बात बहुत पुरानी है। एक बार बनवारी लाल जी को किसी काम से इंग्लैंड जाना पड़ा। काम जरूरी था अतः वहाँ पहुँचते ही बिना कुछ खाये पिये काम में लग गये। काम खत्म होते होते पूरा दिन बीत गया। सही सही काम हो जाने के बाद ध्यान आया कि काम के चक्कर में खाना भी नहीं खाया है। भूख बहुत जम के लगी थी इसलिये सीधे होटल के डायनिंग हाल में गये। वेटर ने मीनू ला कर रख दिया। बनवारी लाल जी बेचारे अंग्रेजी पढ़ना जानते नहीं थे पर बताना भी नहीं चाहते कि उनको अंग्रेजी पढ़नी नहीं आती इसलिये एक ट्रिक से काम लिया। मीनू के कुछ आयटमों में पेंसिल से निशान लगा दिया और इशारे से बता दिया कि निशान वाले आयटम्स ले आओ।
इत्तिफ़ाक की बात है कि जिन सात-आठ खाने के आयटम्स में उन्होंने निशान लगाया था वे सारे के सारे सूप थे।
वेटर ने सभी सूप लाकर टेबल पर रख दिया। बनवारी लाल जी को आश्चर्य हुआ कि सभी चीजें पानी जैसी क्यों हैं। खैर यह सोच लिया कि ये अंग्रेज लोग भारत जैसा लज़्ज़तदार खाना क्या जानेंगे, ऐसा ही खाना खाते होंगे। एक सूप को एक चम्मच चखा और अजब सा मुँह बना कर छोड़ दिया। अब सूप स्वादिष्ट तो होता नहीं है और वे, दिन भर के भूखे, बेचारे बिना स्वाद वाला खाना खा ही नहीं सकते थे। एक एक कर के सभी सूपों को चखा और आखिर में गुस्से से चम्मच को क्राकरी पर जोर से पटक कर अपने कमरे में आकर भूखे ही सो गये। कमरे में आने पर दरवाजे पर भी गुस्सा उतारा था और उसे भड़ाक से बंद किया था। जोर से दरवाजा बंद करने से उनके कमरे का नंबर प्लेट पलट कर उलटा हो गया और कमरे का नंबर 6 की जगह 9 हो गया।
इधर 9 नंबर कमरे में जो सज्जन ठहरे थे उन्हें पिछले तीन चार दिनों से मोशन नहीं हो रहा था। होटल के डॉक्टर हर प्रकार की दवा दे चुके थे और किसी दवा ने काम नहीं किया था। अब डॉक्टर उन्हें एनीमा देना चाहते थे किन्तु वो सज्जन इसके लिये तैयार न थे। डॉक्टर ने होटल के मैनेजर से जाकर वाकया बताया और कहा कि यदि एनीमा नहीं दिया गया तो वो सज्जन मर भी सकते हैं और होटल की बहुत बदनामी हो सकती है। मैनेजर ने कहा अपने साथ चार हट्टे-कट्टे वेटरों को ले जाइये और जबरदस्ती उन्हें को एनीमा दे दीजिये। डॉक्टर ने कहा कि मेरी ड्यूटी का शिफ्ट खत्म हो गया है और मैं जा रहा हूँ। दूसरे शिफ्ट के डॉक्टर आ चुके हैं उनसे यह काम करवा लीजिये।
दूसरा डॉक्टर चार वेटर्स को लेकर बनवारी लाल जी के कमरे में आये क्योंकि उनके कमरे का नंबर 9 हो चुका था। वेटर्स ने बनवारी लाल जी के हाथ पैरों को कस के पकड़ लिया, मुँह में कपड़ा ठूँस दिया ताकि वे चिल्ला न सकें और डॉक्टर ने एनीमा दे दिया। अपना काम करके वे चलते बने। बनवारी लाल जी बेचारे क्या कर सकते थे? आह-ऊह करते रात बिताया उन्होंने और सबेरे के फ्लाइट से वापस भारत आ गये।
उनके इस यात्रा के बाद बीस-बाइस साल बीत गये। एक दिन उनका भांजा उनके पास आया और बोला कि उसे इंग्लैंड जाना है वहाँ के बारे में उसे सब कुछ समझा दे ताकि उसे किसी प्रकार की तकलीफ न हो।
बनवारी लाल जी ने कहा, "और सब तो ठीक है भांजे, बस इतना ध्यान रखना कि यदि खाना पसंद न आये तो क्राकरी-चम्मच मत पटकना। क्राकरी-चम्मच पटकने पर अंग्रेज रात को भयंकर सजा देते हैं।"
Saturday, November 14, 2009
Friday, November 13, 2009
मुझे मिले ब्लोगवाणी पसंद ने फूलकर कुप्पा कर दिया मुझे ... पर क्या यह वास्तव में खुशी की बात है?
यह तो अब सभी जानते हैं कि आज सुबह के मेरे पोस्ट "एक ब्लोगवाणी पसंद का सवाल ..." को बहुत ज्यादा पसंद मिली। क्यों? क्योंकि अधिकतर लोग यही समझे कि मैंने अधिक पसंद पाने के लिये मतलब आत्मतुष्टि पाने के लिये यह पोस्ट लिखा था। वो लोग यह समझे कि मैं उनसे अपने पोस्ट के पसंद बटन को क्लिक करने का अनुरोध कर रहा हूँ और उन्होंने मुझे दान के रूप में पसंद दे दिया, जी हाँ दान के रूप में। और टिप्पणी में जता भी दिया कि ले तू भी क्या याद रखेगा, दिया तुझे दान।
पर मुझे दुःख है कि मेरे उस पोस्ट का आशय बहुत कम लोगों ने समझा। हो सकता है कि मैं ही समझाने में असफल रहा होऊँ यद्यपि मैंने स्पष्ट लिखा थाः
यह सब मैं अपने पोस्ट को पसंद करवाने के लिये नहीं कह रहा हूँ बल्कि उन सभी पोस्टों के बारे में कह रहा हूँ जिन्हें आप पढ़ कर पसंद करते हैं और टिप्पणी भी करते हैं। आपकी टिप्पणी से सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है किन्तु आपके पसंद बटन को क्लिक करने से न सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है वरन ब्लोगवाणी की लोकप्रियता भी बढ़ती है।
मैं जो चाहता था वह नहीं हुआ। मुझे तो बहुत सारे पसंद मिले किन्तु अन्य कई अच्छे पोस्ट्स को जो पसंद मिलनी थी नहीं मिली। उदाहरण के लिये एक पोस्ट "बाजारीकरण या आजादी------- (मिथिलेश दुबे)" का स्क्रीनशॉट दे रहा हूँ।
स्क्रीनशॉट से स्पष्ट है कि यह पोस्ट आज सुबह नौ बज कर बयालीस मिनट में ब्लोगवाणी में आया था। मेरे स्क्रीनशॉट लेते समय याने कि शाम को छः बज कर चार मिनट तक इस पोस्ट को उन्तीस लोग पढ़ चुके थे और पाँच टिप्पणियाँ भी आ चुकी थीं। किन्तु पसंद बटन पर मात्र दो चटके लगे थे। पाँच टिप्पणीकर्ताओं में एक मैं भी था। टिप्पणी करने के बाद मैंने स्क्रीनशॉट लिया और फिर तीसरा चटका लगाया। टिप्पणियों के हिसाब से यह पोस्ट कम से कम पाँच पसंद का हकदार तो बनता है। मुझे विश्वास है कि यह पोस्ट बहुत लोगों को अवश्य ही पसंद आया होगा।
इस पोस्ट के द्वारा मैं यदि अपनी बात समझाने में सफल होता हूँ तो यह मेरा सौभाग्य होगा।
पर मुझे दुःख है कि मेरे उस पोस्ट का आशय बहुत कम लोगों ने समझा। हो सकता है कि मैं ही समझाने में असफल रहा होऊँ यद्यपि मैंने स्पष्ट लिखा थाः
यह सब मैं अपने पोस्ट को पसंद करवाने के लिये नहीं कह रहा हूँ बल्कि उन सभी पोस्टों के बारे में कह रहा हूँ जिन्हें आप पढ़ कर पसंद करते हैं और टिप्पणी भी करते हैं। आपकी टिप्पणी से सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है किन्तु आपके पसंद बटन को क्लिक करने से न सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है वरन ब्लोगवाणी की लोकप्रियता भी बढ़ती है।
मैं जो चाहता था वह नहीं हुआ। मुझे तो बहुत सारे पसंद मिले किन्तु अन्य कई अच्छे पोस्ट्स को जो पसंद मिलनी थी नहीं मिली। उदाहरण के लिये एक पोस्ट "बाजारीकरण या आजादी------- (मिथिलेश दुबे)" का स्क्रीनशॉट दे रहा हूँ।
स्क्रीनशॉट से स्पष्ट है कि यह पोस्ट आज सुबह नौ बज कर बयालीस मिनट में ब्लोगवाणी में आया था। मेरे स्क्रीनशॉट लेते समय याने कि शाम को छः बज कर चार मिनट तक इस पोस्ट को उन्तीस लोग पढ़ चुके थे और पाँच टिप्पणियाँ भी आ चुकी थीं। किन्तु पसंद बटन पर मात्र दो चटके लगे थे। पाँच टिप्पणीकर्ताओं में एक मैं भी था। टिप्पणी करने के बाद मैंने स्क्रीनशॉट लिया और फिर तीसरा चटका लगाया। टिप्पणियों के हिसाब से यह पोस्ट कम से कम पाँच पसंद का हकदार तो बनता है। मुझे विश्वास है कि यह पोस्ट बहुत लोगों को अवश्य ही पसंद आया होगा।
इस पोस्ट के द्वारा मैं यदि अपनी बात समझाने में सफल होता हूँ तो यह मेरा सौभाग्य होगा।
एक ब्लोगवाणी पसंद का सवाल है बाबा ... जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला
कल हमने भेजे याने कि खोपड़ी पर लिखने के लिये खूब खोपड़ी खपाया,
उसे लिखने के लिये दो घंटे की मशक्कत के बदले सिर्फ छः ब्लोगवाणी पसंद ही पाया,
इतनी कम पसंद?
