रात के सन्नाटे में बरसते पानी की टिपिर-टिपिर ध्वनि! आंगन में लगी रातरानी के फूलों की भीनी-भीनी सुवास! पड़ोस के घर में चलती हुई टीवी से सुनाई देता गीत - "मनमोर हुआ मतवाऽऽला ये किसने जादू डाला रे..."! दामिनी की दमक! सुरचाप की चमक! मेघों की कड़क! इस सुनसान रात्रि में मैं निपट अकेला इस दृश्य को देख रहा हूँ। नितांत अकेला होने पर भी मौन नहीं हूँ, स्वयं से बातें भी करते जा रहा हूँ। मैथिलीशरण गुप्त जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
पावस का प्रभाव बाल हृदय को उल्लासित कर रहा है, युवा प्रेमी-युगलों के हृदय में मधुर मिलन के लिये तड़प उत्पन्न कर रहा है, विरहातुरों को संतप्त कर रहा है और वृद्ध हृदय को अतीत का स्मरण करा रहा है। हम मनुष्य तो क्या, इस पावस ने तो देवाधिदेव श्री राम के हृदय को भी प्रभावित किया हैः
घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
पिछले तीन-चार दिनों से लगातार बारिश हो रही है। कभी मूसलाधार तो कभी हल्की फुहार। नदी-नाले अपनी उफान पर हैं। सरिता सम्पूर्ण धरा को अपने भीतर समेट लेना चाहती हैं। उनकी वेगवती प्रचण्ड धाराएँ चट्टानों से टकरा कर उन्हें चूर-चूर कर डालने के लिए आतुर हैं। धारा और चट्टान की टकराहट से उत्पन्न फेन की शुभ्रता नयनाभिराम प्रतीत हो रही हैं।
रात भर बरसने के बाद बारिश अभी थमी है। बरसात के रुक जाने से पक्षी अपने नीड़ से निकल आये हैं। उनकी चहचहाहट एक मधुर संगीत को जन्म दे रही है। पास के पीपल की डाल पर कोयल कूक रही है। वसुन्धरा ने हरीतिमा से अपना श्रृंगार कर लिया है। कहीं दूर कोई आल्हा गा रहा है - "बड़े लड़ैया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार ..."!
रिमझिम की फुहार रुकी हुई है किन्तु किन्तु मेघमालाओं ने अभी भी भगवान भास्कर को ढँक रखा है। ऊदे-ऊदे बादल आसमान में अपना जादू दिखा रहे हैं। कभी वे हाथी का शक्ल ले लेते हैं तो कभी मोर का। देखते ही देखते बादल का वह टुकड़ा जो शेर जैसा दिखाई दे रहा था अब श्वान जैसा प्रतीत होने लगा है। अरे अब तो पूरे आसमान को काले-काले बादलों ने ढँक लिया। बस थोड़ी ही देर में अवश्य ही फिर से बरसने लगेंगे ये, इनके बरसने में कुछ भी सन्देह नहीं है क्योंकि आज शनिवार है और ये बादल कल शुक्रवार से छाये हुए हैं, कहा भी गया हैः
शुक्रवार की बादरी रही शनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी बिन बरसे नहि जाय॥
Saturday, August 7, 2010
Friday, August 6, 2010
ठुकराना मत मेरी विनती (गीत)
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मद भरे नयन की प्याली से,
छलकाती हो मदहोशी;
अधरों पर मुसकान खेलती,
पर चुभती है खामोशी।
गोल सुडौल भुजाएँ तेरी,
चंचल मन को करती हैं,
अंगों की थिरकन रह रह कर,
तड़पन मन में भरती हैं।
तेरी सुन्दरता में सजनी,
बेसुध-सा खो जाता हूँ;
तेरे एक इशारे से ही,
नव-जीवन पा जाता हूँ।
तेरी बाहों का आलिंगन,
एक यही बस साध प्रिये;
साथ रहें अन्तिम श्वासों तक,
हाथों में हम हाथ लिये।
उफनाते सागर की लहरें,
मेरे मन की साध बनीं;
व्याकुल मन के अंधियारे में,
किरणें बन आओ सजनी।
काले घुंघराले बालों में,
कितना मादक आकर्षण;
ठुकराना मत मेरी विनती,
करने देना नित दर्शन।
(रचना तिथिः शनिवार 14-09-1984)
मद भरे नयन की प्याली से,
छलकाती हो मदहोशी;
अधरों पर मुसकान खेलती,
पर चुभती है खामोशी।
गोल सुडौल भुजाएँ तेरी,
चंचल मन को करती हैं,
अंगों की थिरकन रह रह कर,
तड़पन मन में भरती हैं।
तेरी सुन्दरता में सजनी,
बेसुध-सा खो जाता हूँ;
तेरे एक इशारे से ही,
नव-जीवन पा जाता हूँ।
तेरी बाहों का आलिंगन,
एक यही बस साध प्रिये;
साथ रहें अन्तिम श्वासों तक,
हाथों में हम हाथ लिये।
उफनाते सागर की लहरें,
मेरे मन की साध बनीं;
व्याकुल मन के अंधियारे में,
किरणें बन आओ सजनी।
काले घुंघराले बालों में,
कितना मादक आकर्षण;
ठुकराना मत मेरी विनती,
करने देना नित दर्शन।
(रचना तिथिः शनिवार 14-09-1984)
Thursday, August 5, 2010
हम भी कई बार वही काम करते हैं जिसे करके बहुत से लोग सफलतम व्यक्ति बन गये - याने कि चोरी!
