्त को हमें वास्तव में स्वतन्त्रता मिली थी?
क्या आज हम वाकइ स्वतन्त्र हैं?
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों की हालत इतनी बदतर हो चुकी थी कि उन्हें अपने कई उपनिवेशों, जिनमें से भारत भी एक था, को छोड़ देने की मानसिकता बनानी पड़ गई। भारत से चले जाना उनकी मजबूरी बन गई थी, वैसे भी उन्होंने अपने लम्बे शासनकाल में भारत को पूरी तरह से चूस डाला था और यहाँ बने रहने से उन्हें आगे कुछ भी नहीं मिलने वाला था, उल्टे क्रान्तिकारियों से उन्हें अधिक से अधिक नुकसान होने की ज्यादा सम्भावना थी। देखा जाए तो अंग्रेजों के भारत छोड़ने का श्रेय न तो किसी नेता को दिया जा सकता और न ही किसी राजनैतिक दल को, वे सिर्फ अपनी मजबूरी के कारण यहाँ से गए थे। जाते-जाते भी अंग्रेजों की कुटिल बुद्धि ने भारत को और भी गारत करने सोच लिया था इसीलिए एक लम्बे अरसे से षड़यन्त्र पूर्वक इस देश में में नफरत फैलाना शुरू कर दिया था। धर्मेन्द्र गौड़ की पुस्तक "मैं अंग्रेजों का जासूस था" उनके द्वारा भारत छोड़ने के नफरत फैलाने का साक्ष्य है। भारत को विभाजन की आग में झोंकने की कुटिल योजना पहले से ही उन्होंने बना रखी थी।
अस्तु, अंग्रेज चले गए किन्तु गुलामी हमारे देश से नहीं गई। अंग्रेजों के जाने के बाद भ्रष्टाचारियों की गुलामी करने लगे। पहले अंग्रेज हमें लूटते थे और उनके जाने के बाद अंग्रेजों की लीक पर चलने वाले हमारे देश के भ्रष्टाचारी हमें लूटने लगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी विभिन्न घोटालों के रूप में हमें लूटने का सिलसिला जारी रहा। फूड घोटाला (तत्कालीन खाद्य मंत्रालय), जीप घोटाला (तत्कालीन रक्षा मंत्रालय), बीमा घोटाला (तत्कालीन वित्त मंत्रालय), नागरवाला काण्ड, तमिलनाडु और पांडिचेरी के फर्मों को नाजायज तरीके से लाइसेंस जारी करने का मामला जिसकी वजह से ललित नारायण मिश्र को बम से उड़ा दिया गया ताकि पोल न खुल पाए, बोफोर्स घोटाला........... कहाँ तक गिनाया जाए, बहुत लम्बी सूची है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, और सरकार चाहे किसी भी राजनैतिक दल का हो, भ्रष्टाचार सभी जगह व्याप्त है। यदि भ्रष्टाचार न करें तो पार्टी फंड में रुपये कहाँ से भेजें? आला कमान का जेब कैसे भरें? और इतना रुपया गवाँ कर चुनाव जीते हैं तो क्या सिर्फ जनता की सेवा करने के लिए? क्या हमें खुद को नहीं कमाना है? इतना कमाना है कि आने वाली सात पीढ़ियों को कमाने की जरूरत न पड़े।
कल प्रधानमन्त्री लालकिले की प्राचीर से भ्रष्टाचार के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त कर रहे थे, भ्रष्टाचार को गाली दे रहे थे जबकि उनके ही मन्त्रीगण विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं -
भ्रष्टाचार करके दौलत कमाते रहो, भ्रष्टाचार को ही गाली सुनाते रहो
लगता है कि सदैव गुलामी करते रहना और शोषित होते रहना ही इस देश की जनता कि नियति है क्योंकि यदि कोई भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसे कुचल दिया जाता है, उसकी आवाज को दबा दी जाती है, यहाँ तक कि उसके पिछले पूरे जीवन की छान-बीन करके, गड़े मुर्दे उखाड़कर, येन-केन-प्रकारेण उसकी कुछ न कुछ कमजोरी निकाल कर स्वयं उसे भ्रष्टाचार में लिप्त सिद्ध कर दिया जाता है। आखिर सत्ता की शक्ति जो उनके हाथ में होती है! "समरथ को नहि दोस गुसाईँ"!
