पल तो पल होता है! कब आता है और कब निकल जाता है पता ही नहीं चल पाता! फिर भी अनेक बार ऐसा होता है कि वही पल युग बन जाता है, बिताए नहीं बीतता। क्या समय की गति भी अलग-अलग समय में अलग-अलग होती है?
क्यों कभी समय पंख लगा कर उड़े चला जाता है और कभी काटे भी नहीं कट पाता?
उत्सव की रात को सभी अपने एक साथ होते हैं और घर में सायंकाल किसी की मृत्यु हो गई हो और रातभर उसकी लाश पड़ी हो तो भी सभी अपने एक साथ होते हैं किन्तु पहली रात अर्थात् उत्सव वाली रात के बीतने का पता भी नहीं चल पाता और दूसरी रात काटे नहीं कटती।
क्यों होता है ऐसा?
क्यों खुशी के दिनों के बीतने का पता भी नहीं चल पाता और क्यों दुःख के दिन पहाड़-से लगने लगते हैं?
ऐसा प्रतीत होता है कि महान वैज्ञानिक आइंसटाइन का विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धान्त (Special Theory of Relativity) समय पर भी लागू होता है। समय की गति हमारे मन की अवस्था के सापेक्ष होता है। हम सुखी होते हैं तो हमारे लिए समय की गति तेज होती है और जब हम दुखी होते हैं तो हमारे लिए हमारे लिए उसी समय की गति धीरे हो जाती है। इसीलिए रहीम कवि ने कहा हैः
रहिमन चुप ह्वै बैठिए देख दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहै देर॥
केवल धीर मनुष्य ही अपने मन की अवस्था पर नियन्त्रण रख सकता है और उसके लिए समय की गति सदैव एक समान होती है। इसीलिए हमारी संस्कृति हमें धीर बनने की शिक्षा देती है।
Thursday, October 28, 2010
Monday, October 25, 2010
शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन या धनार्जन?
आज अपने बच्चों को यदि आप अच्छी शिक्षा दिलवाना चाहते हैं तो आपको फीस, पुस्तकें आदि के लिए लाखों रुपये सालाना खर्च करना पड़ता है। विद्यालय और महाविद्यालय शिक्षा के केन्द्र न होकर शिक्षा की दूकानें बन कर रह गई हैं। जितनी महँगी दूकान में जाकर आप खरीदी करेंगे उतना ही अच्छा(?) माल आपको मिलेगा। माल याने कि शिक्षा। अब इतना रुपया खर्च करके शिक्षा प्राप्त करने वाला यदि अपनी शिक्षा के बदले में मोटी पगार वाली नौकरी की कामना करे या यदि उसने डॉक्टरी की शिक्षा ली है तो एक बहुत आलीशान मगर मँहगा अस्पताल, जहाँ से रोज इफरात कमाई हो, का मालिक बनना पसंद करे तो इसमें भला अस्वाभाविक क्या है? कई लाख रुपये खर्च करके इंजीनियर बनने वाला मोटे पगार के साथ ही ऊपर की कमाई ना करे तो इतना खर्च करके इंजीनियर बनने का क्या फायदा? इफरात रुपया लुटा कर डॉक्टर की डिग्री पाने वाला डॉक्टर यदि चिकित्सा के साथ ही अस्पताल को फाइव स्टार होटल बनाकर उससे कमाई ना करे तो डॉक्टर बनने के लिए इफरात रुपया लुटाने का क्या फायदा?
