बड़े जोश और उत्साह के साथ लोग आ रहे हैं ब्लोगिंग के क्षेत्र में। जब कोई अपना ब्लोग बना लेता है उसे कुछ कुछ अन्तराल में अपडेट भी करना होता है जिसके लिये सामग्री (content) की जरूरत होती है याने कि पोस्ट लिखनी पड़ती है।
अंग्रेजी ब्लोगिंग में तो ये पोस्ट लिखना एक भारी समस्या बनकर रह गई है। विषय आधारित ब्लोग्स हैं वहाँ पर और प्रत्येक विषय में लाखों करोड़ों-पोस्ट पोस्ट पहले से ही लिखे जा चुके हैं। वहाँ का आलम तो यह है कि मशीनी लेखन किया जा रहा है। ऐसे ऐसे सॉफ्टवेयर्स बन गये हैं जो कि किसी भी अच्छे पोस्ट के आशय को ज्यों का त्यों रखते हुए उसकी भाषा को बदल देते हैं और पुराना लेख नया लगने लगता है। अंग्रेजी ब्लोग में कमाई होने के कारण लेख और बने बनाये ब्लोग्स की खरीदी-बिक्री हो रही है वहाँ पर। शायद आपको पता हो कि तीन डालर से लेकर पच्चीस डालर तक एक लेख की कीमत है वहाँ पर, लेख की जैसी गुणवत्ता, वैसी ही कीमत!
अस्तु, बात हो रही थी अपने ब्लोग को अपडेट करने की, प्रसंगवश बात जरा दूसरी दिशा में मुड़ गई थी। शुरू-शुरू में लगने लगता है कि रोज-रोज आखिर लिखने के लिये हमेशा कुछ नया कहाँ से लायें? किन्तु वास्तव में देखा जाये तो यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। आपका अध्ययन, आपका अनुभव और आपकी कल्पनाशीलता आपको पूरी-पूरी क्षमता प्रदान करती है लेखन की। बस एक बार लिखना शुरू कीजिये और देखिये कि कितना अच्छा लिख लेते हैं आप। गहन अध्ययन है आपका इसलिये लिखने के लिये विषय की कमी नहीं है आपके पास। आप बहुत सी ऐसी बातें जानते हैं जिन्हें शायद दूसरे लोग नहीं जानते। तो अपनी जानकारी को अपने पोस्ट के जरिये दूसरों तक पहुँचाइये ना! आपका ब्लोग अपडेट होता रहेगा और लोगों की जानकारी भी बढ़ती रहेगी। और फिर जितना अधिक आप लिखेंगे उतना ही अधिक आपका आत्मविश्वास भी बढ़ता चला जायेगा।
विश्वास मानिये कि अच्छे-अच्छे विषयों पर लिखे गये आपके पोस्ट हिन्दी को इंटरनेट के आकाश में एक नई ऊँचाई तक पहुचा देंगे।
Saturday, May 29, 2010
Friday, May 28, 2010
कुछ छुपा-छुपा सा कुछ झलक रहा सा ...
सौन्दर्य एक ऐसी अनुभूति है जिसका अनुभव प्रत्येक व्यक्ति करता है। जहाँ हम प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत होते हैं वहीं नारी का सौन्दर्य हमें सदा ही आकर्षित करता है। ईश्वर ने नारी को सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति ही बनाकर भेजा है। प्रेम, ममता, वात्सल्य और सौन्दर्य नारी के सहज गुण हैं।
बात सन् 1973-74 की है जब मेरी नौकरी लगी थी और मुझे पहली बार रायपुर छोड़कर नरसिंहपुर में जाकर रहना पड़ा था। मनोरंजन के लिये सिर्फ सिनेमा और रेडियो था। उन दिनों हम सभी फिल्म संगीत के दीवाने हुआ करते थे। संगीतकारों की भी अपनी अपनी स्टाइल थी जो कि उनकी अपनी पहचान हुआ करती थी। प्रायः सभी संगीतकार अपने संगीत में कहीं न कहीं किसी विशिष्ट वाद्ययंत्र का प्रयोग किया करते थे जैसे कि शंकर जयकिशन के संगीत में एकार्डियन और बाँसुरी का, रवि के संगीत में पियानो का, कल्याणजी आनन्दजी के संगीत में क्लार्नेट का, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में ढोलक का विशिष्ट प्रभाव हुआ करता था। गाने के आरम्भ होते ही समझ में आ जाता था कि संगीतकार कौन है।
हमारे साथ श्री व्ही.जी. वैद्य भी कार्य करते थे जिनसे हमारी मित्रता हो गई। वे थे मस्त-मौला आदमी और ओ.पी. नैयर के संगीत के दीवाने! (थे इसलिये लिख रहा हूँ कि कई सालों से उनसे सम्पर्क नहीं है)। आलम यह था कि रास्ता चलते यदि कहीं उन्हें कहीं पर भी नैयर जी का संगीत सुनाई पड़ गया तो वहीं पर रुक कर खड़े हो जाते थे, साथ ही जो कोई भी उनके साथ हो उन्हें भी रुक जाने के लिये मजबूर कर देते थे और तब तक वहाँ से न हिलते जब तक कि गाना पूरा न हो जाये।
