Saturday, July 17, 2010

कहीं ये बुढ़उ भी तो टिप्पणियों के तिकड़म से खुद को नहीं बढ़ा रहा है?

कल जब मैंने कम्प्यूटर बंद किया था तो मेरे पोस्ट "जिन्दगी के रंग कई रे" में 8 टिप्पणियाँ थीं और आज सुबह जब मैंने अपना कम्प्यूटर खोला तो पाया कि टिप्पणियों की संख्या 31 हो गई हैं। विश्वास नहीं हो पा रहा था अपनी आँखों पर इसलिये बार-बार आँखे मिचमिचा कर देख रहा था पर संख्या 31 ही दिखाई पड़ रही थी। एक बार मन में यह विचार भी आया कि शायद रात की अभी तक नहीं उतरी है। चिट्ठाजगत को खोलकर देखा तो वहाँ भी उसके हॉटलिस्ट में मेरी पोस्ट बहुत ऊपर है, इतना ऊपर कि पहले शायद ही उतना ऊपर पहुँचा हो।

ये बात अलग है कि मैं कई बार अपने पोस्टों में लिखते रहता हूँ कि विषय से असम्बन्धित टिप्पणियों का और टिप्पणियों की अधिक से अधिक संख्या का कोई महत्व नहीं होता, मैं ऐसी टिप्पणियों का विरोध करता हूँ। इस विषय में कई बार मेरी कई लोगों से बहस भी हो चुकी है। पर हूँ तो आखिर मैं एक तुच्छ ब्लोगिया ही! कोई ब्लोगिया हो और उसे बड़ी संख्या में टिप्पणी मिले तो उसका मन प्रसन्नता से ना झूमे यह तो हो ही नहीं सकता। मेरे मन में भी गुदगुदी होने लगी। बिना पिये ही तीन-तीन पैग का मजा आने लग गया।

टिप्पणी पाने का अर्थ एक प्रकार से प्रशंसा और सम्मान पाना ही होता है और प्रशंसा और सम्मान भला कौन नहीं पाना चाहता? प्रशंसा और सम्मान तो ऐसे हथियार हैं जिनसे आप हर किसी को घायल कर सकते हैं। पर याद रखने की बात यह है कि ये हथियार दोधारी होते हैं और इनके द्वारा आपको भी घायल किया जा सकता है। इसलिये जब कोई आपको प्रशंसा और सम्मान दे तो तनिक सतर्क रहना आवश्यक है और यदि कभी स्वयं की श्रीमती जी दे तो सतर्क रहना अति आवश्यक है क्योंकि समझ लीजिये कि उस दिन जरूर आपकी जेब कटने वाली है।

अस्तु, 31 टिप्पणियों का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, बड़े-बड़े ब्लोगरों को तो सैकड़ों की तादाद में टिप्पणियाँ पाते हैं। खैर, उनकी तो बात ही निराली है पर मुझ जैसे तुच्छ ब्लोगर को 31 टिप्पणियाँ मिलना तो बहुत भारी आश्चर्य की बात है। उत्सुकता हुई जानने की कि आखिर किन-किन भले लोगों ने हमें टिप्पणियाँ दी हैं। देखा तो वे सभी मेरे प्रेमीजन तो हैं हीं टिप्पणियाँ देने वाले जो कि प्रायः रोज मुझे टिप्पणी दे जाते हैं किन्तु तारीफबाज़ नामी एक मेरे नये प्रेमी आ गये हैं जिन्होंने मुझे एक साथ 19 टिप्पणियाँ दी हैं। मैं इन सज्जन को जानता तो नहीं पर इनके इस प्रगाढ़ प्रेम ने तो मुझे एवरेस्ट की चोटी पर ही चढ़ा दिया।

