क्या आप चिट्ठाजगत के हॉटलिस्ट में ऊपर आना चाहते हैं?
तो यह कौन कठिन बात है?
बेशक आपका पोस्ट चिट्ठाजगत के हॉटलिस्ट में बहुत ऊपर आ सकता है। यहाँ तक कि टॉप में भी पहुँच सकता है!
तो इसके लिये सबसे पहले तो आप एक पोस्ट लिखिये, बकवास से बकवास पोस्ट भी चलेगा। अब अपने पोस्ट के तेरह-चौदह महाबकवास लाइनों को कॉपी करके एक के बाद एक टिप्पणी के रूप में खुद ही डालते जाइये। बीच-बीच में दस-बारह बार बेनामी बनकर भी टिप्पणी करते चले जाइये। हो गई ना पच्चीस छब्बीस टिप्पणियाँ! अब आपके पोस्ट को चिट्ठाजगत के हॉटलिस्ट में ऊपर पहुँचने से कोई नहीं रोक सकता!
यदि कोई आपको अपने पोस्ट में खुद टिप्पणी देने की उलाहना दे तो पक्के बेशरम बन कर कह दीजिये कि दूसरों से फ़ोन करके, एस एम् एस करके मिमिया कर टिपण्णी करवाने से खुद ही अपने पोस्ट में टिप्पणियाँ कर लेना अधिक बेहतर है!
तो एक बार आजमा कर देखिये इस फॉर्मूले को, सफलता की पूरी-पूरी गारंटी है।
Saturday, July 24, 2010
Friday, July 23, 2010
अलौकिक ऋतु-वर्णन करने वाले रीतिकालीन कवि 'सेनापति'
रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है। सेनापति नाम से बोध होता है कि यह वास्तविक नाम न होकर उपनाम ही होगा। सेनापति का वास्तविक नाम अब तक ज्ञात नहीं हो पाया है। निम्न कवित्त से उनका थोड़ा सा परिचय मिलता हैः
दीक्षित परसुराम दादौ है विदित नाम,
जिन कीन्हैं जज्ञ, जाकी बिपुल बड़ाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके,
गंगातीर बसति अनूप जिनि पाई है॥
महाजामनि, विद्यादान हूँ में चिन्तामनि,
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है॥
उपरोक्त छंद से ज्ञात होता है कि सेनापति के पिता का नाम गंगाधर और पितामह का नाम परशुराम दीक्षित था और हीरामणि दीक्षित उनके गुरु थे। तात्पर्य यह कि उन्होंने दीक्षित कुल में जन्म लिया था और अनूप नगर के निवासी थे।
सेनापति के विषय में कहा गया हैः
रितु वर्णन अद्भुत कियौ सेनापति कविराज।
एकै रचना नाम कौ तब सुकवि समाज॥
आइये रसपान करें उनके ऋतु वर्णन का:
वसंत ऋतु
बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥
ग्रीष्म ऋतु
वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥
वर्षा ऋतु
दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर जोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥
शरद ऋतु
कातिक की रति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं॥
उदित विमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसो जस अध-ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो, सेत है बरन सबु,
मानहु जगत छीर-सागर मगन है॥
शिशिर ऋतु
सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥
दीक्षित परसुराम दादौ है विदित नाम,
जिन कीन्हैं जज्ञ, जाकी बिपुल बड़ाई है।
गंगाधर पिता गंगाधर के समान जाके,
गंगातीर बसति अनूप जिनि पाई है॥
महाजामनि, विद्यादान हूँ में चिन्तामनि,
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है॥
उपरोक्त छंद से ज्ञात होता है कि सेनापति के पिता का नाम गंगाधर और पितामह का नाम परशुराम दीक्षित था और हीरामणि दीक्षित उनके गुरु थे। तात्पर्य यह कि उन्होंने दीक्षित कुल में जन्म लिया था और अनूप नगर के निवासी थे।
सेनापति के विषय में कहा गया हैः
रितु वर्णन अद्भुत कियौ सेनापति कविराज।
एकै रचना नाम कौ तब सुकवि समाज॥
आइये रसपान करें उनके ऋतु वर्णन का:
वसंत ऋतु
बरन बरन तरु फूले उपवन वन,
सोई चतुरंग संग दल लहियतु है।
बंदी जिमि बोलत विरद वीर कोकिल है,
गुंजत मधुप गान गुन गहियतु है॥
आवे आस-पास पुहुपन की सुवास सोई
सोने के सुगंध माझ सने रहियतु है।
सोभा को समाज सेनापति सुख साज आजु,
आवत बसंत रितुराज कहियतु है॥
ग्रीष्म ऋतु
वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥
वर्षा ऋतु
दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर जोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥
शरद ऋतु
कातिक की रति थोरी-थोरी सियराति,
सेनापति है सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद, फूली मालती सघन वन,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं॥
उदित विमल चंद, चाँदनी छिटकि रही,
राम कैसो जस अध-ऊरध गगन है।
तिमिर हरन भयो, सेत है बरन सबु,
मानहु जगत छीर-सागर मगन है॥
शिशिर ऋतु
सिसिर में ससि को सरूप वाले सविताऊ,
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होत सीतलता है सहज गुनी,
रजनी की झाँईं वासर में झलकति है॥
चाहत चकोर सूर ओर दृग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चंद के भरम होत मोद है कुमुदिनी को,
ससि संक पंकजनी फूलि न सकति है॥
Wednesday, July 21, 2010
बुढ़ापे में जवानी के रोमांस की याद भी जीवन में रस घोलती है
"यार सच बताना आजकल तेरा किसके साथ चक्कर चल रहा है?"
