लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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इधर जितनी घटनायें हुईं। उन सबको पीछे ठेलकर उस समय पर विचार करें जब रामनाथ के साथ उसे विश्वासपात्र समझ कर परसादी ने श्यामवती को रायपुर के लिये रवाना किया था। यह भी तय हो चुका था कि रामनाथ पहले कलकत्ता जावेगा और वहाँ से फिर रायपुर के लिये प्रस्थान करेगा। कलकत्ता पहुँच कर रामनाथ ने अपना काम किया और श्यामवती को साथ लेकर जबलपुर होकर बम्बई जाने वाली गाड़ी में जा बैठा। रात का समय होने के कारण श्यामवती को कुछ पता न चल सका। गाड़ी जब कटनी पहुँची तब रामनाथ ने कहा, "श्यामवती, बहुत बड़ी भूल हो गई। हम लोग तो दूसरी ही गाड़ी में आ गये। यह कटनी स्टेशन है। यहाँ उतर कर बिलासपुर चलें और वहाँ से रायपुर की गाड़ी पकड़ लेंगे।" दोनों वहीं कटनी में उतर गये। बिलासपुर जाने वाली गाड़ी अगले दिन ही मिलनी थी। इसलिये टांगा करके रामनाथ श्यामवती को एक धर्मशाला में ले गया। वहाँ उन्हें एक कमरा दिया गया।
रामनाथ श्यामवती से बोला, "मैं खाने के लिये कुछ ले कर आता हूँ" और वहाँ से वह मैनेजर के पास आया और एक कुर्सी पर बैठ गया। मैनेजर ने पास ही रखी हुई पेटी खोल कर रामनाथ के हाथ में तीन सौ रुपये गिन दिये। वह सन्तोष के साथ चला गया पर जाते जाते कह गया, "मैनेजर साहब, अब आप जानिये।"
"तुम बेफिकर रहो रामनाथ। हमारे यहाँ पूरा प्रबन्ध है।" मुस्कुरा कर मैनेजर ने उत्तर दिया। जब दो घंटे से अधिक समय बीत गया और रामनाथ वापस नहीं आया तब श्यामवती को चिन्ता हुई। वह कमरे से निकल कर बाहर आई और जैसे ही चाहा कि फाटक से बाहर पैर रखे और रामनाथ का पता लगाने के लिये जावे वैसे ही एक पहरेदार ने उसे रोक लिया और कहा, "कहाँ जा रही हो बाई? तुम्हीं हो न जो आज आई हो? नये आये हुये लोगों को बाहर जाने का हुक्म नहीं है।"
"क्यों? यह कैसी धर्मशाला है? ऐसा तो कहीं भी नहीं होता।" श्यामवती झुँझला कर बोली।
पहरेदार ने हँसते हुये कहा, "यह धर्मशाला नहीं है बाई। यह तो विधवा आश्रम है।" सुन कर श्यामवती को ऐसा लगा कि वह बेहोश होकर गिर रही है। पर उसने अपने आपको संभाला। धीरज उसका न जाने कहाँ खो गया। वह मैनेजर के कमरे में पहुँची। उसको देखते ही तिलक लगाये, रामनामी चादर ओढ़े और सिर पर पगड़ी बाँधे हुये मैनेजर ने स्वागत करते हुये कहा, "आवो देवी आवो। तुम्हारा ही नाम श्यामवती है ना? बैठो, बैठो कुर्सी पर। कहो यहाँ तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है?" श्यामवती झल्लाई हुई थी। गरज कर बोली, "मैं यहाँ आश्रम में एक पल भी नहीं ठहरना चाहती। मुझे जाने दो।"
"ना, ना, ना" ऐसा भी कहीं हुआ है कि आश्रम में आ कर कोई भी देवी दुखित ही चली जाय। पहले उसका पुनर्विवाह हो जावे, उसके जीवन को किसी का सहारा मिल जावे, तभी वह यहाँ से जा सकती है। तब तक हम उसके जीवन को सुखी बनावेंगे।" और वह निर्लज्जता की हँसी बिखेरने लगा।
"पर आपसे किसने कहा कि मैं विधवा हूँ। मेरे पति तो जीवित हैं। आपका यह कैसा आश्रम है जो सधवा का विधवा-विवाह कराता है?" श्यामवती ने क्रोध से फुफकारते हुये कहा।