और यदि इफरात रुपया खर्च करने में आप समर्थ नहीं हैं तो आपकी सन्तान को अच्छी शिक्षा के अभाव में धनार्जन से वंचित रहना पड़ेगा। किन्तु उदरपूर्ति के लिए धन तो आवश्यक है इसलिए वे या तो हम्माली, आटो रिक्शा चलाना आदि जैसे कार्य करने लगेंगे या फिर अधिक से अधिक वे सरकारी दफ्तरों में स्टोर-कीपर, क्लर्क आदि जैसी छोटी-मोटी नौकरी करने लगेंगे।
आज यदि कोई कहे कि विद्या का मोल नहीं होता, यह एक अनमोल वस्तु है, तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरेगी। किन्तु हमारे देश में युगों यही मान्यता रही है कि विद्या धन अनमोल है। इसी कारण से हमारे देश में गुरु विद्या का दान किया करते थे, शिष्य को इतना ज्ञान होता था कि वह गुरु के द्वारा दिए गए विद्या का मोल चुका ही नहीं सकता इसीलिए वह गुरु के सम्मान प्रदर्शन के लिए गुरु-दक्षिणा देता था, फीस याने कि विद्या का दाम नहीं। प्राचीनकाल में नालन्दा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों और कालान्तर में वाराणसी जैसे शिक्षा केन्द्र के माध्यम से समस्त संसार को शिक्षित करने वाले भारतवर्ष का विश्व में मान इसीलिए था क्योंकि इस देश में विद्या खरीदने-बेचने की चीज न होकर दान में देने की वस्तु थी। हमारे यहाँ विद्या का व्यापार नहीं होता था। भारत की इसी विशेषता ने भारत को सम्पूर्ण विश्व में विद्या के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया था। अधिक नहीं मात्र चार सौ साल पहले अर्थात् सत्रहवी शताब्दी तक भारत शिक्षा के प्रचार में यूरोप के सभी देशों से आगे था और हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक था। हजारों की संख्या में ब्राह्मण शिक्षक अपने-अपने घरों में लाखों शिष्यों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया करते थे। समस्त भारत में जहाँ संस्कृत-साहित्य की शिक्षा के लिए विद्यापीठ थे वहीं साथ ही साथ उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए विद्यापीठ तथा मक़तब और मदरसे कायम थे। छोटे-छोटे गाँवों में भी ग्राम-पंचायतों के नियन्त्रण में पाठशालाएँ चला करती थीं। और उन दिनों आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी जाती थी, धन का महत्व उतना ही बताया जाता था जितना कि होना चाहिए। इसीलिए कहा गया थाः
साँईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय॥
इसी बात पर जोर दिया जाता था कि धनार्जन उतना ही आवश्यक है जितने की वास्तव में जरूरत है। आवश्यकता से अधिक धनार्जन को अनावश्यक माना जाता था।
किन्तु इन चार सौ वर्षों में ऐसा कुछ उलट-फेर हुआ कि इस देश की सन्तानों ने विदेशी भाषा और साहित्य के अध्ययन को अपनी भाषा और साहित्य के अध्ययन से अधिक महत्व देना शुरू कर दिया। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की एक अलग जमात बन गई जिन्हें अपने देशवासियों से सहानुभूति ही नहीं रही या रही भी तो बहुत कम। देश के प्राचीन गौरव, परम्परा, इतिहास आदि से उन्हें कुछ मतलब ही नहीं रहा। और इसका परिणाम यह है कि आज हम तथा हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते हैं।
परतन्त्र देश स्वतन्त्र तो हो गया किन्तु शिक्षा परतन्त्रता वाली ही रही। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी शिक्षा के क्षेत्र में हम परतन्त्र ही रहे। यही कारण है कि हम अन्य देशों की शिक्षा-पद्धति को अपने देश की शिक्षा-पद्धति से उत्तम मानते हैं। गुरु-शिष्य परम्परा तो बहुत पहले ही खत्म हो गई थी, बाद में गुरुकुल की परम्परा भी समाप्त हो गई। आज संसार को शिक्षा देने वाले भारत के लोगों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ता है। सिर्फ इतना ही नहीं, इस देश के पास अपनी मौलिक शिक्षा-नीति बनाने की सामर्थ्य ही नहीं रह गई है और यहाँ पर दूसरों की शिक्षा-नीति के आधार पर शिक्षा देना एक विवशता बन गई है। यही कारण है कि विद्या व्यापार की वस्तु बन चुकी है, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन न होकर धनार्जन हो चुका है। भले ही विद्या और चिकित्सा जैसी वस्तुओं को बेचना पड़े, मिथ्या-भाषण करना पड़े, भ्रष्टाचार करना पड़े या किसी का गला ही क्यों ना काटना पड़ जाए, धनार्जन होना ही चाहिए क्योंकि हमने धन कमाने के लिए शिक्षा प्राप्त की है और वह भी मुफ्त में नहीं बल्कि धन लुटाकर!