"किसी के साथ नहीं यार।"
"झूठ मत बोल, मुझे सब पता है..."
परस्पर मित्रों, चाहे वह पुरुष वर्ग के हों या स्त्रीवर्ग के, के बीच ऐसे संवाद होते प्रायः आपने सुना होगा। हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐसे संवाद भद्र न लगते हों किन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसे संवाद जीवन में रस घोलते हैं, कहने वालों के भी और सुनने वालों के भी। ये संवाद जीवन में महज इसलिये रस घोलते हैं क्योंकि इनमें विपरीतलिंगीय आकर्षण का रस होता है। यह आकर्षण ही प्रेम में परिवर्तित होता है जो कि जीवन का मुख्य रस है।
संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं होगा जिसने कभी किसी से प्रेम न किया होगा या सही अर्थों में कहें तो जिसे कभी किसी से प्रेम न हुआ होगा, क्योंकि प्रेम किया नहीं जाता स्वतः ही हो जाता है। सच कहा जाये तो प्रेम रस ही जीवन की संजीवनी है। प्रेम की मधुर भावना के बिना मानव-जीवन का अस्तित्व हो ही नहीं सकता।
साहित्य सृजन में भी प्रेम की यह भावना अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करती है। रत्नावली ने रामबोला को
"लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति।
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥"
कहकर धिक्कारा न होता तो न तो रामबोला के भीतर के प्रेम ने वैराग्य का रूप धारण किया होता, न रामबोला तुलसीदास बना होता और न ही रामचरितमानस की रचना हुई होती।
अनेक बार तो प्रेम करने वाले को इस बात का ज्ञान ही नहीं हो पाता कि उसे किसी से प्रेम हो गया है किन्तु उस व्यक्ति के क्रियाकलाप दर्शा देते हैं कि वह प्रेमरोग से ग्रसित हो चुका है। इस बात का बहुत ही सुन्दर उदाहरण चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने अपने कहानी "उसने कहा था" में यह लिख कर दिया हैः
फनीश्वरनाथ रेणु जी अपनी कहानी "पंचलाइट" में कितनी सुन्दरता किन्तु सरलता के साथ दर्शा देते हैं कि मुनरी को गोधन से प्रेम हो चुका है, सिर्फ यह लिखकरः
सहेलियों के समक्ष गुप्त बातों को प्रदर्शित करने के लिये प्रायः सम्पूर्ण हिन्दीभाषी प्रदेशों की लड़कियाँ आज भी 'चि' या 'च' वाली सांकेतिक भाषा का प्रयोग करती हैं, यही कारण है कि हमने जब अपने कल के पोस्ट "थोड़ी खुशियाँ थोड़े गम...." में जब लिखा थाः
तो संगीता स्वरूप जी ने भी उसी सांकेतिक भाषा में अपनी निम्न टिप्पणी दी थीः
(वैसे तो सभी सुधी पाठकों को यह समझ में आ ही गया होगा कि ऊपर सांकेतिक भाषा में क्या लिखा गया है, और यदि न समझ पाये हों तो सिर्फ शुरू के च को छोड़कर पढ़ लें।)
कल के हमारे पोस्ट में हम नहीं लिख पाये थे कि एक दिन हमने बहन की सहेली से कह दिया था, "तुम लोग सांकेतिक भाषा में जो भी बोलती हो उसे मैं समझ जाता हूँ। यकीन नहीं है तो सुन लो, तुम कह रही थी कि जल्दी चलना रे! .... आगे और बताऊँ क्या"
वह अवाक रह गई थी। फिर मैंने कहा था कि अब मैं अपनी सांकेतिक भाषा में जो कह रहा हूँ उसे समझ कर बताओ तो जानें, यह कह कर मैं तेजी से बोल गया था, "पजूजजा, सजचज सजचज बजतजानजा तजुमज मजुझज सजे पज्यजारज कजरजरजी हजो यजा नजहजी?"
