Saturday, December 19, 2009

जब हम हर्बल सिगरेट पीते थे ... कुछ यादें बचपन की ...

हर्बल सिगरेट! याने कि कद्दू की सूखी हुई बेल का टुकड़ा जिसे सिगरेट की तरह जला कर हम धूम्रपान का मजा लिया करते थे बचपन में। बहुत मजा आता था मुँह और नाक से धुआँ निकालने में। दस-बारह साल उमर थी तब हमारी याने कि ये बात लगभग 48-50 साल पुरानी है। सूखे हुए चरौटे के पौधों को उखाड़ कर उसका "भुर्री जलाना" याने कि अलाव जलाना और "भुर्री तापना" याने कि आग तापना! कद्दू की सूखी हुई लंबी बेल तोड़ कर लाना और हम सभी बच्चों के द्वारा "भुर्री तापते" हुए उस बेल के टुकड़ों वाला सिगरेट पीना।

ऐसा नहीं है कि कोई साइकियाट्रिस्ट ही किसी आदमी को उसके उम्र के पीछे ले जा सके। कभी-कभी आदमी खुद ही अपनी उम्र के पीछे चला जाता है तो कभी प्रकृति, वातावरण, विशेष दृश्य आदि उसे अपनी उम्र के पीछे ले जाते हैं। आज सुबह रायपुर में बहुत ज्यादा कुहासा था। कई साल बाद ऐसा कुहासा देखने को मिला रायपुर में। आठ दस फुट की दूरी की चीज नहीं दिखाई पड़ रही थी। साँस छोड़ते थे तो भाप निकलता था और मुँह खोलते थे तो भाप निकलता था। छत में पहुँचे तो लगा कि बादलों के बीच में आ गये हैं। ऐसा लग रहा था मानो हम मैदानी इलाके में न होकर किसी हिल स्टेशन में पहुँच गये हों।

बस इस दृश्य ने हमें अपनी उम्र के पीछे धकेलना शुरू कर दिया। याद आया कि कुछ समय पहले हम मसूरी गये थे तो ऐसे भी बादलों के बीच घिरे थे। फिर और दस बारह साल पहले चले गये हम जब बद्रीनाथ जाते समय जोशीमठ में कुहासे से घिर गये थे। जोशीमठ में तो लगता था कि हमारे ऊपर बादल हैं, हम बादलों के बीच में हैं और हमारे नीचे घाटी में भी बादल है।

फिर पीछे जाते-जाते अपने बचपन तक पहुँच गये हम। क्या ठंड पड़ती थी उन दिनों रायपुर में हर साल। अब तो हमारे यहाँ ठंड पड़ती ही नहीं। आदमियों और इमारतों का जंगल बन कर रह गया है अब रायपुर। तो ठंड कैसे पड़ेगी? बचपन में कहाँ थीं इतनी सारी इमारतें? घर से एकाध मील दूर निकलते ही खेतों का सिलसिला शुरू हो जाता था। खेतों में तिवरा और अलसी लहलहाते थे और मेढ़ों में अरहर लगे होते थे ठंड के दिनों में। तिवरा उखाड़ लाया करते थे खेतों से और उसे कभी कच्चा तो कभी जलते "भुर्री" में डाल कर "होर्रा" बना कर खाते थे।

मन को कितना मोहता है यह ठंड का मौसम! गरम कपड़ों से लिपटे, आग तापते हुए, आपस में गप शप करना, धूप सेंकना आदि कितना अच्छा लगता है। वसन्त ऋतु की अपनी अलग मादकता है तो शरद् और हेमन्त ऋतुओं का अपना अलग सुख है। श्री रामचन्द्र जी की भी प्रिय ऋतु रही है यह हेमन्त ऋतु! तभी तो आदिकवि श्री वाल्मीकि लिखते हैं:

सरिता के तट पर पहुँचने पर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की सबसे प्रिय ऋतु रही है। वे तट पर घड़े को रख कर बोले, "भैया! यह वही हेमन्त काल है जो आपको सर्वाधिक प्रिय रही है। आप इस ऋतु को वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब शीत अपने चरमावस्था में पहुँच चुकी है। सूर्य की किरणों का स्पर्श प्रिय लगने लगा है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। गोरस की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन हो जाने के कारण उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। अग्नि की उष्मा प्रिय लगने लगा है। रात्रियाँ हिम जैसी शीतल हो गई हैं। जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति चमक रहे हैं। ओस के जल से भीगी हुई रेत पैरों को घायल कर रही है। ...

आप लोगो को भी जरूर ही अच्छा लगता होगा यह ठंड का मौसम!

Friday, December 18, 2009

कामदेव याने कि सेक्स के देवता ... भस्म हो जाने पर भी वे प्राणियों को क्यों प्रभावित करते हैं?

कामदेव याने कि सेक्स के देवता ...

उनके प्रभाव से भला कोई बचा है?

