Saturday, March 12, 2011

शबरी के बेर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित खण्ड-काव्य)

भारत के दक्षिण भागों में,
फैले थे बीहड़ वन-खण्ड।
दण्डक-वन कहलाते थे वे,
जीव-जन्तु थे वहाँ प्रचण्ड॥1॥

छा कर पत्तों की कुटी वहाँ,
ऋषि-मुनि सुख से रहते थे।
भक्ति तपस्या परमेश्वर की,
निशिदिन सब मिल करते थे॥2॥

बुढ़िया भिल्लिनि भी एक वहाँ,
मुनियों के सँग रहती थी।
बेच-बेच कर लकड़ी वन की,
निज-निर्वाह वह करती थी॥3॥

बतला सकता है क्या कोई,
क्या था उस भिल्लिनि का नाम?
सुनो उसे शबरी कहते थे,
जपती सदा राम का नाम॥4॥

शूद्रा थी, पर भक्त बड़ी थी,
बूढ़ी थी और बाल पके थे।
लटक रही थी मुख पर झुर्री,
युग कपोल भी पिचके थे॥5॥

आश्रम के सब बच्चे उसको,
"नानी-नानी" कहते थे।
बड़े प्रेम से उसकी बातें,
हँसी-खुशी से सुनते थे॥6॥

बूढ़ी होने पर भी उसकी,
ताकत ज्यों की त्यों ही थी।
इसीलिये कामों में उसके,
बिजली की-सी फुर्ती थी॥7॥

सुना एक दिन जब शबरी ने,
'वन में आवेंगे श्री राम।
मुनयों के सँग उसको भी प्रभु,
दर्शन देंगे ललित ललाम'॥8॥

उस दिन से गाया करती थी,
"मेरे घर आवेंगे राम।
सँग में सीता लक्ष्मण होंगे,
साधु वेश में अति अभिराम॥9॥

देखूँगी मैं उनको छक कर,
जन्म सुफल निज जानूंगी।
पूजा करके भोग लगा कर,
पद रज ले सुख मानूंगी"॥10॥

लगी इकट्ठा करने तब से,
वन के मीठे-मीठे बेर।
बड़े प्रेम से प्रभु को देने,
बड़े-बड़े वे सुन्दर बेर॥11॥

बेर तोड़ती थी पेड़ों से,
फिर करती थी सोच-विचार।
"मीठे होंगे या खट्टे ये,
कैसे हो मुझको इतबार?"॥12॥

एक युक्ति झट सोची उसने,
'चख कर क्यों न करूँ पहचान।
चखने से से ही हो सकता है,
खट्टे और मीठे का ज्ञान'॥13॥

बस! फिर क्या था उन बेरों को,
चख कर रखना शुरू किया।
रक्खा मीठे बेरों को ही,
खट्टे को सब फेंक दिया॥14॥

इधर अयोध्या में दशरथ ने,
सोचा-"अब मैं वृद्ध हुआ।
राज्य सौंप दूँ रामचन्द्र को,"
सोच नृपति मन-मग्न हुआ॥15॥

किन्तु कैकेयी ने तिकड़म कर,
माँगे दशरथ से दो वर।
पहले में-'राजा भरत बने-
राज-दण्ड को धारण कर'॥16॥

फिर माँगा वरदान दूसरा-
'निज राज-वेश को तज कर-
राम चला जावे दण्डक वन,
साधु-वेश को धारण कर'॥17॥

लक्ष्मण-सीता सहित राम तब,
पूज्य पिता की आज्ञा से।
रोते सबको त्याग चले वन,
पावन पुरी अयोध्या से॥18॥

छाया गहरा शोक अवध में,
सुख को दुःख ने जीत लिया।
अन्धकार ने पुर-प्रकाश पर,
महा भयानक राज्य किया॥19॥

पर्ण कुटी से सीता जी का,
रावण ने अपहरण किया।
चुरा दुष्ट ने वैदेही को,
प्रभु को दारुण कष्ट दिया॥20॥

लक्ष्मण के सँग सीता जी के,
अन्वेषण में राम चले।
कण्टक-मय पथरीले पथ पर,
सहते दोनों घाम चले॥21॥

