क्या आप कभी टायपिस्ट रहे हैं और अलग अलग लोगों की हैंडराइटिंग में लिखे गये पत्रों से आपका पाला पड़ा है? अरे मैं भी कैसी मूर्खता की बातें कर रहा हूँ, आज के जमाने में कहाँ हैं अब टाइपराइटर और टायपिस्ट, अब तो कम्प्यूटर का जमाना है। क्या करें भाई उम्र अधिक हो जाने के कारण से भूलने की बीमारी हो गई है। हाँ तो मैं बात कर रहा था हैंडराइटिंग की। मेरा पाला बहुत लोगों के हस्तलेख से पड़ा है, टायपिस्ट जो था मैं। सन् 1973 में नौकरी लगी थी मेरी भारतीय स्टेट बैंक में। नरसिंहपुर शाखा में जॉयन करने का आदेश आया था। कॉलेज में पढ़ रहा था मैं उन दिनों, एम.एससी. (फिजिक्स) फायनल में। पिताजी उसी महीने रिटायर हुए थे। प्रायवेट संस्था में शिक्षक थे अतः पेन्शन मिलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। चार भाइयों और एक बहन में सबसे बड़ा मैं ही था। ठान लिया कि पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने की। नौकरी भी तो अच्छी मिली थी, विश्व के सबसे बड़े बैंक, भारतीय स्टेट बैंक में, मोटी तनख्वाह वाली। पिताजी परेशान। दो परेशानियाँ थी उन्हें। एक तो वे चाहते थे कि मैं अपनी शिक्षा पूरी करूँ और दूसरी यह कि यदि मैं नौकरी में जाना ही चाहता हूँ तो किसी को अपने साथ लेकर जाऊं, मैं कभी रायपुर से कहीं बाहर जो नहीं गया था। खैर साहब, पिताजी के लाख कहने के बावजूद मैं अकेले ही नरसिंहपुर गया।
अब आप सोच रहे होंगे कि बात तो हैंडराइटिंग की हो रही थी और ये साहब तो पता नहीं कहाँ कहाँ की हाँकने लग गये, ठीक वैसे ही जैसे कि व्यस्त चौराहे में मदारी डमरू बजाकर साँप नेवले की लड़ाई वाला खेल दिखाने की बात कह कर मजमा इकट्ठा कर लेता है और आखिर तक साँप नेवले की लड़ाई नहीं दिखाता बल्कि ताबीज बेच कर चला जाता है। धीरज रखिये भाई, आ रहा हूँ हैंडराइटिंग की बात पर, आखिर पहले कुछ न कुछ भूमिका तो बांधनी ही पड़ती है। तो उन दिनों एक महाराष्ट्रियन सज्जन स्थानान्तरित होकर हमारी शाखा में आये हमारे शाखा प्रबन्धक बनकर। एकाध साल बाद रिटायर होने वाले थे। उनकी एक विशेषता यह भी थी कि 'परंतु' को "पणतु" ही कहा करते थे, कभी भी मैंने उनके मुख से परंतु शब्द नहीं सुना। तो मैं उन्हीं सज्जन की हैंडराइटिंग की बात कर रहा था। उन दिनों भारतीय स्टेट बैंक की भाषा अंग्रेजी हुआ करती थी, हिन्दी का चलन तो बहुत बाद में हुआ। जब पहली बार उन्होंने मेसेन्जर के हाथ मेरे पास टाइप करने के लिये एक पत्र भेजा तो उसका एक अक्षर भी मेरे पल्ले नहीं पड़ा। बिल्कुल ऐसा लगता था कि किसी चींटे को स्याही में डुबा कर कागज पर रेंगा दिया हो। उसमें क्या लिखा है समझने के लिये मुझे शाखा प्रबन्धक महोदय के केबिन में 20-25 बार जाना पड़ा था। पर वे जरा भी