जब कभी भी मित्रों तथा परिचितों को मैं बताता हूँ कि प्राचीन भारत विज्ञान के क्षेत्र में अत्यन्त उन्नत था तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता। किन्तु विभिन्न तर्कों तथा प्रमाणों के द्वारा जब मैं अपनी बात को सिद्ध कर देता हूँ तो उन्हें हमारे पूर्वजों के विज्ञान के विषय में विशेषज्ञ होने पर गर्व नहीं होता, सिर्फ आश्चर्य होता है।
ऐसी बहुत सारी घटनाओं का वर्णन श्री सुरेश सोनी जी अपने विभिन्न लेखों में करते है जिनमें से कुछ सन्दर्भ नीचे दिए जा रहे हैं
(1)
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हम भारतीयों का अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा से विश्वास उठ चुका है, हमारा स्वाभिमान नष्ट हो चुका है। और यह हुआ है स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी हमारे देश में विदेशियों के विचारों पर आधारित शिक्षानीति के जारी रहने के कारण। अंग्रेज तो चाहते ही थे कि हमारा स्वाभिमान पूरी तरह से नष्ट हो जाए ताकि हम हमेशा-हमेशा के लिए उनकी गुलामी के जंजीरों में जकड़े रहें। पर यह बात समझ से बाहर है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश के कर्णाधारों ने उनकी षड़यन्त्रयुक्त शिक्षा नीति को क्यों जारी रहने दिया? क्या हमारे देश में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो पूर्ण रूप से भारतीयता पर आधारित शिक्षानीति का निर्माण कर सकें?
अभी भी यदि हम सँभल जाएँ तो एक बार फिर से भारत को जगद्गुरु का श्रेय दिलवा सकते हैं।
ऐसी बहुत सारी घटनाओं का वर्णन श्री सुरेश सोनी जी अपने विभिन्न लेखों में करते है जिनमें से कुछ सन्दर्भ नीचे दिए जा रहे हैं
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डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम अपनी पुस्तक ‘इण्डिया-2020 में : ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम’ में बताते हैं कि मेरे घर की दीवार पर एक कैलैण्डर टँगा है, इस बहुरंगी कैलैण्डर में सैटेलाइट के द्वारा यूरोप, अफ्रीका आदिमहाद्वीपों के लिए गये चित्र छपे हैं। ये कैलैण्डर जर्मनी में छपा था। जब भी कोई व्यक्ति मेरे घर में आता था तो दीवार पर लगे कैलैण्डर को देखता था, तो कहता था कि वाह! बहुत सुन्दर कैलैण्डर है! तब मैं कहता था कि यह जर्मनी में छपा है। यह सुनते ही उसके मन में आनन्द के भाव जग जाते थे। वह बड़े ही उत्साह से कहता था कि सही बात है, जर्मनी की बात ही कुछ और है, उसकी टेक्नालॉजी बहुत आगे है। उसी समय जब मैं उसे यह कहता कि कैलैण्डर छपा तो जरुर जर्मनी में है किन्तु जो चित्र छपे हैं उसे भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, तो दुर्भाग्य से कोई भी ऐसा आदमी नही मिला जिसके चेहरे पर वही पहले जैसे आनन्द के भावआये हों। आनन्द के स्थान पर आश्चर्य के भाव आते थे, वह बोलता था कि अच्छा! ऐसा कैसे हो सकता है? और जब मै उसका हाथ पकड़कर कैलैण्डर के पास ले जाता था और जिस कम्पनी ने उस कैलैण्डर को छापा था, उसने नीचे अपना कृतज्ञता ज्ञापन छापा था ”जो चित्र हमने छापा है वो भारतीय सैटेलाइट नें खींचे हैं, उनके सौजन्य से हमें प्राप्त हुए हैं।” जब व्यक्ति उस पंक्ति को पढ़ता था तो बोलता था कि अच्छा! शायद, हो सकता है।(2)