समाचार शबरी ने पाये,
आश्रम ढिग आये हैं राम,
दौड़ी आई मारग में झट,
तजकर आश्रम के सब काम॥22॥

लिपट गई पैरों से प्रभु के,
हाँफ रही थी वह प्रति क्षण।
आँसू नयनों से बहते थे,
डूब रहा था सुख में मन॥23॥

उठा लिया झट उसे राम ने,
और अभय वरदान दिया।
रामचन्द्र ने पतित जनों का,
ऐसा पावन मान किया॥24॥

बोली प्रभु से गद् गद होकर,
"प्रभु मैं भिल्लिनि हूँ अति नीच।
किन्तु पुण्य से पूर्व जन्म के,
रहती हूँ मुनियों के बीच॥25॥

दर्शन की आशा से मैंने,
अब तक घट में प्राण रखे।
धन्य-धन्य नयनों को मेरे,
जिनने सुन्दर रूप लखे॥26॥

मेरे आश्रम तक न चलोगे,
क्या जगदीश्वर दीनानाथ?
चल कर पावन कर दो मुझको,
अनुज लखन को लेकर साथ"॥27॥

विहँसे प्रभु लक्ष्मण को लख कर,
लक्ष्मण भी तब मुसकाये।
प्रेम भरे, मीठे, शबरी के,
वचन राम को अति भाये॥28॥

शबरी ले सानन्द राम को,
आ पहुँची निज आश्रम में।
हुआ सफल था जीवन उसका,
मुक्ति मिली थी जीवन में॥29॥

पद-प्रक्षालन कर दोनों के,
बैठा कुश के आसन में।
पूजा की जी भर कर उसने,
ललक-ललक छिन-छिन मन में॥30॥

बोली, "भोग लगाने को मैं,
लेकर आती हूँ कुछ बेर।
चले न जाना, हाँ, देखो तुम,
यदि हो जावे मुझको देर॥31॥

इतना कह कक्ष दूसरे में,
गई तुरत हँसती-हँसती।
और बेर की हाँड़ी लेकर,
आई झट गरती पड़ती॥32॥

पत्तल पर रख दिये बेर वे,
और लगी कहने शबरी-
"मीठे हैं सब खा लो इनको,
आवेदन करती शबरी॥33॥

बोली वह फिर बड़े गर्व से,
"खट्टा इनमें एक नहीं।
देख चुकी हूँ चख कर इनको,
मेरा रहा विवेक सही"॥34॥

खाये राघव ने बेर सभी,
प्रेम-भाव से सने हुये।
आग्रह कर-कर रही खिलाती,
वश में उसके राम हुये॥35॥

खाते-खाते मुसकाते थे,
करते बेरों का गुण-गान।
कैसे मीठे हैं सुन्दर भी,
मन के भावों के हैं दान॥36॥

सौभाग्य उदित था शबरी का,
मिला रंक को सुर-तरु था।
ईश्वर ही वश में थे उसके,
खेल भक्ति का अनुपम था॥37॥

जीवन सार्थक किया राम ने,
नीच भीलनी शबरी का।
मिटे कष्ट सब जन्म-मरण के,
दिव्य रूप था शबरी का॥38॥

बड़े प्रेम से खाते थे प्रभु,
करते सीता जी की याद।
भाव भरे जूठे बेरों में,
मिला उन्हें अमृत का स्वाद॥39॥

खिला-खिला कर बेर उन्हें वह,
फूली नहीं समाती थी।
देख-देख मुख-चन्द्र राम का,
बनी चकोरी जाती थी॥40॥

Friday, March 11, 2011

फाग में फूहड़ता या फाग भक्ति रस से सराबोर?