मैंने क्या कहा था वह बिल्कुल ही नहीं समझ सकी थी और कुछ साल बाद मेरे सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब मेरी शादी उससे हो गई थी तब उसने मुझसे एक बार पूछा था, "आपने एक बार गुप्त भाषा में क्या कहा था?" तब मैंने उसे बताया था कि मैनें यही कहा था कि "पूजा, सच सच बताना, तुम मुझ से प्यार करती हो या नहीं?"
आज उन बातों की स्मृति से मन विभोर हो रहा है क्योंकि बुढ़ापे में जवानी के रोमांस की याद भी जीवन में रस घोलती है!
"किसी के साथ नहीं यार।"
"झूठ मत बोल, मुझे सब पता है..."
परस्पर मित्रों, चाहे वह पुरुष वर्ग के हों या स्त्रीवर्ग के, के बीच ऐसे संवाद होते प्रायः आपने सुना होगा। हो सकता है कि कुछ लोगों को ऐसे संवाद भद्र न लगते हों किन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसे संवाद जीवन में रस घोलते हैं, कहने वालों के भी और सुनने वालों के भी। ये संवाद जीवन में महज इसलिये रस घोलते हैं क्योंकि इनमें विपरीतलिंगीय आकर्षण का रस होता है। यह आकर्षण ही प्रेम में परिवर्तित होता है जो कि जीवन का मुख्य रस है।
संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं होगा जिसने कभी किसी से प्रेम न किया होगा या सही अर्थों में कहें तो जिसे कभी किसी से प्रेम न हुआ होगा, क्योंकि प्रेम किया नहीं जाता स्वतः ही हो जाता है। सच कहा जाये तो प्रेम रस ही जीवन की संजीवनी है। प्रेम की मधुर भावना के बिना मानव-जीवन का अस्तित्व हो ही नहीं सकता।
साहित्य सृजन में भी प्रेम की यह भावना अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करती है। रत्नावली ने रामबोला को
"लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थिचर्ममय देह यह, ता पर ऐसी प्रीति।
तिसु आधो रघुबीरपद, तो न होति भवभीति॥"
कहकर धिक्कारा न होता तो न तो रामबोला के भीतर के प्रेम ने वैराग्य का रूप धारण किया होता, न रामबोला तुलसीदास बना होता और न ही रामचरितमानस की रचना हुई होती।
अनेक बार तो प्रेम करने वाले को इस बात का ज्ञान ही नहीं हो पाता कि उसे किसी से प्रेम हो गया है किन्तु उस व्यक्ति के क्रियाकलाप दर्शा देते हैं कि वह प्रेमरोग से ग्रसित हो चुका है। इस बात का बहुत ही सुन्दर उदाहरण चन्द्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी ने अपने कहानी "उसने कहा था" में यह लिख कर दिया हैः
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘तेरी कुडमाई हो गई?’ और उत्तर में वही ‘धत्त’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरूध्द, बोली, ”हाँ, हो गई।”
”कब?”
”कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढा हुआ सालू।”
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ी वाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
फनीश्वरनाथ रेणु जी अपनी कहानी "पंचलाइट" में कितनी सुन्दरता किन्तु सरलता के साथ दर्शा देते हैं कि मुनरी को गोधन से प्रेम हो चुका है, सिर्फ यह लिखकरः
गुलरी काकी की बेटी मुनरी के मुँह में बार-बार एक बात आकर मन में लौट जाती है। वह कैसे बोले? वह जानती है कि गोधन पंचलैट बालना जानता है। लेकिन, गोधन का हुक्का-पानी पंचायत से बंद है। मुनरी की माँ ने पंचायत में फरियाद की थी कि गोधन रोज उसकी बेटी को देखकर 'सलम-सलम' वाला सलीमा का गीत गाता है - 'हम तुमसे मोहोब्बत करके सलम'! .... बस पंचों को मौका मिला। दस रुपया जुरमाना! न देने से हुक्का-पानी बंद। आज तक गोधन पंचायत से बाहर है। उससे कैसे कहा जाये? मुनरी उसका नाम कैसे ले? और उधर जाति का पानी उतर रहा है।
मुनरी ने चालाकी से अपनी सहेली कनेली के कान में बात डाल दी - "कनेली! ...चिगो, चिध-ऽ-ऽ चिन...!" कनेली मुस्कुराकर रह गई - "गोधन तो बंद है!"
मुनरी बोली, "तू कह तो सरदार से!"
सहेलियों के समक्ष गुप्त बातों को प्रदर्शित करने के लिये प्रायः सम्पूर्ण हिन्दीभाषी प्रदेशों की लड़कियाँ आज भी 'चि' या 'च' वाली सांकेतिक भाषा का प्रयोग करती हैं, यही कारण है कि हमने जब अपने कल के पोस्ट "थोड़ी खुशियाँ थोड़े गम...." में जब लिखा थाः
उन दिनों छोटी बहन की सहेली बहन से कहा करती थी, "चजचल्दी चचचलचना चरे! चतेचरा चभाचई चघूचर चघूचर चके चदेचख चरचहा चहै चमुचझे"। और बहन मुस्कुरा के जवाब देती, "चतो चक्या चहो चगचया? चतू चही चतो चमेचरी चभाचभी चबचनेचगी"।
तो संगीता स्वरूप जी ने भी उसी सांकेतिक भाषा में अपनी निम्न टिप्पणी दी थीः
संगीता स्वरुप ( गीत ) on July 20, 2010 12:24 PM said...
जन्मदिन की शुभकामनायें....
चतो चब चहन चकी चस चहे चली चब चहन चकी चभा चभा चभी चन चहीं चब चनी ?
(वैसे तो सभी सुधी पाठकों को यह समझ में आ ही गया होगा कि ऊपर सांकेतिक भाषा में क्या लिखा गया है, और यदि न समझ पाये हों तो सिर्फ शुरू के च को छोड़कर पढ़ लें।)
कल के हमारे पोस्ट में हम नहीं लिख पाये थे कि एक दिन हमने बहन की सहेली से कह दिया था, "तुम लोग सांकेतिक भाषा में जो भी बोलती हो उसे मैं समझ जाता हूँ। यकीन नहीं है तो सुन लो, तुम कह रही थी कि जल्दी चलना रे! .... आगे और बताऊँ क्या"
वह अवाक रह गई थी। फिर मैंने कहा था कि अब मैं अपनी सांकेतिक भाषा में जो कह रहा हूँ उसे समझ कर बताओ तो जानें, यह कह कर मैं तेजी से बोल गया था, "पजूजजा, सजचज सजचज बजतजानजा तजुमज मजुझज सजे पज्यजारज कजरजरजी हजो यजा नजहजी?"
मैंने क्या कहा था वह बिल्कुल ही नहीं समझ सकी थी और कुछ साल बाद मेरे सौभाग्य या दुर्भाग्य से जब मेरी शादी उससे हो गई थी तब उसने मुझसे एक बार पूछा था, "आपने एक बार गुप्त भाषा में क्या कहा था?" तब मैंने उसे बताया था कि मैनें यही कहा था कि "पूजा, सच सच बताना, तुम मुझ से प्यार करती हो या नहीं?"
आज उन बातों की स्मृति से मन विभोर हो रहा है क्योंकि बुढ़ापे में जवानी के रोमांस की याद भी जीवन में रस घोलती है!