क्या हम इतने गये गुजरे हैं?
ये सब सोच कर हमारा भेजा भन्नाया
अरे! ये तो कविता बनती जा रही है। नहीं भाई, मैं कवि नहीं हूँ इसलिये मैं कविता की और लाइने लिख कर आपको बोर नहीं करूँगा।
मैं तो सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि आखिर लोग किसी पोस्ट को पसंद करते हैं तो पसंद बटन पर एक चटका लगाने में कंजूसी क्यों कर जाते हैं? क्या जाता है उनका पसंद बटन पर एक क्लिक करने में? न तो इसके लिये जेब से रुपया खर्च करना पड़ता है और न ही कोई समय गवाँना पड़ता है।
टिप्पणियाँ मिल जाती हैं पर पसंद नहीं मिलता। बताइये भला, यह भी कोई बात हुई?
यह सब मैं अपने पोस्ट को पसंद करवाने के लिये नहीं कह रहा हूँ बल्कि उन सभी पोस्टों के बारे में कह रहा हूँ जिन्हें आप पढ़ कर पसंद करते हैं और टिप्पणी भी करते हैं। आपकी टिप्पणी से सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है किन्तु आपके पसंद बटन को क्लिक करने से न सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है वरन ब्लोगवाणी की लोकप्रियता भी बढ़ती है।
ब्लोगवाणी और इसके पसंद बटन की लोकप्रियता बढ़ने पर गूगल को भी इसे अंग्रेजी के डिग, टेक्नोराटी आदि की तरह महत्व देना पड़ेगा। यह मापदंड बन जायेगा हिन्दी ब्लोग की लोकप्रियता का। अधिक पसंद किये जाने वाले पोस्टों को सर्च इंजिन्स में प्रमुख स्थान मिलने लगेंगे। अंग्रेजी के डिग बटन में तो सैकड़ों से हजारों की संख्या में चटके लगते हैं इसी कारण से गूगल सहित अन्य सभी सर्च इंजिन्स की नजरों में डिग का महत्व है। हमें भी यह प्रयास करना है कि ब्लोगवाणी पसंद का भी महत्व डिग, टेक्नोराटी जैसा हो जाये।
तो पसंद आने वाली पोस्टों में आप चाहे टिप्पणी करें या न करें पर पसंद बटन पर चटका लगाना कभी भी न भूलें। ऐसा करके आप ब्लोगर को प्रोत्साहन तो देंगे ही साथ ही साथ हिन्दी ब्लोग्स को आगे बढ़ाने में भी आपका योगदान हो जायेगा। पर चटका उसी पोस्ट के लिये लगायें जो आप को पसंद हो, जो पोस्ट आपको पसंद नहीं हैं उस पर चटका लगाना पसंद बटन का दुरुपयोग होगा।
चलते-चलते
आज के हमारे इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर कैसा लगा? यही ना कि हमने मांगने वाला स्टाइल अपनाया आज। और आप तो जानते ही हैं
रहिमन वे नर मर चुके जो कछु मांगन जाहि।
उन ते पहिले वे मुए जिन मुख निकसत नाहि॥
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
उसे लिखने के लिये दो घंटे की मशक्कत के बदले सिर्फ छः ब्लोगवाणी पसंद ही पाया,
इतनी कम पसंद?
क्या हम इतने गये गुजरे हैं?
ये सब सोच कर हमारा भेजा भन्नाया
अरे! ये तो कविता बनती जा रही है। नहीं भाई, मैं कवि नहीं हूँ इसलिये मैं कविता की और लाइने लिख कर आपको बोर नहीं करूँगा।
मैं तो सिर्फ यह जानना चाहता हूँ कि आखिर लोग किसी पोस्ट को पसंद करते हैं तो पसंद बटन पर एक चटका लगाने में कंजूसी क्यों कर जाते हैं? क्या जाता है उनका पसंद बटन पर एक क्लिक करने में? न तो इसके लिये जेब से रुपया खर्च करना पड़ता है और न ही कोई समय गवाँना पड़ता है।
टिप्पणियाँ मिल जाती हैं पर पसंद नहीं मिलता। बताइये भला, यह भी कोई बात हुई?
यह सब मैं अपने पोस्ट को पसंद करवाने के लिये नहीं कह रहा हूँ बल्कि उन सभी पोस्टों के बारे में कह रहा हूँ जिन्हें आप पढ़ कर पसंद करते हैं और टिप्पणी भी करते हैं। आपकी टिप्पणी से सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है किन्तु आपके पसंद बटन को क्लिक करने से न सिर्फ ब्लोगर को तुष्टि मिलती है वरन ब्लोगवाणी की लोकप्रियता भी बढ़ती है।
ब्लोगवाणी और इसके पसंद बटन की लोकप्रियता बढ़ने पर गूगल को भी इसे अंग्रेजी के डिग, टेक्नोराटी आदि की तरह महत्व देना पड़ेगा। यह मापदंड बन जायेगा हिन्दी ब्लोग की लोकप्रियता का। अधिक पसंद किये जाने वाले पोस्टों को सर्च इंजिन्स में प्रमुख स्थान मिलने लगेंगे। अंग्रेजी के डिग बटन में तो सैकड़ों से हजारों की संख्या में चटके लगते हैं इसी कारण से गूगल सहित अन्य सभी सर्च इंजिन्स की नजरों में डिग का महत्व है। हमें भी यह प्रयास करना है कि ब्लोगवाणी पसंद का भी महत्व डिग, टेक्नोराटी जैसा हो जाये।
तो पसंद आने वाली पोस्टों में आप चाहे टिप्पणी करें या न करें पर पसंद बटन पर चटका लगाना कभी भी न भूलें। ऐसा करके आप ब्लोगर को प्रोत्साहन तो देंगे ही साथ ही साथ हिन्दी ब्लोग्स को आगे बढ़ाने में भी आपका योगदान हो जायेगा। पर चटका उसी पोस्ट के लिये लगायें जो आप को पसंद हो, जो पोस्ट आपको पसंद नहीं हैं उस पर चटका लगाना पसंद बटन का दुरुपयोग होगा।
चलते-चलते
आज के हमारे इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर कैसा लगा? यही ना कि हमने मांगने वाला स्टाइल अपनाया आज। और आप तो जानते ही हैं
रहिमन वे नर मर चुके जो कछु मांगन जाहि।
उन ते पहिले वे मुए जिन मुख निकसत नाहि॥
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
राम की वापसी और विलाप - अरण्यकाण्ड (15)
Thursday, November 12, 2009
विचित्र वस्तु है आपका मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजा
आपका मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजा वास्तव में विचित्र वस्तु है। बड़े कमाल का बनाया है ईश्वर ने इसको।
अब देखिये ना, आपको कहीं जाना है इसलिये आप अल्मारी खोलते हैं और कपड़ों के अंबार में से झट से एक जोड़ कपड़ा निकाल लेते हैं तैयार होने के लिये। एक पल भी तो नहीं लगा आपको। पर इस एक पल से भी कम समय में आपके दिमाग ने क्या किया? उसने सोचा कि आपको कहाँ जाना है? उस स्थान में कौन लोग होंगे, पुरुष ही पुरुष होंगे या महिलाएँ ही महिलाएँ होंगी या फिर पुरुष और महिलाएँ दोनों ही होंगे? उन लोगों को मेरा कौन सा जोड़ा अधिक प्रभावित करेगा? जहाँ जाना है वहाँ किस रंग के कपड़े फबेंगे? कहने का लब्बोलुआस यह कि जहाँ जाना है वहाँ किस प्रकार के कपड़े में जाना उपयुक्त होगा? ये सब बातें सोच कर और उचित निर्णय ले लेने के बाद आपका दिमाग आपके हाथ को आदेश देता है कि फलाँ जोड़ा निकाल ले। जरा याद करें कि जब आप किसी शादी-ब्याह या बारात में जाते हैं तो आपका हाथ भड़कीले प्रकार का वस्त्र निकालता है और यदि अपने बड़े साहब के पास किसी काम से जाना होता है तो आपका हाथ शोबर टाइप का जोड़ा निकालता है।
ऐसा भी होता है कि राह में चलते-चलते आपको साँप दिख जाता है और आप फौरन रुक जाते हैं? आप तो फौरन रुक गये किन्तु इस फौरन समय में आपकी खोपड़ी ने क्या किया? उसने आपकी आँखों से सन्देश प्राप्त किया क्योंकि आपकी आँखें देख सकती हैं किन्तु पहचान नहीं सकतीं कि क्या चीज है इसलिये जो भी देखा है उसे सन्देश के रूप में आपकी खोपड़ी को भेज देती हैं। तो आपकी खोपड़ी ने आँखों से प्राप्त सन्देश पर विचार किया और निर्णय लिया कि खतरा है। खतरे का आभास होते ही आपके पैरों को सन्देश भेजा कि रुक जाओ।
विचित्र है आपका मस्तिष्क! आप अपने मित्रों से वार्तालाप कर रहे हैं। आप कुछ बोल रहे हैं और कोई मक्खी आकर बैठ जाती है आपके नाक पर। पर आप मक्खी के इस दुस्साहस को भला कैसे सहन कर सकते हैं? आप तो "नाक पर मक्खी नहीं बैठने देने" वाले व्यक्ति हैं! एक तरफ आप मक्खी के दुस्साहस को सहन नहीं करना चाहते तो दूसरी ओर बोलते-बोलते रुकना भी नहीं चाहते। और आपका मस्तिष्क आपकी दोनों इच्छाएँ पूरी कर देता है। आपकी जुबान तो बोलते ही रहती है और हाथ मक्खी को उड़ा देती है। आप दो कार्य एक साथ कर डालते हैं। कैसे? आपका चेतन मस्तिष्क (conscious) आपकी जुबान को बोलने का सन्देश भेजते ही रहती है और आपका अचेतन मस्तिष्क (semi-conscious) आपके हाथ को सन्देश भेज देता है मक्खी उड़ाने के लिये।
अक्सर आपका भेजा खराब भी होता है और आप बरस पड़ते हैं किसी पर। किसी ने आपसे कुछ कहा जिसे आपके कानों ने सुना। कान नहीं जानता कि क्या कहा गया है इसलिये वह सन्देश के रूप में कही गई बात को आपके भेजे तक भेज देता है। भेजा उस सन्देश को समझकर जान जाता है कि आपको कुछ अपशब्द कहा गया है। बस फिर क्या है? तत्काल आपका भेजा खराब हो जाता है। वह आपकी जुबान को सन्देश भेज देता है कि तू भी सामने वाले पर बरस। और अगर भेजा ज्यादा ही खराब हो गया तो आपके हाथों और लातों को सन्देश भेज देता है कि ....
