अजित गुप्ता जी के पोस्ट मन से पंगा कैसे लूँ, यह अपनी ही चलाता है पढ़कर इच्छा हुई कि इस विषय पर मैं भी एक पोस्ट लिखूँ, वो कहते हैं ना "खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है"। हाँ तो मेरी भी इच्छा होने लगी इस विषय पर पोस्ट लिखने की और मैं यह अच्छी प्रकार से समझता हूँ कि यह "इच्छा होना" भी मन का ही एक खेल है, मैं अपने मन के अधीन होकर ही यह पोस्ट लिख रहा हूँ।
यह मन मुझे ही नहीं हर किसी को अपने अधीन बनाना चाहता है, बड़े-बड़े दिग्गज इस मन के अधीन रहे हैं। यह ययाति का मन ही था जिसने उसे अपने पुत्र को अपनी वृद्धावस्था देकर उसके यौवन को स्वयं लेने के लिए विवश किया, यह विश्वामित्र का मन ही था जिसने उसे वसिष्ठ के कामधेनु को शक्तिपूर्वक ले लेन के लिए प्रयास करने के लिए विवश किया, यह युधिष्ठिर का मन ही था जिसने द्यूत में द्रौपदी तक को दाँव में लगाने के लिए विवश किया।
मन ने सदैव ही मनुष्य को कमजोर बनाया है। मन के कारण ही मनुष्य अपने कर्तव्य से विमुख होता है। इसी मन ने अर्जुन को कमजोर बनाकर गांडीव को भूमि पर रख देने और अपने कर्तव्य से विमुख होने के लिए विवश कर दिया था।
अर्जुन को तो विषम स्थिति से उबारने के लिए तो श्री कृष्ण थे किन्तु हम जैसे अकिंचन जन को उबारने के लिए कौन है?
यद्यपि आज हमें उबारने के लिए कृष्ण नहीं हैं किन्तु गीता के रूप में उनकी वाणी अवश्य हमारे पास उपलब्ध है। मन को नियन्त्रित करने के लिए गीता का अध्ययन बहुत ही प्रभावशाली है। मैं तो सभी लोगों से इतना ही कहूँगा कि यदि वे गीता का अध्ययन करें तो अवश्य ही अपने मन को नियन्त्रण में रखने में सक्षम होंगे। यदि आप संस्कृत नहीं समझ सकते तो गीता के हिन्दी टीका को ही पढ़ जाएँ, आपको अवश्य ही लाभ होगा।
Saturday, May 7, 2011
Friday, May 6, 2011
जिस तिथि का प्रत्येक पल शुभ मुहूर्त हो वह तिथि है अक्षय तृतीया!
भारतीय परम्परा के अनुसार मांगलिक कार्यों को मुहूर्त में आरम्भ किया जाता है। शुभ मुहूर्त हर तिथि को हमेशा नहीं होता किन्तु आदिकाल से हिन्दुओं में यह मान्यता चली आ रही है कि वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया एक ऐसी तिथि है जिसका प्रत्येक पल शुभ मुहूर्त होता है इसीलिए इस तिथि को अक्षय तृतीया के नाम से जाना जाता है। अक्षय तृतीया हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है जिसे कि आखा तीज के नाम से भी जाना जाता है। माना जाता है कि इस दिन जो भी शुभ कार्य किये जाते हैं, उनका अक्षय फल मिलता है। अक्षय तृतीया एक विशिष्ट तिथि है जो निम्न तथ्यों को अपने में समेटे हुए है -
- सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ था।
- भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी के रूप में इसी तिथि को अवतार लिया था।
- ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव इसी तिथि को हुआ था।
- इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था।
- हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक बद्रीनारायण के कपाट प्रतिवर्ष इसी तिथि से ही खुलते हैं।
- इस दिन से शादी-ब्याह करने की शुरुआत हो जाती है।
- इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है।
- मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। अक्षय तृतीया पर सोना खरीदना शुभ माना जाता है।
- अक्षय तृतीया को छत्तीसगढ़ में 'अकती' त्यौहार के रूप में मनाते हैं। इसी दिन से खेती-किसानी का वर्ष प्रारम्भ होता है। इसी दिन पूरे वर्ष भर के लिये नौकर लगाये जाते हैं। शाम के समय हर घर की कुँआरी लड़कियाँ आँगन में मण्डप गाड़कर गुड्डे-गुड्डियों का ब्याह रचाती हैं।
Thursday, May 5, 2011
अच्छा बनना चाहते हो तो पहले विशिष्ट बनो
अंग्रेजी की एक लोकोक्ति हैः
You don't have to be different to be good. You have to be good to be different.