राजकुमार सोनी की "बिना शीर्षक"
विगत कुछ काल से छत्तीसगढ़ में हिंदी ब्लोग की अच्छी श्री वृद्धि हो रही है। छत्तीसगढ़ से नये नये ब्लोगर हिंदी ब्लोग के क्षेत्र में अवतीर्ण हो रहे हैं। श्री राजकुमार सोनी जी का पदार्पण भी कुछ समय पहले ही हिन्दी ब्लोगजगत में हुआ किन्तु इस अल्प समय में ही वे हरदिलअज़ीज़ ब्लोगर बन चुके हैं।
राजकुमार जी का मुझे परिचय देने की जरूरत नहीं है किन्तु यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि राजकुमार जी ने समय समय पर अनेक विशिष्ट व्यक्तियों के विषय में जानकारी एकत्रित करके उन पर अत्यन्त रोचक लेख लिखे हैं। हर्ष का विषय है कि अब उनके ये लेख एक पुस्तक का रूप धारण कर चुके हैं जिसका शीर्षक है "बिना शीर्षक"।
राजकुमार जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते इसलिये मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि उनकी इस कृति से मुझे तो सन्तोष ही हुआ है। अब कृति के विषय में तो इसे पढ़कर आप लोग ही निर्णय करेंगे और मुझे विश्वास है कि आप लोगों का निर्णय सकारात्मक ही होगा।
राजकुमार जी का मुझे परिचय देने की जरूरत नहीं है किन्तु यह बताना आवश्यक समझता हूँ कि राजकुमार जी ने समय समय पर अनेक विशिष्ट व्यक्तियों के विषय में जानकारी एकत्रित करके उन पर अत्यन्त रोचक लेख लिखे हैं। हर्ष का विषय है कि अब उनके ये लेख एक पुस्तक का रूप धारण कर चुके हैं जिसका शीर्षक है "बिना शीर्षक"।
राजकुमार जी पर मेरा विशेष स्नेह है। अपने स्नेह पात्रों की रचनाओं में हम लोग गुण-दोष की विवेचना नहीं करते इसलिये मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि उनकी इस कृति से मुझे तो सन्तोष ही हुआ है। अब कृति के विषय में तो इसे पढ़कर आप लोग ही निर्णय करेंगे और मुझे विश्वास है कि आप लोगों का निर्णय सकारात्मक ही होगा।
Monday, July 19, 2010
थोड़ी खुशियाँ थोड़े गम हैं यही है यही है छाँव-धूप ... बीत गये जीवन के साठ साल...
पल क्षणों में क्षण घंटों में और घंटे दिन-रात में परिणित होते जाते हैं और समय अबाध गति से बीतते जाता है। काल का पहिया ज्यों-ज्यों घूमता है उम्र तिल-तिल करके घटते जाता है। शैशवकाल लड़कपन में लड़कपन किशोरावस्था में, किशोरावस्था युवावस्था में और युवावस्था वृद्धावस्था में कैसे बदलते जाता है यह पता ही नहीं चल पाता।
आज थोड़ी देर के लिये भी बिजली चली जाती है प्रतीत होने लगता है कि अंधा हो गया हूँ मैं। पर एक जमाना वह भी था कि कंदील की रोशनी में पढ़ाई किया करता था। रायपुर शहर में बिजली थी अवश्य किन्तु घर में नहीं थी। नौ-दस साल का रहा होउँगा उन दिनों मैं, रात का खाना खाने के बाद कंदील की रोशनी में गणित के सवाल हल करने बैठ जाया करता था। रुपया-आना-पैसा, मन-सेर-छटाक, तोला-माशा-रत्ती, ताव-दस्ता-रीम के जोड़-घटाने वाले सवाल फटाफट हल करता और दादी के पास चला जाता कहानी सुनने। सुखसागर, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि के दृष्टांत सुनाया करती थीं दादी मुझे।
