Saturday, October 13, 2007

धान के देश में - 35

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 35 -

भाषण सुन कर लौटने के बाद जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये और उषा, श्यामवती, राजो - महेन्द्र के साथ उसके घर ठहरे। रात के आठ बजे होंगे। उषा, श्यामा और महेन्द्र बरामदे में बैठे बातें कर रहे थे। उनके मनोभाव भी काम कर रहे थे। महेन्द्र जानना चाहता था कि उषा बम्बई क्यों जाना चाहती है। श्यामवती सोच रही थी कि उषा और महेन्द्र के आपसी भाव क्या हैं। उषा इस तथ्य का अनुसंधान लगाने में खोई थी कि जिस श्यामवती को ढूँढने में महेन्द्र ने दिन-रात एक कर दिया था उसके मिल जाने के बाद अब क्या दशा है। उस समय आज जैसी बिजली की रोशनी की किसी ने रायपुर में होने की कल्पना तक नहीं की थी। बड़ा-सा लैम्प टेबल पर रखा हुआ जल रहा था - मानो तीनों के विदग्ध हृदय का मूर्तिमान भाव हो। बातें कई विषयों को लेकर हो रही थीं। अचानक ही प्रसंग बदलते हुये उषा ने पूछा, "महेन्द्र बाबू, श्यामवती आपको कहाँ मिली?"
"मिली कहाँ! यह तो आप ही चली आई।"
"बाहर इनको बहुत कष्ट मिला होगा?"
"तुम्हारा कहना गलत नहीं है उषा। इसका जीवन सुख-दुःख का प्रत्यक्ष स्वरूप ही है।" महेन्द्र बोला।
"तब तो श्यामवती," श्यामा की ओर रुख करके उषा ने कहा, "मैं तुम्हारे जीवन के बारे में अवश्य ही सुनूँगी और वह भी तुम्हारे मुँह से।"
श्यामवती ने अपने विषय में सब कुछ बता दिया पर अपने और महेन्द्र के प्रेम को छिपा गई। श्यामा के जीवन की विडम्बनाओं को सुन कर उषा की आँखें सजल हो गईं। महेन्द्र ने वार्ता-क्रम जारी रखते हुये कहा, "विवाह केवल अभिशाप है। आजन्म अविवाहित रह जाना अच्छा है।"
उषा बोली, "महेन्द्र बाबू, आप ठीक कह रहे हैं। मैं भी इस सिद्धान्त को मानती हूँ।"
"और इससे चाहे किसी को कितना ही दुःख क्यों न मिले।" श्यामवती ने विवाद में भाग लिया।
"किसको कष्ट और किसको दुःख?" महेन्द्र ने पूछा।
"तुम्हारी माता सुमित्रा को और किसको।" श्यामवती का यह उत्तर सुन कर महेन्द्र का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया। उसके चेहरे पर विषाद की स्पष्ट रेखा खिंच गई जो उषा की दृष्टि से छिप न सकी।
"यह माता जी की भूल है जो मेरे ब्याह न करने से दुःखी हो रही हैं।" महेन्द्र ने दुःखी मन से कहा।