तुलसीदास जी लिखते हैं:

सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री-विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।
यह कथा रामचरितमानस बालकाण्ड से

सती जी के देहत्याग के पश्चात् जब शिव जी तपस्या में लीन हो गये थे उसी समय तारक नाम का एक असुर हुआ। उसने अपने भुजबल, प्रताप और तेज से समस्त लोकों और लोकपालों पर विजय प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप सभी देवता सुख और सम्पत्ति से वंचित हो गये। सभी प्रकार से निराश देवतागण ब्रह्मा जी के पास सहायता के लिये पहुँचे। ब्रह्मा जी ने उन सभी को बताया, "इस दैत्य की मृत्यु केवल शिव जी के वीर्य से उत्पन्न पुत्र के हाथों ही हो सकती है। किन्तु सती जी के देह त्याग के बाद शिव जी विरक्त हो कर तपस्या में लीन हो गये हैं। सती जी ने हिमाचल के घर पार्वती जी के रूप में पुनः जन्म ले लिया है। अतः शिव जी के पार्वती से विवाह के लिये उनकी तपस्या को भंग करना आवश्यक है। तुम लोग कामदेव को शिव जी के पास भेज कर उनकी तपस्या भंग करवाओ फिर उसके बाद हम उन्हें पार्वती जी से विवाह के लिये राजी कर लेंगे।"

ब्रह्मा जी के कहे अनुसार देवताओं ने कामदेव से शिव जी की तपस्या भंग करने का अनुरोध किया। इस पर कामदेव ने कहा, "यद्यपि शिव जी से विरोध कर के मेरा कुशल नहीं होगा तथापि मैं आप लोगों का कार्य सिद्ध करूँगा।"

इतना कहकर कामदेव पुष्प के धनुष से सुसज्जित होकर वसन्तादि अपने सहायकों के साथ वहाँ पहुँच गये जहाँ पर शिव जी तपस्या कर रहे थे। वहाँ पर पहुँच कर उन्होंने अपना ऐसा प्रभाव दिखाया कि वेदों की सारी मर्यादा मिट गई। कामदेव की सेना से भयभीत होकर ब्रह्मचर्य, नियम, संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य आदि, जो विवेक की सेना कहलाते हैं, भाग कर कन्दराओं में जा छिपे। सम्पूर्ण जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश में हो गये। वृक्षों की डालियाँ लताओं की और झुकने लगीं, नदियाँ उमड़-उमड़ कर समुद्र की ओर दौड़ने लगीं। आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरण करने वाले समस्त पशु-पक्षी सब कुछ भुला कर केवल काम के वश हो गये। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महायोगी भी काम के वश होकर योगरहित और स्त्री विरही हो गये। मनुष्यों की तो बात ही क्या कहें, पुरुषों को संसार स्त्रीमय और स्त्रियों को पुरुषमय प्रतीत होने लगा।

जी हाँ, गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं:

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थलचारी। भए कामबस समय बिसारी॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

धरी न काहूँ धीर सबके मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥

किन्तु कामदेव के इस कौतुक का शिव जी पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। इससे कामदेव भी भयभीत हो गये किन्तु अपने कार्य को पूर्ण किये बिना वापस लौटने में उन्हें संकोच हो रहा था इसलिये उन्होंने तत्काल अपने सहायक ऋतुराज वसन्त को प्रकट कर किया। वृक्ष पुष्पों से सुशोभित हो गये, वन-उपवन, बावली-तालाब आदि परम सुहावने हो गये, शीतल-मंद-सुगन्धित पवन चलने लगा, सरोवर कमल पुष्पों से परिपूरित हो गये, पुष्पों पर भ्रमर गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे, अप्सराएँ नृत्य एवं गान करने लगीं।

इस पर भी जब तपस्यारत शिव जी का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तो क्रोधित कामदेव ने आम्रवृक्ष की डाली पर चढ़कर अपने पाँचों तीक्ष्ण पुष्प-बाणों को छोड़ दिया जो कि शिव जी के हृदय में जाकर लगे। उनकी समाधि टूट गई जिससे उन्हें अत्यन्त क्षोभ हुआ। आम्रवृक्ष की डाली पर कामदेव को देख कर क्रोधित हो उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोल दिया और देखते ही देखते कामदेव भस्म हो गये।

कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही रुदन करते हुए शिव जी पास आई। उसके विलाप से द्रवित हो कर शिव जी ने कहा, "हे रति! विलाप मत कर। जब पृथ्वी के भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्री कृष्ण अवतार होगा तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा और तुझे पुनः प्राप्त होगा। तब तक वह बिना शरीर के ही इस संसार में व्याप्त होता रहेगा। अंगहीन हो जाने के कारण लोग अब कामदेव को अनंग के नाम से भी जानेंगे।"

इसके बाद ब्रह्मा जी सहित समस्त देवताओं ने शिव जी के पास आकर उनसे पार्वती जी से विवाह कर लेने के लिये प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।

Thursday, December 17, 2009

मुझे टिप्पणी मिले ना मिले, मेरे पोस्ट की चर्चा हो ना हो, पर मुझे तो पाठक चाहिये

टिप्पणियों और चर्चाओं की उतनी चाह नहीं है मुझे जितनी चाह पाठक मिलने की है। टिप्पणियाँ मिल जाये तो बहुत अच्छी बात है, न भी मिले तो भी कोई बात नहीं। मेरे पोस्ट की चर्चा हो जाये तो खुशी होती है मुझे पर न हो तो कोई गम नहीं होता।

पर मैं लिखूँ और पढ़ने वाला न मिले तो बहुत दुःख होता है। बस पाठकों की चाहत रखता हूँ मैं। आखिर वह लिखना भी किस काम का जिसे कोई पढ़ने ना आये?