जिस जमाने में मेट्रिक की परीक्षा पास कर लेने वाले को भी अच्छी वेतन वाली सरकारी नौकरी मिल जाया करती थी उस जमाने में पिताजी, स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया, हिन्दी में एम.ए. करने के बाद भी स्कूल मास्टर थे। स्वयं की दृष्टि में स्वाभिमानी और लोगों की नजर में अकड़ू। अकड़ में आकर तीन-चार नौकरियाँ छोड़ी उन्होंने। हम स्वयं को मध्यमवर्गीय कहा करते थे किन्तु वास्तव में देखा जाये तो किसी प्रकार से परिवार चल जाया करता था। नीले रंग के हाफ-पेंट और सफेद रंग की कमीज वाली स्कूल ड्रेस के दो जोड़ों में ही हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई पूरी हुई। ग्यारहवीं कक्षा पहुँचने पर पहली बार फुलपेंट पहनने का सौभाग्य मिला। अभाव के कारण इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो जाने के लगभग छः माह बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई जारी नहीं रख पाया। इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़कर साइंस कॉलेज आ गया।
यद्यपि अभाव था किन्तु मैं अपनी ही मस्ती में मस्त रहा करता था। चिन्ता फिकर करने के लिये माँ, बाबूजी और दादी माँ थीं। फिल्मों के प्रति रुझान (उन दिनों मैं थर्ड क्लास में ही फिल्में देखा करता था), अवस्थाजनित विपरीतलिंगीय आकर्षण आदि ने कभी अभाव का अनुभव ही नहीं होने दिया। उन दिनों छोटी बहन की सहेली बहन से कहा करती थी, "चज चल्दी चच चल चना चरे! चते चरा चभा चई चघू चर चघू चर चके चदे चख चर चहा चहै चमु चझे"। और बहन मुस्कुरा के जवाब देती, "चतो चक्या चहो चग चया? चतू चही चतो चमे चरी चभा चभी चब चने चगी"। यद्यपि वे दोनों बड़ी तेज गति से इस 'च' वाली सांकेतिक भाषा में बोला करती थीं और समझती थी मुझे उनकी यह सांकेतिक भाषा का ज्ञान नहीं है पर मैं सब समझता था।
पिताजी की अन्तिम नौकरी छूटने पर चार भाइयों और एक बहन में ज्येष्ठ होने के कारण मुझे भौतिकशास्त्र में एम.एससी. फाइनल की पढ़ाई छोड़कर नौकरी कर लेनी पड़ी। फिर एक बार घर चलाने का जो बोझ कंधे पर आई वह आज तक चल ही रही है। माँ-बाबूजी का इलाज और अन्ततः स्वर्गवास, भाई-बहनों की शादी और उसके बाद बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी। बस इन्हीं सब में ही उम्र तमाम होती रही, मीनाकुमारी जी की शे'र के जैसेः
सुबह होती है शाम होती है
जिन्दगी यूँ ही तमाम होती है।
आज जीवन के साठ वर्ष पूरा होने पर सारा विगत चलचित्र के समान आँखों के सामने घूम गया और यह पोस्ट भी बन गई।
मन में विचार आता है कि क्या है यह जीवन? कभी रूप-वैभव का दर्प, कभी प्रभुता-महत्ता-सत्ता का मद तो कभी रोग-शोक-दुःख- चिन्ता! क्या यही जीवन है? पूरा जीवन बीत जाता है और जीवन का उद्देश्य क्या है हम यह भी नहीं जान पाते। आशा और तृष्णा की मरीचिका के पीछे भागते रहते हैं हम। इसीलिये कबीरदास जी ने कहा हैः
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
आज थोड़ी देर के लिये भी बिजली चली जाती है प्रतीत होने लगता है कि अंधा हो गया हूँ मैं। पर एक जमाना वह भी था कि कंदील की रोशनी में पढ़ाई किया करता था। रायपुर शहर में बिजली थी अवश्य किन्तु घर में नहीं थी। नौ-दस साल का रहा होउँगा उन दिनों मैं, रात का खाना खाने के बाद कंदील की रोशनी में गणित के सवाल हल करने बैठ जाया करता था। रुपया-आना-पैसा, मन-सेर-छटाक, तोला-माशा-रत्ती, ताव-दस्ता-रीम के जोड़-घटाने वाले सवाल फटाफट हल करता और दादी के पास चला जाता कहानी सुनने। सुखसागर, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि के दृष्टांत सुनाया करती थीं दादी मुझे।
