(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
बुरा मत सुनो,
बुरा मत देखो,
बुरा मत बोलो,
बापू के सिद्धान्तों के प्रतीक
तीनों बन्दर-
बदल गये हैं अन्दर ही अन्दर,
क्योंकि वे अब नेता बन गये हैं;
ऊपर से चमकदार, उजले, सुन्दर,
पर भीतर से पूरी तरह सड़ गये हैं।
तीनों बन्दर बापू के नाम पर
कालिख पोत रहे हैं,
और अपना ही घर भरने केलिये
सत्ता का शक्तिशाली हल जोत रहे हैं।
बुरा न देखने वाला बन्दर अब-
बुराई और सिर्फ बुराई के सिवाय
कुछ नहीं देखता है,
अव्वल दर्जे का नेता है वह-
जनता का वोट पाकर,
सत्ता के मद में आकर,
अपनी डफली बजाकर,
अपना ही राग रेंकता है।
बुरा न सुनने वाला बन्दर-
कानों से हाथ हटा कर,
चमचों की बातों में आकर,
अपनी प्रशंसा सुनने लगा है,
और अगर बहरा है तो भी-
श्रवण-यंत्र लगा कर,
बुराइयाँ सुन-समझ कर,
दल पर दल बदलने लगा है।
बुरा न बोलने वाला बन्दर-
गला फाड़ चिल्ला कर,
लोगों के समक्ष जा कर,
अपने ही दल का दम भरने लगा है,
भाषण और आश्वासन का
अनर्गल प्रलाप करने लगा है।
बापू के जीवन-काल में-
तीनों बन्दर मूर्ख थे-
पर बापू के मर जाने पर वे
सफेद टोपी पहन, नख-शिख सफेद हो कर
अपने आपको बुद्धिमानों में गिनने लगे हैं।
पर बन्दर के अन्दर-
बन्दर-बुद्धि के सिवाय और क्या रहेगा-
चाहे वह नेता, महानेता, अभिनेता-
या नारद के समान-
सुन्दर तन, कलूटा मन बन्दर-मुख हो जाये-
तो भी जानवर, जानवरों का ही नेता बनेगा।
लेकिन पते की बात तो यह है कि-
ये बन्दर समझदारों के बीच भी
मान न मान, मैं तेरा मेहमान के नियम से
नेता के रूप में नाचने वाले
बापू के तीनों बन्दर-
स्वयं को ब्रह्मा मान अकड़ दिखाते हैं,
बन्दर-बाँट और लूट-खसोट को-
कदम कदम पर दुहराते और तिहराते हैं।
बापू के तीनों बन्दर
अब नेता हैं, जनता के सेवक हैं-
पर अगर पोस्ट मार्टम करोगे उनका
तो पावोगे भूखे भेड़िये को
उसके दिल के अन्दर,
बापू के तीन बन्दर
बापू के तीन बन्दर
(रचना तिथिः शनिवार 02-10-1984)
Thursday, November 8, 2007
Wednesday, November 7, 2007
वापस चल
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।
विनाशिनी संहारिणी शक्ति-
तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,
उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तम
शान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,
चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।
(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)
विनाश से सृजन की ओर-
मुख मोड़ और चल,
धूर्त-पथ त्याग कर,
मानव मन बन निश्छल।
विनाशिनी संहारिणी शक्ति-
तेरी ही कृति का प्रतिफल,
मोड़ दे अपनी दिशा,
उत्फुल्ल कर शतदल कमल,
कृत्रिम से प्रकृति उत्तम
शान्त सुन्दर धवल,
तो फिर ओ अशान्त मन,
चल वापस, प्रकृति ओर वापस चल।
(रचना तिथिः शनिवार 24-12-1983)
Monday, November 5, 2007
किसको अच्छा लगता है?
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
बच्चों का गुमसुम हो जाना,
युवकों का माला टरकाना,
बूढ़ों का श्रृंगार सुनाना,
नारी का निर्लज हो जाना,
किसको अच्छा लगता है?
