ब्लोग टिप्पणियों पर बहस न केवल हिन्दी ब्लोगर्स के बीच होता है बल्कि अंग्रेजी ब्लोगर्स भी इस विषय पर बहस करते हैं, उदाहरण के लिए आप इस अंग्रेजी पोस्ट को देख सकते हैं - A New Debate on Blog Comments is Brewing ।
अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लोगर सेठ गॉडिन के ब्लोग में टिप्पणी करने का प्रावधान बंद रहता है जबकि उनके पाठक उनसे टिप्पणी बॉक्स खोलने का आग्रह करते रहते हैं। अपने पोस्ट Why I don't have comments में वे बताते हैं कि उन्हें टिप्पणियाँ क्यों नहीं चाहिए। उनका कहना है कि टिप्पणियों में उठाई गई आपत्तियाँ उन्हें विवश करती हैं कि वे उन आपत्तियों का जवाब दें जिसके लिए उनके पास समय नहीं है। साथ ही वे समझते हैं कि टिप्पणियों से प्रभावित होकर कहीं वे आम पाठकों के लिए लिखना छोड़ कर सिर्फ टिप्पणीकर्ताओं के लिए ही लिखना न शुरू कर बैठें।
अंग्रेजी का मशहूर ब्लोग एनगाडगेट (Engadget) एक और उदाहरण है जिसने अपने पाठकों के लिए टिप्पणियों का विकल्प बंद कर दिया। अपने पोस्ट We're turning comments off for a bit में वे कहते हैं पिछले कुछ दिनों से उन्हें एक बहुत बड़ी तादाद में टिप्पणियाँ मिल रही हैं जिनमें से अधिकतर उनके पाठकों की टिप्पणियाँ न होकर अन्य लोगों की होती हैं और उनमें उनके लोकप्रिय ब्लोग के लिए विरोधपूर्ण स्वर होते हैं।
ब्लोग में टिप्पणियों का विकल्प रखने का मुख्य उद्देश्य है ब्लोगर और उसके पाठकों के बीच सीधे संवाद स्थापित करके ब्लोग को सामाजिक रूप से अधिक से अधिक शक्तिशाली तथा उपयोगी बनाना। पोस्ट के जरिए की गई ब्लोगर की अभिव्यक्ति के प्रतिक्रियास्वरूप पाठकों के मस्तिष्क में जो विचार आते हैं, उन विचारों से ब्लोगर को अवगत कराने की सुविधा पाठकों को उपलब्ध कराना ही टिप्पणी विकल्प का कार्य होता है।
किन्तु, जैसा कि आप जानते ही हैं कि, लोग किसी भी अच्छे उद्देश्य के लिए बनाई गई चीज का दुरुपयोग करने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। ब्लोग टिप्पणी विकल्प के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। टिप्पणियों के माध्यम से कोई किसी ब्लोगर से अपना विरोध जताता है तो कोई किसी ब्लोगर या स्वयं को लोकप्रिय बनाने के लिए टिप्पणियों का प्रयोग करता है।
कितना अच्छा हो यदि लोग टिप्पणियों का प्रयोग अपना तुच्छ स्वार्थ सिद्ध करने के लिए न करके केवल सामाजिक उन्नति के लिए ही करें।
Saturday, November 20, 2010
Friday, November 19, 2010
कुछ काम की बातें... यदि आपको पसंद आए तो
नीचे कुछ बातें, जिन्हें विभिन्न स्थानों से संकलित किया गया है, दी जा रही हैं जो शायद आपको पसंद आएँ -
दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार
दूसरों के प्रति स्वयं का व्यवहार
- दूसरों को अपमानित न करें और न ही कभी दूसरों की शिकायत करें। याद रखें कि अपमान के बदले में अपमान ही मिलता है।
- दूसरों में जो भी अच्छे गुण हैं उनकी ईमानदारी के साथ दिल खोल कर प्रशंसा करें। झूठी प्रशंसा कदापि न करें। यदि आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों की निन्दा कभी भी न करें। किसी की निन्दा करके आपको कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल सकता उल्ट आप उसकी नजरों गिर सकते हैं।
