Saturday, August 28, 2010

हमारे किसी पोस्ट में यदि कोई टिप्पणी करे - 'केवल आपकी लेखनी ही ऐसा चमत्कार कर सकती है!' तो क्या हम फूल के कुप्पा नहीं होंगे?

हमारे परिचित एक व्यापारी बन्धु हैं जो प्रायः हमसे अंग्रेजी में अपने व्यापार से सम्बन्धित पत्र लिखवाया करते हैं। पत्र लिखने के एवज में वे हमें हमारा पारश्रमिक तो देते ही हैं पत्र लिखवाने के पहले वे हमें मुफ्त में ही तारीफ के कुछ शब्द दे देते हैं जैसे कि 'अवधिया जी, आपसे परिचय होने के पहले भी मैंने बहुत लोगों से लेटर लिखवाया है पर आपकी लेटर ड्राफ्टिंग की बात ही कुछ और है!' अब इसका हम पर प्रभाव यह पड़ता है कि हम बड़े ही मनोयोग से उनकी चिट्ठी-पत्रियों को अच्छा से अच्छा बनाने में जुट जाते हैं, आखिर अपनी तारीफ गुदगुदाती जो है हमें!

उन व्यापारी बन्धु से परिचय के कुछ दिनों बाद ही हमें पता चल गया था कि जिस किसी से भी उन्हें कुछ काम करवाना होता है, काम करवाने के पहले उनके कसीदे अवश्य ही पढ़ते हैं। ऐसा कर के वे न केवल अपने काम को बहुत अच्छी प्रकार से करवा लेते हैं बल्कि काम के बदले दिए जाने वाले पारश्रमिक को भी कम करवा लेते हैं याने कि काम करने वाला कम दाम में भी अच्छा काम कर दिया करता है।

अपनी तारीफ भला किसे अच्छी नहीं लगती?

अब हमारे किसी पोस्ट में यदि कोई टिप्पणी करे 'केवल आपकी लेखनी ही ऐसा चमत्कार कर सकती है!' तो क्या फूल के कुप्पा नहीं होंगे? अब यह बात अलग है कि इस टिप्पणी से पता ही नहीं चलता कि टिप्पणीकर्ता ने हमारे पोस्ट को पढ़कर टिप्पणी की है या बगैर पढ़े हुए। पर कोई हमारे पोस्ट को पढ़कर टिप्पणी करे या बगैर पढ़े, हमें उससे क्या मतलब है? हमें तो टिप्पणी चाहिए क्योंकि सरस्वती-पुत्र जो ठहरे हम! तारीफ पाना तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

तारीफ का एक अन्य रूप नाम होना है। यदि किसी नामधारी लेखक ने अपनी पुस्तक प्रकाशित किया है और उसमें सहयोगकर्ताओं की सूची में हमारा नाम दे दिया है तो हम खुश हो जाते हैं जबकि हम स्वयं किसी पुस्तक को पढ़ते हैं तो सहयोगकर्ता की सूची या उन पुस्तकों की सूची जहाँ से प्रसंग लिया गया है आदि की तरफ झाँकते तक नहीं। जब हम फिल्म देखते हैं तो शायद ही फिल्म की पूरी कॉस्टिंग को पढ़ते हों पर वह आदमी अवश्य ही खुश होता है जिसका नाम उस कॉस्टिंग में होता है। आदमी तो अपने नाम का भूखा होता है क्योंकि नाम होना ही उसकी तारीफ होना होता है।

संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे अपनी तारीफ अच्छी ना लगती हो। आजकल तो एक प्रकार से चलन भी बन गया है अपनी तारीफ करवाने का, भले ही वह तारीफ झूठी ही क्यों ना हो।

हमारे हिसाब से तो मुँह पर की जाने वाली तारीफें प्रायः झूठी ही हुआ करती हैं और पीठ पीछे की जाने वाली तारीफों में अधिकतर सच्ची!