दूध-रहित बचपन पलता है,
दुर्बल यौवन सिर धुनता है,
वृद्ध वर्ग सपने बुनता है,
तृष्णा में खुद को ठगता है,
यह किसको अच्छा लगता है?
बचपन होता निश्छल जीवन,
प्रेमांकुर ही पाता यौवन,
अध्यात्म-ज्ञान ही वृद्धों का धन,
बने सफल सब का ही जीवन,
यह सबको अच्छा लगता है।
(रचना तिथिः 25-09-1983)
बच्चों का गुमसुम हो जाना,
युवकों का माला टरकाना,
बूढ़ों का श्रृंगार सुनाना,
नारी का निर्लज हो जाना,
किसको अच्छा लगता है?
दूध-रहित बचपन पलता है,
दुर्बल यौवन सिर धुनता है,
वृद्ध वर्ग सपने बुनता है,
तृष्णा में खुद को ठगता है,
यह किसको अच्छा लगता है?
बचपन होता निश्छल जीवन,
प्रेमांकुर ही पाता यौवन,
अध्यात्म-ज्ञान ही वृद्धों का धन,
बने सफल सब का ही जीवन,
यह सबको अच्छा लगता है।
(रचना तिथिः 25-09-1983)
Sunday, November 4, 2007
कौन रोकता है?
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।
धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।
क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।
कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।
हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।
(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)
मानते हैं कि-
हम धर्म निरपेक्ष देश में रहते हैं
और हर तरह की ज्यादती-
हम लोग ही तो सहते हैं।
धर्म निरपेक्ष!
अर्थात् जिसे धर्म की अपेक्षा ही न हो
याने कि पूरा पूरा अधर्मी
जिन्हें रौंद डालें विधर्मी।
क्या संसद ने ऐसा कोई कानून बनाया है-
कि हम वेद, शास्त्र, उपनिषद्, रामायण-
पढ़ ही नहीं सकते-
फिर हम ऐसा क्यों नहीं करते
कौन हमें रोकता है?
कौन हमारी धार्मिकता को
गहन अन्धकार में झोंकता है?
कोई हृदय पर हाथ रख कर कहे-
कि हम अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ते हैं!
बारम्बार उनका पुनश्चरण करते हैं।
यदि हाँ, तो भारत आज भी-
धर्म निरपेक्ष नहीं धर्म प्राण राष्ट्र है-
और यदि नहीं, तो
निश्चित है कि यह संस्कृति-संस्कार विहीन राष्ट्र है।
हम मर चुके हैं और हमारा जीना,
केवल भीषण त्रास और उपहास है।
कौन रोकता है हमें-
नित्य स्वाध्याय करने से-
और सद् ग्रंथों को छोड़ स्वयं के साथ
घोर अन्याय करने से।
पर हमारा मन ही मर गया है-
पश्चिमी चकाचौंध से भर गया है।
हम एक नई संस्कृति उभार रहे हैं-
ब्राह्म-मुहूर्त में कुत्ते के साथ भ्रमण कर-
श्वान संस्कृति में जीवन को ढाल रहे हैं।
और चार्वाक को भी धिक्कार रहे हैं!
हमारी आत्मा गहरी नींद ले रही है-
हमारी मूर्खता यही सन्देश दे रही है-
कि हमें कोई नहीं रोकता-
हम पतन की आग में भस्म हो रहे हैं,
हमारे सिवाय-
उस आग में हमें और कोई नहीं झोंकता।
हम सब कुछ हैं पर भारतीय नहीं-
हममें संस्कार ही नहीं इसलिये-
वह हमें नहीं टोकता-
पर हमें संभलना चाहिये-
अपने धर्म ग्रंथों को नियमित पढ़ना ही चाहिये,
क्योंकि ऐसा करने से हमें,
कोई नहीं रोकता।
(रचना तिथिः शनिवार 09-04-1981)
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