- अपने सद्भाव से सदैव दूसरों के मन में अपने प्रति तीव्र आकर्षण का भाव उत्पन्न करने का प्रयास करें।
- दूसरों में वास्तविक रुचि लें। यदि आप दूसरों में रुचि लेंगे तो दूसरे भी अवश्य ही आप में रुचि लेंगे। दूसरों को सच्ची मुस्कान प्रदान करें।
- प्रत्येक व्यक्ति के लिये उसका नाम सर्वाधिक मधुर, प्रिय और महत्वपूर्ण होता है। यदि आप दूसरों का नाम बढ़ायेंगे तो वे भी आपका नाम अवश्य ही बढ़ायेंगे। व्यर्थ किसी को बदनाम करने का प्रयास कदापि न करें।
- अच्छे श्रोता बनें और दूसरों को उनके विषय में बताने के लिये प्रोत्साहित करें।
- दूसरों की रुचि को महत्व दें तथा उनकी रुचि की बातें करें। सिर्फ अपनी रुचि की बातें करने का स्वभाव त्याग दें।
- दूसरों के महत्व को स्वीकारें तथा उनकी भावनाओं का आदर करें।
- अपने सद्विचारों से दूसरों को जीतें।
- तर्क का अंत नहीं होता। बहस करने की अपेक्षा बहस से बचना अधिक उपयुक्त है।
- दूसरों की राय को सम्मान दें। 'आप गलत हैं' कभी भी न कहें।
- यदि आप गलत हैं तो अपनी गलती को स्वीकारें।
- सदैव मित्रतापूर्ण तरीके से पेश आयें।
- दूसरों को अपनी बात रखने का पूर्ण अवसर दें।
- दूसरों को अनुभव करने दें कि आपकी नजर में उनकी बातों का पूरा-पूरा महत्व है।
- घटनाक्रम को दूसरों की दृष्टि से देखने का ईमानदारी से प्रयास करें।
- दूसरों की इच्छाओं तथा विचारों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनायें।
- दूसरों को चुनौती देने का प्रयास न करें।
- बिना किसी नाराजगी के दूसरों में परिवर्तन लायें
- दूसरों का सच्चा मूल्यांकन करें तथा उन्हें सच्ची प्रशंसा दें।
- दूसरों की गलती को अप्रत्यक्ष रूप से बतायें।
- आपकी निन्दा करने वाले के समक्ष अपनी गलतियों के विषय में बातें करें।
- किसी को सीधे आदेश देने के बदले प्रश्नोत्तर तथा सुझाव वाले रास्ते का सहारा लें।
- दूसरों के किये छोटे से छोटे काम की भी प्रशंसा करें।
- आपके अनुसार कार्य करने वालों के प्रति धन्यवाद ज्ञापन करें।
Thursday, November 18, 2010
अज्ञात का भय
प्रायः रोज ही हमसे हमारे परिजन, परिचत तथा मित्र रोज ही सैकड़ों प्रकार के प्रश्न पूछते हैं और उन्हें उत्तर देकर या जवाब न मालूम होने पर बिना उत्तर दिए हम उन लोगों को सन्तुष्ट कर देते हैं। ऐसा करने में कभी भी हमें किसी प्रकार का भय नहीं होता। किन्तु यदि हमें किसी साक्षात्कार के लिए, जहाँ कि इसी प्रकार के सवाल ही पूछे जाने हैं, जाना पड़े तो भय होने लगता है। किसका भय होता है यह?
परिजनों और मित्रों से रोज ही कुछ न कुछ बोलते हैं किन्तु यदि हमें मंच में बुला कर माइक पकड़ा दिया जाए तो हम भय के कारण बोल नहीं पाते। किसका भय है यह?
हम लोगों में अधिकांश लोगों को इस प्रकार के भय होते ही रहते हैं। कुछ लोगों को तो किसी अपरिचित से बात करने में भी भय होता है। ऐसे भय को अज्ञात का भय कहा जाता है। "अज्ञात का भय" (Fear Of The Unknown) याने कि हमें यह ज्ञात ही नहीं है कि हम किससे डर रहे हैं।
प्रायः जब हमें किसी अनभिज्ञ व्यक्ति से मिलना होता है या किसी अनभिज्ञ माहौल से गुजरना होता है तो ही हमारे भीतर अज्ञात का भय उत्पन्न होता है। याने कि अज्ञात का भय वास्तव में हमारी अनभिज्ञता का भय होता है।
इस अज्ञात के भय का मूल कारण क्या है?