दूसरी घटना भी इन्ही से सम्बन्धित है जब वे सिर्फ वैज्ञानिक थे।। दुनिया के कुछ वैज्ञानिक रात्रिभोज पर आये हुए थे, उसमें भारत और दुनिया के कुछ वैज्ञानिक और भारतीय नौकरशाह थे। उस भोज में विज्ञान की बात चली तो राकेट के बारे में चर्चा चल पड़ी। डॉ. कलाम नें उस चर्चा में भाग लेते हुए कहा कि कुछ समय पूर्व मैं इंलैण्ड गया था वहाँ एक बुलिच नामक स्थान है, वहाँ रोटुण्डा नामक म्युजियम है। जिसमे पुराने समय के युध्दों में जिन हथियारों का प्रयोग किया गया था, उसकी प्रदर्शनी भी लगाई गयी थी। वहाँ पर आधुनिक युग में छोड़े गये राकेट का खोल था। और आधुनिक युग के इस राकेट का प्रथम प्रयोग श्रीरंगपट्टनममें टीपू सुल्तान पर जब अंग्रेजों ने आक्रमण किया था, उस युध्द में भारतीय सेना नें किया था। इस प्रकार आधुनिक युग में प्रथमराकेट का प्रक्षेपण भारत नें किया था। डॉ. कलाम लिखते हैं किः(3)
जैसे ही मैने यह बात कही एक भारतीय नौकरशाह बोला मि. कलाम! आप गलत कहते हैं, वास्तव में तो फ्रेंच लोगों ने वह टेक्नोलॉजी टीपू सुल्तान को दी थी। डॉ. कलाम नें कहा ऐसा नही है, आप गलत कहते हैं! मैं आपको प्रमाण दूँगा। और सौभाग्य से वह प्रमाण किसी भारतीय का नही था, नही तो कहते कि तुम लोगों ने अपने मन से बना लिया है। एक ब्रिटिश वैज्ञानिक सर बर्नाड लावेल ने एक पुस्तक लिखी थी ”द ओरिजन एण्ड इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स ऑफ स्पेस एक्सप्लोरेशन” उस पुस्तक में वह लिखते हैं कि ‘उस युध्द में जब भारतीय सेना नें राकेट का उपयोगकिया तो एक ब्रिटिश वैज्ञानिक विलियम कांग्रेह्वा ने राकेट का खोल लेकर अध्ययन किया और उसका नकल करके एक राकेट बनाया। उसने उस राकेट को 1805 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के सामनें प्रस्तुत किया और उन्होने इसे सेनामें प्रयुक्त करनें की अनुमति दी।’ जब नैपोलियन के खिलाफ ब्रिटेन का युध्द हुआ तब ब्रिटिश सेना नें राकेट का प्रयोग किया।अगर फ्रेंचो के पास वह टेक्नोलॉजी होती तो वे भी सामने से राकेट छोड़ते, लेकिन उन्होने नही छोड़ा। जब यह पंक्तियाँ डॉ. कलामनें उस नौकरशाह को पढ़ाई तो उसको पढ़कर भारतीय नौकरशाह बोला, बड़ा दिलचस्प मामला है। डॉ. कलाम नें कहा यह पढ़कर उसे गौरव का बोध नही हुआ बल्कि उसको दिलचस्पी का मामला लगा|
संस्कृत भारती नामक संगठन देश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार और उसे जन भाषा बनाने की दृष्टि से विगत कुछ वर्षों से कार्य कर रहा है। इस संगठन ने संस्कृत मात्र धर्म-दर्शन ही नहीं अपितु विज्ञान तथा तकनीक की भी भाषा है, इसे लोगों को बताने की दृष्टि से गणित, भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान आदि के जो संदर्भ प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध हैं, उनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से कैसा साम्य है, यह बताने वाले पांच भित्तिचित्र तैयार किये हैं। उसे प्रचारित-प्रसारित किया जाए, इस दृष्टि से भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रमुख अधिकारियों के साथ वार्तालाप हेतु फरवरी २००१ में संस्कृत भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री च.मू.कृष्णशास्त्री अपने साथ पांचों भित्तिचित्र लेकर गये। वार्तालाप के समय वे भित्तिचित्र अधिकारियों के देखने के लिए उनके सामने रखे गये।(4)
उनमें गणित से संबंधित भित्तिचित्र के प्रारंभ में ही उन अधिकारियों ने देखा कि शताब्दियों पूर्व आर्यभट्ट ने (पाई) का मान ३.१४१६ निकाला था तो आश्चर्य के साथ उन्होंने उद्गार व्यक्त किये, ‘अच्छा (पाई) का मान हमारे पूर्वजों ने इतने वर्ष पूर्व निकाल लिया था।' यह घटना इंगित करती है कि भारत वर्ष में विज्ञान के विकास की दिशा निर्धारित करने वाले व्यक्ति भारत वर्ष में विज्ञान की परंपरा की सामान्य जानकारी से भी अनभिज्ञ हैं।