अर्थात् "अच्छा" बनने के लिए "विशिष्ट" बनना आवश्यक नहीं है बल्कि "विशिष्ट" बनने के लिए "अच्छा" बनना आवश्यक है।
राम के लिए शबरी "विशिष्ट" थी क्योंकि वह "अच्छी" थी, इसीलिए तो राम ने शबरी के द्वारा दिए गए कंद-मूल-फल को प्रेमपूर्वक खाया और उनकी प्रशंसा भी की -
कंद मूल फल सरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
तुलसीदास
कृष्ण के लिए सुदामा "विशिष्ट" थे क्योंकि वे "अच्छे" थे, तभी तो सुदामा की दीन दशा देखकर कृष्ण की आँखें अश्रुपूरित हो गईं -
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैंनन के जल सौं पग धोये॥
नरोत्तमदास
किन्तु मैं भी कैसा मूर्ख हूँ जो यह नहीं समझता कि ये सब अतीत की बाते हैं। आज के युग में इन बातों का कुछ भी महत्व नहीं है, ये सब बकवास हैं। हो सकता है कि अतीत काल में "अच्छा" व्यक्ति को "विशिष्ट" समझ लिया जाता हो किन्तु वर्तमान समय में तो "विशिष्ट" होने के लिए "अच्छा" होना कतई जरूरी नहीं है बल्कि "अच्छा" बनने के लिए पहले "विशिष्ट" बनाना आवश्यक है। "अच्छे" लोगों का सारा देश आदर करता है; मोहनदास करमचंद गांधी ने अहिंसा के बल पर देश को स्वतन्त्र दिला दी थी इसलिए वे "विशिष्ट" थे और चूँकि वे "विशिष्ट" थे इसलिए "अच्छे" भी थे इसीलिए तो सारा देश उन्हें "बापू" और "महात्मा गांधी" कहकर उनका सम्मान करता है। सुभाष चन्द्र बोस ने क्रान्ति के बल पर देश को स्वतन्त्र करना चाहा इसलिए वे "विशिष्ट" नहीं बन पाए और इसी कारण से वे केवल बंगाल तक ही सिमट कर रह गए, सारे देश में उन्हें गांधी जैसा सम्मान नहीं मिल सका। यह बात अलग है कि अंग्रेजों ने अहिंसक आन्दलनों के कारण नहीं बल्कि अपनी विवशता के कारण भारत को छोड़ा, तभी तो 1947 में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लॉर्ड एटली ने हाऊस ऑफ कामन्स में कहा था "हमने भारत को इसलिए छोड़ा क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे"। अब ज्वालामुखी के मुहाने को अहिंसा तो खोल नहीं सकती, हाँ क्रान्ति में अवश्य ही उसे खोलने की ताकत है। खैर हमें क्या? यदि लोग कहते हैं कि देश में स्वतन्त्रता अहिंसा से आई तो हम मान लेते हैं कि ऐसा ही हुआ होगा। भावनाओं में बह कर मैं शायद विषय से भटक रहा हूँ। तो मैं कह रहा था कि आज के जमाने में "विशिष्ट" व्यक्ति ही "अच्छा" व्यक्ति होता है। राहुल गांधी नेहरू वंश के कुलदीपक हैं इसलिए "विशिष्ट" हैं और "विशिष्ट" हैं तो "अच्छे" भी हैं। ओसामा भी विशिष्ट व्यक्ति हैं, तभी तो दिग्विजयसिंह उन्हें "ओसामा जी" कह कर सम्मानित करना चाहते हैं। बाबा रामदेव को शायद पता नहीं है कि विदेशी बैंकों में जमा देश के काले धन को वापस लाने के लिए लम्बे अरसे से प्रयास करने से वे "विशिष्ट" नहीं बन जाएँगे, उन्हें पता होना चाहिए कि "विशिष्ट" बनने के लिए गांधीवादी तरीका अपनाना पड़ता है, अब देखिए ना "अन्ना" जी ने गांधीवादी तरीका अपनाया तो कितने कम समय में "विशिष्ट" बन गए!