अब मैंने उनकी टिप्पणियों को पढ़ना शुरू किया तो पाया कि अपनी 13 टिप्पणियों में उन्होंने मेरे प्रोफाइल में दिये गये मेरे परिचय को कॉपी करके पेस्ट कर दिया है और 5 टिप्पणियों में अन्य लोगों के द्वारा दी गई टिप्पणियों को कॉपी-पेस्ट किया है। अवश्य ही वे मेरे बहुत बड़े हितचिन्तक हैं जो चाहते हैं कि मेरा पोस्ट हॉटलिस्ट में ऊपर रहे! मैं उनका अत्यन्त आभारी भी हूँ।

जब भी मैनें इस प्रकार की असम्बद्ध टिप्पणियों को किसी पोस्ट में देखा है तो मेरे मन में यही विचार आया है कि लोग स्वयं को चढ़ाने के लिये क्या क्या तिकड़म नहीं करते! अब मुझे भय होने लगा कि आज मेरे पोस्ट में इन टिप्पणियों को देख कर लोग यही सोचेंगे कि कहीं ये बुढ़उ भी तो टिप्पणियाँ के तिकड़म से खुद को नहीं बढ़ा रहा है? सो मैंने अपने अनन्य हितचिन्तक महोदय की टिप्पणियों को मिटा डाला।

यह खयाल करके कि अपनी सारी टिप्पणियों के मिट जाने से तारीफबाज़ जी का दिल पूरी तरह से ना टूट जाये और वे गाने लगें कि "इस दिल के टुकड़े हजार हुए कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा...", मैंने उनकी निम्न टिप्पणी को रहने दियाः
Tafribaz on July 16, 2010 10:36 PM said...

    बहुत बढिया
अन्त में मैं तारीफबाज़ जी को एक बार पुनः धन्यवाद देता हूँ और उनकी टिप्पणियाँ मिटाने के लिये खेद भी प्रकट करता हूँ। आशा है कि वे मेरे इस कार्य को अन्यथा नहीं लेंगे।

Friday, July 16, 2010

जिन्दगी के रंग कई रे ....

क्या आप में से कोई ऐसा भाग्यवान है जिसने कभी खराब समय देखा ही न हो? मैं समझता हूँ कि अच्छा और खराब समय तो सभी के जीवन में आते ही रहता है। अच्छे समय में तो हम अपनी मस्ती में इतने डूब जाते हैं कि मन के किसी कोने में यह विचार तक नहीं आ पाता कि कभी खराब समय भी आ सकता है। किन्तु अच्छा समय कितना ही लंबा क्यों न हो, आखिर बीत ही जाता है और शुरू हो जाता है खराब समय का सिलसिला। संपन्नता विपन्नता में बदल जाती है और मस्ती विषाद में। इसीलिये कहा गया है "चार दिनों की चाँदनी फिर अँधियारी रात"!

इस बात को ध्यान में रख कर ही कि, जीवन में कभी भी खराब समय आ सकता है, हमारे यहाँ सम्पन्न लोगों के पुत्रों को भी आजीविका चलाने की छोटी से भी छोटी विधा की शिक्षा दी जाती थी। सुदामा के साथ कृष्ण को भी लकड़ी काटने के लिये वन में जाना पड़ता था। यहाँ तक कि गुरु के आश्रम के लिये भिक्षा मांगने भी जाना पड़ता था।

किन्तु आज वह बात नहीं रह गई है। आज तो लोग अपने पुश्तैनी कार्यों को भी करने से कतराने लगे हैं। किसान का बेटा किसानी नहीं करना चाहता, लोहार का बेटा लोहारी नहीं करना चाहता। सभी यही चाहते हैं कि कैसे मैं जल्दी से जल्दी अधिक से अधिक धन कमा लूँ। किन्तु धन कमा लेना इतना आसान नहीं है। अपने स्वयं के कार्य से धन कमाने का रास्ता तो लोग त्याग देते हैं और किसी दूसरे रास्ते से धन कमाने में समर्थ भी नहीं हो पाते। नतीजतन वे और भी अधिक विपन्नता से घिर जाते हैं। अस्तु, बात सिर्फ यह है कि आज की शिक्षा पहले जैसे नहीं रही है।

तो यदि ऐसे में खराब समय आ जाये तो...

  • निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। निराशा बार बार आपके भीतर आने की कोशिश करेगी किन्तु अपने आत्म बल से निराशा को पास नहीं फटकने देने में ही भलाई है।

  • पुरानी कहावत है किस "धीर में ही खीर है"। खराब समय को केवल धैर्य से ही काटा जा सकता है। खराब समय में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। रहीम कवि ने भी कहा है किः

    रहिमन चुप ह्वै बैठिये देख दिनन के फेर।
    जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहै देर॥

  • अपना दुःख यदि बांटना चाहें तो सिर्फ उनसे बांटिये जिनके विषय में आपको पूर्ण विश्वास हो कि वे सही अर्थों में आपको अपना समझते हैं। दूसरों को अपनी व्यथा सुनाने से कोई फायदा नहीं है, लोग सुन कर आपके समक्ष तो सहानुभूति दर्शायेंगे पर पीठ पीछे खिल्ली ही उड़ायेंगे। यहाँ पर भी रहीम कवि की उक्ति याद आ रही हैः

    रहिमन निज मन की व्यथा मन में राखो गोय।
    सुनि इठलैहैं लोग सब बांट न लैहै कोय॥

  • खराब समय में व्यक्ति स्वयं के अभाव को तो झेल लेता है किन्तु परिवार के सदस्यों के अभाव उसे बहुत अधिक व्यथित करते हैं। अतः परिजनों को भी धीरज रखने के लिये यथोचित रूप से समझाना ही उचित है।
विश्वास कीजिये कि खराब समय हमेशा नहीं रहता, एक न एक दिन समाप्त ही हो जाता है।

Thursday, July 15, 2010

रिमझिम रिमझिम मेघा बरसे पवन चले पुरवाई...

पावस के दिनों में भरी दुपहरी में भी घटाटोप अंधरे का आभास होता है तो लगने लगता है कि आसमान में छाये काले-काले मेघों के लिहाफ के भीतर भगवान भास्कर मुँह ढाँप कर घुस गये हैं। बादलों के बीच बिजली की तड़प से क्षण भर के लिये सम्पूर्ण धरा का चौंधिया जाना और फिर गगनभेदी गर्जन से उसका काँप जाना ही तो पावस का अपूर्व सौन्दर्य है। मूसलाधार वर्षा की टिपर-टिपिर, तेज गति से चलती हुई पुरवाई की साँय-साँय, बादलों की गड़गड़ाहट, दादुरों की टर्राहट आदि ध्वनियाँ आपस में गड्डमड्ड होकर एक विचित्र किन्तु मनभावन हारमोनी उत्पन्न कर देती हैं जिसके संगीत में डूबकर मन विभोर हो जाता है।


घनघोर अंधेरे में डूबी हुई बरसात की रात की तो बात ही कुछ और होती है। सुनसान सड़क के किनारे लगे बिजली के खम्भे पर लगा हुआ बल्ब अंधेरे से लड़ने का अथक प्रयास करने के बाद भी विजित नहीं हो पाता। वर्षाकाल की ऐसी ही तिमिरमय और नीरव रात्रि में अपने एक मित्र के साथ बरसते पानी में छाता लेकर मैं रायपुर के महराजवन तालाब तक घूमने जाया करता था। कभी बरसात की टिपिर-टिपिर के बीच किसी घर के आँगन में लगे हिना के फूलों की मनमोहक महक लेकर आने वाली बयार मन को मुग्ध कर देती थी तो कभी कहीं दूर रेडियो से आने वाली "ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएँ...."  गीत की स्वरलहरी में हम स्वयं को भी भुला दिया करते थे। आज छत्तीसगढ़ में उन दिनों जैसी वर्षा होती ही नहीं है, दस-दस बारह-बारह दिनों की झड़ी लगा करती थी, सूरज के धूप के अभाव और वातारवण में अत्यधिक आर्द्रता के कारण गीले कपड़े सूख नहीं पाते थे। जंगलों की कटाई और कल-कारखानों से निकलने वाली धुआँओं ने छत्तीसगढ़ में होने वाली वर्षा को लील लिया है। कभी छत्तीसगढ़ 60 इंच वर्षा का प्रदेश हुआ करता था पर आज मुश्किल से 30 इंच भी वर्षा हो जाये तो बहुत है।

