Saturday, July 10, 2010

आया है मुझे फिर याद वो जालिम ....

आज की पीढी का मनोरंजन प्रायः टी व्ही के द्वारा ही होता है और टी व्ही के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। किंतु ऐसा समय भी था जब टी व्ही नहीं हुआ करता था। 60-70 के दशक में, जब मैं विद्यार्थी हुआ करता था, में भी टी व्ही नहीं था। उन दिनों हमारे मनोरंजन का मुख्य साधन रेडियो सुनना और सिनेमा देखना ही था।


रेडियो में भी रेडियो सीलोन (जिसका नाम बाद में श्रीलंका ब्राडकॉस्टिंग कार्पोरेशन हो गया), विविध भारती और आल इन्डिया रेडियो की ऊर्दू सर्विस अधिक पसंद किये जाते थे। विविध भारती तथा आल इन्डिया रेडियो में उस जमाने के फिल्मों के लोकप्रिय गानों को प्रसारित किया जाता था और रेडियो सीलोन में इसके साथ ही साथ फिल्मों से संबंधित अनेकों कार्यक्रम सुनवाये जाते थे। इसी कारण से विविध भारती और आल इन्डिया रेडियो की अपेक्षा रेडियो सीलोन अधिक लोकप्रिय था।

प्रत्येक बुधवार को रात्रि 8 से 9 बजे तक रेडियो सीलोन से "बिनाका गीतमाला" कार्यक्रम प्रसारित किया जाता था जिसके लिये लोग दीवाने होकर बुधवार की प्रतीक्षा किया करते थे और शाम होते ही अपने रेडियो पर रेडियो सीलोन लगा लिया करते थे। प्रति रविवार को रेडियो सीलोन से 15-15 मिनट के रेडियो प्रोग्राम्स प्रसारित होते थे जिनमें आने वाली नई फिल्मों के दृश्यों तथा गानों की झलक हुआ करती थी। रेडियो सीलोन में अधिकतर कार्यक्रम विज्ञापन हुआ करते थे किन्तु इतने रोचक ढंग से प्रस्तुत किये जाते थे कि वे विज्ञापन लगते ही नही थे अपने इन कार्यक्रमों से रेडियो सीलोन ने भारत से अरबो-खरबों रूपयों की कमाई की। आज के प्रसिद्ध फिल्मी कलाकार तथा राज्यसभा सदस्य सुनील दत्त भी रेडियो सीलोन के एनाउन्सर रह चुके है।

विविध भारती के मनचाहे गीत, हवामहल आदि के साथ ही साथ आल इन्डिया रेडियो का आपकी फरमाइश कार्यक्रम भी अत्यधिक लोकप्रिय थे। आकाशवाणी से समाचार भी रोजाना सुने जाते थे किंतु बीबीसी के समाचारो को अधिक मान्यता दी जाती थी।

उन दिनों आज के जैसे क्रिकेट का क्रेज नहीं था बल्कि हॉकी और फुटबॉल अधिक पसंद किये जाते थे। हॉकी के अंतराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं के फाइनल मैच में प्रायः भारत और पाकिस्तान की टीम ही पहुँचा करती थी और उसका आंखोदेखा हाल रेडियो से सुनने के लिये लोगो की भीड़ उमड़ पड़ती थी। बहुत कम लोगों के पास रेडियो होने के कारण एक-एक रेडियों को दस-पंद्रह लोग घेर कर बैठ जाया करते थे।

टी व्ही के आ जाने से यद्यपि रेडियो श्रोताओं की संख्या में कमी आ गई थी किन्तु रेडियो मिर्ची, माई एफ एम, रंगीला आदि के आने से रेडियों एक बार पुनः लोगों में लोकप्रिय होते जा रहा है।

Friday, July 9, 2010

कहूँ चीख चिल्लाय

(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कुण्डलियाँ)

सरकारी राक्षस सभी, घूसखोर मक्कार।
मदिरा अंडा मांस के, भक्त बड़े हैं यार॥
भक्त बड़े हैं यार, खोजत फिरत व्यापारी।
साँठ-गाँठ व्यहार, निभा लेते हैं यारी॥
'कहूँ चीख चिल्लाय', आये आपकी बारी।
लेंगे तुमको चूस, कर्मचारी सरकारी॥