आज प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि लोग उसे विशिष्ट मानें और साथ ही अच्छा भी मानें। हम ब्लोगर भी इसके अपवाद नहीं हैं इसीलिए तो अपने पोस्टों पर टिप्पणियों की भरमार चाहते हैं, हिन्दी ब्लोग्स की विशेषता अधिक संख्या में उसके पाठकों की संख्या नहीं वरन अधिक से अधिक टिप्पणियाँ पाना है। यदि हमारे ब्लोग्स में सौ के स्थान पर हजार, लाख या करोड़ पाठक क्यों न आ जाएँ, हम विशिष्ट नहीं बन सकते, विशिष्ट तो हम तभी बन सकेंगे जब हमें अधिक से अधिक संख्या में टिप्पणियाँ मिलेंगी। और यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं होनी कि "विशिष्ट" व्यक्ति अपने आप ही "अच्छा" बन जाता है।
इसलिए यदि अच्छा बनना चाहते हो तो पहले विशिष्ट बनो!
कहा भी गया है -
घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद्रासभरोहण।
येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्॥
घड़े तोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए याने कि विशिष्ट बनाना चाहिए।
You don't have to be different to be good. You have to be good to be different.
अर्थात् "अच्छा" बनने के लिए "विशिष्ट" बनना आवश्यक नहीं है बल्कि "विशिष्ट" बनने के लिए "अच्छा" बनना आवश्यक है।
राम के लिए शबरी "विशिष्ट" थी क्योंकि वह "अच्छी" थी, इसीलिए तो राम ने शबरी के द्वारा दिए गए कंद-मूल-फल को प्रेमपूर्वक खाया और उनकी प्रशंसा भी की -
कंद मूल फल सरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
तुलसीदास
कृष्ण के लिए सुदामा "विशिष्ट" थे क्योंकि वे "अच्छे" थे, तभी तो सुदामा की दीन दशा देखकर कृष्ण की आँखें अश्रुपूरित हो गईं -
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैंनन के जल सौं पग धोये॥
नरोत्तमदास
किन्तु मैं भी कैसा मूर्ख हूँ जो यह नहीं समझता कि ये सब अतीत की बाते हैं। आज के युग में इन बातों का कुछ भी महत्व नहीं है, ये सब बकवास हैं। हो सकता है कि अतीत काल में "अच्छा" व्यक्ति को "विशिष्ट" समझ लिया जाता हो किन्तु वर्तमान समय में तो "विशिष्ट" होने के लिए "अच्छा" होना कतई जरूरी नहीं है बल्कि "अच्छा" बनने के लिए पहले "विशिष्ट" बनाना आवश्यक है। "अच्छे" लोगों का सारा देश आदर करता है; मोहनदास करमचंद गांधी ने अहिंसा के बल पर देश को स्वतन्त्र दिला दी थी इसलिए वे "विशिष्ट" थे और चूँकि वे "विशिष्ट" थे इसलिए "अच्छे" भी थे इसीलिए तो सारा देश उन्हें "बापू" और "महात्मा गांधी" कहकर उनका सम्मान करता है। सुभाष चन्द्र बोस ने क्रान्ति के बल पर देश को स्वतन्त्र करना चाहा इसलिए वे "विशिष्ट" नहीं बन पाए और इसी कारण से वे केवल बंगाल तक ही सिमट कर रह गए, सारे देश में उन्हें गांधी जैसा सम्मान नहीं मिल सका। यह बात अलग है कि अंग्रेजों ने अहिंसक आन्दलनों के कारण नहीं बल्कि अपनी विवशता के कारण भारत को छोड़ा, तभी तो 1947 में ब्रिटिश प्रधानमन्त्री लॉर्ड एटली ने हाऊस ऑफ कामन्स में कहा था "हमने भारत को इसलिए छोड़ा क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे"। अब ज्वालामुखी के मुहाने को अहिंसा तो खोल नहीं सकती, हाँ क्रान्ति में अवश्य ही उसे खोलने की ताकत है। खैर हमें क्या? यदि लोग कहते हैं कि देश में स्वतन्त्रता अहिंसा से आई तो हम मान लेते हैं कि ऐसा ही हुआ होगा। भावनाओं में बह कर मैं शायद विषय से भटक रहा हूँ। तो मैं कह रहा था कि आज के जमाने में "विशिष्ट" व्यक्ति ही "अच्छा" व्यक्ति होता है। राहुल गांधी नेहरू वंश के कुलदीपक हैं इसलिए "विशिष्ट" हैं और "विशिष्ट" हैं तो "अच्छे" भी हैं। ओसामा भी विशिष्ट व्यक्ति हैं, तभी तो दिग्विजयसिंह उन्हें "ओसामा जी" कह कर सम्मानित करना चाहते हैं। बाबा रामदेव को शायद पता नहीं है कि विदेशी बैंकों में जमा देश के काले धन को वापस लाने के लिए लम्बे अरसे से प्रयास करने से वे "विशिष्ट" नहीं बन जाएँगे, उन्हें पता होना चाहिए कि "विशिष्ट" बनने के लिए गांधीवादी तरीका अपनाना पड़ता है, अब देखिए ना "अन्ना" जी ने गांधीवादी तरीका अपनाया तो कितने कम समय में "विशिष्ट" बन गए!