नाराज नहीं हुये मेरे बार बार आकर पूछने पर, बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। उनके लिखे आठ दस पत्र टाइप कर लेने के बाद मैं उनके लिखने का "मोड" समझने लग गया और फिर मेरी परेशानी खत्म हो गई। खैर उनकी हैंडराइटिंग जैसी भी थी पर अंग्रेजी का उन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। उनके लिखे एक पत्र में एक बार mutatis-mutandis शब्द आया। मेरे लिये वह शब्द एकदम नया था। मैंने फौरन आक्सफोर्ड इंग्लिश टू इंग्लिश डिक्शनरी निकाली और उस शब्द का मायने खोजने लगा, पर मुझे नहीं मिला। तो मैंने शाखा प्रबन्धक के केबिन जाकर उसका अर्थ पूछा। मेरा प्रश्न सुनकर वे 'हो हो ऽ ऽ ऽ' करके हँसे और बोले अरे अवधिया डिक्शनरी में देख लो ना। मैं बोला कि मैं डिक्शनरी में देख कर ही आया हूँ, मुझे नहीं मिला। तो वे बोले कि डिक्शनरी के पीछे अन्य भाषाओं से अपनाये गये शब्दों वाला अपेन्डिक्स देखो। वहाँ मुझे उस शब्द का अर्थ मिल गया। उनके अंग्रेजी ज्ञान से बहुत प्रभावित था मैं और समझता था कि वे अंग्रेजी में एम.ए. अवश्य होंगे। बहुत दिनों बाद मुझे पता चला कि वे इम्पीरियल बैंक के समय के थे और उनकी शैक्षणिक योग्यता थी - दसवीं फेल।
Saturday, January 3, 2009
Thursday, January 1, 2009
पैसे पीटो ब्लोग बेचकर
जी हाँ, ब्लोग बेच कर अच्छी खासी रकम कमाई जा सकती है। आजकल ब्लोग बेचना, जिसे कि blog flipping कहा जाता है, इंटरनेट मारकेटिंग इंडस्ट्री का खासा मुनाफा कमाने वाला एक बहुत बड़ा कारोबार है। मैं यहाँ पर हिन्दी ब्लोग्स की बात नहीं कर रहा हूँ, हिन्दी ब्लोग्स की खरीदी बिक्री में तो अभी सालों लगेंगे। बात हो रही है अंग्रेजी ब्लोग्स की। blog flipping के इस धंधे में संसार भर के लोग लगे हुये हैं और यदि चाहें तो आप भी यह काम कर सकते हैं। जरा वारियर्स फोरम के Warriors! - I Am Going To Make $100+ In 24 Hours! - Watch Over My Shoulder! थ्रेड को देखें।
और उसने अपना कहा करके भी दिखा दिया।
इसी प्रकार का एक चैलेंज Challenge Accepted - It’s On! | Site Flipping University में भी है।
यह तो चैलेन्ज वाली बात थी किन्तु प्रायः लोग 7 से 10 दिनों में ब्लोग बना कर बेच लिया करते हैं।
कैसे करते हैं इसे वे लोग?
संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः
अरे हाँ, जो बात सबसे पहले कहनी थी वह तो भूल ही गया, चलो अब कह देता हूँ आप सभी को नया साल मुबारक!
और उसने अपना कहा करके भी दिखा दिया।
इसी प्रकार का एक चैलेंज Challenge Accepted - It’s On! | Site Flipping University में भी है।
यह तो चैलेन्ज वाली बात थी किन्तु प्रायः लोग 7 से 10 दिनों में ब्लोग बना कर बेच लिया करते हैं।
कैसे करते हैं इसे वे लोग?
संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः
- सबसे पहले एक Niche (अच्छा मुनाफा कमाया जा सकने वाला विषय, ब्लोग के सारे लेख इसी विषय से सम्बंधित होते हैं) चुनते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में निशे था weight loss।
- निशे के अनुरूप एक डोमेननेम रजिस्टर करते हैं।
- रजिस्टर किये गये डोमेन में वर्डप्रेस को इंस्टाल करते हैं और विषय के अनुरूप अच्छा सा थीम चुन लेते हैं।
- निशे पर लेख लिखने के लिये कीवर्ड रिसर्च करते हैं अर्थात् पता करते हैं कि लोग विभिन्न सर्च इंजिन के सर्चबॉक्स में क्या लिख कर खोज किया करते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में कीवर्ड थे weight loss food, fast weight loss diet, lose stomach fat, fastest way to lose weight, lose weight quickly, best way to lose weight, weight loss plans, lose belly fat, weight loss products, weight loss pills,weight loss fast,fast weight loss, lose weight fast, exercises to lose weight, celebrity weight loss
- फिर इन्हीं कीवर्ड को प्रयोग करते हुये 10 से 15 पंद्रह लेख लिखते हैं और उन्हें ब्लोग में पोस्ट करते जाते हैं।
- साथ ही साथ ब्लोग का भी करते जाते हैं ताकि ब्लोग को सर्च इंजिन्स जल्दी से जल्दी पहचान सके।
- इतना सब करने के बाद साइटपॉइंट या डीपी फोरम, जहाँ कि ब्लोग्स और वेबसाइट्स की खरीदी बिक्री होती है, में उस ब्लोग को बेच देते हैं।
अरे हाँ, जो बात सबसे पहले कहनी थी वह तो भूल ही गया, चलो अब कह देता हूँ आप सभी को नया साल मुबारक!
Tuesday, December 30, 2008
बाप दादाओं की तस्वीरों को निकाल कर फेंक दो
"हिन्दी के प्राचीनतम रूप और उसके प्राचीन साहित्य को अजाबघर में रख दो। उसकी अब कोई आवश्यकता नहीं।"
दिल खटास से भर गया है ऐसी बात पढ़ कर।
फिर तो बाप दादाओं की तस्वीरों को भी निकाल कर फेंक दो। क्यों उन्हें कमरे में लगा रखा है, क्या आवश्यकता रह गई है इन तस्वीरों की?
हिन्दी के प्राचीनतम रूप को अजायबघर में रख देने के बाद कौन सी हिन्दी का प्रयोग करोगे? अंग्रेजी शब्दों के सहारे जीवित रहने वाले खिचड़ी हिन्दी की? आज हिन्दी का सही ज्ञान ही लुप्तप्राय हो चुका है। दिल्ली जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र के लोगों को गागर जैसे सामान्य शब्द का अर्थ नहीं पता है (देखें मेरा ये पोस्ट)। अपने अज्ञान को छुपाने का यह बहुत ही अच्छा तरीका है। स्वयं अपना ज्ञान बढ़ाने के बदले दूसरे सभी लोगों को अज्ञानी बना दो।
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी चिट्ठा चर्चा की टिप्पणी के माध्यम से कहते हैं, "........ और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा?....."
भाई जब आप जानते हैं कि हमारे पाठ्यक्रम जड़ हैं तो क्या जरूरत थी आपको उसी जड़ पाठ्यक्रम को चालीस साल तक पढ़ाने की? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा ही वास्तविक हिन्दी भाषा है और यदि हम उस भाषा को समझ नहीं सकते, उनकी तरह लिख नहीं सकते तो इसमें उनकी भाषा का क्या दोष है? दोष है तो हमारी अज्ञानता का। मन्दाक्रांता, छन्द (आप हिन्दी पढ़ाते हैं किन्तु यह भी नहीं जानते कि मन्दाक्रांता छन्द का एक प्रकार है, छन्द जैसा काव्य का कोई अलग अवयव नहीं) और किसम किसम के अलंकार आज भी प्रासंगिक हैं किन्तु हममें अब वैसी काव्य रचने का सामर्थ्य नहीं रह गया है। उन महान कवियों ने हिन्दी को अलंकृत किया था, अब यदि हम हिन्दी को अलंकृत नहीं कर सकते तो क्या उसके वस्त्र भी उतार दें?
