Thursday, December 6, 2007

या देवी सर्व भूतेषु

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

या देवी सर्व भूतेषु
'कैब्रे' रूपेण संस्थिता।
हे देवी, तुम 'कैब्रे' बन कर,
दिल दिल से मिल नाच रही हो;
जन-गण-मन की दुर्बलता को,
थिरक-थिरक कर माप रही हो।
महाकालिका ने ऐसे ही,
असुरों का संहार किया था;
पर देवी, तुम तो देवों को भी,
चुम्बक-सी ललकार रही हो।
नमस्तस्यै कैसे कहें?
और तुम्हारी ललकार को-
भावुक कविगण कैस सहें!

या देवी सर्व भूतेषु
'बेल बॉटम' रूपेण संस्थिता।
बेल बॉटम में सिमट सुन्दरी,
महापुरुष-सी लगती हो;
पुरषों से दूरी दूर किये,
नये ज्ञान में जगती हो।
बालक भी एकाकार हुये,
बेल बॉटम का ले आश्रय;
डरा न करते वे तुमसे अब,
रहा न तुमको भी उनका भय।
तुम कहो नमस्तस्मै,
वे कहें नमस्त्यै;
सब करतल ध्वनि कर चीखें
जय बेल बॉटम जय जय जय।

या देवी सर्व भूतेषु
'गाउन' रूपेण संस्थिता।
स्लीपिंग गाउन, वाकिंग गाउन,
देख देख हो जाते डाउन;
वीरों को खूब पछाड़ा है,
भारत में बहुत दहाड़ा है।
तरुणी युवती वृद्धा प्रौढा,
सभी पुजारिन गाउन के;
साड़ी फाड़ बनायें गाउन,
सदा सुलभ शुभ दर्शन उनके।
देसी घोड़ी परदेसी लगाम,
क्यों न करें हम उन्हें प्रणाम!
गति-यति-लय से चीखेंगे-
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

या देवी सर्व भूतेषु
'ब्लाउज' रूपेण संस्थिता।
आस्तीन हीन इठलाती हो,
चौड़ी गर्दन-मुसकाती हो;
फिर भी देवी कहलाती हो,
टुनटुन-सी वज्र गिराती हो।
पूरब-पश्चिम के भेद सभी,
चबा चबा कर खाती हो;
ऊँची एँड़ी के सैण्डिल में,
खटखट खटखट आती हो।
चारों ओर शोर मचता है,
हर स्वर हर दम यह रटता है;
या देवी सर्व भूतेषु
चण्डी रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।

(रचना तिथिः 28-11-1980)

Saturday, December 1, 2007

राष्ट्रीय एकता

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

ब्रह्म एक पर बन अनेक शक्ति बाँटता,
सब में स्वयं ही विराजमान रहता है;
ऐसे ही, राष्ट्र एक पर अनेक राज्य बन,
जन-मानस में शक्ति बन सँवरता है;
शरीर एक में अनेक अंग, एक श्वास में-
अभिन्न होते, एक स्पन्दन लहराता है,
वैसे ही, भिन्नता में अदम्य अभिन्नता बन,
राष्ट्रीय एकता का हृदय धड़कता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण ने,
इसी देश में राष्ट्रीय चेतना भर दी थी;
पुरु ने राष्ट्रीय एकता का शंख फूँक कर,
भारतवर्ष की अलेक्षेन्द्र से रक्षा की थी;
सम्राट चन्द्रगुप्त ने एक किया भारत को,
प्रियदर्शी अशोक ने जग को दीक्षा दी थी;
रामतीर्थ और विवेकानन्द ने, आध्यात्मिक-
बल से विषम राष्ट्र वेदना हर ली थी।

गांधी-सुभाष बोस-जवाहर शास्त्री-इन्दिरा,
भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद;
बाल-पाल-लाल स्वाधीनता के मतवालों ने,
सबल राष्ट्रीय एकता को किया आबाद;
अधिकार हमें क्या है जो स्वार्थ-सिद्धि के हित,
इस राष्ट्रीय एकता को कर दें बर्बाद,
हमें चाहिये कि जीवन में पल प्रति-पल,
करते रहें राष्ट्रीय एकता को ही याद।

जागृत हों, सत्यवाद से हृदय विभूषित,
अग्रगण्य हों स्वार्थवाद के सर्वनाश में;
मनु बन कर मानवता की रक्षा कर लें,
बन जावें कवच भावी विश्व-विनाश में;
नई सृष्टि नई दृष्टि ले कर बढ़ते जावें,
बँधने न दें विश्व को तुच्छ स्वार्थ पाश में;
राष्ट्रीय एकता का सम्बल, शान्ति दल बनें,
अड़े रहें निस्वार्थ विश्व की हर आश में।

न्यौछावर कर दें प्राणों को राष्ट्र सुरक्षा में,
किंचित् आँच न भारत पर आने पाये;
सर्वश्रेष्ठ बन जग में उभरे भारत,
जन जन के मन में तिरंगा लहराये;
विज्ञान ज्ञान संस्कृति भारत की, अविराम-
विश्व में शान्ति और आत्म बल बन जाये;
आध्यात्मिक बल से राष्ट्रीय एकता से हम,
उज्ज्वल नई शताब्दी में विश्व को ले जायें।

(रचना तिथिः 08-10-1985)

Thursday, November 29, 2007

तुलसी का संदेश

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुलसी का सन्देश यही है
सियारम मय जग को जानो,
अपने भीतर सबको देखो
सबमें अपने को पहचानो।

स्वाति बूंद है राम रमापति
उसके हित चातक बन जावो,
आत्म-शक्ति जागेगी तुममें
राम-भक्त जो तुम हो जावो।

भौतिकता में रावण पलता
आध्यात्मिकता में श्री राम,
राम-राज का सुख चाहो तो
मत जगने दो मन में काम।

काम-अर्थ के चक्कर में तुम
धर्म-मोक्ष को भूल गये हो,
अति अनाचार के झूले में
रावण के संग झूल गये हो।

"मानस" पढ़ कर निज मानस में
तुलसी की ही स्मृति जगने दो,
आदर्श राम का जागृत कर
भारत को भारत रहने दो

(रचना तिथिः 04-08-1995)

Wednesday, November 28, 2007

ऋषि-मुनि सम्मेलन

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

ऋषियों ने, मुनियों ने सोचा,
क्यों न करें हम सम्मेलन,
ऋषियों-मुनियों का बहुमत है,
क्यों न करें फिर आन्दोलन।

मुनि-मण्डल के मंत्री नारद,
संयोजक थे सम्मेलन के ,
दुर्वासा लीडर बन बैठे,
महा उग्र आन्दोलन के।

अध्यक्ष व्यास ने शौनक को,
अपना एडीकांग बनाया,
सबने छाना सरस सोमरस,
शून्य काल में शोर मचाया।

पाराशर-सत्यवती-नन्दन,
व्यास दलित के रक्षक थे,
ब्राह्मण-धीवर की सन्तति वे
शेड्यूल कॉस्ट के अग्रज थे।

आरक्षण का प्रस्ताव रखा,
सूत महामुनि ने हँस कर,
स्वीकार किया ऋषि-मुनियों ने,
बहुमत के चक्कर में फँस कर।

अगला प्रस्ताव किया पारित,
साधु-सन्त को त्याग दिया,
साधू साधक हैं, सिद्ध नहीं,
सन्तों ने सबका अन्त किया।

इस पर सम्मेलन में शोर हुआ,
उग्र प्रचण्ड मचा हंगामा,
देख उसे ढीला हो जाता,
संसद का पाजामा।

(रचना तिथिः 24-08-1984)

Tuesday, November 27, 2007

पंजा

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

कवियों से अनुरोध यही है,
पंजावादी बन जाओ;
सुख-सम्पति-सत्ता चाहो तो,
पंजे के नीचे आओ।

पंजा व्यापक है इस युग में,
पंजे से उद्धार नहीं;
नर का हो या फिर नर-पशु का,
चाहे हो खूंख्वार सही।

पंचशील से पंजे तक का,
सब इतिहास निराला है;
पंजा खूनी रहा निरन्तर,
तन उजला मन काला है।

पंजा-पंजा हुआ देश में,
पंजे की महिमा भारी है;
पंजे पैने करें भेड़िया,
पंजे की लीला न्यारी है।

पंजा ख़ून किया करता है,
पंजे से ही देते घूस;
पंजा से पंजा मिल जाता,
फिर क्यों कोई हो मायूस।

पंजा कवच पहन नेतागण,
मनमानी कर लेते हैं;
लोगों को कुछ और नहीं तो,
वादा तो दे देते हैं।

(रचना तिथिः शनिवार 21-11-1980)

Thursday, November 22, 2007

हाय राम अब क्या होगा!

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

जनता बड़ी अनाड़ी,
पहन रखी है साड़ी,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता शासक चुनती है,
चुन कर मूरख बनती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता मंहगाई सहती है,
नव-वधू-सी चुप रहती है,
हाय राम अब क्या होगा!

जनता जनता को छलती है,
छोटी मछली को बड़ी निगलती है,
हाय राम अब क्या होगा!

नेता कुर्सी पकड़ते हैं,
अफसर खूब अकड़ते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

मूरख आगे बढ़ते हैं,
सज्जन पीछे हटते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

चमचे आँख दिखाते हैं,
अपनी धौंस जमाते हैं,
हाय राम अब क्या होगा!

सत्य छिपा जाता है,
झूठ उमड़ता आता है,
फिर भी हम कहते हैँ,
सत्यमेव जयते!

हाय राम अब क्या होगा!

Wednesday, November 21, 2007

अगर कहीं मैं तोता होता

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

अगर कहीं मैं तोता होता
बेशरमी पर कभी न रोता।
कविता कानन के पुष्पों को
कुतर चोंच को पैनी करता,
काव्य-पींजड़े से उड़ जाता
छन्द अलंकारों को चरता;
झटपट अटपट गटपट कविता रचता होता।
अगर कहीं मैं तोता होता।

आँखें फेर लिया करता मैं,
रामायण के वातायन से
टें टें टें टें रटन लगाता
काम न रखता कुछ गायन से,
सीताराम न रटता, राधेश्याम न कहता, नास्तिक होता।
अगर कहीं मैं तोता होता।

टुनक काटता मैं संस्कृति को
भाषा की खिचड़ी खाता,
दर्पण में प्रतिबिम्ब देख कर
गिटपिट गिटपिट शोर मचाता।
हिन्दी की चिन्दी कर देता अंग्रेजी में जगता सोता।

अगर कहीं मैं तोता होता।
चोंच चलाता सबके ऊपर
भर घमण्ड में पंख फुलाता,
आँखें फेर लिया करता मैं
निन्दा सुनता और सुनाता।
आडम्बर में डूबा रहता, बीज कलह कि निशिदिन बोता।
अगर कहीं मैं तोता होता।

Thursday, November 8, 2007

बापू के तीन बन्दर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

बुरा मत सुनो,
बुरा मत देखो,
बुरा मत बोलो,
बापू के सिद्धान्तों के प्रतीक
तीनों बन्दर-
बदल गये हैं अन्दर ही अन्दर,
क्योंकि वे अब नेता बन गये हैं;
ऊपर से चमकदार, उजले, सुन्दर,
पर भीतर से पूरी तरह सड़ गये हैं।

तीनों बन्दर बापू के नाम पर
कालिख पोत रहे हैं,
और अपना ही घर भरने केलिये
सत्ता का शक्तिशाली हल जोत रहे हैं।

बुरा न देखने वाला बन्दर अब-
बुराई और सिर्फ बुराई के सिवाय
कुछ नहीं देखता है,
अव्वल दर्जे का नेता है वह-
जनता का वोट पाकर,
सत्ता के मद में आकर,
अपनी डफली बजाकर,
अपना ही राग रेंकता है।

बुरा न सुनने वाला बन्दर-
कानों से हाथ हटा कर,
चमचों की बातों में आकर,
अपनी प्रशंसा सुनने लगा है,
और अगर बहरा है तो भी-
श्रवण-यंत्र लगा कर,
बुराइयाँ सुन-समझ कर,
दल पर दल बदलने लगा है।

बुरा न बोलने वाला बन्दर-
गला फाड़ चिल्ला कर,
लोगों के समक्ष जा कर,
अपने ही दल का दम भरने लगा है,
भाषण और आश्वासन का
अनर्गल प्रलाप करने लगा है।

बापू के जीवन-काल में-
तीनों बन्दर मूर्ख थे-
पर बापू के मर जाने पर वे
सफेद टोपी पहन, नख-शिख सफेद हो कर
अपने आपको बुद्धिमानों में गिनने लगे हैं।
पर बन्दर के अन्दर-
बन्दर-बुद्धि के सिवाय और क्या रहेगा-
चाहे वह नेता, महानेता, अभिनेता-
या नारद के समान-
सुन्दर तन, कलूटा मन बन्दर-मुख हो जाये-
तो भी जानवर, जानवरों का ही नेता बनेगा।

लेकिन पते की बात तो यह है कि-
ये बन्दर समझदारों के बीच भी
मान न मान, मैं तेरा मेहमान के नियम से
नेता के रूप में नाचने वाले
बापू के तीनों बन्दर-
स्वयं को ब्रह्मा मान अकड़ दिखाते हैं,
बन्दर-बाँट और लूट-खसोट को-
कदम कदम पर दुहराते और तिहराते हैं।

बापू के तीनों बन्दर
अब नेता हैं, जनता के सेवक हैं-
पर अगर पोस्ट मार्टम करोगे उनका
तो पावोगे भूखे भेड़िये को
उसके दिल के अन्दर,
बापू के तीन बन्दर
बापू के तीन बन्दर

(रचना तिथिः शनिवार 02-10-1984)

Wednesday, November 7, 2007

वापस चल

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।

विनाशिनी संहारिणी शक्ति-
तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,
उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तम
शान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,
चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।

(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)

Monday, November 5, 2007

किसको अच्छा लगता है?

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

बच्चों का गुमसुम हो जाना,
युवकों का माला टरकाना,
बूढ़ों का श्रृंगार सुनाना,
नारी का निर्लज हो जाना,
किसको अच्छा लगता है?

दूध-रहित बचपन पलता है,
दुर्बल यौवन सिर धुनता है,
वृद्ध वर्ग सपने बुनता है,
तृष्णा में खुद को ठगता है,
यह किसको अच्छा लगता है?

बचपन होता निश्छल जीवन,
प्रेमांकुर ही पाता यौवन,
अध्यात्म-ज्ञान ही वृद्धों का धन,
बने सफल सब का ही जीवन,
यह सबको अच्छा लगता है।

(रचना तिथिः 25-09-1983)

Sunday, November 4, 2007

कौन रोकता है?

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।

धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।

क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।

कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।

हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।

(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)

Saturday, November 3, 2007

मैं भी तुमसे दूर रहूँगी

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

दूर रहा करते हो मुझसे,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी;
होगा इससे कष्ट मुझे जो,
तो उसको चुपचाप सहूँगी।

स्पर्श तुम्हारा जब हो जाता है,
गहरी शान्ति मिला करती है;
लगता है नील-गगन में ज्यों,
समा गई हो यह धरती है।

किया समर्पण तन-मन तुमको,
पर सच को तुम क्या पहचानो;
डूबे रहते हो अपने में ही,
दिल को तुम कैसे पहचानो।

तुम मस्तक मैं बुद्धि तुम्हारी,
पर यह तुम कैसे जानोगे?
आयेगी मिलने की बारी,
तब ही मुझको पहचानोगे।

पर ठुकराओगे मुझको तो,
मन ही मन मैं घुटन सहूँगी;
दूरी जो रखते हो मुझसे तो,
मैं भी तुमसे दूर रहूँगी।

(रचना तिथिः गुरुवार 31-01-1981)

Tuesday, October 30, 2007

गीत

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो;
मुझे निराश सदा तुम करती,
फिर भी तुम मेरी आश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

उत्कण्ठा में आकुल मैं तो,
चिरप्रतीक्षा के क्षण गिनता हूँ;
किन्तु नहीं आते हो जब तुम,
सपनों में तुमसे मिलता हूँ;
तुम तो मेरा जीवन हो,
तुम ही मेरी श्वाँस भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

मिलने की घड़ियाँ कब आवेंगी?
दिन-रात यही सोचा करता हूँ;
पर न मिलन जब होता है तो,
ठंडी ठंडी आहें भरता हूँ;
तुमने मुझको बांधा है, तुम मेरी उलझन हो,
फिर भी तुम मेरी पाश ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

तुमसे मेरे जीवन में स्पन्दन है,
नस नस में तुम छाये रहते हो;
पल भर भी भूल न पाता तुमको,
जाने किस जादू में भरमाये रहते हो;
तुम ही मेरे जीवन के रक्षक-
तुम ही मेरी नाश भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

देख न पाता हूँ जब तुमको,
ऐंठन मन में होती है;
तुम्हें सामने जब पाता हूँ,
जगी वेदना सोती है;
तुम ही मेरी दुनिया हो,
मेरे जीवन का विश्वास भी हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

आओ दो से एक बनें हम,
हिलमिल दोनों खो जायें;
मैं मैं न रहूँ, और तुम न रहो तुम,
सरिता-सागर हो जायें;
धड़कन तेरे दिल की बन जाउँ,
तुम तो मेरी श्वाँस ही हो,
तुम दूर भी हो, तुम पास भी हो।

(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1981)

Friday, October 26, 2007

मेघदूत

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

हे मेघ खण्ड,
बनो तुम दूत प्रचण्ड,
सन्देशा ले जावो-
जिसे देना है-
उसके ही हाथों में दे आवो-
क्योंकि-
'थ्रू प्रापर चैनल' भेजने में
सन्देशा गायब होने का डर है,
दूत-कर्म में तुम अभ्यस्त हो-
कविवर कालिदास ने किया तुम्हें अमर है।

कालिदास ने तो-
आषाढ़ के प्रथम दिन ही
तुम्हारे हाथों यक्ष का सन्देशा
विरहिणी यक्षिणी को भेजा था-
पर मैं समय-काल-मुहूर्त का विचार छोड़-
जनता के पति के पास
सन्देशा भेज रहा हूँ
और सन्देशे में-
स्वराज्य का आनन्द सहेज रहा हूँ।

अब नरपति, गजपति, रथपति, और अश्वपति
का युग लद गया,
उन पतियों ने जन-पतियों को
शासन की विरासत सौंप दी-
जिससे राजनीति का कद घट गया।

हाँ, तो मेघदूत,
इस युग में जनता के दो पति हैं
उन्हें ही सन्देशा देना-
और जन-कल्याण की बहती गंगा में
अपने काले हाथ धो लेना।
दोनों पतियों में से एक है-
प्रान्त पति अथवा राज्यपाल,
पर तुम हिन्दी के इन शब्दों को क्या समझोगे-
इसलिये 'गवर्नर' सुनो, गवर्नर कहो-
नहीं तो हो जायेगा तुम्हारा बेहाल।

जनता के दूसरे पति हैं 'राष्ट्रपति',
इन्हें भी 'प्रेसीडेण्ट' कहो-
नहीं तो चारों तरफ फैलेगा अनर्थ
और परम प्रिय मेघदूत-
तुम्हारा दौत्य-कर्म हो जायेगा व्यर्थ।

इन दोनों पतियों से कहना
ओ गगन-निवासी मेघदूत-
कहना कि तुम्हारी पत्नी (जनता) के आसपास
नाचते रहते हैं भयंकर भूत।
आरक्षण का भूत, आतंकवाद का भूत,
काले धन का भूत, दुर्घटनाओं का भूत,
संक्षेप में कहना कि तुम्हारी पत्नी
जिधर देखती है उधर भूत ही भूत।

प्रान्तपति और राष्ट्रपति को-
बताना कि तुम्हारी पत्नी की दुर्गति है
लेकिन तुम दोनों पति भी क्या कर सकते हो
क्योंकि-
तुममें प्रत्येक-
केवल 'रबर स्टैम्प' जन-पति है।

(रचना तिथिः शनिवार 27-07-1985)

टीपः अपने स्वर्गीय पिता की रचनाओं को यहाँ पर प्रकाशित करने के विचार ने मुझे संकोच से भर दिया था कि आज भला कौन इस 'आउट-डेटेड' रचनाओं को पसंद करेगा, किन्तु यह सोच कर कि कुछ लोग तो इन रचनाओं को पढ़ने वाले अवश्य मिलेंगे मैंने इन्हें प्रकाशित करने का साहस कर ही लिया। अब मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि श्री समीर लाल (उड़न तश्तरी) जैसे 'इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार' से नवाजे गये रचनाकार को पसंद आये हैं और उन्होंने लगातार टिप्पणी करके मेरा उत्साहवर्धन किया है। इसके लिये मैं श्री समीर जी का हार्दिक रूप से आभारी हूँ।


जी.के. अवधिया

Monday, October 22, 2007

मैं विद्वान हूँ

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं विद्वान हूँ, ज्ञानवान हूँ,
तोता मुझसे डरता है;
डरना ही होगा उसको क्योंकि,
जितना मैं रटता हूँ, क्या वह रटता है?