व्यापारी को जानिये, रावण का अवतार।
मेल मिलावट में कुशल, दाम बढ़ावन हार॥
दाम बढ़ावन हार, लहू पीने में खटमल।
सदा नम्र व्यवहार, लूट खसोट में चंचल॥
'कहूँ चीख चिल्लाय', प्रशंसा करते भारी।
धन्य धन्य तुम धन्य, दो नम्बर के व्यापारी॥

अकड़ें नेता दैत्य-सम, पाय कुजोग सुजोग।
मस्ती में डूबे रहें, सुलभ सदा सब भोग॥
सुलभ सदा सब भोग, मतलबी चोंच लड़ाते।
पकड़ टांग को खींच, सहयोगी को गिराते॥
'कहूँ चीख चिल्लाय', बुराई को ही पकड़ें।
बन कर मालामाल, झूम ठर्रा में अकड़ें॥

नमन करूँ गुरु देव को, ज्ञानी सन्त महान।
छेड़त नटखट चाल चल, नित नूतन अभियान॥
नित नूतन अभियान, बुद्धि कौशल दिखलावें।
बहिष्कार हड़ताल, करें, बालक रटवावें।
'कहूँ चीख चिल्लाय', होवे विद्या का शमन।
करें राष्ट्र निर्माण, बारम्बार तुम्हें नमन॥

आरक्षी दल को नमन, जो जग प्रेत समान।
पकड़त ऐसे लोग को, जैसे भूत-मसान॥
जैसे भूत मसान, क्वचित, बलात्कार भी करते।
कर्फ्यू के शैतान, लट्ठ बने लाठी धरते॥
'कहूँ चीख चिल्लाय', उड़न दस्ता के पक्षी।
उड़ते हैं दिन रात, उलूक बने आरक्षी॥

(रचना तिथिः सोमवार 26-01-1981)

Thursday, July 8, 2010

इक समुन्दर ने आवाज दी मुझको पानी पिला दीजिये

पानी का कुछ भी रंग नहीं होता पर जब पानी उतरता है तो बड़ों-बड़ों का रंग उतर जाता है। एक समय था जब पानीदार लोगों की इज्जत हुआ करती थी पर जमाने के फेर ने सबकुछ बदल कर रख दिया और आज पानीदार लोगों की कुछ भी पूछ नहीं रही, उल्टे घाट-घाट के पानी पिये लोगों का ही दबदबा देखने में नजर आता है। आज जिस प्रकार से खरे सोने के गहने के स्थान पर सोने के पानी पिलाये गये गहनों का ही अधिक चलन है उसी प्रकार से आज सच्चे व्यक्ति से अधिक झूठे और बेईमान लोग ही इज्जतदार कहलाते हैं। ये झूठे और बेईमान लोग गरीबों का खून चूस-चूस कर दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करते जाते हैं और गरीब लोग इन्हें पानी पी-पी कर कोसते हैं। कहते हैं किः

निर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय।
मुए चाम की साँस से लौह भस्म होइ जाय॥


किन्तु आज के जमाने में तो आह का भी असर नहीं रह गया है।

पानी की महिमा अपरम्पार है। पृथ्वी के लगभग दो तिहाई भाग में पानी ही पानी है। पानी ना हो तो जीवन ही ना हो। किसी भी वयस्क व्यक्ति के शरीर में औसतन 35 से 40 लीटर पानी होता है। यहाँ तक कि हमारी हड्डियों में भी 22 प्रतिशत पानी होता है। मूत्र और पसीने के रूप में प्रतिदिन हमारा शरीर 2.3 से 2.8 लीटर तक पानी का त्याग करता है। हमारे दाँतों में 10 प्रतिशत, त्वचा में 20, मस्तिष्क में 74.5, मांसपेशियों में 75.6, और खून में 83 प्रतिशत पानी होता है। अधिक से अधिक पानी पीना हमारे शरीर के लिये अत्यधिक लाभप्रद है।

