Saturday, September 11, 2010

इस वर्ष गणेश चतुर्थी और ईद एक ही दिन मनाया जा रहा है हो सकता है कि किसी वर्ष होली और ईद एक ही दिन मनाया जाये

सबसे पहले तो आप सभी को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ और ईद मुबारक!



आज का दिन एक विशेष दिन है क्योंकि आज गणेश चतुर्थी और ईद एक साथ मनाए जा रहे हैं। हिन्दू भाई भी खुश और मुसलमान भाई भी खुश! यह भी हो सकता है कि किसी वर्ष होली और ईद एक ही दिन मनाया जाये! जी हाँ, मैं गलत नहीं कह रहा हूँ, अवश्य ही ऐसा हो सकता है। अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा कैसे और क्यों होता है?

दरअसल यह समय की गणना का एक रोचक खेल है। आप यह तो जानते ही हैं कि समय की गणना पंचांग अर्थात् कैलेंडर के द्वारा की जाती है। पंचांग में समय की गणना मुख्यतः दो आधारों पर होती हैं - या तो सूर्य की गति के आधार पर या फिर चन्द्र की गति के आधार पर। हिन्दू और हिजरी कैलेंडरों में समय की गणना चन्द्रमा की गति के आधार पर होती है जबकि ग्रैगेरियन अर्थात अंग्रेजी कैलेंडर में समय की गणना सूर्य की गति के आधार पर होती है। सूर्य की गति के आधार पर समय की गणना करने पर एक साल में दिनों की कुल संख्या लगभग 365.25 होती है जबकि चन्द्र की गति से समय की गणना करने पर साल में दिनों की कुल संख्या घट कर लगभग 354.37 ही रह जाती है इस प्रकार से चन्द्र वर्ष सूर्य वर्ष से लगभग 10.88 कम दिनों का होता है। मोटे तौर पर कहें तो जूलियन अर्थात अंग्रेजी वर्ष में हिन्दू और हिजरी वर्षों से लगभग 10 अधिक दिन होते हैं। इस प्रकार से प्रत्येक हिन्दू और मुस्लिम त्यौहार प्रति वर्ष 10 दिन पीछे होते चले जाते हैं। तीन वर्ष में लगभग 30 दिन कम हो जाने पर हिन्दू पंचांग में तो एक अधिक मास जोड़ दिया जाता है और प्रत्येक हिन्दू त्यौहार पुनः एक माह आगे बढ़ जाते हैं किन्तु हिजरी पंचांग में मुस्लिम त्यौहार निरन्तर रूप से हर साल 10 दिन पीछे ही होते चले जाते हैं। इसी कारण से ईद का त्यौहार कभी किसी हिन्दू त्यौहार के साथ मिल जाता है तो कभी किसी अन्य हिन्दू त्यौहार के साथ। बहरहाल यह एक अच्छी बात ही है कि हिन्दू और मुसलमान एक साथ मिल कर एक ही दिन अपने-अपने त्यौहार मनाकर खुश होते हैं।

प्रति वर्ष ईद के लगभग दस दिन पीछे हो जाने के कारण एक और भी रोचक बात होती है वह है एक ही अंग्रेजी साल में दो बार ईद का मनाया जाना, एक बार जनवरी माह में और दूसरी बार दिसम्बर माह में! ऐसा सन् 2000 में हुआ था जब माह रमज़ान की ईद 8 जनवरी और अगली ईद 28 दिसम्बर को पड़ी थी। है ना यह एक मजेदार बात! सन् 2000 के बाद लगभग 35-36 बीत जाने पर फिर से ईद एक ही अंग्रेजी साल में दो बार मनाया जाएगा!

