Wednesday, August 10, 2011

काश! भारतीयों की विलक्षण बुद्धि के अनुरूप शिक्षा नीति एवं व्यवस्था भी होती

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा कह रहे हैं कि 'अमेरिकियों पढ़ो, नहीं तो भारत से पिछड़ जाओगे'

उनका यह कथन निश्चित रूप से सिद्ध करता है कि भारतीय, जिन्होंने किसी काल में नालन्दा, तक्षशिला आदि जैसे विश्वविद्यालयों की थी और जो विश्व गुरु कहलाते थे, आज भी विलक्षण बुद्धि के स्वामी हैं। आज भारतीय शिक्षा नीति और व्यवस्था पूरी तरह से पाश्चात्य देशों की शिक्षा नीति और व्यवस्था पर आधारित है, आधारित क्या बल्कि उनकी नकल ही है, तो भी भारतीय प्रतिभाएँ इस प्रकार से उभर कर आ जाती हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति को अपने देश के पिछड़ जाने का भय सताने लगे तो जरा सोचिए कि यदि भारत में अपने देश की सभ्यता और संस्कृति पर आधारित पूर्णतः मौलिक शिक्षा नीति और व्यवस्था होती, जो आत्म निर्भरता और चरित्र निर्माण के साथ ही जीवन के परम सत्य का साक्षात्कार कराने वाली आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती, तो क्या हाल होता!

अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में संसार का अग्रणी रहा है। वैदिक काल से भी पूर्व से ही हमारे देश में ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेजा जाता रहा है। पुरातन काल से ही भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य परम्परा समस्त विश्व में विख्यात रही है तथा भारत में अत्यन्त विकसित शिक्षा के अनेक केन्द्र रहे हैं। भारतीय गुरु जहाँ आयुर्वेद, कृषि, वास्तुशास्त्र जैसे विषयों का ज्ञान दान करके न केवल भारतीयों को आत्म निर्भर बनाते थे बल्कि वे दर्शन शास्त्र, न्याय शास्त्र, नीति शास्त्र, तर्क शास्त्र जैसे विषयों में शिष्यों को पारंगत करके चरित्रवान शासकों तथा उनके मन्त्रियों के शासन का निर्माण भी करते थे। जहाँ व्याकरण, साहित्य इत्यादि की शिक्षा प्रदान करके भाषा तथा साहित्य को विकसित करना उन गुरुओं का कार्य था वहीं गणित, खगोल शास्त्र, वैशेषिक शास्त्र का ज्ञान प्रदान कर के विचारक, गणितज्ञ, खगोलज्ञ तथा वैज्ञानिकों का प्रादुर्भाव करना भी उन्हीं का उत्तरदायित्व होता था। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, नैतिकता, अध्यात्म, धर्म, योग, साधना आदि की शिक्षा देकर वे अपने शिष्यों को आध्यात्मिक बल तथा मनोबल भी बढ़ाये रखते थे।

भारत में मुसलमानों के आधिपत्य हो जाने पर मुस्लिम शासकों ने अनेक मक़तबों तथा मदरसों का निर्माण तो अवश्य ही किया किन्तु उन्होंने हिन्दू शिक्षा व्यवस्था में कभी भी हस्तक्षेप नहीं किया जिससे भारतीय शिक्षा का प्राचीन रूप अठारहवी शताब्दी तक कमोबेस अपने मूल रूप में ही चलती रही। सत्रहवी शताब्दी तक भारत शिक्षा के प्रचार में यूरोप के सभी देशों से आगे था और हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक था। उस समय तक सहस्त्रों की संख्या में ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों में लाखों शिष्यों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया करते थे। डा-वेल नामक एक प्रसिद्ध मिशनरी, जो मद्रास में पादरी रह चुके थे, ने तो यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था से प्रभावित होकर इंग्लिस्तान में भी भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था।

लॉर्ड मैकॉले को भारत की यह शिक्षा-प्रणाली चुभने लग गई। उसने सन् 1833 में चार्टर पर पार्लियामेंट में भाषण देते हुए कहा था, “मैं चाहता हूँ कि भारत में यूरोप के समस्त रीति-रिवाजों को जारी किया जाए, जिससे हम अपनी कला और आचारशास्त्र, साहित्य और कानून का अमर साम्राज्य भारत में कायम करें। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम भारतवासियों की एक ऐसी श्रेणी उत्पन्न करें जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम दें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि अंग्रेजी हो। संक्षेप में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय तन से भारतीय, पर मन से अंग्रेज हो जाएँ, जिससे अंग्रेजों का विरोध करने की उनकी भावना ही नष्ट हो जाए।”

और उसने एक ऐसी शिक्षा-प्रणाली बनाकर, जो कि भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर ले जाए और उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा ही ना होने दे, अंग्रेजी शासन को भेज दिया। अंग्रेजी शासन ने उस शिक्षा-प्रणाली को सहर्ष स्वीकार कर लिया और भारत में मैकॉले की वह शिक्षा-प्रणाली सन् 1835 से लागू हो गई। यह वह शिक्षा-प्रणाली थी जो कि भारतीयों में आत्मानुशासन, नैतिकता, अध्यात्मिकता, आत्म-सम्मान की भावना, राष्ट्रीयता इत्यादि का नाश करके स्वार्थपरता और पद-लोलुपता सिखाती थी।

भारत के स्वतन्त्र होने के बाद हमारे तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं ने मैकॉले की उसी शिक्षा प्रणाली को न केवल अपनाया बल्कि उसमें ऐसे परिवर्तन भी कर दिए कि भारत की जनता उन तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं को और भी महान समझने लगे, उनके द्वारा किए गए देशवासियों के शोषण को जरा भी न समझ पाए, भ्रष्टाचार के द्वारा उनकी कमाई को जनता अनदेखी करती रहे। और सौ बात की एक बात कि वे अनन्तकाल तक अपने पदों पर विराजमान होकर जनता के द्वारा पूजे जाते रहें।

Monday, August 8, 2011

मेरी पसंद के कुछ दोहे

रहिमन चुप व्है बैठिये, देख दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥

रहिमन निज मन की ब्यथा, मन ही राखो गोय।
सुन इठलइहैं लोग सब, बाँट न लइहैं कोय॥

रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहाँ करै तलवारि॥

.निंदक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करै सुहाय॥

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय॥

बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरहुं को शीतल करै, आपहु शीतल होय॥

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब।
पल में परलय होयगा, बहुरि करेगा कब्ब॥

छमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात।
कहि रहीम हरि का गयो, जो भृगु मारेव लात॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

दुख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करै, तो दुख काहे होय॥

एकहि साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।
रहिमन मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥

बड़े काम ओछे करे, तौ न बड़ाई होय।
ज्यों­ रहीम हनुमंत को, गिरिधर कहै ना कोय।

रहिमन वे नर मर गये, जिन कछु मांगन जाहि।
उन ते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसति नाहि॥

खीरा सिर ते काटिये, मलिये लोन लगाय।
रहिमन कड़ुये मुखन को, चहियत यही सजाय॥

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित-अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥

रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥

मन मोती और दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फटे ते फिर ना मिले, कोटिन करो उपाय॥

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
पारब्रम्ह को पाइये, मन ही की परतीत॥

खैर खून खाँसी खुसी बैर प्रीत मदपान।
रहिमन दाबे ना दबे जानत सकल जहान॥

आवत ही हरसे नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ ना जाइए कंचन बरसे मेह॥