वसन्त ऋतु अपनी युवावस्था को प्राप्त कर चुका है। चहुँ ओर शीतल-मन्द-सुगन्धित बयार बह रही है। आम्रवृक्ष बौर से लद चुके हैं और आम के बौर की सुगन्ध मन में मादकता उत्पन्न कर रही है। टेसू और सेमल के वृक्षों ने पत्र-पल्लव का परिधान त्याग कर रक्त-वर्ण पुष्पों से अपना श्रृंगार कर लिया है। वातावरण कोयल की कूक से गुंजायमान हो रही है। अनंग (बिना अंग के) होने बाद भी कामदेव जन-जन के मन-मस्तिष्क में वास करने लग गए हैं।



ऐसी ही मादकता ने "सेनापति" की लेखनी को लिखने पर विवश कर दिया था किः

बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥


ज्यों-ज्यों दिन बीत रहे हैं, होली का त्यौहार निकट आते जा रहा है। होलिका दहन का माहौल बनते जा रहा है। होली का माहौल हो और मन-मस्तिष्क में फाग ना गूँजे तो वह होली का माहौल कैसा? आज की आपाधापी में तो फाग सिर्फ होली के समय एक दो दिन ही गाये जाते हैं किन्तु हमारे बचपन के दिनों में वसन्त पंचमी के दिन से ही फाग गाने की शुरुवात हो जाती थी जो कि रंग पंचमी तक चलती थी। हम झांझ, मंजीरों, नगाड़ों आदि के ताल धमाल में डूब जाया करते थे। जहाँ फाग फूहड़ भी होते थे वहीं फाग भक्ति रस से सराबोर भी हुआ करते थे। होली त्यौहार से लगभग आठ दिन पूर्व से फूहड़ फागों को गाने का दौर शुरू हो जाता था किन्तु उसके पहले और होलिकोत्सव के पश्चात भक्ति रस से सराबोर फाग ही गाए जाते थे।

प्रस्तुत है कृष्णभक्ति के भाव से सराबोर दो फाग गीतः

(१)

आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना
हाँ प्यारे ललना ब्रज में होली खेलै ना

इत ते निकसी नवल राधिका उत ते कृष्ण कन्हाई ना
हाँ प्यारे ललना उत ते कृष्ण कन्हाई ना
हिल मिल फाग परस्पर खेलैं शोभा बरनि ना जाई ना
आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना

बाजत झांझ मृदंग ढोल डफ मंजीरा शहनाई ना
हाँ प्यारे ललना मंजीरा शहनाई ना
उड़त गुलाल लाल भये बादर केसर कीच मचाई ना
आज श्याम संग सब सखियन मिलि ब्रज में होली खेलै ना

(२)

जाने दे जमुना पानी मोहन जाने दे जमुना पानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

रोज के रोज भरौं जमुना जल
नित उठ साँझ-बिहानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

चुनि-चुनि कंकर सैल चलावत
गगरी करत निसानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

केहि कारन तुम रोकत टोकत
सोई मरम हम जानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

हम तो मोहन तुम्हरी मोहनिया
नाहक झगरा ठानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

ले चल मोहन कुंज गलिन में
हम राजा तुम रानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

चन्द्रसखी भजु बालकृष्ण छवि
हरि के चलन चित लानी
मोऽहन जाने दे जमुना पानी

Thursday, March 10, 2011

टिप्पणी तो करा दीजिये

मुझको ब्लोगर बना दीजिये
मेरी रचना पढ़ा दीजिये

अच्छा लिखूँ मैं या ना लिखूँ
टिप्पणी तो करा दीजिये

लोकली मैं छपूँ ना छपूँ
नेट पर तो छपा दीजिये

पोस्ट चोरी का है ये मेरा
मत किसी को बता दीजिये

मूल गज़ल

लज़्ज़त-ए-गम बढ़ा दीजिये
आप यूँ मुस्कुरा दीजिये

कीमत-ए-दिल बता दीजिये
खाक लेकर उड़ा दीजिये

चांद कब तक गहन में रहे
आप ज़ुल्फें हटा दीजिये

मेरा दामन अभी साफ है
कोई तोहमद लगा दीजिये

आप अंधेरे में कब तक रहें
फिर कोई घर जला दीजिये

एक समुन्दर ने आवाज दी
मुझको पानी पिला दीजिये

मूल गजल सुनें:

Wednesday, March 9, 2011

हिन्दू धर्म में विज्ञान

इस सार्वभौम सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि अस्तित्व रक्षा हेतु मनुष्य की तीन आधारभूत आवश्यकताएँ होती हैं - भोजन, वस्त्र और निवास याने कि रोटी, कपड़ा और मकान! और जब मनुष्य की ये तीनों आधारभूत आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं तो स्वाभाविक रूप से वह मनोरंजन खोजने लगता है। किन्तु मनोरंजन की प्राप्ति हो जाने पर भी उसकी मानसिक मानसिक प्यास नहीं बुझ पाती। उसके मस्तिष्क में "मैं कौन हूँ?", "जीवन का उद्देश्य क्या है?", "मुझे शान्ति और प्रसन्नता कैसे प्राप्त होगी?" जैसे अनेक प्रश्न उठने लगते हैं। ये सारे प्रश्न ही धर्म को जन्म देते हैं। शान्ति और आनन्द की यह खोज ही मनुष्य को अध्यात्म और धर्म की ओर आकर्षित करते हैं। इस संसार और ब्रह्माण्ड को देखकर स्वाभाविक रूप से मनुष्य को जिज्ञासा होने लगती है कि इनका निर्माण किसने किया? वह एक एक अलौकिक महान शक्ति (supernatural power), जिसने इस संसार को बनाया, के अस्तित्व के होने की अवधारणा बना लेता है जिसे कि परमात्मा, ईश्वर, भगवान, अल्ला, खुदा, गॉड जैसे नामों से जाना जाता है। वास्तव में देखा जाए तो मनुष्य का इतिहास उसका स्वयं का इतिहास न होकर अलौकिक महान शक्ति (supernatural power) की खोज का ही इतिहास है।

मनुष्य की बुद्धि ही मनुष्य को पशु-पक्षी आदि अन्य प्राणियों से अलग कर देता है। मनुष्य की यह बुद्धि ही ऐसे प्रश्नों को जन्म देती है जिनसे धर्म का जन्म होता है और यह धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बना देता हैः

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥


आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

अपनी इसी श्रेष्ठता के कारण हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने आज से कई हजारों साल पहले अनेक गूढ़ रहस्यों को जान लिया था। उन्होंने समझ लिया था कि मनुष्य मात्र एक देह नहीं होता किन्तु वास्तव में मनुष्य के भीतर एक अति सूक्ष्म रूप में एक शक्ति होती है जिसे कि आत्मा कहा जाता है। उन्होंने इस गूढ़ रहस्य को भी समझ लिया था कि यह आत्मा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक वस्तु में व्याप्त रहती है, अर्थात् मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप में पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है। इसीलिए ईशावास्योपनिषद में कहा गया हैः

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥


इस ब्रह्माण्ड मे जो कुछ भी गतिशील अर्थात चर अचर पदार्थ है, उन सब मे ईश्‍वर अपनी गतिशीलता के साथ व्‍याप्‍त है उस ईश्‍वर से सम्‍पन्‍न होते हुये तुम त्‍याग भावना पूर्वक भोग करो। आसक्‍त मत हो कि धन अथवा भोग्‍य पदार्थ किसके है? अर्थात् किसी के भी नही है। अत: किसी अन्‍य के धन का लोभ मत करो क्‍योकि सभी वस्‍तुऐं ईश्‍वर की है।

ऊपर बताया गया है कि धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है। केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से अलग करता है। तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर धर्म है क्या? धर्म शब्द की उत्पत्ति "धृ" क्रिया से हुई है जिसका अर्थ है "धारण करना", अतः जो धारण करे वही धर्म है, इसी को संस्कृत में इस प्रकार कहा गया है - धरति इति धर्मः"। महाभारत में भी इसी बात को दुहराया गया हैः