हमारे शरीर में एक निश्चित सुरक्षा केन्द्र होता है जो कि हमें विभिन्न खतरों की चेतावनी देता है। एक बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता है त्यों-त्यों उसे अपने माता-पिता तथा गुरुजनों की शिक्षा के द्वारा तथा अपने स्वयं के अनुभवों से जीवन के विभिन्न खतरों का ज्ञान होते जाता है तथा वे विभिन्न खतरे हमारे शरीर के सुरक्षा केन्द्र के डेटाबेस में संकलित होते जाते हैं। ये खतरे ही हमारे भीतर भय पैदा करते हैं। जब किसी बच्चे को भूत-प्रेत इत्यादि के विषय में उसके गुरुजन बताते हैं तो वह भूत-प्रेत आदि को खतरा समझने लगता है और यह खतरा उसके शरीर के भीतर का सुरक्षा केन्द्र डेटाबेस में चला जाता है। पाप और पुण्य का भय भी बचपन में मिली सीख का ही परिणाम होते हैं।
यहाँ पर यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि यह सुरक्षा केन्द्र प्रायः सभी प्राणियों के शरीर में पाया जाता है। आपने देखा होगा कि कुत्ता जब कुछ खाते रहता है तो उसका ध्यान खाने से अधिक इस बात पर रहता है कि कहीं कोई खतरा न आ जाए। अन्य प्राणियों तथा मनुष्य में अन्तर यह है कि अन्य प्राणी केवल अपने अनुभवों से ही खतरों के बारे में जानते हैं किन्तु मनुष्य को खतरों की जानकारी अपने अनुभव के साथ ही साथ गुरुजनों की सीख से भी मिलती है। यही कारण है कि मनुष्य को भूत-प्रेत जैसी अदृश्य और काल्पनिक चीजों का भी भय होता है जबकि अन्य प्राणियों में यह भय होता ही नहीं है।
अस्तु, हमारे शरीर का सुरक्षा केन्द्र जब कभी भी हमें किसी प्रकार के खतरे की चेतावनी देता है तो हम चिन्तित और किसी सीमा तक भयभीत हो जाते हैं।
यह अज्ञात का भय हमारे लिए अनावश्यक तो है ही, हमारे जीवन पद्धति के लिए हानिकर भी है। हानिकर इस प्रकार से है कि जब भी हम भयभीत होते हैं हमारे हृदय की धड़कन सामान्य से कई गुना अधिक हो जाती है, मुँह सूख जाता है, सही प्रकार से न बोलकर हकलाने लगते हैं यहाँ तक कि सही प्रकार से सोच भी नहीं सकते। ये सारे लक्षण हमें अस्वस्थ बनाते हैं।
इस अनावश्यक भय को खत्म कर देना ही बेहतर है अन्यथा यह हमारे जीवन पद्धति को अत्यन्त दुरूह बना सकती है। अज्ञात के इस भय को दूर करना कुछ मुश्किल तो है किन्तु असम्भव नहीं। यदि आप स्वयं में अधिक से अधिक आत्मविश्वास उत्पन्न कर लें तो यह भय अपने आप ही खत्म हो जाएगा।
भय की बात चली है तो यह बताना भी उचित होगा कि कुछ प्रकार के भय हमारे जीवन के लिए आवश्यक होते हैं और कुछ अनावश्यक। समाज में दण्ड का विधान रखने का उद्देश्य है भय उत्पन्न कर के मनुष्य को सामाजिक मर्यादाओं का पालन करवाना। पाप और पुण्य का भय हमें नैतिकता प्रदान करते हैं। ऐसे ही और भी अनेक भय हैं जो कि मनुष्य के कल्याण के लिए बनाए गए हैं।
परिजनों और मित्रों से रोज ही कुछ न कुछ बोलते हैं किन्तु यदि हमें मंच में बुला कर माइक पकड़ा दिया जाए तो हम भय के कारण बोल नहीं पाते। किसका भय है यह?
हम लोगों में अधिकांश लोगों को इस प्रकार के भय होते ही रहते हैं। कुछ लोगों को तो किसी अपरिचित से बात करने में भी भय होता है। ऐसे भय को अज्ञात का भय कहा जाता है। "अज्ञात का भय" (Fear Of The Unknown) याने कि हमें यह ज्ञात ही नहीं है कि हम किससे डर रहे हैं।
प्रायः जब हमें किसी अनभिज्ञ व्यक्ति से मिलना होता है या किसी अनभिज्ञ माहौल से गुजरना होता है तो ही हमारे भीतर अज्ञात का भय उत्पन्न होता है। याने कि अज्ञात का भय वास्तव में हमारी अनभिज्ञता का भय होता है।
इस अज्ञात के भय का मूल कारण क्या है?