मेघों के चार प्रकार - वर्षा, कपसीले, घुड़पुच्छ और तहदार - में से पहला प्रकार अर्थात् काले-काले वर्षा मेघ ही हैं जो वृष्टि करवाते हैं। सफेद कपास के सदृश छिटके-छिटके रहने वाले कपसीले मेघ जब पृथ्वी के नजदीक पहुँचकर सघन होने लगते हैं तो उनकी परिणिति वर्षा मेघ में हो जाती है। घुड़पुच्छ मेघ भी वर्षा करवाते हैं किन्तु ये पानी के साथ ही साथ ओले भी बरसाते हैं और अपने साथ भयानक आँधी-तूफान लेकर आते हैं। दिनभर अपने प्रकाश को बिखेरते हुए तेजहीन हुए तथा रात्रिविश्राम हेतु अस्ताचल की और गमन करते हुए रक्तिम सूर्य को घेरे लाल रंग के के तहदार मेघ 'शून्य-श्याम-तनु' अर्थात् नभ के अलंकरण मात्र ही होते हैं।

वर्षा का महत्व क्या है यह कोई छत्तीसगढ़ के किसी किसान से पूछे। उसके लिये वर्षा प्राणों से भी प्रिय होती है क्योंकि छत्तीसगढ़ का मुख्य फलस धान है और धान के लिये भरपूर वर्षा का होना अति आवश्यक है। वर्षा ना हो तो किसान का जीवन असह्य हो जाता है। नवतपा में रोहिणी नक्षत्र के सूर्य के तपना शुरू होते ही किसान जीवनदायिनी वर्षा लाने वाली मृग नक्षत्र के आगमन की प्रतीक्षा करने लगते हैं। यदि समय पर वर्षा ना हो तो भाट और भड्डरी के "कलसा पानी गरम है चिड़िया नहावे धूर, अंडा ले चींटी चढ़े तो बरखा भरपूर", "शुक्रवार की बादरी रही शनीचर छाय, तो यों भाखै भड्डरी बिन बरसे नहि जाय", आदि कहावतों में बताये लक्षणों को देखने के लिये व्याकुल हो जाते हैं। पहली बरसात होने जाने पर वे बड़े उल्लास के साथ अपने खेतों की जोताई में लग जाते हैं ताकि जल्दी ही उनमें धान के पौधे अपनी हरियाली बिखेरते हुए लहलहा उठें।

वर्षा न केवल किसानों को हर्षाती है ब्लकि प्रेमी हृदयों पर भी वह राज करती है। प्रेमियों के हृदय में प्रेम की भावना का उद्दीपन करने वाला यह बरखा का सौन्दर्य ही तो है जिसने नायक-निर्देशक राजकपूर को मूसलाधार वर्षा से बचने के लिये एक ही छाते के भीतर सिमट कर "प्यार हुआ इकरार हुआ..." गाते हुए प्रेमी-प्रेमिका वाले दृष्य के फिल्मांकन की प्रेरणा दिया! श्री चार 420 फिल्म का यह दृष्य कालजयी बन कर रह गया। इसी मूसलाधार बरसात में बरसाती पहन कर जाते हुए बच्चों को देखकर ही गीतकार शैलेन्द्र के हृदय में बरबस ही गूँज उठा होगा "मैं न रहूँगी तुम ना रहोगे फिर भी रहेंगी निशानियाँ....."!यह बादल की गगनभेदी गड़गड़ाहट ही है जो प्रेमिका के हृदय में भय का संचार करके उसे भयभीत होकर अपने प्रेमी के विशाल वक्ष से लिपट जाने के लिये विवश कर देता है - "बादल यूँ गरजता है, डर कुछ ऐसा लगता है....."! यह पावस का सौन्दर्य ही तो है जो प्रियतम से दूर प्रियतमा को "मत बरसो रे मोरी अटरिया, परदेस गये हैं सँवरिया, जा रे जा रे ओ कारे बदरिया..."  को कहने के लिये मजबूर कर देता है। संगीतकार नौशाद जी का कोकिल-कण्ठी लता जी से 'परदेस गये हैं साँवरिया' गाते हुए एक राग में दूसरे राग के सुर का क्षणिक अतिक्रमण करवा देना वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कि अनिंद्य सुन्दरी के दूधिया गाल में छोटा सा काला तिल!