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥


"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।

हमारे प्राचीन ऋषियों ने, जो वास्तव में दार्शनिक, चिंतक तथा वैज्ञानिक होते थे, अनेक प्रकार के खोज तथा आविष्कार किए थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने खोज लिया था कि मनुष्य का मस्तिष्क सतत् कार्य करते रहता है। यहाँ तक कि मनुष्य के सोते समय भी उसका मस्तिष्क नहीं सोता और कार्य करता ही रहता है जिसके परिणाम स्वप्न होते हैं। हमारे पूर्वजों ने अनेक प्रकार के अन्वेषण करके यह खोज निकाला कि यदि किसी प्रकार से मस्तिष्क को कार्य करने से रोक दिया जाए तो उस अवस्था में एक अद्भुत् शान्ति की प्राप्ति होती है। अपनी इस शुद्धतम अवस्था में मनुष्य परमात्मा के अत्यन्त निकट पहुँच जाता है। इस अवस्था को ही योग की अवस्था कहा जाता है जिसे कि महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र में "योगश्चित्तवृतिनिरोधः" कह कर बताया है, अर्थात मस्तिष्क को विचार तरंगों से हीन कर देना ही योगावस्था है।

यद्यपि हम आज केवल भौतिक सुख-सुविधा के साधन प्रदान करने वाले खोजों तथा आविष्कारों को ही विज्ञान की संज्ञा देते है, किन्तु हमारे ऋषियों की आत्मा-परमात्मा, योग-ध्यान आदि सम्बन्धित खोज और आविष्कार निःसन्देह विज्ञान ही है। ऐसी बात नहीं है कि हमारे पूर्वजों ने केवल अध्यात्मिक विज्ञान में उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं बल्कि भौतिक विज्ञान में भी वे आज से भी कहीं बहुत आगे थे। जिन खोजों और आविष्कारों को हम आज पाश्चात्य वैज्ञानिकों की उपलब्धि मानते हैं उनके विषय में हमारे पूर्वज हजारों साल पहले ही जानते थे, जैसे कि आज जिसे पाइथागोरस का साध्य कहा जाता है उसका प्रयोग बोधायन ने पाइथागोरस से हजारों साल पहले अपने शुल्बसूत्र में किया था, पृथ्वी की परिधि की माप, सूर्य से पृथ्वी की दूरी आदि की सही सही गणना हमारे ऋषियों ने हजारों साल पहले ही कर लिया था।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में अनेक गूढ़ रहस्य छुपे हुए हैं! आज आवश्यकता है शोध करके उन रहस्यों को खोज निकालने की।

Tuesday, March 8, 2011

नारी शक्ति को नमन!

आज हम दूसरों के पीछे भागने वालों में सबसे आगे हो चुके हैं जिसका परिणाम है कि हम दूसरों के देखा देखी साल भर अनेक प्रकार के दिवस मनाते हैं और उसी क्रम में आज अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं। भारत में कभी किसी प्रकार का महिला दिवस मनाने का रिवाज नहीं रहा किन्तु भारत ने प्राचीन काल से ही नारी की शक्ति को पहचाना है और उसे देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि एक दिवस मनाकर महिला के महत्व को स्वीकारने का दिखावा करने और बिना किसी प्रकार का दिवस मनाए महिला की शक्ति और महत्व को सच में स्वीकार करने में जमीन आसमान का अन्तर है। जो भी कार्य हृदय से किया जाता है उसके लिए किसी प्रकार का दिवस मनाकर दिखावा करने की कोई जरूरत नहीं होती।

अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतवर्ष में महिलाओं का उच्च स्थान रहा है। वे लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली आदि देवियों के रूप में पूजी जाती रही हैं। पतञ्जलि तथा कात्यायन की कृतियों में स्पष्ट उल्लेख है कि वैदिक युग में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं का समानाधिकार था। ऋग् वेद की ऋचाएँ बताती हैं कि महिलाओं को अपना वर चयन करने का पूर्ण अधिकार था और उनका विवाह पूर्ण वयस्क अवस्था में हुआ करता था। नारी पुरुष से अधिक शक्तिशाली थी, है और रहेगी। शिव में सामर्थ्य नहीं था महिषासुर के वध का, सिर्फ काली ही उसे मार सकती थी। महिषासुर वध कथा में महिषासुर बुराई का प्रतीक है। ये कथा संदेश देती है कि बुराई को दूर करने में पुरुष की अपेक्षा नारी अधिक सक्षम है।