क्या आज हम वाकइ स्वतन्त्र हैं?
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अंग्रेजों की हालत इतनी बदतर हो चुकी थी कि उन्हें अपने कई उपनिवेशों, जिनमें से भारत भी एक था, को छोड़ देने की मानसिकता बनानी पड़ गई। भारत से चले जाना उनकी मजबूरी बन गई थी, वैसे भी उन्होंने अपने लम्बे शासनकाल में भारत को पूरी तरह से चूस डाला था और यहाँ बने रहने से उन्हें आगे कुछ भी नहीं मिलने वाला था, उल्टे क्रान्तिकारियों से उन्हें अधिक से अधिक नुकसान होने की ज्यादा सम्भावना थी। देखा जाए तो अंग्रेजों के भारत छोड़ने का श्रेय न तो किसी नेता को दिया जा सकता और न ही किसी राजनैतिक दल को, वे सिर्फ अपनी मजबूरी के कारण यहाँ से गए थे। जाते-जाते भी अंग्रेजों की कुटिल बुद्धि ने भारत को और भी गारत करने सोच लिया था इसीलिए एक लम्बे अरसे से षड़यन्त्र पूर्वक इस देश में में नफरत फैलाना शुरू कर दिया था। धर्मेन्द्र गौड़ की पुस्तक "मैं अंग्रेजों का जासूस था" उनके द्वारा भारत छोड़ने के नफरत फैलाने का साक्ष्य है। भारत को विभाजन की आग में झोंकने की कुटिल योजना पहले से ही उन्होंने बना रखी थी।
अस्तु, अंग्रेज चले गए किन्तु गुलामी हमारे देश से नहीं गई। अंग्रेजों के जाने के बाद भ्रष्टाचारियों की गुलामी करने लगे। पहले अंग्रेज हमें लूटते थे और उनके जाने के बाद अंग्रेजों की लीक पर चलने वाले हमारे देश के भ्रष्टाचारी हमें लूटने लगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी विभिन्न घोटालों के रूप में हमें लूटने का सिलसिला जारी रहा। फूड घोटाला (तत्कालीन खाद्य मंत्रालय), जीप घोटाला (तत्कालीन रक्षा मंत्रालय), बीमा घोटाला (तत्कालीन वित्त मंत्रालय), नागरवाला काण्ड, तमिलनाडु और पांडिचेरी के फर्मों को नाजायज तरीके से लाइसेंस जारी करने का मामला जिसकी वजह से ललित नारायण मिश्र को बम से उड़ा दिया गया ताकि पोल न खुल पाए, बोफोर्स घोटाला........... कहाँ तक गिनाया जाए, बहुत लम्बी सूची है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, और सरकार चाहे किसी भी राजनैतिक दल का हो, भ्रष्टाचार सभी जगह व्याप्त है। यदि भ्रष्टाचार न करें तो पार्टी फंड में रुपये कहाँ से भेजें? आला कमान का जेब कैसे भरें? और इतना रुपया गवाँ कर चुनाव जीते हैं तो क्या सिर्फ जनता की सेवा करने के लिए? क्या हमें खुद को नहीं कमाना है? इतना कमाना है कि आने वाली सात पीढ़ियों को कमाने की जरूरत न पड़े।
कल प्रधानमन्त्री लालकिले की प्राचीर से भ्रष्टाचार के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त कर रहे थे, भ्रष्टाचार को गाली दे रहे थे जबकि उनके ही मन्त्रीगण विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं -
भ्रष्टाचार करके दौलत कमाते रहो, भ्रष्टाचार को ही गाली सुनाते रहो
लगता है कि सदैव गुलामी करते रहना और शोषित होते रहना ही इस देश की जनता कि नियति है क्योंकि यदि कोई भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध आवाज उठाता है तो उसे कुचल दिया जाता है, उसकी आवाज को दबा दी जाती है, यहाँ तक कि उसके पिछले पूरे जीवन की छान-बीन करके, गड़े मुर्दे उखाड़कर, येन-केन-प्रकारेण उसकी कुछ न कुछ कमजोरी निकाल कर स्वयं उसे भ्रष्टाचार में लिप्त सिद्ध कर दिया जाता है। आखिर सत्ता की शक्ति जो उनके हाथ में होती है! "समरथ को नहि दोस गुसाईँ"!
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