Saturday, October 23, 2010

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 6 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

पिछला अंक - स्वप्न वासवदत्ता - अंक 5 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

(कंचुकी का प्रवेश)

कंचुकीः प्रतिहारी! प्रतिहारी!

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) आर्य! मैं, विजया, यहाँ का प्रतिहारी हूँ। क्या आदेश है?

कंचुकीः विजया, वत्स देश को विजित कर विशेष रूप से उदित हुए वत्सराज से निवेदन करो कि महासेन के राज्य उज्जयिनी से रैभ्य गोत्र का कंचुकी आपकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है। उस कंचुकी के साथ आर्या वसुधारा नामक वासवदत्ता की धाय भी है जिन्हें देवी अंगारवती ने भेजा है।

प्रतिहारीः आर्य! सन्देश के लिए यह न तो उचित स्थान है और न ही उचित समय।

कंचुकीः क्यों? स्थान और समय उचित क्यों नहीं हैं?

प्रतिहारीः वत्सराज के पूर्व प्रासाद में आज कोई वीणा-वादन कर रहा था। उसे सुनकर महाराज ने कहा यहो घोषवती वीणा का स्वर प्रतीत हो रहा है।

कंचुकीः अच्छा! उसके बाद?

प्रतिहारीः वह वास्तव में घोषवती वीणा ही थी। पूछने पर वीणा-वादके बताया कि यह वीणा उसे नर्मदा के तीर एक कुंज में मिला था, यदि महाराज चाहें तो इसे ले सकते हैं। उस वीणा को महाराज के पास लाने पर महाराज उसे हृदय से लगाकर अचेत हो गए। चेत में आने पर "हा घोषवती! तू मुझे पुनः प्राप्त हो गई किन्तु वासवदत्ता नहीं मिली" कहकर और आर्या वासवदत्ता का स्मरण कर विलाप करने लगे। उनके नेत्र अश्रुपूर्ण हो गए। इसीलिए स्थान और समय उपयुक्त नहीं है।

कंचुकीः देवि! तुम जाकर निवेदन कर दो क्योंकि हमारा सन्देश भी वासवदत्ता से ही सम्बन्धित है।

प्रतिहारीः जैसी आपकी आज्ञा! महाराज पूर्व प्रासाद से यहाँ ही आ रहे हैं, उनके आने पर निवेदन कर दूँगी।

कंचुकीः ऐसा ही करो देवि!

(दोनों का प्रस्थान)

(उदयन और विदूषक का प्रवेश)

उदयनः (घोषवती वीणा को देखकर) हे मधुरवादिनी! हे घोषवती! तेरा स्थान तो देवि वासवदत्ता की जंघाओं और स्तन-युगल के मध्य था। तूने इतना समय पक्षियों के रज से भरे वन में कैसे व्यतीत किया? घोषवती! तू निश्चय ही स्नेहरहित है इसीलिए तूने देवि वासवदत्ता को विस्मृत कर दिया है।

विदूषकः मित्र! दुःख प्रकाशन बहुत हो चुका। अब और विलाप न करें। शान्ति धारण करें।

उदयनः मित्र! इस घोषवती ने मेरी सुप्त कामना को जागृत कर दिया है। मित्र वसन्तक! इस घोषवती को शिल्पियों के पास ले जाकर इसका पुनरुद्धार करवाओ।

विदूषकः जैसी आज्ञा!

(वीणा को लेकर विदूषक का प्रस्थान)

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो! अवन्तिनरेश महासेन के यहाँ से रैभ्य गोत्र के कंचुकी और देवी अंगारवती द्वारा भेजी गईं महारानी वासवदत्ता की धाय आर्या वसुधारा द्वार पर उपस्थित हैं।

उदयनः तो तुम पहले देवि पद्मावती को यहाँ बुला लाओ।

प्रतिहारीः जैसी आज्ञा!

(प्रतिहारी का प्रस्थान)

उदयनः (स्वगत्) प्रतीत होता है कि देवि वासवदत्ता के साथ घटित दुर्घटना का समाचार महाराज महासेन को प्राप्त हो गया है।

(पद्मावती और प्रतिहारी का प्रवेश)

प्रतिहारीः देवि! पधारें।

पद्मावतीः (प्रवेश करके) आर्यपुत्र की जय हो!

उदयनः बैठो देवि! महाराज महाराज महासेन के कंचुकी और देवि अंगारवती की भेजी वासवदत्ता की धाय आर्या वसुधारा द्वार पर उपस्थित हैं।

पद्मावतीः तो क्या आर्यपुत्र मेरे समक्ष ही उनसे भेंट करेंगे?

उदयनः अवश्य! इसमें दोष ही क्या है?

पद्मावतीः सम्भव है कि आर्यपुत्र की द्वितीय भार्या को देखकर उनकी भावनाएँ आहत हों!

उदयनः तुम्हें देखने का उन्हें पूर्ण अधिकार है! उनके अधिकार से उन्हें वंचित करना उनका अनादर होगा। मैं उनका अनादर करके दोष का पात्र नहीं बनना चाहता। अतः तुम मेरे साथ ही बैठो।

पद्मावतीः जैसी आर्यपुत्र की आज्ञा! (बैठकर) आर्यपुत्र! मेरा हृदय व्याकुल हो रहा है, न जाने मेरे पिता और माता ने क्या सन्देश भेजा होगा!

उदयनः देवि! मेरा भी हृदय व्याकुल हो रहा है। मैं उनकी कन्या को हर कर ले आया था किन्तु उसकी रक्षा न कर सका। चंचल भाग्य ने उसकी रक्षा करने के मेरे गुण का नाश कर दिया। पिता अवश्य ही कुपित होंगे। मैं स्वयं को उनका अपराधी अनुभव कर रहा हूँ।

पद्मावतीः आर्यपुत्र! इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं है। दैव प्रबल होता है। काल से भला कैसे किसी की रक्षा की जा सकती है?

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो! कंचुकी और धाय द्वार पर उपस्थित हैं।

उदयनः शीघ्र से शीघ्र उन्हें आदरसहित यहाँ लाओ।

प्रतिहारीः जैसी आपकी आज्ञा!

(कंचुकी का प्रस्थान)

कंचुकीः अपने सम्बन्धी के राज्य में आकर जितनी मुझे प्रसन्नता हो रही है, राजपुत्री का स्मरण करके उससे भी अधिक मुझे विषाद हो रहा है। कितना अच्छा होता यदि भले ही वत्सराज का राज्य उन्हें पुनः प्राप्त न होता किन्तु उनकी पूर्वपत्नी जीवित होतीं।

(प्रतिहारी का कंचुकी और धाय के साथ प्रवेश)

प्रतिहारीः महाराज की जय हो! कंचुकी और आर्या वसुधारा उपस्थित हैं।

कंचुकीः वत्सराज की जय हो!

धायः महाराज की जय हो!

उदयनः (आदरसहित) हे आर्य! समस्त पृथ्वी के नरेशों के उदय अथवा अस्त कर देने में समर्थ अवन्तिनरेश सकुशल तो हैं?

कंचुकीः वे सकुशल हैं और आपकी कुशलता की कामना करते हैं।

उदयनः (आसन से उठकर) अवन्तिनरेश की मेरे लिए क्या आज्ञा है?

कंचुकीः आपकी शिष्टता आपके अभिजात्य कुल के अनुकूल है, किन्तु आप आसन ग्रहण करें और महाराज महासेन का सन्देश सुनें।

उदयनः जैसी महासेन की आज्ञा! (बैठता है)

कंचुकीः प्रसन्नता की बात है कि शत्रुओं द्वारा अपहृत आपका राज्य सौभाग्यवश आपको पुनः प्राप्त हुआ! राज्यश्री का भोग शक्तिहीन राजा अधिक काल तक नहीं कर सकते। आपके शत्रु शक्तिहीन थे इसलिए आपका राज्य पुनः शक्तिशाली राजा के पास लौट आया।

उदयनः यह सब महाराज महासेन के प्रताप से ही हुआ है। मेरे पराजित हो जाने पर भी उन्होंने मुझसे पुत्रवत व्यवहार ही रखा। मैं उनकी कन्या को हर लाया किन्तु उसकी रक्षा नहीं कर सका, तथापि मेरे प्रति उनका आदरभाव बना हुआ है।

कंचुकीः हमारे महाराज ने यही सन्देश भिजवाया है कि वे आपका आदर करते हैं और उनके हृदय में आपके प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं है। अब देवि अंगारवती का सन्देश आर्या वसुधारा आपसे कहेंगीं।

उदयनः हे माता! देवि अंगारवती सकुशल तो हैं।

धायः वे स्वस्थ हैं और सर्वत्र आपकी कुशलता पूछती हैं।

उदयनः हा! धिक! मैं उनकी कन्या की रक्षा नहीं कर सका।

कंचुकीः धैर्य धारण करें वत्सराज! महाराज महासेन की कन्या मर कर भी नहीं मरी हैं क्योंकि आप उनका स्नेहपूर्वक स्मरण करते हैं। काल से कौन किसी की रक्षा कर सकता है? डोर के टूट जाने पर घड़े को कौन बचा सकता है? वनस्पतियों की भाँति ही मनुष्य भी समय आने पर पल्लवित होते हैं और समय आने पर कुम्हला जाते हैं।

उदयनः मैं महाराज महासेन की दुहिता, अपनी प्रिय शिष्या तथा प्रियतमा को कैसे विस्मृत कर सकता हूँ! मेरे लिए तो उनका विस्मरण जन्म-जन्मान्तर तक सम्भव नहीं है।

धायः महाराज! महिषी अंगारवती ने कहा है - यद्यपि वासवदत्ता हम सब को छोड़ कर चली गई तथापि तुम मुझे और महाराज महासेन को गोपालक और पालक की भाँति प्रिय हो। तुम हमारे मनोनीत जामाता हो। तुम्हें उज्जयिनी लाया ही गया था वासवदत्ता से तुम्हारे विवाह के उद्देश्य से। तुम हमारी इच्छा को न जान पाये और वासवदत्ता के साथ अग्नि के सात फेरे लिए बिना ही वासवदत्ता को साथ लेकर चले गए तो हमने तुम्हारा और वासवदत्ता का चित्र बनवाकर तुम दोनों का विवाह सम्पन्न किया। अब हम उसी चित्रफलक को तुम्हारे पास भेज रहे हैं जिससे कि तुम्हें सुख और शान्ति प्राप्त हो सके।

उदयनः माता का सन्देश उनकी महानता के अनुरूप ही है! मुझ अपराधी पर उन्होंने अपना स्नेह बनाए रखा है। मेरे लिए उनका यह सन्देश सौ राज्यों की प्राप्ति से भी बढ़कर है।

पद्मावतीः आर्यपुत्र! मैं आर्या वासवदत्ता के चित्र को को देखकर उनका अभिवादन करना चाहती हूँ।

धायः अवश्य भर्तृदारिके! आप वासवदत्ता के चित्र को अवश्य देखें।

पद्मावतीः (चित्र देखकर, स्वगत्) यह तो आर्या अवन्तिका के चित्र के सदृश प्रतीत हो रहा है। (प्रकट) आर्यपुत्र! क्या यह चित्र आर्या वासवदत्ता के सदृश है?

उदयनः सदृश ही नहीं, मुझे तो प्रतीत हो रहा है कि वे स्वयं मेरे समक्ष उपस्थित हैं।

पद्मावतीः मैं आर्यपुत्र के चित्र को भी देखकर निश्चय करना चाहती हूँ कि चित्रकार ने चित्र को आर्यपुत्र के सदृश ही बनाया है या नहीं।

धायः (चित्र देकर) देखें, देखें, भद्रिके!

पद्मावतीः (चित्र देखकर) इस प्रतिकृति का तो आर्यपुत्र से अच्छा सादृश्य है।

उदयनः देवि! चित्रों को देखकर आप उद्विग्न क्यों हैं?

पद्मावतीः आर्या वासवदत्ता के चित्र के सदृश एक व्यक्ति यहाँ भी है।

उदयनः वासवदत्ता के सदृश?

पद्मावतीः हाँ, आर्यपुत्र!

उदयनः तो शीघ्र उसे यहाँ बुलाओ।

पद्मावतीः विवाह के पूर्व किसी ब्राह्मण ने उसे अपनी भगिनी बता कर थाती के रूप में मुझे सौंपा था। विवाहित होने के कारण वे किसी परपुरुष के समक्ष नहीं आतीं।

उदयनः यदि वह किसी ब्राह्मण की भगिनी है तो उसे कोई अन्य ही होना चाहिए। सम्भवतः उसका रूप वासवदत्ता के सदृश हो।

प्रतिहारीः (प्रवेश करके) महाराज की जय हो। द्वार पर उज्जयिनी से आया एक ब्राह्मण उपस्थित है जो कह रहा है कि उसकी भगिनी महारानी के पास थाती है। वे अपनी भगिनी को लेने आए हैं।

पद्मावतीः आर्यपुत्र! सम्भवतः यह वही ब्राह्मण हो सकते हैं।

उदयनः (प्रतिहारी से) ब्राह्मण को शीघ्र यहाँ उपस्थित करो।

प्रतिहारीः जैसी महाराज की आज्ञा! (प्रस्थान करता है)

उदयनः (पद्मावती से) देवि! तुम भी आर्या को यहाँ बुला लो।

पद्मावतीः आर्यपुत्र की जैसी आज्ञा।

(पद्मावती का प्रस्थान)

(प्रतिहारी के साथ यौगन्धरायण का ब्राह्मण के वेष में प्रवेश)

यौगन्धरायणः (स्वगत्) आर्या वासवदत्ता को महाराज से कुछ काल तक अलग रखने में महाराज का कल्याण करना ही मेरा उद्देश्य था। मेरा कार्य अब सिद्ध हो चुका है। अब देखूँ, महाराज की प्रतिक्रया है।

प्रतिहारीः आर्य! इधर आएँ, महाराज यहाँ हैं।

यौगन्धरायणः महाराज की जय हो!

उदयनः (स्वगत्) यह स्वर तो परिचित-सा प्रतीत हो रहा है।

(पद्मावती और अवन्तिका के वेष वासवदत्ता का प्रवेश)

पद्मावतीः आएँ आर्ये! आएँ! आपके लिए प्रिय संवाद है!

वासवदत्ताः वह क्या?

