रफी साहब के जन्मदिन पर विशेष
वर्ष 1924 के आज ही तारीख अर्थात् 24 दिसम्बर को एक ऐसे महान गायक का उदय हुआ था जिनकी मधुर आवाज आज भी हमारे कानों में गूँजती रहती है। सुमधुर कण्ठस्वर के स्वामी तथा महान गायक मोहम्मद रफी ने कितने गाने गाये हैं इसका हिसाब ही नहीं है। गायन के लिये 23 बार उन्हें फिल्म फेयर एवार्ड मिला था। उनके कंठस्वर से ही प्रेरणा पा कर ही महेन्द्र कपूर, सोनू निगम जैसे अनेक गायकों ने गायन के क्षेत्र में सफलता अर्जित की।
सामान्यतः पार्श्वगायक प्लेबैक सिंगर उन लोगों के लिए गाने गाते हैं जो गायन के क्षेत्र में सिद्धहस्त नहीं होते। किन्तु मोहम्मद रफी साहब ने तो किशोर कुमार जैसे धुरंधर पार्श्वगायक के लिए भी गाने गाये हैं। किशोर कुमार एक अच्छे गायक और अभिनेता होने के साथ ही साथ निर्माता, निर्देशक और संगीतकार भी थे। अपने गाने स्वयं ही गाया करते थे वे। पर संगीतकार ओ.पी. नैयर रफ़ी साहब के की आवाज से इतने प्रभावित थे कि फिल्म रागिनी (1958) के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत ‘मन मोरा बावरा गाये…..’ को किशोर कुमार के लिये रफ़ी साहब से ही गवाया था। सन् 1958 में ही फिल्म शरारत में भी मोहम्मद रफ़ी ने फिर से एक बार किशोर कुमार के लिये गाना गाया था। गीत के बोल हैं ‘अजब है दास्ताँ तेरी ऐ जिंदगी…..’। और आखरी बार सन् 1964 में मोहम्मद रफ़ी ने फिल्म बाग़ी शहज़ादा में भी किशोर कुमार के लिये गाया था (इस बात का खेद है कि गीत के बोल मुझे याद नहीं है)।
Saturday, December 24, 2011
Friday, December 23, 2011
शीत की सांझ
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
हल्की सिहरन धुंधली आभा,
सांझ शीत की आती है;
शिशुओं की नींद उनींदी-सी,
अंधियारी छा जाती है।
सूनी-सूनी सड़कें-गलियाँ,
सन्नाटा-सा छा जाता;
सिसकारी में डूबा जनपद,
तन्द्रा में द्रुत अलसाता।
सीस झुका तरुओं में पल्लव,
विहगों को सहलाते हैं;
पंख फुलाये कलरव भूले,
पंछी मन बहलाते हैं।
पश्चिम में रवि की लाली को,
निगल कालिमा खाती है;
शीतलता की ठंडी आहें,
निशि की सिसकी लाती है।
चौपालों में गाँव ठिठुरते,
कहीं अंगीठी जल जाती;
घेर घेर कर लोग तापते,
उष्ण शान्ति तन में आती।
उधर नगर में उष्ण वसन से
लिपट नागरिक फिरते हैं;
ऊनी मफलर स्वेटर में,
शिशिर सांझ पल कटते हैं।
हल्की सिहरन धुंधली आभा,
सांझ शीत की आती है;
शिशुओं की नींद उनींदी-सी,
अंधियारी छा जाती है।
सूनी-सूनी सड़कें-गलियाँ,
सन्नाटा-सा छा जाता;
सिसकारी में डूबा जनपद,
तन्द्रा में द्रुत अलसाता।
सीस झुका तरुओं में पल्लव,
विहगों को सहलाते हैं;
पंख फुलाये कलरव भूले,
पंछी मन बहलाते हैं।
पश्चिम में रवि की लाली को,
निगल कालिमा खाती है;
शीतलता की ठंडी आहें,
निशि की सिसकी लाती है।
चौपालों में गाँव ठिठुरते,
कहीं अंगीठी जल जाती;
घेर घेर कर लोग तापते,
उष्ण शान्ति तन में आती।
उधर नगर में उष्ण वसन से
लिपट नागरिक फिरते हैं;
ऊनी मफलर स्वेटर में,
शिशिर सांझ पल कटते हैं।
Wednesday, December 21, 2011
साहिर लुधियानवी की नजरों में ताजमहल
ताज़ तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझ से | ताज तुम्हारे लिए प्यार का एक प्रतीक सही और तुम्हारे दिल में इस रमणीक स्थान के लिए सम्मान सम्मान भी सही, पर मेरे प्रिय, मुझसे कहीं और मिला कर। |
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी | शाही दरबार में गरीबों के बसर भला क्या मायने रखता है? और जिस राह पर शाही शान को उकेरा गया है उसमें प्यार भरी आत्माओं का चलना क्या मायने रखता है? |
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तसीर-ए-वफ़ा तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलनेवाली अपने तारीक मकानों को तो देखा होता | मेरे प्रिय, काश तुमने प्यार के इस विज्ञापन के पीछे छुपे धन-दौलत के निशानों को देखा होता। ऐ शाही मकबरे से बहलने वाली, काश तूने गरीबों के अंधेरे मकानों को भी देखा होता। |
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके लेकिन उनके लिये तशहीर का सामान नहीं क्यूँ के वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे | दुनिया में अनगिनत लोगों ने प्यार किया है। कौन कह सकता है कि उनकी भावनाएँ सच्ची नहीं थीं? लेकिन उनके पास अपने प्यार के विज्ञापन के लिए सामान नहीं था अर्थात दौलत नहीं थी क्योंकि वे लोग भी हमारी ही तरह गरीब थे। |
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार मुतल-क़ुल्हुक्म शहनशाहों की अज़मत के सुतूँ दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ | ये इमारतें, ये मकबरे, ये किले और उनकी दीवारें, ये स्वार्थी शहनशाहों के बड़प्पन की निशानियाँ जिनके ऊपर सुन्दर गुलकारियाँ हैं, उन गुलकारियों के रंगों में तेरे और मेरे पूर्वजों के खून मिला हुआ है। |
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील | मेरे प्रिय, जिन्होंने प्यार के इस प्रतीक को इतनी सुन्दर शक्ल दी है उन्होंने भी तो प्यार किया होगा। पर उनके मकबरों पर उनका नाम तक नहीं लिखा गया है और न किसी ने वहाँ जाकर एक मोमबत्ती जलाई है। |
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़ इक शहनशाह ने दौलत का सहारा ले कर हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे! | ये बाग-बगीचे, ये यमुना का किनारा, ये महल, ये रमणीक दरो-दीवारें! एक शहनशाह ने अपनी दौलत से इन्हें ये रूप दिया है। उस शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों के प्यार का मजाक उड़ाया है। इसलिए मेरे प्रिय, तू मुझसे कहीं और मिला कर। |
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