चोरी!
शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में कभी चोरी न की हो। कोई बचपने में घर के ही अचार चुराता है तो युवावस्था में किसी का दिल चुरा लेता है। भगवान श्री कृष्ण का तो एक नाम ही "माखनचोर" है। हमारी संस्कृति में चोरी को चौंसठ कलाओं में से एक माना गया है - चौर्य कला। इस कला में महारथ रखने वाला तो "आँखों से अंजन चुरा लेता है"। इसके उल्टे चोरी यदि फूहड़ता के साथ की जाये तो वह चोरी अपनी चुगली आप कर देती है।
लेखन के क्षेत्र में भी चोरी एक आम बात है। कितने ही लेखक अंग्रेजी जासूसी उपन्यासों की सामग्री चुरा कर हिन्दी के सफलतम जासूसी उपन्यासकार बन बैठे हैं। कवि और शायर अन्य प्रख्यात कवियों और शायरों की किसी पंक्ति को चुरा कर अपनी कविता या शायरी का शीर्षक बना लिया करते हैं। हम भी अपने लेखन में किसी प्रख्यात लेखक के भाव तथा शब्द चुरा लिया करते हैं। कई बार तो हम अपने पोस्ट में किसी प्रख्यात रचनाकार के लेखन को, जो हमें बहुत अधिक पसंद आता है, ज्यों का त्यों उतार दिया करते हैं। याने कि पोस्ट हमारा पर लेखन किसी और का। यह चोरी नही है तो और क्या है? पर हाँ, ऐसे समय में हम उस रचनाकार का उल्लेख करना भी कभी नहीं भूलते। उदाहरण के लिये हमें छत्तीसगढ़ के प्रख्यात साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी के निम्न विचार बहुत अच्छे लगेः
बख्शी जी के उपरोक्त विचार हमें न केवल साहित्य के क्षेत्र के लिये वरन ब्लोगिंग के क्षेत्र के लिये भी अत्यन्त सार्थक लगते हैं। साहित्य के समान ब्लोगिंग भी विशुद्ध आनन्द का फल है और वही आनन्द ब्लोगरों को सच्ची प्रेरणा देता है।
बख्शी जी का यह भी मानना है किः
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास "धान के देश में" की भूमिका से)
हमें भी यही लगता है कि कथाओं और उपन्यासों के जैसे ही कुछ ब्लोग पोस्ट भी ऐसे होते हैं जिन्हें हम केवल एक बार पढ़कर भूल जाते हैं और कुछ पोस्ट ऐसे भी होते हैं जिन्हें बार बार पढ़कर भी मन नहीं भरता।
मैं भी कथाओं और उपन्यासों का प्रेमी पाठक हूँ। किशोरावस्था में ही मैंने देवकीनन्दन खत्री, वृन्दावनलाल वर्मा, मुंशी प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, आचार्य चतुरसेन, गुरुदत्त आदि प्रख्यात रचनाकारों की कई रचनाओं को पढ़ लिया था। चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता संतति, चित्रलेखा, गोदान, वयं रक्षामः, वैशाली की नगरवधू, सोना और खून आदि उपन्यासों को मैंने एक नहीं अनेक बार पढ़ा है। आज तो लोगों की रुचि भारी-भरकम उपन्यासों को पढ़ने में रह ही नहीं गई है, और जिन लोगों की रुचि इनमें है उनके पास, आज के इस व्यस्ततम जमाने में, इन्हें पढ़ने के लिये समय ही नहीं है। ऐसे लोगों को कथाओं का रसपान कराने के लिये कई बार हम अपने पोस्ट में प्रख्यात रचनाकारों के लेखन के अंश को उद्धरित कर दिया करते हैं।
आज प्रस्तुत है आचार्य चतुरसेन जी के उपन्यास "सोना और खून" से लिया गया एक छोटा सा अंश जिसमें नवाब और उनकी बेगम की आपसी नोक-झोंक को अत्यन्त रोचकता के साथ पेश किया गया है, आप भी पढ़कर मजा लें:
शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में कभी चोरी न की हो। कोई बचपने में घर के ही अचार चुराता है तो युवावस्था में किसी का दिल चुरा लेता है। भगवान श्री कृष्ण का तो एक नाम ही "माखनचोर" है। हमारी संस्कृति में चोरी को चौंसठ कलाओं में से एक माना गया है - चौर्य कला। इस कला में महारथ रखने वाला तो "आँखों से अंजन चुरा लेता है"। इसके उल्टे चोरी यदि फूहड़ता के साथ की जाये तो वह चोरी अपनी चुगली आप कर देती है।
लेखन के क्षेत्र में भी चोरी एक आम बात है। कितने ही लेखक अंग्रेजी जासूसी उपन्यासों की सामग्री चुरा कर हिन्दी के सफलतम जासूसी उपन्यासकार बन बैठे हैं। कवि और शायर अन्य प्रख्यात कवियों और शायरों की किसी पंक्ति को चुरा कर अपनी कविता या शायरी का शीर्षक बना लिया करते हैं। हम भी अपने लेखन में किसी प्रख्यात लेखक के भाव तथा शब्द चुरा लिया करते हैं। कई बार तो हम अपने पोस्ट में किसी प्रख्यात रचनाकार के लेखन को, जो हमें बहुत अधिक पसंद आता है, ज्यों का त्यों उतार दिया करते हैं। याने कि पोस्ट हमारा पर लेखन किसी और का। यह चोरी नही है तो और क्या है? पर हाँ, ऐसे समय में हम उस रचनाकार का उल्लेख करना भी कभी नहीं भूलते। उदाहरण के लिये हमें छत्तीसगढ़ के प्रख्यात साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी के निम्न विचार बहुत अच्छे लगेः
यह सच है कि अधिकांश तरुण साहित्यकारों की प्रवृति गद्य रचना की अपेक्षा पद्य रचना की ओर अधिक है। गद्य रचना में भी कथाओं की रचना की ओर अधिकांश नवयुवक जितना ध्यान देते हैं उतना गंभीर विषयों की विवेचना की ओर नहीं। उसका कारण भी है, तारुण्य में कल्पना की जो प्रखरता रहति है वह प्रौढ़ावस्था या वृद्धावस्था में नहीं रह जाती। सभी तरुण कल्पना का एक मायाजगत निर्मित कर प्रेम और सौन्दर्य की अनुभूति के लिये व्यग्र रहते हैं। यही कारण है कि अपने प्रारंभिक काल में कितने ही नवयुवक कवता और कहानी की रचना में विशेष उत्साह प्रदर्शित करते हैं। कुछ समय के बाद जब वे संसार के कर्मक्षेत्र में प्रविष्ट होते हैं तब उनमें से अधिकांश का यह उत्साह लुप्त सा हो जाता है। कुछ लोग यह समझते हैं कि ऐसे लेखक जब साहित्य के क्षेत्र से पृथक हो जाते हैं तब साहित्य में एक गतिरोध सा उत्पन्न हो जाता है। पर ऐसी बात नहीं है। जिन्हें साहित्य के प्रति अनुराग होता है उन्हें किसी भी परिस्थिति में रचना के प्रति विरक्ति नहीं होती। महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर जो लोग साहित्य के क्षेत्र में आते हैं उनकी अभीष्ट-सिद्धि न होने पर विरक्ति होना अस्वाभाविक नहीं। आजकल साहित्य के क्षेत्र में भी राजनीति के क्षेत्र की तरह प्रचार की भावना बढ़ती जा रही है। लोग दलबद्ध हो कर प्रचार कार्य करते हैं। उस प्रचार के भीतर एक विशेष महत्वाकांक्षा ही काम कर रही है। पर सच पूछिये तो इससे साहित्य के निर्माण में विशेष लाभ नहीं होता। हम लोग हो-हल्ला मचा कर कुछ समय के लिये कुछ लोगों को भले ही प्रभावित कर लें परन्तु अंत में हम लोगों का यह प्रचार कार्य निष्फल ही होता है। मैंने स्वयं अपने इस जीवनकाल में कितने ही कवियों और कलाकारों का उदय देखा और उनका अस्त भी। अतएव महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर जो लोग साहित्य के क्षेत्र में सस्ती कीर्ति पाने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें अंत में हतोत्साह होना पड़ता है। सच्चे साहित्यकारों के लिये जो बात सबसे अधिक मुख्य है वह है उनका अंतःसुख। उसी अंतःसुख के कारण वे साहित्य के क्षेत्र में यश और अपयश की चिंता न कर लिखते ही जाते हैं। जिनमें विशेष रचना-कौशल रहता है उन्हें सफलता भी मिल जाती है। साहित्य के इतिहास में यह देखा गया है कि विषम परिस्थितियों में रह कर जिन साहित्यकारों ने अपूर्व ग्रंथों की रचना की वैसी रचनायें उन्हीं के द्वारा सुख-सुविधा और विलास की परिस्थिति में रह कर नहीं लिखी गई। इसलिये साहित्य को मैं विशुद्ध आनंद का फल मानता हूँ। वही आनंद साहित्यकारों को सच्ची प्रेरणा देता है।(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास "धान के देश में" की भूमिका से)
बख्शी जी के उपरोक्त विचार हमें न केवल साहित्य के क्षेत्र के लिये वरन ब्लोगिंग के क्षेत्र के लिये भी अत्यन्त सार्थक लगते हैं। साहित्य के समान ब्लोगिंग भी विशुद्ध आनन्द का फल है और वही आनन्द ब्लोगरों को सच्ची प्रेरणा देता है।
बख्शी जी का यह भी मानना है किः
वृद्धावस्था में हम सब लोगों की अपनी एक विशेष रुचि हो जाती है। फिर भी उपन्यासों में कथा रस का उपभोग करने की क्षमता रहती है। हम उपन्यासों को पढ़ कर उनके माया जगत में ऐसे लीन हो जाते हैं कि हम सचमुच आत्म विस्मृत हो जाते हैं। फिर भी यह सच है कि विशेष स्थिति में विशेष उपन्यास रुचिकर होते हैं। यह सर्वथा सम्भव है कि एक अवस्था में जिन कथाओं को पढ़कर हमें विशेष आनंद हुआ है, उन्हीं से अन्य अवस्था में विरक्ति भी हो सकती है। कुछ ऐसी भी कथायें होती हैं जिन्हें हम केवल एक बार पढ़कर फेंक देते हैं, उन्हें फिर पढ़ने की इच्छा नहीं होती। ऐसे भी उपन्यास होते हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने से भी हमें विरक्ति नहीं होती। ऐसे कितने ही उपन्यास हैं जिन्हें मैं पच्चीसों बार पढ़ चुका हूँ और जब मुझे काम करने की व्यग्रता नहीं रहती तब उन्हीं उपन्यासों के द्वारा मुझे साहित्य का विशुद्ध आनंद प्राप्त हो जाता है।
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया जी के उपन्यास "धान के देश में" की भूमिका से)
हमें भी यही लगता है कि कथाओं और उपन्यासों के जैसे ही कुछ ब्लोग पोस्ट भी ऐसे होते हैं जिन्हें हम केवल एक बार पढ़कर भूल जाते हैं और कुछ पोस्ट ऐसे भी होते हैं जिन्हें बार बार पढ़कर भी मन नहीं भरता।
मैं भी कथाओं और उपन्यासों का प्रेमी पाठक हूँ। किशोरावस्था में ही मैंने देवकीनन्दन खत्री, वृन्दावनलाल वर्मा, मुंशी प्रेमचंद, भगवतीचरण वर्मा, आचार्य चतुरसेन, गुरुदत्त आदि प्रख्यात रचनाकारों की कई रचनाओं को पढ़ लिया था। चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता संतति, चित्रलेखा, गोदान, वयं रक्षामः, वैशाली की नगरवधू, सोना और खून आदि उपन्यासों को मैंने एक नहीं अनेक बार पढ़ा है। आज तो लोगों की रुचि भारी-भरकम उपन्यासों को पढ़ने में रह ही नहीं गई है, और जिन लोगों की रुचि इनमें है उनके पास, आज के इस व्यस्ततम जमाने में, इन्हें पढ़ने के लिये समय ही नहीं है। ऐसे लोगों को कथाओं का रसपान कराने के लिये कई बार हम अपने पोस्ट में प्रख्यात रचनाकारों के लेखन के अंश को उद्धरित कर दिया करते हैं।