अभी तक तो हम आपके मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजे की बात कर रहे थे। चलिये अब कुछ हमारे दिमाग की भी बात कर लेते हैं। हमारा दिमाग तो सिड़ी दिमाग है। हर विषय को जान लेना चाहता है पर एक भी विषय को सही सही नहीं जान पाता। वो कहते हैं ना "जैक ऑफ ऑल एण्ड मास्टर ऑफ नन"! कुछ ऐसा ही है हमारा दिमाग भी। हमें गुस्सा आता है अपनी श्रीमती जी पर और हमारा दिमाग गुस्सा निकालवाता है खुद अपने पर। हमें खाना खाना बंद करवा देता है। अब हमारे न खाने से भला श्रीमती जी को क्या फर्क पड़ता है? नहीं जी, ये हमारा दिमाग बहुत शातिर है, जानता है कि मुझे कुछ तकलीफ होगी तो मेरी श्रीमती जी दुःखी होंगी। चालाकी के साथ अपना गुस्सा उतार लेता है घरवाली को दुःख देकर।
तो कहाँ तक बात करें भाई इस मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजे की! और अधिक झेलवायेंगे आपको तो आप हमारे ब्लॉग को बंद कर के भाग जायेंगे। इसलिये बस इतना ही।
चलते-चलते
भेजे के उस दुकान में हर रेंज का भेजा उपलब्ध था। सभी के रेट भी लिखे हुए थे। अलग-अलग भेजों के रेट डेढ़ सौ रुपये से ढाई सौ रुपये प्रति किलो तक अलग-अलग थे। पर एक भेजे का रेट लिखा था एक लाख रुपये प्रति किलो।
हमने दुकानदार से पूछ लिया, "इसका रेट इतना अधिक क्यों है?"
"अरे साहब! ये विवाहित पुरुषों का भेजा है, बड़ी मुश्किल से मिलता है। पति के जीवनकाल में ही पत्नियाँ उनका पूरा भेजा चाट चुकी होती हैं।"
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
अब देखिये ना, आपको कहीं जाना है इसलिये आप अल्मारी खोलते हैं और कपड़ों के अंबार में से झट से एक जोड़ कपड़ा निकाल लेते हैं तैयार होने के लिये। एक पल भी तो नहीं लगा आपको। पर इस एक पल से भी कम समय में आपके दिमाग ने क्या किया? उसने सोचा कि आपको कहाँ जाना है? उस स्थान में कौन लोग होंगे, पुरुष ही पुरुष होंगे या महिलाएँ ही महिलाएँ होंगी या फिर पुरुष और महिलाएँ दोनों ही होंगे? उन लोगों को मेरा कौन सा जोड़ा अधिक प्रभावित करेगा? जहाँ जाना है वहाँ किस रंग के कपड़े फबेंगे? कहने का लब्बोलुआस यह कि जहाँ जाना है वहाँ किस प्रकार के कपड़े में जाना उपयुक्त होगा? ये सब बातें सोच कर और उचित निर्णय ले लेने के बाद आपका दिमाग आपके हाथ को आदेश देता है कि फलाँ जोड़ा निकाल ले। जरा याद करें कि जब आप किसी शादी-ब्याह या बारात में जाते हैं तो आपका हाथ भड़कीले प्रकार का वस्त्र निकालता है और यदि अपने बड़े साहब के पास किसी काम से जाना होता है तो आपका हाथ शोबर टाइप का जोड़ा निकालता है।
ऐसा भी होता है कि राह में चलते-चलते आपको साँप दिख जाता है और आप फौरन रुक जाते हैं? आप तो फौरन रुक गये किन्तु इस फौरन समय में आपकी खोपड़ी ने क्या किया? उसने आपकी आँखों से सन्देश प्राप्त किया क्योंकि आपकी आँखें देख सकती हैं किन्तु पहचान नहीं सकतीं कि क्या चीज है इसलिये जो भी देखा है उसे सन्देश के रूप में आपकी खोपड़ी को भेज देती हैं। तो आपकी खोपड़ी ने आँखों से प्राप्त सन्देश पर विचार किया और निर्णय लिया कि खतरा है। खतरे का आभास होते ही आपके पैरों को सन्देश भेजा कि रुक जाओ।
विचित्र है आपका मस्तिष्क! आप अपने मित्रों से वार्तालाप कर रहे हैं। आप कुछ बोल रहे हैं और कोई मक्खी आकर बैठ जाती है आपके नाक पर। पर आप मक्खी के इस दुस्साहस को भला कैसे सहन कर सकते हैं? आप तो "नाक पर मक्खी नहीं बैठने देने" वाले व्यक्ति हैं! एक तरफ आप मक्खी के दुस्साहस को सहन नहीं करना चाहते तो दूसरी ओर बोलते-बोलते रुकना भी नहीं चाहते। और आपका मस्तिष्क आपकी दोनों इच्छाएँ पूरी कर देता है। आपकी जुबान तो बोलते ही रहती है और हाथ मक्खी को उड़ा देती है। आप दो कार्य एक साथ कर डालते हैं। कैसे? आपका चेतन मस्तिष्क (conscious) आपकी जुबान को बोलने का सन्देश भेजते ही रहती है और आपका अचेतन मस्तिष्क (semi-conscious) आपके हाथ को सन्देश भेज देता है मक्खी उड़ाने के लिये।
अक्सर आपका भेजा खराब भी होता है और आप बरस पड़ते हैं किसी पर। किसी ने आपसे कुछ कहा जिसे आपके कानों ने सुना। कान नहीं जानता कि क्या कहा गया है इसलिये वह सन्देश के रूप में कही गई बात को आपके भेजे तक भेज देता है। भेजा उस सन्देश को समझकर जान जाता है कि आपको कुछ अपशब्द कहा गया है। बस फिर क्या है? तत्काल आपका भेजा खराब हो जाता है। वह आपकी जुबान को सन्देश भेज देता है कि तू भी सामने वाले पर बरस। और अगर भेजा ज्यादा ही खराब हो गया तो आपके हाथों और लातों को सन्देश भेज देता है कि ....
अभी तक तो हम आपके मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजे की बात कर रहे थे। चलिये अब कुछ हमारे दिमाग की भी बात कर लेते हैं। हमारा दिमाग तो सिड़ी दिमाग है। हर विषय को जान लेना चाहता है पर एक भी विषय को सही सही नहीं जान पाता। वो कहते हैं ना "जैक ऑफ ऑल एण्ड मास्टर ऑफ नन"! कुछ ऐसा ही है हमारा दिमाग भी। हमें गुस्सा आता है अपनी श्रीमती जी पर और हमारा दिमाग गुस्सा निकालवाता है खुद अपने पर। हमें खाना खाना बंद करवा देता है। अब हमारे न खाने से भला श्रीमती जी को क्या फर्क पड़ता है? नहीं जी, ये हमारा दिमाग बहुत शातिर है, जानता है कि मुझे कुछ तकलीफ होगी तो मेरी श्रीमती जी दुःखी होंगी। चालाकी के साथ अपना गुस्सा उतार लेता है घरवाली को दुःख देकर।
तो कहाँ तक बात करें भाई इस मस्तिष्क याने कि दिमाग याने कि खोपड़ी याने कि भेजे की! और अधिक झेलवायेंगे आपको तो आप हमारे ब्लॉग को बंद कर के भाग जायेंगे। इसलिये बस इतना ही।
चलते-चलते
भेजे के उस दुकान में हर रेंज का भेजा उपलब्ध था। सभी के रेट भी लिखे हुए थे। अलग-अलग भेजों के रेट डेढ़ सौ रुपये से ढाई सौ रुपये प्रति किलो तक अलग-अलग थे। पर एक भेजे का रेट लिखा था एक लाख रुपये प्रति किलो।
हमने दुकानदार से पूछ लिया, "इसका रेट इतना अधिक क्यों है?"