भाषा-ज्ञान असीमित मेरा,
पर अंग्रेजी है वह भाषा;
'आफ्टन' 'शुल्ड' 'वुल्ड' कहता हूँ मैं,
इंग्लैंड जाने की है अभिलाषा।

गणित? गणित को तो चुटकी में ही-
मसल दिया करता हूँ;
माडर्न मैथ्स का कीड़ा मैं-
पागलपन अमल किया करता हूँ।

इतिहास! पढ़ने की क्या है जरूरत,
मैं स्वयं इतिहास बना करता हूँ;
अपने काले करतब स्वर्णाक्षर से,
दिन रात लिखा करता हूँ।

यदि मैं शिक्षक बन पाता तो-
मौज मजे के दिन होते;
राजनीति में उलझ जूझता,
और पढ़ाता सोते-सोते।

विद्वानों में विद्वान बड़ा मैं,
अधिवक्ता कहलाता हूँ;
काला कोट ज्ञान में उत्तम,
सुलझे को उलझाता हूँ।

मैं नेता विद्या में माहिर,
अंगूठे से लिख लेता हूँ;
शिक्षा मंत्री बन जाता हूँ और,
नाव देश की खेता हूँ।

पास परीक्षा मैंने की है,
पर इम्तिहान में कभी न बैठा;
पैसे के बल डिग्री ले ली,
और लोगों से डट कर ऐंठा।

विद्वान बड़ा मैं भी तो हूँ,
घण्टी नित्य बजाता टिन टिन;
बेकारी का मारा मैं तो,
रिक्शा खींच रहा हूँ प्रतिदिन।

(रचना तिथिः शनिवार 27-01-1980)

Sunday, October 21, 2007

सद्‍भाव

(विजयादशमी के अवसर पर स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित एक और कविता)

'सद्‍भाव' एक सुन्दर शब्द है,
पर आजकल यह शब्द-
शब्दकोश की शोभा मात्र बन गया है
और लोगों के दिलों से
स्वार्थ की आंधी में बह गया है।

सुनते हैं एक नया मुहावरा
'साम्प्रदायिक सद्‍भाव' का,
जिसका निरन्तर रहेगा अभाव ही
क्योंकि-
यदि सद्‍भाव होता तो सम्प्रदाय क्यों बनते
और सम्प्रदाय न बनते तो 'साम्प्रदायिक सद्‍भाव' मुहावरा कहाँ से आता?
तो-
सद्‍भाव का अभाव ही तो दानवता है।

किन्तु सद्‍भाव को
हर दिल में अटल बनाना ही है,
समूचे राष्ट्र को,
सद्‍भाव के श्रृंगार से सजाना ही है,
क्योंकि-
सद्‍भाव ही तो मानवता है।

तो-
पहले अपने अन्तस्तल को जानो,
फिर सबके हृदयेश्वर को पहचानो
एक ही सत्ता-सागर की
लहरों में रखो समभाव
तब स्वतः ही उत्पन्न हो जायेगा सद्‍भाव
क्योंकि-
तब मानव मानव को पहचान लेगा,
सद्‍भाव के रहस्य को जान लेगा।

(रचना तिथिः शनिवार 22-11-1980)

Saturday, October 20, 2007

राष्ट्रभाषा के उद्‍गार

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं राष्ट्रभाषा हूँ -
इसी देश की राष्ट्रभाषा, भारत की राष्ट्रभाषा

संविधान-जनित, सीमित संविधान में,
अड़तिस वर्षों से रौंदी एक निराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।
तुलसी, सूर, कबीर, जायसी,
मीरा के भजनों की भाषा,
भारत की संस्कृति का स्पन्दन,
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

स्वाधीन देश की मैं परिभाषा-
पर पूछ रही हूँ जन जन से-
वर्तमान में किस हिन्दुस्तानी
की हूँ मैं अभिलाषा?
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

चले गये गौरांग देश से,
पर गौरांगी छोड़ गये
अंग्रेजी गौरांगी के चक्कर में,
भारत का मन मोड़ गये
मैं अंग्रेजी के शिविर की बन्दिनी
अपने ही घर में एक दुराशा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मान लिया अंग्रेजी के शब्द अनेकों,
राष्ट्रव्यापी बन रुके हुये हैं,
पर क्या शब्दों से भाषा निर्मित होती है?
तब क्यों अंग्रेजी के प्रति हम झुके हये हैं?
ले लो अंग्रेजी के शब्दों को-
और मिला दो मुझमें,
पर वाक्य-विन्यास रखो हिन्दी का,
तो, वो राष्ट्र! आयेगा गौरव तुझमें।

'वी हायस्ट नेशनल फ्लैग एण्ड सिंग
नेशनल सांग के बदले
अगर बोलो और लिखो कि
हम नेशनल फ्लैग फहराते-
और नेशनल एन्थीम गाते हैं-
तो भी मै ही होउँगी-
नये रूप में भारत की राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

मैं हूँ राष्ट्रभाषा
मैं इसी देश की राष्ट्रभाषा।

(रचना तिथिः गुरुवार 15-08-1985)

Friday, October 19, 2007

जय दुर्गे मैया

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

जय अम्बे मैया,
जय दुर्गे मैया,
जय काली,
जय खप्पर वाली।

वरदान यही दे दो माता,
शक्ति-भक्ति से भर जावें;
जीवन में कुछ कर पावें,
तुझको ही शीश झुकावें।

तू ही नाव खेवइया,
जै अम्बे मैया।

सिंह वाहिनी माता,
दुष्ट संहारिणि माता;
जो तेरे गुण गाता,
पल में भव तर जाता।

तू ही लाज रखैया,
जय अम्बे मैया।

महिषासुर मर्दिनि,
सुख-सम्पति वर्द्धिनि;
जगदम्बा तू न्यारी,
तेरी महिमा भारी।

तू ही कष्ट हरैया,
जय अम्बे मैया।

(रचना तिथिः रविवार 12-10-1980)

Thursday, October 18, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

3

सुजान सिंह राम सिंह को अपने साथ शहर में ले आया। प्रेमा भी साथ ही वापस आई। रामसिंह की माता और भाई को जब सुजान सिंह ने सूचित किया कि वे अपनी पुत्री को उनकी बहू बनाना चाहते हैं तब उन दोनों की खुशी का ठिकाना न रहा। लेन-देन की कल्पना तक से दोनों पक्षों को हृदय से चिढ़ थी ‍- घृणा थी।

अब प्रेमा और रामसिंह को एक साथ रहने का अवसर मिला। जैसे अशान्त सागर की क्षुब्ध लहरें शान्त हो जावें और अथाह जल स्पष्ट ही झलकने लगे वैसे ही उन दोनों के प्रेम के उफान में गहरी शान्ति भीतर ही भीतर गम्भीर हो गई। और दोनों की मुद्रा और हाव-भाव में उनकी गम्भीरता स्पष्ट ही प्रकट हो रही थी। किन्तु प्रेमा और रामसिंह अधिक समय तक एक साथ एक ही घर में नहीं रह सके। रामसिंह को अलग एक क्वार्टर में रहना पड़ा क्योंकि सुजान सिंह ने उस पुलिस की नौकरी दिलाने का प्रबन्ध जो कर दिया था।

स्वाभाविक ही है कि जो जिस व्यसाय या नौकरी में होता है वह उसे ही उत्तम समझता है और उसकी हार्दिक कामना होती है कि उसकी सन्तान तथा आत्मीय रिश्तेदार भी सरलता से उसी में लग जावें। यही दशा सुजान सिंह की भी थी। उन्होंने सोचा रामसिंह भी उसी विभाग में काम कर ले तो अच्छा होगा जिसमे वे स्वयं नौकर थे। रामसिंह भी पढ़ने-लिखने के मामले में बड़ा शून्य था। सुजान सिंह के प्रयत्न से रामसिंह रंगरूटों में भर्ती कर लिया गया और उसके रहने के लिये अलग क्वार्टर का प्रबन्ध हो गया।

रामसिंह के कुछ दिन परेड की कठोरता और पुलिस कार्य के अध्ययन की बारीकी में बीते। यह समय उसके लिये कड़े से कड़े परिश्रम का था। परिश्रम की कठोरता में प्रेमा के लिये उसके हृदय में रहने वाली कोमल भावनायें प्रायः सुप्त सी रहीं। उधर प्रेमा आकुल सी मन मसोस कर रह जाती थी। जब कभी उसका युवा मन भड़क उठता था तब वह धीरज की लोरी सुना सुना कर सुलाने के प्रयत्न में अशान्त हो जाती थी। फिर भी दोनों के हृदय में सन्तोष था कि विवाह बन्धन में बँध कर वे शीघ्र ही एक हो जावेंगे। सुजान सिंह ने भी निश्चय कर लिया था कि पक्के ढंग से नौकरी मिल जाने पर ही वे रामसिंह के साथ प्रेमा का ब्याह करेंगे।

और रामसिंह की नौकरी पक्की हो गई। मुहूर्त आया और प्रेमा के साथ उसका ब्याह हो गया। दोनों ऐसे सुखी थे मानो स्वर्ग का साम्राज्य ही उन्हें मिल गया हो। विवाह के बाद के प्रथम कुछ दिन श्रृंगार विलास के होते ही हैं। प्रेमा की सभी सुषुप्त भावनायें उभार की चोटी की ओर कदम कदम बढ़ती जा रही थीं। किन्तु गार्हस्थ्य जीवन के केवल बारह दिनों के बाद ही रामसिंह का एक गाँव में तबादला हो गया। कठोर कर्तव्य से भरी हुई पुलिस की नौकरी जो ठहरी। प्रेमा ऐसे सूख गई जैसे दो दिनों की रिमझिम बरसात से लहलहाई हुई लता बाद में पड़ने वाली तीखी गर्मी से झुलस जाती है। सुजान सिंह की चिन्ता भी घबरा उठी। उसके प्रबन्ध के अनुसार रामसिंह तो गाँव के थाने चला गया पर आहों से भरी गरम श्वाँस लिये प्रेमा घर में ही रह गई क्योंकि सुजान सिंह शीघ्र ही अपने दामाद रामसिंह की बदली गाँव से अपने शहर में कराने के प्रयत्न में एड़ी-चोटी का पसीना एक करने लगे थे। उनके प्रयत्न का परिणाम सामने आया भी। सुजान सिंह को कप्तान साहब ने आश्वासन दिया कि रामसिंह फिर शहर बुला लिया जावेगा। अतः प्रश्न ही नहीं उठा कि प्रेमा गाँव जाकर रामसिंह के साथ रहे।

प्रेमा को रामसिंह का वियोग बहुत ही खलता था। उसकी सहेलियाँ अब भी उससे मिलती थी, एक-दो बार वह उनके साथ सिनेमा भी देखने गई पर इससे उसके मन की अशान्ति गई नहीं उल्टे कुछ अधिक ही हो गई।

पन्द्रह दिनों के प्रयत्न के बाद सोलहवें दिन सुजान सिंह ने प्रेमा को सबेरे बताया कि आज शाम रामसिंह वापस आ रहा है - वह शहर में ही तैनात कर दिया गया है। सुन कर प्रेमा के हृदय में आनन्द का उफान बड़े वेग से उमड़ उठा पर पिता के सामने वह शान्त सी बनी रही। सुजान सिंह बाहर चले गये।

दिन का एक एक पल प्रेमा के लिये पहाड़-सा बीत रहा था। कभी वह शिथिल होकर लेट जाती तो कभी अंगड़ाई लेकर उठती और कमरे में बड़ी बेचैनी से टहलने लगती। उसे ऐसा लग रहा था कि आज शाम होगी ही नहीं। उसका एक एक अंग टूटता हुआ-सा मालूम हो रहा था। बीसों बार वह घड़ी देख चुकी थी कि कब शाम हो।

और शाम को लगभग साढ़े छः बजे सुजान सिंह अकेले ही घर आये। आते ही प्रेमा से बोले, "बेटी, रामसिंह गाँव से वापस आ तो गया है पर खजाने में बहुत ही जरूरी काम पड़ जाने से वह रात वहीं रहेगा और सबेर ही घर आयेगा। पुलिस की नौकरी ऐसी है जिसमें घर की ममता के लिये कोई स्थान नहीं।" सुन कर प्रेमा चुप रही पर उसकी आँखों के आगे अंधेरा सा छा रहा था। मन मार कर वह घर के कामों में लग गई। भोजन कर लगभग साढ़े नौ बजे सुजान सिंह अपनी ड्यूटी पर चले गये। घर में रह गई अकेली प्रेमा।

प्रेमा पलंग पर लेटी हुई थी पर उसकी आँखों में नींद के बदले अनमना जागरण और जलन थी। उसके विचारों में बवण्डर उठ रहा था। तालाब के पास ही जल से बाहर रह कर मछली तड़पती रहे तो उसकी आकुलता का क्या ठिकाना। रात का कुछ भाग प्रेमा ने आँखों में ही काटा और तभी उसने घड़ी देखी जो रात के साढ़े ग्यारह बजा चुकी थी। उसके मन में तीव्रतम भावना आई कि क्यों न अभी ही पति से मिल कर दो बातें ही कर ली जाय। वे खजाने में ही तो हैं और खजाना घर से केवल दो-तीन सो गज की दूरी पर ही तो है। इस भावना के पैनेपन के सामने प्रेमा का विवेक जवाब दे गया। वह चुपचाप उठी और सावधानी से घर के सब दरवाजे बंद कर बाहर सड़क पर थी - खजाने की ओर। उसकी आतुरता और सहनशीलता का अभाव उसे खींचे लिये जा रहा था। एक बार उसके मन में यह विचार अवश्य ही उठा कि कहीं रामसिंह के साथ दूसरे लोग भी हुये तो। लतो क्या - क्या वह अपने पति को उनसे अलग बुलाकर बात भी करने का अधिकार नहीं रखती। दूसरा विचार यह भी आया कि कहीं इसी बीच पिता जी घर आ गये तो। उसे घर में न पाकर क्या समझेंगे। किन्तु रात ड्यूटी में आज तक तो बीच में वे घर कभी नहीं आये - आज कैसे आ जावेंगे। प्रेमा मिलन की उत्कट अभिलाषा की आंधी में उड़ती हुई कदम कदम खजाने की इमारत की ओर जा रही थी।

यद्यपि चाँदनी रात थी तो भी चौथ की तिथि होने के कारण चन्द्रमा पश्चिमी क्षितज में अस्त हो चुका था। सब ओर एक धुंधलापन छाया हुआ था जिसमें चीजें और आकृति दीख तो जाती थीं पर एकाएक पहचानी नहीं जा सकती थीं। प्रेमा कपड़े में सिमटी हुई मुँह पर घूँघट डाली हुई थी। अब वह खजाने से केवल पचास गज ही दूर थी। उसके मन में विचारों का मेला सा लगा हुआ था। 'मुझे देखकर वे कितने खुश होंगे......"