पानी ना हो तो दूध वाला भला दूध में क्या मिलायेगा? पानी ना होता तो "दूध का दूध और पानी का पानी" मुहावरा भी ना होता। पानी ना होता तो यह श्लोक भी ना बनताः

हंसो शुक्लः बको शुक्लः को भेदो बक हंसयो?
नीर-क्षीर विभागे तु हंसो हंसः बको बकः॥


कठोपनिषद में कहा गया है "राजहंस नीर-क्षीर विवेक में निपुण होता है तथा नीर को त्यागकर क्षीर (दुग्ध) को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार धीर पुरुष प्रेय को त्यागकर श्रेय का वरण कर लेता है।"
पानी ना होता तो रहीम ना कहतेः

रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गये ना ऊबरे मोती मानुस चून॥


पानी ना होता तो कारे-कजरारे मेघ ना बनते, घटायें नहीं छातीं और हमारे फिल्मों की नायिकाएँ "जा रे जा रे ओ कारे बदरिया..", "कारे बदरा तू ना जा ना जा..", "मेघा छाये आधी रात.." आदि गाने भी ना गा पातीं। बादल की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक ना होती। कवि 'सेनापति' को यह लिखने का अवसर ही ना मिलता किः

दामिनी दमक, सुरचाप की चमक, स्याम
घटा की घमक अति घोर घनघोर तै।
कोकिला, कलापी कल कूजत हैं जित-तित
सीतल है हीतल, समीर झकझोर तै॥
सेनापति आवन कह्यों हैं मनभावन, सु
लाग्यो तरसावन विरह-जुर जोर तै।
आयो सखि सावन, मदन सरसावन
लग्यो है बरसावन सलिल चहुँ ओर तै॥


पानी को जल, सलिल, नीरज, नीरद आदि के नाम से भी जाना जाता है और पानी के इन समानार्थी शब्दों का प्रयो प्रायः काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिये किया जाता है, जैसे किः

  • नयन नीर पुलकित अति गाता।
  •  कबिरा मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
  •  प्रियतम तो परदेस बसे हैं, नयन नीर बरसाये रे।
  •  मालव धरती गहन गंभीर पग पग रोटी डग डग नीर।
कभी प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का कार्य माना जाता था। आज से सिर्फ पचीस-तीस, कम से कम हमारे देश में, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि पानी भी बिकने लगेगा। धन्य हैं वे लोग जो पानी को भी बेच कर स्वयं की और देश की तरक्की कर रहे हैं।

Wednesday, July 7, 2010

बंद रहा टिप्पणी-बाजार... ब्लोगजगत में मचा हाहाकार

"बिन टिप्पणी सब सून!"

पोस्ट लिखें, टिप्पणियाँ भी मिले पर टिप्पणियाँ पोस्ट में ना दिखे तो हिन्दी ब्लोगजगत में हाहाकार मचना तो स्वाभाविक ही है। परसों याने कि पाँच जुलाई की शाम से ही कुछ ऐसा होने लग गया कि मेल में तो सूचना मिलती है कि पोस्ट पर टिप्पणियाँ आई है किन्तु डैशबोर्ड पर और पोस्ट पर वे टिप्पणियाँ नदारद हैं। ऐसी स्थिति कल दिन भर रही। गहन चिन्ता में डाल दिया गूगल बाबा ने ब्लोगरों को।

अब ब्लोगर बाबा भी क्या करे? बारहों महीने-आठों काल, प्रत्येक दिन चौबीसों घंटे अनवरत रूप से काम करते रहने पर कभी-कभी बीमार हो जाना कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं है। सो गूगल बाबा के ब्लोगर की तबीयत भी शायद खराब हो गई होगी। बस बीमारी की इस अवस्था में उन्होंने टिप्पणियाँ दिखाना बंद कर दिया।

अब हिन्दी ब्लोगिंग का तो अस्तित्व ही टिप्पणी से है, टिप्पणियाँ ना मिले तो लोग ब्लोगिंग ही ना करें। हिन्दी ब्लोगिंग से ना तो बड़ी संख्या में पाठक ही मिल पाते हैं और ना कुछ कमाई ही हो पाती है। बस टिप्पणियाँ ही तो मिलती हैं और यदि टिप्पणियाँ मिलनी भी बंद हो जाये तो भला क्यों करेगा कोई हिन्दी ब्लोगिंग?