Friday, August 27, 2010

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने तो सिर्फ भारत को लूटा पर अंग्रेजों ने भारत को न केवल लूट कर दरिद्र बनाया बल्कि उसकी संस्कृति और सभ्यता का भी नाश कर दिया

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने तो भारत की अपार सम्पदा में से उसके सिर्फ एक छोटे से हिस्से को ही लूटा था। उनकी लूट के बावजूद भी सत्रहवीं शताब्दी के के अन्त तक भारत संसार का सर्वाधिक धनाड्य देश था। किन्तु भारत दरिद्र बना अंग्रेजों के लूट के कारण। प्लासी के युद्ध से वाटरलू के युद्ध तक अर्थात् सन् 1757 से 1815 तक, लगभग एक हजार मिलियन पाउण्ड याने कि पन्द्रह अरब रुपया शुद्ध लूट का भारत से इंग्लैंड पहुँच चुका था। इसका सीधा-सीधा अर्थ यह हुआ कि अट्ठावन साल तक ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकर प्रति वर्ष लगभग पचीस करोड़ रुपये भारतवासियों से लूटकर अपने देश ले जाते रहे। समस्त संसार के इतिहास में ऐसी भयंकर लूट की मिसाल अन्य कहीं नहीं मिलती। इस लूट मुकाबले महमूद गज़नवी और मोहम्मद गोरी की लूट तो एकदम ही नगण्य है।

भारत से लूटे गए इसी धन से इंग्लैंड के लंकाशायर और मनचेस्टर में भाफ के इंजिनों से चलने वाले अनेक कारखाने उन्नत हुए। इस भयंकर लूट के कारण ही इंग्लैंड में नई-नई ईजादों को फलने और अनेक कारखानों को खुलने का अवसर मिला। इस लूट के कारण ही इंग्लैंड की आय दिन-ब-दिन बढ़ती चली गई और उसी हिसाब से भारत दरिद्र होता चला गया। परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक भारत के सारे उन्नत उद्योग-धन्धे सिर्फ कहानी बनकर रह गए और सौ बरस पहले जो भारत संसार का सर्वाधिक धनी देश था, संसार का सबसे निर्धन देश बन गया।

इंग्लैंड की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा की पूर्ति में भारत के उन्नत और लाभदायक उद्योग-धन्धे बाधा बनकर खड़े थे इसलिए इन उद्योग-धन्धों का सत्यानाश करने के उद्देश्य से ही सन् 1813 में नया चार्टर तैयार किया गया। तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल हेस्टिंग्ज ने इस चार्टर एक्ट की सहायता से भारत के प्राचीन व्यापार और उद्योग-धन्धों को तहस-नहस कर डाला। जिस गति से भारत के उद्योग-धन्धे खत्म होते चले गए उसी गति से इंग्लैंड में नए-नए उद्योग-धन्धे शुरू होते चले गए जिनके लिए कच्चा माल भारत से ही सस्ते दरों में खरीद कर ले जाया जाता था और उन कारखानों के उत्पादों को भारत में ही लाकर भारी दामों में बेचा जाता था।

अगले लगभग सौ सालों में भारत में किसानों का लगभग सर्वनाश हो गया, पुराने खानदान गारत हो गए, अदालतों की कार्यवाहियों को पेचीदा बनाकर न्याय को मँहगा बना दिया गया। वास्तविकता तो यह थी कि अंग्रेजों को टैक्स न पटा पाने वाली भारतीय गरीब जनता के लिए उस काल में न्यायालय के द्वार ही बन्द कर दिए गए थे, उनके लिए न कानून था न इन्साफ! उस काल की पुलिस अत्याचार की नमूना थी। गाँव की पंचायतों का नाश कर डाला गया था और वहाँ की पाठशालाएँ तोड़ डाली गईं थीं। सुलभ जीवन के लिए जीवन के सारे धन्धों में कुशल, सुसभ्य भारतीयों को उन्हीं के देश में अयोग्य, असहाय और नालायक करार देकर सदा के लिए नीच बना दिया गया था। इतना ही नहीं उन्हें शराबी और दुराचारी तक बनाया जा रहा था। सन् 1833 में पुनः चार्टर एक्ट को बदल कर देशी रियासतों को हड़प कर अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाने लगा था।