आज प्रस्तुत है आचार्य चतुरसेन जी के उपन्यास "सोना और खून" से लिया गया एक छोटा सा अंश जिसमें नवाब और उनकी बेगम की आपसी नोक-झोंक को अत्यन्त रोचकता के साथ पेश किया गया है, आप भी पढ़कर मजा लें:
बड़े नवाब मिर्जा अलीबेग अस्सी की उम्र में जब मरे तो उनके साहबज़ादे मिर्जा अख़्तरबेग की उम्र बीस बरस की थी। बड़ी मानता-मनौती मानने पर बड़े नवाब को बुढ़ौती में बेटे का मुँह देखना नसीब हुआ था। इसीलिए उनकी परवरिश भी लाड़-प्यार में हुई थी। उन दिनों जहांगीराबाद की रियासत में ऐशो-इशरत की कमी न थी। सिर्फ इतना ही नहीं कि छोटे नवाब ऐशो-इशरत की गोद में पलकर किसी कदर आवार हो गए, उनकी तालीम भी बहुत मामूली हुई। इन सब कारणों से ज्यों ही बड़े नवाब मरे और इन्हें हाथ की छूट हुई तो बेहद फिज़ूलखर्चियाँ करने लगे। बदइन्तजामी इतनी बढ़ी कि आमदनी आधी भी न रही।
इनकी ऐयाशी और फिज़ूलखर्ची बड़े नवाब के जमाने में आरम्भ हो गई थीं। उन्होंने यह सोचकर कि शादी कर देने से वह खानादारी में फँसकर ठीक हो जाएगा, उनकी शादी चौदह साल की उम्र में ही कर दी थी। शुरू-शुरू में तो नए मियाँ-बीबी खूब घुल-मिल कर रहे। बीबी का मिज़ाज़ जरा तेज था। वह भी एक नवाब की बेटी थी। पर मियाँ की वह बहुत लल्लो-चप्पो करती रहती थी।......... परंतु धीरे-धीरे यह प्रेम का पौधा सूखने लगा और छोटे नवाब इधर-उधर फिर दिल का सौदा करने लगे। इससे बेग तिनक गईं। और फिर आए दिन मान-मनौवल, फसाद-झगड़े उठने लगे। इसी बीच बड़े नवाब का इन्तकाल हो गया और छोटे नवाब की पगड़ी बँधी। इसके एक साल बाद ही नवाब के लड़का पैदा हुआ। लड़का सुन्दर और स्वस्थ था। पहला बच्चा था, इसलिये हवेली में बाजे बजने लगे। बधाइयाँ गाई जाने लगीं। तवायफ़ों की महफ़िल हुई। लेकिन जब दाई ने छठवीं के दिन लड़के को लाकर नवाब की गोद में डाला और उम्मीद की कि कोई भारी इनाम मिलेगा, तो नवाब ने बिगड़कर कहा, "इस लड़के की सूरत हमसे नहीं मिलती, चुनाँचे यह हमारा लड़का ही नहीं।"
नवाब साहब की इस बात से तहलका मच गया। हकीकत यह थी कि उनके आवारा दोस्तों ने कुछ ऐसी इशारेबाजियाँ पहले ही से कर रखी थीं, जिनसे नवाब का दिल वहम से भर गया था। वह अनपढ़ और बेवकूफ़ तो था ही, लड़के को देखते ही ऐसी बेहूदा बात कह बैठा।
बेगम ने सुना तो अपना सिर पीट लिया। रो-धोकर उसने सारा घर सिर पर उठा लिया। ..... इसी दौरान बेगम को पता लगा कि नवाब ने एक तवायफ़ से आशनाई कर ली है। ...... बेगम से एक दिन उसकी मुँह-दर-मुँह नोक-झोंक हो गई।
नवाब ने कहा, "बेगम, तुमने यह हक-नाहक का कैसा हंगामा खड़ा कर दिया है? बखुदा इससे बाज आओ, वरना हमसे बुरा कोई न होगा।"
"क्या कर लोगे तुम?"
"कसम कलामे-पाक की, मैं तुम्हारी खाल खिंचवाकर भूसा भरवा दूँगा।"
"तो तुफ़ है तुम पर जो करनी में कसर करो।"
"नाहक एक खूने-नाहक का अजाब मेरे सिर होगा।"
"तुम्हें क्या डर है! करनी कर गुजरो, ज्यादा से ज्यादा फाँसी हो जाएगी।"
"फाँसी क्यों हो जाएगी?"