और यदि इफरात रुपया खर्च करने में आप समर्थ नहीं हैं तो आपकी सन्तान को अच्छी शिक्षा के अभाव में धनार्जन से वंचित रहना पड़ेगा। किन्तु उदरपूर्ति के लिए धन तो आवश्यक है इसलिए वे या तो हम्माली, आटो रिक्शा चलाना आदि जैसे कार्य करने लगेंगे या फिर अधिक से अधिक वे सरकारी दफ्तरों में स्टोर-कीपर, क्लर्क आदि जैसी छोटी-मोटी नौकरी करने लगेंगे।
आज यदि कोई कहे कि विद्या का मोल नहीं होता, यह एक अनमोल वस्तु है, तो यह बात गले से नीचे नहीं उतरेगी। किन्तु हमारे देश में युगों यही मान्यता रही है कि विद्या धन अनमोल है। इसी कारण से हमारे देश में गुरु विद्या का दान किया करते थे, शिष्य को इतना ज्ञान होता था कि वह गुरु के द्वारा दिए गए विद्या का मोल चुका ही नहीं सकता इसीलिए वह गुरु के सम्मान प्रदर्शन के लिए गुरु-दक्षिणा देता था, फीस याने कि विद्या का दाम नहीं। प्राचीनकाल में नालन्दा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों और कालान्तर में वाराणसी जैसे शिक्षा केन्द्र के माध्यम से समस्त संसार को शिक्षित करने वाले भारतवर्ष का विश्व में मान इसीलिए था क्योंकि इस देश में विद्या खरीदने-बेचने की चीज न होकर दान में देने की वस्तु थी। हमारे यहाँ विद्या का व्यापार नहीं होता था। भारत की इसी विशेषता ने भारत को सम्पूर्ण विश्व में विद्या के क्षेत्र में अग्रणी बना दिया था। अधिक नहीं मात्र चार सौ साल पहले अर्थात् सत्रहवी शताब्दी तक भारत शिक्षा के प्रचार में यूरोप के सभी देशों से आगे था और हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक था। हजारों की संख्या में ब्राह्मण शिक्षक अपने-अपने घरों में लाखों शिष्यों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया करते थे। समस्त भारत में जहाँ संस्कृत-साहित्य की शिक्षा के लिए विद्यापीठ थे वहीं साथ ही साथ उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए विद्यापीठ तथा मक़तब और मदरसे कायम थे। छोटे-छोटे गाँवों में भी ग्राम-पंचायतों के नियन्त्रण में पाठशालाएँ चला करती थीं। और उन दिनों आत्मनिर्भरता की शिक्षा दी जाती थी, धन का महत्व उतना ही बताया जाता था जितना कि होना चाहिए। इसीलिए कहा गया थाः
साँईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय॥
इसी बात पर जोर दिया जाता था कि धनार्जन उतना ही आवश्यक है जितने की वास्तव में जरूरत है। आवश्यकता से अधिक धनार्जन को अनावश्यक माना जाता था।
किन्तु इन चार सौ वर्षों में ऐसा कुछ उलट-फेर हुआ कि इस देश की सन्तानों ने विदेशी भाषा और साहित्य के अध्ययन को अपनी भाषा और साहित्य के अध्ययन से अधिक महत्व देना शुरू कर दिया। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की एक अलग जमात बन गई जिन्हें अपने देशवासियों से सहानुभूति ही नहीं रही या रही भी तो बहुत कम। देश के प्राचीन गौरव, परम्परा, इतिहास आदि से उन्हें कुछ मतलब ही नहीं रहा। और इसका परिणाम यह है कि आज हम तथा हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते हैं।
परतन्त्र देश स्वतन्त्र तो हो गया किन्तु शिक्षा परतन्त्रता वाली ही रही। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी शिक्षा के क्षेत्र में हम परतन्त्र ही रहे। यही कारण है कि हम अन्य देशों की शिक्षा-पद्धति को अपने देश की शिक्षा-पद्धति से उत्तम मानते हैं। गुरु-शिष्य परम्परा तो बहुत पहले ही खत्म हो गई थी, बाद में गुरुकुल की परम्परा भी समाप्त हो गई। आज संसार को शिक्षा देने वाले भारत के लोगों को उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाना पड़ता है। सिर्फ इतना ही नहीं, इस देश के पास अपनी मौलिक शिक्षा-नीति बनाने की सामर्थ्य ही नहीं रह गई है और यहाँ पर दूसरों की शिक्षा-नीति के आधार पर शिक्षा देना एक विवशता बन गई है। यही कारण है कि विद्या व्यापार की वस्तु बन चुकी है, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन न होकर धनार्जन हो चुका है। भले ही विद्या और चिकित्सा जैसी वस्तुओं को बेचना पड़े, मिथ्या-भाषण करना पड़े, भ्रष्टाचार करना पड़े या किसी का गला ही क्यों ना काटना पड़ जाए, धनार्जन होना ही चाहिए क्योंकि हमने धन कमाने के लिए शिक्षा प्राप्त की है और वह भी मुफ्त में नहीं बल्कि धन लुटाकर!
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