भारत में अंग्रेजी सरकार को और भी मजबूत करने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल में लॉ मेम्बर का नया पद बना कर मेकॉले को भेजा गया जो कि एक निर्धन घराने का व्यक्ति था किन्तु अपनी योग्यता से लॉर्ड के पद तक पहुँच चुका था। बत्तीस वर्ष की अवस्था में ही वह विचारशील, उत्साही और बुद्धिमान व्यक्ति माना जाने लगा था। लॉर्ड मैकॉले ने भारत आकर देखा कि अंग्रेजों की करतूत के कारण हिन्दुस्तान में करोड़ों नन्हे-मुन्ने बच्चे, जिन्हें पाठशालाओं में शिक्षा ग्रहण करने की जरूरत थी, माँ-बाप के पेट भरने के लिए उनके साथ मेहनत-मजदूरी कर रहे हैं किन्तु बावजूद इसके भारत शिक्षा-प्रचार के मामले में यूरोप के समस्त देशों में अग्रणी ही बना हुआ था। असंख्य ब्राह्मण अध्यापक अपने घरों में लाखों विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा देते थे। भारत के बड़े-बड़े नगरों में जहाँ उच्च संस्कृत-साहित्य की शिक्षा के लिए विद्यापीठ बने हुए थे वहीं उर्दू-फारसी की शिक्षा के लिए अनेक मक़तब और मदरसे भी कायम थे। छोटे-छोटे गाँवों में भी ग्राम-पंचायतों के नियन्त्रण में पाठशालाएँ चला करती थीं। डा-वेल नामक एक प्रसिद्ध मिशनरी, जो मद्रास में पादरी रह चुके थे, ने तो यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था से प्रभावित होकर इंग्लिस्तान में भी भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था।

लॉर्ड मैकॉले को भारत की यह शिक्षा-प्रणाली चुभने लग गई और उसने एक ऐसी शिक्षा-प्रणाली बनाकर, जो कि भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर ले जाए और उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा ही ना होने दे, अंग्रेजी शासन को भेज दिया। अंग्रेजी शासन ने उस शिक्षा-प्रणाली को सहर्ष स्वीकार कर लिया और भारत में तत्काल लागू भी कर दिया।

दुःख की बात तो यह है कि आज तक हमारे देश की शिक्षा-नीति कमोबेश वही बनी हुई है जिसे कि लॉर्ड मैकॉले ने बनाया था परिणामस्वरूप आज हम तथा हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और सभ्यता को हेय दृष्टि से देखते हैं।

Thursday, August 26, 2010

मैं एक हिन्दी ब्लोगर - अपंग, असहाय और निर्धन

मै एक हिन्दी ब्लोगर हूँ। 03-09-2007 को अपना हिन्दी ब्लोग बनाकर मैंने अपना पहला पोस्ट लिखा था और तब से आज तक मात्र कुछ माह को छोड़कर अपने ब्लोग में प्रायः रोज ही एक पोस्ट लिखते चला आ रहा हूँ।

क्यों लिखता हूँ मैं? क्या उद्देश्य है पोस्ट लिखने के पीछे मेरा?

आज जब ऐसे सवाल मेरे मन में उठते हैं तो याद आता है कि जब मैंने अपना हिन्दी ब्लोग बनाया था तो उस समय मेरे पास बहुत सारे उद्देश्य थे। मसलन अपने पोस्ट के माध्यम से अच्छी अच्छी जानकारी देना विशेषतः भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विषय में, नेट में हिन्दी को बढ़ावा देकर हिन्दी की सेवा करना और साथ ही साथ हिन्दी ब्लोगिंग से कुछ कमाई कर के स्वयं भी लाभ लेना। पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि ऐसा कुछ भी तो नहीं कर पाया मैं। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मेरे उद्देश्य बदल कर ढेर सारी टिप्पणियाँ पाना और संकलकों के हॉटलिस्ट में ऊपर ही ऊपर चढ़ते जाना बन गए। आज मैं टिप्पणियों के पैबन्द और संकलकों की बैसाखी पाकर अत्यन्त ही सन्तुष्ट जीव बन गया हूँ।

मैं जानता हूँ कि नेट में आने वाले करोड़ों हिन्दीभाषियों में से मुझे शायद ही कोई पढ़ता है पर क्यों ना बनूँ मैं सन्तुष्ट जीव? आखिर कुछ ऐसे लोग भी तो हैं जो मुझे पढ़ते हैं या फिर पढ़ने का दिखावा ही कर लेते हैं। क्या यह कम है मेरे लिए? आज तक मैंने जो कुछ भी लिखा है यदि मैंने उसे स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में छपने भेजा होता तो अवश्य ही मेरी वे सब रचनाएँ वहाँ की कचरा पेटी की शोभा बढ़ाती होतीं और कहाँ मिलते मुझे पढ़ने वाले? तो क्यों ना बनूँ मैं सन्तुष्ट जीव?