चलते-चलते

कल भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि थी जिसे कि हरतालिका तीज कहा जाता है। हरतालिका तीज को छत्तीसगढ़ में "तीजा" के नाम से जाना जाता है और यह इस क्षेत्र की महिलाओं के लिए एक विशिष्ट दिन होता है। समस्त महिलाएँ, चाहे वे कुमारी हों या विवाहित, आज निर्जला व्रत रख कर रात्रि जागरण और गौरी-शंकर की पूजा करेंगी। व्रत-पूजा करके जहाँ विवाहित महिलाएँ अपने लिये अखंड सौभाग्य की कामना करती हैं वहीं कुमारियों का उद्देश्य होता है स्वयं के लिये योग्य वर की प्राप्ति। मान्यता है कि आज के दिन ही शिव-पार्वती का विवाह हुआ था।

छत्तीसगढ़ में तीजा व्रत की अत्यधिक मान्यता है। इस व्रत को मायके में ही आकर रखा जाता है। यदि किसी कारणवश मायके आना नहीं हो पाता तो भी व्रत तोड़ने के लिये मायके से जल और फलाहार का आना आवश्यक होता है क्योंकि इस व्रत को मायके के ही जल पीकर तोड़ा जाता है।

महिलाएँ रात भर जागरण करके भजन-पूजन करती हैं और भोर होने के बाद अपना व्रत तोड़ती हैं।

Friday, September 10, 2010

अन्धे को अंधेरे में बड़े दूर की सूझी

एक मित्र महोदय अक्सर हमारे पास आ धमकते हैं और जो थोड़ा बहुत दिमाग नाम की चीज हमारे पास बची हुई है (पता नहीं बची भी है या नहीं पर हमें तो खुशफहमी है कि बची हुई है) उसे बेतहाशा चाटने लगते हैं। उनसे निजात पाने के लिए हमने सोचा कि क्यों न इन्हें ब्लोगर बना दिया जाए! 'अन्धा बगुला कीचड़ खाय' के जैसे हमारी बात मानकर यदि ये ब्लोगिंग में लग गए तो फिर तो हमें छुट्टी ही मिल जाएगी इनसे; बस एक बार टिप्पणियों का चसका लग भर जाए बच्चू को, हमारे पास आना ही भूल जाएगा!

सो हमने उनसे कहा, "यार, तुम ब्लोगिंग क्यों शुरू नहीं कर देते? बहुत मजेदार चीज है ये ब्लोगिंग!"

"ब्लोगिंग में भला क्या मजा है?"

"येल्लो, तुम्हें ये भी नहीं मालूम कि ब्लोगिंग में क्या मजा है? याने कि 'अन्धा क्या जाने बसन्त बहार'! एक बार ब्लोगिंग शुरू तो करके देखो गुरू! खुद ही पता चल जाएगा कि ब्लोगिंग में कितना मजा है।"

"तुम्हें भी यार 'अन्धे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी' जैसे जोरदार बातें सूझती रहती हैं। हम और ब्लोगर! हा हा हा हा! ब्लोगर बन कर हम लिखेंगे क्या भाई? लिखना तो हमें आता ही नहीं। हमारे ब्लोगर बन जाने का मतलब तो होगा 'आँख के अन्धे नाम देखो तो नैनसुख'! ना भाई ना, हम नहीं बनने वाले ब्लोगर-स्लोगर,  हमें तो बस फेसबुक और आर्कुट ही मजेदार लगता है।"

उनका जवाब सुनकर हमें लगा कि हम 'अन्धे के आगे रोवे अपनी आँखे खोवे' जैसे अपना समय तो बर्बाद नहीं कर रहे हैं। पर यह सोचकर कि शायद 'अन्धे के हाथ बटेर' लग जाए, हमने उन्हें और उचकाना शुरू किया, "अरे लिखने में क्या धरा है? स्कूल में तुमने गाय पर निबन्ध तो लिखा था कि नहीं? बस यहाँ भी वैसा ही कुछ लिख दिया करना। ब्लॉग में कुछ भी लिखो सब चलता है क्योंकि ब्लॉग तो एक निजी डायरी है जिसे लोग सार्वजनिक करना चाहते हैं और निजी डायरी में तो आदमी कुछ भी लिख सकता है ना? 'घरवाली ने समोसे कुरकुरे बनाए थे... चटनी में मिर्ची तेज थी... खाते समय बड़ा मजा आया पर दूसरे दिन भुगतना पड़ा' जैसा कुछ भी लिख सकते हो। वास्तविक जीवन में अन्धे को अन्धा कहने से बुरा लग जाता है पर ब्लोगिंग में तो तुम 'आँख वाले को भी अन्धा बनाना' जैसा काम कर सकते हो हो। बस इतने से ही समझ लो कि हमारे जैसा 'अक्ल का अन्धा' भी ब्लोगिंग के क्षेत्र में 'अन्धों में काना राजा' बना हुआ है और 'अन्धा पीसे कुत्ता खाय' जैसा काम किए जा रहा है।"

"पर निजी को निजी इसलिए कहते हैं कि वह सार्वजनिक करने की चीज नहीं होती और तुम कहते हो कि लोग निजी डायरी को सार्वजनिक करना चाहते हैं। भला ये क्या बात हुई?"

