यह तो हम सभी जानते हैं कि सोने की खदानें भारत में न तो आज हैं और न कभी पहले ही थी। फिर भी इतना सोना था भारत में कि उसे "सोने की चिड़िया" कहा जाता था। फिर प्रश्न यह उठता है कि आरम्भ ले लेकर अठारहवीं शताब्दी तक भारत विश्व का सबसे धनाढ्य देश कैसे बना रहा? जब भारत में सोने की खानें ही नहीं थीं तो फिर इतना सारा सोना वहाँ आया कहाँ से? जाहिर है कि उन देशों से आया होगा जहाँ सोने की खदानें हैं। पर इतिहास गवाह है कि कई हजार साल के अपने इतिहास में भारत ने कभी भी किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया, किसी को भी लूटा नहीं। जब लूटा नहीं तो फिर भी दूसरे देशों से सोना कैसे आ गया? कोई किसी को सेंत-मेत में सोना तो देने से रहा। भारत ने लूटा नहीं और दूसरे देशों ने सेंत-मेंत में दिया नहीं फिर भी भारत में दूसरे देशों से न केवल सोना बल्कि चाँदी, हीरे, लाल जैसे अन्य रत्न आते रहे। लूट-खसोट से नहीं बल्कि व्यापार से। भारत कोई असभ्य देश नहीं था जो दूसरों को लूटता, लूटने का काम तो सिर्फ असभ्य ही करते हैं। भारत अत्यन्त प्राचीनकाल से ही सभ्य देश रहा है। प्राचीनकाल से ही भारत का व्यापार अत्यन्त समृद्ध रहा है। भारत के उत्पादनों की संसार भर के देशों में माँग थी और भारत का निर्यात विश्व के कुल निर्यात का एक तिहाई था।
भारत के समृद्ध व्यापार ने भारत को एक ऐसा गड्ढा बना कर रख दिया था जिसमें दुनिया भर से धन-दौलत आ-आ कर भरने के तो सत्रह सौ साठ रास्ते थे पर उसमें उसे निकल जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था। यही कारण है कि भारत विश्व का सर्वाधिक धनाढ्य देश बन गया था। भारत के अनेक मन्दिरों तथा राजा-महाराजओं के धनागार में वह धन इकट्ठा होते रहता था।
अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारत का व्यापारिक सम्बन्ध भारत से बाहर के देशों से स्थापित हो चुका था। भारत में बने कपड़ों की प्रायः सभी देशों में माँग बनी ही रहती थी, भारत के मसालों के लिए तो अन्य देश के लोग मसालों के वजन के बराबर सोना तक देने के लिए तैयार रहते थे। यह व्यापारिक सम्बन्ध मुग़ल अमलदारी में फिर से नये सिरे से फिर स्थापित हुआ। मुग़ल-साम्राज्य की समाप्ति तक अफ़गानिस्तान दिल्ली के बादशाह के अधीन था तथा अफ़गानिस्तान के जरिये बुखारा, समरकंद, बलख, खुरासान, खाजिम और ईरान से हजारों यात्री तथा व्यापारी भारत में आते रहते थे। बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में तिजारती माल से लदे चौदह हजार ऊँट प्रतिवर्ष बोलान दर्रे से भारत आते थे। इसी प्रकार पश्चिम में भड़ोंच, सूरत, चाल, राजापुर, गोआ और करबार तथा पूर्व में मछलीपट्टनम तथा अन्य बन्दरगाहों से सहस्रों जहाज प्रतिवर्ष अरब, ईरान, टर्की, मिस्र, अफ्रीका, लंका, सुमात्रा, जावा, स्याम और चीन आते-जाते थे।
भारत की अकूत धन-सम्पदा को प्राप्त करने के लालच में यवन, शक, हूण, तुर्क, मुगल आदि जैसी असभ्य और बर्बर जातियों ने बार-बार आक्रमण करते रहे। अनेकों बार लूटे जाने के बावजूद भी भारत की धन-सम्पदा अकूत ही बनी रही। अंग्रेजों के आने तक भारत संसार का सबसे धनी देश बना ही रहा। शाहजहां की धन-दौलत का अनुमान तक कोई भी इतिहासज्ञ नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। गोलकुण्डा से ही उसे तीस करोड़ की सम्पदा प्राप्त हुई थी, आज के तीस करोड़ नहीं बल्कि आज से लगभग चार सौ साल पहले के तीस करोड़ रुपये। शाहजहां ने मक्का में काबा मस्जिद में एक ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था जिसकी कीमत एक करोड़ रुपये थी, भेंट की थी। कहा जाता है कि शाहजहां के पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। तख्त-ए-ताउस सोने के ठोस पायों पर बना हुआ था जिसमें मोतियों और जवाहरात के दो मोर बने थे। उसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।