"अरे साहब! ये विवाहित पुरुषों का भेजा है, बड़ी मुश्किल से मिलता है। पति के जीवनकाल में ही पत्नियाँ उनका पूरा भेजा चाट चुकी होती हैं।"
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
रावण-सीता संवाद - अरण्यकाण्ड (14)
Wednesday, November 11, 2009
क्या वो भूत था या महज एक भ्रम? (अन्तिम भाग)
मेरे किस्से को सुनकर सुब्रमणियम साहब ने कहा, "अवधिया! आई हैव नॉट टोल्ड यू मॉय एक्पीरियंस, आय हैव गॉन थ्रू सम पीक्युलियर फीलिंग्स इन दिस गेस्ट हाउस। मैं सोचा कि तुम डर जायेगा इसलिये नहीं बताया पर अब बताता है। द व्हेरी फर्स्ट डे एट दिस गेस्ट हाउस ........ बैंक से आने के बाद तुम घूमने चला गया और मैं अपना पैग बनाने लगा। पैग डालते समय मुझे ऐसा लगा कि किसी ने दरवाजे को धक्का दिया है। मैं दरवाजे को देखा तो वो हल्का सा हिल भी रहा था। मैं सोचा कि कोई चोर तो नहीं आया इसलिये पैग छोड़कर मैं गलियारे में आया। वहाँ कोई नहीं था। जल्दी से जाकर मैं सीढ़ी को देखा। उधर भी कोई नहीं था (गोलाकार होने के कारण पूरी सीढ़ी ऊपर से नीचे तक दिखती थी)। फिर मैं बाथरूम को भी देखा वहाँ भी कोई नहीं था।
"मैं सोचा मेरा कनफ्युजन था। वापस आकर मैं फिर पैग बनाया और पीने लगा। थोड़ी देर में फिर किसी ने दरवाजे को हल्का धक्का दिया। इस बार भी मैं पूरा चेक किया। उस दिन के बाद ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ। मैं साफ फील किया कि किसी ने दरवाजे को पुश किया है। एक दिन मैं कनफ्युज हो सकता था पर रोज रोज नहीं हो सकता।"
इतना बताकर वे मुझसे बोले, "देखो अवधिया, मेरा एज फिफ्टी टू इयर्स हो रहा है बट मैं कभी भूत नहीं देखा। अगर यहाँ कोई भूत है तो मैं देखना चाहता हूँ। वो इसलिये कि यहाँ जो भी है वो हार्मफुल नहीं है। वो हार्मफुल होता तो अब तक हमको बहुत हरास किया होता। उसने ऐसा नहीं किया। अब तुम बोलेगा कि आप यहाँ रह कर देखो साहब तो मैं ऐसा नहीं कर सकता। तुम साथ देगा तो मैं तुम्हारे हिम्मत से और तुम मेरे हिम्मत से दोनों रह सकता है। बोलो यहाँ रहना है या कही और शिफ्ट करना है?"
मैंने सोचा जब ये बावन साल का होकर यहाँ रहने की हिम्मत कर सकते हैं तो मैं तीस साल का होने पर भी क्यों नहीं कर सकता? मैंने वहाँ रहने के लिये अपनी मंजूरी दे दी।
मेरी मंजूरी पाकर उन्होंने कहा, "पर तुम इस बात को इधर के किसी भी स्टाफ को बिल्कुल मत बताना, नहीं तो वो लोग जबरन हमें यहाँ से शिफ्ट कर देंगे। हम लोगों को यहाँ तीन हफ्ते रहना है जिसमें से पाँच दिन हो चुके हैं। वो लोग जान गये तो हमें यहाँ नहीं रहने देंगे।"
मैंने उनकी यह शर्त भी मान ली।
हम दोनों वहीं रहने लगे। वह कमरा हॉलनुमा था और हम दोनों के पलंग के बाद भी कमरे बहुत बड़ा हिस्सा खाली था। सुब्रमणियम साहब मस्त जीव थे। पीने खाने के बाद उन्हें तत्काल नींद आ जाती थी और वे खर्राटे भरने लगते थे। मैं पुस्तक पढ़ते रहता था रात में। पर लाइट बंद करने के बाद महसूस होता था कि कोई कमरे के खाली हिस्से में परेशान सा इधर से उधर और उधर से इधर चहलकदमी कर रहा है। कदमों की बिल्कुल स्पष्ट आवाज सुनाई देता था मुझे। सुबह चार बजे ही सुब्रमणियम साहब की नींद खुल जाती थी पर लाइट गोल रहने के कारण कमरे में वही घुप्प अंधेरा रहता था और सुब्रमणियम साहब मुझे बताते थे कि वे भी उस चहलकदमी को सुबह का उजाला होने तक स्पष्ट अनुभव करते थे।
नियत समय में काम पूर्ण करने के लिये मैंने बैंक के एक टाइपिंग मशीन को भी वहीं मँगवा लिया और खिड़की के साथ लगी टेबल पर उसे लगवा दिया। कई बार टाइप करते करते खिड़की के पास से किसी के निकलने की सरसराहट भी महसूस किया था मैंने। दरवाजे को धक्का लगा भी मैंने कई बार महसूस किया।
एक दो दिन ही हमें कुछ भय लगा फिर हम अभ्यस्त से हो गये। मैं और सुब्रमणियम साहब अपने वार्तालाप में उस प्राणी को, यदि वहाँ कोई रहा हो तो, अपने मित्र के रूप में सम्बोधित करते थे। इस प्रकार से वहाँ रहने का अन्तिम दिन आ गया। आखरी दिन कुछ डिस्कस करने, और कर्ट्सी के नाते भी, शाखा प्रबंधक शर्मा जी भी हमारे गेस्ट हाउस में आ गये। सुब्रमणियम साहब ने उन्हें ड्रिंक आफर किया और वे भी तैयार हो गये। सुब्रमणियम साहब ने उन्हें अपनी कुर्सी दे दी बैठने के लिये और खुद बिस्तर पर बैठकर दोनों के लिये पैग बनाने लगे कि अचानक शर्मा साहब की नजरें दरवाजे के तरफ उठ गईं।
तपाक से सुब्रमणियम साहब बोल उठे, "मिस्टर शर्मा! व्हाट फॉर यू आर लुकिंग एट द डोर?"
शर्मा जी बोले, "सर, आय थिंक समबडी हैज पुश्ड द डोर।"
सुब्रमणियम साहब ने कहा, "आय जस्ट वान्टेड टू लिसन दिस फ्रॉम यू।"
इतना कह कर, क्योंकि अगले रोज हमें जलपाईगुड़ी से विदा लेना था, उन्होंने शर्मा साहब को पूरा किस्सा बता दिया। सुनकर शर्मा साहब आश्चर्यचकित रह गये। वे बोले, "सर, हमारे यहाँ बंगाल में भूतों के बहुत से किस्से सुने जाते हैं पर इस गेस्ट हाउस के विषय में कोई ऐसी वैसी बात मैंने कभी नहीं सुनी। वैसे पिछले तीन सालों से यहाँ कोई नहीं ठहरा है। शायद इसी बीच यहाँ किसी आत्मा का वास हो गया हो। आप लोगों ने इतने दिनों तक मुझे कुछ भी नहीं बताया। बताया होता तो मैं आप लोगों को यहाँ किसी भी हालत में रहने नहीं देता। आप लोग आज मेरे घर चल कर रहें।"
उन्होंने बहुत जोर दिया पर हम नहीं माने। हम लोगों ने उन्हें सन्तुष्ट कर दिया कि आज तो रात भर हमें काम करना है और गैस बत्ती का भी प्रबन्ध कर लिया है। गैसबत्ती तो रात भर जलेगी। वैसे भी इतने दिनों तक हमारा कुछ भी अहित नहीं हुआ तो अब क्या होगा! चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।
दूसरे दिन हमने जलपाईगुड़ी छोड़ दिया और हमारा वह प्यारा दोस्त वहाँ अकेले रह गया।
आज भी मैं सोचता हूँ कि वो कोई भूत था या महज वहम था? और यदि वहम था तो तीन तीन व्यक्तियों, याने कि मैं, सुब्रमणियम साहब और शर्मा जी, को कैसे हुआ?
चलते-चलते
ट्रेन के उस कूपे में उसके साथ एक और व्यक्ति व्यक्ति बैठा था।
उसने अपने उस अपरिचित साथी से पूछ लिया, "क्या आप भूत के होने पर विश्वास करते हैं?"
उसने उत्तर दिया, "हाँ!"
और उत्तर देते ही वह गायब हो गया।
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
"मैं सोचा मेरा कनफ्युजन था। वापस आकर मैं फिर पैग बनाया और पीने लगा। थोड़ी देर में फिर किसी ने दरवाजे को हल्का धक्का दिया। इस बार भी मैं पूरा चेक किया। उस दिन के बाद ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ। मैं साफ फील किया कि किसी ने दरवाजे को पुश किया है। एक दिन मैं कनफ्युज हो सकता था पर रोज रोज नहीं हो सकता।"
इतना बताकर वे मुझसे बोले, "देखो अवधिया, मेरा एज फिफ्टी टू इयर्स हो रहा है बट मैं कभी भूत नहीं देखा। अगर यहाँ कोई भूत है तो मैं देखना चाहता हूँ। वो इसलिये कि यहाँ जो भी है वो हार्मफुल नहीं है। वो हार्मफुल होता तो अब तक हमको बहुत हरास किया होता। उसने ऐसा नहीं किया। अब तुम बोलेगा कि आप यहाँ रह कर देखो साहब तो मैं ऐसा नहीं कर सकता। तुम साथ देगा तो मैं तुम्हारे हिम्मत से और तुम मेरे हिम्मत से दोनों रह सकता है। बोलो यहाँ रहना है या कही और शिफ्ट करना है?"