पद्मावतीः आपके भ्राता आपको लेने आए हैं।

वासवदत्ताः यह मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने मेरा स्मरण किया।

पद्मावतीः आर्यपुत्र, यही आर्या ही वह थाती हैं।

उदयनः देवि! थाती लौटा दो। सौभाग्य से यहाँ रैभ्य और आर्या वसुधारा थाती लौटाने के साक्षी के रूप में उपस्थित हैं।

पद्मावतीः (यौगन्धरायण से) आर्य! मैं आपकी भगिनी आपको लौटा रही हूँ।

धायः (अवन्तिका को ध्या से देखकर) यह क्या? यह तो राजकुमारी वासवदत्ता हैं।

उदयनः क्या? अवन्तिनरेश की पुत्री? तो देवि तुम पद्मावती के साथ अन्तःपुर में प्रवेश करो।

यौगन्धरायणः नहीं नहीं। आप उन्हें अन्तःपुर में प्रवेश की आज्ञा न दीजिए, वे मेरी भगिनी हैं। आप भरत के कुल में उत्पन्न ज्ञानवान राजा हैं, राजधर्म के ज्ञाता हैं, आप बलपूर्वक मेरी भगिनी का हरण क्यों कर रहे हैं।

उदयनः तब मुझे रूपसादृश्य देखना होगा। देवि! किंचित यवनिका हटा दो।

यौगन्धरायणः स्वामी की जय हो!

वासवदत्ताः आर्यपुत्र की जय हो!

उदयनः अरे! यह तो यौगन्धरायण हैं और यह देवि वासवदत्ता! यह सत्य है अथवा मैं स्वप्न देख रहा हूँ? पूर्व में भी मैंने एक बार स्वप्न में देवि वासवदत्ता को देखा था।

यौगन्धरायणः महाराज, आर्या वासवदत्ता को आपसे अलग करने का मैं अपराधी हूँ। किन्तु मैंने यह अपराध महाराज और राज्य के कल्याण के उद्देश्य से किया है अतः मेरा अपराध क्षमा करें।

उदयनः आर्य यौगन्धरायण! आपके ही यत्न से इस डूबते हुए राज्य की रक्षा हुई है। आप अपराधी कदापि नही हैं।

पद्मावतीः (वासवदत्ता के चरणों में गिरकर) आर्ये आपके साथ सखी-भाव से व्यहार करके मैंने अपराध किया है। यह अपराध मुझसे अनजाने में हुआ है अतः मुझे क्षमा करें।

वासवदत्ताः (पद्मावती को उठाते हुए) उठो सुहागन! उठो! तुमसे कोई अपराध नहीं हुआ है।

पद्मावतीः अनुग्रहीत हुई।

उदयनः आर्य यौगन्धरायण देवि वासवदत्ता को मुझसे अलग करने में तो आपका उद्देश्य राज्य का कल्याण था किन्तु उन्हें देवि पद्मावती के आश्रय में रखने से आपका क्या तात्पर्य था?

यौगन्धरायणः पुष्पकभद्र और दैवचिन्तक आदि ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आर्या पद्मावती आपकी रानी बनेंगी, इसीलिए मैंने आर्या वासवदत्ता को उनके सानिध्य में रखा।

उदयनः क्या यह सब रुम्णवान् को भी ज्ञात था?

यौगन्धरायणः महाराज, यह तो समस्त विश्वस्त अमात्यों को ज्ञात था।

उदयनः ओह, रुम्णवान तो बहुत बड़ा शठ है।

यौगन्धरायणः स्वामी! इस शुभ समाचार को महाराज महासेन तक पहुँचाने के लिए आर्य रैभ्य और आर्या वसुधारा को आज ही लौटने की आज्ञा दें।

उदयनः नहीं, नहीं, देवी पद्मावती और देवि वासवदत्ता सहित हम सब महाराज महासेन के समक्ष उपस्थित होंगे।

यौगन्धरायणः जैसी महाराज की आज्ञा! मेरा आशीर्वाद है कि हिमालय और विन्ध्याचल की भाँति अलंकारों से अलंकृत इस ससागरा पृथ्वी का आप सिंहवत् शासन करें।

(सब का प्रस्थान)
(अंक 6 समाप्त)

Friday, October 22, 2010

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 5 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

पिछला अंक - स्वप्न वासवदत्ता - अंक 4 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

(पद्मिनिका का प्रवेश)

पद्मिनिकाः मधुरिके! मधुरिके!

मधुरिकाः (प्रवेश करके) आई सखी, आई।

पद्मिनिकाः मधुरिके! राजकुमारी पद्मावती सिर की पीड़ा से अत्यन्त व्यथित हैं। जा सखी, आर्या अवन्तिका को बुला ला। उनसे कहना कि राजकुमारी सिर की पीड़ा से व्यथित हैं, वे स्वयं चली आएँगीं।

मधुरिकाः किन्तु सखी पद्मिनिका, वे करेंगी क्या?

पद्मिनिकाः वे मधुर कथाएँ सुनाकर राजकुमारी के व्याधि को हरने का प्रयास करेंगी।

मधुरिकाः अच्छा! तो राजकुमारी कहाँ विश्राम कर रही हैं?

पद्मिनिकाः समुद्रगृह में। तू शीघ्र आर्या अवन्तिका को बुला ला। मैं आर्य वसन्तक की खोज में जा रही हूँ ताकि वे राजकुमारी की व्याधि का समाचार दे सकें।

मधुरिकाः तो मैं जाती हूँ। (प्रस्थान)

पद्मिनिकाः (स्वगत्) अब मैं आर्य वसन्तक को कहाँ खोजूँ?

(विदूषक का प्रवेश)

विदूषकः (स्वगत्) ऐसा प्रतीत होता है कि आज इस शुभ घड़ी तथा सुख के अवसर पर प्रिया-वियोग से व्याकुल अन्तर वाले वत्सराज के हृदय में पद्मावती के विवाहरूपी समीर से कामाग्नि भड़क उठी है।

पद्मिनिकाः (विदूषक को देखकर) आर्य वसन्तक! क्या आपको ज्ञात है कि राजकुमारी पद्मावती सिर की पीड़ा से व्याकुल हैं?

विदूषकः नहीं देवि! मुझे ज्ञात नहीं है।

पद्मिनिकाः अच्छा तो आप स्वामी तक यह समाचार पहुँचा दें। मैं सिर की पीड़ा के निवारण के लिए लेप लेने जाती हूँ।

विदूषकः अच्छा, आर्या पद्मावती कहाँ हैं?

पद्मिनिकाः समुद्रगृह में।

विदूषकः तो जाओ देवि! मैं भी श्रीमान् से निवेदन करने जाता हूँ।

(दोनों का प्रस्थान)

(उदयन का प्रवेश)

उदयनः (स्वगत्) यद्यपि काल ने मेरा देवि पद्मावती से विवाह करवाकर मुझपर पुनः भार डाल दिया है, तथापि मेरा हृदय लावाणक में अग्नि-दग्ध होकर मृत्यु को प्राप्त करनेवाली अवन्तिराज की सुकन्या को विस्मृत नहीं कर पा रहा है।

विदूषकः (प्रवेश करके) शीघ्रता करें श्रीमान्! शीघ्रता करें।

उदयनः कैसी शीघ्रता?

विदूषकः आर्या पद्मावती सिर की पीड़ा से व्याकुल हैं।

उदयनः तुमसे किसने कहा?

विदूषकः पद्मिनिका ने।

उदयनः हा! कष्ट! देवि पद्मावती के सानिध्य से मेरे हृदय का दुःख तनिक मन्द हुआ था किन्तु अब यह उनकी व्याधि मुझे नया दुःख प्रदान करने आ गई। देवि पद्मावती कहाँ हैं?

विदूषकः वे समुद्रगृह में विश्राम कर रही हैं।

उदयनः चलो, मार्ग दिखाओ।

विदूषकः चलें, चलें श्रीमान्!

(दोनों चलते हैं)

विदूषकः यह रहा समुद्रगृह। श्रीमान् प्रवेश करें।

उदयनः पहले तुम प्रवेश करो।

विदूषकः अच्छा श्रीमान! (प्रवेश करके) ओह! विपदा आ पड़ी। आप वहीं रुकें श्रीमान, मैं भी आपके ही पास आ रहा हूँ।

उदयनः क्यों?

विदूषकः वह देखिए, भूमि पर सर्प है, दीप के आलोक में मुझे दिखाई पड़ गया।

उदयनः (देखकर, मुस्कान के साथ) मूर्ख! तू तोरणद्वार से गिरी हुई निशा की मन्द वायु से हिलती हुई इस पुष्पमाला को सर्प कह रहा है।

विदूषकः (ध्यान से देखकर) आप सत्य कह रहे हैं श्रीमान! मैं भ्रमित हो गया था।

(दोनों का समुद्रगृह में प्रवेश)

विदूषकः प्रतीत होता है कि आर्या पद्मावती यहाँ आने के पश्चात् पुनः चली गईं।

उदयनः नहीं मित्र! देवि यहाँ आईं ही नहीं।

विदूषकः आपको कैसे ज्ञात हुआ?

उदयनः न तो शैय्या में सिकुड़न है और न ही लेप से वस्त्र मलिन हुए हैं। रुग्ण की व्यथा हरने वाली किसी प्रकार की शोभा भी यहाँ दृष्टिगत नहीं हो रही है। और न ही कोई व्यथित व्यक्ति किसी स्थान में आकर इतना शीघ्र उस स्थान का त्याग करता है।

विदूषकः तो देव! आप कुछ काल तक इसी शैय्या में बैठकर आर्या के आने की प्रतीक्षा करें।

उदयनः अच्छा। (शैय्या पर लेटकर) निद्रा आ रही है। तुम कोई कथा कहो।

विदूषकः कहता हूँ श्रीमान्! आप हुंकार करते जाइए।

उदयनः बहुत अच्छा।

विदूषकः उज्जयिनी नामक एक रमणीय नगरी है।

उदयनः क्या कहा? उज्जयिनी!

विदूषकः आपको यदि यह कथा रुचिकर न लग रहा हो तो दूसरी कथा कहता हूँ।

उदयनः अवश्य ही इस कथा में मेरी रुचि है किन्तु इसे सुनकर मुझे अवन्तिराज की कन्या का स्मरण हो उठता है।

विदूषकः अस्तु, मैं दूसरी कथा कहता हूँ। ब्रह्मदत्त नगर में काम्पिल्य नामक राजा रहा करता था।

उदयनः क्या? क्या?

विदूषकः ब्रह्मदत्त नगर में काम्पिल्य नामक राजा रहा करता था।

उदयनः मूर्ख नगर का नाम काम्पिल्य था और राजा का नाम ब्रह्मदत्त था।

विदूषकः नगर काम्पिल्य था और राजा ब्रह्मदत्त?

उदयनः हाँ।

विदूषकः अच्छा, मैं इसे कण्ठस्त कर लूँ, तब तक श्रीमान प्रतीक्षा करें। (अनेक बार दुहराने के बाद) अब सुनें! यह क्या? श्रीमान् को तो निद्रा आ गई। ओह कितनी शीतल समीर है। चलूँ, कुछ ओढ़ने के लिए ले आउँ।

(विदूषक का प्रस्थान)

(अवन्तिका के वेष में वासवदत्ता का चेटी के साथ प्रवेश)

चेटीः आर्ये! आप समुद्रगृह में शीघ्र प्रवेश करें। राजकुमारी पद्मावती सिर की पीड़ा से व्याकुल हैं। तब तक मैं लेप लेकर आती हूँ।

(चेटी का प्रस्थान)

वासवदत्ताः (स्वगत्) आह! दैव कितने निर्दय हैं। आर्यपुत्र की विरह-व्यथा का निवारण करने वाली पद्मावती भी रुग्ण हो गईं। अस्तु, प्रवेश करूँ। (प्रवेश करके यत्र-तत्र देखते हुए) इन सेवकों को पद्मावती का कुछ भी ध्यान नहीं है। उसके समीप केवल एक दीपक छोड़कर सभी चले गए हैं। तनिक पद्मावती के पास बैठ जाऊँ। दूर बैठने पर पद्मावती सोचेंगी कि उनके प्रति मेरा पर्याप्त स्नेह नहीं है अतः शैय्या पर ही बैठूँ। (शैय्या पर बैठती है)। अद्भुत! इसके पास बैठकर मेरा हृदय कितना आह्लादित है! इसकी श्वास की चाल से प्रतीत होता है कि रुग्णता समाप्त हो गई है। यह तो शैय्या के अर्द्धभाग में ही सो रही है, मानो शेष अर्द्धभाग में आलिंगन के प्रयोजन से मुझे बुला रही हो। इसकी इच्छा पूर्ण करने के लिए इस अर्द्धभाग में लेट जाती हूँ। (लेट जाती है)

उदयनः (निद्रित अवस्था में) हा वासवदत्ता!

वासवदत्ताः (सहसा उठते हुए) अरे! यह तो आर्यपुत्र हैं, पद्मावती नहीं। कहीं मैं पहचान तो नहीं ली गई? यदि पहचान ली गई तो आर्य यौगन्धरायण की योजना निष्फल हो जाएगी।

उदयनः हा अवन्तिराजपुत्री!

वासवदत्ताः संयोगवश आर्यपुत्र निद्रा में ही हैं। यहाँ अन्य कोई नहीं है अतः मुहूर्त भर इनके दर्शन कर दृष्टि को सन्तुष्ट कर लूँ।

उदयनः हा प्रिय शिष्ये! हा प्रिये! तुम कुछ कह क्यों नहीं रही हो?

वासवदत्ताः कहती हूँ, स्वामिन्! कहती हूँ।

उदयनः क्या तुम मुझसे रुष्ट हो?

वासवदत्ताः नहीं, रुष्ट नहीं मात्र दुःखी हूँ।

उदयनः रुष्ट नहीं हो तो तुमने अलंकार क्यों धारण नहीं किए हैं? क्या विरीचिका को स्मरण कर रही हो?

वासवदत्ताः विरीचिका का स्मरण तो आप ही कर रहे हैं।

उदयनः तो इस अपराध के लिए मैं तुमसे क्षमा-याचना करता हूँ।

(हाथ फैला देते हैं)

वासवदत्ताः दीर्घ काल से यहाँ बैठी हूँ। कोई देख न ले। चलूँ। पर शैय्या से लटकते इनके हाथ को पुनः शैय्या पर रख दूँ।

(उदयन के हाथ को शैय्या पर रखती है)

उदयनः (निद्रा से जागकर, तथापि अर्द्धनिद्रित अवस्था में) वासवदत्ता! रुको, रुको। रुको वासवदत्ता।

(वासवदत्ता शीघ्रता के साथ प्रस्थान करती है, उदयन भी द्वार की ओर बढ़ते हुए द्वार के चौखट से टकरा कर गिर जाते हैं)

उदयनः (उठकर) हा! धिक्! अर्द्धनिद्रित अवस्था में मैं चौखट से टकरा गया। यह भी ज्ञात न हो पाया कि यह सत्य था कि स्वप्न?