"हाल्ट! हुकम सदर"

पहरेदार की कर्कश ध्वनि करक उठी पर प्रेमा के लिये वह दूर से आती हुई गड़गड़ाहट से अधिक मतलब नहीं रखती थी। न वह उसका मतलब ही समझती थी और न उसके कदम ही रुके। पहरेदार भी नहीं जानता था कि ये शब्द अशुद्ध हैं और 'हाल्ट! हू कम्स देयर!' (रुको! कौन आ रहा है!) के स्थान पर वह कह रहा है 'हाल्ट! हुकुम सदर' - जिसका मतलब वह इस तरह से समझता था कि 'सदर का हुकुम है कि रुक जावो।' इधर प्रेमा की आँखों के सामने उसकी कल्पना के पर्दे पर रामसिंह की सौम्य मूर्ति उसे बुलाती सी दिख रही थी। 'मैं कमरे की खिड़की के बाहर से झाँक कर देखूँगी। मुझे देखे ही उनकी खुशी आसमान छूने लगेगी।' विचारों का प्रवाह और प्रेमा सुध-बुध के साथ प्रायः अपने आपको भी भूलती सी जा रही थी।

"हाल्ट! हुकुम सदर"

दूसरी बार की चेतावनी थी और अबकी बार पहरेदार का हाथ बन्दूक सम्भाल चुका था। पर प्रेमा को इसका ध्यान ही कब था। उसने फिर कदम बढ़ाये और तीसरी बार "हाल्ट! हुकुम सदर" के साथ ही 'धाँय' के साथ बन्दूक से छर्रे की गोलियाँ सनसनाती हुई आईं और प्रेमा के पैरों में लगीं। वह चीख कर गिर पड़ी और सामने पड़े हुये बड़े से पत्थर पर उसका सिर टकरा कर फट गया - खून का फव्वारा चलने लगा।

"प्रेमा.......!" चीखकर पहरेदार उससे लिपट गया। वह और कोई नहीं रामसिंह ही था। उस दिन खजाने में पहरे पर रहने वाला सिपाही ठीक उसी समय अनिवार्य काम से छुट्टी लेकर चला गया था जिस समय रामसिंह गाँव से वापस आया और दूसरे आदमी के अभाव में प्रबन्ध किया गया था कि आज रात खजाने के पहरे पर रामसिंह की ड्यूटी रहे।

प्रेमा का गला रुंध गया था। शारीरिक और मानसिक आघात सहन करना असम्भव था। उसकी आँखों की टकटकी रामसिंह के चेहरे पर लग गई। ओंठ कुछ कहने के लिये कष्ट से फड़क-फड़क कर रह गये - प्रेमा ने दम तोड़ दिया।

xxxxxxx
वही खजाने की इमारत है। पास का वही पेड़ - पेड़ के पास वही पत्थर दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आता है। संसार का काम ज्यों का त्यों चल रहा है पर उस पत्थर पर एक आदमी दिन भर बैठा रहता है। उसे न किसी से मतलब है और न वह किसी कुछ बोलता ही है। रात को पास ही लेट जाता है। सिर के बाल बेहद बढ़ गये हैं। दाढ़ी-मूँछ अस्त-व्यस्त रूप से बढ़ गई है। फटे कपड़े। मैला शरीर। वीभत्स हाव-भाव। कभी खिलखिला कर हँस उठता है तो कभी आर्तनाद कर रो पड़ता है। बीच बीच में फटे स्वर से चिल्ला उठता है - 'हाल्ट! हुकुम सदर"। बड़ी कठिनाई से पहचाना जा सकता है कि वह अभागा रामसिंह ही है।

(तीन किश्तों में से अंतिम किश्त)

Wednesday, October 17, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

2

राधा के साथ गाँव पहुँच कर प्रेमा ने प्रकृति के बीच जहाँ शान्ति का अनुभव किया वहीं प्रकृति की मादकता और उत्तेजक शक्ति रह रह कर उसे अशांत भी कर देती थी। उसे सूना सूना सा लगता था। वसन्त का सुहावना समय था। चारों ओर सुन्दर फूल खिले थे। इधर उधर अंगारों जैसे लाल लाल टेसू मन में उत्साह और उत्तेजना भर रहे थे। दिन भर बासन्ती बयार बहती थी। अमराई में कोयल की कूक संगीत के पंचम स्वर के सुरीलेपन को भी लज्जित कर देती थी। प्रेमा को गाँव में कोई विशेष काम तो था नहीं। वह प्रकृति की शोभा निरखने में अपने आपको खोकर आँखें बिछा देती थी। जहाँ एक ओर वह प्रकृति को निरख कर आनन्द का अनुभव करती वहीं उसे अपने भीतर ही भीतर एक अजीब सी कसक और अजीब सी निराशा का भी अनुभव होता था। उसे यह तक पता नहीं था कि यह उसकी अवस्था का प्रभाव है।

प्रातःकाल की सुहावनी बेला में प्रेमा तालाब के घाट में अकेली स्नान कर रही थी। उसके ठीक बाजू के पत्थर पर स्नान करने के लिये चढ़ती हुई उमर का एक तरुण आ बैठा। वह तरुणाई और युवावस्था की वयःसन्धि में था। मूछों की रेख फूट चली थी। ललाट के चौड़ेपन में निश्चिन्तता थी। चेहरे पर रोब, रौनक और आकर्षण लहरा रहा था। भुजायें मांसल व फड़कती हुई थीं। प्रेमा की दृष्टि से यह सब छिप न सका। गाँव आने के बाद इस तरुण को उसने पहली ही बार देखा और तरुण भी पहली ही बार इस अनिंद्य सुन्दरी को अपने गाँव में देख कर हृदय में हलचल का अनुभव करने लगा। तालाब में और लोग भी स्नान कर रहे थे पर वे कुछ दूर के घाट में थे।

प्रेमा और तरुण पहले तो एक दूसरे को कनखियों से देखते रहे। फिर प्रेमा ने अपनी निगाह फेर ली पर वह मुग्ध तरुण अब खुले रूप में बार बार अतृप्त नयनों से रह रह कर प्रेमा प्रेमा के रूप लावण्य को निहार लेता था। यह देख कर प्रेमा को उसकी बेचैनी पर हँसी-सी आ रही थी पर वह केवल हल्की मुस्कान से ही उसके हृदय में तीर चला कर रह गई। उसे मन्द मन्द हँसती देखकर तरुण सहसा झेंप सा गया और साथ ही साथ उसके साहस में कुछ लहरियाँ भी उठीं। साहस उसका प्रबल हो उठा - वह बोला, "तुम मुझे देख कर हँस क्यों रही हो?" इस प्रश्न का उत्तर प्रेमा क्या देती। यदि स्पष्ट कह देती कि तुम्हारी चंचल गति से मुझे हँसी आ गई तो यह एक प्रकार से उसे ठेस पहुँचाना ही हो जाता। चुप रहती तो उस तरुण की उलझन उलझती ही जाती। प्रेमा को क्रोध तो था नहीं, प्रसन्नता की एक धुंधली सी झलक का ही उसके हृदय में स्फुरण हो रहा था।

प्रेमा की शरारत जाग उठी। उसके प्रश्न का उत्तर देने के बदले वह बनावटी खीझ और झुँझलाहट के स्वर में बोली, "तुम यहाँ क्यों आ बैठे जी? तुम्हें तो उधर नहाना था जहाँ और सब लोग नहा रहे हेँ। देखते नहीं मैं अकेली ही यहाँ पर नहा रही हूँ।" सुनकर युवक सकपका सा गया और अपने गीले कपड़े घाट पर के पत्थर से उठा कर चुपचाप भीगी बिल्ली की तरह वहाँ से खिसक जाने की तैयारी में लग गया। यह देख कर प्रेमा ने कहा, "अब कहाँ जा रहे हो? देखने वाले क्या समझेंगे? जब नहाना शुरू किया है तो नहा ही लो।" युवक ने फिर से पत्थर पर अपने गीले कपड़े रख दिये और नहाने लगा। उसे लगा कि यदि वह कुछ पूछे तो युवती नाराज नहीं होगी। उसने प्रेमा से सरल सा प्रश्न किया, "तुम तो इस गाँव की नहीं हो। कहीं बाहर से आई हो क्या?"

"हाँ, मैं अपनी बुआ राधा के घर आई हूँ।"

"क्या नाम है तुम्हारा?"

"प्रेमा। और तुम्हारा?"

"मैं रामसिंह हूँ। रहने वाला तो यहीं का हूँ पर बाहर गया हुआ था। कल ही वापस आया हूँ। यहाँ अपनी माँ के साथ खेती की देखभाल करने के लिये। बड़े भाई शहर में नौकरी करते हैं। उन्हीं के पास गया था। तुम्हारी राधा बुआ से तो हमारा दूर का रिश्ता है।" एक साँस में ही रामसिंह ने अपना पूरा परिचय दे दिया।

बातचीत के बीच दोनों ही अपना हृदय एक दूसरे को देते जा रहे थे।

उस दिन से प्रेमा और रामसिंह की घनिष्ठता बढ़ती ही गई। रामसिंह अधिकतर राधा के घर आ बैठता। वहाँ उसे प्रेमा से मिलने और बातें करने का अवसर सरलता से मिल जाता था। राधा न तो उसे कुछ कह ही सकती थी और न रोक ही सकती थे - राधा की ससुराल की ओर से उससे दूर का रिश्ता जो ठहरा। पर राधा दोनों पर पैनी दृष्टि अवश्य ही रखती। लड़की वालों को बड़ी सावधानी से व्यवहार करना पड़ता है। यदि राधा रामसिंह को घर आने से रोक देती या उसका प्रेमा से मिलना-जुलना और बात करना एकाएक बन्द कर देती तो गाँव के अनपढ़ वातावरण में न जाने लोग क्या क्या सोचने लग जाते। अन्ततः प्रेमा के प्रति कोई लांछन ही लग जाता तो। परिस्थिति जटिल होती जा रही थी। प्रेमा और रामसिंह अब घर के बाहर भी मिल लेते थे। यदा-कदा दोनों साथ साथ इधर-उधर घूम भी आते थे। राधा हैरान थी कि वह क्या करे, क्या न करे। उसने कई बार यह भी सोचा कि प्रेमा को वापस भेज आवे पर उसके हृदय के किसी कोने से यह भाव भी उठता था कि ऐसा करने पर प्रेमा के हृदय पर आघात न पहुँचे। अन्त में जब परिस्थिति उसके नियन्त्रण के बाहर हो चुकी तब उसने अपने भाई और प्रेमा के पिता सुजानसिंह को कहला भेजा कि वह आकर अपनी प्रेमा को स्वयं ही संभाले।

घबराहट में फँसकर दो दिनों की छुट्टी ले सुजान सिंह आ पहुँचे।

आते ही उन्होंने राधा से पूछा, "क्या बात है राधा? ऐसा क्या हो गया जो तुमने मुझे उलझन और घबराहट में डाल दिया। प्रेमा कहा हैं?"

और प्रेमा सचमुच उस समय घर में नहीं थी।

"हमारी प्रेमा ने ऐसा कदम उठाया है जो गलत रास्ते पर पड़ सकता है," बिना किसी भूमिका के ही राधा बोली।

राधा के शब्दों ने सुजान सिंह की मुद्रा को कठोर बना दिया। आँखें लाल हो गईं। उसका सारा शरीर
एकबारगी काँप उठा। वे कर्कश स्वर में चीख उठे, "यह बतावो कि वह है कहाँ?"

"कहाँ होगी। दो-चार बार तो मैनें स्वयं ही उसे गाँव के छोकरे रामसिंह के साथ तालाब के बाजू वाली अमराई में बैठे बातें करते देखा है। अभी भी वहीं होगी।" राधा ने स्पष्ट सूचना दी।

सुजान सिंह कराल-काल से बन कर हाथ में कुल्हाड़ी लेकर चल पड़े अमराई की ओर। उबलते हुये हृदय के झकोरे खा कर पैर उनके सीधे नहीं पड़ रहे थे। घर से अमराई कोई दो फर्लांग ही दूर रही होगी किन्तु सुजान सिंह को लगा कि वह दूरी दो हजार मील से भी अधिक की हो। श्वाँस तेज हो चली थी उनकी। आँखों में खून उतर आया था और मस्तिष्क में गुस्से का भूत ताण्डव कर रहा था। ज्यों ज्यों अमराई नजदीक आती जाती थी त्यों त्यों सुजान सिंह का क्रोध बढ़ रहा था। किन्तु विवेक ने अभी भी साथ नहीं छोड़ा था इसलिये अमराई के बाहरी भाग में पहुँचने पर सुजान सिंह वास्तविकता का पता लगाने के उद्देश्य से एक ओर छिप गये।

स्पष्ट सुना सुजान सिंह ने -

"और यदि हम दोनों का ब्याह नहीं हो सका तो।" प्रेमा के शब्द थे। स्वर में कम्पन, कम्पन में चिन्ता और चिन्ता में व्यग्रता थी। वह रामसिंह के बाजू में पर उससे अलग बैठी थी। उसके चेहरे की प्रसन्नता पर उदासी के हल्के से बादल छा रहे थे।

तो क्या। हम दोनों एक दूसरे को याद करते हुये मन मसोस कर जीवन बिता देंगे।" रामसिंह ने हँसते हुये उत्तर दिया।

"पर मेरी शादी किसी दूसरे के साथ हो जाने पर पति के होते हुये मैं तुम्हारी याद कैसे कर सकूँगी? यह तो पाप होगा। प्रेमा की सरलता ही शब्द बन कर व्यक्त हुई। उसे लग रहा था कि उसके आँसू अब ढले - अब ढले।

प्रेमा की बात सुन कर रामसिंह के ओंठों में हँसी का सूखापन झलक गया। चेहरा गम्भीर हो उठा। हृदय में लहराती हुई सचाई उसके शब्दों में फूट पड़ी, वह बोला, "प्रेमा, नियम अवश्य ही बनाया गया है कि जिसके साथ अग्नि को साक्षी देकर सात फेरे पड़ जावें वही उस स्त्री का पति होता है और उसके सिवाय दूसरे की याद करना तक पाप माना गया है। साथ ही इस नियम को धर्म का रूप दे दिया गया है, किन्तु सोचो, जब एक स्त्री किसी और को चाहती है और उसका प्रेमी भी उसे प्राणों से बढ़ कर चाहता है तब ऐसी दशा में, अग्नि देव की साक्षी देकर उसका हाथ किसी और को दे देना अग्नि देव का अपमान नहीं है? यह तो उनका खिलवाड़ है, उन्हें झुठलाना है। क्या अग्नि देव इतना भी नहीं जानते कि अदालत के झूठे गवाह की तरह उनका दुरुपयोग किया जा रहा है।"

"मैं यह सब कुछ नहीं जानती। सिर्फ इतना ही मुझे पता है कि यदि तुमसे मेरी शादी नहीं हुई तो मैं जीते जी मर जाउँगी या फिर ब्याह के पहले ही आत्महत्या कर लूँगी।"

प्रेमा की अन्तिम बात से सुजान सिंह का हृदय काँप उठा।

"पगली! आत्महत्या तो सबसे बड़ा पाप है। धीरज रखो। ईश्वर अन्यायी नहीं है।" रामसिंह ने कहा और प्रेमा का हाथ थाम लिया। उस रमणी का सिर रामसिंह के वक्ष में सन्तोष, शान्ति और रक्षा का अनुभव कर रहा था।

"तुम दोनों का यह साहस कैसे हुआ?" सुजान सिंह का कड़कता हुआ स्वर सुन कर दोनों सम्भल कर अलग हो गये किन्तु उनके चेहरे पर घबराहट और डर की हल्की सी रेखा तक नहीं थी। दोनों की मुख-मुद्रा शान्त और अलौकिक दमक से मन को खींच लेने वाली थी।

आड़ से निकल कर सुजान सिंह दोनों के सामने थे।

अब पिता को सामने देख कर प्रेमा के हृदय की धड़कन में तीव्र गति आ गई। उसने सिर नीचा कर लिया।

"क्यों, तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं हे क्या? देखते नहीं मेरे हाथ में यह कुल्हाड़ी।" सुजान सिंह का एक एक शब्द वज्र की भाँति कठोर था। किन्तु रामसिंह ज्यों का त्यों बिना कुछ कहे खड़ा ही रहा।
"चुपचाप क्या खड़ा है! ये ले।" कहने के साथ ही सुजान सिंह ने दोनों हाथों से पकड़ कर रामसिंह के सिर के ऊपर कुल्हाड़ी उठाई कि प्रेमा चीख कर रामसिंह से लिपट गई और उसके मुँह से केवल निकला, "बापू......"

सुजान सिंह ने कुल्हाड़ी नीचे फेंक दी और प्रेमा से स्नेहयुक्त स्वर में कहा, "बेटी, तू समझती है कि मैं कुल्हाड़ी चला देता। मैं तो इसके साहस और तुम्हारे प्रेम की परीक्षा ले रहा था। मैं तुम दोनों का ब्याह कर दूँगा।"

"बापू...." प्रेमा के स्वर की एक एक झनकार में उल्लास थिरक रहा था।

रामसिंह अभी भी शान्त था किन्तु उसकी आँखें सुजान सिंह को कृतज्ञता और श्रद्धा से देख रही थीं।

(तीन किश्तों में से द्वितीय किश्त)

Tuesday, October 16, 2007

हाल्ट! हुकम सदर

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कहानी)

1

यह सोचना सच नहीं होगा कि कठोर कर्तव्य वाली नौकरी में रात-दिन उलझे रहने के कारण पुलिस वालों में कोमल भावनायें नहीं होतीं। उनके पास भी हृदय होता है और हृदय में कम से कम अपनों के लिये तो दया, क्षमा, सहानुभूति, ममता और स्नेह की कोमल भावनायें रहती ही हैं। पुलिस वालों के भी कुटुम्ब होते हैं जिनमें पत्नी, पुत्र-पुत्री, माता-पिता, भाई-बहन रहते हैं जिनके प्रति वे कठोर कैसे हो सकते हैं। पुलिस विभाग में काम करने वाले हवलदार सुजान सिंह के मस्तिष्क में भी कर्तव्य की निर्मम कठोरता और हृदय में अपनी पुत्री प्रेमा के लिय अगाध प्रेम था। कुटुम्ब के नाम से वे, उनकी विधवा बहन राधा और जवान लड़की प्रेमा के सिवाय और कोई नहीं था। राधा गाँव में रह कर थोड़ी से खेती-बाड़ी की देखभाल किया करती थी। प्रेमा की माँ उसके बचपन में ही चल बसी थी। उसे राधा ने ही प्यार से पाला था और पिता के स्नेह ने किसी दुःख का अनुभव होने नहीं दिया था। सुजान सिंह प्रेमा के ब्याह की चिन्ता में डूबे रहते थे।

प्रेमा के कदम यौवन में पड़ चुके थे। उसका रूप-लावण्य निखर आया था। यौवन के साथ आकर्षण स्वाभाविक ही होता है पर प्रेमा अपने रूप को बनाव-श्रृंगार का सहारा देकर अधिक खींच लेने वाला बनाती थी। शिक्षा के नाम से वह कुल प्रायमरी ही पास थी। एक तो सुजान सिंह की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह उसे आगे पढ़ा पाता। दूसरे वह इस पक्ष में भी नहीं था कि लड़कियों को आधुनिक शिक्षा दी जावे। उसकी दृष्टि से इतनी ही शिक्षा काफी थी कि लड़की रामायण पढ़ ले और चिट्ठी-पत्री लिख-बाँच सके।

सुजान सिंह घर की ओर से चिन्ता मुक्त थे। प्रेमा घर के सब काम-काज करती और अवकाश का समय पड़ोस की सहेलियों के साथ बिता लेती थी। उसके जीवन में कोई विशेष आकांक्षा थी ही नहीं। प्रकृति से तो हर आदमी लाचार रहता है - फिर प्रेमा भी इसका अपवाद कैसे हो सकती थी।। यदि उसके मन में कोई इच्छा आती भी तो बस इतनी ही कि अब उसका ब्याह हो जाना चाहिये। सहेलियों के बीच भी लगभग इसी विषय पर बातें होती थीं या फिर युग के प्रभाव के अनुसार सिनेमा की चर्चा होती। पढ़ने की दिशा में वे लड़किया रामायण या दूसरे सद्ग्रंथ तो कम पर सस्ती पत्रिकायें, रोमांस से भरे हुये उपन्यास और कहानियाँ ही अधिक पढ़ लेती थीं। उन्हें क्या पता कि उनके मन में सोई हुई वासना इन सब बातों से किस प्रका धीरे धीरे जाग कर उमड़ जावेगी।