"सुना उषा बहन तुमने। ये और भी कहेंगे कि पढ़े-लिखे बेटे से सुख की आशा करना, घर में बहू आये जिससे सुख मिले और वंश को पानी देने वाले हों ऐसा सोचना भी माता जी की भूल ही होगी। उनकी हर बात भूल और इनकी हर बात अच्छी है। पढ़-लिख कर इनको कितनी अच्छी बुद्धि मिली है।" श्यामवती ने महेन्द्र को आड़े हाथों लिया। उसकी महेन्द्र के प्रति अधिकार भरी झिड़की सुनने में उषा को बड़ा आनन्द आ रहा था। वह बोली, "श्यामवती, तुम कुछ भी कहो पर हम तो महेन्द्र बाबू का ही साथ देंगे क्योंकि हम दोनों का विवाह न करने का सिद्धान्त है। अच्छा पुनर्विवाह पर तुम्हारा क्या मत है महेन्द्र?"
"इसी से पूछो।" कह कर महेन्द्र ने श्यामवती की ओर इशारा किया। उषा भी बोली, "हाँ, तुम्हीं बताओ श्यामा।"
थोड़ी देर सोच कर श्यामवती बोली, "यदि समाज को लाभ पहुँचे तो स्त्री-पुरुष दोनों के लिये ही पुनर्विवाह अनुचित नहीं है।"
"तो तुम फिर से विवाह क्यों नहीं कर लेती।" महेन्द्र ने श्यामा से पूछा।
"किससे?" महेन्द्र का मन टटोलने के लिये श्यामवती ने पूछा। इस प्रश्न ने महेन्द्र को मौन कर दिया।
"महेन्द्र बाबू से, और किस से।" उषा ने ठीक समय पर न चूकने वाला तीर चलाया।
"नहीं, ऐसा नहीं होगा उषा।" श्यामवती ने कहा।
"क्यों?" उषा का प्रश्न था।
"तुम नहीं जानती उषा। इसमें बड़ी अड़चनें हैं।" श्यामा निःश्वास छोड़ती हुई बोली। महेन्द्र चाहता था कि ये बातें अब और न हों और न दिलों को ठेस पहुँचे। उसने प्रसंग बदलते हुये कहा, "हां उषा, तुम बम्बई क्यों जा रही हो?"
"फिलहाल समझ लीजिये कि देश सेवा के लिये। पर मैं देखती हूँ कि यह काम हर जगह किया जा सकता है।" उषा के उत्तर ने श्यामवती में नई स्फूर्ति भर दी और वह बोली, "देश सेवा करना तो हर एक का धर्म है।"
"तुम ठीक कहती हो पर सबसे पहले देश से विदेशी सत्ता का नाश करना आवश्यक है।" उषा ने अपना विचार व्यक्त किया।
"पर इसके लिये संगठन और एकता की आवश्यकता है जो गांधी जी की अहिंसा की नीति से बनती जा रही है।" श्यामवती बोली।
"मैं ऐसा नहीं समझती। विदेशियों का सफाया हम हिंसा से भी तो कर सकते हैं।" उषा ने कहा।
"यह तुम्हारी भूल है। तुम्हारा इशारा शायद क्रान्तिकारी दल की ओर है।" श्यामवती ने स्पष्ट किया और कहती गई, "किन्तु हिंसात्मक क्रान्ति से अधिक से अधिक बलि देकर भी वह शक्ति प्राप्त नहीं होगी जो सुधार, जागृति और संगठन से मिल सकती है।" महेन्द्र को दोनों के बहस में आनन्द आ रहा था। उषा बोली, "आज भाषण सुन कर मेरे विचारों में भी अवश्य ही परिवर्तन हुआ है। मैं भी अब शान्ति और अहिंसा से कुछ करना चाहती हूँ।"
"तुम यहीं क्यों नहीं रह जातीं। देखेंगे कि हम सब मिल कर कुछ कर सकते हैं या नहीं।" श्यामा ने उषा के अपना प्रस्ताव रखा।
बात ऐसी थी जिसकी उषा ने कल्पना तक नहीं की थी। बोली, "विचार कर के बताउँगी।"
इसके बाद वे तीनो विश्राम करने अपने-अपने कमरे में चले गये।
(क्रमशः)

