Saturday, January 8, 2011

हर किसी को दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आता है

आप हों या मैं, प्रायः हम सब को लगता है कि सामने वाला बहुत मजे में है और मैं हूँ कि परेशानी पीछा ही नहीं छोड़ती। पुरानी कहावत भी है "हर किसी को दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आता है"।

क्यों लगता है ऐसा?

दफ्तर का बाबू सोचता है कि मैं तो मर-मर कर काम कर रहा हूँ पर इतनी कम तनख्वाह मिलती है कि घर चलाना मुश्किल है। और साहब को देखो कुछ ज्यादा काम करना ना धरना पर मोटी तनख्वाह ऐंठ लेते हैं।

घरवाली सोचती है कि मैंने कितना मेहनत कर के खाना बनाया और पतिदेव हैं कि सराहना करना तो दूर उल्टे हमेशा नुक्स निकालते रहते हैं मेरे बनाए खाने में।

नौकरी करने वाला सोचता है कि व्यापारी सुखी है, रोज ही पैसे आते हैं उसके पास, यहाँ तो महीने में एक बार वेतन मिलता है जो चार दिन में ही खर्च हो जाता है, उसके बाद फिर वही उधारी। दूसरी तरफ व्यापारी सोचता है कि दिन भर हाय-हाय करो पर बिक्री बढ़ती ही नहीं, नौकरी करने वाला कितना खुश है कि काम कुछ करे कि मत करे, महीना खत्म हुआ और तनख्वाह हाथ में हाजिर!

हर किसी को लगता है कि मैं परेशान हूँ और "वो" मजे में है।

क्यों लगता है ऐसा?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसके परिवार, समाज, कार्यालय आदि में अन्य लोगों से सम्बन्ध बनते तथा बिगड़ते ही रहते हैं। सम्बन्धों का मधुर या कटु होना मनुष्य के व्यवहार पर निर्भर होता है। व्यवहार एकतरफा नहीं बल्कि दोतरफा होता है। जब दो व्यक्ति के बीच सम्बन्ध बनता है तो उस सम्बन्ध पर दोनों ही व्यक्तियों का व्यवहार का प्रभाव पड़ता है।

मनुष्यों के आपसी व्यवहार की चार स्थितियाँ होती है -

मैं मजे में तू मजे में (I’m OK, You’re OK)
मैं मजे में तू परेशान (I’m OK, You’re not OK)
मैं परेशान तू मजे में (I’m not OK, You’re OK)
मैं परेशान तू परेशान (I’m not OK, You’re not OK)


उपरोक्त परिस्थितियाँ किन्हीं भी दो लोगों के बीच हो सकती हैं, चाहे वे बाप-बेटे हों, भाई-भाई हों, पति-पत्नी हों, अधिकारी-कर्मचारी हों, दुकानदार-ग्राहक हों, यानी कि उनके बीच चाहे जैसा भी आपसी सम्बन्ध हों।

यदि दो व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध है और वे दोनों ही एक दूसरे से सन्तुष्ट हैं तो यह सबसे अच्छी बात है। यही ऊपर बताई गई स्थितियों में पहली स्थिति है। किन्तु यह एक आदर्श स्थिति है जो किसी भी व्यक्ति के जीवन में शायद ही कभी आ पाती है। ज्यादातर होता यह है कि हम अपनी बला दूसरे सिर पर लाद कर खुश होते हैं और दूसरा परेशान रहता है या फिर इसके उल्टे दूसरा व्यक्ति अपने झंझटों को हम पर डाल कर हमें परेशान कर देता है और खुद निश्चिंत हो जाता है। याने कि उपरोक्त बताई गई स्थितियों में दूसरी और तीसरी स्थितियाँ ही हमारे जीवन में अक्सर आते रहती हैं। पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि लाख कोशिश करने के बावजूद हम और सामने वाला दोनों ही संतुष्ट नहीं हो पाते याने कि दोनों के दोनों परेशान। यह चौथी स्थिति है जो कि सबसे खतरनाक है।