घर में बढ़ी हुई लड़की हो तो उसके ब्याह की चिन्ता माता-पिता को व्याकुल किये रहती है। सुजान सिंह प्रेमा के लिये वर ढूँढने में कोई कसर बाकी नहीं रखते थे। उन्होंने कई जगह बात चलाई पर कहीं मन पसन्द लड़का नहीं मिलता था तो कहीं भारी रकम माँगी जाती थी। समाज तो यह नहीं देखता कि कौन कितनी जीविका अर्जित करता है और किसकी कितनी आर्थिक स्थिति है पर लड़की के ब्याह के लिये उसके पिता की हैसियत से कई गुनी अधिक रकम हर जगह माँगी जाती है। किसी को यह चिन्ता तक नहीं कि इस राक्षसी प्रथा से कितनी ही लड़कियाँ कुँवारी बैठी रह जाती हैं और उनका जीवन घुन लगी हुई लकड़ी की तरह हो जाता है। सुजान सिंह अपने कर्तव्य में ईमानदार थे। इसी लिये वे घूसखोरी या और किसी प्रकार के भ्रष्टाचार से इतनी अधिक रकम नहीं कमा सके थे जिससे प्रेमा का ब्याह अच्छी खासी दहेज देकर कर सकते।

सुजान सिंह इस बात का बराबर ध्यान रखते थे कि प्रेमा अपने जीवन से ऊब न जाये। इसीलिये वे उसे कभी-कभी अपनी बहन राधा के पास कुछ दिनों के लिये गाँव भेज देते जिससे वातावरण बदलने के साथ-साथ उसका मन बहलता रहे।

उस दिन राधा गाँव से आई। उसने प्रेमा को पैनी नजर से देखा - वह उसके मनोभावों का मानो अध्ययन करना चाहती हो। उसने देखा सुजान सिंह तो अधिकतर ड्यूटी पर ही रहते हैं। और फिर वह पुलिस की ड्यूटी ठहरी। चौबीस घण्टे में कहीं भी किसी भी समय जाना पड़ जाता है। प्रेमा को अपनी मनचली सहेलियों के साथ रहने का ही अवसर अधिक मिलता है। राधा ने भाँप लिया कि यद्यपि प्रेमा युवती हो गई है तो भी उसके मुख की सुन्दर प्रसन्नता पर चिन्ता का हल्का सा बादल छाया रहता है। राधा ने भी इससे चिन्ता और दुःख का अनुभव किया और एक दिन सुजान सिंह से पूछ कर कुछ दिनों के लिये प्रेमा को अपने साथ गाँव ले गई।

प्रेमा के गाँव चले जाने के बाद सुजान सिंह का जीवन और भी अस्त-व्यस्त और स्वच्छन्द हो गया। कभी-कभी वे ड्यूटी के बाद भी घर नहीं आते थे। किसी बासे में खा लेते और थाने में ही सो रहते थे। वे प्रेमा की ओर से भी कुछ निश्चिंत-से हो गये थे पर उनके मन में उसके ब्याह की चिन्ता प्रति क्षण लगी ही रहती थी।

और एक दिन गाँव से राधा ने अचानक सूचना भेजी कि वे तुरन्त ही आकर अपने प्रेमा की देखभाल स्वयं ही करें। इससे सुजान सिंह के मन की उद्विग्नता में उफान सा आ गया। ऐसी कौन सी बात हो गई जो उसे प्रेमा की देखभाल लकरनी पड़ेगी। कहीं प्रेमा बीमार तो......। उनका हृदय इस विचार से ही धक् से होकर काँप उठा। इस कल्पना से ही उनकी आँखों के सामने चित्र-सा खिंच गया कि प्रेमा खाट पर पड़ी है - शरीर क्षीण हो लगया है, आँखें धँस गई हैं। किन्तु सुजान सिंह ने धीरज का सहारा लिया और उसके मन में इसके विपरीत भाव लहराये कि ऐसा नहीं होगा। शायद कुछ और दूसरी ही बात हो।
सुजान सिंह किसी तरह से भी दो दिन की छुट्टी लेकर गाँव चले गये।

(तीन किश्तों में से प्रथम किश्त)

Monday, October 15, 2007

धान के देश में - 37

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 37 -

उषा और श्यामवती को मिले छः महीने से अधिक हो गया। जब से जानकी के साथ श्यामवती सिकोला चली गई तब से वह एक बार भी खुड़मुड़ी नहीं आई। उषा भी ऐसी व्यस्त हुई कि कहीं आ-जा न सकी। श्यामवती इन दिनों अपने विचारों के अनुसार काम कर रही थी। उसने जानकी की सहायता से सिकोला में ऐसे काम किये जो इस भू भाग के लिये नये थे। उषा ने महेन्द्र को कई बार सिकोला चलने के लिये कहा पर उसका गर्व उसे हर बार रोकता रहा। अन्त में एक दिन उषा महेन्द्र पर विजय पा ही गई और दोनों सिकोला गये।
वहाँ उन दोनों ने प्रगति देखी। एक नया पर आधुनिक ढंग का मकान बना था जिसके चारों ओर कमर तक ऊँची दीवाल का हाता बना हुआ था। यह था श्यामवती के परिश्रम का परिणाम। हाते में एक ओर प्रवेश द्वार था। फाटक पर बड़े बड़े सुन्दर अक्षरों में लिखा था "वन्देमातरम्"। वहाँ पहुँचते ही उषा का मन शान्ति और उल्लास से भर गया। दोनों ने भीतर प्रवेश किया। मकान का बरामदा पार करने पर एक छोटा सा 'हॉल' जैसा कमरा था। उसके भीतर जाकर महेन्द्र और उषा ने देखा कि उसकी दीवालों पर देश के महान नेताओं के चित्र टंगे थे। उन दोनों को लगा कि स्वर्ग ही पृथ्वी पर उतर आया है। एक कोने में पाँच-सात छोटे बच्चे तकली कात रहे थे और दो औरतें चरखा चला रही थीं उन सबने दोनों का अभिवादन किया। उषा ने एक स्त्री से पूछा, "क्या यह सब श्यामवती ने किया है?"
"हाँ, यह सब उसी के विचारों और परिश्रम का नतीजा है। दिन-रात एक कर यह आश्रम चार महीने में बना और दो महीने से काम चल रहा है।" उस स्त्री ने उत्तर दिया।
"श्यामवती कहाँ है?" उषा का प्रश्न था।
"आपको बाहर ही हाते के भीतर मिल जायेंगी।" उषा और महेन्द्र बाहर आये। मकान की छत की ओर देखा। वहाँ तिरंगा लहरा रहा था। हाते में चारों और क्यारियाँ बनी थीं जिनमें फूलों से लदे पौधे थे। एक ओर एक छायादार पेड़ के नीचे एक काला तख्ता रखा था। सामने खुली हवा में दस-बारह बालक-बालिकायें बैठी थीं। श्यामवती उनको पढ़ा रही थी। उषा और महेन्द्र को देखकर उसने बच्चों को छुट्टी दे दी और उन दोनों का स्वागत किया। तीनों पास ही पड़ी हुई चटाई पर बैठ गये।
"वाह श्यामा! तुमने तो गजब कर दिया। लगता है कि इन्हीं कामों में लगे रहने के कारण तुम खुड़मुड़ी नहीं आई। मैं तो सिद्धान्त में ही उलझी रही पर तुम व्यहार के क्षेत्र में उतर आई।" उषा ने मुस्कुरा कर कहा।
"उषा, यह ऐसा क्षेत्र है जहाँ काम करने में बड़ी कठिनाई हुई पर जानकी भाभी हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाती रहीं।" कह कर श्यामा महेन्द्र से बोली, "आप अपना और अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रखते क्या?"
"मुझे क्या हुआ है। ठीक ही तो हूँ।" महेन्द्र ने क्षीण और सूखा-सा उत्तर दिया।
उषा और श्यामवती बातों में व्यस्त हो गईं। महेन्द्र वहाँ से उठ कर आश्रम की एक एक चीज का निरीक्षण करने लग गया। महेन्द्र के जाते ही उषा बोली, "श्यामा, मैं आज तुमसे साफ साफ एक बात करने आई हूँ।"
"कहो ना क्या कहना चाहती हो।" आत्मीयता के स्वर में श्यामवती बोली।
"तुम महेन्द्र से ब्याह कर लो। यही मेरा तुमसे अनुरोध है। इसके लिये सुमित्रा माता को मैं राजी कर लूँगी।" उषा ने अपने स्पष्टवादी स्वभाव के अनुसार कहा।
"महेन्द्र से तुम क्यों ब्याह नहीं कर लेती।" शान्त और संयत स्वर में श्यामवती बोली। यह कुछ दिनों से उसके मन में उठने वाला विचार था जो शब्द बनकर प्रकट हुआ।
सुनकर उषा एकदम चौंक गई। उसने कल्पना तक नहीं की थी कि उसके सामने ऐसा प्रसंग आ सकता है। उसका अचेतन मस्तिष्क व्यग्र हो उठा और वह सोचने लगी कि वह रायपुर में रुकी ही क्यों - क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित होने वाले का विचार क्या इतना दुर्बल होता है? फिर वह खुड़मुड़ी आ कर महेन्द्र के अत्यन्त समीप रहती हुई क्यों अपना जीवन बिता रही है। क्या वह स्वयं महेन्द्र से प्यार नहीं करती? अवश्य ही करती है और अपने उसी प्रेम में त्याग का संचार करने के लिये ही तो वह श्यामा को महेन्द्र से ब्याह कर लेने का अनुरोध कर रही है। इन बातों के मस्तिष्क के अचेतन भाग में उभर जाने से उषा तिलमिला उठी। उसे ऐसा लगा कि उसका गला सूख रहा है। हाथ-पैर में कम्पन उत्पन्न हो गया। शरीर में सनसनी दौड़ने लगा। श्यामवती उषा के भावों का अध्ययन कर रही थी। बोली, "देखो बहन, तुम आज जो कुछ सोच रही हो, मैं उस परिणाम पर बहुत पहले ही पहुँच चुकी थी। मैं जानती हूँ कि तुम्हें महेन्द्र से प्रेम हो गया है। तुम यहाँ रुक जाने के लिये भी उसी कारण से तैयार हो गई। तुम उनके जैसी ही कुलीन घराने की भी हो और सुमित्रा माता तुम्हें स्वीकार भी कर लेंगी। मेरा और महेन्द्र का विवाह इस जन्म में कदापि सम्भव नहीं है। मेरा शेष जीवन तो अब अपने क्षेत्र की सेवा में ही बीतेगा। मेरी बात मान कर तुम उनसे ब्याह कर लोगी तो यह मेरे ऊपर भी तुम्हारा एक महान उपकार होगा क्योंकि मैं नहीं चाहती कि महेन्द्र का पूरा जीवन ऐसे ही नीरस बीते।"
श्यामा की बात सुनकर उषा गम्भीर होकर सोचने लगी। इसी समय महेन्द्र भी वहाँ आ कर बैठ गया। आज पहली बार ही उषा को महेन्द्र के सामने लज्जा का अनुभव हुआ। उसने चुपचाप कनखियों से महेन्द्र की ओर देखा। उसकी दृष्टि नई थी और महेन्द्र का रूप भी उसके लिये नया था। किन्तु ज्योंही महेन्द्र की निगाह उस पर पड़ी वह दूसरी ओर देखने लगी और पैर के नाखून से नाखून कुरेदने लगी। महेन्द्र को भी बड़ा अटपटा-सा लग रहा था। तभी श्यामा महेन्द्र से बोली, "महेन्द्र, तुम मुझसे प्यार करते हो तो मेरी कामना तुम्हें पूरी करनी होगी। तुम्हें उषा से ब्याह करना होगा क्या तुम मेरी इतनी सी इच्छा को भी पूरी नहीं करोगे? विशाल दृष्टि से देखो तो उषा को पाकर तुम मुझे ही पावोगे। प्रेम इतना संकुचित नहीं होता कि स्वार्थ को आश्रय दे। जब हम तीनों एक दूसरे को सुखी करने के लिये प्रयत्न कर रहे हैं तो हममें भेद ही कहाँ रह गया है। हमारा प्रेम संकुचित हो कर व्यक्तिगत स्वार्थ तक ही सीमित न रह कर एक दूसरे पर छलकता रहे, यही मेरी कामना है।" तीनों ने एक दूसरे की ओर देखा और उनकी आँखें छलछला आईं।
अगले महीने उषा और महेन्द्र का ब्याह हो गया।
(उपन्यास समाप्त)

Sunday, October 14, 2007

धान के देश में - 36

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 36 -

उषा बम्बई नहीं गई। महेन्द्र के अनुरोध पर वह सबके साथ खुड़मुड़ी चली आई। वहाँ का नैसर्गिक दृश्य उसे बहुत ही पसन्द आया। उषा के कारण श्यामवती को भी खुड़मुड़ी में ही रुक जाना पड़ा। उषा ने उन लोगों को और भी बताया कि वह घरेलू जीवन से ऊब कर बम्बई जा रही थी। वहाँ से वह किसी क्रान्तिकारी दल में शामिल होने वाली थी। ऐसा करने से उसे देश-सेवा का अवसर मिलेगा और पकड़ी गई तो फाँसी के तख्ते पर लटका दी जावेगी या पिस्तौल से उड़ा दी जावेगी। इससे उसके जीवन का अन्त तो हो सकेगा जिससे वह ऊब चुकी थी। और जीवन का वह अन्त भव्य और गौरवपूर्ण भी तो होगा। किन्तु रायपुर में अचानक ही महेन्द्र के मिल जाने और बम्बई न जाकर वहीं रह जाने का श्यामवती के द्वारा आग्रह करने पर उषा को एक बहुत बड़ा सहारा मिल गया था। उसके हृदय में एक लालसा और भी प्रबल हो रही थी कि वह श्यामवती को किसी प्रकार से महेन्द्र का साथ ब्याह करने के लिये राजी कर ले जिससे महेन्द्र का जीवन तो सुखी हो जावे।
सुबह का समय था। श्यामवती और उषा खुड़मुड़ी के तालाब में नहा रही थीं। वहाँ से रास्ते का बहुत दूर तक का भाग स्पष्ट दिखाई दे रहा था। उस पर इक्की-दुक्की बैलगाड़ियाँ चल रही थीं जिससे कुछ देर के लिये धूल उड़ कर शान्त हो जाती थी। रास्ते के दोनों ओर धान के इस देश में धान के पौधे लहरा रहे थे। तालाब के किनारे के पेड़ों पर पक्षी कलरव कर रहे थे। आकाश एकदम स्वच्छ और नीला था। सूर्य चमचमा रहा था। स्नान कर किनारे खड़ी श्यामवती सड़क की ओर दूर तक आँखें लगाये देख रही थी। उसने दूर पर किसी को सायकल से आते देखा। सायकल कुछ नजदीक आने पर यह देख कर वह अचरज में डूब गई कि कोई स्त्री सायकल चलाती आ रही है। उसने उषा को भी दिखाया। जब सायकल इतनी दूर रह गई कि सायकल चलाने वाली पहचानी जा सके तब उन दोनों ने देखा कि वह जानकी थी। तालाब के पास आ कर और उषा तथा श्यामा को देख कर जानकी सायकल से उतर गई।
श्यामवती ने पूछा, "भाभी, क्या बात है? अकेली आई हो। भैया नहीं आये?"
"कोई विशेष बात नहीं है। चन्दखुरी में सब कुशल है। मैं सिकोला जा रही हूँ तुम भी तो जल्दी ही आवोगी न?" जानकी ने कहा।
"आउँगी क्या - मैं तुम्हारे साथ ही चल रही हूँ लेकिन यह तो बताओ कि तुमने सायकल चलाना कब सीख लिया?" श्यामा बोली।
जानकी हँस दी और बोली, "यह तो मैंने आसाम में छुटपन में ही सीख लिया था।"
"मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँगी।" उषा ने कहा
"नहीं, अभी तुम्हें यहीं रहना होगा। तुम उनकी मेहमान पहले हो, फिर हमारी।" श्यामवती ने उषा को रोकने की नीयत से कहा।
"लेकिन महेन्द्र बाबू को अपने जाने की सूचना तो दे दो।"
"उन्हें तुम बता देना।" कह कर श्यामा जानकी के साथ सिकोला रवाना हो गई। बात यह थी कि श्यामवती स्वयं ही खुड़मुड़ी से जाना चाहती थी पर उषा ने उसे रोक रखा था। इसलिये इस सुनहरे अवसर का लाभ उसने उठा लिया। सिकोला में पहुँच कर भोजन कर लेने के बाद जानकी ने श्यामवती के हाथ में एक अखबार देकर कहा, "मेरे यहाँ आने का कारण यह है।" श्यामवती ने उसे पढ़ा। एक स्थान पर छपा था कि 'टाटानगर में एक मजदूर को भट्ठी में झोंक कर उसकी हत्या कर देने वाला भोला नामक व्यक्ति मुगलसराय में उस समय पकड़ा गया जब वह एक स्त्री के गहने चुरा कर भाग रहा था। उसे हत्या के आरोप में काले पानी की सजा हो गई। वह अण्डमान भेज दिया गया।' श्यामवती कुछ देर तक हाथ में अखबार लिये बैठी रही। उसके हृदय में न उथल-पुथल ही मची और न उद्विग्नता ही हुई। भोला के साथ बीती हुई घड़ियाँ अवश्य ही एक बार याद आ गईं। यह सूचना दुर्गाप्रसाद को तुरन्त दे दी गई। उसे मार्मिक आघात पहुँचा - आखिर वह भोला का पिता था और भोला उसके हृदय का टुकड़ा। राजो को लगा कि जिस बन्धन से उसने श्यामवती को बाँध कर उसने उसके जीवन में घोर अन्धकार भर दिया था वह बन्धन टूटा तो नहीं पर उसकी कड़ियाँ एकदम खोखली पड़ गई हैं।
इधर उषा ने जब महेन्द्र को बताया कि श्यामा सिकोला चली गई तब वह झुँझला उठा और बोला, "जाने दो। उस पर मेरा क्या वश है। लेकिन मुझे बता कर तो जाना था। पर वह ऐसा करती ही क्यों। उसे तो बड़ा अभिमान हो गया है।"
नहीं महेन्द्र, ऐसी बात नहीं है।" उषा बोली।
"तो फिर कैसी बात है?" महेन्द्र ने व्यंग से कहा।
"आप श्यामवती को नहीं समझ सके हैं।" उषा के स्वर में गम्भीरता थी।
"हो सकता है। पर तुम स्त्रियों को तो तुम्हें बनाने वाला भगवान भी नहीं समझ सका है।" महेन्द्र के इस वाक्-बाण से उषा तिलमिला उठी पर हँसती हुई बोली, "यही तो हम स्त्रियों की सबसे बड़ी विजय है।"
उषा महेन्द्र के निजी पुस्तकालय में अध्ययन करती और कुछ समय नित्यप्रति सुमित्रा के साथ भी अवश्य ही बिताती थी। उषा का साथ पाकर सुमित्रा का मन बहल जाता था पर उसे चिन्ता थी कि महेन्द्र का ब्याह हो जावे और उषा चाहती थी कि महेन्द्र किसी प्रकार से सुखी रह सके।
(क्रमशः)