शुक्र है कि आज टिप्पणियाँ दिखाई देने लग गई हैं और लगता है कि गूगल बाबा का ब्लोगर अब स्वस्थ हो चले हैं। हमारी कामना यही है कि वे सदैव स्वस्थ ही रहें।

Tuesday, July 6, 2010

भोजन को सुस्वादु बनाने वाला ग्रेव्ही अर्थात् करी याने कि तरी

भारतीय ग्रेव्ही, जिसे कि अक्सर करी और तरी भी कहा जाता है, का अपना अलग ही इतिहास है। जी हाँ, आपको जानकर आश्‍चर्य होगा कि भारतीय करी का इतिहास 5000 वर्ष पुराना है। प्राचीन काल में, जब भारत आने के लिये केवल खैबर-दर्रा ही एकमात्र मार्ग था क्योंकि उन दिनों समुद्री मार्ग की खोज भी नहीं हुई थी। उन दिनों में भी यहाँ आने वाले विदेशी व्यापारियों को भारतीय भोजन इतना अधिक पसंद था कि वे इसे पकाने की विधि सीख कर जाया करते थे और भारत के मोतियों के साथ ही साथ विश्‍वप्रसिद्ध गरम मसाला खरीद कर अपने साथ ले जाना कभी भी नहीं भूलते थे।


करी शब्द तमिल के कैकारी, जिसका अर्थ होता है विभिन्न मसालों के साथ पकाई गई सब्जी, से बना है। ब्रिटिश शासनकाल में कैकारी अंग्रेजों को इतना पसंद आया कि उन्होंने उसे काट-छाँट कर छोटा कर दिया और करी बना दिया। आज तो यूरोपियन देशों में करी इंडियन डिशेस का पर्याय बन गया है।

Monday, July 5, 2010

कोई दम तोड़ दे तो तोड़ दे पर भारत बंद रहेगा

बीमार को अस्पताल नहीं पहुँचा सकते क्योंकि भारत बंद है। कोई यदि उसे अस्पताल तक पहुँचाना भी चाहे तो उसे रोक दिया जायेगा और यदि न रुके तो उसका वाहन जला दिया जायेगा। कोई दम तोड़ दे तो तोड़ दे पर भारत बंद रहेगा।

शक्ति-प्रदर्शन करने वालों को बंद करके अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने से ही मतलब होता है, उन्हें भला इससे क्या मतलब है कि रोज कमाने और रोज खाने वाले कितने लोगों के घर में चूल्हे नहीं जले, होटलों में खाना खाना जिनकी मजबूरी है ऐसे कितने ही लोग भूखे रह गये, वाहनों के अभाव में कितने ही लोग कार्यालय नहीं जा पाये और काम न होने से राष्ट्र का कितना नुकसान हुआ, कितने ही बीमारों ने अस्पताल न पहुँच पाने या दवा न मिल पाने के कारण दम तोड़ दिया ....

Sunday, July 4, 2010

मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ

इक आग के दरिया में मै डूब के आया हूँ
जिल्लत है मिली मुझको पर इश्क नहीं पाया हूँ

कुचले हैं मेरे अरमां टूटी है मेरी आशा
गैरों का सताया हूँ अपनों का रुलाया हूँ

दिल में थे जितने अरमाँ आँखों में जितने सपने
अपने पे लुटाना था तुझ पे ही लुटाया हूँ

एहसास है मुझको ये भी तेरे प्यार में डूबा हूँ
अपना न रहा अब मैं तेरा भी न हो पाया हूँ

बरबाद हो गया हूँ चाहत में तेरी अब तक
पाना था तुझको लेकिन खुद को ही गवाँया हूँ

खोने के बाद तुझको मरने की तमन्ना है
मरने की आरजू में जीता ही चला आया हूँ