मैनेजर पर श्यामवती के क्रोध का प्रभाव नाममात्र के लिये भी नहीं पड़ा। इसके विरुद्ध वह अधिक प्रसन्न मुद्रा से बोला, "श्यामवती देवी, रामनाथ से हमें सब कुछ मालूम हो चुका है। रामनाथ हमारी संस्था के खास लोगों में से है। तुम्हीं एक स्त्री नहीं हो जिसका उसने उपकार किया हो। तुम अपने हत्यारे पति को मरा हुआ ही समझो। ऐसे पति की पत्नी तो विधवा से भी बदतर होती है। और देखो, यहाँ से बाहर जाने का ध्यान स्वप्न तक में भी मत लाना।"
श्यामवती समझ गई कि वह बुरी तरह से फँसा दी गई है। चुपचाप अपने कमरे में आ गई और फूट फूट कर रोने लगी। रोने से जब मन कुछ शान्त हुआ तब विचारों के समुद्र में डूब गई। उसने सोचा कि देवता जैसा दिखने और व्यवहार करने वाला रामनाथ जब ऐसा कर सकता है तब संसार में कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है। इसी समय भोजन की थाली लिये एक नौकरानी ने प्रवेश किया और थाली रख कर जाने लगी। श्यामवती चिल्ला कर बोली, "ले जा इसे। मैं कुछ नहीं खाउँगी। भूखी रह कर प्राण दे दूँगी पर यहाँ के एक दाने को भी हाथ नहीं लगाउँगी।" नौकरानी सहम गई और थाली उठा कर चुपचाप चली गई। थोड़ी ही देर में एक दूसरी स्त्री के साथ मैनेजर आया। साथ में भोजन लिये वही नौकरानी भी थी। उस स्त्री और मैनेजर ने श्यामवती से भोजन कर लेने के लिये बड़ा आग्रह किया पर वह कुछ बोली तक नहीं। हताश हो, थाली वहीं रखवा वे तीनों बाहर चले गये। जाते जाते मैनेजर कहता गया कि, "भूख से तिलमिला उठेगी तो आप ही खायेगी।" फिर दिन भर न कोई आया और न श्यामवती ने भोजन ही किया। जाल में फँसी हुई हिरणी की भाँति वह तड़प रही थी। मन अशान्त था। एक एक कर घर के लोग याद आ रहे थे। न जाने कब वह लेट गई और निराश तथा थकी हुई होने के कारण नींद में खो गई।
अत्यधिक उद्विग्नता के कारण श्यामा को नींद में भी चैन नहीं था। वह स्वप्न देखने लगी। उसने देखा कि वह अपनी जन्म-भूमि सिकोला पहुँच गई है। लोग उससे केवल इसीलिये घृणा कर रहे हैं कि वह इतने दिनों तक न जाने कहाँ कहाँ रही और उस पर क्या क्या बीता। तभी लोगों की घृणा ने क्रोध का रूप धारण कर लिया। अब लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। वह प्राण बचा कर भाग रही है। अचानक एक पत्थर उसके सिर पर लग गया और सिर से खून बह रहा है। वह धड़ाम से गिर पड़ी। इसी समय किसी ने उसका सिर अपनी गोद में ले लिया। उसने आँखें खोल कर देखा तो वह महेन्द्र है। दोनों की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही है पर महेन्द्र की गोद में अपना सिर पा कर वह अपना दुःख भूल गई है। उसे असीम शान्ति मिल रही है। इतने में ही उसकी नींद टूट गई। वह बिलख बिलख कर रोने लगी।
जगप्रसिद्ध सर गंगाराम के द्वारा करुणा से उत्प्रेरित होकर वास्तविक भावना से जो विधवा-आश्रम स्थापित किये गये थे उनसे इस विधवा आश्रम का कतई सम्बंध नहीं था। कुछ स्वार्थी दुराचारियों ने मिल कर इस भ्रष्टाचार-आश्रम की स्थापना की थी जहाँ वे इन्द्रिय लोलुप लोग निरीह, असहाय अबलाओं को अपने स्वेच्छानुसार शिकार बनाते थे। शाम को वही नौकरानी भोजन की दूसरी थाली ले कर आई। उसने देखा कि सबेरे की थाली जहाँ की तहाँ और ज्यों की त्यों पड़ी है। वह उल्टे पाँव लौट गई और जा कर उसने मैनेजर को सूचना दी। मैनेजर ने उस स्त्री को भेजा जो पहले उसके साथ आई थी। उसका नाम अहल्या था। वह स्त्री विभाग में मुखिया था। सब काम अहल्या के द्वारा होते थे। अहल्या सफेद साड़ी पहनी हुई थी। उसके गोरे चेहरे पर चेचक के हल्के दाग थे। अधिक पान खाने से ओठ सदैव लाल रहते थे। माथे पर बड़ा