एक दिन मैंने मित्र से पूछ ही लिया कि यार वैद्य, तुम्हें ओ.पी. नैयर का संगीत इनता प्रिय क्यों लगता है? प्रश्न सुनकर कुछ पल के लिये वह सोचता रहा फिर बोला कि वो क्या है अवधिया, अगर कोई महिला गहनों-कपड़ों से पूरी तरह से ढँकी हो तो उसका एक अलग सौन्दर्य होता है और कोई महिला बिल्कुल भी न ढँकी हो तो उसमें भी एक अलग सौन्दर्य होता है पर यदि कोई महिला कुछ-कुछ ढँकी हो हुई हो और कुछ-कुछ छुपी हुई हो तो उसका सौन्दर्य निराला होता है जो मन को एक अलग ही अनुभूति से भर देता है। मेरे लिये नैयर जी का संगीत तीसरे प्रकार का सौन्दर्य है इसीलिये मैं उनके संगीत का दीवाना हूँ।
(चित्र गूगल इमेजेस से साभार)
आप सोच रहे होंगे कि बुड्ढा शायद सनक गया है। हो सकता है कि मैं सनक ही गया होऊँ क्योंकि बुड्ढे प्रायः सनकी तो हो ही जाते हैं। हमेशा अतीत में जीने वाले होते हैं ये। आज सौन्दर्य की बात इसी लिये लिख रहा हूँ कि अतीत की कुछ बातें याद आ गईं। संगीत का भी अपना एक सौन्दर्य होता है और बात याद आ गई उसी संगीत के सौन्दर्य की।बात सन् 1973-74 की है जब मेरी नौकरी लगी थी और मुझे पहली बार रायपुर छोड़कर नरसिंहपुर में जाकर रहना पड़ा था। मनोरंजन के लिये सिर्फ सिनेमा और रेडियो था। उन दिनों हम सभी फिल्म संगीत के दीवाने हुआ करते थे। संगीतकारों की भी अपनी अपनी स्टाइल थी जो कि उनकी अपनी पहचान हुआ करती थी। प्रायः सभी संगीतकार अपने संगीत में कहीं न कहीं किसी विशिष्ट वाद्ययंत्र का प्रयोग किया करते थे जैसे कि शंकर जयकिशन के संगीत में एकार्डियन और बाँसुरी का, रवि के संगीत में पियानो का, कल्याणजी आनन्दजी के संगीत में क्लार्नेट का, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत में ढोलक का विशिष्ट प्रभाव हुआ करता था। गाने के आरम्भ होते ही समझ में आ जाता था कि संगीतकार कौन है।
हमारे साथ श्री व्ही.जी. वैद्य भी कार्य करते थे जिनसे हमारी मित्रता हो गई। वे थे मस्त-मौला आदमी और ओ.पी. नैयर के संगीत के दीवाने! (थे इसलिये लिख रहा हूँ कि कई सालों से उनसे सम्पर्क नहीं है)। आलम यह था कि रास्ता चलते यदि कहीं उन्हें कहीं पर भी नैयर जी का संगीत सुनाई पड़ गया तो वहीं पर रुक कर खड़े हो जाते थे, साथ ही जो कोई भी उनके साथ हो उन्हें भी रुक जाने के लिये मजबूर कर देते थे और तब तक वहाँ से न हिलते जब तक कि गाना पूरा न हो जाये।
एक दिन मैंने मित्र से पूछ ही लिया कि यार वैद्य, तुम्हें ओ.पी. नैयर का संगीत इनता प्रिय क्यों लगता है? प्रश्न सुनकर कुछ पल के लिये वह सोचता रहा फिर बोला कि वो क्या है अवधिया, अगर कोई महिला गहनों-कपड़ों से पूरी तरह से ढँकी हो तो उसका एक अलग सौन्दर्य होता है और कोई महिला बिल्कुल भी न ढँकी हो तो उसमें भी एक अलग सौन्दर्य होता है पर यदि कोई महिला कुछ-कुछ ढँकी हो हुई हो और कुछ-कुछ छुपी हुई हो तो उसका सौन्दर्य निराला होता है जो मन को एक अलग ही अनुभूति से भर देता है। मेरे लिये नैयर जी का संगीत तीसरे प्रकार का सौन्दर्य है इसीलिये मैं उनके संगीत का दीवाना हूँ।
Thursday, May 27, 2010
'ररुहा सपनाय दार-भात' याने कि दरिद्र को सपने में भी दाल-भात नजर आता है
दरिद्र व्यक्ति भरपेट भोजन करने की व्यवस्था नहीं कर पाता। या तो आधा पेट खाता है या फिर भूखा ही रह जाता है। नींद में भी उसके अचेतन में भूख ही बसी रहती है इसलिये उसको सपने में दाल-भात अर्थात् भोजन ही नजर आता है। इसीलिये छत्तीसगढ़ी में, जो कि मुहावरों के मामले में अत्यन्त सम्पन्न भाषा है, हाना मुहावरा है "ररुहा सपनाय दार-भात" छ्तीसगढ़ी में दरिद्र को ररुहा कहते हैं।