"यह कम्पनी बहादुर की अमलदारी है। तुम्हारी खाला का राज नहीं।"
"बखुदा, बड़ी मुँहफट हो।"
"मगर अस्मतदार हूँ।"
"चे खुश। अस्मतदार हो तो कहो यह लौंडा कहाँ से पेट में डाल लाईं?"
"शरम नहीं आती यह बेहूदा कलाम जुबान पर लाते?"
"हम तो लाखों में कहेंगे। कुछ डर है!"
"नकटा जिए बुरे हवाल, डर काहे का! डर तो उसे हो जिसे अपनी इज्जत का कुछ खयाल हो।"
"हम खानदानी रईस हैं। हमारी इज्जत का तुम क्या जानो।"
"बड़े आए इज्जतवाले। तभी तो मुई उस वेसवा का थूक चाटते हो।"
"तो इससे तुम्हें क्या! यह हमने कोई नई बात नहीं की। हमारे हमकौम रईस-नवाब सभी कोई रखैल, रंडी रखते हैं। हमने रख ली तो तुम्हारा क्या नुकसान किया?"
"अच्छा, हमारा कोई नुकसान ही नहीं किया?"
"हमारा फर्ज ब्याहता के साथ रहने का है, हर्गिज फरामोश न करेंगे। और अगर ज्यादा बावेला न मचाकर घर में खामोश बैठोगी तो हम तुम्हारी खातिरदारी मिस्ल साबिक बल्कि उससे भी ज्यादा करेंगे। हालाँकि तुम इस सलूक के काबिल नहीं।"
"क्या कहने हैं! मियाँ होश की दवा करो। मेरा जो हक है मुँह पर झाड़ू मारकर लूँगी। होई हँसी-ठठ्ठा है!"
"तुमने बेहयाई पर कमर कस ली है तो लाचारी है।"
"मैं बेहया लोगों के कहने का बुरा नहीं मानती। अब्बाजान को मैंने सब हकीकत लिख दी है। वे आया ही चाहते हैं। उनसे निबटना। देखूँगी, कैसे तीसमारखां हो!"
"देखूँगा उन्हें, कितनी तोपें लेकर आते हैं!"
यह कहते और गुस्से से काँपते हुए नवाब बाहर चले गए।
Wednesday, August 4, 2010
मैं धार्मिक हूँ
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मैं धार्मिक हूँ, मैं मार्मिक हूँ,
मत्था टेका करता हूँ,
उग्र कभी बन जाता हूँ तब,
शस्त्र इकट्ठा करता हूँ।
पूजा-घर में हथियारों को,
फूल समझ रख देता हूँ,
रक्त चढ़ा कर गुरु-चरणों में,
नित्य भजन कर लेता हूँ।
ईश्वर का भी सरदार बना,
अकड़ दिखाया करता हूँ,
निरपराध निर्दोषों को मैं,
मार गिराया करता हूँ।
कभी किसी से डरा न करता,
बस सेना से दबता हूँ,
नाम धर्म का ले ले कर मैं,
बिना विचारे लड़ता हूँ।
धर्मात्मा और महात्मा हूँ,
जल्लादों से भी हूँ मैं बढ़ कर,
जल के बदले मदिरा पीता,
झूमा करता हूँ बढ़-चढ़ कर।
(रचना तिथिः शनिवार 14-09-1984)
मैं धार्मिक हूँ, मैं मार्मिक हूँ,
मत्था टेका करता हूँ,
उग्र कभी बन जाता हूँ तब,
शस्त्र इकट्ठा करता हूँ।
पूजा-घर में हथियारों को,
फूल समझ रख देता हूँ,
रक्त चढ़ा कर गुरु-चरणों में,
नित्य भजन कर लेता हूँ।
ईश्वर का भी सरदार बना,
अकड़ दिखाया करता हूँ,
निरपराध निर्दोषों को मैं,
मार गिराया करता हूँ।
कभी किसी से डरा न करता,
बस सेना से दबता हूँ,
नाम धर्म का ले ले कर मैं,
बिना विचारे लड़ता हूँ।
धर्मात्मा और महात्मा हूँ,
जल्लादों से भी हूँ मैं बढ़ कर,
जल के बदले मदिरा पीता,
झूमा करता हूँ बढ़-चढ़ कर।
(रचना तिथिः शनिवार 14-09-1984)
Monday, August 2, 2010
हिन्दी ब्लोगिंग की महत्वपूर्ण बातें
- किसी भी नये ब्लोगर को उसके पहले ही पोस्ट पर इतना स्वागत् और इतनी वाहवाही मिलती है जितनी कि उसे अपने जीवन में पहले कभी न मिली हो!