हमारे शरीर में एक निश्चित सुरक्षा केन्द्र होता है जो कि हमें विभिन्न खतरों की चेतावनी देता है। एक बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता है त्यों-त्यों उसे अपने माता-पिता तथा गुरुजनों की शिक्षा के द्वारा तथा अपने स्वयं के अनुभवों से जीवन के विभिन्न खतरों का ज्ञान होते जाता है तथा वे विभिन्न खतरे हमारे शरीर के सुरक्षा केन्द्र के डेटाबेस में संकलित होते जाते हैं। ये खतरे ही हमारे भीतर भय पैदा करते हैं। जब किसी बच्चे को भूत-प्रेत इत्यादि के विषय में उसके गुरुजन बताते हैं तो वह भूत-प्रेत आदि को खतरा समझने लगता है और यह खतरा उसके शरीर के भीतर का सुरक्षा केन्द्र डेटाबेस में चला जाता है। पाप और पुण्य का भय भी बचपन में मिली सीख का ही परिणाम होते हैं।
यहाँ पर यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि यह सुरक्षा केन्द्र प्रायः सभी प्राणियों के शरीर में पाया जाता है। आपने देखा होगा कि कुत्ता जब कुछ खाते रहता है तो उसका ध्यान खाने से अधिक इस बात पर रहता है कि कहीं कोई खतरा न आ जाए। अन्य प्राणियों तथा मनुष्य में अन्तर यह है कि अन्य प्राणी केवल अपने अनुभवों से ही खतरों के बारे में जानते हैं किन्तु मनुष्य को खतरों की जानकारी अपने अनुभव के साथ ही साथ गुरुजनों की सीख से भी मिलती है। यही कारण है कि मनुष्य को भूत-प्रेत जैसी अदृश्य और काल्पनिक चीजों का भी भय होता है जबकि अन्य प्राणियों में यह भय होता ही नहीं है।
अस्तु, हमारे शरीर का सुरक्षा केन्द्र जब कभी भी हमें किसी प्रकार के खतरे की चेतावनी देता है तो हम चिन्तित और किसी सीमा तक भयभीत हो जाते हैं।
यह अज्ञात का भय हमारे लिए अनावश्यक तो है ही, हमारे जीवन पद्धति के लिए हानिकर भी है। हानिकर इस प्रकार से है कि जब भी हम भयभीत होते हैं हमारे हृदय की धड़कन सामान्य से कई गुना अधिक हो जाती है, मुँह सूख जाता है, सही प्रकार से न बोलकर हकलाने लगते हैं यहाँ तक कि सही प्रकार से सोच भी नहीं सकते। ये सारे लक्षण हमें अस्वस्थ बनाते हैं।
इस अनावश्यक भय को खत्म कर देना ही बेहतर है अन्यथा यह हमारे जीवन पद्धति को अत्यन्त दुरूह बना सकती है। अज्ञात के इस भय को दूर करना कुछ मुश्किल तो है किन्तु असम्भव नहीं। यदि आप स्वयं में अधिक से अधिक आत्मविश्वास उत्पन्न कर लें तो यह भय अपने आप ही खत्म हो जाएगा।
भय की बात चली है तो यह बताना भी उचित होगा कि कुछ प्रकार के भय हमारे जीवन के लिए आवश्यक होते हैं और कुछ अनावश्यक। समाज में दण्ड का विधान रखने का उद्देश्य है भय उत्पन्न कर के मनुष्य को सामाजिक मर्यादाओं का पालन करवाना। पाप और पुण्य का भय हमें नैतिकता प्रदान करते हैं। ऐसे ही और भी अनेक भय हैं जो कि मनुष्य के कल्याण के लिए बनाए गए हैं।
Wednesday, November 17, 2010
देखें झाँसी की रानी फिल्म का एक दुर्लभ पोस्टर
यह झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का वास्तविक चित्र नहीं है बल्कि सन् 1953 में सोहराब मोदी द्वारा निर्मित तथा निर्देशित फिल्म "झाँसी की रानी" का पोस्टर है, जो कि राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय (National Film Archive of India), पूना में आज भी सुरक्षित है।
झाँसी की रानी का एक और चित्र जिसके विषय में पर्याप्त जानकारी प्राप्त नहीं है कि यह मूल चित्र है या किसी फिल्म का पोस्टरः
Tuesday, November 16, 2010
भारत - कुछ जानकारी
- हिन्दी नाम - भारत
- अंग्रेजी नाम - इण्डिया, इंडिया
- राष्ट्रीयता - भारतीय