मैंने सोचा जब ये बावन साल का होकर यहाँ रहने की हिम्मत कर सकते हैं तो मैं तीस साल का होने पर भी क्यों नहीं कर सकता? मैंने वहाँ रहने के लिये अपनी मंजूरी दे दी।
मेरी मंजूरी पाकर उन्होंने कहा, "पर तुम इस बात को इधर के किसी भी स्टाफ को बिल्कुल मत बताना, नहीं तो वो लोग जबरन हमें यहाँ से शिफ्ट कर देंगे। हम लोगों को यहाँ तीन हफ्ते रहना है जिसमें से पाँच दिन हो चुके हैं। वो लोग जान गये तो हमें यहाँ नहीं रहने देंगे।"
मैंने उनकी यह शर्त भी मान ली।
हम दोनों वहीं रहने लगे। वह कमरा हॉलनुमा था और हम दोनों के पलंग के बाद भी कमरे बहुत बड़ा हिस्सा खाली था। सुब्रमणियम साहब मस्त जीव थे। पीने खाने के बाद उन्हें तत्काल नींद आ जाती थी और वे खर्राटे भरने लगते थे। मैं पुस्तक पढ़ते रहता था रात में। पर लाइट बंद करने के बाद महसूस होता था कि कोई कमरे के खाली हिस्से में परेशान सा इधर से उधर और उधर से इधर चहलकदमी कर रहा है। कदमों की बिल्कुल स्पष्ट आवाज सुनाई देता था मुझे। सुबह चार बजे ही सुब्रमणियम साहब की नींद खुल जाती थी पर लाइट गोल रहने के कारण कमरे में वही घुप्प अंधेरा रहता था और सुब्रमणियम साहब मुझे बताते थे कि वे भी उस चहलकदमी को सुबह का उजाला होने तक स्पष्ट अनुभव करते थे।
नियत समय में काम पूर्ण करने के लिये मैंने बैंक के एक टाइपिंग मशीन को भी वहीं मँगवा लिया और खिड़की के साथ लगी टेबल पर उसे लगवा दिया। कई बार टाइप करते करते खिड़की के पास से किसी के निकलने की सरसराहट भी महसूस किया था मैंने। दरवाजे को धक्का लगा भी मैंने कई बार महसूस किया।
एक दो दिन ही हमें कुछ भय लगा फिर हम अभ्यस्त से हो गये। मैं और सुब्रमणियम साहब अपने वार्तालाप में उस प्राणी को, यदि वहाँ कोई रहा हो तो, अपने मित्र के रूप में सम्बोधित करते थे। इस प्रकार से वहाँ रहने का अन्तिम दिन आ गया। आखरी दिन कुछ डिस्कस करने, और कर्ट्सी के नाते भी, शाखा प्रबंधक शर्मा जी भी हमारे गेस्ट हाउस में आ गये। सुब्रमणियम साहब ने उन्हें ड्रिंक आफर किया और वे भी तैयार हो गये। सुब्रमणियम साहब ने उन्हें अपनी कुर्सी दे दी बैठने के लिये और खुद बिस्तर पर बैठकर दोनों के लिये पैग बनाने लगे कि अचानक शर्मा साहब की नजरें दरवाजे के तरफ उठ गईं।
तपाक से सुब्रमणियम साहब बोल उठे, "मिस्टर शर्मा! व्हाट फॉर यू आर लुकिंग एट द डोर?"
शर्मा जी बोले, "सर, आय थिंक समबडी हैज पुश्ड द डोर।"
सुब्रमणियम साहब ने कहा, "आय जस्ट वान्टेड टू लिसन दिस फ्रॉम यू।"
इतना कह कर, क्योंकि अगले रोज हमें जलपाईगुड़ी से विदा लेना था, उन्होंने शर्मा साहब को पूरा किस्सा बता दिया। सुनकर शर्मा साहब आश्चर्यचकित रह गये। वे बोले, "सर, हमारे यहाँ बंगाल में भूतों के बहुत से किस्से सुने जाते हैं पर इस गेस्ट हाउस के विषय में कोई ऐसी वैसी बात मैंने कभी नहीं सुनी। वैसे पिछले तीन सालों से यहाँ कोई नहीं ठहरा है। शायद इसी बीच यहाँ किसी आत्मा का वास हो गया हो। आप लोगों ने इतने दिनों तक मुझे कुछ भी नहीं बताया। बताया होता तो मैं आप लोगों को यहाँ किसी भी हालत में रहने नहीं देता। आप लोग आज मेरे घर चल कर रहें।"
उन्होंने बहुत जोर दिया पर हम नहीं माने। हम लोगों ने उन्हें सन्तुष्ट कर दिया कि आज तो रात भर हमें काम करना है और गैस बत्ती का भी प्रबन्ध कर लिया है। गैसबत्ती तो रात भर जलेगी। वैसे भी इतने दिनों तक हमारा कुछ भी अहित नहीं हुआ तो अब क्या होगा! चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है।
दूसरे दिन हमने जलपाईगुड़ी छोड़ दिया और हमारा वह प्यारा दोस्त वहाँ अकेले रह गया।
आज भी मैं सोचता हूँ कि वो कोई भूत था या महज वहम था? और यदि वहम था तो तीन तीन व्यक्तियों, याने कि मैं, सुब्रमणियम साहब और शर्मा जी, को कैसे हुआ?
चलते-चलते
ट्रेन के उस कूपे में उसके साथ एक और व्यक्ति व्यक्ति बैठा था।
उसने अपने उस अपरिचित साथी से पूछ लिया, "क्या आप भूत के होने पर विश्वास करते हैं?"
उसने उत्तर दिया, "हाँ!"
और उत्तर देते ही वह गायब हो गया।
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
जटायु वध - अरण्यकाण्ड (13)
Tuesday, November 10, 2009
क्या वो भूत था या महज एक भ्रम?
भूत होते हैं या नहीं यह एक विवादित विषय है। मैं स्वयं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिये सामान्यतः अलौकिक बातों पर विश्वास नहीं करता किन्तु कुछ घटनाएँ मेरे साथ ऐसी घटी हैं जो मुझे अलौकिक बातों के अस्तित्व पर विश्वास करने पर विवश कर देती है। आज एक ऐसा ही संस्मरण आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
बात दिसम्बर 1980 की है। मैं उन दिनों ऑडिट असिस्टेंट था और ऑडिट के उद्देश्य से अपने अधिकारी, सुब्रमणियम साहब, के साथ जलपाईगुड़ी पहुँचा। वहाँ के शाखा प्रबन्धक शर्मा जी अत्यन्त सज्जन व्यक्ति थे और हमारे रहने के लिये उन्होंने हमें दो गेस्ट हाउस दिखाये। पहला शहर में ही था और आधुनिक भी था। दूसरा गेस्ट हाउस एक बहुत पुराने चाय बगान का था जो शहर से रेल्वे स्टेशन जाने के रास्ते में कुछ सुनसान जगह में था। हमने अपने रहने के लिये दूसरे गेस्ट हाउस को को पसंद किया। वह अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ पुराना भवन था जिसकी पहली मंजिल में चाय बगान का ऑफिस था और दूसरी मंजिल में एक विशाल गेस्ट हाउस था। ऊपर जाने के लिये गोल चक्करदार सीढ़ियाँ थीं। सीढ़ियाँ खत्म होते ही एक ओर बहुत बड़ा बाथरूम था जिसमें पुराने जमाने का ही बाथटब और कमोड लगा था। दूसरी ओर हमारा गेस्ट हाउस था।
दिन भर हम बैंक में काम करते थे और शाम के बाद अपने गेस्ट हाउस में आ जाते थे। मैंने दो रात उस गेस्ट हाउस में बड़े मजे के साथ बिताया। तीसरे दिन सुब्रमणियम साहब को एक चाय बगान का इंस्पेक्शन करने जाना था जो कि जलपाईगुड़ी से लगभग डेढ़-दो सौ किलोमीटर दूर था। उन्होंने मुझसे कहा कि अवधिया, मैं ओल्ड आदमी है, आज जाकर आज ही वापस आयेगा तो बहुत एक्जर्शन होगा इसलिये मैं रात में वहीं रुक जायेगा और कल वापस आयेगा।