भारत की इस अथाह धनराशि के विषय में एशियाई देश तो जानते ही थे, यूरोपीय देशों में भी इसकी चर्चा होती थी। किन्तु फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देशों के पास भारत पहुँचने का कोई आसान जरिया नहीं था।
फिर पन्द्रहवीं शताब्दी में पुर्तगाली वास्को डा गामा ने भारत पहुँचने का समुद्री रास्ता खोज लिया। भारत की अकूत धन-सम्पदा को देखकर उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने जब वापस जाकर यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बताया तो यूरोपीय लोगों का मुँह में पानी आने लग गया। उन्हें पता चल गया था कि भारत के एक समुद्री तट से दूसरे समुद्री तट में जाकर व्यापार करने वाले जहाजों में अपार धन होता है। बस फिर क्या था, हिन्द महासागर यूरोपीय समुद्री डाकुओं से पट गया। पुर्तगाल और स्पेन के समुद्री डाकू दो सौ साल तक भारतीय जहाजों को लूटते रहे। यहाँ तक कि पुर्तगालियों ने मंगलौर, कंचिन, लंका, दिव, गोआ और बम्बई के टापू को अपने अधिकार में ही ले लिया।
वैसे तो उन दिनों अधिकांश यूरोपीय देश लुटेरे ही थे किन्तु उनमें सबसे पहला नंबर इंग्लैंड का था क्योंकि इंगलैंड अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक घोर दरिद्रता, निरक्षरता और अन्धविश्वासों का दास बना हुआ था। कृषि वहाँ होती नहीं थी, व्यापार, उद्योग-धंधे वहाँ थे नहीं। इंगलैंड के पीछे न तो किसी जातीय सभ्यता का इतिहास था और न ही किसी प्राचीन संस्कृति की छाप। पर सत्रहवीं शताब्दी के पहले इंग्लैंड के लुटेरे भारत तक पहुँच ही नहीं पाए क्योंकि उनके पास भारत आने के रास्ते का नक्शा नहीं था। रानी एलिजाबेथ के शासनकाल में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक डाकू, जो कि ‘समुद्री कुत्ते’ के नाम से विख्यात था, एक पुर्तगालियों के जहाज को लूट लिया तो उसमें उसे लूट के माल के साथ भारत आने का समुद्री नक्शा भी मिल गया। भारत के धन-वैभव के विषय में उन्होंने सुन ही रखा था इसलिए इस नक्शे के मिल जाने पर ही ईंस्ट इंडिया कंपनी की नींव का पहला पत्थर डाला गया।
भारतीय जलमार्ग के नक्शे के मिल जाने के लगभग तीस साल बाद सन् 1608 में अंग्रेजों का ‘हेक्टर’ नामक एक जहाज सूरत के बन्दरगाह में आकर लगा। जहाज का कप्तान का नाम हाकिन्स था जो कि पहला अंग्रेज था जिसने भारत की भूमि पर कदम रखा था। उन दिनों भारत में बादशाह जहांगीर तख्तनशीन थे। हाकिन्स ने आगरा जाकर इंग्लिस्तान के बादशाह जेम्स प्रथम का पत्र और सौगात बादशाह को भेंट की। आगरा की विशाल अट्टालिकाएँ, नगर का वैभव और बादशाह जहांगीर के ऐश्वर्य को देखकर उसकी आँखें चुँधिया गईं। ऐसी शान का शहर उसने अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं था, देखना तो दूर उसने ऐसे वैभवशाली नगर की कभी कल्पना भी नहीं की थी। चिकनी-चुपड़ी बातें करके उसने बादशाह को खुश कर लिया और अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाने तथा व्यापार करने का फर्मान भी जारी करवा लिया। इतना ही नहीं इस बात की भी इजाजत ले ली कि मुगल दरबार में अंग्रेज एलची रहा करे। थोड़े ही समय पश्चात् सर टॉमस रो इंग्लिस्तान के बादशाह का एलची बनकर मुगल-दरबार आया और उसने अंग्रेज व्यापारियों के लिए और भी सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। अंग्रेजों को कालीकट और मछलीपट्टनम में भी कोठियाँ बनाने की इजाजत मिल गई। अपनी बातों के जाल में उसने बादशाह को ऐसा उलझाया कि