बालकों के हृदय में भयमिश्रित हर्ष, किशोरों के हृदय में उल्लास, युवाओं के हृदय में कमोद्दीपन उत्पन्न करने वाली दामिनी की दमक, मेघों का गर्जन और कादम्बिनी अर्थात् मेघमाला से अनवरत रूप से टपकती जल की बूंदें हम जैसे, उल्लासहीन और कब्र में पैर लटकाए, वृद्ध के हृदय में भी ऐसा कुछ उत्पन्न कर जाती है कि बासी कढ़ी में भी उफान सा आने लगता है। मनुष्य तो मनुष्य, इस पावस ने तो विष्णु के अवतार श्री राम को भी प्रभावित किया हैः

घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥

व्यापारी बरसात से फायदा ना उठाये तो उसकी व्यापार-बुद्धि को धिक्कार है। छंगूमल सफल और अनुभवी व्यापारी हैं। अनेकों जाने-माने दवा कंपनियों के वितरक हैं। बरसात के आरम्भ में ही वे अपने गोदाम में रखे करोड़ों रुपयों की दवाओं की सुरक्षा व्यवस्था कर लिया करते हैं। मतलब सभी अमूल्य दवाएँ सुरक्षित स्थान पर और एक्सपायर्ड तथा नियर एक्सपायरी डेट वाली दवाएँ ऐसे स्थान पर जहाँ पर बारिश का पानी भर जाये। प्रत्ये तीन-चार साल में उनकी किस्मत चमक उठती है क्योंकि बेकार हो चुकी दवाएँ बरसात के पानी से भीग जाया करती हैं और छंगूमल बीमा कंपनी से लाखों रुपयों की भरपूर वसूली कर लिया करते हैं।


चलते-चलते

संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार

बादल के अन्य नामः

मेघ, घन, वारिद, जलधर, धाराधर, अभ्र, वारिवाह, स्तनयित्रु, बलाहक, ताडित्वान, अभ्युभृत, जीमूत, मुदिर, जलमुक् और धूमयोनि

मेघपंक्ति के अन्य नामः

कादम्बिनी और मेघमाला

बिजली के अन्य नामः

शंपा (शम्बा), शतह्रदा, ह्रादिनी, ऐरावती, क्षणप्रभा, तडित, सौदामिनी (सौदाग्नी), विद्युत और चपला

Tuesday, July 13, 2010

आज का आदमी

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

पक्का बेशरम बन जाइये,
और आज का आदमी कहाइये।

अगर आप ईमानदार हैं,
सीधे और सच्चे हैं,
तो दुनया की नजरों में आप,
एकदम दुधमुहे बच्चे हैं,
दुनिया से बहुत दूर रह कर
आज का आदमी बनने में कच्चे हैं।

आज का आदमी बनना हो
तो हमसे कुछ नुस्खे सीख लीजिये
धोखे का जाल बिछा कर
कदम-कदम पर तिकड़म कीजिये।