मैं शुरू से ही निशाचर टाइप का इंसान रहा हूँ याने कि रात में देर से सोने की आदत है मुझे, सोते-सोते लगभग एक डेढ़ बज ही जाते हैं। मैंने बैंक की लाइब्रेरी से "लोलिता" उपन्यास ईशु करा लिया था जिसे कि रात को सोने के पहले मैं पढ़ा करता था। उस रात भी मैं लगभग एक-सवा बजे तक पढ़ता रहा। फिर लाइट बुझाकर मच्छरदानी के भीतर घुस कर सोने का प्रयास करने लगा। कमरे में घुप्प अंधेरा था। एक दो मिनट बाद ही मुझे लगा कि सुब्रमनियम साहब के बेड, जो कि मेरे बेड के पास ही था और दोनों बेड के बीच एक टी टेबल रखा था, से खर्राटे लेने की आवाज आ रही है। उस समय मैं सोया नहीं था बल्कि सोने का प्रयास कर रहा था। मैं सोचने लगा कि यह आवाज कैसी है? आज तो सुब्रमणियम साहब भी नहीं हैं। फिर मैंने यह सोच कर स्वयं को तसल्ली दी कि अकेले होने के कारण मुझे कुछ भ्रम सा हो रहा है। उस समय मुझे भूत प्रेत आदि का कुछ गुमान भी नहीं था और मैं जरा भी भयभीत नहीं था।
मैं आँखें बन्द करके सोने का प्रयास करने लगा। किन्तु खर्राटे की आवाज थी कि लगातार चली आ रही थी। पाँचेक मिनट बीतने पर भी जब आवाज बन्द नहीं हुई तो बिस्तर से निकल कर मैंने लाइट जलाई। लाइट जलते ही झकाझक उजाला हो गया और खर्राटे की आवाज भी बंद हो गई। मैंने सुब्रमणियम साहब के बिस्तर का निरीक्षण किया और पाया कि न तो उस पर कोई सोया है और न ही किसी प्रकार की सिलवट आदि ही है। खिड़की दरवाजों को भी मैंने एक नजर देखा, वे भी भलीभाँति बन्द थे।
मुझे विश्वास हो गया कि खर्राटों की आवाज महज मेरा वहम था। लाइट बुझा कर फिर मैं अपने बिस्तर में घुस गया। फिर वही घुप्प अंधेरा। एकाध मिनट भी नहीं बीता था कि फिर खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई। मैंने सोचा कि यह मेरा वहम है, थोड़ी देर में मुझे नींद आ जायेगी। पर वह आवाज लगातार जारी थी। दसेक मिनट तक तो मैं सुनता रहा फिर मैं एक बार फिर बिस्तर से बाहर निकला और लाइट जलाया। इस बार भी उजाला होते ही आवाज बन्द हो गई किन्तु नीचे कुछ कुत्तों के एक साथ रोने की आवाज सुनाई देने लगी।
कुत्ते रोने की आवाजे आने से पहले मुझमें लेशमात्र का भी भय नहीं था किन्तु बचपन से सुनते आया था कि कुत्तों का रोना अशुभ होता है, उन्हें भूत या आत्माएँ दिखाई पड़ती हैं और परिणामस्वरूप वे रोने लगते हैं। यार दोस्त जब ऐसा कुछ जिक्र करते थे तो मैं उनकी हँसी उड़ाया करता था पर आज वे बातें ही मुझ पर कुछ कुछ असर दिखाने लगीं। रात के दो बज चुके थे। डर से थर थर काँप तो नहीं रहा था मैं पर कुछ कुछ भय का अनुभव जरूर कर रहा था।
पूरा इलाका सुनसान था। आस पास न कोई घर न दुकान। नीचे चाय बगान के आफिस में ताले बन्द। एक भी आदमी नहीं। हाँ भवन के आखरी छोर पर चौकीदार का कॉटेज जरूर था जहाँ वृद्धावस्था को प्राप्त करता एक चौकीदार रहता था। वही एक आदमी उपलब्ध हो सकता था उस समय। मैंने टार्च निकाला और उसके कॉटेज में जाने को उद्यत हुआ। किन्तु कमरे का दरवाजा पार करते ही मेरे पैर रुक गये। मैं सोचने लगा कि क्या दिखाउँगा मैं उस चौकीदार को? और यदि उसके आ जाने के बाद अंधेरा करने पर भी मान लो खर्राटों की आवाज नहीं सुनाई पड़ी तो? तब तो वह चौकीदार अवश्य ही मुझे बहुत बड़ा डरपोक समझेगा।
मैं फिर से कमरे में वापस आ गया। लाइट जलने दी और बिस्तर में घुस कर सोने का प्रयास करने लगा। पर मेरी नींद उड़ चुकी थी। वैसे भी सौ वाट के बल्ब की रोशनी में नींद आने से रही और अब लाइट बुझाने का साहस मैं कर नहीं पा रहा था। उन दिनों बंगाल में बिजली की बेहद शार्टेज चल रही थी। कब लाइट चली जायेगी यह कहा भी नहीं जा सकता था। अक्सर रात को एक-दो बजे लाइट चली जाती थी जो कि सुबह होने के बाद ही वापस आती थी। गनीमत यह रही कि उस रोज लाइट नहीं गई।
ले दे कर रात बीत गई। दूसरे दिन मैं तैयार होकर बैंक पहुँचा और अपने काम में लग गया। दोपहर तक सुब्रमणियम साहब भी वापस आ गये। मैं उहापोह में था कि कल के अपने अनुभव को किसी को, विशेष करके सुब्रमणियम साहब को, बताऊँ या न बताऊँ। पता नहीं क्या समझेंगे वे। इसी उहापोह में और काम करते-करते शाम हो गई। दिसम्बर का महीना होने के कारण दिन छोटा हो गया था और शाम साढ़े पाँच बजे ही अंधेरा घिर जाता था। हम साढ़े छः-सात बजे तक काम करते थे बैंक में। वापस गेस्ट हाऊस जाते तक भरपूर अंधेरा हो जाता था। मैंने सोच लिया कि कल के अपने अनुभव को कम से कम सुब्रमणियम साहब को तो बता ही देना चाहिये।
बैंक से निकल कर गेस्ट हाउस जाते समय रास्ते में मैंने उन्हे सारा किस्सा सुनाया। मेरे किस्से को सुनकर उन्होंने कहा कि अवधिया, आई हैव नॉट टोल्ड यू मॉय एक्पीरियंस, आय हैव गॉन थ्रू सम पीक्युलियर फीलिंग्स इन दिस गेस्ट हाउस। मैं सोचा कि तुम डर जायेगा इसलिये नहीं बताया पर अब बताता है। द व्हेरी फर्स्ट डे एट दिस गेस्ट हाउस ........
(शेष कल)
चलते-चलते
आज का चलते चलते भी इसी संस्मरण का ही एक हिस्सा है। घूमने के लिये जलपाईगुड़ी से हम दार्जिलिंग गये टैक्सी कार से। हम चार लोग थे - मैं, सुब्रमणियम साहब, बैंक के प्रबन्धक शर्मा जी और बैंक के एक फील्ड आफीसर साहब जिनका नाम याद नहीं आ पा रहा है। दार्जिलिंग में बेहर ठंड थी, दो दिन पहले ही स्नोफॉल हुआ था और हम ठिठुर रहे थे ठंड से। दो डबल रूम ले लिये हमने एक होटल में, एक मेरे तथा सुब्रमणियम साहब के लिये और दूसरा बैंक के आफीसर द्वय के लिये। उस होटल में कमरा गरम करने की सुविधा उपलब्ध नहीं थी अतः हमने रात में ओढ़ने के लिये अतिरिक्त कम्बलें और ले लीं।
दार्जिलिंग में घूम-घाम कर शाम को सात-साढ़े सात बजे हम अपने होटल पहुँचे। सुब्रमणियम साहब डेली ड्रिंक लेते थे इसलिये कमरे में पहुँचते ही ब्रांडी की बोतल खोल ली और पैग बनाने लगे। मैंने देखा वे दो पैग बना रहे हैं। उन दिनों मैं ड्रिंक नहीं लिया करता था (ऐसा भी नहीं था कि बिल्कुल ही दूध का धुला था मैं, यारी दोस्ती में दो-चार बार बीयर का स्वाद चख चुका था)।
सुब्रमणियम साहब को दो पैग बनाते देख कर मैंने पूछा, "ये आप दूसरा पैग किसके लिये बना रहे हैं?"
सहजता के साथ वे बोले, "तुम्हारे लिये।"
"आप तो जानते हैं कि मैं ड्रिंक नहीं लेता।"
"तो ठीक है मत पीना! पर मेरे को अपने घर का पता लिख कर दे दो़"
"वो क्यों?"