- राष्ट्रध्वज में रंग - ऊपर में केसरिया, मध्य में सफेद, नीचे में हरा और सफेद रंग के बीच में बना 24 तीलियों (स्पोक्स) वाला नीले रंग का अशोक चक्र
- राष्ट्रध्वज में लंबाई और चौड़ाई का अनुपात - 3:2
- राष्ट्रीय चिह्न - सारनाथ (वाराणसी) स्थित अशोक के सिंह स्तम्भ की शीर्ष अनुकृति
- राष्ट्रीय आदर्श वाक्य - सत्यमेव जयते (मुण्डकोपनिषद से उद्धृत सूत्र)
- राष्ट्रगान - जन-गण-मण रचयिता रवीन्द्रनाथ टैगोर,
- राष्ट्रगान के गायन में लगने वाला समय - लगभग सेकंड
- राष्ट्रगीत - वन्दे मातरम बंकिमचन्द्र की रचना आनन्दमठ से उद्धृत
- राष्ट्रीय पर्व - स्वतन्त्रता दिवस अगस्त, गणतन्त्र दिवस जनवरी, गांधी जयन्ती अक्टूबर
- सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार - भारत रत्न
- अन्य राष्ट्रीय पुरस्कार - पद्मविभूषण, पद्मभूषण, पद्मश्री
- राष्ट्रीय पशु - बाघ
- राष्ट्रीय पक्षी - मयूर
- राष्ट्रीय वृक्ष - वट वृक्ष बरगद
- राष्ट्रीय फल - आम
- राष्ट्रीय नदी - गंगा
- राष्ट्रीय खेल - हॉकी
- राष्ट्री अभिवादन - नमस्कार
- राजभाषा - हिन्दी
यदि पोस्ट पढ़ने में मजा आया हो तो इस प्रश्नावली को हल करने में भी अवश्य ही मजा आएगा -
सामान्य ज्ञान प्रश्नावली – 11 (General Knowledge Quiz in Hindi)
Monday, November 15, 2010
जब हमने मिठाई चोरी की
ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में कभी भी किसी प्रकार की चोरी न की हो। भले ही वह चोरी अपने घर में ही की गई हो। बचपन में एक बार हमने भी अपने घर में चोरी की थी वह भी मिठाई की। यद्यपि हम उस समय चौथी या पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे किन्तु वह घटना आज भी हमें अच्छी प्रकार से याद है।
दिवाली के दिनों की बात है। बाबूजी के परिचित लोग दिवाली में उनसे भेंट करने आते थे। बाबूजी भी उन्हें दिवाली के प्रसादस्वरूप मिठाई का पैकेट उपहार में दिया करते थे। दिवाली के बाद लगभग दस दिन बीत चुके थे पर मिठाई का एक पैकेट अल्मारी में रखा ही हुआ था।
लक्ष्मी पूजा के दिन से भाईदूज तथा उसके भी एक-दो दिन बाद तक इतनी मिठाइयाँ खाने को मिली थीं कि उनसे जी भर गया था और मिठाई देखने की भी इच्छा नहीं होती थी। सो मिठाई के लालची होने के बावजूद भी हमने उस पैकेट की ओर झाँका तक नहीं। किन्तु पाँच-छः दिन और बीत जाने के बाद वह पैकेट हमें ललचाने लगा। पर हमें पता था कि जिन सज्जन के लिए वह उपहार रखा हुआ है वे बाबूजी के बहुत ही प्रिय व्यक्तियों में से हैं। हमें यह भी मालूम था कि किसी कारण से वे अब तक नहीं आ पाए हैं किन्तु देर-सबेर आएँगे जरूर। इसलिए माँ से जिद कर के भी माँगने पर वे हमें उस पैकेट से मिठाई नहीं देने वाली हैं।
माँ हमें मिठाई देने वाली नहीं थीं और पहले कभी चोरी की नहीं थी इसलिए चुराकर खाने की हिम्मत भी नहीं होती थी। पर हमारा बाल मन था कि पैकेट को देख-देख कर ललचाए जाता था। पूजा वाला कमरा ही घर का भण्डारगृह था और वहाँ से कुछ भी सामान लाना हो तो माँ हमें ही वहाँ से सामान लाने के लिए आदेश कर दिया करती थीं। हम जब भी पूजागृह में जाते सामने मिठाई का पैकेट नजर आता और मुँह में पानी भर आता था।
ईश्वर ने हमें रसना अर्थात् जीभ के रूप में बड़ी विचित्र चीज प्रदान किया है। नजर किसी स्वादिष्ट वस्तु को देखती है और जीभ लार टपकाने लगती है। सोचा जाए तो किसी स्वादिष्ट पदार्थ का स्वाद हमें केवल कुछ क्षणों के लिए ही मिलता है। ज्योंहीं वह जीभ के नीचे गले में उतरी कि स्वाद गायब। किन्तु केवल कुछ क्षणों का यह स्वाद बड़े-बड़ों को बेईमान बना देती है। इसीलिए तो कहा गया हैः
