बहुत दिन हो गये कुछ लिखे हुये। सोचा कुछ लिख लिया जाये। पर सूझ नहीं रहा था कि क्या लिखूँ। भीतर से आवाज आ रही थी कि लिख ले बेटा जो कुछ भी लिखना है! पर कोई पढ़ेगा तब ना?
मैने भी आवाज देने वाले से पूछा, "कोई क्यों नहीं पढ़ेगा?"
"तू अच्छी तरह से जानता है कि हर कोई सिर्फ अपनी पढ़वाना चाहता है, दूसरों की पढ़ना नहीं। तू ही दूसरों को कब कब पढ़ता है?"
"ऐसे में हिन्दी आगे कैसे बढ़ेगी?"
"तू क्यों फिकर कर रहा है? क्या तूने ठेका ले लिया है हिन्दी को आगे बढ़ाने का? तू तो बस ये सोच कि लोग तुझे कैसे पढ़ेंगे, छोड़ हिन्दी-विन्दी की फिकर।"
"अच्छा तो यही बता दो कि लोग मुझे पढ़ें इसके लिये मैं क्या करूँ?"
"ये तो तेरी समस्या है, इसे तू ही सुलझा। अपुन को नहीं पता कि लोग तुझे कैसे पढ़ेंगे।"
"अरे कुछ तो बता।"
कोई जवाब नहीं....
"बता भी ना यार।"
फिर वही चुप्पी ....
फिर हमने भी सोच लिया कि लिया कि लिखेंगे जरूर पर किसी को पढ़वाने के लिये नहीं, अपनी संतुष्टि के लिये। आखिर तुलसीदास जी ने भी तो "स्वांतः सुखाय" लिखा था, किसी को पढ़वाने के लिये नहीं। तो हमें भी क्या उनका अनुसरण नहीं करना चाहिये?