विदूषकः (प्रवेश कर) श्रीमान् जाग गए!

उदयनः मित्र! सुसंवाद सुनो! वासवदत्ता जीवित है।

विदूषकः (दुःखी होकर) खेद! आर्या वासवदत्ता अब कहाँ? वे तो कब का परलोक सिधार गईं।

उदयनः नहीं नहीं। रुम्णवान् ने मुझसे कपट किया था। वासवदत्ता अभी मुझे निद्रा से जगाकर गई है।

विदूषकः असम्भव! मैंने आपसे उज्जयिनी की कथा कही थी इसीलिए आप सोते हुए आर्या का ही स्मरण करते रहे। उन्हें आपने स्वप्न में ही देखा होगा।

उदयनः यदि यह स्वप्न था तो मेरा न जागना ही धन्य होता और यदि यह भ्रम है तो जीवनपर्यन्त यह भ्रम बना रहे।

विदूषकः मित्र! इस नगर में अवन्तिसुन्दरी नामक यक्षिणी रहती है। कहीं आपने उसे ही तो नहीं देखा?

उदयनः नहीं मित्र! नहीं। अभी मैंने देवि वासवदत्ता के सुन्दर मुख को देखा है जिस पर अलकें बिखरी हुई थीं। उनके नेत्र अञ्जनरहित थे। मेरी इस भुजा के रोम अब तक खड़े हैं क्योंकि इसको उसने अपने हाथों से शैय्या पर रखा था। स्वप्न में ही सही।

विदूषकः श्रीमान्! अब आप और अधिक अनर्थ चिन्तन न करें। आइए, चतुःशाला में चलें।

(दोनों चतुःशाला में प्रवेश करते हैं)

(कंचुकी का प्रवेश)

कंचुकीः वत्सराज की जय हो! आपके शत्रु आरुणि पर आक्रमण करके वत्स राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए, आपके अमात्य रुम्णवान् एक विशाल सेना लेकर हमारे महाराज दर्शक के पास उपस्थित हुए हैं। हमारी विजयिनी राजदल, हथदल, रथदल तथा पदातिदल भी युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर आपके अमात्य की सेना में सम्मिलित होने के लिए तत्पर हैं। अतः युद्ध के लिए तत्पर हो जाइए। हमारी विजय अवश्यम्भावी है। आपके गुणों से अनुरक्त वत्स देश की प्रजा विजयी होकर आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।

उदयनः मैं युद्ध के लिए तत्पर हूँ। मैं युद्धभूमि में भयानक कर्म में दक्ष आरुणि का वध कर डालूँगा।

(सबका प्रस्थान)
(अंक 5 समाप्त)

Thursday, October 21, 2010

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 4 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

(पिछला अंक - स्वप्न वासवदत्ता - अंक 2-3 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

(विदूषक का प्रवेश)

विदूषकः (प्रसन्नता के साथ) अन्ततः अनर्थ सलिल के भँवर से वत्सराज का उद्धार हुआ। उनके विवाहमंगल के दिन देखने को मिले। अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि आज मैं पुनः राजप्रासाद में बैठा हूँ, स्नान के लिए मुझे अन्तःपुर की दीर्घिकाएँ पुनः उपलब्ध हैं, लड्डू आदि सुमधुर भोजन कर रहा हूँ और अप्सराओं के संसर्ग के सिवाय अन्य सभी सुख मुझे प्राप्त हैं। कुछ दोष है तो मात्र इतना ही की भोजन मेरा पचा नहीं है जिसके कारण कोमल शैय्या पर भी मुझे निद्रा नहीं आ रही है। प्रतीत हो रहा है कि वात के समस्त लक्षण उपस्थित हो गए हैं। किन्तु अच्छे भोजन और अच्छा स्वास्थ्य के जीवन का वास्तविक सुख कहाँ?

(चेटी का प्रवेश)

चेटीः अरे! आर्य वसन्तक तो यहाँ हैं! आर्य! मैं न जाने कबसे आपको खोज रही हूँ।

विदूषकः भद्रे! मुझे खोजने में भला आपका निमित्त क्या है?

चेटीः हमारी भट्टिनी जानना चाह रही हैं कि क्या जामाता ने स्नान कर लिया है?

विदूषकः भला किसलिए जानना चाहती हैं देवि!

चेटीः ताकि पुष्प तथा अञ्जन प्रस्तुत किया जाए।

विदूषकः श्रीमान् स्नान से निवृत हो चुके हैं देवि! भोजन को छोड़कर समस्त सामग्री ले आओ।

चेटीः भोजन क्यों नहीं आर्य?

विदूषकः क्योंकि मुझ अभागे का उदर कोकिला की चक्षुओं की भाँति घूम रहा है।

चेटीः तो ऐसा ही होता रहे।

विदूषकः तो प्रस्थान करो देवि! मैं भी श्रीमान के पास जा रहा हूँ।

(पद्मावती और अवन्तिका रूपी वासवदत्ता का चेटी के साथ प्रवेश)

चेटीः भद्रदारिके! प्रमदवन में आने में आपका प्रयोजन क्या है?

पद्मावतीः प्रिये! मैं देखना चाहती हूँ कि शेफालिका के पुष्प-गुच्छ अभी खिले कि नहीं?

चेटीः अवश्य ही वे खिल चुके हैं भद्रदारिके! डालियों में लदे हुए वे पुष्प मोती की माला के मध्य गुँथे हुए मूँगे की भाँति प्रतीत हो रहे हैं। भद्रदारिके कुछ काल तक इस शिलापट्ट पर विश्राम करें तब तक मैं पुष्प तोड़ लाती हूँ।

पद्मावतीः (वासवदत्ता से) आर्ये! यहाँ विश्राम करें?

वासवदत्ताः (बैठते हुए) अवश्य!

(पद्मावती भी बैठ जाती है)

(चेटी का प्रस्थान तथा कुछ काल पश्चात् पुनः प्रवेश)

चेटीः देखें भद्रदारिके! देखें! शेफालिका के पुष्प मेरे आँचल में किस प्रकार रक्तवर्ण संखिया से चमक रहे हैं!

पद्मावतीः (पुप्षों को देखकर, वासवदत्ता से) आर्ये ये पुष्प कितने अद्भुत् प्रतीत हो रहे हैं!

वासवदत्ताः अहो! अत्यन्त सुन्दर पुष्प हैं ये!

चेटीः भद्रदारिके! क्या और पुष्प तोड़ लाऊँ?

पद्मावतीः नहीं, अब और पुष्प मत तोड़ो।

वासवदत्ताः प्रिय! और पुष्प तोड़ने से क्यों रोक रही हो?

पद्मावतीः क्योंकि आर्यपुत्र को इन पुष्पों को दिखाकर मैं उनकी दृष्टि में सम्मानित होना चाहती हूँ।

वासवदत्ताः सखी! क्या पति तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं?

पद्मावतीः यह तो मुझे ज्ञात नहीं आर्ये! किन्तु आर्यपुत्र के वियोग में मैं अत्यन्त उत्कण्ठित हो जाती हूँ।

वासवदत्ताः (स्वगत्) इसका यह कथन मेरे लिए कितना कष्टकर है।

चेटीः भद्रदारिका को पति का प्रिय होना उनके उत्तम विचारों के अनुकूल है।

पद्मावतीः किन्तु मेरे हृदय में एक सन्देह है।

वासवदत्ताः कैसा सन्देह?

पद्मावतीः क्या आर्या वासवदत्ता का आर्यपुत्र के प्रति प्रेम मेरे प्रेम जितना ही था?

वासवदत्ताः निस्सन्देह उससे भी अधिक!

पद्मावतीः भला आप यह निश्चित रूप से कैसे कह रही हैं?

वासवदत्ताः (स्वगत्) आर्यपुत्र के पक्षपात के कारण मुझसे पुनः सदाचार की सीमा का उल्लंघन हो गया। अच्छा ऐसा कहूँ। (प्रकट) यदि उनका प्रेम कम होता तो वे अपने आत्मीयजनों को त्याग न पातीं।

पद्मावतीः हाँ, यह सम्भव है।

चेटीः भद्रदारिके! आप भी अपने पति से वीणा सीखने का आग्रह करें।

पद्मावतीः यह आग्रह तो किया था मैंने आर्यपुत्र से।

वासवदत्ताः तो उन्होंने क्या कहा?

पद्मावतीः कुछ भी उत्तर न देकर वे दीर्घ निःश्वास में डूब गए।

वासवदत्ताः इसका क्या तात्पर्य निकाला तुमने?

पद्मावतीः इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि आर्या वासवदत्ता के गुणों का स्मरण करके आर्यपुत्र ने मेरे समक्ष अपने अपने अश्रुओं को प्रसंगवश रोक लिया।

वासवदत्ताः (स्वगत्) यदि यह सत्य है तो संसार में मुझसा धन्य और कौन होगा?

चेटीः भद्रिके! सारसों की उस पंक्ति को देखें जो कोकनद सी श्वेत प्रतीत हो रही है!

(उदयन और विदूषक का प्रवेश)

चेटीः (उनके प्रवेश को देखकर) भद्रदारिके, स्वामी पधार रहे हैं।

पद्मावतीः (वासवदत्ता से) आर्ये! आपके कारण मैं आर्यपुत्र के दर्शन त्याग रही हूँ। चलिए, हम इस माधवी लतामण्डप में प्रवेश करें।

(पद्मावती, वासवदत्ता और चेटी माधवी लतामण्डप में छिप जाते हैं)

विदूषकः ही ही ही ही। पवन के अविरल प्रवाह से गिरे हुए कुसुमों से यह प्रमदवन अत्यन्त रमणीय हो रहा है। उधर चलें श्रीमान्!

उदयनः मित्र वसन्तक! मैं वासवदत्ता को विस्मृत नहीं कर पा रहा हूँ। उज्जयिनी में जब मैंने प्रथम बार अवन्ती की राजकन्या को स्वच्छन्द विचरण करते देखा था तो मेरी अवस्था अकथनीय-सी हो गई थी। प्रतीत होता था कि कामदेव के पाँचों बाणों ने मेरे हृदय को भेद दिया था।

विदूषकः ऐसा प्रतीत होता है कि देवि पद्मावती यहाँ आकर लौट चुकी हैं।

उदयनः यह कैसे जाना?

विदूषकः श्रीमान्, शेफालिका की डालियों से तोड़े गए पुष्प-गुच्छों को देखकर।

उदयनः वसन्तक! कितना विस्मयकारी है इन पुष्पों का सौन्दर्य!

वासवदत्ताः (स्वगत्) वसन्तक नाम का उच्चारण सुनकर तो मुझे प्रतीत हो रहा है जैसे मैं उज्जयिनी में ही हूँ।

उदयनः वसन्तक! आओ उस शिला पर बैठकर देवि पद्मावती की प्रतीक्षा करें।

विदूषकः बहुत अच्छा। (बैठता है, फिर सहसा उठकर) ही ही। शरत्काल की यह धूप अब असह्य प्रतीत हो रही है। आइए, इस माधवी लता-मण्डप में चलें।

उदयनः (उठकर) अच्छा चलो।

(दोनों घूमते हैं)

पद्मावतीः आर्य वसन्तक तो आकुलता में अनर्थ किए दे रहे हैं। भला अब क्या उपाय करें?

चेटीः भद्रिके! लता पर लटकते मधुमक्खी के इस छत्ते को हिला कर स्वामी को विमार्ग करूँ?

पद्मावतीः ऐसा ही कर।

(चेटी वैसा ही करती है)

विदूषकः बचाओ! बचाओ! श्रीमान् वहीं रुकें। आगे न आएँ।

उदयनः (दूर से) भला क्यों?

विदूषकः मधुमक्खियाँ यहाँ डंक मार रही हैं।

उदयनः तो मित्र, तुम भी यहाँ आ जाओ। मधुकरों को भयातुर न करो। देखो, मधुमस्त मधुकरों की मदनदग्ध प्रियाएँ उन्हें आलिंगन कर रही हैं। हमारी पदध्वनि से उद्विग्न होकर वे अपनी प्रिय मधुकरों से विलग होकर विरहित हो जाएँगी। अतः यहीं बैठना ही उचित है।

(विदूषक लौटकर उदयन के पास बैठता है)

चेटीः भद्रदारिके! अब तो हम यहाँ बन्दी हो गईं।

पद्मावतीः प्रसन्नता है कि आर्यपुत्र बैठे हैं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) सौभाग्य से आर्यपुत्र पूर्ण स्वस्थ हैं। (वासवदत्ता के नेत्रों में अश्रु आ जाते हैं)

चेटीः कुमारी! आर्या के नेत्रों में अश्रु क्यों हैं?

वासवदत्ताः मधुकरों के अविनय से काश पुष्प के उड़ते रज के मेरे नेत्रों में पड़ने से मेरे नेत्र अश्रुमय हो गए हैं।

पद्मावतीः सत्यकथन आर्या!

विदूषकः इस निर्जन प्रमदवन में मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।

उदयनः पूछो।

विदूषकः आपको प्रियतर कौन है? पूर्वपत्नी वासवदत्ता अथवा वर्तमानपत्नी पद्मावती?

उदयनः तुम्हारे इस प्रश्न से तो मुझ पर महासंकट आ पड़ा है।

पद्मावतीः आर्ये! आर्यपुत्र कितने संकट में हैं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) मैं भाग्यहीन भी तो संकट में हूँ।

विदूषकः निःसंकोच बताएँ श्रीमान्। वे दोनों ही यहाँ नहीं हैं। एक की मृत्यु हो चुकी है और दूसरी कहीं अन्यत्र हैं।

उदयनः मित्र, मैं कुछ कह नहीं सकता। तू बड़ा वाचाल है।

विदूषकः (जीभ काटकर) सौगन्ध खाकर कहता हूँ, मैं किसी अन्य से नहीं कहूँगा।

उदयनः कुछ भी न कह पाने के लिए विवश हूँ मित्र।

पद्मावतीः आर्य वसन्तक भी कितने मूर्ख हैं, अभी भी वे आर्यपुत्र के हृदय को नहीं जान पाए।

विदूषकः आपको कहना ही पड़ेगा। बिना कहे मैं आपको इस शिलापट्ट से एक डग भी न जाने दूँगा। आप यहाँ मेरे बन्दी हैं।

उदयनः क्या बलपूर्वक कहलाओगे?