आज प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि लोग उसे विशिष्ट मानें और साथ ही अच्छा भी मानें। हम ब्लोगर भी इसके अपवाद नहीं हैं इसीलिए तो अपने पोस्टों पर टिप्पणियों की भरमार चाहते हैं, हिन्दी ब्लोग्स की विशेषता अधिक संख्या में उसके पाठकों की संख्या नहीं वरन अधिक से अधिक टिप्पणियाँ पाना है। यदि हमारे ब्लोग्स में सौ के स्थान पर हजार, लाख या करोड़ पाठक क्यों न आ जाएँ, हम विशिष्ट नहीं बन सकते, विशिष्ट तो हम तभी बन सकेंगे जब हमें अधिक से अधिक संख्या में टिप्पणियाँ मिलेंगी। और यह कहने की तो आवश्यकता ही नहीं होनी कि "विशिष्ट" व्यक्ति अपने आप ही "अच्छा" बन जाता है।
इसलिए यदि अच्छा बनना चाहते हो तो पहले विशिष्ट बनो!
कहा भी गया है -
घटं भिन्द्यात् पटं छिन्द्यात् कुर्याद्रासभरोहण।
येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्॥
घड़े तोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए याने कि विशिष्ट बनाना चाहिए।
Wednesday, May 4, 2011
गूगल अर्थ में आभासी पर्यटन (Virtual Tour)
किसी स्थान का चित्र मात्र देख लेने से वह सन्तुष्टि नहीं होती जो उस स्थान में घूमकर प्रत्यक्ष रूप में उसे देखने से होता है। लोग प्रायः किसी स्थान को प्रत्यक्ष रूप से देखकर उसका आनन्द उठाने के लिए पर्यटन की योजना बनाते हैं। अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि हम अपने पर्यटन की योजना को सफल नहीं बना पाते। ऐसे ही अवसरों के लिए आधुनिक तकनीक ने विहंगम चित्र (panoramic images) की सुविधा प्रदान कर रखी है। http://www.360cities.net/ विश्व के अनेक स्थानों के विहंगम चित्र प्रस्तुत करती है और गूगल अर्थ के फीचरों में से एक है। इतना सब लिखने का मतलब है कि आप अपने घर बैठे ही गूगल अर्थ के द्वारा प्रसिद्ध स्थानों के 360 अंश तक घूम जाने वाले चित्रों का अवलोकन कर सकते हैं जिससे आपको उन स्थानों में प्रत्यक्ष घूमने का आभास होगा।
उदाहरण के लिए इण्डिया गेट नई दिल्ली का विहंगम चित्र नीचे प्रस्तुत है। (चित्र को घुमाने के लिए उस पर एक बार क्लिक करके अपने माउस के स्क्रोल अथवा कीबोर्ड के एरो कीज का प्रयोग करें।)
India Gate, South Side in New Delhi
उदाहरण के लिए इण्डिया गेट नई दिल्ली का विहंगम चित्र नीचे प्रस्तुत है। (चित्र को घुमाने के लिए उस पर एक बार क्लिक करके अपने माउस के स्क्रोल अथवा कीबोर्ड के एरो कीज का प्रयोग करें।)
India Gate, South Side in New Delhi
Tuesday, May 3, 2011
दिल्ली जाना - रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग होना
दिल्ली जाने के लिए आमंत्रण और निमंत्रण दोनों ही बहुत पहले से ही मिले हुए थे। उहापोह में था कि दिल्ली जाऊँ या न जाऊँ। भीषण गर्मी में 1383 कि.मी. की यात्रा करना आसान नहीं लग रहा था इसलिए दिल्ली न जाने का विकल्प ही भारी पड़ रहा था। अन्ततः निश्चय यही कर लिया था कि न जाऊँ। किन्तु ललित शर्मा, खुशदीप सहगल और रवीन्द्र प्रभात के आग्रह ने मेरे निश्चय को अडिग न रहने दिया और सहसा दिल्ली जाने की योजना बन गई। साथ में जा रहे थे ललित शर्मा, पाबला जी, संजीव तिवारी और अल्पना देशपाण्डे जी।