Saturday, October 13, 2007

धान के देश में - 35

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 35 -

भाषण सुन कर लौटने के बाद जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये और उषा, श्यामवती, राजो - महेन्द्र के साथ उसके घर ठहरे। रात के आठ बजे होंगे। उषा, श्यामा और महेन्द्र बरामदे में बैठे बातें कर रहे थे। उनके मनोभाव भी काम कर रहे थे। महेन्द्र जानना चाहता था कि उषा बम्बई क्यों जाना चाहती है। श्यामवती सोच रही थी कि उषा और महेन्द्र के आपसी भाव क्या हैं। उषा इस तथ्य का अनुसंधान लगाने में खोई थी कि जिस श्यामवती को ढूँढने में महेन्द्र ने दिन-रात एक कर दिया था उसके मिल जाने के बाद अब क्या दशा है। उस समय आज जैसी बिजली की रोशनी की किसी ने रायपुर में होने की कल्पना तक नहीं की थी। बड़ा-सा लैम्प टेबल पर रखा हुआ जल रहा था - मानो तीनों के विदग्ध हृदय का मूर्तिमान भाव हो। बातें कई विषयों को लेकर हो रही थीं। अचानक ही प्रसंग बदलते हुये उषा ने पूछा, "महेन्द्र बाबू, श्यामवती आपको कहाँ मिली?"
"मिली कहाँ! यह तो आप ही चली आई।"
"बाहर इनको बहुत कष्ट मिला होगा?"
"तुम्हारा कहना गलत नहीं है उषा। इसका जीवन सुख-दुःख का प्रत्यक्ष स्वरूप ही है।" महेन्द्र बोला।
"तब तो श्यामवती," श्यामा की ओर रुख करके उषा ने कहा, "मैं तुम्हारे जीवन के बारे में अवश्य ही सुनूँगी और वह भी तुम्हारे मुँह से।"
श्यामवती ने अपने विषय में सब कुछ बता दिया पर अपने और महेन्द्र के प्रेम को छिपा गई। श्यामा के जीवन की विडम्बनाओं को सुन कर उषा की आँखें सजल हो गईं। महेन्द्र ने वार्ता-क्रम जारी रखते हुये कहा, "विवाह केवल अभिशाप है। आजन्म अविवाहित रह जाना अच्छा है।"
उषा बोली, "महेन्द्र बाबू, आप ठीक कह रहे हैं। मैं भी इस सिद्धान्त को मानती हूँ।"
"और इससे चाहे किसी को कितना ही दुःख क्यों न मिले।" श्यामवती ने विवाद में भाग लिया।
"किसको कष्ट और किसको दुःख?" महेन्द्र ने पूछा।
"तुम्हारी माता सुमित्रा को और किसको।" श्यामवती का यह उत्तर सुन कर महेन्द्र का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उसके चेहरे पर विषाद की स्पष्ट रेखा खिंच गई जो उषा की दृष्टि से छिप न सकी।
"यह माता जी की भूल है जो मेरे ब्याह न करने से दुःखी हो रही हैं।" महेन्द्र ने दुःखी मन से कहा।
"सुना उषा बहन तुमने। ये और भी कहेंगे कि पढ़े-लिखे बेटे से सुख की आशा करना, घर में बहू आये जिससे सुख मिले और वंश को पानी देने वाले हों ऐसा सोचना भी माता जी की भूल ही होगी। उनकी हर बात भूल और इनकी हर बात अच्छी है। पढ़-लिख कर इनको कितनी अच्छी बुद्धि मिली है।" श्यामवती ने महेन्द्र को आड़े हाथों लिया। उसकी महेन्द्र के प्रति अधिकार भरी झिड़की सुनने में उषा को बड़ा आनन्द आ रहा था। वह बोली, "श्यामवती, तुम कुछ भी कहो पर हम तो महेन्द्र बाबू का ही साथ देंगे क्योंकि हम दोनों का विवाह न करने का सिद्धान्त है। अच्छा पुनर्विवाह पर तुम्हारा क्या मत है महेन्द्र?"
"इसी से पूछो।" कह कर महेन्द्र ने श्यामवती की ओर इशारा किया। उषा भी बोली, "हाँ, तुम्हीं बताओ श्यामा।"
थोड़ी देर सोच कर श्यामवती बोली, "यदि समाज को लाभ पहुँचे तो स्त्री-पुरुष दोनों के लिये ही पुनर्विवाह अनुचित नहीं है।"
"तो तुम फिर से विवाह क्यों नहीं कर लेती।" महेन्द्र ने श्यामा से पूछा।
"किससे?" महेन्द्र का मन टटोलने के लिये श्यामवती ने पूछा। इस प्रश्न ने महेन्द्र को मौन कर दिया।
"महेन्द्र बाबू से, और किस से।" उषा ने ठीक समय पर न चूकने वाला तीर चलाया।
"नहीं, ऐसा नहीं होगा उषा।" श्यामवती ने कहा।
"क्यों?" उषा का प्रश्न था।
"तुम नहीं जानती उषा। इसमें बड़ी अड़चनें हैं।" श्यामा निःश्वास छोड़ती हुई बोली। महेन्द्र चाहता था कि ये बातें अब और न हों और न दिलों को ठेस पहुँचे। उसने प्रसंग बदलते हुये कहा, "हां उषा, तुम बम्बई क्यों जा रही हो?"
"फिलहाल समझ लीजिये कि देश सेवा के लिये। पर मैं देखती हूँ कि यह काम हर जगह किया जा सकता है।" उषा के उत्तर ने श्यामवती में नई स्फूर्ति भर दी और वह बोली, "देश सेवा करना तो हर एक का धर्म है।"
"तुम ठीक कहती हो पर सबसे पहले देश से विदेशी सत्ता का नाश करना आवश्यक है।" उषा ने अपना विचार व्यक्त किया।
"पर इसके लिये संगठन और एकता की आवश्यकता है जो गांधी जी की अहिंसा की नीति से बनती जा रही है।" श्यामवती बोली।
"मैं ऐसा नहीं समझती। विदेशियों का सफाया हम हिंसा से भी तो कर सकते हैं।" उषा ने कहा।
"यह तुम्हारी भूल है। तुम्हारा इशारा शायद क्रान्तिकारी दल की ओर है।" श्यामवती ने स्पष्ट किया और कहती गई, "किन्तु हिंसात्मक क्रान्ति से अधिक से अधिक बलि देकर भी वह शक्ति प्राप्त नहीं होगी जो सुधार, जागृति और संगठन से मिल सकती है।" महेन्द्र को दोनों के बहस में आनन्द आ रहा था। उषा बोली, "आज भाषण सुन कर मेरे विचारों में भी अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। मैं भी अब शान्ति और अहिंसा से कुछ करना चाहती हूँ।"
"तुम यहीं क्यों नहीं रह जातीं। देखेंगे कि हम सब मिल कर कुछ कर सकते हैं या नहीं।" श्यामा ने उषा के अपना प्रस्ताव रखा।
बात ऐसी थी जिसकी उषा ने कल्पना तक नहीं की थी। बोली, "विचार कर के बताउँगी।"
इसके बाद वे तीनो विश्राम करने अपने-अपने कमरे में चले गये।
(क्रमशः)

Friday, October 12, 2007

धान के देश में - 34

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 34 -

जिन दिनों यह सब हो रहा था उन्हीं दिनों देश में स्वतन्त्रता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में थी। देश में नरम दल, स्वराज्य पार्टी, क्रान्तिकारी दल सभी अपना अपना काम कर रहे थे। एक ओर गांधी जी शान्ति, अहिंसा और असहयोग से राष्ट्र में जागृति ला रहे थे तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी वीर विदेशी सत्ता को लोहे के चने चबवा रहे थे। सरदार भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिवीर दल के अन्तर्गत देश की आजादी के लिये प्राणोत्सर्ग करने के लिये प्रति क्षण कटिबद्ध थे। छत्तीसगढ़ भी स्वतन्त्रता-संग्राम में कभी भी पीछे नहीं रहा। भारत का यह अंचल सुसंगठित रूप से स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन में अपने समान स्वयं ही रहा। रायपुर राजनीति का प्रमुख केन्द्र हुआ। अपने पहले ही आन्दोलन के समय मौलाना शौकत अली के साथ महात्मा गांधी रायपुर आने वाले थे। इसी से रायपुर की राजनीतिक महत्ता और छत्तीसगढ़ द्वारा स्वराज्य-संग्राम में अधिकाधिक सहयोग देने की बात पुष्ट हो जाती है।
स्वतन्त्रता संग्राम की लहरें चारों ओर उठ रही थीं। रायपुर से गाँव गाँव में जागृति के सन्देश फैलाये जा रहे थे। प्रभात फेरियाँ निकाली जाती थीं। रायपुर नगर का वायुमण्डल "दक्षिण कौशल के वीरों, आज तुम्हारा अवसर है" और "रणभेरी बज चुकी वीर, पहनो केसरिया बाना" के ओजस्वी स्वर से गूंज रहा था। इस क्षेत्र के नेताओं में पण्डित रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, मौलाना अब्दुल रऊफ़, महन्त लक्ष्मी नारायण दास, वामन बलीराम लाखे, माधवराव सप्रे, रामदयाल तिवारी, सुन्दरलाल शर्मा प्रमुख थे। म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट काउंसिल जैसी स्वराज्य संस्थाओं पर इन राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पूर्ण रूप से अधिकार था। माधवराव सप्रे और पण्डित रामदयाल तिवारी अपने साहित्य की अदम्य शक्ति से जन जागरण का स्तुत्य और अमोघ कार्य कर रहे थे। सप्रे जी के द्वारा लोकमान्य तिलक का अनूदित "गीता रहस्य" और रामदयाल तिवारी का मौलिक ग्रन्थ "गांधी मीमांसा" जन-जागृति का माध्यम बने हुये थे। सब ओर गांधी जी के आगमन पर स्वागत की तैयारियाँ हो रहीं थीं। गाँव गाँव से उनके दर्शन के लिये लोग आ रहे थे। सिकोला से राजो और श्यामवती, खुड़मुड़ी से सुमित्रा और महेन्द्र और चन्दखुरी से जानकी और सदाराम भी रायपुर आये हुये थे।
गांधी जी के दर्शन के लिये प्लेटफॉर्म पर अपार भीड़ थी। वहाँ श्यामवती, जानकी, सदाराम और महेन्द्र भी थे। अभी उस गाड़ी के आने में देर थी जिससे गांधी जी आने वाले थे। उसके पहले एक पैसेंजर गाड़ी आई। गाड़ी के रुकते ही लोगों की नजर स्वाभाविकतः मुसाफिरों की ओर गई। महेन्द्र की नजर एक डब्बे के दरवाजे पर खड़ी बाहर देखती हुई एक युवती पर पड़ी और अनायास ही उसके मुँह से जोर से निकल गया, "उषा तुम!"
वह उषा ही थी। उसने भी तुरन्त ही महेन्द्र को पहचान लिया और बोली, "महेन्द्र बाबू, आप इधर रहते हैं क्या?"
"हाँ, इसी शहर में मेरा घर है। तुम कहाँ जा रही हो?" महेन्द्र ने पूछा।
"बम्बई" उषा का उत्तर था।
"वहाँ कोई खास काम है क्या?"
"है भी और नहीं भी।"
महेन्द्र ने न जाने किस प्रेरणा से कहा, "यदि तुम्हारे काम में कोई अड़चन न हो तो यहाँ उतर जावो और कुछ दिन हमारे घर रह कर फिर चली जाना। आज महात्मा गांधी भी आ रहे हैं, उनके भी दर्शन कर लेना।" गांधी जी को देखने और उनके भाषण सुन कर उनके विचारों को समझने की जिज्ञासा और उत्कण्ठा ने उषा के मन में रुक जाने की प्रबल लालसा उत्पन्न कर दी। उसने महेन्द्र को अपनी स्वीकृति दे दी और अपना थोड़ा-सा सामान डब्बे से उतार कर महेन्द्र के पास आ गई। वह समय न तो अधिक बात करने का था और न बढ़ा-चढ़ा कर परिचय देने का। महेन्द्र ने बहुत ही थोड़े में उषा को सबका और सबको उषा का परिचय दिया। उषा समझ गई कि यह वही श्यामवती है जिसे महेन्द्र चाहता है और श्यामा भी जान गई कि यह वही उषा है जिसने कलकत्ते में महेन्द्र की सेवा की थी। श्यामवती के मन में ईर्ष्या की एक हल्की-सी रेखा खिंच गई पर उसने अपना भाव प्रकट नहीं होने दिया। उसने देखा कि उषा, उषा के समान ही लावण्यमयी है। उसका मुख प्रातःकमल की तरह सुन्दर और गोल था। कोमलता मानो शरीर धारण करके आई थी। आँखों में अपूर्व सुन्दरता और आकर्षण था। वह उषा और महेन्द्र की गतिविधि को आलोचना की दृष्टि से देख रही थी। थोड़ी ही देर में कोलाहल मच गया। "महात्मा गांधी की जय" के नारों से वायुमण्डल गूंज उठा। जिस गाड़ी से महात्मा गांधी और शौकत अली आने वाले थे वह प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी। नेताओं और जनता ने गांधी जी को फूल-मालाओं से लाद दिया। वे हाथ जोड़े हुये स्वागत का उत्तर-सा दे रहे थे। गांधी जी के इस भव्य स्वागत का उषा पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
स्टेशन से जुलूस निकला जो रास्ते में बने हुये स्वागत-द्वारों और तोरण-पताकाओं के बीच में से होकर नगर कोतवाली के पास वाले मैदान में सभा के रूप में परिणित हो गया। महात्मा गांधी के प्रथम आगमन की स्मृति में कोतवाली के पास वाले उस मैदान का नाम "गांधी चौक" रख दया गया। सन्ध्या समय "आनन्द समाज लायब्रेरी" में गांधी के भाषण का आयोजन किया गया। महेन्द्र, सदाराम, उषा, जानकी और श्यामवती भी भाषण सुनने गये। पहले कुछ स्थानीय नेताओं के भाषण हुये। पण्डित रामदयाल तिवारी चार से छः घण्टे तक लगातार धारावाहिक रूप से भाषण दे सकने की क्षमता रखते थे। वे लगभग दो घण्टे तक बोलते रहे। उन्होंने इतने सुंदर ढंग से गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के विषय में समझाया कि लोगों के मन में एकता, दृढ़ता, शान्ति और अहिंसा की हिलोरें सदा के लिये उठीं और स्वतन्त्रता-संग्राम के लिये स्वयंसेवकी की अपार सेना तैयार करने के लिये इस भू-भाग पर नींव खुद गई। गांधी जी के भाषण ने उस नींव पर शिला रख दी जिस पर ऐसा महल बना जिसकी शीतल छाया में, आगे चल कर, अपने नेता पण्डित रविशंकर शुक्ल को स्वाधीन भारत के पुराने और नये मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में पा कर रायपुर ने अपने भाग्य पर गर्व किया।
(क्रमशः)