मैं ऐसी बातें लिखने से हमेशा परहेज करता हूँ जिनसे किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न हो। ऐसी बाते मुझे पसंद ही नहीं हैं। किन्तु आज इस पोस्ट को लिखने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। जानता हूँ कि क्या होगा। बहुत सारी विरोधी टिप्पणिया ही आयेंगी ना। आने दो। न तो मैं यहाँ पर जो अपने विचार लिख रहा हूँ वह मेरे विरोधी विचार वालों पर जबरदस्ती लद जाने वाला है और न ही विरोधी विचार वाली टिप्पणियाँ मुझ पर लदने वाली हैं।
दिल खटास से भर गया है ऐसी बात पढ़ कर।
फिर तो बाप दादाओं की तस्वीरों को भी निकाल कर फेंक दो। क्यों उन्हें कमरे में लगा रखा है, क्या आवश्यकता रह गई है इन तस्वीरों की?
हिन्दी के प्राचीनतम रूप को अजायबघर में रख देने के बाद कौन सी हिन्दी का प्रयोग करोगे? अंग्रेजी शब्दों के सहारे जीवित रहने वाले खिचड़ी हिन्दी की? आज हिन्दी का सही ज्ञान ही लुप्तप्राय हो चुका है। दिल्ली जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र के लोगों को गागर जैसे सामान्य शब्द का अर्थ नहीं पता है (देखें मेरा ये पोस्ट)। अपने अज्ञान को छुपाने का यह बहुत ही अच्छा तरीका है। स्वयं अपना ज्ञान बढ़ाने के बदले दूसरे सभी लोगों को अज्ञानी बना दो।
दुर्गाप्रसाद अग्रवाल जी चिट्ठा चर्चा की टिप्पणी के माध्यम से कहते हैं, "........ और जानता हूं कि हमारे पाठ्यक्रम कितने जड़ हैं. चन्द बरदाई, कबीर, तुलसी, सूर, बिहारी, केशव सब महान हैं, अपने युग में महत्वपूर्ण थे, लेकिन सामान्य हिन्दी के विद्यार्थी को उन्हें पढाने का क्या अर्थ है? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा आज आपकी ज़िन्दगी में कहां काम आएगी? मन्दाक्रांता, छन्द और किसम किसम के अलंकार आज कैसे प्रासंगिक हैं? अगर हम अपने विद्यार्थी को इन सब पारम्परिक चीज़ों के बोझ तले ही दबाये रखेंगे तो वह नई चीज़ें पढने का मौका कब और कैसे पाएगा?....."
भाई जब आप जानते हैं कि हमारे पाठ्यक्रम जड़ हैं तो क्या जरूरत थी आपको उसी जड़ पाठ्यक्रम को चालीस साल तक पढ़ाने की? तुलसी, सूर, बिहारी की भाषा ही वास्तविक हिन्दी भाषा है और यदि हम उस भाषा को समझ नहीं सकते, उनकी तरह लिख नहीं सकते तो इसमें उनकी भाषा का क्या दोष है? दोष है तो हमारी अज्ञानता का। मन्दाक्रांता, छन्द (आप हिन्दी पढ़ाते हैं किन्तु यह भी नहीं जानते कि मन्दाक्रांता छन्द का एक प्रकार है, छन्द जैसा काव्य का कोई अलग अवयव नहीं) और किसम किसम के अलंकार आज भी प्रासंगिक हैं किन्तु हममें अब वैसी काव्य रचने का सामर्थ्य नहीं रह गया है। उन महान कवियों ने हिन्दी को अलंकृत किया था, अब यदि हम हिन्दी को अलंकृत नहीं कर सकते तो क्या उसके वस्त्र भी उतार दें?
मैं ऐसी बातें लिखने से हमेशा परहेज करता हूँ जिनसे किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न हो। ऐसी बाते मुझे पसंद ही नहीं हैं। किन्तु आज इस पोस्ट को लिखने से मैं स्वयं को रोक नहीं पाया। जानता हूँ कि क्या होगा। बहुत सारी विरोधी टिप्पणिया ही आयेंगी ना। आने दो। न तो मैं यहाँ पर जो अपने विचार लिख रहा हूँ वह मेरे विरोधी विचार वालों पर जबरदस्ती लद जाने वाला है और न ही विरोधी विचार वाली टिप्पणियाँ मुझ पर लदने वाली हैं।
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