रूखी सूखी खाय के ठण्डा पानी पी।
देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी॥
जीभ मामले में एक बात और है कि यदि यह मीठा बोल दे तो शत्रु भी मित्र बन जाए और कड़वा तथा तीखा बोल दे तो भाई भी भाई का दुश्मन हो जाए। द्रौपदी ने यदि अपने जबान से सिर्फ "अन्धे के अन्धे ही होते हैं" न कहा होता तो महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना न कट मरी होती।
अस्तु, इस रसना ने हमें भी इतना ललचाया कि हम अपने आप को वश में नहीं रख पाए। होश संभालने के बाद से ही मिली हमारी "चोरी करना पाप है" जैसी शिक्षा न जाने कहाँ पानी भरने चली गई और हम चोर बनने के लिए विवश हो गए। चुपके से झाँक कर देखा बाबूजी बैठक में पुस्तक पढ़ने में तल्लीन हैं, माँ रसोई में खाना बनाने में व्यस्त है, दादी माँ हमारी सात वर्षीय बहन को तथा पाँच वर्षीय भाई को लेकर कहीं पड़ोस में गई हैं। बच गए हमारे तीन वर्षीय तथा एक वर्षीय दो और भाई सो उनसे किसी प्रकार का भय था ही नहीं। दबे पाँव पूजागृह में गए और लगे हाथ मारने मिठाई पर। जी भरकर खा लेने पर भी मिठाई का डिब्बा एक चौथाई भी खाली नहीं हुआ सो डिब्बे का ढक्कन बंद कर जैसे का तैसा रख दिया।
मिठाई खाते समय तो बड़ा मजा आया। पर वह आनन्द पूजागृह से निकलते ही काफूर हो गया। यद्यपि किसी ने हमें चोरी करते देखा नहीं था पर हम थे कि एक कम प्रयोग होने वाले कमरे में जाकर छुपकर बैठे हुए थे। मिठाई खाने के मजे का स्थान अब ग्लानि ने ले लिया था। बार-बार लगता था कि आज मैंने बहुत बड़ी गलती की है, चोरी करके बहुत बड़ा पाप किया है। जब आदमी अकेला होता है तो उसका अन्तर्मन उससे बात करने लगता है। अब मेरे ही भीतर से किसी ने मुझे भयभीत करना आरम्भ कर दिया। बाबूजी ने तो कभी हम पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु माँ की मार आज भी याद है। पता चलने पर माँ कितना मारेगी यही सोच-सोच कर कँपकँपी छूटने लगी। यह सोचकर कि हमारी चोरी का किसी को पता नहीं चलने वाला है स्वयं को जितना तसल्ली देने की कोशिश करते मन उतना ही भयभीत होता। पता नहीं क्यों दादी माँ की सुनाई गई कृष्ण-सुदामा वाली कहानी याद आने लगी जिसमें सुदामा ने चोरी से कृष्ण के हिस्से के चने भी खा लिए थे। बार-बार लगता कि चोरी के परिणामस्वरू सुदामा ने जिस प्रकार से जीवन भर दरिद्रता भोगी उसी प्रकार से मैं भी जीवन भर कंगाल बना रहूँगा।
ग्लानि और भय ने इतना सताया कि आँख से आँसू बहने लगे। पता नहीं किस शक्ति ने मुझे बाबूजी के सामने जाने के लिए मजबूर कर दिया और मैंने रोते हुए उन्हें अपनी चोरी के बारे में सब कुछ बता दिया। सुनकर बाबूजी कुछ क्षण तो अवाक् से रह गए क्योंकि उन्होंने सपने में भी कभी नहीं सोचा रहा होगा कि मैं चोरी भी कर सकता हूँ। फिर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए सिर्फ इतना कहा, "अच्छा किया जो तुमने यह सब मुझे बता दिया, अब जाओ खेलो। पर भविष्य में फिर कभी चोरी मत करना।"
पता नहीं क्यों, बचपन की यह घटना मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलती।
दिवाली के दिनों की बात है। बाबूजी के परिचित लोग दिवाली में उनसे भेंट करने आते थे। बाबूजी भी उन्हें दिवाली के प्रसादस्वरूप मिठाई का पैकेट उपहार में दिया करते थे। दिवाली के बाद लगभग दस दिन बीत चुके थे पर मिठाई का एक पैकेट अल्मारी में रखा ही हुआ था।