Thursday, October 11, 2007

धान के देश में - 33

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 33 -

महेन्द्र से मिलने के लिये श्यामवती का हृदय कितना व्याकुल और उतावला हो रहा था यह वही जानती थी। रायपुर पहुँचने पर वह द्विविधा में पड़ गई कि महेन्द्र यहाँ होगा या खुड़मुड़ी में किन्तु अन्त में उसकी आन्तरिक प्रेरणा ने उसे खुड़मुड़ी ही जाने के लिये बाध्य किया। चार मील चलने पर खारून नदी मिली। शिवजी का सुहावना मन्दिर बायीं ओर पड़ता है। श्यामा ने मन ही मन शंकर भगवान को प्रणाम किया। नदी में घुटने तक ही जल था। पार करते समय जल की शीतलता ने हृदय में शान्ति प्रदान किया। गाँव के समीप आने पर उसका हृदय जोरों से धड़कने लगा। गाँव के तीनों विशाल पीपल के पेड़ हहरा रहे थे। उनके हहर हहर स्वर ऐसे मालूम हो रहे थे मानो श्यामवती का स्वागत करते हुये कह रहें हों 'आवो, बिटिया, हमारे प्रदेश का अंचल तुम्हारे सुख-शान्ति के लिये सदैव तत्पर है'।
गाँव के तालाब के पास कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्हें क्या पता कि श्यामवती कौन थी। गाँव के एक बूढ़े की नजर उस पर पड़ी। उसने चौंक कर कहा, "श्यामवती बिटिया, तुम हो। जब से गाँव छोड़ा तुम्हारा पता ही नहीं था। कहाँ रही हो अब तक? कहाँ से आ रही हो?"
"सब कुछ बताउँगी दादा। बड़ी लम्बी कहानी है। माँ यहीं तो है न?" श्यामा ने उत्तर दिया।
"कह नहीं सकता बेटी। कुछ दिनों से काम-काज में ऐसा लगा हूँ कि तुम्हारे घर की ओर जाने का मौका ही नहीं मिला।"
"कोई बात नहीं दादा, मैं घर ही तो जा रही हूँ, पता लग ही जायेगा।" कह कर श्यामा तेजी से चलने लगी। घर पहुँच कर उसने देखा कि दरवाजे पर ताला पड़ा है। समझते देन नहीं लगी कि माँ और भैया सिकोला में होंगे। घर की छाया में विश्राम करने बैठ गई। महेन्द्र से मिलने की उत्कण्ठा उभर आई। वह उठी और महेन्द्र के घर की ओर चली। दो-चार कदम चलने के बाद कुछ सोचा और वापस आ कर फिर छाया में बैठ गई। महेन्द्र के सामने जाने में उसे संकोच हो रहा था। वह बाहर से अपने साथ कृत्रिम जीवन के अनुभवों का जो भण्डार ले आई थी उसने चुपके से उसके मन के कानों में कहा, 'तू पहले माँ से न मिल कर महेन्द्र से मिलेगी तो लोग क्या कहेंगे'। किन्तु श्यामवती की यह शंका एकदम निराधार थी। छत्तीसगढ़ के गाँवों में वह वातावरण था ही नहीं जो श्यामवती देख आई थी। यदि वह महेन्द्र के घर माँ से मिलने के पहले ही चली जाती तो भी लोग कुछ नहीं कहते। इस शंका की अपेक्षा श्यामवती की झिझक अधिक काम कर रही थी। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद वह उठी और सिकोला की ओर चली।
बात की बात में खुड़मुड़ी के कोने कोने में खबर फैल गई कि श्यामवती आई है। महेन्द्र को जब पता लगा तब उसे ऐसा लगा मानो कोई कल्पवृक्ष की कल्पना कर रहा हो और कल्पवृक्ष सामने आ जाय। वह उससे मिलने के लिये अधीर हो उठा। उसने सोचा कि वह स्वयं जा कर श्यामा से मिले पर अब उसके पैरों में मालगुजारी की बेली पड़ी थी। साथ ही पुरुष गर्व लेकर दूसरा विचार भी आया 'मैं क्यों मिलूँ, क्या वह मेरे पास नहीं आ सकती थी'। वह विचारों में उलझ रहा था कि घर के एक बूढ़े नौकर की बड़बड़ाहट सुनाई दी 'वाह री छोकरी, खुड़मुड़ी का आधार ले कर पली-बढ़ी और बरसों बाद यहाँ आने पर भी सुमित्रा मालिकन के दर्शन किये बगैर ही सिकोला चली गई'। इससे महेन्द्र को पता लग गया कि श्यामवती चली गई है। उसके दर्प को आघात पहुँचा। सोचा, उसे बड़ा गरूर हो गया है। फिर विचार आया कि उसका ब्याह हो चुका है, उसे अब पिछले जीवन से क्या मतलब। महेन्द्र मन मसोस कर रह गया।
सिकोला पहुँच कर श्यामवती पहले अपने पैतृक घर में गई। राजवती भोजन करने के बाद आँगन में बर्तन माँज रही थी। उसे देख कर श्यामा "माँ" कहती हुई दौड़ कर उससे ऐसी लिपट गई जैसे कोई बछिया अपनी माँ के पास दौड़े। राजो का मन खुशी से नाच उठा। दोनों की आँखें अविरल आँसू बहा रहीं थीं। दोनों एक दूसरे को अपलक नयनों से देख रहीं थीं। भावनाओं की बाढ़ सामान्य स्थिति में आने के बाद राजो के चरणों के पास श्यामवती बैठ गई। राजो ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, "कहाँ रही? कैसी रही? अकेली ही आई है क्या? रास्ते में तुझ पर क्या बीती?" श्यामा ने उसके प्रश्नों के उत्तर देने के बदले कहा, "भैया कहाँ हैं?" उसके इस प्रश्न पर राजवती को ध्यान आया और वह बोली, "अरे, मैं भी कैसी पगली हूँ। सदाराम के बारे में बताना ही भूल गई। वह चन्दखुरी में छोटे मैनेजर की नौकरी कर रहा है। डेढ़ सौ रुपये तनखा है। और हाँ, उसकी शादी भी हो गई है। बड़ी सुंदर और सुशील है मेरी बहू।"
सदाराम के ब्याह की सूचना से श्यामवती को अपार सुख मिला पर साथ ही रंज भी हुआ जिसे उसने यों व्यक्त किया, "भैया के ब्याह में तुम लोगोंने मुझे पूछा तक नहीं। मेरी छोड़ी हुई चिट्ठी से तो तुम्हें पता ही रहा होगा कि मैं कालीमाटी में हूँ। कैसे पूछते, मैंने भी तो तुम्हें कोई चिट्ठी तक नहीं लिखा था।"
"नहीं बिटिया, ऐसी बात नहीं है। सदाराम खुद तुझे लाने के लिये गया था। वहाँ उसे भोला की करतूत मालूम हुई। यह भी पता चला कि तू घर के लिये रवाना हो चुकी है। मैं छिन-छिन तेरा रस्ता देखती रही। रोते रोते मेरी आँखें व्याकुल हो गईं। पर तू नहीं आई। तब हम लोगों को और भी फिकर हुई कि तुझे कहीं किसी विपद् ने तो नहीं घेर लिया। बिटिया, मेरे मन में तेरी ही याद के सिवाय और कुछ नहीं था।" राजो की बात सुन कर श्यामा समझ गई कि जिन दिनों वह आश्रम में नरक-यातना भोग रही थी उन्हीं दिनों सदाराम का ब्याह हुआ। राजवती ने कहा, "अच्छा, अब हाथ-पैर धो कर कुछ खा पी ले। बातें फिर होती रहेंगी। तेरे बिना मैं तो मरी हुई-सी थी। तू क्या आ गई, मेरे प्राण लौट आये।"
हाथ-मुँह धोने के बाद श्यामवती खाने बैठी। राजो ने बचा हुआ भोजन परोस दिया। कितने दिनों बाद श्यामा को माँ के हाथ का भोजन मिला था। अमृत भी उस भोजन के सामने तुच्छ था। एक एक दाने में अक्षय तृप्ति थी। भोजन के उपरान्त माँ-बेटी बातों में खो गईं। श्यामा ने अपनी रामकहानी कह सुनाई। सुन कर राजो अपने आँसुओं की बढ़ न रोक सकी। विपत्तियों के कराल मुख से बच कर आने वाली बेटी को माँ ने हृदय से लगा लिया। फिर राजो ने इधर का सब हाल बताया। दीनदयाल की मृत्यु का प्रसंग आते ही दोनों श्रद्धा और विषम विषाद से रो उठीं। महेन्द्र और सदाराम की ऊँची शिक्षा के विषय में सुन कर श्यामवती फूली न समाई।

सिकोला में सबको खबर लग गई कि श्यामा आई है। दुर्गाप्रसाद दौड़ा आया। राजो से उसे भोला के कारनामों का पता पहले ही लग चुका था। आते ही उसने कहा, "बेटी, अच्छा हुआ जो भगवान ने तुझे दुष्ट भोला से छुटकारा दिला दिया और तू कुशल पूर्वक वापस आ गई।" श्यामवती चुपचाप उठी और दुर्गाप्रसाद के पैर छुये। श्यामवती से कालीमाटी में होने वाली दुर्घटना का सच्चा हाल मालूम होने पर दुर्गाप्रसाद बोला, "बड़ा नालायक था। जब तक यहाँ रहा, गाँव वालों को तंग करता रहा, बाप को बाप न समझा और वहाँ जाने पर राक्षस का काम किया। चलो बच कर भाग निकला यही गनीमत है।"
श्यामवती सदाराम से मिलने के लिये व्यग्र हो रही थी। महेन्द्र से मिलने के लिये भी आकुल थी पर उसके लिये राजो को यह बताना कि 'भैया से मिलना है' जितना सरल था उससे कहीं अधिक यह कहना कठिन था कि 'महेन्द्र से मिलना है'। साथ ही उसे इस बात की भी ग्लानि हो रही थी कि सिकोला आने से पहले जब वह खुड़मुड़ी में थी तो उसे महेन्द्र से मिल लेना चाहिये था।
दो दिन सिकोला में रह कर चन्दखुरी जाने का निश्चय किया गया। दो दिन बीतने पर राजो और श्यामा सिकोला से चलीं। सिकोला से आगे पहला गाँव खुड़मुड़ी ही था। वहाँ पहुँचने पर राजवती ने कहा, "चलो, महेन्द्र से मिल लें और तू सुमित्रा मालकिन के दर्शन भी कर ले।" श्यामा कुछ नहीं बोली। मौन सम्मति का लक्षण था। वह राजो के साथ चुपचाप महेन्द्र के घर की ओर चलने लगी। उसका हृदय सुख-दुःख की भावनाओं से ओत-प्रोत हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो प्रलय और सृष्टि एक साथ ही होने वाली है। दोनों महेन्द्र के आँगन में पहुँचे तो देखा कि वह कुर्सी पर बैठा रजिस्टर में कुछ लिख रहा है। पीठ उसकी दरवाजे की ओर थी। राजो ने पुकारा, "महेन्दर"।
महेन्द्र ने मुँह घुमा कर देखा। श्यामवती को अपने पास पाकर उसे कोई विस्मय नहीं हुआ। उसके आने के बारे में तो वह सुन ही चुका था। साथ ही यह भी जानता था कि यदि श्यामा अकेली नहीं आयेगी तो राजो उसे अवश्य ही साथ लायेगी। महेन्द्र के मन में पिछली बातों की स्मृतियों और भावनाओं का तूफान उमड़ रहा था। पर उसने मन पर अंकुश लगा कर शान्त भाव से पूछा, "श्यामवती, कब आई हो?"
श्यामवती महेन्द्र का सामना होते ही काँप उठी थी। उसके चेहरे पर एक के बाद एक भावनायें आ आ कर मिटती जा रही थीं। नेत्र दोनों के एक दूसरे पर लगे हुये थे। श्यामवती सोच रही थी क्या मेरे इस देवता के मन में मेरे लिये अब भी वही भाव है जो पहले था या फिर तब के प्रेम का अंकुर समय की आँधी में कहीं उखड़ तो नहीं गया। जहाँ तक मेरा प्रश्न है सभी परिस्थितियों में मेरा मन तो अपने इस देवता का ध्यान करता ही रहा है। महेन्द्र भी सोच रहा था - क्या श्यामा का मन अब भी वही है जो ब्याह के पहले था।
"तीन दिन हुये आये" श्यामवती ने उत्तर दिया। उसके स्वर का कम्पन महेन्द्र से छिप न सका। दोनों को ऐसा लग रहा था अब रोत हैं - अब रोते हैं। बड़ी कठिनाई से दोनों आँसू रोके हुये थे।
इतने में ही रसोई घर से सुमित्रा बाहर आई। श्यामवती को देख कर पूछा, "कब आई श्यामवती।?"
"तीन दिन हुये।" और श्यामा ने पैर छू कर सुमित्रा को प्रणाम किया आँगन में ही सब बातों में उलझ गये। राजो और सुमित्रा का एक और महेन्द्र-श्यामवती का दूसरा गुट बन कर बातों में खो गया। झिझक जब तक रहती है तभी तक ही रहती है। श्यामवती और महेन्द्र की झिझक मिट गई थी। थोड़ी ही देर में दोनों को ऐसा लगने लगा मानो उनके बीच कोई व्यावधान रहा ही न हो। थोड़ी देर में बचपन से लेकर अब तक की सब बातें हँस हँस कर उन दोनों ने कर डालीं। दोनों एक दूसरे से अपना पूरा पूरा वृतान्त बताते समय कुछ भी नहीं छिपाया। यह जान कर कि महेन्द्र उसे ढूँढने के लिये कलकत्ता गया था और वहाँ उषा का उस पर तिल भर भी प्रभाव नहीं पड़ा, श्यामवती को गर्व का अनुभव हुआ।
सुमित्रा ने एक बात पर ध्यान दिया। उसने देखा कि लम्बे अर्से के बाद श्यामवती को देख कर आज महेन्द्र विशेष रूप से प्रसन्न हुआ है। उसके मन में केवल यही विचार आया कि दोनों का परिचय बचपन से ही घनिष्ठ होने से ऐसा हुआ है। उसने कहा, "श्यामवती, बहुत दिनों के बाद आज तेरे सामने इसे खुश और हँसता हुआ देख रही हूँ। इसे तू ही समझा कि घर और मालगुजारी का बोझ सिर पर पड़ जाने से क्या कोई इस तरह गम्भीर हो जाता है।" श्यामवती चुप रही, वह क्या कहती।
महेन्द्र के घर से निकल कर राजो और श्यामवती ने चन्दखुरी का रास्ता पकड़ा। वहाँ पहुँच कर वे सदाराम और जानकी से स्नेहपूर्वक मिलीं। श्यामा को जानकी बहुत अच्छी लगी। दो दिनों में ही वे दूध और शक्कर की तरह घुल-मिल गईं। दोनों में स्वभाव-साम्यता होना ही इसका एक मात्र कारण था।
कुछ दिन रह कर साथ में जानकी को भी ले कर राजवती और श्यामवती सिकोला लौट आई। सिकोला पहुँच कर श्यामवती अपने ससुर दुर्गाप्रसाद का ध्यान रखने लगी। दुर्गाप्रसाद को शायद पहली ही बार जीवन सुखी और जीवित रहने के योग्य मालूम हुआ। बेटे को खोकर बहू के रूप में उसे बेटी मिल गई थी। कितना अन्तर था भोला और श्यामा में। वह दुष्टता का अवतार था तो यह नम्रता की देवी। यों तो दुर्गाप्रसाद का मन पहले ही भोला से फट चुका था, अब श्यामवती का स्नेह पाकर उसे लगभग भूल ही गया।
राजो और सुमित्रा को एक ही चिन्ता थी कि अब महेन्द्र का ब्याह हो जाना चाहिये। एक महेन्द्र था, जो ब्याह करना ही नहीं चाहता था। और दूसरी श्यामवती थी जो जानती थी कि महेन्द्र क्यों ब्याह नहीं करना चाहता।
(क्रमशः)