मनुष्य के व्यवहार से सम्बन्धित इस विषय पर थॉमस एन्थॉनी हैरिस द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक I’m OK, You’re OK बहुत ही लोकप्रिय है। यह पुस्तक व्यवहार विश्लेषण (Transactional Analysis) पर आधारित है। श्री हैरिस की पुस्तक इस बात का विश्लेषण करती है कि उपरोक्त व्यवहारिक स्थितियाँ क्यों बनती हैं। उनका सिद्धांत बताता है कि मनुष्य निम्न तीन प्रकार से सोच-विचार किया करता है:

बचकाने ढंग से (Child): इस प्रकार के सोच-विचार पर मनुष्य की आन्तरिक भावनाएँ तथा कल्पनाएँ हावी रहती है (dominated by feelings)। आकाश में उड़ने की सोचना इसका एक उदाहरण है।

पालक के ढंग से (Parent): यह वो सोच-विचार होता है जिसे कि मनुष्य ने बचपने में अपने पालकों से, रीति-रिवाजों से, धर्म-सम्बन्धी प्रवचनों आदि से, सीखा होता है (unfiltered; taken as truths)। ‘बड़ों का आदर करना चाहिए’, ‘झूठ बोलना पाप है’, ‘दायें बायें देखकर सड़क पार करना’ आदि वाक्य बच्चों को कहना इस प्रकार के सोच के उदाहरण है।

वयस्क ढंग से (Adult): बुद्धिमत्तापूर्ण तथा तर्कसंगत सोच वयस्क ढंग का सोच होता है (reasoning, logical)। सोच-विचार करने का यही सबसे सही तरीका है।

हमारे सोच-विचार करने के ढंग के कारण ही हमारे व्यवहार बनते है। जब दो व्यक्ति वयस्क ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो ही दोनों की संतुष्टि प्रदान करने वाला व्यवहार होता है जो कि “मैं मजे में तू मजे में (I’m OK, You’re OK)” वाली स्थिति होती है। जब दो व्यक्तियों में से एक वयस्क ढंग से सोच-विचार करके तथा दूसरा बचकाने अथवा पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो “मैं मजे में तू परेशान (I’m OK, You’re not OK)” या “मैं परेशान तू मजे में (I’m not OK, You’re OK)” वाली स्थिति बनती है। किन्तु जब दो व्यक्ति बचकाने या पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो “मैं परेशान तू परेशान (I’m not OK, You’re not OK)” वाली स्थिति बनती है।

किन्तु स्मरण रहे कि यद्यपि वयस्क ढंग से सोच-विचार करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है किन्तु बचकाने ढंग से और पालक ढंग से सोच-विचार करने का भी अपना महत्व है। न्यूटन ने यदि बचकाने ढंग से न सोचा होता तो हमें गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त कभी भी न मिला होता। पालक ढंग से सोचना यदि समाप्त हो जाए तो समाज में भयंकर मनमानी होने लगे।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर व्यवहार करने से ही सभी की संतुष्टि हो सकती है।

Wednesday, January 5, 2011

ठण्ड से ठिठुराता हुआ शिशिर

प्रकृति ने भाँति-भाँति के पुष्पों से अपना श्रृंगार कर लिया है। भारतवर्ष के प्रहरी हिमालय के क्षेत्रों में गिरे हुए हिमकणों ने हिमशिला का रूप धारण कर लिया है। वायव्य (उत्तर-पश्चिम) दिशा से तीव्र गति से प्रवाहित होती हुई शीतल समीर की लहरों ने आर्यावर्त को अपने आगोश में समेट लिया है जिसके परिणामस्वरूप लोग ठण्ड से ठिठुरने लगे हैं। यद्यपि प्रचण्ड शीत ने भगवान भास्कर की किरणों की प्रखरता को विनष्टप्राय कर दिया है फिर भी सूर्य-किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। अग्नि की ऊष्मा आकर्षित करने लगी है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है और गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं।