विदूषकः हाँ बलपूर्वक ही कहलाउँगा।

उदयनः देखता हूँ कि तुम मुझ पर कैसे बल प्रयोग करते हो।

विदूषकः श्रीमान प्रसन्न हों, मुझे क्षमा करें। मैं मित्रभाव से प्रार्थना कर रहा हूँ, बलपूर्वक नहीं। अपने हृदय की बात से मुझे अवगत कराएँ।

उदयनः अब तो विवशता है, कहना ही पड़ा। तो मित्र सुनो। यद्यपि अपने रूप, शील, गुण और माधुर्य के कारण पद्मावती मुझे अत्यन्त प्रिय है किन्तु वासवदत्ता के प्रति अपनी आसक्ति को मैं विस्मृत करने में असमर्थ हूँ।

वासवदत्ताः (स्वगत्) यह सुनकर तो मेरे समस्त दुःखों का अन्त हो गया। अहो, अज्ञातवास में भी बड़ा गुण है।

चेटीः भद्रिके! देखा आपने? स्वामी कितने अनुदार हैं।

पद्मावतीः नहीं प्रिये! आर्यपुत्र अत्यन्त उदार हैं। यह उनकी उदारता ही है कि वे आर्या वासवदत्ता के गुणों का स्मरण कर हैं।

वासवदत्ताः भद्रे! तुम्हारे वचन तुम्हारे अभिजात्य कुल के अनुरूप ही हैं।

उदयनः मैं तो कह चुका। अब तुम कहो तुम्हें कौन अधिक प्रिय है - वासवदत्ता या पद्मावती?

पद्मावतीः अब आर्यपुत्र ने भी आर्य वसन्तक के मार्ग का अवलम्बन किया।

विदूषकः मित्र! प्रलाप से भला क्या लाभ? मेरे लिए तो दोनों ही देवियाँ परम आदरणीय हैं।

उदयनः मूर्ख! मुझसे बलपूर्वक कहला कर अब स्वयं क्यों नहीं कहता?

विदूषकः तो क्या मुझसे बलपूर्वक कहलाएँगे?

उदयनः बलपूर्वक ही सही।

विदूषकः तब तो कहला चुके! करिए आप बलप्रयोग, मैं कुछ भी नहीं कहने वाला।

उदयनः प्रसन्न हों महाब्राह्मण! बलपूर्वक नहीं, अपनी इच्छानुसार ही कहें।

विदूषकः देवि पद्मावती क्रोध और अहंकार से रहित तरुणी, दर्शनीया और मधुरभाषिणी हैं। वे मेरी क्षुधापूर्ति का पर्याप्त खयाल रखती हैं और मुझे सुस्वादु भोजन करवाती हैं। अतः वे मेरी आदरणीय हैं। तथापि, देवि वासवदत्ता मेरे लिए बहुत अधिक आदरणीया थीं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) आर्य वसन्तक! आपके वचन ने तो मुझे धन्य कर दिया।

उदयनः मित्र वसन्तक! मैं तुम्हारे इस विचार से वासवदत्ता को अवश्य ही अवगत कराउँगा।

विदूषकः हे मित्र! आर्या वासवदत्ता अब कहाँ? खेद! वे तो परलोक सिधार गईं।

उदयनः (दुःखी होकर) वासवदत्ता परलोक सिधार गई? हाँ, सत्य कहा तुमने, वे अब नहीं हैं। तुम्हारे इस परिहास ने मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया है, इसीलिए मित्र! अभ्यासवश मेरे मुख से यह बात निकल गई।

पद्मावतीः इस नृशंस ने तो रमणीय कथा-प्रसंग का नाश ही कर दिया।

वासवदत्ताः (स्वगत्) मैं तो आश्वस्त हुई। छिपकर इन बातों को सुनना कितना प्रिय प्रतीत हो रहा है।

विदूषकः आप धैर्य धारण करें। दैव बलवान है। उसके समक्ष किसी की शक्ति कार्य नहीं करती।

उदयनः मित्र! तुम मेरी अवस्था को नहीं समझ सकते। प्रिय के प्रति असीम अनुराग को विस्मृत नहीं किया जा सकता और प्रिय के स्मरण से दुःख पुनः नवीन हो जाता है। अश्रु बहाकर शान्ति-लाभ करना ही जीवन का रूप है।

विदूषकः मित्र! यह क्या? आपके नेत्रों में अश्रु हैं और अश्रुओं से आपका मुख भीग गया है। आप यहीं बैठिए, मैं मुँह धोने के लिए जल लेकर आता हूँ।

पद्मावतीः आर्ये! आर्यपुत्र के नेत्रों में अश्रु भरे हैं अतः वे हमें देख नहीं पाएँगे। अब हम यहाँ से निकल चलें।

वासवदत्ताः तुम्हारे लिए उत्कण्ठित पति को इस अवस्था में छोड़ जाना उचित नहीं है, अतः तुम रुक जाओ। मैं चली जाती हूँ।

चेटीः (पद्मावती से) आर्या ने उचित कहा। भद्रदारिके चलिए स्वामी के पास चलें।

पद्मावतीः क्या सचमुच मैं आर्यपुत्र के पास जाऊँ।

वासवदत्ताः हाँ, हाँ, तुम जाओ।

(उदयन के पास जाती हुई वासवदत्ता से मार्ग में कमलपत्र में जल लिए विदूषक आ मिलता है)

विदूषकः देवि पद्मावती! आप आ गईं?

पद्मावतीः आर्य वसन्तक! क्या बात है?

विदूषकः बात यह है.... बात यह है कि ...

पद्मावतीः हाँ, हाँ, कहें आर्य।

विदूषकः बात यह है कि वायुचालित काश पुष्प के रज महाराज के नेत्रों में पड़ जाने के कारण उनका मुख अश्रुओं से भीग गया है। उनका मुख धोने के लिए यह जल है।

(पद्मावती विदूषक से जल अपने हाथों में ले लेती है)

पद्मावतीः (स्वगत्) अहा! उदार स्वामी के परिजन भी उदार ही होते हैं। (उदयन के पास जाकर, प्रकट) आर्यपुत्र की जय हो! मुख धोने के लिए यह जल है।

उदयनः आह! पद्मावती! (वसन्तक की ओर मुख करके) वसन्तक, यह क्या?

वसन्तकः (कान में धीरे से) आर्या पद्मावती से मैंने आपके नेत्रों में काश-पुष्प-रज पड़ जाने की बात कही है।

उदयनः (वसन्तक के कान में) यह तुमने बहुत अच्छा किया। (जल से मुख धोकर) पद्मावती! बैठो।

पद्मावतीः जैसी आपकी आज्ञा! (बैठ जाती है)

उदयनः (स्वगत्) यह नववधू निस्सन्देह धीर स्वभाव वाली है किन्तु स्त्रियाँ स्वभावतः कातर होती हैं इसलिए सत्य को सुनकर यह दुःखी हो जाएगी। (प्रकट) प्राणवल्लभे! शरत् के चन्द्र के समान श्वेत काश के पुष्पों के रज नेत्रों में पड़ जाने से अश्रु आ गए थे।

विदूषकः क्या आपको स्मरण है कि मगधराज ने आपके सत्कार के लिए आपको बुलवाया था? सच है कि सत्कार से प्रीति में वृद्धि होती है। अपराह्न की बेला हो चुकी है अतः चलिए मगधराज के दर्शनों के लिए चलें।

उदयनः बहुत उचित कहा मित्र! चलें, प्रस्थान करें।

(सबका प्रस्थान)
(अंक 4 समाप्त)

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Wednesday, October 20, 2010

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 2-3 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

पिछला अंक - स्वप्न वासवदत्ता - अंक 1 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

(चेटी का प्रवेश)

चेटीः कंजरिके! कंजरिके! राजकुमारी पद्मावती कहाँ हैं? क्या? वे लताकुंज के समीप कन्दुक-क्रीड़ा कर रही हैं। अच्छा तो मैं स्वामिपुत्री के समीप जाती हूँ। (लताकुंज की ओर देखकर) कुमारी तो स्वयं कन्दुक-क्रीड़ा करते हुआ आ रही हैं। अहा! क्रीड़ा के श्रम से उत्पन्न क्लांति ने उनके मुख की सुन्दरता को और भी बढ़ा दिया है। अच्छा तो उनके पास चलती हूँ।

(चेटी का प्रस्थान)

(वासवदत्ता के साथ गेंद खेलती हुई पद्मावती का प्रवेश)

वासवदत्ताः प्रिये! यह रही तुम्हारी कन्दुक।

पद्मावतीः आर्ये! अब बस, अब और क्रीड़ा नहीं।

वासवदत्ताः क्रीड़ा से क्लान्त तुम्हारे रक्तवर्ण हुए हाथ तो किसी अन्य के-से प्रतीत हो रहे हैं राजकुमारी।

चेटीः (समीप आकर) स्वामिकन्ये! खेलें, खेलें! कुमारी जीवन के इस रमणीय काल का सदुपयोग करें।

पद्मावतीः (वासवदत्ता से) आर्ये! आप मेरा उपहास तो नहीं कर रही हैं?

वासवदत्ताः कदापि नहीं प्रिये! आज क्रीड़ा के श्रम ने तुम्हें विशेष सुन्दर बना दिया है, मुझे तुम्हारा मुख अत्यन्त सुन्दर लग रहा है।

पद्मावतीः रहने दें! मेरा उपहास न करें।

वासवदत्ताः अच्छा तो मैं चुप हो जाती हूँ महासेन की भावी वधू।

पद्मावतीः यह महासेन कौन है?

वासवदत्ताः उज्जयिनी के महाराज प्रद्योत के पास असीम सेना है, इसीलिए उन्हें महासेन के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है।

चेटीः हमारी राजकुमारी उस राजा के पुत्र से सम्बन्ध नहीं चाहतीं।

वासवदत्ताः फिर किससे चाहती हैं?

चेटीः वत्सराज उदयन से। स्वामिपुत्री उनके गुणों से मुग्ध हो गई हैं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) तो यह आर्यपुत्र की पतिरूप में कामना करती है। (प्रकट) सो किसलिए?

चेटीः क्योंकि वे अत्यन्त कोमल हृदय हैं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) इस बात से तो मैं अच्छी प्रकार से भिज्ञ हूँ। मैं भी कभी पद्मावती की तरह उन्मत्त हो उठी थी।

चेटीः राजकुमारी! और यदि वे कुरूप हुए तो?

वासवदत्ताः नहीं, नहीं, वे अत्यन्त दर्शनीय हैं।

पद्मावतीः आर्ये! यह आपको कैसे पता है?

वासवदत्ताः (स्वगत्) आर्यपुत्र के पक्षपात के कारण मुझसे सदाचार की सीमा का उल्लंघन हो गया। अब क्या उपाय करूँ? अच्छा उपाय सूझा। (प्रकट) उज्जयिनी के नागरिक ऐसा ही कहते हैं प्रिये।

पद्मावतीः हाँ, उज्जयिनी के लोगों के लिए उनका दर्शन दुर्लभ नहीं है, इसीलिए उनकी सुन्दरता उन्हें अभिराम लगती है।

(धात्री का प्रवेश)

धात्रीः कुमारी की जय हो! कुमारी! तुम्हारे विवाह का निश्चय हो गया।

वासवदत्ताः किसके साथ आर्ये?

धात्रीः वत्सराज उदयन के साथ!

वासवदत्ताः वत्सराज कुशल से तो हैं?

धात्रीः हाँ, वे कुशलतापूर्वक यहाँ पधारे हैं और उन्होंने राजकुमारी से विवाह करना स्वीकार कर लिया है।

वासवदत्ताः यह तो बहुत अहित हुआ।

धात्रीः इसमें अहित क्या हुआ?

वासवदत्ताः कुछ नहीं, केवल इतना ही कि इतने शोकग्रस्त होने के पश्चात् वे अब उदासीन हो गए।

धात्रीः आर्ये! धीर पुरुष दुःख से दीर्घकाल तक संतप्त नहीं रहते, शीघ्र ही प्रकृतिस्थ हो जाते हैं।

वासवदत्ताः क्या उन्होंने स्वयं विवाह का प्रस्ताव किया?

धात्रीः नहीं, यहाँ वे किसी अन्य प्रयोजन से आए थे। हमारे महाराज ने उनके रूप, वय, गुण, आभिजात्य आदि से प्रभावित होकर स्वयं ही विवाह का प्रस्ताव किया।

वासवदत्ताः (स्वगत्) मैं मिथ्या ही आर्यपुत्र का दोष निकाल रही थे, वे सर्वथा निर्दोष हैं।

(दूसरी चेटी का प्रवेश)

दूसरी चेटीः शीघ्रता करें! आज ही विवाह का शुभ लग्न है। हमारी स्वामिनी की इच्छा है कि आज ही विवाह सम्पन्न हो जाना चाहिए।

वासवदत्ताः (स्वगत्) जितनी ये शीघ्रता कर रहे हैं उतना ही मेरा हृदय अन्धकारमय होता चला जा रहा है।

धात्रीः कुमारी! चलें! प्रस्थान करें।

(सभी का प्रस्थान)
(अंक 2 समाप्त)
स्वप्न वासवदत्ता - अंक 3 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)
(वासवदत्ता का प्रवेश)

वासवदत्ताः (स्वगत्) आनन्द से अभिभूत अन्तःपुर एवं विवाह मण्डप से निकलकर प्रमदवन में आने का अब अवसर प्राप्त हुआ। अब मैं भाग्यजनित दुःख को विस्मृत करने का प्रयास कर पाउँगी। आह! कैसा असीम दुःख है! आर्यपुत्र भी अब मेरे न रहे। विवाह में बहुत श्रम किया है, तनिक बैठ जाऊँ। (बैठकर) धन्य है चक्रवाकी जो चक्रवाक से विलग होकर प्राण त्याग देती है। मैं अभागन तो आर्यपुत्र के दर्शनों का लोभ से अपने प्राण भी नहीं त्याग सकती।

(फूलों की टोकरी के साथ चेटी का प्रवेश)

चेटीः चन्द्र के समान भद्रवसन धारण करने वाली चिन्तिति हृदय की स्वामिनी आर्या अवन्तिका कहाँ हैं? (वासवदत्ता की ओर देखकर) ओह, वे तो प्रियंगु लता के समीप शिलापट्ट पर विराजमान है। (वासवदत्ता के समीप जाकर) आर्ये! मैं कब से आपको खोज रही हूँ।

वासवदत्ताः किसलिए?

चेटीः हमारी भट्टिनी रानी का कथन है कि आप उच्चकुलीन होने के साथ ही साथ स्नेहशील तथा कुशल भी हैं, अतः विवाह की माला आप के हाथों से गूँथा जाना चाहिए।

वासवदत्ताः किसके लिए है यह माला?