Wednesday, October 10, 2007

धान के देश में - 32

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 32 -

इधर जितनी घटनायें हुईं। उन सबको पीछे ठेलकर उस समय पर विचार करें जब रामनाथ के साथ उसे विश्वासपात्र समझ कर परसादी ने श्यामवती को रायपुर के लिये रवाना किया था। यह भी तय हो चुका था कि रामनाथ पहले कलकत्ता जावेगा और वहाँ से फिर रायपुर के लिये प्रस्थान करेगा। कलकत्ता पहुँच कर रामनाथ ने अपना काम किया और श्यामवती को साथ लेकर जबलपुर होकर बम्बई जाने वाली गाड़ी में जा बैठा। रात का समय होने के कारण श्यामवती को कुछ पता न चल सका। गाड़ी जब कटनी पहुँची तब रामनाथ ने कहा, "श्यामवती, बहुत बड़ी भूल हो गई। हम लोग तो दूसरी ही गाड़ी में आ गये। यह कटनी स्टेशन है। यहाँ उतर कर बिलासपुर चलें और वहाँ से रायपुर की गाड़ी पकड़ लेंगे।" दोनों वहीं कटनी में उतर गये। बिलासपुर जाने वाली गाड़ी अगले दिन ही मिलनी थी। इसलिये टांगा करके रामनाथ श्यामवती को एक धर्मशाला में ले गया। वहाँ उन्हें एक कमरा दिया गया।
रामनाथ श्यामवती से बोला, "मैं खाने के लिये कुछ ले कर आता हूँ" और वहाँ से वह मैनेजर के पास आया और एक कुर्सी पर बैठ गया। मैनेजर ने पास ही रखी हुई पेटी खोल कर रामनाथ के हाथ में तीन सौ रुपये गिन दिये। वह सन्तोष के साथ चला गया पर जाते जाते कह गया, "मैनेजर साहब, अब आप जानिये।"
"तुम बेफिकर रहो रामनाथ। हमारे यहाँ पूरा प्रबन्ध है।" मुस्कुरा कर मैनेजर ने उत्तर दिया। जब दो घंटे से अधिक समय बीत गया और रामनाथ वापस नहीं आया तब श्यामवती को चिन्ता हुई। वह कमरे से निकल कर बाहर आई और जैसे ही चाहा कि फाटक से बाहर पैर रखे और रामनाथ का पता लगाने के लिये जावे वैसे ही एक पहरेदार ने उसे रोक लिया और कहा, "कहाँ जा रही हो बाई? तुम्हीं हो न जो आज आई हो? नये आये हुये लोगों को बाहर जाने का हुक्म नहीं है।"
"क्यों? यह कैसी धर्मशाला है? ऐसा तो कहीं भी नहीं होता।" श्यामवती झुँझला कर बोली।
पहरेदार ने हँसते हुये कहा, "यह धर्मशाला नहीं है बाई। यह तो विधवा आश्रम है।" सुन कर श्यामवती को ऐसा लगा कि वह बेहोश होकर गिर रही है। पर उसने अपने आपको संभाला। धीरज उसका न जाने कहाँ खो गया। वह मैनेजर के कमरे में पहुँची। उसको देखते ही तिलक लगाये, रामनामी चादर ओढ़े और सिर पर पगड़ी बाँधे हुये मैनेजर ने स्वागत करते हुये कहा, "आवो देवी आवो। तुम्हारा ही नाम श्यामवती है ना? बैठो, बैठो कुर्सी पर। कहो यहाँ तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है?" श्यामवती झल्लाई हुई थी। गरज कर बोली, "मैं यहाँ आश्रम में एक पल भी नहीं ठहरना चाहती। मुझे जाने दो।"
"ना, ना, ना" ऐसा भी कहीं हुआ है कि आश्रम में आ कर कोई भी देवी दुखित ही चली जाय। पहले उसका पुनर्विवाह हो जावे, उसके जीवन को किसी का सहारा मिल जावे, तभी वह यहाँ से जा सकती है। तब तक हम उसके जीवन को सुखी बनावेंगे।" और वह निर्लज्जता की हँसी बिखेरने लगा।
"पर आपसे किसने कहा कि मैं विधवा हूँ। मेरे पति तो जीवित हैं। आपका यह कैसा आश्रम है जो सधवा का विधवा-विवाह कराता है?" श्यामवती ने क्रोध से फुफकारते हुये कहा।
मैनेजर पर श्यामवती के क्रोध का प्रभाव नाममात्र के लिये भी नहीं पड़ा। इसके विरुद्ध वह अधिक प्रसन्न मुद्रा से बोला, "श्यामवती देवी, रामनाथ से हमें सब कुछ मालूम हो चुका है। रामनाथ हमारी संस्था के खास लोगों में से है। तुम्हीं एक स्त्री नहीं हो जिसका उसने उपकार किया हो। तुम अपने हत्यारे पति को मरा हुआ ही समझो। ऐसे पति की पत्नी तो विधवा से भी बदतर होती है। और देखो, यहाँ से बाहर जाने का ध्यान स्वप्न तक में भी मत लाना।"
श्यामवती समझ गई कि वह बुरी तरह से फँसा दी गई है। चुपचाप अपने कमरे में आ गई और फूट फूट कर रोने लगी। रोने से जब मन कुछ शान्त हुआ तब विचारों के समुद्र में डूब गई। उसने सोचा कि देवता जैसा दिखने और व्यवहार करने वाला रामनाथ जब ऐसा कर सकता है तब संसार में कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है। इसी समय भोजन की थाली लिये एक नौकरानी ने प्रवेश किया और थाली रख कर जाने लगी। श्यामवती चिल्ला कर बोली, "ले जा इसे। मैं कुछ नहीं खाउँगी। भूखी रह कर प्राण दे दूँगी पर यहाँ के एक दाने को भी हाथ नहीं लगाउँगी।" नौकरानी सहम गई और थाली उठा कर चुपचाप चली गई। थोड़ी ही देर में एक दूसरी स्त्री के साथ मैनेजर आया। साथ में भोजन लिये वही नौकरानी भी थी। उस स्त्री और मैनेजर ने श्यामवती से भोजन कर लेने के लिये बड़ा आग्रह किया पर वह कुछ बोली तक नहीं। हताश हो, थाली वहीं रखवा वे तीनों बाहर चले गये। जाते जाते मैनेजर कहता गया कि, "भूख से तिलमिला उठेगी तो आप ही खायेगी।" फिर दिन भर न कोई आया और न श्यामवती ने भोजन ही किया। जाल में फँसी हुई हिरणी की भाँति वह तड़प रही थी। मन अशान्त था। एक एक कर घर के लोग याद आ रहे थे। न जाने कब वह लेट गई और निराश तथा थकी हुई होने के कारण नींद में खो गई।
अत्यधिक उद्विग्नता के कारण श्यामा को नींद में भी चैन नहीं था। वह स्वप्न देखने लगी। उसने देखा कि वह अपनी जन्म-भूमि सिकोला पहुँच गई है। लोग उससे केवल इसीलिये घृणा कर रहे हैं कि वह इतने दिनों तक न जाने कहाँ कहाँ रही और उस पर क्या क्या बीता। तभी लोगों की घृणा ने क्रोध का रूप धारण कर लिया। अब लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। वह प्राण बचा कर भाग रही है। अचानक एक पत्थर उसके सिर पर लग गया और सिर से खून बह रहा है। वह धड़ाम से गिर पड़ी। इसी समय किसी ने उसका सिर अपनी गोद में ले लिया। उसने आँखें खोल कर देखा तो वह महेन्द्र है। दोनों की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही है पर महेन्द्र की गोद में अपना सिर पा कर वह अपना दुःख भूल गई है। उसे असीम शान्ति मिल रही है। इतने में ही उसकी नींद टूट गई। वह बिलख बिलख कर रोने लगी।
जगप्रसिद्ध सर गंगाराम के द्वारा करुणा से उत्प्रेरित होकर वास्तविक भावना से जो विधवा-आश्रम स्थापित किये गये थे उनसे इस विधवा आश्रम का कतई सम्बंध नहीं था। कुछ स्वार्थी दुराचारियों ने मिल कर इस भ्रष्टाचार-आश्रम की स्थापना की थी जहाँ वे इन्द्रिय लोलुप लोग निरीह, असहाय अबलाओं को अपने स्वेच्छानुसार शिकार बनाते थे। शाम को वही नौकरानी भोजन की दूसरी थाली ले कर आई। उसने देखा कि सबेरे की थाली जहाँ की तहाँ और ज्यों की त्यों पड़ी है। वह उल्टे पाँव लौट गई और जा कर उसने मैनेजर को सूचना दी। मैनेजर ने उस स्त्री को भेजा जो पहले उसके साथ आई थी। उसका नाम अहल्या था। वह स्त्री विभाग में मुखिया था। सब काम अहल्या के द्वारा होते थे। अहल्या सफेद साड़ी पहनी हुई थी। उसके गोरे चेहरे पर चेचक के हल्के दाग थे। अधिक पान खाने से ओठ सदैव लाल रहते थे। माथे पर बड़ा सा गोलाकार सिन्दूर लगा था। अवस्था पैंतीस और चालीस के बीच थी पर उसमें अभी तक उत्कट आकर्षण था। कमरे में प्रवेश करते ही बहुत मधुर स्वर से अहल्या ने कहा, "श्यामवती, सबेरे से तुमने कुछ खाया नहीं है। कुछ तो खा लो।" पर श्यामवती चुप रही। अहल्या ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, "देखो, ऐसे काम नहीं चलेगा। भोजन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। न खाने से अन्न का अपमान होता है।" अब की बार श्यामवती ने धीरे से उत्तर दिया, "तुम कुछ भी कहो, मैं नहीं खाउँगी। भूख-प्यास से प्राण दे दूँगी।" इस उत्तर से अहल्या को क्रोध आ गया। झटके से श्यामा का हाथ छोड़ कर फुफकारती हुई बोली, "देखूँगी, कब तक अकड़ दिखाती है।" फिर वह झपाटे से बाहर चली गई। नौकरानी आई और भोजन की नई थाली रख कर सबेरे वाली थाली उठा ले गई। श्यामवती की ओर उसने देखा तक नहीं।
श्यामवती सबेरे आश्रम के आँगन में स्थित कुएँ में स्नान कर लेती थी। इसके बाद वह अपने कमरे में जो घुसती तो निकलने का नाम न लेती। दिन भर भगवान के नाम की रट लगाये रहती थी। सुबह-शाम नौकरानी थाली रख जाती पर वह उधर देखती तक नहीं थी। थोड़े समय के लिये ही कमरे से बाहर आने में ही श्यामवती को आश्रम के रंग-ढंग मालूम हो गये। वहाँ प्रायः पूर्ण रूप से निर्लज्ज स्त्रियाँ ही थीं जो बनाव-श्रृंगार में व्यस्त वासना की मूर्तियाँ ही कही जा सकती थीं। श्यामवती को देख कर कोई मुँह बिचकाती तो कोई आवाज सकती थी कि आश्रम के भाग्य खुल गये जो यहाँ सती सावित्री का आगमन हुआ है। श्यामा को इन बातों की चिन्ता नहीं थी।
चार दिनों से अन्न-जल ग्रहण न करने से श्यामवती में कमजोरी आ गई पर उसकी अन्तरात्मा में एक ऐसी दिव्य शक्ति उभर रही थी कि उसे विश्वास हो गया कि वह इसी प्रकार मृत्यु तक सरलता से समय बिता देगी। चौथे दिन मैनेजर और अहल्या को चिन्ता हुई कि कहीं श्यामवती सचमुच ही मर न जाये। उन लोगों को इतना तो मालूम हो गया था कि उसका निश्चय अटल है। पर उन्हें अपने हथकण्डों पर अधिक विश्वास था। उपाय सोच कर भोजन के समय वे दोनों नौकरानी के हाथ भोजन की थाली रखा कर श्यामवती के कमरे में आये। आते ही मैनेजर ने जोर से चिल्ला कर कहा, "खाना खाती है नहीं।"
श्यामवती अपनी पूरी आन्तरिक शक्ति से चिल्ला उठी, "नही, नहीं, नहीं।"
"अच्छा देखता हूँ कैसे नहीं खाती है" कह कर मैनेजर ने अहल्या को इशारा किया। उसने श्यामवती के हाथ जकड़ कर पकड़ लिये। मैनेजर ने उसके दोनों गाल दबाये जिससे उसका मुँह खुल गया। नौकरानी ने चाँवल का एक कौर मुँह में डाला। मैनेजर ने श्यामा के दबाये हुये गालों को इसलिये छोड़ दिया कि वह कौर निगल सके। मुँह छूटते ही श्यामवती ने वह कौर उगल दिया। यह देख कर अहल्या और मैनेजर हैरान हो गये। उनकी धारणा थी कि भूख से तिलमिलाती हुई श्यामा अवश्य ही खा लेगी। हैरानी के साथ साथ मैनेजर को क्रोध भी आया पर उसने स्वयं कुछ नहीं किया। लअहल्या से केवल इतना ही कह कर बाहर चला गया कि, "अब इसे तुम ही संभालो।" अहल्या गरज कर बोली, "हरामजादी, चार दिनों से तहलका मचा रखा है। खाती है या नहीं?" श्यामवती चुप रही। उसके चुप्पी से अहल्या घायल नागिन-सी हो गई। उसने साड़ी के आँचल में छिपा और कमर में लिपटा हुआ चमड़े का हण्टर निकाला और लगी श्यामवती को धड़ाधड़ पीटने। श्यामवती ने आह तक नहीं की। प्रत्येक मार पर वह मन ही मन भगवान का नाम ले रही थी। सात-आठ हण्टर पड़ने पर वह बेहोश हो गई। अहल्या भोजन की थाली वहीं छोड़ नौकरानी के साथ बाहर चली गई। न जाने कब श्यामवती को होश आया। वह पूरे शरीर में असह्य वेदना का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखें लगातार आँसू बहा रहीं थी।
चार दिन और बीत गये पर श्यामा का संकल्प और भी अधिक अटल होता गया। अब वह लेटी ही रहती थी। उसमें चलने-फिरने की भी समार्थ्य नहीं रह गई थी।
जिस दिन अहल्या ने श्यामा को हण्टर मारे उसी दिन उसके हृदय को भी गहरा धक्का लगा। उसने हृदय में उठते हुये पश्चाताप के अंकुर को कुचल देना चाहा, किन्तु उसका स्त्री मन आड़े आ जाता था। वह आप ही आप बड़बड़ा उठी, 'आखिर यह दुर्बलता और पश्चाताप की भावना मुझमें कब तक बनी रहेगी।' फिर अहल्या अपने कामों में ऐसी लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो किन्तु उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ हो रहा था। उसकी दुर्बलता या स्त्री सुलभ कोमलता और पश्चाताप की भावना क्रम क्रम से उसके हृदय में प्रबल होती जा रही थी। साथ ही साथ सदयता और सहृदयता भी उस भावना के साथ उभरती जा रही थी। वास्तव में वह निर्दय नहीं थी किन्तु परिस्थितियों ने उसे निर्दय बना दिया था। श्यामवती के अटल निश्चय का प्रभाव उस पर धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था। उसके मानस-पटल पर वह दिन उभर आया जब उसे भी श्यामवती के जैसे ही इस आश्रम में लाया गया था। उसे भी यहाँ के जीवन से वैसी ही घृणा हुई थी जैसी आज श्यामवती को हो रही है। उसने भी निश्चय किया था कि वह गंदगी में कभी लिप्त नहीं होगी किन्तु उसे निश्चय अटल न रह सका था। फिर आश्रम के गंदे वातारवरण और प्रलोभन ने उसकी कोमल भावनाओं पर कालिमा पोत दिया था। कालिमा ने निर्लज्जता को जन्म दिया, निर्लज्जता ने कठोरता को, और उसका नारी-चरित्र न जाने कैसे परिवर्तित हो गया। श्यामवती की दृढ़ता ने उसी कालिमा को ही मिटाना प्रारम्भ कर दिया। अहल्या की अन्तरात्मा काँप उठी। उसे भीतर से धिक्कार पर धिक्कार मिलने लगा। मन ने कहा 'मक्कार औरत, जिस नारी जाति की हमारे देश में, उसके अलौकिक गुणों, धैर्य, सहनशीलता के कारण सीता, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, पार्वती, गायत्री, चण्डी, काली, महामाया के रूप में पूजा की जाती है, तू उसी मातृजाति का भीषण कलंक बन चुकी है। तूने कितनों को कलंकित होने में सहायता दी है और आज भी एक पवित्र नारी का जीवन नष्ट करने पर तुली हुई है। अहल्या पश्चाताप की लपटों में जलने लगी। उसके हृदय का कलुष तब तक उसके नयनों से बहता रहा जब तक उसका हृदय उज्वल न हो गया। वह अपने कमरे से निकल कर सीधे श्यामवती के कमरे में गई। श्यामा को उसने उसी सहज प्रेम से उठा कर बैठाया जो एक नारी के हृदय में दूसरी नारी के लिये होता है। मधुर स्वर में बोली, "श्यामा, जिस भगवान को तुम रट रही हो उसी की सौगन्ध है जो तुम भोजन न करो तो।"
अहल्या के स्वर का वास्तविक परिवर्तन श्यामवती से छिपा न रह सका। वह अहल्या की बात से प्रभावित हुई और उसका हृदय अनायास ही उसकी ओर आकर्षित भी हुआ। सत्य सत्य को पहचान न सके - यह हो ही नहीं सकता। फिर भी अहल्या पर सहसा विश्वास न कर वह बोली, "कहीं यह तुम्हारी नई चाल तो नहीं है?" सुनकर अहल्या को लगा मानो वह रौरव नर्क में ढकेल दी गई हो। उसने शान्ति, संयम और दृढ़ता से कहा, "मुझ पर विश्वास करो। मैं तुम्हें यहाँ से निकालने के साथ ही साथ स्वयं भी निकल जाउँगी। जिस अन्तर्यामी परमात्मा से मेरे जीवन का कोई भी क्षण छिपा नहीं है मैं उसी परमात्मा की सौगन्ध खा कर कहती हूँ कि मैं जो कुछ कह रही हूँ, सच है।"
अब श्यामवती के लिये अविश्वास करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई। उसने सोचा कि अहल्या जब भगवान की शपथ खा रही है तब उस पर विश्वास न करना भगवान के ऊपर ही अविश्वास करने के बराबर होगा। वह भोजन करने के लिये राजी हो गई। अहल्या के आनन्द की सीमा न रही। वह बाहर आई और रसोईघर से दूध का गिलास स्वयं उठा लाई। श्यामवती ने दूध पिया। उसे उसमें रुचि नहीं मालूम हुई पर शान्ति और शक्ति अवश्य ही मिली। अहल्या ने वहाँ से बच निकलने का उपाय सोचा और श्यामार से वैसा ही करने के लिये कहा जैसा वह कहती जावेगी।
अहल्या ने बड़े उल्लास के साथ श्यामवती के द्वारा अनशन तोड़ने की सूचना मैनेजर को जाकर दी। सुन कर उसे सन्तोष हुआ। उसने धूर्तता से पूछा, "रास्ते में आ जाने के लिये श्यामवती को कितने दिन लगेंगे?"
"तुम तो जानते ही हो कि किसी स्त्री के ऊपर, उसके यहाँ आने के महीने भर बाद ही, हम लोग अपने जादू चलाते हैं। पर श्यामवती जरा दूसरे मिजाज की है इसलिये उसके मामले में दो से तीन महीने भी लग सकते हैं। किन्तु तुम निश्चिंत रहो, मैं इसे ठीक रास्ते पर ले आउँगी।"
"अच्छा, तू जो चाहे कर।" कह कर मैनेजर ने चाहा कि अहल्या को अपने आलिंगन में समेट ले पर 'हटो' कह कर अहल्या तेजी से भाग गई।
अहल्या के कहे अनुसार अब श्यामवती ने मैनेजर के साथ अपने व्यवहार की कठोरता कम कर दिया। अहल्या ने मैनेजर पर ऐसा प्रभाव डाला कि उसे पूरा विश्वास हो गया कि अहल्या श्यामा पर अपना असर डाल रही है। ज्यों ज्यों उसका विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता गया त्यों त्यों वह अहल्या और श्यामवती को सथ रहने का अधिक से अधिक अवसर देता गया। एक दिन अहल्या और श्यामवती साथ साथ तरकारी-भाजी खरीदने बाजार गईं। वे बाजार जाने के स्थान पर सीधे स्टेशन पहुँच गईं जहाँ कटनी-बिलासपुर रेल छूटने ही वाली थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक टिकट कटाया और एक डिब्बे में बैठ गईं। दो-तीन मिनट बाद ही गाड़ी छूटी पर वे दो-तीन मिनट उन्हें दो-तीन युगों के समान प्रतीत हुये। डर और आशंका से उनका हृदय धक् धक् कर रहा था। प्रति क्षण उन्हें ऐसा लग रहा था कि कोई न कोई आता ही है जो उन्हें घसीटता हुआ ले जाकर फिर उसी नर्क में पटक देगा जहाँ से निकल कर वे आई हैं। किन्तु गाड़ी की रफ्तार बढ़ने के साथ उनका डर कम होते जा रहा था और सन्तोष तथा शान्ति बढ़ती जा रही थी। शहडोल आने पर अहल्या उतर गई। पास ही के गाँव में उसका घर था जहाँ स्वालम्बन, सदाचार और सुख से शेष जीवन बिताने का उसने वज्र-निश्चय कर लिया था। बिछुड़ते समय दोनों गले लग कर मिलीं। उनकी आखों में वह निश्छल आँसू छलछला आया जो जीवन भर के लिये दो हृदयों को एक कर देता है। श्यामा का हृदय कृतज्ञता से भर गया।
बिलासपुर पहुँचने पर श्यामवती ने गाड़ी बदली और रायपुर आ गई। यहाँ की एक एक वस्तु में आत्मीयता पा कर उसका हृदय उल्लास से भर गया। स्टेशन से निकल कर उसने सीधा खुड़मुड़ी का रास्ता लिया।
(क्रमशः)