अपने ब्लोगर बन्धुओं को मैं पाठक नहीं बल्कि अपना स्वजन और हितचिन्तक समझता हूँ इसलिए मैं उन्हें अपने पाठकों की श्रेणी में नहीं रखता। वे लोग तो आयेंगे ही मुझे पढ़ने के लिये। और एग्रीगेटर्स से आये ट्रैफिक को भी मैं ट्रैफिक नहीं समझता क्योंकि एग्रीगेटर्स का इस्तेमाल अधिकतर हम ब्लोगर्स ही करते हैं, इन्टरनेट में आने वाले आम लोग नहीं।

अपने ब्लोग लेखन को मैं तभी सफल मानूँगा जब पाठक खोज कर मेरे ब्लोग में आयेंगे। और मुझे पूरा विश्वास है कि बहुत जल्दी ही वह दिन आयेगा।

मेरे पास अपने इस विश्वास का कारण भी है। कुछ अस्थाई कारणों से मैं अपने संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण को पिछले कई रोज से अपडेट नहीं कर पा रहा हूँ किन्तु स्टेट काउंटर बता रहा है कि उसमें पाठकगण रोज आ रहे हैं और उसे खोज कर ही आ रहे हैं।



गूगल के "है बातों में दम" प्रतियोगिता में मेरे लेखों को इस सप्ताह 430 लोगों ने पढ़ा। इससे पता चलता है कि हिन्दी में पाठकों की कमी नहीं है, जरूरत है तो सिर्फ उन्हें उनकी पसंद की जानकारी देने की।

Wednesday, December 16, 2009

रोज खाते हो खाना ... पर कैसे सीखा मनुष्य ने खाना पकाना?


स्वादिष्ट खाना भला किसे अच्छा नहीं लगता? किन्तु क्या कभी आपने सोचा है कि स्वादिष्ट खाना पकाने के लिये भूनने, उबालने, तलने आदि विधियों का विकास मनुष्य ने कैसे किया होगा। यह सोचकर मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि आखिर गेहूँ को पीस कर आटा बनाना, गूँथना, तवे में सेंकना और फिर सीधी आँच में उसे फुला कर रोटी बनाना आखिर मनुष्य ने सीखा कैसे होगा? यही जानने के लिये जब मैंने नेट को खँगाला तो मुझे निम्न जानकारी मिलीः

खाना पकाने का आरम्भ कब और कैसे हुआ यह आज तक अस्पष्ट है। ऐसा समझा जाता है कि प्रगैतिहासिक काल में किसी जंगल में आग लग गई होगी जिसके कारण से आदिम मानव को पहली बार जानवर के भुने हुए मांस खाने का अवसर मिल गया होगा। उसे वह भुना हुआ मांस स्वादिष्ट होने के साथ ही साथ चबाने में आसान भी लगा होगा। अपने इस अनुभव से ही मानव को पका कर खाने का ज्ञान हुआ होगा।

माना जाता है कि ईसा पूर्व 9000 में मैक्सिको और मध्य अमेरिका के अर्धचन्द्राकार क्षेत्र, जिसे मेसोमेरिकन (Mesoamerican) से जाना जाता है, की उपजाऊ जमीन में पौधों की रोपाई करके खेती करने का कार्य शुरू हुआ। इस प्रकार से अन्न के साथ ही साथ लौकी, कद्दू, तुरई, मिर्च आदि की खेती का आरम्भ हुआ।

ईसा पूर्व 4,000 मिश्रवासियों ने खमीर उठाना भी सीख लिया। प्याज, मूली और लहसुन भी इन विशाल पिरामिड बनाने वाले मिश्रवासियों के मुख्य आहार में शामिल थे। उनका खाना तीखा और खुशबूदार किन्तु कम वसायुक्त हुआ करता था।

ईसा पूर्व 3,000 में मेसापोटोमिया (Mesapotomia) के किसानों ने शलजम, प्याज, सेम, मटर, मसूर, मूली और शायद लहसुन के भी फसल उगाने शुरू कर दिया था। शायद इस समय तक उन्होंने बतख पालन भी शुरू कर दिया था।

इसी काल में चीनी सम्राट; सुंग लूंग स्ज़े (Sung Loong Sze) ने वनस्पतियों के औषधीय गुणों की भी खोज कर ली थी।

ईसा पूर्व 1,000 का समय रोमन साम्राज्य में खाने के विकास के लिए एक सक्रिय काल था। इस अवधि के दौरान तीव्रता के साथ कृषि क्रांति हुई और भोजन में अनाज का प्रयोग अधिक होने लगा। लोग खेती-बारी के प्रति अधिक निष्ठावान होत गये। यह राष्ट्रवाद की ओर पहला कदम था।