ये दरिद्र शब्द भी बड़ा विचित्र है! हम समझते हैं कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह दरिद्र है किन्तु देखा जाये तो जिसके पास सब कुछ होता है वे भी दरिद्र की श्रेणी में आ जाते हैं क्योंकि सब कुछ होते हुए भी कुछ और पाने की चाह उन्हें बनी ही रहती है। हमें याद है कि बचपन में हम सायकल चलाने के लिये तरसते थे, सोचा करते थे कि काश हमारे पास भी एक सायकल होता। आज हमने अपने बच्चों को मोटरसायकल दिला दिया है किन्तु फिर भी सन्तुष्ट नहीं हैं वे और कार के लिये तरसते रहते हैं। बचपन में हमारे घर में रेडियो ना होने की वजह से बिनाका गीतमाला सुनने के लिये प्रत्यके बुधवार को रात के आठ बजने से पहले "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" बनकर कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर पहुँच जाया करते थे। आज गाने मोबाइल से सुने जाते हैं और हमने अपने बच्चों को अपनी हैसियत के अनुसार अच्छे मोबाइल सेट्स दिला दिये हैं किन्तु उन्हें और भी मँहगा मोबाइल सेट्स चाहिये। स्पष्ट है कि कभी सायकल और रेडियो के मामले में दरिद्र थे हम और कार तथा मोबाइल के मामले में हमारे बच्चे दरिद्र हैं आज।
हर वह वस्तु जो हमारी पहुँच में नहीं होती हमें ललचाती है और जिस दिन हमारी हैसियत बढ़ जाती है और हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, उसी वस्तु की हमारी नजर में कुछ भी कीमत नहीं रह जाती तथा हम किसी अन्य वस्तु की लालसा करने लग जाते हैं जो कि हमसे समृद्ध लोगों के पास है किन्तु हमारे पास नहीं है।
जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता उनके लिये अच्छे भोजन का कितना महत्व होता है इसे वे ही समझ सकते हैं जो स्वयं कभी उस स्थिति से गुजर चुके हों। 'मानव मन के कुशल चितेरे' "प्रेमचंद" जी ने अपनी कहानी "कफ़न" में इस तथ्य को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। वे लिखते हैं:
सिर्फ वही व्यक्ति दरिद्रता से दूर रह सकता है जो अपनी हालत में सन्तुष्ट रहते हुए आगे बढ़ते रहने का उद्योग करता रहे। इसीलिये कहा गया है आयो रे सब सन्तोष धन बाबा सब धन धूल समान रे ....
ये दरिद्र शब्द भी बड़ा विचित्र है! हम समझते हैं कि जिसके पास कुछ भी नहीं है वह दरिद्र है किन्तु देखा जाये तो जिसके पास सब कुछ होता है वे भी दरिद्र की श्रेणी में आ जाते हैं क्योंकि सब कुछ होते हुए भी कुछ और पाने की चाह उन्हें बनी ही रहती है। हमें याद है कि बचपन में हम सायकल चलाने के लिये तरसते थे, सोचा करते थे कि काश हमारे पास भी एक सायकल होता। आज हमने अपने बच्चों को मोटरसायकल दिला दिया है किन्तु फिर भी सन्तुष्ट नहीं हैं वे और कार के लिये तरसते रहते हैं। बचपन में हमारे घर में रेडियो ना होने की वजह से बिनाका गीतमाला सुनने के लिये प्रत्यके बुधवार को रात के आठ बजने से पहले "मान ना मान मैं तेरा मेहमान" बनकर कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर पहुँच जाया करते थे। आज गाने मोबाइल से सुने जाते हैं और हमने अपने बच्चों को अपनी हैसियत के अनुसार अच्छे मोबाइल सेट्स दिला दिये हैं किन्तु उन्हें और भी मँहगा मोबाइल सेट्स चाहिये। स्पष्ट है कि कभी सायकल और रेडियो के मामले में दरिद्र थे हम और कार तथा मोबाइल के मामले में हमारे बच्चे दरिद्र हैं आज।
हर वह वस्तु जो हमारी पहुँच में नहीं होती हमें ललचाती है और जिस दिन हमारी हैसियत बढ़ जाती है और हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, उसी वस्तु की हमारी नजर में कुछ भी कीमत नहीं रह जाती तथा हम किसी अन्य वस्तु की लालसा करने लग जाते हैं जो कि हमसे समृद्ध लोगों के पास है किन्तु हमारे पास नहीं है।
जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता उनके लिये अच्छे भोजन का कितना महत्व होता है इसे वे ही समझ सकते हैं जो स्वयं कभी उस स्थिति से गुजर चुके हों। 'मानव मन के कुशल चितेरे' "प्रेमचंद" जी ने अपनी कहानी "कफ़न" में इस तथ्य को बहुत सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। वे लिखते हैं:
...दोनो आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नही खाया था। इतना सब्र ना था कि उन्हें ठण्डा हो जाने दे। कई बार दोनों की ज़बान जल गयी। छिल जाने पर आलू का बहरी हिस्सा बहुत ज़्यादा गरम ना मालूम होता, लेकिन दोनों दाँतों के तले पड़ते ही अन्दर का हिस्सा ज़बान, हलक और तालू जला देता था, और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा खैरियत तो इसी में थी कि वो अन्दर पहुंच जाये। वहाँ उसे ठण्डा करने के लिए काफी समान था। इसलिये दोनों जल्द-जल्द निगल जाते । हालांकि इस कोशिश में उन्ही आंखों से आँसू निकल आते ।पूरी कहानी आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
घीसू को उस वक़्त ठाकुर कि बरात याद आयी, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वो उसके जीवन में एक याद रखने लायक बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी।
बोला, “वह भोज नही भूलता। तबसे फिर उस तरह का खाना और भर पेट नही मिला। लड़कीवालों ने सबको भरपेट पूड़ियाँ खिलायी थी, सबको! छोटे-बड़े सबने पूड़ियाँ खायी और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोग में क्या स्वाद मिल, कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, मांगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पीया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गरम-गरम गोल-गोल सुवासित कचौड़ियां डाल देते हैं। मन करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल को हाथ से रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान इलाइची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी! खड़ा हुआ ना जाता था। झटपट अपने कम्बल पर जाकर लेट गया। ऐसा दिल दरियाव था वह ठाकुर!”
माधव नें पदार्थों का मन ही मन मज़ा लेते हुए कहा, “अब हमें कोई ऐसा भोजन नही खिलाता।”
“अब कोई क्या खिलायेगा। वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो। क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमं नही है। हाँ, खर्च में किफायती सूझती है।”
“तुमने बीस-एक पूड़ीयां खायी होंगी?”
“बीस से ज़्यादा खायी थी!”
“मैं पचास खा जाता!”
“पचास से कम मैंने भी ना खायी होगी। अच्छा पट्ठा था। तू तो मेरा आधा भी नही है ।” ...
सिर्फ वही व्यक्ति दरिद्रता से दूर रह सकता है जो अपनी हालत में सन्तुष्ट रहते हुए आगे बढ़ते रहने का उद्योग करता रहे। इसीलिये कहा गया है आयो रे सब सन्तोष धन बाबा सब धन धूल समान रे ....
Wednesday, May 26, 2010
एक कप चाय और ब्लोगवाणी के तलब ने भट्ठा बैठा दिया दिमाग का
आपने भी अनुभव किया होगा कि जब कभी भी परेशानी आती है केवल एक ही परेशानी नहीं आती बल्कि एक के बाद एक परेशानियाँ आती ही चली जाती हैं। कहावत भी है कि "विपत्ति कभी अकेली नहीं आती"। आज सुबह ही सुबह एक कप चाय और ब्लोगवाणी के तलब ने हमें ऐसा परेशान किया कि हमारी हालत खराब हो गई।
आदत के मुताबिक हम रोज सुबह छः बजे उठ जाते हैं और घर के लोगों के सुबह की मीठी नींद में खलल डालना उचित ना समझ कर अपने लिये स्वयं ही एक कप चाय बना लेते हैं। तो ब्रुश करने के बाद रोज की तरह चाय बनाने के लिये जब हम रसोईघर में आये तो देखा कि चाय बनाने के लिये बर्तन एक भी नहीं है। सारे बर्तन पड़े थे क्योंकि कल कामवाली बाई आई ही नहीं थी। दिमाग भन्ना गया हमारा। ये दिमाग का भन्ना जाना या झल्ला जाना ही सभी मुसीबतों की जड़ है। झल्लाहट में आदमी की बुद्धि सही तरीके से काम करना बंद कर देती है। इस झल्लाहट ने हमारी भी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया।