मुझे सन्तुष्ट रहना है इसलिए यही सोचा करता हूँ कि हिन्दी में बहुत सारे महान साहित्यकार हुए हैं पर क्या किसी की भी रचना कभी 'बेस्टसेलर' बनी है? क्या किसी ने 'मैक्सिम गोर्की' के "द मदर", 'चार्ल्स डिकन्स' के "अ टेल ऑफ टू सिटीज़" आदि जैसी पुस्तकें हिन्दी में लिखी हैं जिनके पाठक संसार भर में हैं? संसार की बात छोड़ें, अपने ही देश में ही 'जयशंकर प्रसाद' की "कामायनी", 'मैथिलीशरण गुप्त' जी के "साकेत" जैसी रचनाओं को कितने लोग पढ़ते हैं? घर में "रामचरित मानस" रहने पर भी किसने उसे पूरा पढ़ा है? तो फिर यदि मेरे लिखे को कोई पढ़ने वाला नहीं है तो इससे क्या फर्क पड़ जाता है? क्यों ना रहूँ मैं सन्तुष्ट? मुझे टिप्पणियाँ मिलती हैं, संकलकों के हॉटलिस्ट में मेरा पोस्ट ऊपर चढ़ता है यह क्या कम है मेरे लिए?

और लोग क्यों टिप्पणियाँ करते हैं यह तो मैं नहीं कह सकता पर मैं हर रोज हिन्दी के सैंकड़ों नहीं तो कम से कम पचास-साठ पोस्टों में जाकर इसलिए टिप्पणियाँ किया करता हूँ कि मुझे भी कम से कम पन्द्रह-बीस टिप्पणियाँ मिल जाए। "आप हर मरतबा एक बकवाइस लिखकर पाटक का टाइम खोटी करती है। बकवाइस बंद किरिए। ऐहसान होगी." जैसी टिप्पणियाँ पाकर भी मैं खुश होता हूँ! ऐसी टिप्पणियों को न मिटा कर मैं हिन्दी भाषा पर और खुद पर भी उपकार करता हूँ। इसे मिटा दूँगा तो हिन्दी में की गई एक टिप्पणी कम हो जाएगी और टिप्पणियाँ कम होने से नेट में हिन्दी का वर्चस्व कैसे बढ़ेगा? इसे मिटा दूँगा तो हॉटलिस्ट में मेरा पोस्ट नीचे उतर आएगा; और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसे मिटा दूँगा तो मुझ पर अपनी आलोचना न सह पाने का इल्जाम भी लग जाएगा। तो आखिर क्यों मिटाऊँ मैं इसे? आखिर ये टिप्पणियाँ ही तो हैं जो मुझे गुदगुदाती हैं और मेरे पोस्ट को संकलकों के हॉटलिस्ट में ऊपर चढ़ा कर मुझे संतुष्टि प्रदान करती हैं।

मैं अपंग हूँ क्योंकि मैं अपने दम पर आगे नहीं बढ़ सकता। पर क्या हुआ? संकलकों की बैसाखी तो है मेरे पास! मैं निर्धन हूँ क्योंकि मेरे पास ऐसी लेखन क्षमता का धन नहीं है जो हजारों-लाखों की संख्या में पाठक जुटा सके। पर क्या हुआ? टिप्पणी देने वाले तो हैं मेरे पास! मैं असहाय हूँ क्योंकि मैं चाहकर भी अपनी इस स्थिति से उबर नहीं सकता। पर क्या हुआ? सन्तुष्ट और आत्ममुग्ध तो हूँ मैं!

Wednesday, August 25, 2010

रिश्तों में दरार

प्रभा प्रशान्त से कह रही थी, "भैया, इस बार मैं राखी में सिर्फ आपको बुलाउँगी, प्रकाश भैया को नहीं?"