"अरे भाई, कल मुझे तुम्हारे पिता को टेलीग्राम करना पड़ेगा ना कि यहाँ आकर अपने बेटे की अकड़ी हुई लाश ले जाओ।"
मेरे लाख कहने के बाद भी वे माने ही नहीं। क्या करें साहब उस रोज हमें दो पैग ब्रांडी पीनी ही पड़ी।
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
बात दिसम्बर 1980 की है। मैं उन दिनों ऑडिट असिस्टेंट था और ऑडिट के उद्देश्य से अपने अधिकारी, सुब्रमणियम साहब, के साथ जलपाईगुड़ी पहुँचा। वहाँ के शाखा प्रबन्धक शर्मा जी अत्यन्त सज्जन व्यक्ति थे और हमारे रहने के लिये उन्होंने हमें दो गेस्ट हाउस दिखाये। पहला शहर में ही था और आधुनिक भी था। दूसरा गेस्ट हाउस एक बहुत पुराने चाय बगान का था जो शहर से रेल्वे स्टेशन जाने के रास्ते में कुछ सुनसान जगह में था। हमने अपने रहने के लिये दूसरे गेस्ट हाउस को को पसंद किया। वह अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ पुराना भवन था जिसकी पहली मंजिल में चाय बगान का ऑफिस था और दूसरी मंजिल में एक विशाल गेस्ट हाउस था। ऊपर जाने के लिये गोल चक्करदार सीढ़ियाँ थीं। सीढ़ियाँ खत्म होते ही एक ओर बहुत बड़ा बाथरूम था जिसमें पुराने जमाने का ही बाथटब और कमोड लगा था। दूसरी ओर हमारा गेस्ट हाउस था।
दिन भर हम बैंक में काम करते थे और शाम के बाद अपने गेस्ट हाउस में आ जाते थे। मैंने दो रात उस गेस्ट हाउस में बड़े मजे के साथ बिताया। तीसरे दिन सुब्रमणियम साहब को एक चाय बगान का इंस्पेक्शन करने जाना था जो कि जलपाईगुड़ी से लगभग डेढ़-दो सौ किलोमीटर दूर था। उन्होंने मुझसे कहा कि अवधिया, मैं ओल्ड आदमी है, आज जाकर आज ही वापस आयेगा तो बहुत एक्जर्शन होगा इसलिये मैं रात में वहीं रुक जायेगा और कल वापस आयेगा।
मैं शुरू से ही निशाचर टाइप का इंसान रहा हूँ याने कि रात में देर से सोने की आदत है मुझे, सोते-सोते लगभग एक डेढ़ बज ही जाते हैं। मैंने बैंक की लाइब्रेरी से "लोलिता" उपन्यास ईशु करा लिया था जिसे कि रात को सोने के पहले मैं पढ़ा करता था। उस रात भी मैं लगभग एक-सवा बजे तक पढ़ता रहा। फिर लाइट बुझाकर मच्छरदानी के भीतर घुस कर सोने का प्रयास करने लगा। कमरे में घुप्प अंधेरा था। एक दो मिनट बाद ही मुझे लगा कि सुब्रमनियम साहब के बेड, जो कि मेरे बेड के पास ही था और दोनों बेड के बीच एक टी टेबल रखा था, से खर्राटे लेने की आवाज आ रही है। उस समय मैं सोया नहीं था बल्कि सोने का प्रयास कर रहा था। मैं सोचने लगा कि यह आवाज कैसी है? आज तो सुब्रमणियम साहब भी नहीं हैं। फिर मैंने यह सोच कर स्वयं को तसल्ली दी कि अकेले होने के कारण मुझे कुछ भ्रम सा हो रहा है। उस समय मुझे भूत प्रेत आदि का कुछ गुमान भी नहीं था और मैं जरा भी भयभीत नहीं था।
मैं आँखें बन्द करके सोने का प्रयास करने लगा। किन्तु खर्राटे की आवाज थी कि लगातार चली आ रही थी। पाँचेक मिनट बीतने पर भी जब आवाज बन्द नहीं हुई तो बिस्तर से निकल कर मैंने लाइट जलाई। लाइट जलते ही झकाझक उजाला हो गया और खर्राटे की आवाज भी बंद हो गई। मैंने सुब्रमणियम साहब के बिस्तर का निरीक्षण किया और पाया कि न तो उस पर कोई सोया है और न ही किसी प्रकार की सिलवट आदि ही है। खिड़की दरवाजों को भी मैंने एक नजर देखा, वे भी भलीभाँति बन्द थे।
मुझे विश्वास हो गया कि खर्राटों की आवाज महज मेरा वहम था। लाइट बुझा कर फिर मैं अपने बिस्तर में घुस गया। फिर वही घुप्प अंधेरा। एकाध मिनट भी नहीं बीता था कि फिर खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई। मैंने सोचा कि यह मेरा वहम है, थोड़ी देर में मुझे नींद आ जायेगी। पर वह आवाज लगातार जारी थी। दसेक मिनट तक तो मैं सुनता रहा फिर मैं एक बार फिर बिस्तर से बाहर निकला और लाइट जलाया। इस बार भी उजाला होते ही आवाज बन्द हो गई किन्तु नीचे कुछ कुत्तों के एक साथ रोने की आवाज सुनाई देने लगी।
कुत्ते रोने की आवाजे आने से पहले मुझमें लेशमात्र का भी भय नहीं था किन्तु बचपन से सुनते आया था कि कुत्तों का रोना अशुभ होता है, उन्हें भूत या आत्माएँ दिखाई पड़ती हैं और परिणामस्वरूप वे रोने लगते हैं। यार दोस्त जब ऐसा कुछ जिक्र करते थे तो मैं उनकी हँसी उड़ाया करता था पर आज वे बातें ही मुझ पर कुछ कुछ असर दिखाने लगीं। रात के दो बज चुके थे। डर से थर थर काँप तो नहीं रहा था मैं पर कुछ कुछ भय का अनुभव जरूर कर रहा था।
पूरा इलाका सुनसान था। आस पास न कोई घर न दुकान। नीचे चाय बगान के आफिस में ताले बन्द। एक भी आदमी नहीं। हाँ भवन के आखरी छोर पर चौकीदार का कॉटेज जरूर था जहाँ वृद्धावस्था को प्राप्त करता एक चौकीदार रहता था। वही एक आदमी उपलब्ध हो सकता था उस समय। मैंने टार्च निकाला और उसके कॉटेज में जाने को उद्यत हुआ। किन्तु कमरे का दरवाजा पार करते ही मेरे पैर रुक गये। मैं सोचने लगा कि क्या दिखाउँगा मैं उस चौकीदार को? और यदि उसके आ जाने के बाद अंधेरा करने पर भी मान लो खर्राटों की आवाज नहीं सुनाई पड़ी तो? तब तो वह चौकीदार अवश्य ही मुझे बहुत बड़ा डरपोक समझेगा।
मैं फिर से कमरे में वापस आ गया। लाइट जलने दी और बिस्तर में घुस कर सोने का प्रयास करने लगा। पर मेरी नींद उड़ चुकी थी। वैसे भी सौ वाट के बल्ब की रोशनी में नींद आने से रही और अब लाइट बुझाने का साहस मैं कर नहीं पा रहा था। उन दिनों बंगाल में बिजली की बेहद शार्टेज चल रही थी। कब लाइट चली जायेगी यह कहा भी नहीं जा सकता था। अक्सर रात को एक-दो बजे लाइट चली जाती थी जो कि सुबह होने के बाद ही वापस आती थी। गनीमत यह रही कि उस रोज लाइट नहीं गई।
ले दे कर रात बीत गई। दूसरे दिन मैं तैयार होकर बैंक पहुँचा और अपने काम में लग गया। दोपहर तक सुब्रमणियम साहब भी वापस आ गये। मैं उहापोह में था कि कल के अपने अनुभव को किसी को, विशेष करके सुब्रमणियम साहब को, बताऊँ या न बताऊँ। पता नहीं क्या समझेंगे वे। इसी उहापोह में और काम करते-करते शाम हो गई। दिसम्बर का महीना होने के कारण दिन छोटा हो गया था और शाम साढ़े पाँच बजे ही अंधेरा घिर जाता था। हम साढ़े छः-सात बजे तक काम करते थे बैंक में। वापस गेस्ट हाऊस जाते तक भरपूर अंधेरा हो जाता था। मैंने सोच लिया कि कल के अपने अनुभव को कम से कम सुब्रमणियम साहब को तो बता ही देना चाहिये।
बैंक से निकल कर गेस्ट हाउस जाते समय रास्ते में मैंने उन्हे सारा किस्सा सुनाया। मेरे किस्से को सुनकर उन्होंने कहा कि अवधिया, आई हैव नॉट टोल्ड यू मॉय एक्पीरियंस, आय हैव गॉन थ्रू सम पीक्युलियर फीलिंग्स इन दिस गेस्ट हाउस। मैं सोचा कि तुम डर जायेगा इसलिये नहीं बताया पर अब बताता है। द व्हेरी फर्स्ट डे एट दिस गेस्ट हाउस ........
(शेष कल)
चलते-चलते
आज का चलते चलते भी इसी संस्मरण का ही एक हिस्सा है। घूमने के लिये जलपाईगुड़ी से हम दार्जिलिंग गये टैक्सी कार से। हम चार लोग थे - मैं, सुब्रमणियम साहब, बैंक के प्रबन्धक शर्मा जी और बैंक के एक फील्ड आफीसर साहब जिनका नाम याद नहीं आ पा रहा है। दार्जिलिंग में बेहर ठंड थी, दो दिन पहले ही स्नोफॉल हुआ था और हम ठिठुर रहे थे ठंड से। दो डबल रूम ले लिये हमने एक होटल में, एक मेरे तथा सुब्रमणियम साहब के लिये और दूसरा बैंक के आफीसर द्वय के लिये। उस होटल में कमरा गरम करने की सुविधा उपलब्ध नहीं थी अतः हमने रात में ओढ़ने के लिये अतिरिक्त कम्बलें और ले लीं।
दार्जिलिंग में घूम-घाम कर शाम को सात-साढ़े सात बजे हम अपने होटल पहुँचे। सुब्रमणियम साहब डेली ड्रिंक लेते थे इसलिये कमरे में पहुँचते ही ब्रांडी की बोतल खोल ली और पैग बनाने लगे। मैंने देखा वे दो पैग बना रहे हैं। उन दिनों मैं ड्रिंक नहीं लिया करता था (ऐसा भी नहीं था कि बिल्कुल ही दूध का धुला था मैं, यारी दोस्ती में दो-चार बार बीयर का स्वाद चख चुका था)।
सुब्रमणियम साहब को दो पैग बनाते देख कर मैंने पूछा, "ये आप दूसरा पैग किसके लिये बना रहे हैं?"
सहजता के साथ वे बोले, "तुम्हारे लिये।"
"आप तो जानते हैं कि मैं ड्रिंक नहीं लेता।"
"तो ठीक है मत पीना! पर मेरे को अपने घर का पता लिख कर दे दो़"
"वो क्यों?"