जिस जमाने में मेट्रिक की परीक्षा पास कर लेने वाले को भी अच्छी वेतन वाली सरकारी नौकरी मिल जाया करती थी उस जमाने में पिताजी, स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया, हिन्दी में एम.ए. करने के बाद भी स्कूल मास्टर थे। स्वयं की दृष्टि में स्वाभिमानी और लोगों की नजर में अकड़ू। अकड़ में आकर तीन-चार नौकरियाँ छोड़ी उन्होंने। हम स्वयं को मध्यमवर्गीय कहा करते थे किन्तु वास्तव में देखा जाये तो किसी प्रकार से परिवार चल जाया करता था। नीले रंग के हाफ-पेंट और सफेद रंग की कमीज वाली स्कूल ड्रेस के दो जोड़ों में ही हायर सेकेंडरी तक की पढ़ाई पूरी हुई। ग्यारहवीं कक्षा पहुँचने पर पहली बार फुलपेंट पहनने का सौभाग्य मिला। अभाव के कारण इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो जाने के लगभग छः माह बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई जारी नहीं रख पाया। इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़कर साइंस कॉलेज आ गया।
यद्यपि अभाव था किन्तु मैं अपनी ही मस्ती में मस्त रहा करता था। चिन्ता फिकर करने के लिये माँ, बाबूजी और दादी माँ थीं। फिल्मों के प्रति रुझान (उन दिनों मैं थर्ड क्लास में ही फिल्में देखा करता था), अवस्थाजनित विपरीतलिंगीय आकर्षण आदि ने कभी अभाव का अनुभव ही नहीं होने दिया। उन दिनों छोटी बहन की सहेली बहन से कहा करती थी, "चज चल्दी चच चल चना चरे! चते चरा चभा चई चघू चर चघू चर चके चदे चख चर चहा चहै चमु चझे"। और बहन मुस्कुरा के जवाब देती, "चतो चक्या चहो चग चया? चतू चही चतो चमे चरी चभा चभी चब चने चगी"। यद्यपि वे दोनों बड़ी तेज गति से इस 'च' वाली सांकेतिक भाषा में बोला करती थीं और समझती थी मुझे उनकी यह सांकेतिक भाषा का ज्ञान नहीं है पर मैं सब समझता था।
पिताजी की अन्तिम नौकरी छूटने पर चार भाइयों और एक बहन में ज्येष्ठ होने के कारण मुझे भौतिकशास्त्र में एम.एससी. फाइनल की पढ़ाई छोड़कर नौकरी कर लेनी पड़ी। फिर एक बार घर चलाने का जो बोझ कंधे पर आई वह आज तक चल ही रही है। माँ-बाबूजी का इलाज और अन्ततः स्वर्गवास, भाई-बहनों की शादी और उसके बाद बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी। बस इन्हीं सब में ही उम्र तमाम होती रही, मीनाकुमारी जी की शे'र के जैसेः
सुबह होती है शाम होती है
जिन्दगी यूँ ही तमाम होती है।
आज जीवन के साठ वर्ष पूरा होने पर सारा विगत चलचित्र के समान आँखों के सामने घूम गया और यह पोस्ट भी बन गई।
मन में विचार आता है कि क्या है यह जीवन? कभी रूप-वैभव का दर्प, कभी प्रभुता-महत्ता-सत्ता का मद तो कभी रोग-शोक-दुःख- चिन्ता! क्या यही जीवन है? पूरा जीवन बीत जाता है और जीवन का उद्देश्य क्या है हम यह भी नहीं जान पाते। आशा और तृष्णा की मरीचिका के पीछे भागते रहते हैं हम। इसीलिये कबीरदास जी ने कहा हैः
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
खुश रहना बहुत सीधी-सादी बात है पर सीधा-सादा बनना बहुत मुश्किल है!
"इट इज़ सो सिम्पल टू बी हैप्पी बट सो डिफिकल्ट टू बी सिम्पल" याने कि खुश रहना बहुत सीधी-सादी बात है पर सीधा-सादा बनना बहुत मुश्किल है!
"It is so Simple to Be happy but so Difficult to be Simple"
विचार तथा व्हीडियो हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म बावर्ची से साभार!
"It is so Simple to Be happy but so Difficult to be Simple"
विचार तथा व्हीडियो हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म बावर्ची से साभार!
Sunday, July 18, 2010
मेरी घरवाली
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
वज्र से भी कठोर, फूल से भी कोमल,
क्या केवल भगवान ही है?
नहीं, इसी स्वभाव का एक सभ्य प्राणी-
मेरे घर में भी है;
जिसकी आवाज ऐसी है
जैसे चल रही हो बन्दूक दुनाली,
आप शौक से पूछिये - "कौन है वह?"