और जब प्रशान्त अपने छोटे भाई प्रकाश से मिला तो प्रकाश कहने लगा, "भैया इस बार मैं राखी में प्रभा बहन के घर, अगर वो बुलाएगी भी तो भी, नहीं जाउँगा।"

एक समय था जब प्रशान्त, प्रकाश और प्रभा के बीच आपस में इतना प्यार था कि एक दूसरे के बिना रह नहीं पाते थे। पर आज उनके रिश्तों में दरार आ गया है।

सही बात तो यह है कि आज कमोबेश हर परिवार में आपसी रिश्तों में दरार देखने को मिल जाता है। भाई-भाई, भाई-बहन, बाप-बेटे जो कभी एक-दूसरे पर जान छिड़कते थे के बीच वैमनस्य की गहरी खाई खुदी हुई दिखाई देती है।

क्यों होता है ऐसा?

क्यों आता है रिश्तों में दरार?

Tuesday, August 24, 2010

रक्षा बन्धन भाई-बहन का त्यौहार या पुरोहित-यजमान का?

हमें आज भी याद है कि बचपन में प्रतिवर्ष रक्षा बन्धन अर्थात् श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन हमारे पिता जी सुबह से ही पुरोहित जी की प्रतीक्षा करने लगते थे। उस रोज पुरोहित जी हमारे घर आकर सबसे पहले पिताजी के हाथ में और उसके बाद हम बच्चों के हाथ में रक्षा बन्धन का पीला धागा बाँधा करते थे। रक्षा बन्धन बाँधते समय वे निम्न मन्त्र पढ़ा करते थेः

येन बद्धो बलि: राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥"


अर्थात् जिस प्रकार से दानवों के दानवीर राजा बलि के हाथ में बँधे हुए रक्षा बन्धन ने उनकी रक्षा की थी उसी प्रकार से मैं तुम्हारे हाथ में रक्षा बन्धन बाँध रहा हूँ जो तुम्हारी रक्षा करे!

उन दिनों छत्तीसगढ़ में रक्षा बन्धन को पुरोहित और यजमान का त्यौहार माना जाता था, भाई-बहन का नहीं। भाई-बहन का त्यौहार भाई-दूज, जो कि लक्ष्मीपूजा के बा आने वाले दूज अर्थात् कार्तिक शुक्ल द्वितीया का दिन होता था, को ही माना जाता था। रक्षा बन्धन के विषय में मान्यता थी कि उस दिन पुरोहित के द्वारा यजमान के हाथों में बाँधा गया रक्षा बन्धन वर्ष-पर्यन्त यजमान की रक्षा करता है।

पुरोहित और यजमान का यह त्यौहार भाई-बहन के त्यौहार में कब और कैसे परिणित हो गया इस विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती। ऐसा प्रतीत होता है कि इस त्यौहार का रूपान्तर करने में हिन्दी फिल्मों का बहुत अधिक योगदान है। रक्षा बन्धन के विषय में बहुत सारी दन्तकथाएँ प्रचलित हैं किन्तु पहली बार कब किस बहन ने अपने भाई के हाथ में राखी बाँधी यह अज्ञात है।

एक किंवदन्ती के अनुसार देवताओं और दैत्यों के युद्ध के लिए जाते समय इद्राणी ने अपने पति इन्द्र के हाथों में पीले धागे के रूप में रक्षा बन्धन बाँधा था। यह तो पत्नी के द्वारा पति को रक्षा बन्धन बाँधना था, जिसका प्रचलन नहीं हो पाया। एक और पौराणिक कथा के अनुसार यमुना ने अपने भाई यम के हाथों रक्षा बन्धन बाँधा था। लगता है कि इसी कथा ने रक्षा बन्धन को भाई-बहन के त्यौहार का रूप दिया होगा।

यह भी कहा जाता है कि द्रौपदी ने अपनी तथा अपने पतियों की रक्षा के लिए कृष्ण को रक्षा बन्धन बाँधा था। एक और कथा के अनुसार लक्ष्मी जी ने दानवीर दानव राजा बलि को रक्षा बन्धन बाँध कर अपना भाई बनाया था।

ऐतिहासिक दन्तकथा यह भी है कि राजा पोरस ने जब सिकन्दर को युद्ध में हरा दिया था तो सिकन्दर की पत्नी ने पोरस को राखी बाँध कर अपना भाई माना था।

अस्तु, वर्तमान में तो रक्षा बन्धन पुरोहित-यजमान का त्यौहार न होकर पूर्ण रूप से भाई-बहन का ही त्यौहार बन चुका है।

Monday, August 23, 2010

अंग्रेजों ने भारत को जीता नहीं था, भारत तो उन्हें सेंत-मेंत में ही मिल गया था

जिस प्रकार से मोहम्मद बिन कासिम और मोहम्मद गोरी जैसे आक्रमणकारियों में बाहर से आकर भारत पर हमला किया था क्या उसी प्रकार से कभी किसी अंग्रेज योद्धा ने अपनी सेना के साथ आकर भारत पर आक्रमण किया था?