बादशाह ने यह फर्मान भी जारी कर दिया कि अपनी कोठी के अन्दर रहने वाले कम्पनी के किसी मुलाजिम के कसूर करने पर अंग्रेज स्वयं उसे दण्ड दे सकते हैं। यह एक विचित्र बात थी क्योंकि अंग्रेजों ने अपने साथ अपने देश से किसी नौकर को नहीं लाया था बल्कि उन्होंने भारतीयों को ही अपना नौकर बना कर रख लिया था। इस प्रकार से इस फर्मान के तहत अंग्रेजों को अपने भारतीय नौकरों का न्याय करने और उन्हें सजा देना का अधिकार मिल गया। ऐसा फर्मान जारी करना बादशाह की सबसे बड़ी भूल थी। फर्मान जारी करते वक्त उस बादशाह ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन ये अंग्रेज बादशाह के उत्तराधिकारी तक को दण्ड दने लगेंगे और यदि उनका विरोध किया जाएगा तो वे प्रजा का संहार कर डालेंगे तथा बादशाह के उत्तराधिकारी को बागी कहकर आजीवन कैद कर लेंगे।
शुरू-शुरू में उनका व्यापार भारत में नहीं चला क्योंकि वे प्रायः काँच के सस्ते सामान के थैले लादे शहर-शहर गली- गली में घूम-घूम कर उन सामानों को बेचते फिरते थे। औरंगजेब के समय तक भारत के अन्दर अंग्रेज व्यापारियों की स्थिति लगभग वैसी ही थी, जैसे आज घूम-घूम कर हींग बेचने वाले काबुलियों की होती है। हाँ यह जरूर था कि बंदर की भाँति लाल-लाल चेहरेवाले फिरंगी के मुँह से उनकी अटपटी भाषा सुनने को बालक और स्त्रियाँ आतुर रहते, उनके आने पर उनके काँच के सस्ते सामान को हँसी उड़ाते और उन्हें तंग करते थे।
किन्तु बाद में वे अपने देश से सोना-चाँदी, जो कि प्रायः समुद्री डाकुओं की लूट का माल होता था, बेचना शुरू किया और उनका यह धंधा जोर-शोर के साथ चल निकला और वे मुनाफा कमने लगे। भारत से वापस इंग्लैंड जाते समय वे भारत से कच्चे रेशम, रेशम के बने कपड़े, उम्दा किस्म का शोरा सस्ते में खरीद कर ले जाते थे जिनकी वहाँ पर खूब माँग थी।
सूरत में उनकी कोठी पहले से ही थी। बाद में उन्होंने पटना और मछलीपट्टनम, जो कि उन दिनों गोलकुण्डा राज्य के अन्तर्गत बन्दरगाह था, में भी कोठियाँ बनवा डालीं। व्यापार के बढ़ने के साथ ही साथ बालासोर, कटक, हरिहरपुर आदि में भी अंग्रेजों की कोठियाँ बन गईं। विजयनगर के महाराज से जमीन माँग कर अंग्रेजों ने मद्रास में सेंट जार्ज का किला भी बनवा लिया। इस प्रकार से मुगल-राज्य से बाहर अंग्रेजों का एक स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित हो गया।
यद्यपि ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में सिर्फ व्यापार करने की इजाजत मिली थी, वह कम्पनी ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधि नहीं थी, किन्तु अब इस कंपनी ने अपने निजी धन-जन से भारत के भागों को हथियाना शुरू कर दिया। और मजे की बात तो यह है कि उनका निजी धन-जन भी भारत की ही थी याने कि भारत से कमाई गई रकम से भारत के लोगों को ही सैनिक बना कर भारतीय लोगों पर ही आक्रमण करना। इस प्रकार से उस काल में भारत की बीस करोड़ जनता पर ब्रिटेन के मात्र सवा करोड़ निवासियों का वर्चस्व होने की शुरुवात हो गई।