पुरी के पूर्व शंकराचार्य भारती कृष्ण तीर्थ जी ने अपनी साधना द्वारा शुल्ब सूत्रों और वेद की पृष्ठभूमि से गणित के कुछ अद्भुत सूत्रों और उपसूत्रों का आविष्कार किया। इन १६ मुख्य सूत्रों और १३ उपसूत्रों के द्वारा सभी प्रकार की गणितीय गणनाएं, समस्याएं अत्यंत सरलता और शीघ्रता से हल की जा सकती हैं। इन सूत्रों के आधार पर उन्होंने एक पुस्तक लिखी ‘वैदिक मैथेमेटिक्स।‘ पुस्तक के महत्व को ध्यान में रखते हुए मुम्बई में टाटा द्वारा मूलभूत शोध हेतु स्थापित संस्थान (टाटा इंस्टीट्यूट फार फन्डामेंटल रिसर्च) में कुछ लोग गये और वहां के प्रमुख से आग्रह किया कि गणित के क्षेत्र में यह एक मौलिक योगदान है, इसका परीक्षण किया जाये तथा इसे पुस्तकालय में रखा जाये। तब इस संस्थान ने इसे यह कहकर स्वीकृति नहीं दी कि हमारा इस पर विश्वास नहीं है। जिस पुस्तक को नकार दिया गया वह देश में विचार का विषय आगे चलकर तब बनी जब एक विदेशी गणितज्ञ निकोलस ने इंग्लैंड से मुम्बई आकर कुछ गणितज्ञों के सामने इन अद्भुत सूत्रों के प्रयोग बताकर कहा कि यह तो ‘मैजिक‘ है। इसका प्रचार-प्रसार टाइम्स आफ इंडिया ने किया। यह घटना बताती है कि एक विदेशी इसका महत्व न बतलाता तो उसे मानने की हमारी मानसिकता नहीं थी।(5)
भूतपूर्व मानव संसाधन विकास तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डा.मुरली मनोहर जोशी १९६२ में उत्तर प्रदेश की पाठ्यक्रम समिति के सदस्य बने। अपने अध्ययन के दौरान उनके ध्यान में आया कि गणित का विद्यार्थी जिस पायथागोरस थ्योरम के कारण भयभीत रहता है उस प्रमेय को पायथागोरस के पूर्व भारत वर्ष में बोधायन ने हल किया था। पायथागोरस की पद्धति जहां दीर्घ, क्लिष्ट व उबाऊ थी वहीं बोधायन की पद्धति अत्यंत संक्षिप्त व सरल थी। अत: उन्होंने पाठ्यक्रम समिति के सदस्यों को यह तथ्य बताया और आग्रह किया कि हमारे यहां इसे बोधायन प्रमेय कहा जाए तो इससे जहां एक ओर विद्यार्थियों को एक सरल पद्धति मिलेगी, वहीं दूसरी ओर हमारे देश का यह अवदान है, यह जानकर उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। लेकिन पाठ्यक्रम समिति के सदस्य तैयार नहीं हुए। लोगों को सहमत करने का वे प्रयत्न करते रहे। इसी कड़ी में एक और तथ्य उनके ध्यान में आया। एडवर्ड टेलर, जो विश्व के एक प्रमुख भौतिक शास्त्री रहे तथा हाइड्रोजन बम, परमाणु बम बनाने में जिनका योगदान रहा और जो नोबल पुरस्कार से सम्मानित हुए, ने एक पुस्तक लिखी है ‘सिम्पलिसिटी एंड साइंस‘। इस पुस्तक में उन्होंने कहा कि विज्ञान की पढ़ाई, दुरूह, जटिल व उबाऊ नहीं होनी चाहिए अपितु सरल, सुगम व आनंद देने वाली होनी चाहिए। इस दृष्टि से गणितीय समस्याएं कितनी सरलता से हल हो सकती हैं, उसके उदाहरण के रूप में उन्होंने बोधायन प्रमेय का उदाहरण दिया था। डा.जोशी ने जब एडवर्ड टेलर के प्रमाण को पाठ्यक्रम समिति को बताया, तब उन्होंने कहा अच्छा आपका इतना आग्रह है तो हम इसे ‘पायथागोरस बोधायन प्रमेय‘ कर देते हैं।
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि हम भारतीयों का अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषा से विश्वास उठ चुका है, हमारा स्वाभिमान नष्ट हो चुका है। और यह हुआ है स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी हमारे देश में विदेशियों के विचारों पर आधारित शिक्षानीति के जारी रहने के कारण। अंग्रेज तो चाहते ही थे कि हमारा स्वाभिमान पूरी तरह से नष्ट हो जाए ताकि हम हमेशा-हमेशा के लिए उनकी गुलामी के जंजीरों में जकड़े रहें। पर यह बात समझ से बाहर है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश के कर्णाधारों ने उनकी षड़यन्त्रयुक्त शिक्षा नीति को क्यों जारी रहने दिया? क्या हमारे देश में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो पूर्ण रूप से भारतीयता पर आधारित शिक्षानीति का निर्माण कर सकें?
अभी भी यदि हम सँभल जाएँ तो एक बार फिर से भारत को जगद्गुरु का श्रेय दिलवा सकते हैं।