"यही तो गुरू ब्लोगिंग है! इसमें सब कुछ गोल-गोल गोल होता है। निजी चीज सार्वजनिक होती है और सार्वजनिक बातें निजी हो जाती हैं! यही तो मजा है ब्लोगिंग का! बस तुम तो पोस्ट लिख दो। पहली टिप्पणी हमारी ही होगी तुम्हारे पोस्ट में।"

"मैं पोस्ट लिखूँ और तुम टिप्पणी करो। हा हा हा हा! 'अन्धे अन्धा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत'!"

"पर मेरे पोस्ट में तुम टिप्पणी क्यों करोगे?"

"इसलिए कि बाद में मेरे पोस्ट पर तुम टिप्पणी करोगे। ये ब्लोगिंग तो टिप्पणियों का ही खेल है गुरू! तुम मुझे टिप्पणी दो, मैं तुम्हें टिप्पणी दूँ, तुम मुझे प्रोत्साहित करो, मैं तुम्हें प्रोत्साहित करूँ। और फिर टिप्पणियाँ कोई पोस्ट पढ़कर थोड़े ही दी जाती हैं, टिप्पणियाँ तो अपनों को ही दी जाती हैं।"

"याने कि 'अन्धा बाँटे रेवड़ी अपने-अपने को देय'!"

"आगे चल कर देखना प्यारे कि ब्लोगिंग में हमारी तुम्हारी जोड़ी खूब आगे निकलेगी।"

"याने कि 'अन्धा सिपाही कानी घोड़ी,विधि ने खूब मिलाई जोड़ी'!"

"यार तुम शुरू तो करो ब्लोगिंग एक बार, धूम मचा दोगे धूम!

"ठीक है दोस्त, तुम कहते हो तो चलो मैं भी ब्लोगर बन जाता हूँ।"

उनके इस प्रकार से हामी भरने से हम बहुत खुश हुए, 'अन्धा क्या चाहे, दो आँखें'!

Thursday, September 9, 2010

हमारे लिए यही बहुत है कि हम ब्लोगिंग में टिके हुए हैं

हिन्दी ब्लोगिंग में टिके रहना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है, बहुत बड़ी बात है यह! इसीलिए यह सोचकर हम खुश होते हैं कि हमारे लिए यही बहुत है कि हम ब्लोगिंग में टिके हुए हैं। 03 सितम्बर 2007 को हमने अपना ब्लोग "धान के देश में" बनाया था। तब से आज तक लगभग सवा छः सौ पोस्ट लिख चुके हैं। वैसे हमें अच्छी तरह से मालूम है कि उनमें से अधिकतर बकवास ही हैं और यदि उन्हें किसी स्तर के पत्र/पत्रिका में छपने के लिए भेजा जाए तो उनका स्थान रद्दी की टोकरी में ही होगा। अब इससे अच्छी बात क्या होगी कि हमारे पोस्ट रद्दी की टोकरी में न होकर हमारे ब्लोग की शोभा बढ़ा रहे हैं। यह अलग बात है कि नेट में आने वाले करोड़ों हिन्दीभाषियों में शायद ही उन्हें पढ़ने आता हो। पर यह क्या कम है कि उनमें से अनेक पोस्टों को उनके प्रकाशित होने के चौबीस घंटों में बहुत से ब्लोगरों ने पढ़ा और टिप्पणी के रूप में दाद भी दी।