- ब्लोगरों की हर वो रचना जो कि समस्त पत्र-पत्रिकाओं से 'खेद सहित वापस' आ गई रहती है ब्लोग में आसानी के साथ खप जाती है और उसे वाहवाही भी मिलती है।
- ब्लोगरों को लिखने के लिये किसी विषय का मोहताज नहीं रहना पड़ता। कुछ भी लिखो, किसी भी विषय पर लिखो, कभी कविता लिखो, कभी कहानी लिखो तो कभी घिसे-पिटे समाचारों की रिपोर्टिंग कर दो अर्थात् चाहे जो कुछ भी करो सब चलता है!
- एक ब्लोगर के लिखे को अन्य ब्लोगर अवश्य पढ़ते हैं।
- अन्य भाषाओं विशेषकर अंग्रेजी भाषा के ब्लोग लेखकों को अपने पोस्ट की सामग्री कंटेंट के स्तर का ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि उनके बीच "कंटेंट इज़ किंग" वाली धारणा काम करती है, उन्हें अपने पाठकों की संख्या अधिक से अधिक बढ़ाने की फिक्र रहती है जो कि स्तर की सामग्री पढ़ने के लिये ही आते हैं। हिन्दी ब्लोग लेखकों के लिये टिप्पणियों का बहुत महत्व होता है क्योंकि माना जाता है कि जिसके पोस्ट में जितनी अधिक टिप्पणियाँ वह उतना ही महान ब्लोगर।
- यद्यपि हिन्दी ब्लोगिंग में विषयों का विशेष महत्व नहीं है किन्तु ब्लोग, ब्लोगिंग, अन्य ब्लोगर, ब्लोगर मीट आदि ऐसे विषय हैं जिन पर पोस्ट लिखकर अधिक से अधिक टिप्पणी पाई जा सकती है।
- प्रायः ब्लोगर लोग एक दूसरे की पीठ ठोकते हैं याने कि टिप्पणियों का "इस हाथ दे उस हाथ ले" सिलसिला धड़ल्ले के साथ चलता है।
- ब्लोगरों को उनका पोस्ट विभिन्न सर्च इंजिनों में आते हैं या नहीं, लोग पोस्ट को सर्च करके पढ़ते हैं या नहीं, गूगल पेज रैंक, अलेक्सा रैंक आदि से कुछ भी मतलब नहीं रहता। उन्हें मतलब रहता है सिर्फ हिन्दी ब्लोग संकलकों तथा उनके हॉट और सक्रियता सूचियों से।
- हिन्दी ब्लोगिंग में अपने पोस्ट को हिट करवाने और संकलकों के हॉटलिस्ट में शामिल करने के सत्रह सौ साठ तरीके उपलब्ध हैं।
- ब्लोगरों को 'हॉट और कोल्ड' के चक्कर में पड़ने, संकलको को गाली देने, अपना गुट बनाने, चर्चा करने, लिंकस तथा सक्रियता के चक्कर में पड़ने, फर्जीवाडा बताने, बेनामी बनाने, लड़ने-झगडते, दोस्त और दुश्मन बनाने, कोर्ट-कचहरी की धमकी देने, टंकी पर चढ़ने, दूसरों के धर्म की छीछालेदर करने तथा अपने धर्म को दूसरों के धर्म से महान बताने आदि बातों का पूर्ण अधिकार होता है।
- यदि कोई ब्लोगर आपके पोस्ट की आलोचना करे तो उसे दूसरे गुट का बताया जा सकता है और ब्लोगरों के अलावा इंटरनेट में सर्फ करने वाले अन्य लोग यदि हिन्दी ब्लोग्स की आलोचना करें तो उन्हें मजमा लगाने वाले छिद्राण्वेषी कहा जा सकता है।
- अपनी टिप्पणी के समर्थन में अपने समर्थकों से अन्य टिप्पणी लिखवाई जा सकती है।
- 'बेगैरत', 'बेहुर्मत', 'स्वार्थी', 'खुदगर्ज' आदि नामों के मुखौटे लगाकर अपनी टिप्पणी को प्रभावशाली बनाने वाली टिप्पणी लिखी जा सकती है।
- हिन्दी ब्लोगिंग में लोग आते अपनी मर्जी से हैं और फिर वहाँ से जाने का मन ही नहीं करता, बस वहीं फँसे रह जाते हैं।
Sunday, August 1, 2010
नेता और कुत्ता
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
नेता बोला अपने कुत्ते से,
"ऐ श्वान बता-
क्या तू मुझसे बढ़ कर पूँछ हिलाता है?