नुस्खा नम्बर एक-
छोड़ दीजिये सब विवेक
अगर आप किरायेदार है और मक्कार हैं,
तो किराये के घर को अपना ही समझिये,
किराया फूटी कौड़ी भी मत दीजिये,
और मकान मालिक को
चाकू-छुरी-पिस्तौल से दफा कीजिये।
तब आप, आज का आदमी बन पायेंगे,
दुनिया को अपना करिश्मा दिखायेंगे
और आदर्श किरायेदार कहलायेंगे।

नुस्खा नम्बर दो-
अगर आप आशुकवि हो
तो इधर-उधर से रचनायें बटोर कर
आगे आगे नाचिये
और तालियों की गड़गड़ाहट में
झूम झूम कर कविता बाँचिये
अपना स्वागत आप ही कीजिये
अपना परिचय आल राउंड शैतान के
रूप में दीजिये,
आज का आदमी यही तो करता है,
बस उठा-पटक के पीछे मरता है।

नुस्खा नम्बर तीन-
बजाइये अपनी ही बीन,
नेता बन जाइये,
जनता को नचाइये
खुद ही खाइये
और दूसरों को जी भर कर तरसाइये।
और आज के आदमी की लिस्ट में
अपना नाम पवित्र करवाइये,
लक्ष्मी जी की भक्ति में माला टरकाइये।

नुस्खा नम्बर चार-
पिछलगुए बनाइये दो चार,
और जेब में एक संस्था रख लो यार
फिर, अंधे के रेवड़ी बंटन न्याय से
बने रहो सदाबहार, सर्वराकार
तुम्हें खूब साथ देंगे
तुम्हारे चमचे, करछुल और चाटुकार।

नुस्खा नम्बर पाँच और अन्तिम
जो सीधा है, नहीं है बंकिम,
नचाते रहो सबको नाच,
सच को ही आने दो आँच,
तभी तो मजा कर लोगे,
गधा हो कर भी, घोड़े का माल चर लोगे।
आज का आदमी तो कहलावोगे
घर बैठे ही दिल्ली में हाजिरी भरवावोगे।

(रचना तिथिः शनिवार 27-07-1985)

Monday, July 12, 2010

बड़ी बुरी लत है ब्लोगिंग की

जबसे ब्लोगिंग की लत लगी है हमको, हमेशा परेशान रहते हैं। ना दिन में चैन और ना रात में नींद। दिमाग रूपी आकाश में ब्लोग, ब्लोगर, पोस्ट, टिप्पणियाँ रूपी मेघ ही घुमड़ते रहते हैं। परेशान रहा करते हैं कि आज तो ले-दे के पोस्ट लिख लिया है हमने पर कल क्या लिखेंगे? कई बार मन में आता है कि कल से हर रोज लिखना बंद। निश्चय कर लेते हैं कि आज के बाद से अब सप्ताह में सिर्फ एक या दो पोस्ट लिखेंगे पर ज्योंही आज बीतता है और कल आता है कि कुलबुलाहट शुरू हो जाती है। तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा और अंगुष्ठ याने कि सारी की सारी उँगलियाँ रह-रह कर कम्प्यूटर के कीबोर्ड की ओर जाने लगती हैं। जब तक एक पोस्ट ना लिख लें, चैन ही नहीं पड़ता। पर रोज-रोज आखिर लिखें तो लिखें भी क्या? इसलिये कई बार कुछ भी नहीं सूझता तो चौथी-पाँचवी कक्षा में पढ़े दोहों को ही याद करके पोस्ट कर देते हैं जैसे किः

ब्लोगर को ना सताइये ....