उपरोक्त बातें इस बात का द्योतक हैं कि हेमन्त ऋतु के प्रस्थान के साथ ही शिशिर ऋतु का आगमन हो चुका है।

शिशिर ऋतु में फूलों के पौधे फूलों से लद जाते हैं। बाजार में नर्सरी से बिकने वाले पुष्पयुक्त पौधों की भरमार दिखाई देने लगती है। सब्जियों के पौधे तथा लताएँ अपने उत्पादन की चरम स्थिति में पहुँच जाती है। बाजार सब्जियों से पट-सा जाता है। भोजन अत्यन्त सुस्वादु लगने लगता है और रसना उसका रस लेते हुए अघाती तक नहीं है। जठराग्नि इतनी तेज हो जाती है कि कुछ भी और कितना भी खाओ, सब पच जाता है।

शिशिर ऋतु की अपनी अलग ही प्राकृतिक विलक्षणता है जिसका वर्णन 'सेनापति' अलौकिक रूप से इस प्रकार करते हैं

सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥


अर्थात - शिशिर ऋतु में सूर्य भी चन्द्रमा के स्वरूप वाला हो जाता है और धूप में चाँदनी का भास होने लगता है। 'सेनापति' कहते हैं कि इस ऋतु में शीतलता सौ गुनी बढ़ जाती है जिसके कारण दिन में भी रात्रि का आभास सा होने लगता है। सूर्य को चन्द्रमा समझकर चकवा पक्षी उसी की ओर देखने में मग्न हो जाता है और चकवी की छाती धड़कने लगती है। कुमुदनी भी सूर्य को चन्द्र समझकर मुदित हो खिल उठती है और कमल सूर्य के चन्द्र होने की शंका के कारण खिल नहीं पाता।

Monday, January 3, 2011

महमूद का अभियान

लेखकः आचार्य चतुरसेन

महमूद ने गुजरात पर चढ़ाई तो अवश्य की और सोमनाथ को भंग भी किया, गुजरात और सोमनाथ को लूटा भी, फिर भी उसने अपनी सत्ता हिन्द में स्थापित करने की चेष्टा नहीं की। उसने बहुत-से प्रदेशों को सर किया, फिर भी उनमें सूबाओं द्वारा अपनी सत्ता जमाने का उद्योग नहीं किया। वह एक साहसी योद्धा अवश्य था, परन्तु उसे साम्राज्य का शौक नहीं लगा, उसे तो सम्पत्ति की ही भूख थी। और यही कारण था कि सोमनाथ के पराभव होने के बाद गुजरात पर ऐसी भयानक विपत्ति आकने पर भी समग्र गुजरात के जीवन का प्रवाह महमूद की पीठ फेरते ही पूर्ववत चलता रहा। यह एक बड़े ही आश्चर्य का विषय था। वास्तव में वह युग ही दूसरा था। महमूद जिस ऊजड़ प्रदेश में रहता था, वहाँ अनन्त भू-विस्तार उसके अधीन था। इसलिए उसे धरती की भूख नहीं थी। अमर कीर्ति की लालसा थी - धन का लोभ था।

कुछ इतिहासकार महमूद को धर्मान्ध कहते हैं। और उनका कहना यह है कि उसने सोमनाथ की मूर्ति भंग करने के लिए ही यह जिहाद का झण्डा उठाया था, परन्तु कुछ इतिहासकार उसे लुटेरा कहते हैं। सम्भवतः दोनों ही बातों में सत्य हो, और इन्हीं भावनाओं से प्रेरित होकर महमूद ने ऐसे भारी-भारी अभियान किए हों। फिर भी इतना तो कहना ही पड़ेगा कि महमूद के दुस्साहस में उसकी प्रजा का पूरा-पूरा हाथ था। महमूद बादशा था, फिर भी प्रजा का सेवक था। यह जमाना वोटोक्रेसी अथवा मिलिटरी डिक्टेटरशिप का था। परन्तु राज्य का कारोबार डेमोक्रेसी पद्धति पर चलता था। आज डेमोक्रेसी का युग है, पर कार बार सब डिक्टेटरशिप की रीति पर चलते हैं। स्टालिन की सोवियत सरकार तो यह कहती रही कि स्वातन्त्र्य के लिए ही यह डिक्टेटरशिप है।