चेटीः भद्रदारिका राजकुमारी के लिए।

वासवदत्ताः (स्वगत्) हा निष्ठुर देव! मुझे यह भी करना पड़ रहा है।

चेटीः आर्ये! शीघ्रता करें। जामाता अभी मणिभूमि में स्नान कर रहे हैं। उनके आगमन के पूर्व माला गूँथ दें।

वासवदत्ताः भद्रे! क्या तूने जामाता को देखा है?

चेटीः हाँ आर्ये! इससे पूर्व मैंने इतना सुन्दर पुरुष कभी नहीं देखा। वे तो धनुष-बाण रहित कामदेव-से प्रतीत होते हैं।

वासवदत्ताः अच्छा, अब उनकी सुन्दरता का वर्णन बन्द कर।

चेटीः क्यों आर्ये?

वासवदत्ताः क्योंकि परपुरुष की प्रशंसा सुनना उचित नहीं है।

चेटीः अच्छा आर्ये! अब आप शीघ्र माला गूँथ दें।

वासवदत्ताः (टोकरी को उलटकर एक फूल को इंगित करके) यह कौन सा पुष्प है?

चेटीः सदा सुहागन! (अविधवाकरण)

वासवदत्ताः (स्वगत्) इस पुष्प को तो मैं बहुत अधिक गूँथूँगी, अपने लिए भी और पद्मावती के लिए भी। (प्रकट, दूसरे फूल को दिखाकर) और इस पुष्प का क्या नाम है?

चेटीः सौत सालिनी। (सपत्नीमर्दन)

वासवदत्ताः इसे मैं नहीं गूँथूँगी।

चेटीः किसलिए आर्ये?

वासवदत्ताः राजा की प्रथम पत्नी की मृत्यु हो चुकी है अतः इस पुष्प का माला में प्रयोजन नहीं है।

(दूसरी चेटी का प्रवेश)

दूसरी चेटीः शीघ्रता करें आर्ये! शीघ्रता करें। जामाता को सुहागिन स्त्रियाँ विवाह-मण्डप में लेकर जा रही हैं।

वासवदत्ताः (माला गूँथना का कार्य पूर्ण करके) यह ले।

(माला लेकर दोनों चेटी का प्रस्थान)

वासवदत्ताः चेटियाँ चली गईं। कैसी अभागन हूँ मैं! आर्यपुत्र भी अन्य के हो गए। शैय्या पर चलकर अपने दुःख को विस्मृत करने का प्रयास करूँ। सम्भवतः निद्रादेवी की कृपा हो जाए।

(प्रस्थान)
(अंक 3 समाप्त)

Tuesday, October 19, 2010

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 1 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

स्वप्नवासवदत्ता महाकवि भास रचित छः अंकों का रोचक संस्कृत नाटक है जिसका हिन्दी रूपान्तर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। किसी नाटक का रूपान्तर करने का यह मेरा प्रथम प्रयास है अतः त्रुटियाँ होने की बहुत अधिक सम्भावनाएँ हैं। आशा करता हूँ कि आप उन त्रुटियों पर विशेष ध्यान नहीं देंगे।

इस नाटक की कथावस्तु को समझने के लिए कुछ पूर्व प्रसंग को जानना जरूरी है जो इस प्रकार हैः

स्वप्नवासवदत्ता के नायक पुरुवंशीय राजा उदयन हैं। वे वत्स राज्य राज्य के अधिपति थे। कौशाम्बी उनकी राजधानी थी। उन दिनों राजगृह मगध राज्य की राजधानी थी और वहाँ का राजा अजातशत्रु का पुत्र दर्शक था। अवन्ति राज्य की राजधानी उज्जयिनी थी तथा वहाँ के राजा प्रद्योत थे। महाराज प्रद्योत का सैन्य-बल अत्यन्त विशाल था और इसीलिये उन्हें महासेन के नाम से भी जाना जाता था।

महाराज उदयन के पास घोषवती नामक एक दिव्य वीणा थी। उनका वीणा-वादन अपूर्व था। एक बार राजा प्रद्योत के अमात्य शालंकायन ने छल करके उदयन को बन्दी बना लिया। उदयन के वीणा-वादन की ख्याति सुनकर प्रद्योत ने उन्हे अपनी पुत्री वासवदत्ता के लिये वीणा-शिक्षक नियुक्त कर दिया। वीणा सीखने-सिखाने के बीच, उदयन और वासवदत्ता एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो गये।

इधर उदयन के मन्त्री यौगन्धरायण उन्हें कैद से छुड़ाने के प्रयास में थे। यौगन्धरायण के चातुर्य से उदयन, वासवदत्ता को साथ ले कर, उज्जयिनी से निकल भागने में सफल हो गये और कौशाम्बी आकर उन्होंने वासवदत्ता से विवाह कर लिया।

उदयन वासवदत्ता के प्रेम में इतने खोये रहने लगे कि उन्हें राज-कार्य की सुधि ही नहीं रही। इस स्थिति का लाभ उठा कर आरुणि नामक उनके क्रूर शत्रु ने वत्स राज्य पर आक्रमण करके उसे जीत लिया।

आरुणि से उदयन के राज्य को वापस लेने के लिये उनके मन्त्री यौगन्धरायण और रुम्णवान् प्रयत्नशील हो गये। किन्तु बिना किसी अन्य राज्य की सहायता के आरुणि को परास्त नहीं किया जा सकता था। वासवदत्ता के पिता प्रद्योत उदयन से नाराज थे और यौगन्धरायण को उनसे किसी प्रकार की उम्मीद नहीं थी।

यौगन्धरायन को ज्योतिषियों के द्वारा पता चलता है कि मगध-नरेश की बहन पद्मावती का विवाह जिन नरेश से होगा वे चक्रवर्ती सम्राट हो जायेंगे। यौगन्धरायण ने सोचा कि यदि किसी प्रकार से पद्मावती का विवाह उदयन से हो जाये तो उदयन को अवश्य ही उनका वत्स राज्य आरुणि से वापस मिल जायेगा साथ ही वे चक्रवर्ती सम्राट भी बन जायेंगे।

यौगन्धरायण भलीभाँति जानते थे कि उदयन अपनी पत्नी वासवदत्ता से असीम प्रेम करते हैं और वे अपने दूसरे विवाह के लिये कदापि राजी नहीं होंगे। अतएव उन्होंने वासवदत्ता और रुम्णवान् के साथ मिलकर एक योजना बनाई। प्रस्तुत नाटक इसी योजना पर आधारित है अतः योजना के विषय में जानने के लिए पढ़ें:

स्वप्न वासवदत्ता - अंक 1 (संस्कृत नाटक का संपादित सरल हिन्दी रूपान्तर)

मुख्य पात्रों का परिचयः

सूत्रधार - नाटक का संचालक, उदयन - वत्स देश का राजा, वासवदत्ता - उदयन की पटरानी, पद्मावती - उदयन की द्वितीय पत्नी, यौगन्धरायण - उदयन का प्रधान सचिव तथा अन्य

(सूत्रधार का प्रवेश)

सूत्रधारः नवोदित चन्द्र के वर्ण वाली, आसव से शक्ति सम्पन्न, पद्म के संयोग से परिपूर्ण तथा वसन्त सी कमनीय बलराम जी की भुजाएँ आपकी रक्षा करें!

(नेपथ्य से) आर्य, हटें, हटें! मार्ग छोड़ दें!

सूत्रधारः यह कोलाहल कैसा? समझा! राजकन्या के सेवक, मगधराज के अनुचर तपोवनवासियों को धृष्टतापूर्वक हटा रहे हैं।

(सूत्रधार का प्रस्थान)

दो भट: (प्रवेश करके) आर्य, मार्ग छोड़ दें! आर्य, हटें! आर्य, हटें! आर्य, मार्ग छोड़ दें!

(यौगन्धरायण और वासवदत्ता का क्रमशः परिव्राजक और अवन्तिका के रूप में प्रवेश)

यौगन्धरायण: (ध्यान से सुनने का प्रदर्शन करते हुए) आश्चर्य! घोर आश्चर्य! आश्रमवासियों को भी हटाया जा रहा है! फलाहार से ही सन्तुष्ट, धीर, वक्कलधारी तपस्वियों के साथ यह धृष्टता क्यों की जा रही है? यह कौन अभिमानी, विनयरहित, उन्मत्त, चंचल जन है जो तपोवन में भी आज्ञा देकर गाँव जैसा व्यवहार कर रहा है?

वासवदत्ताः आर्य! यह कौन है जो तपस्वियों को हटा रहा है?

यौगन्धरायणः देवि! वही जो स्वयं को धर्म के मार्ग से हटा रहा है।

वासवदत्ताः आर्य! तपस्वियों के साथ मुझ तक को भी हटाया जा रहा है।

यौगन्धरायणः देवि! अनजाने देवताओं से भी इसी प्रकार का व्यवहार होता है।

वासवदत्ताः आर्य! मार्ग की क्लांति भी मुझे उतना क्लांत नहीं कर रही है जितना कि यह अपमान मुझे दुःखी कर रहा है।

यौगन्धरायणः देवि! कभी आपमें भी ऐसी ही सामर्थ्य थी जिसे आपने त्याग दिया है। किन्तु आप चिन्तित न हों क्योंकि काल के पहिए की तीलियों की तरह जगत् का भाग्य भी घूमता है। पति के विजित होने पर आप पुनः प्रशंसित होंगी।

दोनों भटः आर्य, मार्ग छोड़ दें! आर्य, हटें!

(कंचुकी का प्रवेश)

कंचुकीः हे भट! आश्रमवासियों को इस प्रकार से न हटाओ। अपने इस कृत्य के लिए राजा पर दोषारोपण न कर देना। तपस्वियों के प्रति कठोरता कदापि उचित नहीं है। नगर के अपमान से बचने के लिए ही ये मनस्वी वनों में निवास कर रहे हैं।

दोनों भटः ऐसा ही होगा आर्य!

(भटों का प्रस्थान)

यौगन्धरायणः अहा! यह तो समझदार प्रतीत होता है। पुत्री! आओ, इसके पास चलें।

वासवदत्ताः आपका कथन उचित है आर्य!

यौगन्धरायण: (पास पहुँचकर कंचुकी से) आश्रमवासियों को मार्ग से हटाया क्यों जा रहा है?

कंचुकीः ओह! तपस्वी?

यौगन्धरायणः (अपने आप से) तपस्वी! स्वयं के लिए यह संबोधन तो उचित प्रतीत होता है! किन्तु अभ्यस्त न होने के कारण मन को रुचता नहीं।

कंचुकीः आर्य! हमारे महाराज की भगिनी पद्मावती आश्रम में पधार रही हैं। हमारे महाराज की माता महादेवी आश्रम में निवास करती हैं और वे उन्हीं के दर्शनों के लिए आई हैं। वे कुछ दिनों के लिए आश्रम में निवास भी करना चाहती हैं।

यौगन्धरायणः (अपने आप से) अहा! मगधराज की कन्या पद्मावती के लिए तो पुष्पभद्र जैसे भविष्यक्ताओं ने घोषणा की है कि ये हमारे स्वामी की रानी होंगी। स्वामी की भावी पत्नी के प्रति मेरे मन में ममता का भाव उदय हो रहा है!

वासवदत्ताः (अपने आप से) राजपुत्री के प्रति मेरे मन में भगिनी सा स्नेह हो रहा है।

(पद्मावती का अपने परिजनों एवं चेटी के साथ प्रवेश)

चेटीः पधारें राजकुमारी! पधारें! आश्रम में प्रवेश करें!

(तपस्विनी का प्रवेश)

तपस्विनीः आश्रम में आपका स्वागत् है राजकुमारी!

वासवदत्ताः (अपने आप से) अहा! यही राजकुमारी हैं! इनका रूप तो इसके अभिजात्य के ही अनुकूल है!

पद्मावती: (तपस्विनी से) आर्ये! प्रणाम!

तपस्विनीः चिरंजीव भव! प्रवेश करो पुत्री! आश्रम को अपना घर ही समझो!

पद्मावतीः धन्यवाद आर्ये! आश्वस्त हुई। आपके आदर से अनुग्रहीत हुई।

वासवदत्ताः (अपने आप से) अहा! जितना सुन्दर इसका रूप है, उतनी ही सुन्दर इसकी वाणी भी है!