विदेशियों का तो शुरू से ही व्यपार की ओर अधिक झुकाव रहा है; इसीलिए अंग्रेजी ब्लोगिंग में प्रायः ब्लोगिंग के द्वारा होने वाली आय का ध्यान रखा जाता है। शायद विदेशी ब्लोगरों का मानना है कि 'नाम मिलने से धन मिले या न मिले किन्तु धन मिलने से नाम अपने आप ही मिल जाता है'। धन प्राप्त होता है व्यापार से, व्यापार होता है ग्राहकों से और ग्राहक होते हैं उनके ब्लोग के पाठकगण जो कि लाखों करोड़ों की संख्या में होते हैं। वे ग्राहक ब्लोग के माध्यम से खरीदी करते हैं और ब्लोगर महोदय स्वयं का या अन्य लोगों का सामान बेचकर कमाई करता है। पाठक आते हैं स्तर की सामग्री पढ़ने के लिए, सो उन्होंने "कांटेंट इज़ किंग" को मूलमंत्र मान लिया है। पर हम भारतीय हैं, हमारी प्रवृति व्यापार की नहीं है। हम तो नाम होने से ही खुश होते हैं, नाम होता है अच्छा ब्लोगर बनने से और अच्छा ब्लोगर वह होता है जिसे खूब सारी टिप्पणियाँ मिले। हमारे लिए "कांटेंट इज़ किंग" का कुछ भी मतलब नहीं है, हमें तो "टिप्पणी महारानी" से ही मतलब होता है।

गूगल भी एक व्यापारी है और उसने शायद यही सोचकर हिन्दी ब्लोगिंग के लिए मुफ्त में सबडोमेन और होस्टिंग देना शुरू कर दिया कि हिन्दी ब्लोगिंग से भी व्यापार होगा और उसकी कमाई होने लगेगी। पर ऐसा अभी तक तो नहीं हो पाया है फिर भी गूगल आस लगाए बैठा है कि शायद कुछ समय के बाद ऐसा होना शुरू हो जाए। इसी आस में वह हिन्दी ब्लोगिंग के फ्री होस्टिंग के लिए बेशुमार धन खर्च किए जा रहा है इन्वेस्टमेंट के रूप में। यदि इतना धन इन्वेस्ट करने के बावजूद भी उसकी कमाई होनी शुरू नहीं हुई तो शायद वह आगे और इन्वेस्ट करना बंद कर दे। खैर यदि वह ब्लोगिंग की मुफ्त सुविधा देना बंद कर देगा तो हमारा क्या बिगड़ेगा, हम भी ब्लोगिंग बंद कर के "पुनर्मूष भव मूष" वाली कहावत को चरितार्थ कर लेंगे। लेकिन हमने भी ठान लिया है कि जब तक गूगल यह सुविधा हमें देता रहेगा तब तक तो हम ब्लोगिंग में बने ही रहेंगे।

Wednesday, September 8, 2010

संसार में रुपया ही सबसे बड़ा नहीं है किन्तु

ऐसा नहीं है कि संसार में रुपया ही सबसे बड़ा है, रुपये से बढ़ कर एक से एक मूल्यवान वस्तुएँ हैं जैसे कि विद्या, शिक्षा, ज्ञान, योग्यता आदि, किन्तु मुश्किल यह है कि इन सभी वस्तुओं को केवल रुपये अदा करके ही प्राप्त किया जा सकता है। आज के जमाने में हर चीज बिकाऊ हैं, पानी तक तो बिकने लगा है फिर शिक्षा हो या चिकित्सा की बात ही क्या है।

यदि आपके पास रुपया नहीं है तो क्या आप अपने औलाद को, उच्च शिक्षा तो दूर, साधारण शिक्षा ही दिलवा सकते हैं? मैं उन दिनों के मुंबई, कलकत्ता जैसे महानगरों की बात तो नहीं करता किन्तु हमारे समय कम से कम रायपुर में तो लोग के.जी., पी.पी. क्या होता है नहीं जानते थे और न ही म्युनिसिपालटी के स्कूलों अलावा अन्य खर्चीले प्रायवेट स्कूल हुआ करते थे। पिताजी हमें म्युनिसिपालटी के स्कूल में ले गये थे जहाँ हमें अपने सीधे हाथ को सिर पर से घुमा कर उलटे कान को छूने के लिये कहा गया (ऐसा माना जाता था कि छः वर्ष की उम्र हो जाने पर हाथों की लंबाई इतनी हो जाती है कि हाथ को सिर पर से घुमाते हुये दूसरी ओर के कान को छूआ जा सकता है, छः वर्ष से कम उम्र में नहीं) और हम भर्ती हो गये थे पहली कक्षा में। कपड़े की एक थैली में एक बाल-भारती पुस्तिका और स्लेट पेंसिल, यही था हमारा बस्ता। आज यदि आप किसी तरह से अपने बच्चे को किसी स्कूल में भर्ती करा भी लें तो उसके बस्ते का खर्च उठाते उठाते ही बेदम हो जायेंगे और बच्चा उसका बोझ उठाते उठाते।