Tuesday, October 9, 2007

धान के देश में - 31

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 31 -

सदाराम और महेन्द्र के नागपुर से चले जाने के बाद जानकी चिन्तित रहने लगी। एक सप्ताह बाद जब उसे सदाराम का पत्र मिला तब उसकी चिन्ता कपूर के तरह उड़ गई। उसके बाद उसे सदाराम के पत्र लगातार मिलते रहे पर किसी में भी विवाह के विषय में कुछ भी नहीं लिखा होता था जिससे उसके हृदय को ठेस लगती थी। जो जानकी सदाराम के सामने ऐसी बनी रहती थे कि उसके हृदय के भाव भाँपे न जा सकें वह अब सदाराम को पाने के लिये व्याकुल हो उठी थी। आखिर उसकी खुशी का दिन भी आया जब कि महेन्द्र का इस आशय का पत्र मिला कि सदाराम की शादी के लिये राजवती राजी हो गई है। पत्र पा कर उसका आवेश उभरा नहीं पर आँखों में आनन्द के आँसू अवश्य ही छलक आये। जानकी के पिता रतीराम को तो कोई ऐतराज था ही नहीं। अतः ब्याह पक्का हो गया और मुहूर्त निश्चित कर लिया गया।
सदाराम के ब्याह में श्यामवती का रहना आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य था क्यों कि ब्याह में बहन ही तो नेग करती है। टाटानगर जाने के पहले श्यामवती अपने ससुर दुर्गाप्रसाद की पगड़ी के छोर में बाँध कर जो चिट्ठी छोड़ गई थी उससे सबको पता था कि वह टाटानगर में है। उसे लिवा लाने के लिये सदाराम टाटानगर गया। वहाँ मजदूरों की बस्ती में पहुँच कर उसने पता लगाया तो परसादी से सब कुछ जान कर बड़ा दुःखी हुआ। यह सुन कर और भी भय और व्यथा हुई कि रामनाथ के साथ श्यामवती पन्द्रह-बीस दिनों पहले ही रायपुर के लिये रवाना कर दी गई है। वह अभी तक न तो रायपुर पहुँची थी, न खुड़मुड़ी और न ही सिकोला। सदाराम टाटानगर से लौट आया। उससे सब बातें और भोला की शैतानी सुन कर राजो सिर पीट पीट कर रोने लगी। उसे सबने ढाढ़स बँधाया। श्यामवती के गायब हो जाने की खबर से महेन्द्र के हृदय में अधीरता, विषाद, चिन्ता और व्यथा का तूफान उठ खड़ा हुआ। सब तो हुआ पर श्यामवती की अनुपस्थिति के कारण सदाराम का ब्याह रोकना उचित न था।
बड़ी धूमधाम के साथ सदाराम की बारात लेकर महेन्द्र नागपुर गया और जानकी के साथ सदाराम का ब्याह हो गया। वापस आ कर सब अपने अपने काम में लग गये। जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये। महेन्द्र रायपुर में रह गया और सुमित्रा और राजो खुड़मुड़ी चली गईं। महेन्द्र को चिन्ता थी कि जब श्यामवती टाटानगर से रायपुर के लिये रवाना हो चुकी पर रायपुर नहीं आई तो अवश्य ही वह किसी मुसीबत में पड़ गई होगी। परसादी से सदाराम को और सदाराम से महेन्द्र को मालूम हो चुका था कि श्यामवती जिस रामनाथ के साथ रायपुर भेजी गई थी वह पहले कलकत्ता जाने वाला था। शायद वे दोनों कलकत्ते में ही किसी विपत्ति में पड़ गये हों। इस विचार से महेन्द्र की अन्तरात्मा काँप उठी। किन्तु उसने धीरज धारण किया और निश्चय किया कि वह श्यामवती को ढूँढ निकालेगा। वहाँ उसे खेती के कुछ औजार भी खरीदना था। इसलिये वह कलकत्ता चला गया।
कलकत्ता पहुँच कर महेन्द्र ने श्यामवती को ढूँढने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उसने एक एक गली और सड़क की खाक छानी। उसके मन में एक अन्य विचार भी आया जिसके तहत उसने वेश्यालयों में भी जा कर श्यामवती को खोजने का प्रयत्न किया पर वह कहीं नहीं मिली। एक दिन रास्ता चलते समय महेन्द्र बहुत ही अधिक चिन्तातुर था। एकदम अनमना हो कर चल रहा था। चारों ओर का कोलाहल भी उसे दूर से आती हुई क्षीण ध्वनि के समान लग रहा था। सहसा पीछे से आती हुई एक मोटर की चपेट में वह आ गया और धड़ाम से सड़क पर गिर पड़ा। ड्रायव्हर ने पूरी ताकत से मोटर रोकने का प्रयत्न किया था पर दुर्घटना हो ही गई। चोट तो बहुत नहीं लगी पर वह बेहोश अवश्य ही हो गया।
मोटर से एक युवती उतर कर बेसुध महेन्द्र के पास आई। वह बहुत अधिक घबराई हुई थी। उमर उसकी कोई सत्रह-अठारह वर्ष की थी। उसके वस्त्र बहुमूल्य थे। गले में कीमते 'नेकलेस', हाथों में सोने की चूड़ियाँ और माथे पर गोल बिन्दी थी। उसके अनुपम सौन्दर्य पर करुणा की छाया झलक रही थी जिससे उसकी सुन्दरता और भी निखर आई थी। ड्रायव्हर की सहायता से उसने महेन्द्र के संज्ञाहीन शरीर को मोटर में रख दिया। अब तक लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। लोगों को समझा-बुझा कर वह युवती महेन्द्र को अपने साथ उसका इलाज करवाने ले गई।
सड़क पर सड़क पार कर मोटर एक आलीशान मकान के सामने रुकी। यही उस युवती का घर था। दो-तीन नौकर दौड़ कर आये जिनकी सहायता से महेन्द्र को एक कमरे में पहुँचाया गया। कमरे में मुलायम बिस्तर और गद्दे वाला पलंग बिछा था। उस पर महेन्द्र को लिटा दिया गया। डॉक्टर बुलवा कर महेन्द्र का उपचार करवाया गया। डॉक्टर ने महेन्द्र के चोटों पर मरहम-पट्टी कर दी और उस युवती को बताया कि डरने की कोई बात नहीं है, आधे घंटे के भीतर होश आ जायेगा।
महेन्द्र बेहोश पड़ा था। वह युवती उसकी सेवा में लगी थी कि दो और युवतियों ने कमरे में प्रवेश किया। दोनों ही पहली युवती से अवस्था में बड़ी थीं। आते ही एक बोली, "उषा, यह कौन है? कहाँ से उठा लाई हो इसे?" उषा ने उत्तर दिया, "उठा नहीं लाई शशि, ये मेरी मोटर के नीचे आ गये थे। लइसलिये उपचार के लिये ले आई हूँ।" इसी बीच बेहोशी की हालत में महेन्द्र ने दो-तीन बार श्यामवती का नाम लिया। शशि ने तीसरी युवती से कहा, "अरुणा, यह तो किसी श्यामवती का पुजारी जान पड़ता है। इसे ले आने से उषा को क्या मिलेगा?"
"मिलेगा क्या खाक।" कह कर अरुणा मुस्कुराई और बोली, "चल शशि उस उषा को यहीं मरने दे।" शशि और अरुणा तितली की भाँति वहाँ से चली गईं। उषा को उन दोनों का ढंग पसन्द नहीं था। उषा, शशि और अरुणा सगी बहनें थीं। उषा सबसे छोटी थी। धीरे धीरे महेन्द्र को होश आया। उसने आँखें खोल कर छत की ओर देखा और विचारों की श्रृंखला जोड़ने में लग गया। उसे याद आया कि वह मोटर के नीचे आ कर बेहोश हो गया था। वह कह उठा, "मैं कहाँ हूँ?"
"आप मेरे घर में हैं। मैं उषा हूँ। आप मेरी मोटर के नीचे आ कर बेसुध हो गये थे।" उषा बोली।
महेन्द्र को स्वस्थ होने में केवल एक दिन का ही समय लगा और जाने के लिये तैयार हो गया पर उषा ने बड़ा आग्रह किया कि वह दो-चार दिन रह कर पूरी तरह स्वस्थ हो कर जाये। महेन्द्र भी कुछ कमजोरी का अनुभव कर रहा था और उषा के आग्रह में इतनी अधिक नम्रता और आकर्षण था कि कम से कम चार दिन वहीं रुक जाने के लिये महेन्द्र को बाध्य होना ही पड़ा। महेन्द्र को मालूम हुआ कि उषा के परिवार में उसके माता-पिता, एक भाई और अरुणा, शशि तथा उषा तीन बहनें थीं। महेन्द्र का परिचय पा कर उन सभी ने प्रसन्नता व्यक्त की। उस घर में सभी हँसमुख और प्रसन्न थे। जो भी महेन्द्र से बात करता, मुस्कुराता ही रहता। केवल उषा ही ऐसी थी जिसके चन्द्रमुख पर विषाद के बादल छाये रहते थे। घर के लोग जब तब उसे झिड़कते ही रहते और वह चुपचाप सभी की बातें सुन लिया करती थी। उस घर में दिन-रात कोई न कोई आता-जाता रहता था। शशि और अरुणा हँस हँस कर उनका स्वागत करती थीं। उस मकान में आने वालों के स्नान, भोजन, मनोरंजन का प्रबन्ध था, फिर भी वह मकान कोई धर्मशाला नहीं था। शशि और अरुणा संगीत छेड़ कर आगन्तुकों को मनोरंजन करती थीं। केवल उषा ही अपने कमरे में बैठी रहती थी। अकस्मात उसके कमरे में कोई आ जाता तो उसे केवल 'मनहूस कहीं की' कह कर चला जाता था। महेन्द्र ने इन सब बातों का जल्दी ही अध्ययन कर लिया। महेन्द्र की देखभाल उषा के सिवाय और कोई नहीं करता था।
चौथे दिन सबेरे उषा चाय लेकर महेन्द्र के पास आई। आज महेन्द्र चला जाने वाला था। चाय का ट्रे टेबल पर रख कर उषा एक ओर खड़ी हो गई।
"बैठो उषा" महेन्द्र ने कहा।
वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई।
"उषा, तुम्हारे घर यह सब क्या होता है?"
"कुछ न पूछो महेन्द्र बाबू" एक गहरी निःश्वास छोड़ कर उषा बोली, हम कुलीन घराने के हैं पर पिता जी और भैया ने मुसाफिरों के मनोरंजन का व्यवसाय अपना लिया है। हम तीनों बहनों में से एक का भी विवाह जान-बूझ कर नहीं किया गया है। मेरी दोनों बहनें न मालूम कैसे इस व्यवसाय में रुचि रखती हैं पर मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।"
महेन्द्र सुन कर स्तब्ध रह गया। वह गहरी चिन्ता में डूब गया। उसके चेहरे पर विषाद की रेखा उभर आई। इसी समय शशि और अरुणा भी वहाँ आ गईं। कुछ देर तक तो दोनों महेन्द्र और उषा को देखती रहीं फिर अरुणा ने हँस कर पूछा, "घुल-मिल कर क्या बातें हो रही हैं महेन्द्र बाबू?" महेन्द्र के कुछ कहने के पहले ही नाक-भौं सिकोड़ कर उषा बोली, "बातें क्या हो रहीं हैं। महेन्द्र बाबू आज जा रहे हैं इसी पर चर्चा चल रही थी।"
अच्छा, अच्छा" कह कर शशि और अरुणा तेजी से चली गईं। दोनों ने समझ लिया कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी।
दोपहर को भोजन करने के बाद महेन्द्र जब उस घर से जाने लगा तब उषा के सिवाय कोई उससे मिलने नहीं आया। पहुँचाने के लिये वह दरवाजे तक आई और दोनों ने अभिवादन किया। उसी समय महेन्द्र ने बटुये से सौ का नोट निकाल कर उषा के हाथ में रख दिये। उषा तिलमिला उठी। नोट को वापस करती हुई बोली, "महेन्द्र बाबू, इस घर के और लोगों के समान मुझे भी आप नीच और गिरी हुई समझते हैं। ये रुपये वापस लीजिये।" महेन्द्र अवाक् हो गया। उसने यह सोच कर रुपये वापस ले लिये कि उषा की भावना और हृदय को इससे ठेस लगी है। किन्तु कहा, "नहीं उषा, यह बात नहीं है। मैं तुम्हें कुछ दिये बिना ही चला जाऊँ तो तुम्हारे घर के लोग तुम्हारी आफत न कर देंगे?"
वह बोली, "वे लोग मेरी क्या आफत कर सकते हैं। आफत तो मैं उन्हीं लोगो की किया करती हूँ महेन्द्र बाबू। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि इस नरक से एक न एक दिन बच निकलूँगी। पढ़ी-लिखी हूँ। नौकरी कर के पेट पाल लूँगी।"
"भगवान करे ऐसा ही हो।" कह कर महेन्द्र वहाँ से चला गया। जब तक वह दिखता रहा, उषा दरवाजे पर खड़ी रही। महेन्द्र के आँखों से ओझल होने पर ही वह भीतर गई।
कलकत्ते में श्यामवती को ढूँढने का निष्फल प्रयास के बाद महेन्द्र रायपुर लौट गया और वहाँ से खुड़मुड़ी चला गया।
(क्रमशः)

Monday, October 8, 2007

धान के देश में - 30

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 30 -

जिन दिनों महेन्द्र और सदाराम नागपुर में पढ़ रहे थे उन दिनों खुड़मुड़ी में सुमित्रा और राजवती उनकी मंगल-कामना करती हुईं एक एक दिन गिन रहीं थीं कि कब उनकी पढ़ाई समाप्त हो और वे वापस आयें। अन्त में वह दिन आ पहुँचा। इतवारी में चलने वाले सुधार कार्य को जानकी के हाथों सौंप कर महेन्द्र और सदाराम रायपुर आ गये। उन दिनों सुमित्रा और राजवती रायपुर में ही थीं। उनसे भेंट होते ही महेन्द्र और सदाराम ने उनके पैर छुये। उन्हें देख कर सुमित्रा और राजो की आँखें आनन्द के आँसू से छलक गईं। दोनों के मन में एक ही विचार उठ रहा था कि आज दीनदयाल होते तो खुशी से फूले न समाते। जैसे फसल पकने के समय ओले गिरकर उसे नष्ट कर दें वैसे ही कठोर कराल काल ने उन्हें निगल लिया।
नागपुर से आने के तीन दिन बाद ही एक कागज लेकर सरकारी चपरासी आया। महेन्द्र ने कागज लेकर पढ़ा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह नौकरी का कागज था जिसमें यह सूचित किया गया था कि महेन्द्र को चन्दखुरी के सरकारी खेती के फॉर्म में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर नियुक्त किया गया है। उन दिनों शासन की ओर से स्वयं ही कभी कभी योग्य व्यक्ति को ढूँढ कर नौकरी दे देने प्रयत्न किया जाता था। इसीलिये महेन्द्र की शिक्षा का पता लगा कर शासने स्वयं उसे नौकरी दे दी थी। महेन्द्र वह कागज लेकर अकेले ही चन्दखुरी गया और वह नौकरी सदाराम के लिये ठीक कर आया। जब सदाराम को इस बात का पता लगा तब वह महेन्द्र से बोला, "यह तुमने क्या किया। नौकरी तो तुम्हें दी गई थी और तुम ठीक कर आये मेरे लिये।"
"ठीक ही तो किया। मुझे नौकरी करनी नहीं है और तुम्हें नौकरी की आवश्यकता है।" महेन्द्र ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।
"हम लोग तो पहले से ही दादा दीनदयाल के उपकारों के बोझ से दबे हैं और अब तुम भी...."
सदाराम बात काट कर तुरन्त ही महेन्द्र बोला, "तुम्हें यह नौकरी करनी ही पड़ेगी। मैं नियुक्ति पत्र ले आया हूँ। वेतन १५०) मासिक है। मैं समझता हूँ इससे तुम राजो को सुखी रख सकोगे। नौकरी पर जाने के लिये अभी एक सप्ताह का समय बाकी है। तब तक खुड़मुड़ी से हो आवेंगे।" सदाराम कुछ नहीं बोला। कृतज्ञता से उसका हृदय भर गया।
इसके बाद ही सुमित्रा, राजवती, महेन्द्र और सदाराम खुड़मुड़ी चले गये। वहाँ गाँव के लोगों ने महेन्द्र और सदाराम का बड़ा स्वागत और सम्मान किया। प्रत्येक किसान नारियल लेकर महेन्द्र से मिलने आया। खुड़मुड़ी में पाँच दिन रहने के बाद सदाराम चन्दखुरी चला गया और असिस्टेंट मैनेजर के पद पर सरकारी नौकरी करने लगा। महेन्द्र ने राजो से कहा कि वह भी सदाराम के साथ चली जाये जिससे उसे अपने हाथ से रोटी पकाने का कष्ट न उठाना पड़े पर राजवती चाहती थी कि वह खुड़मुड़ी में ही रह कर सुमित्रा और महेन्द्र की सेवा करती रहे। उसकी इच्छा के विरुद्ध जाना उचित न समझ कर महेन्द्र कुछ नहीं बोला और राजो सदाराम के साथ नहीं गई।
महेन्द्र स्वाभाविक रूप से गम्भीर हो गया था। गाँव का पूरा बोझ उसके सिर पर आ पड़ा था। गाँव वाले सरल हृदय और श्रद्धावान थे। उनके हृदय में जैसा सम्मान दीनदयाल के लिये था वैसा ही सम्मान महेन्द्र के लिये भी था। जिन गाँवों में मालगुजारों का व्यवहार किसानों को नीचा और अपने आपको ऊँचा दिखाने वाला होता था वहाँ अवश्य ही लोगों में घोर असन्तोष रहता था पर खुड़मुड़ी में तो यह दशा थी कि जहाँ मालगुजार का पसीना बहने का अवसर आता वहाँ किसान उसके लिये अपना खून बहा देने के लिये तैयार रहते थे। सबसे पहला काम महेन्द्र ने जो किया वह था दीनदयाल के स्मारक के रूप में गाँव के तालाब के किनारे शिव जी का एक सुन्दर मन्दिर बनवाने का। उसने गाँव के मुख्य मुख्य किसानों के सामने अपना विचार रखा जिसे सबने बहुत पसन्द किया और तालाब के किनारे उचित स्थान निश्चित कर शिवालय का निर्माण किया गया। इसके बाद महेन्द्र ने काम-धाम की ओर ध्यान दिया। उसने देखा कि दीनदयाल के मरने के बाद से अब तक खेती-बाड़ी के काम, उपज और आय में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है बल्कि उन्नति ही हुई है। इसके मूल में राजवती ही थी। सुमित्रा को तो खेती-किसानी के विषय में कुछ मालूम ही नहीं था पर राजो इस काम में पारंगत थी। वह अपने घर का काम समझ कर सुमित्रा को हर समय खेती सम्भालने, गाँव की व्यवस्था करने और लगान तथा नहर का टैक्स वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करने में सहायता देती रही।
महेन्द्र ने खेती में उन्नति करने का निश्चय किया और किसानी के नये नये औजार मंगाने ने के लिये आर्डर भेज दिया। कामों में व्यस्त रहते हुये भी वह भूला नहीं था कि सदाराम का ब्याह जानकी के साथ कराने के लिये राजो को अवश्य ही राजी करना है। एक दिन उसे अवसर मिल गया। दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप संसार को त्रस्त कर रही थी। सनसनाती हुई गरम लू चल रही थी। बीच बीच में हहरा कर हवा प्रचण्ड वेग से बह उठती थी जिसके चपेट में सूखे पत्ते और धूल के ऊँचे खम्भे मँडरा कर आकाश में उठते और मिट जाते थे। महेन्द्र अपने कमरे में लेटा हुआ एक उपन्यास पढ़ कर मन बहला रहा था। बाजू के कमरे में सुमित्रा और राजो बातें कर रहीं थीं। जो महेन्द्र के कमरे से साफ सुनाई दे रही थीं। उसने पुस्तक बन्द कर दी और सुनने लगा।
"अब महेन्द्र का ब्याह हो जाना चाहिये।" राजो कह रही थी।
"हाँ, मेरे भी जीवन की सबसे बड़ साध यही है कि बहू घर आये। फिर तो मेरा काम रात दिन रामायण पढ़ कर जीवन की घड़ियाँ काटना ही रह जायेगा।" सुमित्रा उल्लास में भर कर बोली।
तभी महेन्द्र ने अपना कमरा छोड़ कर इस कमरे में प्रवेश किया और कहा, "राजो, तुम्हें मेरे ब्याह की फिकर क्यों पड़ी है। सदाराम की शादी करो न। लेकिन यह तो बताओ कि पढ़-लिख कर बाबू बन जाने के बाद वह गाँव की छोकरियों को पसन्द करेगा?"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो बोली, "क्यों? पसन्द क्यों नहीं करेगा? पसन्द नहीं करेगा तो क्या उसके लिये इन्द्र की अप्सरा आयेगी?"
"अगर तुम चाहो तो मैं सदाराम के लिये इन्द्र की अप्सरा ही ला दूँ।" महेन्द्र की बात से राजो चौंक उठी।
"तुम केवल मुझे खुश करने के लिये बातें बना रहे हो। भला ऐसा भी कभी हुआ है कि घूरे में से सरग का सपना देखा जाय।" राजवती ने अविश्वास से कहा।
अब महेन्द्र काफी गम्भीर होकर बोला, "राजो, मैं नागपुर में सदाराम के लिये एक लड़की पसन्द कर चुका हूँ। उसका नाम जानकी है। सदाराम और जानकी एक दूसरे को चाहते भी हैं। पर दो बातें हैं। एक यह कि जानकी तुम्हारी जाति की नहीं है और दूसरी यह कि वह बाल-विधवा है। यदि तुम चाहो तो सदाराम और जानकी का ब्याह करके दोनों के जीवन को सुखी बना सकती हो।"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो सोच में पड़ गई। उसकी आँखों के सामने श्यामवती का दुःखी जीवन झूल गया जिसके लिये वह स्वयं को जिम्मेदार समझती थी। उसने सोचा कि एक की जिन्दगी तो बर्बाद हो ही चुकी है, कहीं ऐसा न हो कि सदाराम को भी दुःखी जीवन व्यतीत करना पड़े। अन्त में उसने उत्तर दिया, "मुझे मंजूर है। तुम सदाराम का ब्याह जहाँ और जिससे करना चाहो करो पर पहले तुम्हारा ब्याह होना चाहिये।"
राजो का उत्तर सुन कर महेन्द्र ने सन्तोष से कहा, "पहले तो वही ब्याह होगा जो पहले लग चुका है।"
(क्रमशः)