चेटीः सौभाग्यशाली हैं हमारी राजकुमारी! इनसे अपने पुत्र के विवाह हेतु संदेश लेकर उज्जयिनी के राजा प्रद्योत ने अपना दूत भेजा है।

वासवदत्ताः (अपने आप से) इससे तो यह मेरी आत्मीय ही हुई।

तपस्विनीः राजकुमारी का रूप ही है आदर के पात्र! जितना महान मगधराज का कुल है उतना ही महान उज्जयिनी के राजा का कुल भी है।

पद्मावतीः आर्य! मैं तपस्वियों को भेंट अर्पण कर अनुग्रहीत हुआ चाहती हूँ। अतः उन्हें सूचित करें कि जिन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता हो, भेंटस्वरूप मुझसे स्वीकार करें।

कंचुकीः जैसी आपकी इच्छा। हे आश्रमवासियों, सुनो, सुनो मगधराज की कन्या आप लोगों को धर्मार्थ भेंट देकर अनुग्रहीत होना चाहती हैं। अपनी आवश्यकता बताएँ। किसे कलश की आवश्यकता है? कौन वस्त्रादि की इच्छा रखता है? अध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् किसे गुरु-दक्षिणा देने हेतु धन की आवश्यकता है? जो भी आपकी आवश्यकताएँ हैं, बताएँ। राजकुमारी आपकी इच्छा-पूर्ति करके अनुग्रहीत होना चाहती हैं।

यौगन्धरायणः (अपने आप से) कार्यसिद्धि हेतु अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। (प्रकट) मुझे कुछ आवश्यकता है।

पद्मावती: (अपने आप से) इस आश्रम के समस्त निवासी सन्तुष्ट हैं। अवश्य ही यह याचक यहाँ का निवासी नहीं है वरन कोई आगन्तुक है।

कंचुकीः आर्य! आपको जो भी चाहिए, कहें।

यौगन्धरायणः मुझे धन, भोग अथवा वस्त्र की आवश्यकता नहीं है। मैंने यह काषाय वस्त्र आजीविका हेतु धारण नहीं किया है। यह मेरी भगिनी है, इसका पति विदेश गया है। मैं चाहता हूँ कि राजकुमारी मेरी भगिनी को कुछ काल तक अपने साथ रखकर इसका परिपालन करें। निश्चय ही धर्मप्रिय राजकन्या मेरी भगिनी के चरित्र की रक्षा करेंगी।

वासवदत्ताः (अपने आप से) आर्य यौगन्धरायण मुझे राजकुमारी के साथ छोड़ने की इच्छा कर रहे हैं। ऐसा ही हो क्योंकि आर्य का कोई भी कार्य निष्प्रयोजन नहीं होता।

कंचुकीः देवि! इनका मनोरथ पूर्ण करना तो अत्यन्त दुष्कर है। भला इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? क्योंकि धन का दान तो सुगमतापूर्वक किया जा सकता है, प्राण और तप भी सुखपूर्वक दिए जा सकते हैं किन्तु थाती की रक्षा करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है।

पद्मावतीः आर्य! इच्छापूर्ति करने की घोषणा करने पश्चात् याचक की इच्छापूर्ति के विषय में सोच-विचार करना निरर्थक है। अतः इनका कार्य सम्पन्न करें।

कंचुकीः देवि! आपके वचन आपके अनुकूल ही हैं।

चेटीः स्वामी कि सत्यवादिनी कन्या चिरंजीवी हों।

तपस्विनीः भद्रे चिरंजीवी हों।

चेटीः देवि! आपके वचन के अनुसार ही कार्य होगा। (यौगन्धरायण के पास जाकर) आर्य! राजकुमारी ने आपकी भगिनी का परिपालन करना स्वीकार कर लिया है।

यौगन्धरायणः मैं देवि का अनुग्रहीत हुआ। (वासवदत्ता को सम्बोधन करके) पुत्री, देवि के समीप जाओ।

वासवदत्ताः (अपने आप से) अब तो कोई उपाय नहीं रह गया। मेरा दुर्भाग्य! जाना ही होगा।

पद्मावतीः आर्य! अब आपकी भगिनी हमारी हुईं।

तपस्विनीः आकृति से तो यह भी राजपुत्री ही जान पड़ती हैं।

चेटीः सत्यवचन! मुझे भी प्रतीत होता है कि इन्होंने सुदिन देखे हैं।

यौगन्धरायणः (स्वगत्) मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करके जो निश्चय किया था वैसा ही हुआ। मेरा आधा भार कम हुआ। जिन ज्योतिषियों ने स्वामी की विपत्ति की घोषणा की थी उन्होंने ही यह भी भविष्यवाणी की है कि मगध की राजकुमारी पद्मावती स्वामी की महिषी होंगी। ऋषियों के वचन मिथ्या नहीं हो सकते। जब स्वामी अपने राज्य को पुनः विजित कर लेंगे तो देवि को मैं उन्हें लौटा दूँगा। मगध की राजपुत्री ही मेरा साक्ष्य होंगी।

(ब्रह्मचारी का प्रवेश)

ब्रह्मचारीः (आकाश की ओर देखकर) द्वितीय प्रहर हो चुका। मैं अत्यन्त क्लांत अनुभव कर रहा हूँ। कहाँ विश्राम करूँ? (तपोवन की ओर देखकर) इस स्थान पर हिरण निर्भीक विचरण कर रहे हैं। फल-फूलों से लदे वृक्ष दृष्टिगोचर हो रहे हैं। गौंएँ भी दिखाई दे रहे हैं और स्थान-स्थान से हवन का धुआँ उठता दिख रहा है। अवश्य ही यह तपोवन है। अस्तु, प्रवेश करके देखूँ (प्रवेश करता है)।

यह मनुष्य तो आश्रमवासी सा प्रतीत नहीं होता, (दूसरी ओर देख कर) किन्तु तपस्वी भी दृष्टिगत हो रहे हैं। इन तपस्वियों के पास जाने में कोई हानि नहीं है, किन्तु यहाँ तो स्त्रियाँ भी हैं।

कंचुकीः निःसंकोच प्रवेश करें। आश्रम तो सभी के लिए है। आतिथ्य स्वीकार करें।

ब्रह्मचारीः (जल पीकर) धन्यवाद! जल पीकर क्लांति से मुक्ति मिली।

यौगन्धरायणः श्रीमान् कहाँ से आ रहे हैं और आपका गन्तव्य कहाँ है? आपका निवासस्थान कौन सा है?

ब्रह्मचारीः श्रीमान्! मैं राजगृह का निवासी हूँ। वर्तमान में मैं वेद के विशेष अध्ययन हेतु वत्स देश के लावाणक नामक गाँव में रहता हूँ।

वासवदत्ताः (स्वगत्) लावाणक नाम सुनकर तो मेरे सन्ताप में वृद्धि होने लग गया।

यौगन्धरायणः तो आपका विद्याध्ययन पूर्ण हो गया?

ब्रह्मचारीः अभी नहीं।

यौगन्धरायणः फिर आपके चले जाने का क्या प्रयोजन है?

ब्रह्मचारीः वहाँ एक अत्यन्त दारुण घटना हो गई।

यौगन्धरायणः कैसी दारुण घटना?

ब्रह्मचारीः वहाँ उदयन नामक राजा रहता था।

यौगन्धरायणः राजा उदयन का नाम तो मैंने भी सुना है। फिर क्या हुआ?

ब्रह्मचारीः उज्जयिनी नरेश की वासवदत्ता नामक कन्या उनकी परमप्रिय पत्नी थीं।

यौगन्धरायणः होंगी। फिर?

ब्रह्मचारीः राजा के शिकार खेलने जाने पर गाँव में आग लग जाने के कारण वे जल गईं।

वासवदत्ताः (स्वगत्) असत्य! मैं अभागिनी तो अब भी जीवित हूँ।

यौगन्धरायणः फिर?

ब्रह्मचारीः उनकी रक्षा के प्रयास में राजा का यौगन्धरायण नामक सचिव भी आग में कूद पड़े।

यौगन्धरायणः अच्छा! उसके बाद।

ब्रह्मचारीः लौटकर उनकी मृत्यु का समाचार पाकर राजा उदयन दुःखी होकर उसी अग्नि में प्राण देने के लिए उद्यत तो गए तब बड़े यत्न के साथ मन्त्रियों ने उन्हें रोका।

वासवदत्ताः (स्वगत्) जानती हूँ! आर्यपुत्र के अपने प्रति प्रेम को समझती हूँ।

यौगन्धरायणः फिर क्या हुआ?

ब्रह्मचारीः तब राजा अपनी पत्नी के जलने से बचे हुए वस्त्रों तथा आभूषणों को हृदय से लगाकर अचेत हो गए।

सब एक साथः हा दुर्दैव!

वासवदत्ताः (स्वगत्) अब आर्य यौगन्धरायण को सन्तोष हुआ!

चेटीः (राजकुमारी पद्मावती से) भद्रदारिके, आर्या रो रही हैं।

पद्मावतीः अत्यन्त कोमल स्वभाव की हैं।

यौगन्धरायणः (राजकुमारी से) आपका कथन सत्य है! मेरी भगिनी अत्यन्त भावुक स्वभाव की है। (ब्रह्मचारी को सम्बोधित करके) फिर क्या हुआ?

ब्रह्मचारीः फिर शनैः शनैः राजा सचेत हुए।

पद्मावतीः प्रसन्नता की बात है कि वे जीवित हैं। उनका मूर्छित होना सुनकर मेरा हृदय शून्य हो गया था।

यौगन्धरायणः उसके बाद?

ब्रह्मचारीः तब भूमि में गिरने के कारण मलिन शरीर एव वस्त्र वाले राजा "हा वासवदत्ता!" "हा वासवदत्ता" "हा शिष्ये!" "हा अवन्तिकुमारी!" कहकर विलाप करने लगे। पत्नी के वियोग में अत्यन्त दुःखी हो गए। धन्य है वासवदत्ता जिन्हें उनके पति प्राणो से अधिक प्रेम करते हैं। पति-स्नेह के कारण वे जल कर भी नहीं जलीं।

यौगन्धरायणः श्रीमान्! क्या उनके किसी मन्त्री ने उन्हें पकृतिस्थ करने का प्रयास नहीं किया?

ब्रह्मचारीः उनके रुम्णवान् नामक सचिव ने उन्हें प्रकृतिस्थ करने का प्राणपण से प्रयास किया। रुम्णवान् ने राजा का अनुसरण करके आहार त्याग दिये। दिन-रात यत्नपूर्व राजा की सेवा करते रहे। यदि राजा के प्राण निकल जाते तो अवश्य ही रुम्णवान् ने भी अपना प्राण त्याग दिया होता।

वासवदत्ताः (स्वगत्) भाग्यवश आर्यपुत्र उचित व्यक्ति की सेवा में हैं।

यौगन्धरायणः (स्वगत्) अहा! रुम्णवान् को भारी भार वहन करना पड़ रहा है। मैं जिस भार को वहन कर रहा हूँ उसमें कुछ आराम तो है किन्तु रुम्णवान् को आराम कहाँ? क्योंकि स्वामी तो पूर्णतः उन्हीं पर निर्भर हैं। (ब्रह्मचारी को सम्बोधन कर के) तो क्या राजा अब पूर्णतः स्वस्थ हैं?

ब्रह्मचारीः इस बात से तो मैं अनभिज्ञ हूँ। जब "यहाँ उसके साथ रहा", "यहाँ उसके साथ बात किया", "यहाँ उसके साथ क्रीड़ा की" कहकर विलाप करते राजा को उनके मन्त्री यत्नपूर्वक गाँव से बाहर ले गए तो वह गाँव चन्द्रमा और तारों से रहित आकाश की तरह अनाकर्षक हो गया और मैं भी गाँव को त्यागकर चला आया।

तपस्विनीः जिस राजा की आगंतुक भी प्रशंसा करते हैं वह राजा अवश्य ही गुणवान होगा!

चेटीः स्वामिकन्ये! क्या वह राजा किसी अन्य स्त्री को स्वीकार कर सकता है?

पद्मावतीः (स्वगत्) मेरे हृदय में भी यही प्रश्न उठ रहा है।

ब्रह्मचारीः आज्ञा दें! मुझे प्रस्थान करना है।

यौगन्धरायणः प्रस्थान करें। आपका मनोरथ सिद्ध हो।

ब्रह्मचारीः तथास्तु!

(ब्रह्मचारी का प्रस्थान)

यौगन्धरायणः देवि की अनुमति पाकर मैं भी प्रस्थान करना चाहता हूँ।

पद्मावतीः आर्य! आपकी अनुपस्थिति में आपकी भगिनी उत्कण्ठित होंगी।

यौगन्धरायणः वे उतकण्ठित नहीं होंगी क्योंकि उन्हें उचित परिपालन मिल गया है। (कंचुकी की ओर देखकर) मैं चला।

कंचुकीः सहर्ष जाएँ! पुनः दर्शन दें।

यौगन्धरायणः तथास्तु।

(यौगन्धरायण का प्रस्थान)

कंचुकीः (राजकुमारी से) अब हमें भी प्रस्थान करना चाहिए।

पद्मावतीः (तपस्विनी से) आर्ये! वन्दे।

तपस्विनीः चिरंजीवी भव पुत्री! तुम्हें अपने सदृश पति प्राप्त हो।

वासवदत्ताः आर्ये! प्रणाम।

तपस्विनीः सौभाग्यवती भव! तुम्हें तुम्हारा पति शीघ्र मिले।

वासवदत्ताः अनुग्रहीत हुई।

कंचुकीः प्रस्थान करें भद्रे! इधर चलें। अहा! भगवान भास्कर अस्ताचल को प्रस्थान कर रहे हैं। पक्षी बसेरा कर रहे हैं। स्थान-स्थान पर हवनाग्नि प्रज्वलित है और सुगंधित धुआँ उठ रहे हैं! मुनिजन तर्पण कर रहे हैं!

(सभी का प्रस्थान)

Monday, October 18, 2010

नाटक से सिनेमा तक

घरों-घर में टी.व्ही. हो जाने के कारण यद्यपि सिनेमा का महत्व आज कुछ कम-सा हो गया है तथापि सिनेमा आज मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन है। मनुष्य की व्युत्पत्ति के समय से ही मनोरंजन उसकी प्रमुख आवश्यकताओं में से एक रही है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि मनुष्य के साथ ही साथ समस्त प्राणियों की पहली आवश्यकता है क्षुधा-शान्ति अर्थात् पेट भरना। अथक परिश्रम करके क्षुधा-शान्ति की व्यवस्था कर लेने के बाद मनुष्य अपनी थकान को मिटाने के लिए मनोरंजन की तलाश करता है। मनोरंजन की इसी तलाश ने मनुष्य को शिल्पकार, चित्रकार, कवि बनाया क्योंकि कला और कविता से उसे जो रस प्राप्त हुआ वह उसके मनोरंजन का भी साधन बना।

मनुष्य को भरपूर मनोरंजन काव्य से उत्पन्न रस से ही मिला इसलिए काव्य को दो भागों में विभक्त कर दिया गया - श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य! श्रव्य काव्य में केवल श्रवण से ही रस प्राप्त होता है किन्तु दृश्य काव्य में मनुष्य को श्रवण के साथ ही साथ दृश्य का भी आनन्द प्राप्त होता है। समस्त नाटक दृश्य काव्य के अन्तर्गत ही आते हैं। नाटक अर्थात् दृश्य काव्य ने मनुष्य को दृश्य काव्य की अपेक्षा अधिक रमणीयता प्रदान किया फलस्वरूप नाटकों की रचना होने लगी।

ऋग्वेद में मिलने वाले यम-यमी, अगस्त्य-लोपमुद्रा, इन्द्र-अदिति, पुरूरवा-उर्वशी संवाद प्राचीन नाट्य के रूप-से ही प्रतीत होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि संस्कृत रंगमंच की परंपरा वैदिक काल में ही आरम्भ हो चुकी थी। नाटक रचने के लिए जो शास्त्रीय जानकारी की आवश्यकता होती है उसे नाट्यशास्त्र कहा जाता है। भरत मुनि द्वारा रचित "नाट्यशास्त्र" को प्राचीनतम नाट्य शास्त्र का ग्रंथ माना जाता है। यद्यपि भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की, किन्तु वे स्वयं ब्रह्मा को नाट्यशास्त्र के रचयिता मानते हैं।