देखा ना? 'निर्बल' लिखते-लिखते 'ब्लोगर' लिख मारे। हमेशा दिमाग में ब्लोग, ब्लोगर आदि चलता रहे तो यही तो होगा आखिर। अच्छा हुआ कि अपनी गलती ध्यान में आ गई और सुधार लिया किः

निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय।
मुये चाम की साँस से लौह भस्म होइ जाय॥


यदि निर्बल के स्थान पर ब्लोगर पोस्ट हो गया होता तो सारे के सारे ब्लोगर हम पर चढ़ बैठते कि सर्वशक्तिमान ब्लोगर को हमने निर्बल कैसे बना दिया।

उधर श्रीमती जी अलग मुँह फुलाये रहती हैं कि हम घर का कोई काम-काज ही नहीं करते, यहाँ तक कि साग-सब्जी तक लेने नहीं जाते। हमेशा बड़बड़ाती रहती हैं आग लगे इनके कम्प्यूटर में ...। पर ब्लोगिंग के लत ने हमें इतना बेशर्म बना दिया है कि उनकी बड़बड़ाहट का हम पर कुछ भी असर नहीं होता, बड़बड़ाती रहें वो अपनी बला से।

ऐसा भी नहीं हो पाता कि पोस्ट लिख लेने के बाद हम घर के काम-धाम में जुट जायें क्योंकि हर दो-तीन या पाँच मिनट में:

अंदाज अपना आईने में देखते हैं वो
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो


के तर्ज में पर देखना रहता है कि टिप्पणी आई कि नहीं, और आई तो कितनी टिप्पणियाँ आई हैं? और इस जुनून में हम कम्प्यूटर से चिपके ही रहते हैं। टिप्पणियाँ आती हैं तो मन विभोर हो जाता है, हम आत्म-मुग्ध हो जाते हैं और पत्नी जी के गुस्से के साथ ही साथ दुनिया-जहान के सारे दुख-तकलीफों से होने वाली कुढ़न से कहीं बहुत दूर पहुँच जाते हैं, भीतर ही भीतर वैसा ही कुछ होने लगता है जैसे कि तीन पैग पेट के भीतर चले जाने पर होता है।

और यदि एक भी टिप्पणी ना मिले तो....

हम तो मनाते हैं कि भगवान ना करे कि ऐसी स्थिति आये किन्तु "आसमां पे है खुदा और जमीं पे हम"। आसमां वाला जमीं वाले की सुनता कहाँ है और प्रायः एक भी टिप्पणी ना मिलने वाली स्थिति आती ही रहती है। टिप्पणियाँ ना मिलने पर मन मायूस हो जाता है। खुद से कहने लगते हैं - 'तुफ है तुझपर जो एक ऐसा पोस्ट नहीं लिख सकता जिसमें टिप्पणियाँ आयें, अपने आप को बहुत भारी ब्लोगर समझता है। अब पता चला तुझे तेरी औकात! डूब के मर जा चुल्लू भर पानी में।'

पर अपने आप को आखिर धिक्कारा भी कब तक जा सकता है इसलिये यही सोचकर तसल्ली दे लेते हैं अपने आपको कि लोगों में इतनी अकल नहीं है जो हम जैसे महान ब्लोगर के पोस्ट को समझ पायें। जब पोस्ट को समझेंगे ही नहीं तो भला टिप्पणी कहाँ से करेंगे?

तो भैया, कहाँ तक बुराइयाँ गिनायें ब्लोगिंग की, बस इतना ही कह सकते हैं कि ब्लोगिंग की लत बड़ी बुरी होती है।

Sunday, July 11, 2010

हिमालय में खिलने वाला अद्वितीय फूल - ब्रह्मकमल!


ब्रह्म कमल एक प्रकार के अद्वितीय फूल का नाम है जो कि सिर्फ हिमालय, उत्तरी बर्मा और दक्षिण पश्चिम चीन में पाया जाता है। जैसे कि नाम से ही विदित है, ब्रह्म कमल नाम उत्पत्ति के देवता ब्रह्मा जी के नाम पर रखा गया है। इसे Saussurea obvallata के नाम से भी जाना जाता है।

कहा जाता है कि ब्रह्म कमल के पौधों में एक साल में केवल एक बार ही फूल आता है जो कि सिर्फ रात्रि में ही खिलता है। अपने इस गुण के कारण से ब्रह्म कमल को शुभ माना जाता है।