उन दिनों प्रायमरी स्कूल में पढ़ने के लिये कोई फीस नहीं पटानी पड़ती थी। मिडिल स्कूल के लिये आठ आना और हाई स्कूल के लिये भी कुछ ऐसा ही मामूली सा फीस पटाना होता था। चिकित्सा के लिये बड़े बड़े अस्पताल न हो कर गिनी चुनी डिस्पेंसरियाँ ही थीं किन्तु उनके मालिक डॉक्टर की फीस नियत नहीं थी, जहाँ पैसे वालों से अधिक फीस ले लेते थे वहीं गरीबों का मुफ्त इलाज भी कर दिया करते थे। आज आप गरीब हैं या अमीर, इससे डॉक्टर को कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी नियत फीस आपको देना ही होगा।

सोचता हूँ कि पचास सालों में जमाना कहां से कहाँ पहुँच गया। सब कुछ बदल चुका है। अधिक वय के लोगों को अतीत की यादें बहुत प्रिय होती हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ इसीलिये आज मेरे विचार भी अतीत में भटकने लग गये थे।

पुराने लोगों को सदैव ही अतीत अच्छा और वर्तमान बहुत बुरा प्रतीत होते रहा है और नये लोगों को पुराने लोग पुराने लोग दकियानूस। खैर यह मानव प्रकृति है। क्या शिक्षा और चिकित्सा का व्यापार उचित है? क्या इन पर सभी का समान अधिकार नहीं होना चाहिये चाहे वह अमीर हो या गरीब?

Monday, September 6, 2010

खुशी

भारत में आज मुम्बई, कोलकाता, दिल्ली जैसे विशाल महानगर हैं जिनमें देश भर के पढ़े-लिखे लोग आजीविका के चक्कर में आकर निवास करते हैं; छोटे-छोटे मगर आलीशान फ्लैटों में रहते हैं जिनमें न तो आँगन ही होता है और न ही अतिथि के लिए स्थान। सुबह नौ-दस बजे वे टिड्डीदलों की भाँति दफ्तर की तरफ निकल पड़ते दिखाई दिया करते हैं। पापी पेट के लिए लाखों-करोड़ों स्त्री-पुरुष गाँव-देहातों को छोड़कर महानगरों में आ बसे हैं। इन महानगरों में बड़े-बड़े मिल और कल कारखाने हैं जिनमें लाखों मजदूर एक साथ मजदूरी करके पेट पालते हैं और गन्दी बस्तियों में, मुर्गे-मुर्गियों के दड़बों की भाँति, झोपड़पट्टियों में रहते हैं।

और सभी खुश हैं!

एक समय वह भी था जब भारत में लोग गाँव-देहातों-कस्बों में रह कर खेती करते या घर पर अपने-अपने हजारों धन्धे करते थे। छोटे से छोटा गाँव भी उन दिनों अपनी हर जरूरत के लिए आत्मनिर्भर हुआ करता था। प्रत्येक आदमी बहुत कम खर्च में सीधे-सादे ढंग से मजे में रहता था। अपना मालिक आप! अपने आप में सम्पूर्ण आत्मनिर्भर! परिश्रम, सादा जीवन और आत्मनिर्भरता उनके स्वभाव के अंग थे क्योंकि उनके बगैर एक क्षण भी काम नहीं चल सकता था। स्थानीय शासकों मसलन मालगुजारों, जमींदारों आदि की स्वेच्छाचारिता से तंग भी होते थे और उनकी दयाशीलता से निहाल भी।

और सभी भी खुश थे!

Sunday, September 5, 2010

आत्म निर्भर होना बेहतर है कि नौकरी कर के नौकर बनना?