माना जाता है कि भरत मुनि का काल ईसा पूर्व चौथी सदी से लेकर ईसा पूर्व पहली सदी तक का है, अर्थात् भारत में ईसा पूर्व चौथी सदी में ही नाटक की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। उस काल से एक लम्बे अन्तराल तक रंगकर्म राजमहलों में मनोरंजन का मुख्य साधन रहा क्योंकि राजदरबार ही उस काल में कवियों के, जो कि नाटकों की रचना करते थे, आश्रय स्थल हुआ करता था तथा वे पूर्णतः राजाओं के ही आश्रित हुआ करते थे। प्राचीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि महाकवि भास के स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् तथा महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्र और विक्रमोर्वशीयम् आदि नाटकों का मंचन राजमहलों में ही होता था। यही कारण है कि प्राचीन नाटकों के नायक-नायिका प्रायः राजा और रानी ही हुआ करते थे तथा उनके चरित्र-चित्रण का महत्व अत्यन्त प्रभावशाली हुआ करते थे। किन्तु बाद में धीरे-धीरे रंगकर्म जन-साधारण में फैलने लगा और नगरों तथा गावों तक पहुँच गया। शूद्रक के मृच्छकटिकम् में नायक राजा न होकर निर्धन व्यक्ति चारुदत्त है और उस नाटक में राजा आर्यक का चरित्र अत्यन्त लचर है अतः ऐसा प्रतीत होता है कि शूद्रक के मृच्छकटिकम के समय तक रंगमंच जन-साधारण में पहुँच चुका था।

नाटकों की अपनी विशेषताएँ हुआ करती थीं किन्तु विशाखदत्त के "मुद्राराक्षस" नाटक की में एक अलग ही विलक्षणता है - वह यह कि इस नाटक में कोई भी महिला पात्र नहीं है और यह नाटक राजनीति तथा कूटनीति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करता है।

प्राचीनकाल में नाटकों का मंचन प्रायः वसन्तोत्सव के समय ही किया जाता था किन्तु कालान्तर में नाटकों के मंचन के लिए किसी प्रकार का काल-बन्धन नहीं रहा और वर्ष के किसी भी काल में नाटक खेले जाने लगे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल को हिन्दी रंगमंच के आरम्भ का काल माना जाता है तथा उस काल के नाटकों में अनके सामाजिक नाटकों की रचना हईं जिनमें लोक-जागरण प्रमुख विषय रहा।

युग बदलने के साथ-साथ नाटकों का प्रचलन भी कम होते गया और नाटकों का रूप भी बदलने लगा। क्षेत्र विशेष में नाटक के अनेक रूप तथा नाम हो गए जैसे कि महाराष्ट्र में "तमाशा", उत्तर प्रदेश, राजस्थान और पंजाब में "नौटंकी", बंगाल, उडीसा और पूर्वी बिहार "जात्रा" - गुजरात में "भवई", कर्नाटक में "यक्षगान", तमिलनाडु में "थेरुबुट्टू", छत्तीसगढ़ में "नाचा" या "गम्मत" आदि।

सिनेमा के आने के बाद से नाटकों का महत्व और भी कम होने लगा तथा रंगकर्म सिमटते ही चला गया। किन्तु वास्तव में कहा जाये तो सिनेमा का जनक नाटक ही है।

चलते-चलते

संस्कृत के कुछ प्रसिद्ध नाटक:

अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीयम् - महाकवि कालिदास
स्वप्नवासवदत्तम् ,प्रतिज्ञायौगंधरायणम् - महाकवि भास
मृच्छकटिकम् - शूद्रक
मुद्राराक्षस - विशाखदत्त
मालतीमाधव, उत्तररामचरित - भवभूति
वेणीसंहार - भट्टनारायण

Sunday, October 17, 2010

अनोखी बारात विदाई! - इस श्रृंखला का अन्तिम किन्तु अत्यन्त रोचक पोस्ट

पिछले चार दिनों से हम आचार्य चतुरसेन जी के उपन्यास "सोना और खून" का एक बहुत ही रोचक अंश को श्रृंखलाबद्ध रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अन्तिम किन्तु अत्यन्त रोचक पोस्ट। इस श्रृंखला को पोस्ट करने में हमारा उद्देश्य मात्र यही है कि हम आज से डेढ़-दो सौ साल पहले के आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि, जिसे कि आचार्य जी ने बेहद रोचक रूप में अपने उपन्यास में दर्शाया है, को जानें।

आप सभी को विजयादशमी पर्व की शुभकामनाएँ!

तो प्रस्तुत हैः

अनोखी बारात विदाई!

लेखकः आचार्य चतुरसेन

(इससे पहले की कहानी यहाँ पढ़ें - यूसुफ मियाँ और शबनम की शादी तय)

और बारात आई मुज़फ्फरनगर में धूमधाम की। बारात में दस-बारह हाथी, पचास रथ, सौ से ऊपर मझोलियाँ, बहेली और फीनसें, दो सौ से अधिक घोड़े, ऊँट और इतनी ही फिरक, ठोकर, छकड़े और बारदाने के खच्चर। बाराती कोई बारह सौ से ऊपर। हिन्दू और मुसलमान दोनों। राजा-नवाब, जमींदार-रैयत सब, कहना चाहिए पंचमेल मिठाई। सब अपनी-अपनी धज में। रईसों के साथ दर्जनों निजी खिदमतगार और मुसाहिब। नाई, धोबी, कहार, कसाई, बावर्ची, घसियारे, चरकटे, बरकन्दाज, असारदार, मशालची, मुन्शी, मोदी अलग। रंडी, भांड, नक्काल, नफीरी वाले, नक्कारची, ढील-दमामे, आतिशबाज, बाजीगर, पहलवान, नट, मितारिए, गवैए-कलावन्त दर्जनों। सबकी अलग-अलग जमात। दूल्हा मियाँ के यार-दोस्त-मुसाहिबों की अलग चौकड़ी। गरज, बारात क्या थी अच्छा-खासा लश्कर था। कहना पड़ेगा - इन्तजाम सब बातों का बारात के साथ भी माकूल था। नवाब मुज़फ्फरबेग का जरूर इन्तकाल हो चुका था, मगर उनकी जगह हापुड़ के नवाब जबरदस्त खां भारी दबदबे से दूल्हे मियाँ के कर्ताधर्ताओं के रूप में आए थे। एक जरी काम का कोई दो हजार रुपयों की कीमत का दुशाला कमर में लपेटे, तनवार-पेश कब्ज, और कटार फैटे में कसे, अपनी शानदार दाढ़ी और रुआबदार चेहरे से बारात भर में नवाब जबरदस्त खां दबदबे के आदमी जँच रहे थे। वास्तव में इस भारी-भरकम बारात में नवाब जबरदस्त खां ही नवाब मुज़फ्फरनगर के जोड़-तोड़ के आदमी थे। दो खिदमतगार दुनाली बन्दूकें लिए और दो खिदमतगार उनका पानदा और हुक्का लिए, आठों पहर चौंसठ घड़ी उनकी खिदमत में हाजिर रहते थे। बारात की जान थी नवाब की नटनी गुलाबजान; जो अलग अपना डेरा लाई थी। यद्यपि बारात में कोई दर्जन भर नर्तकियाँ डेरे डाले थीं, पर गुलाब जान की बात ही निराली थी। हवादान में बैठकर वह चलती थी। उसकी पालकी के आठों कहार ऐसी जर्कबर्क पोशाक में रहते थे कि खामख्वाह देखने वालों की नज़र उनपर टिक जाती थी। सच पूछो तो बारात में सबसे ज्यादा खातिरदारी बुला जान की ही होती थी। खुद नवाब जबरद्स्त खां सुबह-शाम उनकी हाजिरी बजाते थे। गुलाब जान का दरबार लगता था - दर्जनों मुसाहिब, चाहने वाले, चपरकनातिए, कुर्रम उसे घेरे रहते थे। गुलाब जान शाहज़ादी की-सी शान से दिन में दो-चार बार लिबास बदलती और नई-नई वजहदारी दिखाती थी।

यद्यपि नवाब जबरदस्त खां ने बारात के साथ बहुत-सी जिन्स राशन छकड़ों में लादकर रख ली थी, और ऐसा इन्तजाम किया था कि बारात की यदि मुज़फ्फरनबर में कुछ पूछ न भी हो तो - बारात के सब छोटे-बड़ों की सभी जरूरतें पूरी हो जाएँ। लेकिन नवाब मुज़फ्फरनगर का इन्तजाम भी लाजवाब था। मील भर के घेरे में डेरा, तम्बू, झोपड़ियाँ और छोलदारियाँ लगाई गई थीं। जनवासा क्या था - फौजी पड़ाव था, जहाँ एक छोटा-सा बाजार भी था, जहाँ जिसका जो जी चाहे वही जिन्स जितनी दरकार हो ले जाए। पैसा खर्चने का काम नहीं। एक तरफ जलाने की लकड़ियों के अम्बार लगे हैं, तो दूसरी ओर हजारों मटकों, आबखोरों, शकोरों, पत्तलों का पहाड़ लगा है। दही-दूध, सब्जी, तरकारी, मुर्गी, अण्डा, खस्सी शिकार हर रोज ताजा चला आ रहा है। हर जिन्स का अम्बार लगा है। बैलों की जोड़ी के लिए प्रतिदिन एक सेर घी, आठ सेर रातब, हाथी के लिए सवा मन का रोट और सवा सेर घी, ताजा गन्ना। बारातियों के लिए शीरमाल, मीठे टुकड़े, बिरयानी, मुतंजन, मिठाइयाँ, सिवइयाँ, कबाब, कोफ्ते और न जाने क्या-क्या। हिन्दुओं के लिए - कच्ची-पक्की रसोई ब्राह्मणों के हाथों से तैयार। पान-सुपारी, इलायची, तमाखू की भरमार।

बारात स्वागत का इन्तजाम देखकर नवाब जबरदस्त खां ने हँस कर कहा, “इन्तजाम तो नवाब साहब ने माशाअल्ला इस तरह किया है गोया बारात छः महीना रोक रखी जाएगी।”

नवाब जबरदस्त खां का यह फिकरा नवाब इकरामुल्ला के कान में भी जा पहुँचा। सुनकर आपने सिर हिलाकर कहा, “क्या मुजाइका है, देखा जाएगा।”

शादी हुई, निकाह हुआ और अब नाच-रंग, गाना-बजाना, खाना-पीना, ऐश-इशरत का दौर चला। नित नए जश्न। नाम सुनकर दूर-दूर से कलावन्त आ रहे हैं। अपने-अपने करतब दिखा रहे हैं। जगह-जगह डेरेदार रंडियों की महफिलें जमी हैं, नाच मुजरे हो रहे हैं, मशहूर भांड ऐसी नकलें कर रहे हैं कि देखने वालों के हँसते-हँसते पेट में बल पड़ रहे हैं। कुछ मनचले नौजवान घोड़े उछाल रहे हैं, और शहसवारी के जौहर दिखा रहे हैँ। कहीं नेज़ेबाजी, पट्टेबाजी के करतब हो रहे हैं। उस्ताद और शागिर्द भिड़ रहे हैं। कहीं दिल्ली के डण्डे वाले चीरफाड़ और बिलन्द्री के खेल दिखा रहे हैं। कहीं नट पैरों में पैने नोंकदार सींग बाँधकर रस्सियों पर चल रहे हैं। बूढ़ा नट ढोल बजा-बजाकर कह रहा है - नहीं बना, नहीं बना। और रस्सी पर का नट और दूसरा खतरनाक खेल दिखाता है। कहीं जादूगर हाथ की सफाई दिखा रहे हैं। कहीं कलन्दर बन्दर नचा रहे हैं। भिश्ती दौड़-दौड़कर छिड़काव कर रहे हैं, मगर गर्द-धूल का अम्बार है कि दबता ही नहीं। दूर-दूर के इत्र-फुलेल बेचने वाले, डेरे-डेरे घूमकर इत्र बेच रहे हैं। सौदे-सुलफ हो रहे हैं। नवाब साहब ने मेरठ की फौज का अंग्रेजी बाजा मँगवाया है जो अपनी अजीब अदा से घिर्र-पौं कर रहा है। नवाब साहब के बहुत से शागिर्द पेशा कुश्ती और दूसरे करतब दिखा रहे हैं। बड़े-बड़े बाजीगर और सँपेरे भी अपना-अपना तमाशा दिखा रहे हैं।

सब कुछ हो रहा है। लेकिन बारात की बिदाई नहीं हो रही है। हफ्तों गुजर गए, और अब एक महीना बीत रहा है। जब-जब नवाब जबरदस्त खां विदा का पैगाम भेजते हैं तो नवाब इकरामुल्ला खां हर बार जवाब देते हैं, “क्या मुजाइका है, देखा जाएगा।”

लेकिन बात इतने कहने-सुनने ही पर नहीं रह गई है। मुज़फ्फरनगर की चौहद्दी में नवाब के पहरे बैठे हैं। पहरे में हथियारबन्द सिपाही, बरकन्दाज और लठियल जवान तैनात हैं। मज़ाल नहीं कि कोई बाराती मुज़फ्फरनगर की चौहद्दी से बाहर तशरीफ ले जाए। पहरे-चौकी का सारा इन्तजाम नामी-गिरामी चोरों के सरदारों और डाकू सरदारों के जिम्मे है, जो अपनी-अपनी जमात को लिए जगह-जगह चौकी डाले पड़े हैं और अपनी चौकी पर पूरे मुस्तैद हैं। इन चौकियों को पार करके बाहर का आदमी मुज़फ्फरनगर में आ सकता है, पर मुज़फ्फरनगर का कोई आदमी चौहद्दी से बाहर नहीं जा सकता।

नाच-रंग, खेल-तमाशे, दावतें, खाना-पीना, मौज-बहार वैसी ही चल रही है। परन्तु बाराती घबरा रहे हैं। घर लौटने को बेचैन हैं। पर बारात की विदाई हो तब न बाराती घर लौटें? हकीकत यह है कि नवाब इकरामुल्ला ने कहने वालों की चुनौटी स्वीकार कर ली थी, और कसद कर लिया था कि बारात छः महीने से पहले हर्गिज विदा नहीं की जाएगी।

नवाब साहब का रुआब-दबदबा कम न था। यों नवाब जबरदस्त खां भी काफी दबंग आदमी थे। पर चोरों के शहनशाह नवाब इकरामुल्ला से उनकी भी पिण्डली काँपती थी। नवाब इकरामुल्ला को खुश रखने में ही खैरियत थी, भला किसकी माँ ने धोंसा खाया है कि उन्हें गुस्सा दिलए और अपना घर-बार लुटाए? बस सबका काफिया तंग था। सब तरह की आरजू-मिन्नत की गई, रोना-पीटना हुआ, गुस्सा-नाराजी कि बातें भी हुईं। पर बेकार। बारात विदा न होनी थी - न हुई।

न जाने कहाँ से घी-मैदा, चीनी आदि राशन के छकड़े रातों-रात लदे चले आते थे - दूध-दही, सब्जी-तरकारी, बकरे-मेढ़े, खस्सी, मुर्गी-मुर्गे, मछली दाना-चारा बेशुमार दिन-दिन आता जाता था। न जाने कहाँ से? लुत्फ यह है कि सब काम करते थे - शागिर्द पेशा लोग। नवाब मसनद पर बैठे खमीरी तमाखू पर कश लगाते और हुक्का गुड़गुड़ाते थे। प्रतिदिन शाम को वे हाथी पर चढ़कर जनवासे का चक्कर लगा आते थे - जो अब मीलों में फैल गया था।

दिन बीतते जाते थे, और इस अद्भुत बारात की चर्चा दूर-दूर तक फैलती जा रही थी। नवाब साहब महीनों से बारात विदा नहीं कर रहे हैं। पहरे बैठा रखे हैं। यह खबर सुन तथा शादी की महफिलें, दावतों और मौज-मजा की चर्चा सुन दूर-दूर से तमाशाई सैकड़ों की तादाद में मुज़फ्फरनगर आ रहे थे। पर जो आता उनका शुमार बाराती में ही किया जाता था़। वह खाए-पीए, मजा करे, पर वहाँ से जा नहीं सकता था। रहना बारात के साथ ही पड़ता था। इस प्रकार अब बारात भी दुगनी-तिगुनी हो गई थी।

…….