दुर्भाग्य से कालान्तर में हमारे देश में विदेशियों का नियन्त्रण हो गया और उस नियन्त्रण के प्रभाव से हम अपनी प्राचीन शिक्षा एवं संस्कृति को भुलाते चले गए जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में महिलाओं का दर्जा, पूर्व की भाँति उच्च न रहकर, अलग-अलग समय में अलग-अलग तरह का हो गया। मध्यकाल तो महिलाओं की सामाजिक प्रतिष्ठा का पतन का ही काल बनकर रह गया। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा-विवाह का निषेध आदि कुप्रथाएँ मध्ययुग की ही देन हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों का अधिकार हो जाने पर परदा प्रथा और राजपूतों के पराजय ने जौहर प्रथा को जन्म दिया।

इन सबके बावजूद भी महान महिलाओं का उदय होता ही रहा। रजिया सुल्तान दिल्ली की गद्दी पर बैठकर पूरे हिन्दुस्तान की मलिका बनीं। गोंड महारानी दुर्गावती ने 15 वर्षों तक शासन किया। चाँद बीबी ने मुगलों के आक्रमण से अहमदनगर की रक्षा की। ऐसे और भी कितने ही उदाहरण मिल जायेंगे।

ब्रिटिश काल में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिराव फुले जैसे लोग नारी की स्थिति को पुनः सँवारने के प्रयास में जुट गये। सन् 1829 में राजा राममोहन राय के प्रयास से सती प्रथा का अन्त हुआ। ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने विधवाओं की स्थिति में सुधार तथा विधवा विवाह का आरम्भ के लिये जेहाद छेड़ दिया परिणामस्वरूप सन् 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय महिलाओं की स्थिति में द्रुत गति से सुधार होना आरम्भ हो गया। वे शिक्षा, संस्कृति, विज्ञान, तकनीकी, राजनीति, मीडिया, सर्विस सेक्टर आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से भाग लेने लगीं। औरतों तथा पुरुषों का पूर्ण रूप से समान दर्जा हो गया।

सदियों से नारी, कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप में, पुरुष की प्रेरणा रही है। इतिहास साक्षी है कि पुरुष के द्वारा किये गये प्रत्येक महान कार्य के पीछे उसकी प्रेरणा नारी ही रही है। यदि रत्नावली ने “लाज न आवत आपको…” न कहा होता तो हम आज “रामचरितमानस” जैसे पावन महाकाव्य से वंचित रह जाते। नारी के द्वारा किसी व्यक्ति, समाज और यहाँ तक कि राष्ट्र के विचारों में आमूल परिवर्तन कर देने का प्रत्यक्ष उदाहरण शिवाजी की माता जिजाजी हैं।

Monday, March 7, 2011

आज अगर तुलसी आयें तो

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

आज अगर तुलसी आयें तो,
सन्देश नहीं दे पायेंगे;
लुप्त देख सद्ग्रंथों को,
आश्चर्यचकित रह जायेंगे।

विनय पत्रिका के बदले में,
घोर अवज्ञा वे पायेंगे;
'मानस' के देश निकाले पर,
भौचक्के से रह जायेंगे।

रामचन्द्र पर रावण का ही,
सब ओर विजय वे पायेंगे;
ऐसे में तुलसी भी कैसे,
शक्ति, शील, सौन्दर्य जगायेंगे!

अंग्रेजी द्वारा हिन्दी की,
घोर उपेक्षा ही पायेंगे;
तब तो तुलसी भी सोचेंगे,
कल हिन्दी को बिसरायेंगे।

लोप भारती का लख तुलसी,
अकुलायेंगे, पछतायेंगे;
जैसे आयेंगे भारत में,
वैसे ही वापस जायेंगे।

(रचना तिथिः 04-08-1985)

Sunday, March 6, 2011

संस्कृत सुभाषित - हिन्दी अर्थ - 11

सुभाषित शब्द "सु" और "भाषित" के मेल से बना है जिसका अर्थ है "सुन्दर भाषा में कहा गया"। संस्कृत के सुभाषित जीवन के दीर्घकालिक अनुभवों के भण्डार हैं।

पात्रे त्यागी गुणे रागी संविभागी च बन्धुषु।
शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा स वै पुरुष उच्यते॥१०१॥