आटोरिक्शा में बैठा तो देखा कि आटोचालक तो अपना परिचित सुखदेव है जो कि पेट्रोल पंप में काम किया करता था। पूछने पर उसने बताया कि पेट्रोल पंप की नौकरी से उसे मालिक ने निकाल दिया तो उसने आटो चलाना शुरू कर दिया। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा था कि वह अब पहले से ज्यादा खुश है क्योंकि जितनी अधिक मेहनत करता है उसी के हिसाब से कमाई भी होती है, नौकरी में तो सिर्फ बँधी-बँधाई तनख्वाह ही मिलती थी और साथ में मालिक की घुड़की भी।

नौकरी करने का अर्थ होता है किसी का नौकर बन जाना। चाहे कोई कितना भी बड़ा अफसर क्यों ना हो, उसके ऊपर हुक्म चलाने वाला कोई ना कोई बड़ा अफसर अवश्य ही होता है। नौकरी करने वाले को भले ही बड़े से बड़ा पद मिल जाए पर वह अपना मालिक आप कभी बन ही नहीं सकता।

किन्तु विडम्बना यह है कि आज शिक्षा का उद्देश्य ही नौकरी पाना बन कर रह गया है। हर कोई चाहता है कि उसे बड़ी से बड़ी नौकरी मिले। भले ही नौकरी मिल जाने के बाद याने कि नौकर बन जाने के बाद उसे प्रतिदिन बारह से पन्द्रह घंटों तक पिसना ही क्यों ना पड़े, अपने से ऊपर वाले अफसर का घर के नौकर से भी बदतर व्यहार सहन करना पड़े, तीज-त्यौहार, जन्मदिन तथा अन्य पारिवारिक खुशियों के अवसर पर भी परिवार से दूर रहना पड़े, हुक्म होने पर आधी रात को नींद से जागकर भी दफ्तर दौड़ना पड़े।

क्यों कमाते हैं हम? अपने परिजनों की खुशी के लिए ही ना! किन्तु नौकरी कर के हम धन तो कमा सकते हैं पर क्या अपने बीबी-बच्चों को क्या वह खुशी दे सकते हैं जसके कि वे हकदार हैं? बेटे का जन्मदिन है, वह पापा का बेसब्री से इन्तजार कर रहा है पर पापा को आज ही प्रोजेक्ट पूरा कर के देना है वरना नौकरी छूट जाने का डर है। मजबूर है वह इसलिए अपने बच्चे के जन्मदिन में उपस्थित नहीं रह सकता।

आज हमें नौकर बनना पसन्द है और आत्मनिर्भरता की तो हमारे दिमाग में कल्पना तक भी  नहीं आ पाती। हमारी ऐसी सोच हमारी शिक्षा की देन है हमें। हमारी सरकार की शिक्षानीति ही यही है कि वह राष्ट्र में नौकर तैयार करे, ऐसे नौकर जिनका उद्देश्य मात्र रुपया कमाना हो चाहे उसके लिए उसे अपना स्वाभिमान भी खोना पड़े। यह शिक्षा हमें स्वार्थ सिखाती है, ऐसे लोगों का निर्माण करती है जो अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र को भी बेच देने के लिए तत्पर हो जाएँ।

कभी हमारे बुजुर्ग हमसे कहा करते थेः

उत्तम खेती मध्यम बान।
निषिद चाकरी भीख निदान।।

अर्थात् कृषिकार्य सर्वोत्तम कार्य है और व्यापार मध्यम, नौकरी करना निषिद्ध है क्योंकि यह निकृष्ट कार्य है और भीख माँगना सबसे बुरा कार्य है।

पर आज की शिक्षा नीति ने उपरोक्त कथन की कुछ भी कीमत नहीं रहने दिया है। क्या ऐसी शिक्षानीति जारी रहनी चाहिए या इसमे परिवर्तन की जरूरत है? क्या एक ऐसी शिक्षानीति की आवश्यकता नहीं है जो हमें आत्मनिर्भरता की ओर ले जाये, हममें राष्ट्रीय भावना पैदा करे, हमें अपनी सभ्यता, संस्कृति और गौरव का सम्मान करना सिखाए?