तो हम बता रहे थे कि सारे बर्तन जूठे पड़े थे पर हम कर ही क्या सकते थे। झखमारी एक गंजी को साफ किया और गैस चूल्हे में चाय के लिये दूध चढ़ा दिया। अब जो देखते हैं तो चायपत्ती खत्म है। दिमाग और ज्यादा भन्ना गया। चूल्हा बुझा कर चायपत्ती लेने निकल लिये किन्तु निकलते-निकलते कम्प्यूटर चालू करते गये ताकि हमारे आते तक वो अपने चालू होने की प्रक्रिया को पूरी कर ले। भाई "समय प्रबन्धन" भी तो आखिर कोई चीज है! मुहल्ले की दुकान से चायपत्ती लाकर हमने फिर से चूल्हे को जलाया और दूध में चायपत्ती और शक्कर डाल दिया।
यह सोचकर कि जब तक चाय उबलना शुरू हो क्यों ना ब्लोगवाणी खोल लिया जाये हम कम्प्यूटर रूम में आ गये। पर यह क्या? कम्प्यूटर में किसी भी आइकान को डबल क्लिक करने पर कुछ खुल ही नहीं रहा है। जो कुछ भी कर सकते थे सब कुछ कर के थक गये पर किसी भी प्रोग्राम नहीं खुलना था सो नहीं खुला। इतने में याद आया कि 'अरे हम तो चाय चढ़ा कर आये हैं'। रसोई में जाकर देखा तो उफन कर आधी चाय नीचे गिरी हुई थी और बची हुई चाय इतनी उबल चुकी थी कि काढ़ा बन गया था।
कप में चाय को छाना तो तो पता चला कि मात्र चौथाई कप से भी कम है। दिमाग का पारा एकदम ऊपर चढ़ गया और जी में आया कि फेंक दें इसको। किन्तु ईश्वर ने थोड़ी सी सद्बुद्धि दी और हम सोचने लगे कि यदि हम इसे फेंक देंगे तो फिर से चाय बनानी पड़ेगी इसलिये इतनी ही चाय पीकर काम चलाया जाये। सो उतनी ही चाय को लेकर हम फिर से कम्प्यूटर रूम में आये और चुस्की लगाने लगे।
चाय की चुस्की ने दिमाग को थोड़ा शान्त किया तो अचानक हमें नजर आया कि कम्प्यूटर के कीबोर्ड में 'आल्ट की' (ALT Key) तो भीतर ही धँसी हुई है याने कि दब कर अटक गई है। तुरन्त समझ में आ गया कि इस की के दबे रह जाने के कारण ही कोई भी प्रोग्राम खुल नहीं पा रहा है। थोड़ी सी कोशिश करने पर उसका स्प्रिंग काम करने लग गया और सामने ब्लोगवाणी हाजिर हो गई।
सारी झल्लाहट पल भर में काफ़ूर हो गई और हम सोचने लगे कि हम ही हैं जो दूसरों को सैकड़ों बार उपदेश देते रहते हैं कि झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखने का प्रयास करना चाहिये पर आज खुद पर गुजरी तो समझ में आया कि हम भी "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" ही हैं। वास्तव में झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखना बहुत ही मुश्किल काम है, सिर्फ स्वयं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति ही इस कार्य को कर सकता है।
पर परेशानियाँ कभी कभी फायदेमंद भी हो जाती हैं। अब देखिये ना, आज की परेशानियों नें इस पोस्ट को जन्म दे दिया।
आदत के मुताबिक हम रोज सुबह छः बजे उठ जाते हैं और घर के लोगों के सुबह की मीठी नींद में खलल डालना उचित ना समझ कर अपने लिये स्वयं ही एक कप चाय बना लेते हैं। तो ब्रुश करने के बाद रोज की तरह चाय बनाने के लिये जब हम रसोईघर में आये तो देखा कि चाय बनाने के लिये बर्तन एक भी नहीं है। सारे बर्तन पड़े थे क्योंकि कल कामवाली बाई आई ही नहीं थी। दिमाग भन्ना गया हमारा। ये दिमाग का भन्ना जाना या झल्ला जाना ही सभी मुसीबतों की जड़ है। झल्लाहट में आदमी की बुद्धि सही तरीके से काम करना बंद कर देती है। इस झल्लाहट ने हमारी भी बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया।
तो हम बता रहे थे कि सारे बर्तन जूठे पड़े थे पर हम कर ही क्या सकते थे। झखमारी एक गंजी को साफ किया और गैस चूल्हे में चाय के लिये दूध चढ़ा दिया। अब जो देखते हैं तो चायपत्ती खत्म है। दिमाग और ज्यादा भन्ना गया। चूल्हा बुझा कर चायपत्ती लेने निकल लिये किन्तु निकलते-निकलते कम्प्यूटर चालू करते गये ताकि हमारे आते तक वो अपने चालू होने की प्रक्रिया को पूरी कर ले। भाई "समय प्रबन्धन" भी तो आखिर कोई चीज है! मुहल्ले की दुकान से चायपत्ती लाकर हमने फिर से चूल्हे को जलाया और दूध में चायपत्ती और शक्कर डाल दिया।