ऐसा विश्वास किया जाता है कि ईसा पूर्व 2,000 में फारस में अनार की उत्पत्ति होने लगी। अनार की खाल का प्रयोग ऊन डाई करने के लिये किया जाने लगा। अनार में कई बीज होने के कारण इसे कई प्राचीन संस्कृतियों में उर्वरता का प्रतीक माना जाने लगा।

ईसा पूर्व 500 में भारत में गन्ने और केले की खेती शुरू हो गई। दक्षिणी मैक्सिको और मध्य अमेरिका में मायान भारतीयों (Mayan Indians) ने रुचिरा (Avocados) पैदा करना शुरू कर दिया। उस अत्यंत विकसित सभ्यता में इस उष्णकटिबंधीय फल के कई गुणों की अत्यन्त सराहना की जाती थी।

ईसा पूर्व 50 में सबसे पहले चीन में खूबानी के पेड़ों का लगाना आरम्भ हुआ। चीन से ही यह खूबानी भारत आया। 13वीं शताब्दी के पूर्व ही ये खूबानी इटली होते हुए इंग्लैंड तक पहुँच चुके थे।

ईसा पश्चात् 400 में शायद जर्मनी के किसी जनजाति ने इटली को पास्ता, आटा के लिए इतालवी शब्द, से परिचित करवाया। पास्ता के लिये जर्मनी में नूडल शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसे कि अंग्रेजी ने भी अपना लिया।

सन् 1493 में कोलम्बस (Columbus) ने गुआदेलूप (Guadeloupe) के वेस्ट इंडीज (West Indies) के टापू में अनानास को खोज लिया जिसे कि वहाँ के लोग अनानास नाना (pineapple nana) कहा करते थे जिसका अर्थ है खुशबू या सुगन्ध (fragrance)। हवाई के लोगों ने इस स्वादिष्ट फल को सदियों बाद ही जाना।

पहले आम धारणा थी कि टमाटर जहरीला होता है। अतः 26 सितम्बर 1830 के दिन Col. Robert Gibbon Johnson ने सलेम, न्यू जर्सी, न्यायालय में सार्वजनिक रूप से टमाटर खाकर इस धारणा को गलत सिद्ध किया।

ये सब तो हुईं नेट से प्राप्त जानकारी। किन्तु कई हजार साल प्राचीन हमारे पौराणिक ग्रंथों में पक्वान्न, पायस, भक्ष्य, पेय, लेह्य आदि स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों का वर्णन मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि हमारे देश में अत्यन्त प्राचीन काल से ही खाना पकाने की विधि विकसित थी।

चलते-चलते

"चल आज तुझे चिकन बनाने का जोरदार तरीका बताता हूँ, तू भी क्या याद करेगा! कढ़ाई में तेल डालो और लहसुन, प्याज, अदरक पेस्ट को तलो। तल जाने पर एक कप व्हिस्की डालो। उसे चला कर उसमे चिकन को डाल दो। अब एक कप रम डालो। जब एक उबाल आ जाये तो उसमें एक कप जिन डालो। ज्योंही चिकन कढ़ाई से चिपकना शुरू करे, दो कप वाइन डाल दो। थोड़ी थोड़ी देर में बड़ा चम्मच वोदका डाल कर चलाते रहो। जब चिकन पूरा पक जाये तो एक कप व्हिस्की डाल कर अच्छे से चलाओ। बस तैयार हो गया चिकन!"

"क्यों? क्या चिकन को ऐसे बनाने से अधिक स्वादिष्ट बनता है?"

"अरे चिकन तो जो बनता है सो बनता है पर तरी में मजा जाता है गुरू!!!"

Tuesday, December 15, 2009

ये शराबी की मैयत है इसको जो पिये वही कांधा लगाये

आपको शराबी की मैयत में ले जाने के पहले बता देना चाहता हूँ किः

ये ब्लोगिंग नहीं आसां ...

हाँ भाई, ब्लोगिंग कोई आसान काम नहीं है, बहुत कुछ करना पड़ता है इसके लिये। कभी अंदर की शराब वही रख कर बोतल बदलनी पड़ती है तो कभी समोसा वही रख कर अन्दर का आलू बदलना पड़ता है। दूसरों के लिखे को तो छोड़ो, कई बार अपने ही पोस्ट में काटछाँट करना पड़ता है, हेडिंग बदलना पड़ता है ताकि नया लगने लगे। अब देखिये ना, गूगल बाबा ने "है बातों में दम" लेख प्रतियोगिता शुरू कर दिया। तो हम कैसे चुप बैठे रहते? बस, निश्चय कर लिया इसमें भाग लेने के लिये। अपने एक पोस्ट को इस प्रतियोगिता में डालने के लिये सोच लिया। पर प्रतियोगिता के नियम में साफ लिखा है लेख पूर्व प्रकाशित नहीं होना चाहिये और १०० से १००० शब्दों वाला होना चाहिये। अब एक तो हमारा पोस्ट पहले से प्रकाशित है और १००० शब्दों से अधिक वाला है। पर हमने भी सोच लिया कि डालेंगे तो इसी लेख को ही। बस सबसे पहले तो शीर्षक बदल कर नया शीर्षक दिया "ये शराबी की मैयत है इसको जो पिये वही कांधा लगाये"। फिर उस लेख को लेख की भाषा में परिवर्तन कर करते हुए १००० शब्दों से कम का बना दिया और डाल दिया प्रतियोगिता में शामिल होने के लिये। हमारी मेहनत रंग लाई और वह लेख स्वीकृत भी हो गया (यहाँ पर)। तो आप भी देखिये उस लेख के नये रूप कोः
सामने मेरी लाश पड़ी थी और मैं आश्चर्य से उसे देखे जा रहा था। रात में सोने के बाद मेरे प्राण निकल गये थे।