लक्ष्मी पूजा के दिन से भाईदूज तथा उसके भी एक-दो दिन बाद तक इतनी मिठाइयाँ खाने को मिली थीं कि उनसे जी भर गया था और मिठाई देखने की भी इच्छा नहीं होती थी। सो मिठाई के लालची होने के बावजूद भी हमने उस पैकेट की ओर झाँका तक नहीं। किन्तु पाँच-छः दिन और बीत जाने के बाद वह पैकेट हमें ललचाने लगा। पर हमें पता था कि जिन सज्जन के लिए वह उपहार रखा हुआ है वे बाबूजी के बहुत ही प्रिय व्यक्तियों में से हैं। हमें यह भी मालूम था कि किसी कारण से वे अब तक नहीं आ पाए हैं किन्तु देर-सबेर आएँगे जरूर। इसलिए माँ से जिद कर के भी माँगने पर वे हमें उस पैकेट से मिठाई नहीं देने वाली हैं।
माँ हमें मिठाई देने वाली नहीं थीं और पहले कभी चोरी की नहीं थी इसलिए चुराकर खाने की हिम्मत भी नहीं होती थी। पर हमारा बाल मन था कि पैकेट को देख-देख कर ललचाए जाता था। पूजा वाला कमरा ही घर का भण्डारगृह था और वहाँ से कुछ भी सामान लाना हो तो माँ हमें ही वहाँ से सामान लाने के लिए आदेश कर दिया करती थीं। हम जब भी पूजागृह में जाते सामने मिठाई का पैकेट नजर आता और मुँह में पानी भर आता था।
ईश्वर ने हमें रसना अर्थात् जीभ के रूप में बड़ी विचित्र चीज प्रदान किया है। नजर किसी स्वादिष्ट वस्तु को देखती है और जीभ लार टपकाने लगती है। सोचा जाए तो किसी स्वादिष्ट पदार्थ का स्वाद हमें केवल कुछ क्षणों के लिए ही मिलता है। ज्योंहीं वह जीभ के नीचे गले में उतरी कि स्वाद गायब। किन्तु केवल कुछ क्षणों का यह स्वाद बड़े-बड़ों को बेईमान बना देती है। इसीलिए तो कहा गया हैः
रूखी सूखी खाय के ठण्डा पानी पी।
देख पराई चूपड़ी मत ललचाए जी॥
जीभ मामले में एक बात और है कि यदि यह मीठा बोल दे तो शत्रु भी मित्र बन जाए और कड़वा तथा तीखा बोल दे तो भाई भी भाई का दुश्मन हो जाए। द्रौपदी ने यदि अपने जबान से सिर्फ "अन्धे के अन्धे ही होते हैं" न कहा होता तो महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना न कट मरी होती।
अस्तु, इस रसना ने हमें भी इतना ललचाया कि हम अपने आप को वश में नहीं रख पाए। होश संभालने के बाद से ही मिली हमारी "चोरी करना पाप है" जैसी शिक्षा न जाने कहाँ पानी भरने चली गई और हम चोर बनने के लिए विवश हो गए। चुपके से झाँक कर देखा बाबूजी बैठक में पुस्तक पढ़ने में तल्लीन हैं, माँ रसोई में खाना बनाने में व्यस्त है, दादी माँ हमारी सात वर्षीय बहन को तथा पाँच वर्षीय भाई को लेकर कहीं पड़ोस में गई हैं। बच गए हमारे तीन वर्षीय तथा एक वर्षीय दो और भाई सो उनसे किसी प्रकार का भय था ही नहीं। दबे पाँव पूजागृह में गए और लगे हाथ मारने मिठाई पर। जी भरकर खा लेने पर भी मिठाई का डिब्बा एक चौथाई भी खाली नहीं हुआ सो डिब्बे का ढक्कन बंद कर जैसे का तैसा रख दिया।
मिठाई खाते समय तो बड़ा मजा आया। पर वह आनन्द पूजागृह से निकलते ही काफूर हो गया। यद्यपि किसी ने हमें चोरी करते देखा नहीं था पर हम थे कि एक कम प्रयोग होने वाले कमरे में जाकर छुपकर बैठे हुए थे। मिठाई खाने के मजे का स्थान अब ग्लानि ने ले लिया था। बार-बार लगता था कि आज मैंने बहुत बड़ी गलती की है, चोरी करके बहुत बड़ा पाप किया है। जब आदमी अकेला होता है तो उसका अन्तर्मन उससे बात करने लगता है। अब मेरे ही भीतर से किसी ने मुझे भयभीत करना आरम्भ कर दिया। बाबूजी ने तो कभी हम पर हाथ नहीं उठाया था किन्तु माँ की मार आज भी याद है। पता चलने पर माँ कितना मारेगी यही सोच-सोच कर कँपकँपी छूटने लगी। यह सोचकर कि हमारी चोरी का किसी को पता नहीं चलने वाला है स्वयं को जितना तसल्ली देने की कोशिश करते मन उतना ही भयभीत होता। पता नहीं क्यों दादी माँ की सुनाई गई कृष्ण-सुदामा वाली कहानी याद आने लगी जिसमें सुदामा ने चोरी से कृष्ण के हिस्से के चने भी खा लिए थे। बार-बार लगता कि चोरी के परिणामस्वरू सुदामा ने जिस प्रकार से जीवन भर दरिद्रता भोगी उसी प्रकार से मैं भी जीवन भर कंगाल बना रहूँगा।