यह सोचकर कि जब तक चाय उबलना शुरू हो क्यों ना ब्लोगवाणी खोल लिया जाये हम कम्प्यूटर रूम में आ गये। पर यह क्या? कम्प्यूटर में किसी भी आइकान को डबल क्लिक करने पर कुछ खुल ही नहीं रहा है। जो कुछ भी कर सकते थे सब कुछ कर के थक गये पर किसी भी प्रोग्राम नहीं खुलना था सो नहीं खुला। इतने में याद आया कि 'अरे हम तो चाय चढ़ा कर आये हैं'। रसोई में जाकर देखा तो उफन कर आधी चाय नीचे गिरी हुई थी और बची हुई चाय इतनी उबल चुकी थी कि काढ़ा बन गया था।
कप में चाय को छाना तो तो पता चला कि मात्र चौथाई कप से भी कम है। दिमाग का पारा एकदम ऊपर चढ़ गया और जी में आया कि फेंक दें इसको। किन्तु ईश्वर ने थोड़ी सी सद्बुद्धि दी और हम सोचने लगे कि यदि हम इसे फेंक देंगे तो फिर से चाय बनानी पड़ेगी इसलिये इतनी ही चाय पीकर काम चलाया जाये। सो उतनी ही चाय को लेकर हम फिर से कम्प्यूटर रूम में आये और चुस्की लगाने लगे।
चाय की चुस्की ने दिमाग को थोड़ा शान्त किया तो अचानक हमें नजर आया कि कम्प्यूटर के कीबोर्ड में 'आल्ट की' (ALT Key) तो भीतर ही धँसी हुई है याने कि दब कर अटक गई है। तुरन्त समझ में आ गया कि इस की के दबे रह जाने के कारण ही कोई भी प्रोग्राम खुल नहीं पा रहा है। थोड़ी सी कोशिश करने पर उसका स्प्रिंग काम करने लग गया और सामने ब्लोगवाणी हाजिर हो गई।
सारी झल्लाहट पल भर में काफ़ूर हो गई और हम सोचने लगे कि हम ही हैं जो दूसरों को सैकड़ों बार उपदेश देते रहते हैं कि झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखने का प्रयास करना चाहिये पर आज खुद पर गुजरी तो समझ में आया कि हम भी "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" ही हैं। वास्तव में झल्लाहट के समय दिमाग को शान्त रखना बहुत ही मुश्किल काम है, सिर्फ स्वयं पर पूर्ण नियन्त्रण रखने वाला व्यक्ति ही इस कार्य को कर सकता है।
पर परेशानियाँ कभी कभी फायदेमंद भी हो जाती हैं। अब देखिये ना, आज की परेशानियों नें इस पोस्ट को जन्म दे दिया।
Monday, May 24, 2010
हिन्दी ब्लोगरों के दो, और केवल दो, प्रकार होते हैं - एक महान ब्लोगर दूसरा क्षुद्र ब्लोगर
हिन्दी ब्लोगिंग में हम लगभग तीन साल से हैं और इस दौरान हमने जो कुछ भी देखा, पढ़ा और अनुभव किया उससे सिर्फ यही निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी ब्लोगरों के दो, और केवल दो, प्रकार होते हैं - एक महान ब्लोगर दूसरा क्षुद्र ब्लोगर।
महान ब्लोगर वे होते हैं जो हिन्दी ब्लोगिंग के उद्देश्य एवं लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहते हैं और यह तो आप जानते ही हैं कि हिन्दी ब्लोगिंग का उद्देश्य न तो रुपया कमाना है, न अपने मातृभाषा की सेवा करना और नेट में उसे बढ़ावा देना है और ना ही पाठकों को उसके पसन्द की जानकारी ही देना है क्योंकि रुपया की हमें कुछ विशेष जरूरत ही नहीं है, हम आगे बढ़ेंगे तो हिन्दी अपने आप ही आगे बढ़ जायेगी (आखिर हिन्दी हम से है भाई, हम हिन्दी से नहीं) और पाठकों के पसन्द से हमें कुछ लेना देना ही नहीं है। हिन्दी ब्लोगिंग का तो उद्देश्य है महान ब्लोगर बनकर अन्य ब्लोगरों से सर्वाधिक टिप्पणी प्राप्त करना। अतः सफल ब्लोगर वे ही होते हैं जिन्हें सर्वाधिक टिप्पणी प्राप्त होती है।
एक जमाना था जब कि जिसमें मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य सफल होता था तो वह मनुष्य महान हो जाता था। बाबू देवकीनन्दन खत्री की कृति "चन्द्रकान्ता" ऐसी लोकप्रिय हुई कि उसे पढ़ने के लिये लाखों लोगों को हिन्दी सीखनी पड़ी और खत्री जी इतिहासपुरुष हो गये। प्रेमचन्द जी की कहानियों और उपन्यासों ने पाठकों के हृदय में घर कर लेने में ऐसी सफलता पाईं कि प्रेमचन्द महान हो गये, "कथा सम्राट" तथा "उपन्यास सम्राट" के नाम से विख्यात हो गये। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ने "उसने कहा था" लिखते समय सोचा भी न रहा होगा कि उनकी इस कहानी का अनुवाद संसार के समस्त प्रमुख भाषाओं में हो जायेगा और वे महानता की सीमा को छूने लगेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि उस जमाने में व्यक्ति का कार्य व्यक्ति को महान बनाता था।