सन् 1661 में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपना सिक्का चलाने, रक्षा के लिए फौज रखने, किले बनाने और आवश्यकता पड़ने पर लड़ाई लड़ने के भी अधिकार प्रदान कर दिए। यह दूसरी विचित्र बात थी क्योंकि जिस भारत पर इंग्लैंड के राजा का किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था, उसी भारत पर व्यापार करने वाली अंग्रेजी कंपनी को इंग्लैंड के राजा ने राजनैतिक अधिकार दे दिया और यहाँ के सत्ताधारियों के कान में जूँ भी नहीं रेंगी। यही वह अधिकार था जिसने बाद में भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित की।
औरंगजेब की अनुदार नीति ने चारों ओर छोटी-छोटी परस्पर प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतें भारत में पैदा कर दी, जिससे केन्द्रीय शक्ति निर्बल हो गई और हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य खण्डित हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही मद्रास और बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के षड्यन्त्र चलने लगे, जिनके फलस्वरूप औरंगजेब की मृत्यु के पचास वर्ष बाद प्लासी का युद्ध हुआ। उस समय अंग्रेजों का हित इस बात में था कि औरंगजेब की अनुदार नीति के कारण जो अव्यवस्था और अनैक्य भारत के हिन्दू-मुसलमानों में स्थापित हो चुका था, वह कायम ही रखा जाए और उन्होंने यही अपनी नीति बना ली।
इतने सब के बावजूद भी उस समय तक सभ्यता, शक्ति और व्यवस्था में भारतीय अंग्रेजों से श्रेष्ठ थे। परन्तु उनमें एक बात की कमी थी। वह कमी थी उनके भीतर राष्ट्रीयता या देश-भक्ति की भावना का न होना। यद्यपि भारत की शक्ति बहुत अधिक थी, किन्तु वह बिखरी हुई थी, छोटे-छोटे राजा-रजवाड़ों में बँटी हुई थी। अंग्रेजों और दूसरी यूरोपियन जातियों ने यह बात जान ली और उन्होंने इससे लाभ उठाकर एक शक्ति को दूसरी शक्ति से लड़ाने का धन्धा आरम्भ कर दिया। दिखाने के लिए उन्होंने अपना रूप निष्पक्ष का रखा, परन्तु भीतर ही भीतर भाँति-भाँति की साजिशों और चालों को चलकर उन्होंने बिखरी हुई भारतीय शक्तियों में ऐसा संग्राम खड़ा कर दिया कि वे शक्तियाँ स्वयं ही एक-दूसरे से टकराकर चकनाचूर होने लगीं। परिणाम यह हुआ कि संसार का सर्वाधिक धनाढ्य देश भारत अंग्रेजों के अधिकार में आ गया और उन्होंने उस सर्वाधिक सम्पन्न देश को लूट-लूट कर दुनिया का सबसे बड़ा कंगाल देश बना डाला।
किन्तु भारत के पास आज भी ऐसी प्राकृति सम्पदाएँ हैं जो अन्य देशों के पास नहीं है। मीठे फलों, पत्तीदार सब्जियों तथा अन्य बहुत सारी वस्तुओं के लिए यूरोपीय देश आज भी भारत पर आश्रित हैं। भारतीयों की श्रम-शक्ति और बुद्धि-चातुर्य अद्भुत है। इन्हीं कारणों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने फिर से तेजी सम्पन्नता प्राप्त करना शुरू कर दिया। आज भी भारत बहुत अमीर है पर वहाँ की जनता गरीब है। अमीर भारत की जनता को गरीब बनाने का श्रेय सिर्फ उन काले अंग्रेजों को जाता है जिनके हाथ में स्वतन्त्रता के बाद सत्ता की बागडोर चली गई और जिन्होंने तरह-तरह के घोटाले कर-कर फिर से भारत को लूटना शुरू कर दिया। सन उन्नीस सौ अड़तालीस में घोटाले की जो शुरुवात हुई वह दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती गई तथा आज तक जारी है। इन काले अंग्रेजों ने ही अमीर भारत की जनता को गरीब बना डाला और स्वयं को अमीर।