तो मेरा छोटा से उत्तर है-
मेरी घरवाली।
अतीत के आधे घण्टे में
सात फेरे हुये थे उससे-
पर वर्तमान में नित्य निरन्तर
एक दिन में एक की दर से
सप्ताह में सात फेरे होते ही रहते हैं-
हम दोनों एक दूसरे के इर्द-गिर्द घूमते,
लड़ते-झगड़ते, मुँह फुलाते,
फिर भी हँसते रहते हैं
वह हमारी सहती है,
हम उसकी सहते हैं;
मेरे पीछे वह ऐसे दौड़ती है
जैसे मोटर के पीछे ट्राली-
दौड़ दौड़ कर थक जाती है-
मेरी घरवाली।
नजर उसकी रहती है मेरी पाकेट पर
यह कोई नई बात नहीं है।
लेकिन कइयों की घरवालियाँ तो
छीन लेती हैं उनके मनीबेग उनसे
यह भण्डाफोड़ एकदम दुरुस्त और सही है;
पर हम सब सभ्य हैं,
उदार हैं, महान हैं, भव्य हैं,
न कभी हम उसे मारते और न देते गाली,
जो है अपने अपने घर में
अपनी अपनी घरवाली।
गीता रामायण पढ़ती है,
महाभारत भी कर लेती है,
जब जब गुस्सा आता है उसे मुझ पर,
तब तब बच्चों के कोमल गालों पर,
दो-चार तमाचे जड़ देती है;
कभी पड़ोसन से घुलमिल कर बातें करती है
जाने दोनों आपस में क्या साजिश रचती हैं
फिर दोनों में जब ठन जाती है,
तब पड़ोसन बन जाती है काली
और यह महाकाली - जो है
मेरी घरवाली।
पूजा-पाठ किया करती है,
कथा-पुराण सुना करती है,
पर सबमें मैं ही केन्द्रित रहता हूँ,
इसीलिये उसके नखरे सहता हूँ,
वह सीता है पर मैं राम नहीं,
यही सोच कर खुश रहता हूँ।
मेरे मुन्नों को वह सभ्य बनाती है,
उससे ही है मेरे घर की लाली,
खूब समझता हूँ उसको, जो है-
मेरी घरवाली।
(रचना तिथिः शनिवार 30-01-1981)
वज्र से भी कठोर, फूल से भी कोमल,
क्या केवल भगवान ही है?
नहीं, इसी स्वभाव का एक सभ्य प्राणी-
मेरे घर में भी है;
जिसकी आवाज ऐसी है
जैसे चल रही हो बन्दूक दुनाली,
आप शौक से पूछिये - "कौन है वह?"
तो मेरा छोटा से उत्तर है-
मेरी घरवाली।
अतीत के आधे घण्टे में
सात फेरे हुये थे उससे-
पर वर्तमान में नित्य निरन्तर
एक दिन में एक की दर से
सप्ताह में सात फेरे होते ही रहते हैं-
हम दोनों एक दूसरे के इर्द-गिर्द घूमते,
लड़ते-झगड़ते, मुँह फुलाते,
फिर भी हँसते रहते हैं
वह हमारी सहती है,
हम उसकी सहते हैं;
मेरे पीछे वह ऐसे दौड़ती है
जैसे मोटर के पीछे ट्राली-
दौड़ दौड़ कर थक जाती है-
मेरी घरवाली।
नजर उसकी रहती है मेरी पाकेट पर
यह कोई नई बात नहीं है।
लेकिन कइयों की घरवालियाँ तो
छीन लेती हैं उनके मनीबेग उनसे
यह भण्डाफोड़ एकदम दुरुस्त और सही है;
पर हम सब सभ्य हैं,
उदार हैं, महान हैं, भव्य हैं,
न कभी हम उसे मारते और न देते गाली,
जो है अपने अपने घर में
अपनी अपनी घरवाली।
गीता रामायण पढ़ती है,
महाभारत भी कर लेती है,
जब जब गुस्सा आता है उसे मुझ पर,
तब तब बच्चों के कोमल गालों पर,
दो-चार तमाचे जड़ देती है;
कभी पड़ोसन से घुलमिल कर बातें करती है
जाने दोनों आपस में क्या साजिश रचती हैं
फिर दोनों में जब ठन जाती है,
तब पड़ोसन बन जाती है काली
और यह महाकाली - जो है
मेरी घरवाली।
पूजा-पाठ किया करती है,
कथा-पुराण सुना करती है,
पर सबमें मैं ही केन्द्रित रहता हूँ,
इसीलिये उसके नखरे सहता हूँ,
वह सीता है पर मैं राम नहीं,
यही सोच कर खुश रहता हूँ।
मेरे मुन्नों को वह सभ्य बनाती है,
उससे ही है मेरे घर की लाली,
खूब समझता हूँ उसको, जो है-
मेरी घरवाली।
(रचना तिथिः शनिवार 30-01-1981)
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