"अरे भाई, कल मुझे तुम्हारे पिता को टेलीग्राम करना पड़ेगा ना कि यहाँ आकर अपने बेटे की अकड़ी हुई लाश ले जाओ।"
मेरे लाख कहने के बाद भी वे माने ही नहीं। क्या करें साहब उस रोज हमें दो पैग ब्रांडी पीनी ही पड़ी।
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"संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" का अगला पोस्टः
सीता हरण - अरण्यकाण्ड (12)
Monday, November 9, 2009
भूत-प्रेत - कुछ धारणाएँ, कुछ बातें
- लोग भूत-प्रेत के अस्तित्व में विश्वास करें या न करें किन्तु भूत-प्रेत के प्रति अपनी रुचि अवश्य ही प्रदर्शित करते हैं।
- यद्यपि भूत-प्रेतों के अधिकांश प्रमाण उपाख्यात्मक होते हैं फिर भी इतिहास गवाह है कि आरम्भ से ही लोगों का भूत-प्रेत में व्यापक रूप से विश्वास रहा है।
- भूत-प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
- कहा जाता है कि भूत-प्रेत मृतक व्यक्तियों के आभास होते हैं जो कि प्रायः मृतक व्यक्तियों के जैसे ही दृष्टिगत होते हैं।
- अनेकों देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में भूत-प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों के संस्कृतियों में भूत-प्रेतों से सम्बंधित लोककथाएँ तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं।
- एक व्यापक धारणा यह भी है कि भूत-प्रेतों के शरीर धुंधलके तथा वायु से बने होते हैं अर्थात् वे शरीर-विहीन होते हैं।
- अधिकतर संस्कृतियों के धार्मिक आख्यानों में भूत-प्रेतों का जिक्र पाया जाता है।
- हिन्दू धर्म में "प्रेत योनि", इस्लाम में "जिन्नात" आदि का वर्णन भूत-प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं।
- पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व आत्मा अथवा भूत-प्रेत के रूप में होता है।
- गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है।
- श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है।
- भूत-प्रेत प्रायः उन स्थानों में दृष्टिगत होते हैं जिन स्थानों से मृतक का अपने जीवनकाल में सम्बन्ध रहा होता है।
- मरे हुए जानवरों के भूत के विषय में भी जानकारी पाई जाती है।
- जहाँ भूत-प्रेतों का वास हो उन्हें भुतहा स्थान कहा जाता है।
- सन् 2005 के गेलुप पोल (Gallup poll) से ज्ञात होता है कि 32% अमरीकी भूत-प्रेतों में विश्वास रखते हैं।
- भूत-प्रेतों से सम्बंधित फिल्में तथा टी वी कार्यक्रम भी व्यापक रूप से लोकप्रिय रहे हैं।
चलते-चलते
एक आदमी अपनी पत्नी के कटु व्यवहार से इतना त्रस्त हुआ कि उसने शराब पीना शुरू कर दिया। पत्नी को चिन्ता हुई कि पति के शराब की आदत को कैसे छुड़ाया जाये। वह आदमी रात में जब शराब पीकर घर आता था तो रास्ते में श्मशान पड़ता था। एक रात्रि उसके आने के समय में उसकी पत्नी अपनी सूरत शकल बदल कर विकराल भूत के रूप में श्मशान के पास अंधेरे स्थान में बैठ गई। ज्योंही उसका पति वहाँ पर पहुँचा उसने भयंकर आवाज करते हुए उसे रोका। घोर अंधेरे और नशे में होने के कारण पति ने उसे भूत ही समझा।
भूतरूपी पत्नी ने भैरवनाद करते हुए उससे कहा, "कल से तूने यदि दारू पीना नहीं छोड़ा तो मैं तुम्हें खा जाउँगा।"
उस आवाज को सुनकर पहले तो पति भयभीत हुआ, फिर हिम्मत जुटाकर उसने कहा, "तू मुझे नहीं नहीं खा सकता।"
भयंकर आवाज, "क्यों नहीं खा सकता?"
"अबे, मुझे खा कर अपनी बहन को विधवा बनायेगा क्या?"
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स्वर्णमृग - अरण्यकाण्ड (11)
Sunday, November 8, 2009
गलत टिप्पणियाँ करने के लिये हम भी बना सकते हैं नकली नाम से प्रोफाइल ... पर हम इतने नीच नहीं हैं
कभी उम्दा सोच तो कभी महाशक्ति तो कभी निशाचर नाम से नकली प्रोफाइल बनाकर अपने ही ब्लॉग में अपने पक्ष वाली टिप्पणियाँ करना नीचता नहीं है तो और क्या है?
नकली प्रोफाइल बनाना कौन सा कठिन काम है? जिस किसी का नकली प्रोफाइल बनाना है उसके या उसके ब्लॉग के नाम के अंग्रेजी स्पेलिंग में थोड़ा सा परिवर्तन ही तो करना पड़ता है, और हो जाता है नया प्रोफाइल तैयार। हम भी बना सकते हैं नकली प्रोफाइल पर हम इतने नीच नहीं हैं।
कोई कितना गिर सकता है यह अब हिन्दी ब्लॉग जगत में स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होने लगा है। किन्तु यह भी सत्य है कि कौवे में चाहे कितना भी गुण हो पर रहता वह कौवा ही है। गंदे कुत्ते को कार में भी बिठा कर घुमाओ किन्तु गंदगी देखते ही वह कूदकर चला जायेगा।
लगता है गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद रामचरितमानस में ऐसे ही दुष्टों से बचने के लिये खल वन्दना किया होगा। उनके समय के दुष्टों में भी थोड़ी सी बुद्धि थी इसलिये उन्होंने खल वन्दना को समझ लिया था पर हमारे समय के खलों का ऊपर का कमरा तो बिल्कुल ही खाली है। दुष्ट के पास यदि थोड़ी सी भी बुद्धि हो तो उसके सही रास्ते में आ जाने की कुछ सम्भावना हो जाती है। पर कोई दुष्ट पूर्णतः मूर्ख भी हो तो फ़िर कहना ही क्या है! लगता है कि अब "करेला वो भी नीम चढ़ा" कहावत को बदल कर "एक तो दुष्ट और ऊपर से मूर्ख" करना होगा।
और अन्त में हम यह भी बता दें कि इस पोस्ट को पढ़कर बौखलाने वाले बौखला तो सकते हैं किन्तु बौखला कर यहाँ टिप्पणी करने का प्रयास न करें क्योंकि टिप्पणी मॉडरेशन चालू है और उनकी दाल नही गलने वाली है।
चलते-चलते
हमें खुशी है कि खान साहब बार-बार अपने को हिन्दू कह रहे हैं। इसी खुशी में हम उन्हें न्यौता देते हैं और निमन्त्रित करते हैं अपने साथ खाना खाने के लिये। यदि वे हमारे निमन्त्रण को स्वीकार करके हमारे साथ झटके का मटन खा लेंगे तो हम उन्हें हिन्दू मान लेंगे।
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नकली प्रोफाइल बनाना कौन सा कठिन काम है? जिस किसी का नकली प्रोफाइल बनाना है उसके या उसके ब्लॉग के नाम के अंग्रेजी स्पेलिंग में थोड़ा सा परिवर्तन ही तो करना पड़ता है, और हो जाता है नया प्रोफाइल तैयार। हम भी बना सकते हैं नकली प्रोफाइल पर हम इतने नीच नहीं हैं।
कोई कितना गिर सकता है यह अब हिन्दी ब्लॉग जगत में स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होने लगा है। किन्तु यह भी सत्य है कि कौवे में चाहे कितना भी गुण हो पर रहता वह कौवा ही है। गंदे कुत्ते को कार में भी बिठा कर घुमाओ किन्तु गंदगी देखते ही वह कूदकर चला जायेगा।
लगता है गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद रामचरितमानस में ऐसे ही दुष्टों से बचने के लिये खल वन्दना किया होगा। उनके समय के दुष्टों में भी थोड़ी सी बुद्धि थी इसलिये उन्होंने खल वन्दना को समझ लिया था पर हमारे समय के खलों का ऊपर का कमरा तो बिल्कुल ही खाली है। दुष्ट के पास यदि थोड़ी सी भी बुद्धि हो तो उसके सही रास्ते में आ जाने की कुछ सम्भावना हो जाती है। पर कोई दुष्ट पूर्णतः मूर्ख भी हो तो फ़िर कहना ही क्या है! लगता है कि अब "करेला वो भी नीम चढ़ा" कहावत को बदल कर "एक तो दुष्ट और ऊपर से मूर्ख" करना होगा।
और अन्त में हम यह भी बता दें कि इस पोस्ट को पढ़कर बौखलाने वाले बौखला तो सकते हैं किन्तु बौखला कर यहाँ टिप्पणी करने का प्रयास न करें क्योंकि टिप्पणी मॉडरेशन चालू है और उनकी दाल नही गलने वाली है।
चलते-चलते
हमें खुशी है कि खान साहब बार-बार अपने को हिन्दू कह रहे हैं। इसी खुशी में हम उन्हें न्यौता देते हैं और निमन्त्रित करते हैं अपने साथ खाना खाने के लिये। यदि वे हमारे निमन्त्रण को स्वीकार करके हमारे साथ झटके का मटन खा लेंगे तो हम उन्हें हिन्दू मान लेंगे।
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रावण को शूर्पणखा का धिक्कार - अरण्यकाण्ड (10)
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