उपरोक्त प्रश्न का उत्तर केवल नहीं में ही मिलता है। वास्तविकता तो यही है कि इंग्लैंड और हिन्दुस्तान के बीच कभी कोई लड़ाई हुई ही नहीं।

अब प्रश्न यह उठता है कि जब इंग्लैंड ने कभी भारत पर आक्रमण ही नहीं किया तो फिर आखिर वह भारत का स्वामी कैसे बन बैठा?

ऐसे प्रश्न जब मेरे मष्तिस्क में उठते हैं तो मुझे खुद पर खीझ आने लगती हैं कि क्यों मुझे कभी इतिहास में रुचि नहीं रही? अपने विद्यार्थी काल में क्यों मुझे गणित जैसा विषय सरल और इतिहास जैसा विषय दुरूह लगा करता था? विश्व का इतिहास न सही, क्यों मैंने भारत का इतिहास तक को कभी नहीं पढ़ा?

अस्तु, मानव-मष्तिस्क अत्यन्त विचित्र है! जब इसके भीतर प्रश्न कुलबुलाने लगते हैं तो यह अधीर हो जाता है उनके उत्तर पाने के लिए। तो उपरोक्त प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मैंने भारत के इतिहास से सम्बन्धित सामग्री खोज कर खंगालना शुरू किया तो बहुत सी विचित्र बातें जानने को मिलीं। सच तो यह है कि मुझे भारत का इतिहास ही अत्यन्त विचित्र लगने लगा।

पन्द्रहवीं शताब्दी में जब वास्को-डि-गामा भारत पहुँचा तो उसने जाना कि भारत को "सोने की चिड़िया" यों ही नहीं कहा जाता। भारत के पास अपार सम्पदा का भण्डार था। भारत की अथाह और अतुलनीय सम्पदा को देखकर उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने जब वापस जाकर यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बताया तो यूरोपीय लोगों का मुँह में पानी आने लग गया और परिणामस्वरूप हिन्द महासागर यूरोपीय समुद्री डाकुओं से पट गया। सोलहवीं शताब्दी में यूरोप के विभिन्न देशों के समुद्री डाकू भारत के व्यापारी जहाजों को, जो कि भारत के ही एक समुद्री तट से दूसरे समुद्र तट में जाकर भारत में ही व्यापार किया करते थे, लूटते रहे। पुर्तगालियों ने तो मंगलौर, कंचिन, लंका, दिव, गोआ और बम्बई के टापू को अपने अधिकार में ही ले लिया।

पुर्तगाल और स्पेन भारतीय जहाजों को लगभग दो सौ साल तक लूटते रहे और इस लूट की सम्पत्ति से मालामाल हो गए। किन्तु इंग्लैंड का भारत से पहली बार  सम्पर्क सत्रहवीं शताब्दी में ही हुआ क्योंकि उसके पास भारत आने के रास्ते का नक्शा नहीं था। रानी एलिजाबेथ के शासनकाल में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक डाकू, जो कि 'समुद्री कुत्ते' के नाम से विख्यात था, एक पुर्तगालियों के जहाज को लूट लिया तो उसमें उसे लूट के माल के साथ भारत आने का समुद्री नक्शा भी मिल गया। इस नक्शे के मिल जाने कारण ही ईंस्ट इंडिया कंपनी की नींव का पहला पत्थर डाला गया।