चूँकि मेरा आरक्षण सबसे आखरी में हुआ था, मुझे सभी से अलग-थलग सीट मिली थी किन्तु सीट थी खिड़की के पास वाली। पूरे एक दिन और रात की यात्रा थी, शुक्रवार सुबह 7.50 बजे से आरम्भ होने वाली। यात्रा के दौरान पुस्तक पढ़ना या प्राकृतिक दृश्यों को देखना बहुत भाता है। रायपुर से डोंगरगढ़ तक मैदानी क्षेत्र है जहाँ आकर्षक प्राकृतिक दृश्य दिखाई नहीं देते इसलिए पहले ही अनेक बार पढ़ी हुई देवकीनन्दन खत्री जी की कृति "चन्द्रकान्ता सन्तति" को पुनः पढ़ता रहा। डोंगरगढ़ से आमगाँव तक पहाड़ी और जंगली क्षेत्र हैं जिसमें वसन्त ऋतु में टेसू के फूलों की भरमार रहती है किन्तु अभी पतझड़ होने के कारण केवल पत्रविहीन वृक्ष ही दिखाई दे रहे थे।
पत्रविहीन वृक्ष तो सतपुड़ा की पहाड़ी और जंगलों में भी थे किन्तु वहाँ पर लाल फूलों से लदे हुए गुलमोहर के पेड़ों की बहुलता होने के कारण आँखों को उनका बहुत ही स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो रहा था। पीलिमायुक्त श्वेत पत्ते वाले महुआ के पेड़ इस भोजन के साथ स्वादिष्ट चटनी का काम कर रहे थे। वापसी यात्रा सतपुड़ा वाले मार्ग न होकर एक अन्य मार्ग से थी किन्तु उस मार्ग में मनेन्द्रगढ़ की पहाड़ियों और जंगलों ने मनमोहक दृश्य प्रदान किए।
दिल्ली में आयोजन कैसा रहा, वहाँ क्या हुआ आदि के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि वहाँ पर मुझे बहुत सारे ब्लोगर साथियों से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। और सुनीता शानू बहन का स्नेहिल आतिथ्य तो मेरे लिए अविस्मरणीय ही बन गया। कुल मिलाकर दिल्ली जाना मेरे लिए रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग होना ही रहा।
चूँकि मेरा आरक्षण सबसे आखरी में हुआ था, मुझे सभी से अलग-थलग सीट मिली थी किन्तु सीट थी खिड़की के पास वाली। पूरे एक दिन और रात की यात्रा थी, शुक्रवार सुबह 7.50 बजे से आरम्भ होने वाली। यात्रा के दौरान पुस्तक पढ़ना या प्राकृतिक दृश्यों को देखना बहुत भाता है। रायपुर से डोंगरगढ़ तक मैदानी क्षेत्र है जहाँ आकर्षक प्राकृतिक दृश्य दिखाई नहीं देते इसलिए पहले ही अनेक बार पढ़ी हुई देवकीनन्दन खत्री जी की कृति "चन्द्रकान्ता सन्तति" को पुनः पढ़ता रहा। डोंगरगढ़ से आमगाँव तक पहाड़ी और जंगली क्षेत्र हैं जिसमें वसन्त ऋतु में टेसू के फूलों की भरमार रहती है किन्तु अभी पतझड़ होने के कारण केवल पत्रविहीन वृक्ष ही दिखाई दे रहे थे।
पत्रविहीन वृक्ष तो सतपुड़ा की पहाड़ी और जंगलों में भी थे किन्तु वहाँ पर लाल फूलों से लदे हुए गुलमोहर के पेड़ों की बहुलता होने के कारण आँखों को उनका बहुत ही स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो रहा था। पीलिमायुक्त श्वेत पत्ते वाले महुआ के पेड़ इस भोजन के साथ स्वादिष्ट चटनी का काम कर रहे थे। वापसी यात्रा सतपुड़ा वाले मार्ग न होकर एक अन्य मार्ग से थी किन्तु उस मार्ग में मनेन्द्रगढ़ की पहाड़ियों और जंगलों ने मनमोहक दृश्य प्रदान किए।
दिल्ली में आयोजन कैसा रहा, वहाँ क्या हुआ आदि के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि वहाँ पर मुझे बहुत सारे ब्लोगर साथियों से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। और सुनीता शानू बहन का स्नेहिल आतिथ्य तो मेरे लिए अविस्मरणीय ही बन गया। कुल मिलाकर दिल्ली जाना मेरे लिए रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग होना ही रहा।
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