पर आज का जमाना ऐसा है कि महान व्यक्ति के द्वारा किया गया हर कार्य सफल माना जाता है याने कि महान व्यक्ति कार्य को सफल बनाता है। इसीलिये आज के जमाने में आदमी को पहले महान बनना पड़ता है। यही कारण है महान ब्लोगर जो कुछ भी लिख देता है वह हमेशा सफल ही होता है और उसे सर्वाधिक टिप्पणियाँ मिलती ही हैं। इसलिये आजकर सफल पोस्ट लिखने के बजाय महान ब्लोगर बनने के लिये उद्योग करना ही उचित है।
महान ब्लोगर वे होते हैं जो हिन्दी ब्लोगिंग के उद्देश्य एवं लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल रहते हैं और यह तो आप जानते ही हैं कि हिन्दी ब्लोगिंग का उद्देश्य न तो रुपया कमाना है, न अपने मातृभाषा की सेवा करना और नेट में उसे बढ़ावा देना है और ना ही पाठकों को उसके पसन्द की जानकारी ही देना है क्योंकि रुपया की हमें कुछ विशेष जरूरत ही नहीं है, हम आगे बढ़ेंगे तो हिन्दी अपने आप ही आगे बढ़ जायेगी (आखिर हिन्दी हम से है भाई, हम हिन्दी से नहीं) और पाठकों के पसन्द से हमें कुछ लेना देना ही नहीं है। हिन्दी ब्लोगिंग का तो उद्देश्य है महान ब्लोगर बनकर अन्य ब्लोगरों से सर्वाधिक टिप्पणी प्राप्त करना। अतः सफल ब्लोगर वे ही होते हैं जिन्हें सर्वाधिक टिप्पणी प्राप्त होती है।
एक जमाना था जब कि जिसमें मनुष्य के द्वारा किया गया कार्य सफल होता था तो वह मनुष्य महान हो जाता था। बाबू देवकीनन्दन खत्री की कृति "चन्द्रकान्ता" ऐसी लोकप्रिय हुई कि उसे पढ़ने के लिये लाखों लोगों को हिन्दी सीखनी पड़ी और खत्री जी इतिहासपुरुष हो गये। प्रेमचन्द जी की कहानियों और उपन्यासों ने पाठकों के हृदय में घर कर लेने में ऐसी सफलता पाईं कि प्रेमचन्द महान हो गये, "कथा सम्राट" तथा "उपन्यास सम्राट" के नाम से विख्यात हो गये। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी ने "उसने कहा था" लिखते समय सोचा भी न रहा होगा कि उनकी इस कहानी का अनुवाद संसार के समस्त प्रमुख भाषाओं में हो जायेगा और वे महानता की सीमा को छूने लगेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि उस जमाने में व्यक्ति का कार्य व्यक्ति को महान बनाता था।
पर आज का जमाना ऐसा है कि महान व्यक्ति के द्वारा किया गया हर कार्य सफल माना जाता है याने कि महान व्यक्ति कार्य को सफल बनाता है। इसीलिये आज के जमाने में आदमी को पहले महान बनना पड़ता है। यही कारण है महान ब्लोगर जो कुछ भी लिख देता है वह हमेशा सफल ही होता है और उसे सर्वाधिक टिप्पणियाँ मिलती ही हैं। इसलिये आजकर सफल पोस्ट लिखने के बजाय महान ब्लोगर बनने के लिये उद्योग करना ही उचित है।
सावधान! कहीं धोखे मे आकर अपना यूजरनेम और पासवर्ड किसी को ना दे दीजियेगा
अभी ज्योंहीं मैने अपना जीमेल खोला तो एक मेल पर नजर पड़ी जो इस प्रकार से हैः
हमेशा याद रखें कि कोई भी मेल सेवा प्रदान करने वाली ख्यातिप्राप्त संस्था कभी भी आपसे आपका यूजरनेम और पासवर्ड की जानकारी नहीं नहीं माँगती।
Your Gmail Addressयह मेल किसी बदनीयत आदमी या संस्था की ओर से भेजा गया है जो लोगों के यूजरनेम और पासवर्ड चुराना चाहता है वो भी "चोरी और सीनाजोरी" के तौर पर। मैं समझता हूँ कि ऐसा मेल उसने सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि बहुत सारे लोगों को भेजा होगा। हो सकता है कि आपको भी यह मेल मिला हो। अतः मैं आपको सावधान कर देना चाहता हूँ कि भूल कर भी माँगी गई जानकारी न दें।
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Sunday, May 23, 2010
बैंड बाजा से दिल्ली ब्लोगर्स मिलन से क्या सम्बन्ध? ... आखिर कितनी टिप्पणियाँ मिटायें हम?