मेरे लड़के ने मेरे मृत शरीर को देखा और घर के लोगों को जगाना शुरू कर दिया।

सबको जगा कर उसने कहा, "पापा तो रेंग लिये।"

"क्या? रात को तो अच्छे भले थे।" मेरी बहू ने कहा।

"सही कह रहा हूँ। देख लो जाकर।"

इतना कह कर लड़का रिश्तेदारों को फोन से सूचना देने लग गया।

बहू ने कहा, "अगर पता होता कि मर जायेंगे तो क्यों इस नये बिस्तरे पर सोने देती इन्हें! अब तो इसे दान में देना पड़ेगा। अफसोस!"

मेरे भाई की पत्नी ने कहा, "कोई जरूरत नहीं है दान-वान में देने की। इसे जल्दी से भीतर रख दो और कोई फटा-पुराना बिस्तर लाकर यहाँ रख दो।"

एक रिश्तेदार ने कहा, "सुना है कि कुछ लिखते विखते भी थे।"

मेरे एक लेखक मित्र ने कहा, "लिखता क्या था, अपने आपको लेखक दिखाता था। उसके लिखे को कोई पूछता नहीं था इसलिये इंटरनेट में डाल दिया करता था।"

एक सज्जन बोले, "मरने के बाद तो उनकी बुराई मत करो।"

मित्र ने कहा, "कौन स्साला बुराई कर रहा है? किसीके मर जाने पर सच्चाई बदल जाती है क्या? इतनी अधिक उम्र हो जाने पर भी बड़प्पन नाम की चीज तो छू भी नहीं गई थी इसे। खैर आप कह रहे हैं तो अब आगे मैं और कुछ नहीं कहूँगा।"

मेरा लड़का बोला, "पापा साठ साल से भी अधिक जीवन बिताकर गए हैं। आजकल तो लोग पैंतालीस-सैंतालीस में ही सटक लेते हैं। हम लोगों को गम मना कर उनकी आत्मा को दुःखी नहीं करना है। लम्बी उमर सफलतापूर्वक जीने के बाद उनके स्वर्ग जाने की खुशी मनाना है।"

मेरे भतीजे ने कहा, "अब हमें चाचा जी का क्रिया-कर्म बड़े धूम-धाम से करना है। दीर्घजीवी लोगों की शव-यात्रा बैंड बाजे के साथ होती है। जल्दी से बैंड बाजे का प्रबंध किया जाये।"

"आजकल तो बैंड का चलन ही खत्म हो गया है।" एक रिश्तेदार बोला।

"तो फिर डीजे ही ले आते हैं।"

"डीजे का प्रयोग तो लोग नाच-कूद कर खुशी मनाने के लिये करते हैं।"

"बात तो खुशी की ही है, हम लोग भी शव-यात्रा में नाचते-कूदते ही चलेंगे।"

"नाचने के लिये तो पहले मदमत्त होना जरूरी है। बिना दारू पिये कोई मदमस्त तो हो ही नहीं सकता। अब मैयत में लोगों को दारू तो पिलाई नहीं जा सकती?"

"क्यों नहीं पिलाई जा सकती? मरने वाला भी तो दारू पीता था। लोगों को दारू पिलाने से तो उनकी आत्मा को और भी शान्ति मिलेगी।"

"ये दारू भी पीते थे क्या?" किसी ने पूछा।

"पीते थे और रोज पीते थे। पूरे ड्रम थे वो। दारू के असर करने पर उनके ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे। धर्म-कर्म की बातें करते थे। रहीम और कबीर के दोहे कहा करते थे। हम लोग बोर होते थे। पीने के बाद भला ऐसी बातें करनी चाहिये? करना ही है तो किसी की ऐसी-तैसी करो, किसी की टांग पकड़ कर खींचो, किसी को परेशान करने वाली बातें करो।"

"तो तुम उठ कर चल क्यों नहीं देते थे?"

"उनके पैसे से दारू पीते थे तो उन्हें झेलना भी तो पड़ता था। फिर घर जाकर घरवाली की जली-कटी सुनने से तो इन्हें झेल लेना ही ज्यादा अच्छा था।"

बहू ने मेरे लड़के को एक तरफ ले जाकर जाकर कहा, "ये क्या दारू की बात हो रही है? और तुम भी इन सब की हाँ में हाँ मिलाये जा रहे हो। इसमें तो पन्द्रह-बीस हजार खर्च हो जायेंगे।"

"तो तुम्हें कौन कह रहा है खर्च करने के लिये?"