सा गोलाकार सिन्दूर लगा था। अवस्था पैंतीस और चालीस के बीच थी पर उसमें अभी तक उत्कट आकर्षण था। कमरे में प्रवेश करते ही बहुत मधुर स्वर से अहल्या ने कहा, "श्यामवती, सबेरे से तुमने कुछ खाया नहीं है। कुछ तो खा लो।" पर श्यामवती चुप रही। अहल्या ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, "देखो, ऐसे काम नहीं चलेगा। भोजन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। न खाने से अन्न का अपमान होता है।" अब की बार श्यामवती ने धीरे से उत्तर दिया, "तुम कुछ भी कहो, मैं नहीं खाउँगी। भूख-प्यास से प्राण दे दूँगी।" इस उत्तर से अहल्या को क्रोध आ गया। झटके से श्यामा का हाथ छोड़ कर फुफकारती हुई बोली, "देखूँगी, कब तक अकड़ दिखाती है।" फिर वह झपाटे से बाहर चली गई। नौकरानी आई और भोजन की नई थाली रख कर सबेरे वाली थाली उठा ले गई। श्यामवती की ओर उसने देखा तक नहीं।
श्यामवती सबेरे आश्रम के आँगन में स्थित कुएँ में स्नान कर लेती थी। इसके बाद वह अपने कमरे में जो घुसती तो निकलने का नाम न लेती। दिन भर भगवान के नाम की रट लगाये रहती थी। सुबह-शाम नौकरानी थाली रख जाती पर वह उधर देखती तक नहीं थी। थोड़े समय के लिये ही कमरे से बाहर आने में ही श्यामवती को आश्रम के रंग-ढंग मालूम हो गये। वहाँ प्रायः पूर्ण रूप से निर्लज्ज स्त्रियाँ ही थीं जो बनाव-श्रृंगार में व्यस्त वासना की मूर्तियाँ ही कही जा सकती थीं। श्यामवती को देख कर कोई मुँह बिचकाती तो कोई आवाज सकती थी कि आश्रम के भाग्य खुल गये जो यहाँ सती सावित्री का आगमन हुआ है। श्यामा को इन बातों की चिन्ता नहीं थी।
चार दिनों से अन्न-जल ग्रहण न करने से श्यामवती में कमजोरी आ गई पर उसकी अन्तरात्मा में एक ऐसी दिव्य शक्ति उभर रही थी कि उसे विश्वास हो गया कि वह इसी प्रकार मृत्यु तक सरलता से समय बिता देगी। चौथे दिन मैनेजर और अहल्या को चिन्ता हुई कि कहीं श्यामवती सचमुच ही मर न जाये। उन लोगों को इतना तो मालूम हो गया था कि उसका निश्चय अटल है। पर उन्हें अपने हथकण्डों पर अधिक विश्वास था। उपाय सोच कर भोजन के समय वे दोनों नौकरानी के हाथ भोजन की थाली रखा कर श्यामवती के कमरे में आये। आते ही मैनेजर ने जोर से चिल्ला कर कहा, "खाना खाती है नहीं।"
श्यामवती अपनी पूरी आन्तरिक शक्ति से चिल्ला उठी, "नही, नहीं, नहीं।"
"अच्छा देखता हूँ कैसे नहीं खाती है" कह कर मैनेजर ने अहल्या को इशारा किया। उसने श्यामवती के हाथ जकड़ कर पकड़ लिये। मैनेजर ने उसके दोनों गाल दबाये जिससे उसका मुँह खुल गया। नौकरानी ने चाँवल का एक कौर मुँह में डाला। मैनेजर ने श्यामा के दबाये हुये गालों को इसलिये छोड़ दिया कि वह कौर निगल सके। मुँह छूटते ही श्यामवती ने वह कौर उगल दिया। यह देख कर अहल्या और मैनेजर हैरान हो गये। उनकी धारणा थी कि भूख से तिलमिलाती हुई श्यामा अवश्य ही खा लेगी। हैरानी के साथ साथ मैनेजर को क्रोध भी आया पर उसने स्वयं कुछ नहीं किया। लअहल्या से केवल इतना ही कह कर बाहर चला गया कि, "अब इसे तुम ही संभालो।" अहल्या गरज कर बोली, "हरामजादी, चार दिनों से तहलका मचा रखा है। खाती है या नहीं?" श्यामवती चुप रही। उसके चुप्पी से अहल्या घायल नागिन-सी हो गई। उसने साड़ी के आँचल में छिपा और कमर में लिपटा हुआ चमड़े का हण्टर निकाला और लगी श्यामवती को धड़ाधड़ पीटने। श्यामवती ने आह तक नहीं की। प्रत्येक मार पर वह मन ही मन भगवान का नाम ले रही थी। सात-आठ हण्टर पड़ने पर वह बेहोश हो गई। अहल्या भोजन की थाली वहीं छोड़ नौकरानी के साथ बाहर चली गई। न जाने कब श्यामवती को होश आया। वह पूरे शरीर में असह्य वेदना का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखें लगातार आँसू बहा रहीं थी।