ग्लानि और भय ने इतना सताया कि आँख से आँसू बहने लगे। पता नहीं किस शक्ति ने मुझे बाबूजी के सामने जाने के लिए मजबूर कर दिया और मैंने रोते हुए उन्हें अपनी चोरी के बारे में सब कुछ बता दिया। सुनकर बाबूजी कुछ क्षण तो अवाक् से रह गए क्योंकि उन्होंने सपने में भी कभी नहीं सोचा रहा होगा कि मैं चोरी भी कर सकता हूँ। फिर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए सिर्फ इतना कहा, "अच्छा किया जो तुमने यह सब मुझे बता दिया, अब जाओ खेलो। पर भविष्य में फिर कभी चोरी मत करना।"
पता नहीं क्यों, बचपन की यह घटना मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलती।
Sunday, November 14, 2010
भारतीय रचनाकार तथा उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ
रचनाकार | प्रसिद्ध रचनाएँ |
आदिकवि वाल्मीकि | रामायण |
चरक | चरक संहिता |
पाणिनी | अष्टाध्यायी |
पतंजलि | महाभाष्य |
वाराह मिहिर | वृहत् संहिता |
वात्सायन | कामसूत्र |
वेदव्यास | महाभारत, भगवद्गीता |
महाकवि कालिदास | अभिज्ञान, शाकुन्तलम्, रघुवंशम्, कुमार सम्भव, मेघदूत, ऋतुसंहार |
महाकवि भास | स्वप्नवासवदत्ता, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण |
विशाखदत्त | मुद्रा राक्षस |
शूद्रक | मृच्छकटिकम् |
बाणभट्ट | हर्षचरित, कादम्बरी |
कल्हण | राजतरंगिणी (काश्मीर का इतिहास) |
जयदेव | गीत गोविन्द, चन्द्रालोक |
हर्षवर्धन | नागानंद, प्रियदर्शिका, रत्नावली |
कौटिल्य | अर्थशास्त्र |
विष्णु शर्मा | पंचतन्त्र |
चन्द बरदाई | पृथ्वीराज रासो |
गोस्वामी तुलसीदास | रामचरितमानस, विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली, हनुमान चालीसा |
सूरदास | सूरसागर, सूरसारावली |
कबीरदास | बीजक (रमैनी, सबद और साखी) |
रहीम | रहीम दोहावली, बरवै, नायिका भेद, मदनाष्टक, रास पंचाध्यायी |
मलिक मोहम्मद जायसी | पद्मावत |
बाबर | बाबरनामा |
गुलबदन बेगम | हुमायूँनामा |
अबुल फजल | अकबरनामा |
अमीर खुसरो | तुगलकनामा |
मिर्जा गालिब | दीवाने-गालिब |
देवकीनन्दन खत्री | चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति |
वृन्दावनलाल वर्मा | झाँसी की रानी, मृगनयनी |
मुंशी प्रेमचन्द | गोदान, गबन, सेवा सदन, सोजे-वतन, |
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | सत्य हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दशा, अन्धेर नगरी |
बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय | आनन्द मठ, कपाल कुण्डला |
विष्णु प्रभाकर | आवारा मसीहा, मेरा वतन |
भगवतीचरण वर्मा | चित्रलेखा |
जयशंकर 'प्रसाद' | कामायनी, चन्द्रगुप्त, आँसू |
मैथिलीशरण गुप्त | साकेत, यशोधरा |
फणीश्वरनाथ रेणु | मैला आँचल |
हरिवंशराय 'बच्चन' | मधुशाला |
लाला लाजपतराय | अनहैप्पी इण्डिया |
मौलाना अबुल कलम आजाद | इण्डिया |
मोहनदास करमचन्द गांधी | सत्य के प्रयोग |
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद | इण्डिया डिवाइडेड |
जवाहरलाल नेहरू | डिस्कव्हरी ऑफ इण्डिया |
जगजीवनराम | कास्ट चैलेंज इन इण्डिया |
जयप्रकाश नारायण | प्रिजन डायरी |
भीष्म साहनी | तमस |
कैफी आज़मी | आवारा सजदे |
कमलेश्वर | काली आँधी, कितने पाकिस्तान |
कुलदीप नैय्यर | जजमेंट |
किरण बेदी | फ्रीडम बिहाइन्ड वार्स |
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