महमूद का यह युग गज़नी की ज़ाहोज़लाली, राजा और प्रजा के प्रेम, मुसलमानों की साहसप्रियता, भारतीय क्षत्रियों के अनैक्य तथा विजि प्रजा के साथ महमूद की उदारता और मूर्ति-पूजा का विकृत रूप प्रकट करता है।

ऐतिहासिक आधार पर नीचे लिखी बातें प्रमाणित हैं -
  1. ईस्वी सन् 1025 में महमूद ने आक्रमण किया।
  2. क्षत्रिय राजाओं के भय से उसे मरुस्थली की राह से आना पड़ा।
  3. रास्ते में गुर्जरेश्वर भीम के भय से उसे कच्छ के महारन से वापस जाना पड़ा।
  4. उसने सोमनाथ का मन्दिर तोड़ा।
  5. वह आया और चला गया। किन्तु गुजरात का राजकीय, सामाजिक और धार्मिक जीवन अभंग ही रहा। इस आक्रमण को इतना तुच्छ समझा गया कि हेमचन्द्र, सोमेश्वर और मेरुतुंग-जैसे इतिहासकारों ने उसकी कहीं चर्चा तक नहीं की।
  6. गुजरात की सत्ता और समृद्धि में कुछ भी कमी न आई, क्योंकि उसके सात ही वर्ष बाद 1032 में मन्त्रीश्वर विमलदेवशाह ने आबू पर आदिनाथ का मन्दिर बनवाया, जिसमें अठारह करोड़ रुपए खर्च हुए।
सोमनाथ पर महमूद का यह आक्रमण नेपोलियन के मास्को पर किए गए आक्रमण से बहुत समानता रखता है। दोनों आक्रमणकारी महत्वाकांक्षी थे - और दोनों ही परराज्य में जबरदस्ती घुसे। नेपोलियन प्रकृति के द्वारा अवरुद्ध होकर पीछे फिरा, किन्तु महमूद को शत्रुओं से भय खाकर प्रकृति का भोग बनना पड़ा। यद्यपि महमूद के इस आक्रमण का उल्लेख गुजरात के किसी भी इतिहासकार ने नहीं किया, परन्तु कुछ शिलालेख ऐसे मिलते हैं जिनमें महमूद के इस आक्रमण का उल्लेख है।

सोमनाथ के विनाश और जीर्णोद्धार का विवरण श्री अमृतलाल पाण्ड्या ने इस प्रकार दिया है -

विनाशः- जीर्णोद्धारः-
महमूद गज़नवी ईस्वी सन् 1024 भीमदेव प्रथम, ईस्वी सन् 1026

कुमारपाल, ईस्वी सन् 1196
अलफ खान, ईस्वी सन् 1297
अहमदशाह, ईस्वी सन् 1314
शम्सखान, ईस्वी सन् 1318
महीपाल, ईस्वी सन् 1325
मुजफ्फरखान दूसरा, ईस्वी सन् 1394
तातारखान, ईस्वी सन् 1520
औरंगजेब मारफत, ईस्वी सन् 1706
अहिल्याबाई होल्कर, ईस्वी सन् 1765

इस प्रकार एक के बाद दूसरा आक्रमणकारी आता गया जाता गया, और सोमनाथदेव अपना चोला बदलता गया। वे सब आक्रमणकारी आज नहीं रहे, परन्तु देवाधिदेव सोमनाथ आज भी उसी स्थान पर सुप्रतिष्ठित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आज के दिन सुपूजित इतना प्राचीन देवता कोई दूसरा नहीं है।

(सामग्री आचार्य चतुरसेन के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)