"पर जानूँ भी तो आखिर खर्च करेगा कौन?"

"मैं करूँगा, मैं।" लड़के ने छाती फुलाते हुए कहा।

"बेटे की मोटर-सायकल मरमम्त के लिये पाँच हजार तो हाथ से छूटते नहीं हैं और जो मर गया उसके लिये इतने रुपये निकाले जा रहे हैं। इसी को कहते हैं 'जीयत ब्रह्म को कोई ना पूछे और मुर्दा की मेहमानी'। खबरदार जो एक रुपया भी खर्च किया, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"

"अगर मेरे पास रुपये होते तो मैं भला अपने बेटे को क्यों नहीं देता? पर बाप का अन्तिम संस्कार तो करना ही पड़ेगा ना!"

"बेटे के लिये नहीं थे तो बाप के लिये अब कहाँ से आ गये रुपये?"

"बुढ़उ ने खुद दिये थे मुझे पचास हजार रुपये परसों, अपने बैंक खाते में जमा करने के लिये। कुछ कारण से उस दिन मैं बैंक नहीं जा पाया और दूसरे दिन बैंक की छुट्टी थी। अब उन रुपयों में से उन्हीं के लिये अगर पन्द्रह-बीस हजार खर्च कर भी दूँ तो भी तो तुम्हारे और तुम्हारी औलाद के लिये अच्छी-खासी रकम बचेगी। अब चुपचाप मुझे अपने बाप का क्रिया-कर्म करने दो।"

लड़के ने वापस मण्डली में आकर कहा, "भाइयों, आप लोगों ने जैसा सुझाया है सब कुछ वैसा ही होगा। डीजे भी आयेगा और दारू भी।"

इतने में ही एक आदमी ने आकर कहा, "हमें खबर लगी है कि जी.के. अवधिया जी की मृत्यु हो गई है, कहाँ है उनकी लाश?"

हकबका कर मेरे लड़के ने पूछा, "आपको क्या लेना-देना है उनसे?"

"मैं सरकारी अस्पताल से आया हूँ उनकी लाश ले जाने के लिये, पीछे पीछे मुर्दागाड़ी आ रही है। उन्होंने तो अपना शरीर दान कर रखा था।"

वे लोग मेरे शरीर को ले गये और मेरी शव-यात्रा के लिये आये हुये लोगों को बिना पिये और नाचे ही मायूसी के साथ वापस लौट जाना पड़ा।

उनके जाते ही यमदूत मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला, "चलो, तुम्हें ले जाने के लिये आया हूँ। जो कुछ भी तुमने अपने जीवन में पाप किया है उस की सजा तो नर्क पहुँच कर तुम्हें मिलेगी ही पर हिन्दी में ऊल-जलूल लिखकर उसका स्टैण्डर्ड गिराने की सजा तो तुम्हें अभी ही यहीं पर मिलेगी।"

इतना कह कर उसने अपना मोटा-सा कोड़ा हवा में लहराया ही था कि मेरी चीख निकल गई और चीख के साथ ही मेरी नींद भी खुल गई।

तो इसे कहते हैं "रिठेल"!

चलते-चलते

इलाके का मशहूर गुंडा हलवाई की दूकान में पहुँचा और नशे में लड़खड़ाती आवाज में बोला, "पाँच रुपये की रबड़ी देना।"

हलवाई ने कहा, "रबड़ी खत्म हो गई है।"

"तो ये क्या है?" नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"ये मोतीचूर के लड्डू हैं।"

"क्या भाव?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"सौ रुपये किलो।"

"दस किलो तौलो।"

डरे हुए हलवाई ने तौल दिया।

"और ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"कलाकंद।"

"क्या भाव?"

"एक सौ साठ रुपये किलो।"

"सोलह किलो तौलो।"

हलवाई ने फिर तौल दिया।

"ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"काजू बरफी।"

"क्या भाव?"

"दो सौ चालीस रुपये किलो।"

"चौबीस किलो तौलो।"

हलवाई ने तौला।

"ये क्या है?" फिर नशे में लड़खड़ाती आवाज।

"दूध।"

"क्या भाव?"

"अट्ठाइस रुपये लिटर।"

"अट्ठाइस लिटर दो।"

परेशान हलवाई ने एक गंजी में दूध निकाल कर रख दिया।

"अब तौली हुई सभी मिठाइयों को इसमें डालो और घोटो।" दूध की गंजी की तरफ इशारा करते हुए गुंडे ने कहा।

जैसा कहा गया था वैसा करते हुए हलवाई भुनभुनाया, "पता नहीं कहाँ से आ गया, सारी मिठाइयों का सत्यानाश करके रबड़ी बनवा दिया।"

"रबड़ी बन गई! तो पाँच रुपये की देना" पाँच का नोट हलवाई को देते हुए गुंडे ने कहा।

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एडसेंस का चेक मिला तो खुश होकर हमने एक अच्छा स्नो खरीदा। घर आकर श्रीमती स्नो देते हुए कहा, "देखो तुम्हारे क्या लाया हूँ!"

"क्या लाये हो?"