चार दिन और बीत गये पर श्यामा का संकल्प और भी अधिक अटल होता गया। अब वह लेटी ही रहती थी। उसमें चलने-फिरने की भी समार्थ्य नहीं रह गई थी।
जिस दिन अहल्या ने श्यामा को हण्टर मारे उसी दिन उसके हृदय को भी गहरा धक्का लगा। उसने हृदय में उठते हुये पश्चाताप के अंकुर को कुचल देना चाहा, किन्तु उसका स्त्री मन आड़े आ जाता था। वह आप ही आप बड़बड़ा उठी, 'आखिर यह दुर्बलता और पश्चाताप की भावना मुझमें कब तक बनी रहेगी।' फिर अहल्या अपने कामों में ऐसी लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो किन्तु उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ हो रहा था। उसकी दुर्बलता या स्त्री सुलभ कोमलता और पश्चाताप की भावना क्रम क्रम से उसके हृदय में प्रबल होती जा रही थी। साथ ही साथ सदयता और सहृदयता भी उस भावना के साथ उभरती जा रही थी। वास्तव में वह निर्दय नहीं थी किन्तु परिस्थितियों ने उसे निर्दय बना दिया था। श्यामवती के अटल निश्चय का प्रभाव उस पर धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था। उसके मानस-पटल पर वह दिन उभर आया जब उसे भी श्यामवती के जैसे ही इस आश्रम में लाया गया था। उसे भी यहाँ के जीवन से वैसी ही घृणा हुई थी जैसी आज श्यामवती को हो रही है। उसने भी निश्चय किया था कि वह गंदगी में कभी लिप्त नहीं होगी किन्तु उसे निश्चय अटल न रह सका था। फिर आश्रम के गंदे वातारवरण और प्रलोभन ने उसकी कोमल भावनाओं पर कालिमा पोत दिया था। कालिमा ने निर्लज्जता को जन्म दिया, निर्लज्जता ने कठोरता को, और उसका नारी-चरित्र न जाने कैसे परिवर्तित हो गया। श्यामवती की दृढ़ता ने उसी कालिमा को ही मिटाना प्रारम्भ कर दिया। अहल्या की अन्तरात्मा काँप उठी। उसे भीतर से धिक्कार पर धिक्कार मिलने लगा। मन ने कहा 'मक्कार औरत, जिस नारी जाति की हमारे देश में, उसके अलौकिक गुणों, धैर्य, सहनशीलता के कारण सीता, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, पार्वती, गायत्री, चण्डी, काली, महामाया के रूप में पूजा की जाती है, तू उसी मातृजाति का भीषण कलंक बन चुकी है। तूने कितनों को कलंकित होने में सहायता दी है और आज भी एक पवित्र नारी का जीवन नष्ट करने पर तुली हुई है। अहल्या पश्चाताप की लपटों में जलने लगी। उसके हृदय का कलुष तब तक उसके नयनों से बहता रहा जब तक उसका हृदय उज्वल न हो गया। वह अपने कमरे से निकल कर सीधे श्यामवती के कमरे में गई। श्यामा को उसने उसी सहज प्रेम से उठा कर बैठाया जो एक नारी के हृदय में दूसरी नारी के लिये होता है। मधुर स्वर में बोली, "श्यामा, जिस भगवान को तुम रट रही हो उसी की सौगन्ध है जो तुम भोजन न करो तो।"
अहल्या के स्वर का वास्तविक परिवर्तन श्यामवती से छिपा न रह सका। वह अहल्या की बात से प्रभावित हुई और उसका हृदय अनायास ही उसकी ओर आकर्षित भी हुआ। सत्य सत्य को पहचान न सके - यह हो ही नहीं सकता। फिर भी अहल्या पर सहसा विश्वास न कर वह बोली, "कहीं यह तुम्हारी नई चाल तो नहीं है?" सुनकर अहल्या को लगा मानो वह रौरव नर्क में ढकेल दी गई हो। उसने शान्ति, संयम और दृढ़ता से कहा, "मुझ पर विश्वास करो। मैं तुम्हें यहाँ से निकालने के साथ ही साथ स्वयं भी निकल जाउँगी। जिस अन्तर्यामी परमात्मा से मेरे जीवन का कोई भी क्षण छिपा नहीं है मैं उसी परमात्मा की सौगन्ध खा कर कहती हूँ कि मैं जो कुछ कह रही हूँ, सच है।"