भारतीय जलमार्ग के नक्शे के मिल जाने के लगभग तीस साल बाद सन् 1608 में अंग्रेजों का 'हेक्टर' नामक एक जहाज सूरत के बन्दरगाह में आकर लगा। जहाज का कप्तान का नाम हाकिन्स था जो कि पहला अंग्रेज था जिसने भारत की भूमि पर कदम रखा था। उन दिनों भारत में बादशाह जहांगीर तख्तनशीन थे। उल्लेखनीय बात यह है कि सैकड़ों वर्षों तक लुटते चले आने के बाद भी भारत की सम्पदा उस समय तक भी अपार थी, इतनी अथाह कि कोई भी माई का लाल उसका अनुमान तक नहीं लगा सकता था। हाकिन्स ने आगरा जाकर इंग्लिस्तान के बादशाह जेम्स प्रथम का पत्र और सौगात बादशाह को भेंट की। आगरा की विशाल अट्टालिकाएँ, नगर का वैभव और बादशाह जहांगीर के ऐश्वर्य को देखकर उसकी आँखें चुँधिया गईं। ऐसी शान का शहर उसने अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं था, देखना तो दूर उसने ऐसे वैभवशाली नगर की कभी कल्पना भी नहीं की थी।

अस्तु, बादशाह ने उस अंग्रेज अतिथि की खूब खातिरदारी की और न केवल अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाने तथा व्यापार करने का फर्मान जारी किया बल्कि यह भी इजाजत दे दी कि मुगल दरबार में अंग्रेज एलची रहा करे। कुछ दिनों बाद सर टॉमस रो को इंग्लिस्तान के बादशाह ने मुगल-दरबार में अपना पहला एलची बनाकर भेज दिया, जिसने अंग्रेज व्यापारियों के लिए और भी सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। अंग्रेजों को कालीकट और मछलीपट्टनम में भी कोठियाँ बनाने की इजाजत मिल गई। अंग्रेजों की प्रार्थना पर भारत के बादशाह ने यह फर्मान भी जारी कर दिया कि अपनी कोठी के अन्दर रहने वाले कम्पनी के किसी मुलाजिम के कसूर करने पर अंग्रेज स्वयं उसे दण्ड दे सकते हैं। यह एक विचित्र बात थी क्योंकि अंग्रेजों ने अपने साथ अपने देश से किसी नौकर को नहीं लाया था बल्कि उन्होंने भारतीयों को ही अपना नौकर बना कर रख लिया था। इस प्रकार से इस फर्मान के तहत अंग्रेजों को अपने भारतीय नौकरों का न्याय करने और उन्हें सजा देना का अधिकार मिल गया। फर्मान जारी करते वक्त उस बादशाह ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन ये अंग्रेज बादशाह के उत्तराधिकारी तक को दण्ड दने लगेंगे और यदि उनका विरोध किया जाएगा तो वे प्रजा का संहार कर डालेंगे तथा बादशाह के उत्तराधिकारी को बागी कहकर आजीवन कैद कर लेंगे।

सन् 1612 में अंग्रजों ने अपनी पहली कोठी सूरत में बनवाया और स्थल मार्ग से आगरा और दिल्ली के बीच व्यापार शुरू कर दिया। बाद में उन्होंने पटना और मछलीपट्टनम, जो कि उन दिनों गोलकुण्डा राज्य के अन्तर्गत बन्दरगाह था, में भी कोठियाँ बनवा डालीं। व्यापार के बढ़ने के साथ ही साथ बालासोर, कटक, हरिहरपुर आदि में भी अंग्रेजों की कोठियाँ बन गईं। विजयनगर के महाराज से जमीन माँग कर अंग्रेजों ने मद्रास में सेंट जार्ज का किला भी बनवा लिया। इस प्रकार से मुगल-राज्य से बाहर अंग्रेजों का एक स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित हो गया।

अंग्रेजों का धन्धा मुनाफे में चलने लगा। वे भारत से कच्चे रेशम, रेशम के बने कपड़े, उम्दा किस्म का शोरा सस्ते में खरीद कर अपने देश में बेचने लगे और उनके देश से भेजे गए सोने-चाँदी की भी भारत में अच्छी खपत होने लगी। सन् 1661 में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपना सिक्का चलाने, रक्षा के लिए फौज रखने, किले बनाने और आवश्यकता पड़ने पर लड़ाई लड़ने के भी अधिका प्रदान कर दिए। यह एक बहुत ही विचित्र बात थी कि जिस भारत पर इंग्लैंड के राजा का किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था, उसी भारत पर व्यापार करने वाली अंग्रेजी कंपनी को इंग्लैंड के राजा ने राजनैतिक अधिकार दे दिया और यहाँ के सत्ताधारियों के कान में जूँ भी नहीं रेंगी। यही वह अधिकार था जिसने बाद में भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित की।