हमने स्नो उसकी हथेली पर रख दिया। उसे देख कर श्रीमती जी ने कहा, "हाय राम! अब इस उमर में मैं स्नो पाउडर लगाउँगी?"

"जूता जब पुराना हो जाता है तभी तो पॉलिश की जरूरत पड़ती है।"

Monday, December 14, 2009

आय एम ओके यू आर ओके ... याने मैं भी खुश तू भी खुश

व्यवहार विज्ञान से सम्बन्धित एक ऐसा लेख जो आपके जीवन को खुशियों से भर सकता है ....
हिन्दी ब्लोग जगत में कुछ समय पहले एक ऐसी स्थिति आ गई थी कि कुछ ब्लोगर्स अन्य ब्लोगर्स से नाखुश थे और अन्य ब्लोगर्स उन कुछ ब्लोगर्स से। मतलब यह कि आय एम नॉट ओके यू आर नॉट ओके याने कि मैं भी नाखुश आप भी नाखुश। कितना अच्छा लगता है जब सभी लोग खुश रहें, आय एम ओके यू आर ओके ... याने मैं भी खुश आप भी खुश।

जीवन है तो रिश्ते हैं और रिश्ते हैं तो खुशी और नाखुशी भी हैं। जब दो लोग होते हैं तो दोनों के बीच कोई ना कोई सम्बन्ध भी होता है। यह सम्बन्ध कुछ भी हो सकता है, बाप-बेटे का, पति-पत्नी का, प्रेमी-प्रेमिका का, भाई-भाई का, भाई-बहन का, मित्र-मित्र का, अफसर-कर्मचारी का, मालिक-नौकर का, दुकानदार-ग्राहक का याने कि कुछ भी सम्बन्ध! और इन सम्बन्धों के कारण हमारे जीवन में निम्न चार प्रकार की स्थितियों में से कोई न कोई एक बनती हैः

मैं खुश तू खुश (I'm OK, You're OK)
मैं
खुश तू नाखुश (I'm OK, You're not OK)
मैं
नाखुश तू खुश (I'm not OK, You're OK)
मैं
नाखुश तू नाखुश (I'm not OK, You're not OK)

तो यदि आपका किसी से कुछ सम्बन्ध है तो आप दोनों के बीच उपरोक्त चार स्थितियों में से एक न एक स्थिति अवश्य ही होगी। और हर किसी के जीवन में एक नहीं अनेक सम्बन्ध होते ही हैं।

उपरोक्त स्थितियों में पहली स्थिति सबसे अच्छी स्थिति है और चौथी सबसे खराब।

पहली स्थिति इतनी अधिक अच्छी स्थिति है कि इसे आदर्श की संज्ञा दी जा सकती है। जिस प्रकार से मनुष्य के जीवन में आदर्श स्थिति कभी कभार ही आ पाती है उसी प्रकार से सबसे खराब स्थिति भी कभी-कभी ही आती है। किन्तु दूसरी तथा तीसरी स्थिति जीवनपर्यन्त बनी रहती है।

क्यों बनती हैं ये स्थितियाँ?

ये स्थितियाँ बनती हैं हमारे अपने व्यवहार के कारण से। हमारे व्यवहार में जहाँ लचीलापन होता है वहीं कठोरता भी होती है। किस समय हमें किस प्रकार का व्यवहार करना है यदि हम जान लें तो हम इन स्थितियों पर नियन्त्रण भी कर सकते हैं।

हमारा व्यवहार बनता है हमारी सोच से। हम किस प्रकार से सोचकर कैसा व्यवहार करते हैं यह बताती है श्री थॉमस एन्थॉनी हैरिस (Thomas A हर्रिस) द्वारा लिखित अंग्रेजी पुस्तक I'm OK, You're OK जो कि बहुत ही लोकप्रिय है। यह पुस्तक व्यवहार विश्लेषण (Transactional Analysis) पर आधारित है। श्री हैरिस की पुस्तक इसी बात की व्याख्या करती है कि उपरोक्त व्यवहारिक स्थितियाँ क्यों बनती हैं। उनका सिद्धांत बताता है कि मनुष्य निम्न तीन प्रकार से सोच-विचार किया करता है:

बचकाने ढंग से (Child): इस प्रकार के सोच-विचार पर मनुष्य की आन्तरिक भावनाएँ तथा कल्पनाएँ हावी रहती है (dominated by feelings)। आकाश में उड़ने की सोचना इसका एक उदाहरण है।

पालक के ढंग से (Parent): यह वो सोच-विचार होता है जिसे कि मनुष्य ने बचपने में अपने पालकों से सीखा होता है (unfiltered; taken as truths)। 'सम्भल के स्कूल जाना', 'दायें बायें देखकर सड़क पार करना' आदि वाक्य बच्चों को कहना इस प्रकार के सोच के उदाहरण है।

वयस्क ढंग से (Adult): बुद्धिमत्तापूर्ण तथा तर्कसंगत सोच वयस्क ढंग का सोच होता है (reasoning, logical)। सोच-विचार करने का यही सबसे सही तरीका है।

