Friday, October 26, 2007

मेघदूत

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

हे मेघ खण्ड,
बनो तुम दूत प्रचण्ड,
सन्देशा ले जावो-
जिसे देना है-
उसके ही हाथों में दे आवो-
क्योंकि-
'थ्रू प्रापर चैनल' भेजने में
सन्देशा गायब होने का डर है,
दूत-कर्म में तुम अभ्यस्त हो-
कविवर कालिदास ने किया तुम्हें अमर है।

कालिदास ने तो-
आषाढ़ के प्रथम दिन ही
तुम्हारे हाथों यक्ष का सन्देशा
विरहिणी यक्षिणी को भेजा था-
पर मैं समय-काल-मुहूर्त का विचार छोड़-
जनता के पति के पास
सन्देशा भेज रहा हूँ
और सन्देशे में-
स्वराज्य का आनन्द सहेज रहा हूँ।

अब नरपति, गजपति, रथपति, और अश्वपति
का युग लद गया,
उन पतियों ने जन-पतियों को
शासन की विरासत सौंप दी-
जिससे राजनीति का कद घट गया।

हाँ, तो मेघदूत,
इस युग में जनता के दो पति हैं
उन्हें ही सन्देशा देना-
और जन-कल्याण की बहती गंगा में
अपने काले हाथ धो लेना।
दोनों पतियों में से एक है-
प्रान्त पति अथवा राज्यपाल,
पर तुम हिन्दी के इन शब्दों को क्या समझोगे-
इसलिये 'गवर्नर' सुनो, गवर्नर कहो-
नहीं तो हो जायेगा तुम्हारा बेहाल।

जनता के दूसरे पति हैं 'राष्ट्रपति',
इन्हें भी 'प्रेसीडेण्ट' कहो-
नहीं तो चारों तरफ फैलेगा अनर्थ
और परम प्रिय मेघदूत-
तुम्हारा दौत्य-कर्म हो जायेगा व्यर्थ।

इन दोनों पतियों से कहना
ओ गगन-निवासी मेघदूत-
कहना कि तुम्हारी पत्नी (जनता) के आसपास
नाचते रहते हैं भयंकर भूत।
आरक्षण का भूत, आतंकवाद का भूत,
काले धन का भूत, दुर्घटनाओं का भूत,
संक्षेप में कहना कि तुम्हारी पत्नी
जिधर देखती है उधर भूत ही भूत।

प्रान्तपति और राष्ट्रपति को-
बताना कि तुम्हारी पत्नी की दुर्गति है
लेकिन तुम दोनों पति भी क्या कर सकते हो
क्योंकि-
तुममें प्रत्येक-
केवल 'रबर स्टैम्प' जन-पति है।

(रचना तिथिः शनिवार 27-07-1985)

टीपः अपने स्वर्गीय पिता की रचनाओं को यहाँ पर प्रकाशित करने के विचार ने मुझे संकोच से भर दिया था कि आज भला कौन इस 'आउट-डेटेड' रचनाओं को पसंद करेगा, किन्तु यह सोच कर कि कुछ लोग तो इन रचनाओं को पढ़ने वाले अवश्य मिलेंगे मैंने इन्हें प्रकाशित करने का साहस कर ही लिया। अब मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही है कि श्री समीर लाल (उड़न तश्तरी) जैसे 'इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार' से नवाजे गये रचनाकार को पसंद आये हैं और उन्होंने लगातार टिप्पणी करके मेरा उत्साहवर्धन किया है। इसके लिये मैं श्री समीर जी का हार्दिक रूप से आभारी हूँ।


जी.के. अवधिया

Monday, October 22, 2007

मैं विद्वान हूँ

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

मैं विद्वान हूँ, ज्ञानवान हूँ,
तोता मुझसे डरता है;
डरना ही होगा उसको क्योंकि,
जितना मैं रटता हूँ, क्या वह रटता है?

भाषा-ज्ञान असीमित मेरा,
पर अंग्रेजी है वह भाषा;
'आफ्टन' 'शुल्ड' 'वुल्ड' कहता हूँ मैं,
इंग्लैंड जाने की है अभिलाषा।

गणित? गणित को तो चुटकी में ही-
मसल दिया करता हूँ;
माडर्न मैथ्स का कीड़ा मैं-
पागलपन अमल किया करता हूँ।

इतिहास! पढ़ने की क्या है जरूरत,
मैं स्वयं इतिहास बना करता हूँ;
अपने काले करतब स्वर्णाक्षर से,
दिन रात लिखा करता हूँ।

यदि मैं शिक्षक बन पाता तो-
मौज मजे के दिन होते;
राजनीति में उलझ जूझता,
और पढ़ाता सोते-सोते।

विद्वानों में विद्वान बड़ा मैं,
अधिवक्ता कहलाता हूँ;
काला कोट ज्ञान में उत्तम,
सुलझे को उलझाता हूँ।

मैं नेता विद्या में माहिर,
अंगूठे से लिख लेता हूँ;
शिक्षा मंत्री बन जाता हूँ और,
नाव देश की खेता हूँ।

पास परीक्षा मैंने की है,
पर इम्तिहान में कभी न बैठा;
पैसे के बल डिग्री ले ली,
और लोगों से डट कर ऐंठा।

विद्वान बड़ा मैं भी तो हूँ,
घण्टी नित्य बजाता टिन टिन;
बेकारी का मारा मैं तो,
रिक्शा खींच रहा हूँ प्रतिदिन।

(रचना तिथिः शनिवार 27-01-1980)

Sunday, October 21, 2007

सद्‍भाव

(विजयादशमी के अवसर पर स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित एक और कविता)

'सद्‍भाव' एक सुन्दर शब्द है,
पर आजकल यह शब्द-
शब्दकोश की शोभा मात्र बन गया है
और लोगों के दिलों से
स्वार्थ की आंधी में बह गया है।

सुनते हैं एक नया मुहावरा
'साम्प्रदायिक सद्‍भाव' का,
जिसका निरन्तर रहेगा अभाव ही
क्योंकि-
यदि सद्‍भाव होता तो सम्प्रदाय क्यों बनते
और सम्प्रदाय न बनते तो 'साम्प्रदायिक सद्‍भाव' मुहावरा कहाँ से आता?
तो-
सद्‍भाव का अभाव ही तो दानवता है।

किन्तु सद्‍भाव को
हर दिल में अटल बनाना ही है,
समूचे राष्ट्र को,
सद्‍भाव के श्रृंगार से सजाना ही है,
क्योंकि-
सद्‍भाव ही तो मानवता है।

तो-
पहले अपने अन्तस्तल को जानो,
फिर सबके हृदयेश्वर को पहचानो
एक ही सत्ता-सागर की
लहरों में रखो समभाव
तब स्वतः ही उत्पन्न हो जायेगा सद्‍भाव
क्योंकि-
तब मानव मानव को पहचान लेगा,
सद्‍भाव के रहस्य को जान लेगा।

(रचना तिथिः शनिवार 22-11-1980)