कल के हमारे पोस्ट का विषय था बैंड बाजा। लोगों ने उसे पढ़ा भी और और उस पर अपनी राय भी व्यक्त किया। बहुत अच्छा लगा हमें, आखिर हम भी जाने माने नहीं तो कम से कम एक तुच्छ ब्लोगर ही हैं जो अपने पोस्ट में टिप्पणियाँ पा कर फूला नहीं समाता। किन्तु उनमें दो टिप्पणियाँ दिल्ली ब्लोगर्स मिलन के सम्बन्ध में थीं। बहुत सोचने विचारने के बाद भी हमारी अल्पबुद्धि यह समझ ही नहीं पाई कि आखिर बैंड बाजा से दिल्ली ब्लोगर्स मिलन से सम्बन्ध ही क्या है? हमें लगा कि वे टिप्पणियाँ हमारे टाट रूपी पोस्ट में मखमल रूपी पैबंद हैं। अब मखमल और टाट का मेल तो अच्छा लग ही नहीं सकता ना? इसीलिये तो मुहावरा बनाया गया है "मखमल में टाट का पैबंद"। और फिर यहाँ तो बात ही उलटी थी याने कि यहाँ पर "टाट में मखमल का पैबंद" था।
हमें लगा कि ये दोनों टिप्पणियाँ तो हमारे "क्या आपको याद है कि पिछली बार कब सुना था आपने बैंड बाजा?" का ही बैंड बाजा बजा दे रही हैं। अतः विवश होकर हमें वे दोनों टिप्पणियाँ मिटानी पड़ीं। हाँ टिप्पणीकर्ता की भावनाओं को ध्यान में रखकर हमने अपने उसी पोस्ट में अपनी यह टिप्पणी भी कर दीः
अन्ततः हम यही कहना चाहते हैं कि ऐसी टिप्पणियों को मिटाना एक विवशता हो जाती है। किन्तु टिप्पणी मिटाने के लिये भी कुछ ना कुछ समय तो बर्बाद होता ही है ना? तो आखिर कितनी टिप्पणियाँ मिटायें हम?
हमें लगा कि ये दोनों टिप्पणियाँ तो हमारे "क्या आपको याद है कि पिछली बार कब सुना था आपने बैंड बाजा?" का ही बैंड बाजा बजा दे रही हैं। अतः विवश होकर हमें वे दोनों टिप्पणियाँ मिटानी पड़ीं। हाँ टिप्पणीकर्ता की भावनाओं को ध्यान में रखकर हमने अपने उसी पोस्ट में अपनी यह टिप्पणी भी कर दीः
कुमार जलजला जी,मित्रों, ऐसा नहीं है कि कुमार जलजला, जो कि किसी का छद्मनाम है, ही ऐसी टिप्पणी करते हैं बल्कि और भी बहुत से लोग भी ऐसा करते हैं। मेरे साथ बहुत बार ऐसा हुआ है कि मेरे पोस्ट का विषय कुछ और होता है और उसमें टिप्पणियाँ किसी ऐसे विषय पर आती हैं जिनका मेरे पोस्ट के विषय से दूर-दराज का भी सम्बन्ध नहीं होता। ऐसी टिप्पणियों को पढ़कर क्या आपको नहीं लगता कि लोग पोस्ट को पढ़े बिना ही कुछ भी टिप्पणी कर देते हैं? लोग ऐसा क्यों करते हैं यह समझ के बाहर की बात है। पुरानी कहावत है "अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग" पर आज तो लगता है कि अपना राग अलापने के लिये अपनी ढपली की भी आवश्यकता नहीं रही है, दूसरे की ढपली पर ही अपना राग अलाप दो याने कि किसी के ब्लोग पर जा कर कुछ भी अनर्गल टिप्पणी कर दो।
आपने मेरे पोस्ट पर दो दो बार टिप्पणियाँ की जिसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ किन्तु आपकी दोनों टिप्पणियों का इस पोस्ट के विषय से कुछ भी सम्बन्ध ना होने के कारण विवश होकर मैं इन्हें मिटा रहा हूँ जिसके लिये मुझे खेद है।
अन्ततः हम यही कहना चाहते हैं कि ऐसी टिप्पणियों को मिटाना एक विवशता हो जाती है। किन्तु टिप्पणी मिटाने के लिये भी कुछ ना कुछ समय तो बर्बाद होता ही है ना? तो आखिर कितनी टिप्पणियाँ मिटायें हम?
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