हमारे सोच-विचार करने के ढंग के कारण ही हमारे व्यवहार बनते है। जब दो व्यक्ति वयस्क ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो ही दोनों की संतुष्टि प्रदान करने वाला व्यवहार होता है जो कि "मैं खुश तू भी खुश (I'm OK, You're OK)" वाली स्थिति होती है। जब दो व्यक्तियों में से एक वयस्क ढंग से सोच-विचार करके तथा दूसरा बचकाने अथवा पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो "मैं खुश तू नाखुश (I'm OK, You're not OK)" या "मैं नाखुश तू खुश (I'm not OK, You're OK)" वाली स्थिति बनती है। किन्तु जब दो व्यक्ति बचकाने या पालक ढंग से सोच-विचार करके व्यवहार करते है तो "मैं नाखुश तू नाखुश (I'm not OK, You're not OK)" वाली स्थिति बनती है।

तो मित्रों! यदि अच्छी प्रकार से सोच-विचार करके दूसरों के साथ व्यवहार करें तो हमारे जीवन की खुशियों में अवश्य ही इजाफा हो सकता है।

वैसे यदि व्यवहार के मामले को छोड़ दें तो बचकानी और पालक सोच का अपना महत्व है और इनके बिना काम चलना मुश्किल हो। विज्ञान के अधिकतर आविष्कारों और खोजों का श्रेय बचकानी सोच को ही जाता है।

Sunday, December 13, 2009

आखिर गूगल ने ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म क्यों दिया है?

कभी आपने सोचा भी है कि आखिर गूगल ने ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म क्यों दिया है?

गूगल कोई धर्मार्थ सेवा करने वाली संस्था नहीं बल्कि एक व्यवसायी कम्पनी है। किसी भी व्यवसायी कम्पनी का हर कार्य फायदा को ध्यान में रख कर किया जाता है।

हमें हिन्दी ब्लोगिंग के लिये मुफ्त प्लेटफॉर्म देने के साथ ही साथ हिन्दी को नेट में बढ़ावा देने में भी गूगल का बहुत बड़ा योगदान है।

तो क्या फायदा है उसे इस प्रकार से ब्लोगिंग के मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने से?

आनलाइन विज्ञापन मुख्य धंधा है गूगल का। अपने विज्ञापनों को हमारे ब्लोगों में दिखा कर धन कमाना उसका उद्देश्य है। धन कमाने के लिये हमारे ब्लोगों में पाठकों की भीड़ होना आवश्यक है क्योंकि उस भीड़ से ही बिजनेस को चलना है। यदि पाठक नहीं आयेंगे तो विज्ञापनों को देखेगा कौन? दरअसल हिन्दी को बढ़ावा देना और मुफ्त प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराना गूगल के व्यवसाय का एक इन्व्हेस्टमेंट है फायदा कमाने के लिये।

हममें से कुछ लोगों का यह विचार भी हो सकता है कि हमें और आपको पाठकों के भीड़ की आवश्यकता नहीं है। किन्तु गूगल, जो हमें मुफ्त सुविधा दे रही है, को इस भीड़ की सख्त आवश्यकता है। फिलहाल हिन्दी ब्लोगों में पाठकों की अधिक संख्या नहीं आ पा रही है किन्तु गूगल को विश्वास है कि जल्दी ही पाठकों की भीड़ इकट्ठी होनी शुरू हो जायेगी। इसके लिये वह हर सम्भव प्रयास कर रहा है और हम ब्लोगरों से भी उम्मीद रखता है कि हम उच्च गुणवत्ता वाले पोस्ट लिख कर पाठकों की भीड़ लायें। मेरे स्वयं के विचार से भी पाठकों की भीड़ की बहुत आवश्यकता है। भला कौन नहीं चाहेगा कि उसके लिखे को अधिक से अधिक लोग पढ़ें। और मैं यह भी समझता हूँ कि जहाँ इस भीड़ से गूगल को आर्थिक लाभ होगा वहीं हमें भी इससे आमदनी मिलने लगेगी। किसी और को हो या न हो किन्तु मुझे तो अपने ब्लोग से कमाई करने की बहुत अपेक्षा है।

अब मान लीजिये कि पूरे प्रयास के बावजूद भी पाठकों की भीड़ नहीं आती है तो क्या होगा? क्या गूगल अपना धन खर्च करके हमें अपनी मुफ्त सुविधाएँ देता रहेगा? बिल्कुल नहीं, इस बात की पूरी सम्भावना है कि वह बन्द कर देगा मुफ्त सुविधाएँ देना। अब तक उसने जो कुछ भी खर्च किया है उसे अपना घाटा मान लेगा और आगे खर्च करना बंद कर देगा। हमारी सुविधाओं को बंद करके वह अंग्रेजी सहित उन भाषाओं को अधिक सुविधा देना शुरू कर देगा जिनसे उसे बिजनेस मिल रहा है और फायदा हो रहा है। इसका परिणाम यह होगा कि हम कम से कम ब्लोगर प्लेटफॉर्म से तो वंचित हो ही जायेंगे। हिन्दी में एडसेंस की उम्मीद बिल्कुल खत्म हो जायेगी सो अलग।