यह भी एक चमत्कारिक बात है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधि नहीं थी, उसे भारत और चीन में व्यापार करने का ही इजारा मिला था, किन्तु इस कंपनी ने अपने निजी धन-जन से भारत के भागों को हथियाना शुरू कर दिया। और मजे की बात तो यह है कि उनका निजी धन-जन भी भारत की ही थी याने कि भारत से कमाई गई रकम से भारत के लोगों को ही सैनिक बना कर भारतीय लोगों पर ही आक्रमण करना। इस प्रकार से उस काल में भारत की बीस करोड़ जनता पर ब्रिटेन के मात्र सवा करोड़ निवासियों का वर्चस्व होने की शुरुवात हो गई।

स्पष्ट है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं हराया, भारत ने ही खुद को अंग्रेजों के लिए हरा दिया। भारत अंग्रेजों को सेंत-मेंत में ही मिल गया, बिल्कुल जमीन में पड़े अमूल्य हीरे की तरह। इसका मुख्य कारण था कि भारत में किसी एकछत्र सम्राट का आधिपत्य नहीं था। और सही कहा जाए तो भारत में राष्ट्रीयता की भावना नहीं थी।

राष्ट्रीय भावना न होने की अपनी कमजोरी के कारण भारत हजार से भी अधिक वर्षों तक विदेशियों का गुलाम बना रहा। क्या हम अपनी कमजोरी को कभी समझ पाए हैं? आज भी तो हम क्षेत्रीयता और भाषा के नाम पर लड़ मरने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं।

Sunday, August 22, 2010

संकलक, पाठक और टिप्पणियाँ

संकलक एक इंटरनेट से सम्बन्धित शब्द है। संकलकों का काम होता है किसी एक विषय या भाषा के ब्लोग्स को एक स्थान पर दिखाना। जैसे कि समाचार संकलक समाचारों को एक ही स्थान पर दिखाते हैं तो हिन्दी भाषा के संकलक हिन्दी ब्लोग्स को एक स्थान पर! संकलकों का उद्देश्य होता है ब्लोग्स में पाठक भेजना।

जहाँ किसी ब्लोग में संकलकों से पाठक आते हैं वहीं अन्य तरीकों से भी आते हैं जैसे कि ब्लोग का अनुसरण कर के या विभिन्न सर्च इंजिनों में सर्च कर के। किसी पोस्ट में आने वाले पाठकों में से कुछ पाठक पोस्ट को पढ़कर चले जाते हैं, कुछ लोग अपनी टिप्पणी भी करते हैं और ऐसा भी होता है कि कई पाठक पोस्ट को बिना पढ़े भी चले जाते हैं।

यह आवश्यक नहीं है कि जो लोग टिप्पणी करते हैं वे किसी संकलक से ही पोस्ट में आए हों, वे कहीं पर से भी आए हो सकते हैं। मान लीजिए किसी संकलक ने किसी पोस्ट में कुल 31 पाठक भेजे और उस पोस्ट में 37 टिप्पणियाँ हैं। अब जिस संकलक ने पोस्ट में पाठक भेजे हैं वह अपने डिफॉल्ट हॉटलिस्ट में पोस्ट में की गई टिप्पणियों की संख्या को दर्शाता है तो क्या यह उचित है? संकलक से पोस्ट में जाने वाले 31 पाठकों में से कुछ ने ही तो टिप्पणी की होगी और शेष टिप्पणियाँ अन्य प्रकार से आए पाठकों की होगी। तो क्या यह 31 पाठक भेज कर 37 टिप्पणियों का श्रेय लेना नहीं है? और इसके उलटे उस संकलक ने किसी पोस्ट में 96 पाठक भेजे हैं किन्तु उस पोस्ट में मात्र 3 टिप्पणियाँ है तो उस पोस्ट को अपने डिफॉल्ट हॉटलिस्ट में न दिखाना क्या उस पोस्ट के साथ अन्याय नहीं है? संकलक के द्वारा भेजे गए पाठकों के आधार पर ही संकलक की डिफॉल्ट हॉटलिस्ट नहीं होनी चाहिए?

वैसे भी संकलकों का कार्य पोस्ट में महज पाठक भेजना होता है टिप्पणियाँ करवाना नहीं।