सरदार दोल्चासिंह बड़े जोड़-तोड़ के आदमी थे। वे सहारनपुर के राजा ही थे। जिस प्रकार रुहेलखण्ड के रुहेले सरदारों पर नवाब बब्बू खां का प्रभुत्व था, उसी प्रकार गूजरवाड़े के गूजरों पर सरदार दोल्चासिंह का था। मराठाशाही तक उनकी तूती बोलती थी। महाराजा जसवन्त राव होल्कर जैसे महापराक्रमी राजा सरदार दोल्चासिंह की सहायता पाने की आशा में सहारनपुर में महीनों पड़े रहे थे। हकीकत यह थी कि गूजरवाड़े के तीन लाख गूजरों के नेता - सरदार दोल्चासिंह थे। अफसोस है कि अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण ने गूजरवाड़े की शक्ति तोड़ डाली थी। उसके बाद गूजरों का संगठन बिगड़ता ही गया। अब सरदार दोल्चासिंह की यद्यपि वह पुरानी धाक नहीं रही थी, परन्तु गूजर उन्हें अपना राजा और जाति का प्रमुख मानते थे। जसवन्त राव होल्कर ने यही आशा की थी, कि यदि दोल्चासिंह गूजरों का संगठन कर उनका नेतृत्व करें, तो तीन लाख गूजरों की एक वीर-वाहिनी खड़ी हो सकती है जो उत्तर भारत में अंग्रेजी कम्पनी के उठते हए प्रभाव को चकनाचूर कर सकती है। होल्कर ने बहुत चेष्टा की, वे स्वयं इस वीर-वाहिनी का नेतृत्व करने को तैयार थे, पर अफ़सोस, गूजरों में न वह दमखम था, न जोशखरोश, न संगठन। वे अब नामी-गिरामी चोर बन चुके थे। यद्यपि वे जमींदार और किसान थे, पर उन्होंने मुख्य पेशा चोरी ही बनाया हुआ था। और उस अंधेरगर्दी के जमाने में यह काम बहुत लाभ का था। जोखिम इसमें कम थी। मजेदार बात तो यह थी कि छोटे बड़े राजा-नवाब जमींदार इनके द्वारा अपनी रियाया के घर चोरी कराते या डाके डलवाते और अपना हिस्सा चोरी के माल का लेते थे। मुज़फ्फरनगर के नवाब इकरामुल्ला खां तो चोरों के शहनशाह थे ही। अब सरदार दोल्चासिंह तो मर चुके थे - उनके पुत्र रनवीरसिंह चोरों के सरदार बने हुए थे। रियाया सरकश थी। लगान देती न थी। कम्पनी बहादुर की सरकार मालगुजारी न पाने पर राजा हो चाहे छोटा जमींदार, सबको जेल में ठूँस देती थी - तथा जमींदारी कुर्क करा लेती थी - परिणाम इसका यह हुआ - कि रनवीरसिंह ने चोरों का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। यद्यपि वे नवाब इकरामुल्ला खां के जोड़ के पुरुष तो न थे; पर गूजरों के सरदार मुखिया और राजा थे। अतः गूजरवाड़े के चोर सरदारों में इकरामुल्ला खां के बाद उन्हीं का नाम था।

कभी-कभी इन चोरों के सरदारों में भी नोंक-झोंक हो जाया करती थी। खासकर नवाब इकरामुल्ला खां और राजा रनवीरसिंह एक प्रकार के प्रतिद्वन्द्वी व्यक्ति थे। कभी-कभी एक ही शिकार पर दोनों के शागिर्द टूट पड़ते तो झगड़ा उठ खड़ा होता था। हाल ही में यह झगड़ा तूल पकड़ गया था और यही कारण था कि राजा रनवीरसिंह नवाब के यहाँ शादी में निमन्त्रण पाकर भी नहीं आए थे। नवाब भला यह हिमाकत कब बर्दाश्त कर सकते थे। परन्तु इस वक्त शादी की खटपट में वे राजा रनवीरसिंह को मुनासिब सजा न दे सके थे। फिर भी वे उनका न आना अपनी तौहीन समझते थे - और बदला लेने का इरादा पुख्ता कर चुके थे। अब उन्हें एक सुयोग हाथ लग गया। नागौरी बैलों की एक जोड़ी हाल ही में खरीदकर राजा रनवीरसिंह ने मँगाई थी, जिसकी सूचना नवाब को तुरन्त मिल गई। जोड़ी यकता थी। नवाब सानब को भला यह बात कहाँ पसन्द कि कोई उम्दा जानवर उनके अमल में दूसरे के पास हो। बस, राजा साहब के यहाँ यह जोड़ी दो सप्ताह भी न रहने पाई और खुलकर नवाब की पशुशाला में दाखिल हुई। राजा साहब की इस नायाब और अद्वितीय नागौरी बैलों की जोड़ को देखकर नवाब बहुत खुश हुए। खासकर इसलिए कि राजा ने शादी में न आने की जो हिमाकत की है, उसका एक आंशिक बदला मिल गया। अब उन्होंने इरादा किया कि इसी जोड़ी को रथ में जोड़कर उसी रथ में बैठाकर बेटी को विदा करूँगा।

अब बारात को मुज़फ्फरनगर में आए चौथा महीना बीत रहा था। नाच-रंग, महफिल, खेल-तमाशे और दावत सब बदस्तूर चल रहे थे। बारात गर्मियों में आई थी…. और अब नवाब साहब ने बारात के लिए रजाइयाँ सिलवाई थीं। पचास दर्जी रात-दिन रजाइयाँ और गर्म पोशाक बारातियों के लिए सी रहे थे। नवाब साहब के सामने बारादरी में रजाइयों के अम्बार लगे थे - सब तरह की रजाइयाँ थीं। रेशमी, सूती और छींट वाली। इकरंग और रंग-बिरंगी धुनियों की ताँत तन्नक तूं बोल रही थी। सैकड़ों रजाइयाँ तह पर तह रखी थी। तैयार रजाइयाँ बारातियों में बाँटी जा रही थीं, नई सिल-सिलकर आती जाती थीं। नवाब बहुत व्यस्त थे - कह रहे थे, “म्याँ, जल्दी करो; जल्दी। कोई बाराती ठण्ड में मर गया तो उस मर्दूद की तो खैर जान ही जाएगी, मगर मेरी किस कदर बदनामी होगी।”

यहाँ रजाइयों की यह धूमधाम हो रही थी कि राजा रनवीरसिंह हाथी पर सवार आ बरामद हुए। साथ में पचास सिपाही, प्यादे, सवार, खिदमतगार, मशालची, मुन्शी, गुमाश्ते।

नवाब को इत्तिला हुई, तो उठकर बहर आए और बिगड़कर कहा, “अब आपको यहाँ आने की फुर्सत मिली राजा साहब, वल्लाह, समझदार आप एक ही हैं। तौबा, तौबा, बारात को आए आज चार महीना हो गया, और आप हैं, कि अब आ रहे हैं। यह भी न सोचा कि चलकर देखूँ, काम में हाथ बटाऊँ। कुछ हेस-नेस हो गई तो गूजरवाड़े की नाक कट जाएगी। आप हैं गूजरों के राजा। कहिए, आपकी इज्जत का सवाल है या मेरी इज्जत का?”

राजा रनवीरसिंह ने कहा, “नवाब साहब, खता माफ हो, मैं इस वक्त बारात में नहीं आया हूँ, आपसे कुछ …..”

“क्या फर्माया आपने? बारात में नहीं आया हूँ? यह क्या फिकरा कहा? तौबा-तौबा!” नवाब साहब ने दोनों कान पकड़कर गालों पर तमाजे जड़े और कहा, “आप बारात में नहीं आए है - यही कहा न आपने? जी चाहता है कि खुदकुशी कर लूँ, या आप ही को गोली मार दूँ। यार राजा हैं, आप भी सोच लें। खैर, आइए - भीतर आइए।”

“आ तो अब गया ही हूँ। बड़ा पहरा बैठाया है आपने नवाब साहब, लेकिन मैं तो जानता था - बारात विदा कब की हो चुकी होगी। शादी तो गर्मियों में थी न? उस वक्त मैं बीमार था, न आ सका।”

“तो अब आए। खैर, तो बारात अभी विदा नहीं हुई है। गनीमत है सुबह का भूला शाम को घर लौट आया।”

“खैर, अब हुक्म हो तो मतलब की बात करूँ, जिसलिए मैं आया हूँ।”

“अर्ज़ कीजिए फुर्सत में। अभी डेरा तो आपको दे लूँ - अरे कोई है?” दो-चार शागिर्द दौड़े। नवाब ने राजा साहब के और उनके आदमियों के ठहरने का मुनासिब प्रबन्ध करने का उन्हें हुक्म दिया। फिर कहा, “अब कहिए!”

“क्या कहूँ, आप भी न जाने क्या समझेंगे सुनकर। इधर आप फँसे हैं शादी के हंगामे में।”

“तो म्याँ, मदद करो लिल्लाह तुम्हारी भी तो भतीजी है शबनम।”

“लेकिन सुनिए तो?”

“सुन रहा हूँ साहब, फर्माइए भी कुछ।”

“मैंने एक नागौरी बैलों की जोड़ी खरीदी थी। निहायत नायाब। अभी परसों वह खुल गई।”

“खुल गई? खैर सल्ला, बस यही बात थी?”

“जी हाँ!”

“तो भाई, अब बारात की खातिर-तवाजा में मेरा हाथ बँटाइए। बस तुम आ गए तो तसल्ली हो गई। अब जरा साँस लेने की फुर्सत मिलेगी।”

“लेकिन नवाब साहब, मेरी जोड़ी का क्या होगा?”

“कैसी जोड़ी?”

“नागौरी बैलों की, परसों ही खुल गई है।”

“अरे यार राजा साहब! तुम भी क्या बोदी बातें करते हो! खुल गई तो खुल जाने दो, मेरे यहाँ ग्यारह जोड़ी नागौरी बैलों की हैं, एक से बढ़कर एक। पसन्द कर लो, और जो पसन्द हो खोल ले जाओ।”

“तो हुक्म हो तो मैं जरा देख लूँ?”

“देख लो भाई, पूछना क्या है, मगर जाना होगा बारात विदा होने के बाद।”

“बारात कब विदा हो रही है?”

“अभी तो कुछ ऐसा इरादा नहीं है।”

“तो तब तक मुझे यहीं ठहरना पड़ेगा?”

“कमाल का सवाल है आपका, राजा साहब! एक तो आए ही अब, और तिस पर उखड़ी-उखड़ी बातें करते हो।”

“लेकिन नवाब साहब, मैं ठहर तो न सकूँगा।”

“लाहौल बलाकू, म्याँ राजा साहब, लड़ने का इरादा हो तो वह कहो।”

“नहीं, नवाब साहब, लेकिन मुझे और जरूरी काम है।”

“वे सब काम जब यहाँ से लौटें तब अंजाम दें।”

“लेकिन मैं लौटूँगा कब?”

“बारात विदा हो ले - उसके बाद।”

“आखिर बारात विदा कब होगी?”

“देखा जाएगा, अभी कोई इरादा नहीं है।”

“और मुझे भी तब तक रहना पड़ेगा?”

“यकीनन। और काम में मेरा हाथ बँटाना पड़ेगा। अकेला हूँ भाईजान, यह भी तो सोचो, इज्जत का मामला है। लड़की की शादी है। हँसी-खेल नहीं।”

नवाब की आँखों में पानी भर आया। राजा साहब को जवाब देते नहीं बना। वे चुपचाप नवाब की ओर ताकते देखते रह गए।

…….

राजा हो, रंक हो, डाकू हो, चोर हो, हिन्दू हो, मुसलमान हो, बेटी की विदाई सबकी आँखें तर कर देती है। बारात को आए जब पूरे छः महीने हो चुके थे, और आखिर नवाब इकरामुल्ला खां को बरात विदा करनी पड़ी। जो नवाब इकरामुल्ला बात-बात में शेर की तरह दहाड़ते थे, हाथी के समान जिनका शरीर था - आज वे बात-बात में हकला रहे थे। अपने ही हुक्म वे भूल जाते थे। एक बार कुछ कहते और दूसरी बार अपनी ही बात का काट कर देते थे। आँखें उनकी गीली हो रही थीं - आवाज गले में अटकती थी। वे चाहते थे - उनके दिल की यह हालत किसी पर प्रगट न हो। पर उन्हें जो देखता - वही जान जाता, कि यह एक बाप है, जिसकी बेटी आज विदा हो रही है।

और बारात विदा हुई। दहेज का सामान छकड़ों और बहलों में लदा। खाने-पीने की जिन्सें, मिठाइयाँ और पकवान बहलियों में चले। बाराती हाथियों, घोड़ों, रथों, फीनसों और पालकियों पर। यूसुफ मियाँ उसी सुरंग घोड़ी पर, और दुलहिन दुबर्जी रथ पर, जिसकी सारी सजावट लाल और साज सारा चाँदी का था। रथ में वही राजा रनवीरसिंह की नागौरी बैलों की जोड़ी जुती थी। राजा साहब खड़े टुकुर-टुकर देख रहे थे।