जो उचित पात्र के लिए त्याग करता है, दूसरों के गुणों को स्वीकार करता है, अपने सुख-दुःख को बन्धु-बान्धव के साथ बाँटता है, शास्त्रों से ज्ञान ग्रहण करता है, युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करता है, उसे ही सच्चे अर्थ में पुरुष कहा जाता है।

कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥१०२॥ पंचतंत्र


कोयल का सौन्दर्य उसकी मधुर स्वर है, स्त्री का सौन्दर्य पातिव्रत है, कुरूप व्यक्ति का सौन्दर्य विद्या है और तपस्वी का सौन्दर्य क्षमा है।

विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेष च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥१०३॥ महाभारत


प्रवासी के लिए विद्या मित्र होता है, गृहस्थ के लिए पत्नी मित्र होती है, रोगग्रस्त के लिए औषधि मित्र होता है और मृतक के लिए धर्म मित्र होता है।

मूलं भुजंगैः शिखरं विहंगैः शाखां प्लवंगैः कुसुमानि भृंगैः।
आश्चर्यमेतत् खसुचन्दनस्य परोपकाराय सतां विभूतयः॥१०४॥


चन्दन वृक्ष के जड़ में सर्प लिपटे रहते हैं, शिखर पर पक्षी विश्राम करते हैं शाखा पर वानर झूलते हैं और फूलों पर भ्रमर मँडराते हैं, अर्थात चन्दन वृक्ष सदैव दूसरों का कल्याण करता है। इसी प्रकार से सज्जन सदैव दूसरों का हित ही करते हैं।

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचित् रिपुः।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रुपवस्तथा॥१०५॥


न तो कोई किसी का मित्र ही होता है और न ही कोई किसी का शत्रु होता है, परिस्थियाँ ही व्यक्ति को मित्र अथवा शत्रु बनने को विवश करती हैं।

अज्ञः सुखं आराध्यः सुखतरं आराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति॥१०६॥


अज्ञानी को को आसानी के साथ सिखाया तथा समझाया जा सकता है और उससे भी अधिक आसानी के साथ पूर्ण ज्ञान रखने वाले को सिखाया तथा समझाया जा सकता है किन्तु ज्ञानी होने का दम्भ रखने वाले अल्पज्ञानी को ब्रह्मा भी सिखा तथा समझा नहीं सकते।

अव्यकरणमधीतं भिन्न्द्रोण्या तरगिणीतरणम।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतं॥१०७॥


व्याकरण के बिना अध्ययन करना, पेंदे में छेद वाले नाव से नदी पार करना और पथ्य के बिना औषधि का सेवन करना, ये तीन कार्य ऐसे हैं जिसे करने से न करना ही अच्छा है।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥१०८॥ हितोपदेश


प्रत्येक पत्थर माणिक नहीं होता, प्रत्येक हाथी में मुक्ता नहीं होता, प्रत्येक स्थान में साधु नहीं होते और प्रत्येक वन में चन्दन वृक्ष नहीं होते। (अर्थात सद्गुण दुर्लभ होते हैं।)

गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः करी च सिंहस्य बलं न मूषकः॥१०९॥


गुणी व्यक्ति ही दूसरे गुणी व्यक्ति के गुण का आकलन कर सकता है, निर्गुण नहीं। बलवान व्यक्ति ही दूसरे बलवान व्यक्ति के बल का आकलन कर सकता है, निर्बल नहीं। कोयल ही वसन्त का आकलन कर सकती है, कौआ नहीं। हाथी ही सिंह की शक्ति का आकलन कर सकता है, चूहा नहीं।

कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम्।
बान्धवाः कुमिच्छिन्ति मिष्टान्नं चेतरे जनाः॥११०॥


कन्या अपने पति के रूपवान होने की इच्छा रखती है, कन्या की माता अपने जामाता के धनवान होने की इच्छा रखती है, कन्या का पिता अपने दामाद के बुद्धिमान होने की इच्छा रखता है, कन्या के भाई कन्या के पति के कुलीन होने की इच्छा रखते हैं और अन्य लोग केवल मिष्टान्न की इच्छा रखते हैं। (अर्थात एक ही व्यक्ति से-अलग अलग लोग अलग-अलग कामना रखते हैं।)