मैं दुम-हीन भले ही हूँ पर,
मेरा टेढ़ा मन दुम कहलाता है।
"कान खोल कर सुन ले कुत्ता,
तू क्या गुर्रायेगा जितना मैं गुर्राता हूँ!
तू क्या जाने पीना और पिलाना,
मैं पीता और पिलाता हूँ।
"तेरी टेढ़ी पूँछ किसी दिन
सीधी भी हो सकती है,
पर मेरे मन की पूछ सदा
टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है।
"ऐ कुत्ता, तू ही क्या-
जन जन मेरा दास बना है,
तुझको तो मैं भोजन देता हूँ
पर जाने क्या क्या मेरा ग्रास बना है।
"मेरे सम्मुख छुटभैया नेता
बिन दुम के पूँछ हिलाते हैं,
हम भी अपने से ऊँचे नेता को
चमचा बन खूब रिझाते हैं।
"वर्ष पाँचवें में मैं
महा नम्र बन जाता हूँ,
नाच नाच कर भीख माँगता,
वोट बहुत पा जाता हूँ।
"फिर तो चांदी काट काट कर
प्रति पल अकड़ दिखाता हूँ,
मेरा मुँह बनता पूँछ तुम्हारी
झूम नशे में इठलालता हूँ।"
सुनता रहा श्वान सब कुछ
फिर धीरे से ली अंगड़ाई,
बोला, "कान खोल कर सुन ले,
ऐ मेरे नेता भाई।
"तू नेता है, मैं कुत्ता हूँ,
पर ईमान सदा ही रखता हूँ,
मस्त जीव हूँ निश्चिन्त हमेशा
तुम जैसों को ही परखता हूँ,
नहीं काटता मैं तुमको भाई,
वरना मैं मैं मर जाऊँगा,
जितना जहर भरा है तुममें,
उतना कहाँ मैं पाऊँगा।"
(रचना तिथिः गुरुवार 05-12-1981)
नेता बोला अपने कुत्ते से,
"ऐ श्वान बता-
क्या तू मुझसे बढ़ कर पूँछ हिलाता है?
मैं दुम-हीन भले ही हूँ पर,
मेरा टेढ़ा मन दुम कहलाता है।
"कान खोल कर सुन ले कुत्ता,
तू क्या गुर्रायेगा जितना मैं गुर्राता हूँ!
तू क्या जाने पीना और पिलाना,
मैं पीता और पिलाता हूँ।
"तेरी टेढ़ी पूँछ किसी दिन
सीधी भी हो सकती है,
पर मेरे मन की पूछ सदा
टेढ़ी की टेढ़ी ही रहती है।
"ऐ कुत्ता, तू ही क्या-
जन जन मेरा दास बना है,
तुझको तो मैं भोजन देता हूँ
पर जाने क्या क्या मेरा ग्रास बना है।
"मेरे सम्मुख छुटभैया नेता
बिन दुम के पूँछ हिलाते हैं,
हम भी अपने से ऊँचे नेता को
चमचा बन खूब रिझाते हैं।
"वर्ष पाँचवें में मैं
महा नम्र बन जाता हूँ,
नाच नाच कर भीख माँगता,
वोट बहुत पा जाता हूँ।
"फिर तो चांदी काट काट कर
प्रति पल अकड़ दिखाता हूँ,
मेरा मुँह बनता पूँछ तुम्हारी
झूम नशे में इठलालता हूँ।"
सुनता रहा श्वान सब कुछ
फिर धीरे से ली अंगड़ाई,
बोला, "कान खोल कर सुन ले,
ऐ मेरे नेता भाई।
"तू नेता है, मैं कुत्ता हूँ,
पर ईमान सदा ही रखता हूँ,
मस्त जीव हूँ निश्चिन्त हमेशा
तुम जैसों को ही परखता हूँ,
नहीं काटता मैं तुमको भाई,
वरना मैं मैं मर जाऊँगा,
जितना जहर भरा है तुममें,
उतना कहाँ मैं पाऊँगा।"
(रचना तिथिः गुरुवार 05-12-1981)
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