अब श्यामवती के लिये अविश्वास करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई। उसने सोचा कि अहल्या जब भगवान की शपथ खा रही है तब उस पर विश्वास न करना भगवान के ऊपर ही अविश्वास करने के बराबर होगा। वह भोजन करने के लिये राजी हो गई। अहल्या के आनन्द की सीमा न रही। वह बाहर आई और रसोईघर से दूध का गिलास स्वयं उठा लाई। श्यामवती ने दूध पिया। उसे उसमें रुचि नहीं मालूम हुई पर शान्ति और शक्ति अवश्य ही मिली। अहल्या ने वहाँ से बच निकलने का उपाय सोचा और श्यामार से वैसा ही करने के लिये कहा जैसा वह कहती जावेगी।
अहल्या ने बड़े उल्लास के साथ श्यामवती के द्वारा अनशन तोड़ने की सूचना मैनेजर को जाकर दी। सुन कर उसे सन्तोष हुआ। उसने धूर्तता से पूछा, "रास्ते में आ जाने के लिये श्यामवती को कितने दिन लगेंगे?"
"तुम तो जानते ही हो कि किसी स्त्री के ऊपर, उसके यहाँ आने के महीने भर बाद ही, हम लोग अपने जादू चलाते हैं। पर श्यामवती जरा दूसरे मिजाज की है इसलिये उसके मामले में दो से तीन महीने भी लग सकते हैं। किन्तु तुम निश्चिंत रहो, मैं इसे ठीक रास्ते पर ले आउँगी।"
"अच्छा, तू जो चाहे कर।" कह कर मैनेजर ने चाहा कि अहल्या को अपने आलिंगन में समेट ले पर 'हटो' कह कर अहल्या तेजी से भाग गई।
अहल्या के कहे अनुसार अब श्यामवती ने मैनेजर के साथ अपने व्यवहार की कठोरता कम कर दिया। अहल्या ने मैनेजर पर ऐसा प्रभाव डाला कि उसे पूरा विश्वास हो गया कि अहल्या श्यामा पर अपना असर डाल रही है। ज्यों ज्यों उसका विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता गया त्यों त्यों वह अहल्या और श्यामवती को सथ रहने का अधिक से अधिक अवसर देता गया। एक दिन अहल्या और श्यामवती साथ साथ तरकारी-भाजी खरीदने बाजार गईं। वे बाजार जाने के स्थान पर सीधे स्टेशन पहुँच गईं जहाँ कटनी-बिलासपुर रेल छूटने ही वाली थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक टिकट कटाया और एक डिब्बे में बैठ गईं। दो-तीन मिनट बाद ही गाड़ी छूटी पर वे दो-तीन मिनट उन्हें दो-तीन युगों के समान प्रतीत हुये। डर और आशंका से उनका हृदय धक् धक् कर रहा था। प्रति क्षण उन्हें ऐसा लग रहा था कि कोई न कोई आता ही है जो उन्हें घसीटता हुआ ले जाकर फिर उसी नर्क में पटक देगा जहाँ से निकल कर वे आई हैं। किन्तु गाड़ी की रफ्तार बढ़ने के साथ उनका डर कम होते जा रहा था और सन्तोष तथा शान्ति बढ़ती जा रही थी। शहडोल आने पर अहल्या उतर गई। पास ही के गाँव में उसका घर था जहाँ स्वालम्बन, सदाचार और सुख से शेष जीवन बिताने का उसने वज्र-निश्चय कर लिया था। बिछुड़ते समय दोनों गले लग कर मिलीं। उनकी आखों में वह निश्छल आँसू छलछला आया जो जीवन भर के लिये दो हृदयों को एक कर देता है। श्यामा का हृदय कृतज्ञता से भर गया।
बिलासपुर पहुँचने पर श्यामवती ने गाड़ी बदली और रायपुर आ गई। यहाँ की एक एक वस्तु में आत्मीयता पा कर उसका हृदय उल्लास से भर गया। स्टेशन से निकल कर उसने सीधा खुड़मुड़ी का रास्ता लिया।
(क्रमशः)