Friday, October 12, 2007

धान के देश में - 34

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 34 -

जिन दिनों यह सब हो रहा था उन्हीं दिनों देश में स्वतन्त्रता संग्राम की बागडोर महात्मा गांधी के हाथ में थी। देश में नरम दल, स्वराज्य पार्टी, क्रान्तिकारी दल सभी अपना अपना काम कर रहे थे। एक ओर गांधी जी शान्ति, अहिंसा और असहयोग से राष्ट्र में जागृति ला रहे थे तो दूसरी ओर क्रान्तिकारी वीर विदेशी सत्ता को लोहे के चने चबवा रहे थे। सरदार भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद क्रान्तिवीर दल के अन्तर्गत देश की आजादी के लिये प्राणोत्सर्ग करने के लिये प्रति क्षण कटिबद्ध थे। छत्तीसगढ़ भी स्वतन्त्रता-संग्राम में कभी भी पीछे नहीं रहा। भारत का यह अंचल सुसंगठित रूप से स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलन में अपने समान स्वयं ही रहा। रायपुर राजनीति का प्रमुख केन्द्र हुआ। अपने पहले ही आन्दोलन के समय मौलाना शौकत अली के साथ महात्मा गांधी रायपुर आने वाले थे। इसी से रायपुर की राजनीतिक महत्ता और छत्तीसगढ़ द्वारा स्वराज्य-संग्राम में अधिकाधिक सहयोग देने की बात पुष्ट हो जाती है।
स्वतन्त्रता संग्राम की लहरें चारों ओर उठ रही थीं। रायपुर से गाँव गाँव में जागृति के सन्देश फैलाये जा रहे थे। प्रभात फेरियाँ निकाली जाती थीं। रायपुर नगर का वायुमण्डल "दक्षिण कौशल के वीरों, आज तुम्हारा अवसर है" और "रणभेरी बज चुकी वीर, पहनो केसरिया बाना" के ओजस्वी स्वर से गूंज रहा था। इस क्षेत्र के नेताओं में पण्डित रविशंकर शुक्ल, ठाकुर प्यारेलाल सिंह, मौलाना अब्दुल रऊफ़, महन्त लक्ष्मी नारायण दास, वामन बलीराम लाखे, माधवराव सप्रे, रामदयाल तिवारी, सुन्दरलाल शर्मा प्रमुख थे। म्युनिसिपैलिटी और डिस्ट्रिक्ट काउंसिल जैसी स्वराज्य संस्थाओं पर इन राजनीतिक कार्यकर्ताओं का पूर्ण रूप से अधिकार था। माधवराव सप्रे और पण्डित रामदयाल तिवारी अपने साहित्य की अदम्य शक्ति से जन जागरण का स्तुत्य और अमोघ कार्य कर रहे थे। सप्रे जी के द्वारा लोकमान्य तिलक का अनूदित "गीता रहस्य" और रामदयाल तिवारी का मौलिक ग्रन्थ "गांधी मीमांसा" जन-जागृति का माध्यम बने हुये थे। सब ओर गांधी जी के आगमन पर स्वागत की तैयारियाँ हो रहीं थीं। गाँव गाँव से उनके दर्शन के लिये लोग आ रहे थे। सिकोला से राजो और श्यामवती, खुड़मुड़ी से सुमित्रा और महेन्द्र और चन्दखुरी से जानकी और सदाराम भी रायपुर आये हुये थे।
गांधी जी के दर्शन के लिये प्लेटफॉर्म पर अपार भीड़ थी। वहाँ श्यामवती, जानकी, सदाराम और महेन्द्र भी थे। अभी उस गाड़ी के आने में देर थी जिससे गांधी जी आने वाले थे। उसके पहले एक पैसेंजर गाड़ी आई। गाड़ी के रुकते ही लोगों की नजर स्वाभाविकतः मुसाफिरों की ओर गई। महेन्द्र की नजर एक डब्बे के दरवाजे पर खड़ी बाहर देखती हुई एक युवती पर पड़ी और अनायास ही उसके मुँह से जोर से निकल गया, "उषा तुम!"
वह उषा ही थी। उसने भी तुरन्त ही महेन्द्र को पहचान लिया और बोली, "महेन्द्र बाबू, आप इधर रहते हैं क्या?"
"हाँ, इसी शहर में मेरा घर है। तुम कहाँ जा रही हो?" महेन्द्र ने पूछा।
"बम्बई" उषा का उत्तर था।
"वहाँ कोई खास काम है क्या?"
"है भी और नहीं भी।"
महेन्द्र ने न जाने किस प्रेरणा से कहा, "यदि तुम्हारे काम में कोई अड़चन न हो तो यहाँ उतर जावो और कुछ दिन हमारे घर रह कर फिर चली जाना। आज महात्मा गांधी भी आ रहे हैं, उनके भी दर्शन कर लेना।" गांधी जी को देखने और उनके भाषण सुन कर उनके विचारों को समझने की जिज्ञासा और उत्कण्ठा ने उषा के मन में रुक जाने की प्रबल लालसा उत्पन्न कर दी। उसने महेन्द्र को अपनी स्वीकृति दे दी और अपना थोड़ा-सा सामान डब्बे से उतार कर महेन्द्र के पास आ गई। वह समय न तो अधिक बात करने का था और न बढ़ा-चढ़ा कर परिचय देने का। महेन्द्र ने बहुत ही थोड़े में उषा को सबका और सबको उषा का परिचय दिया। उषा समझ गई कि यह वही श्यामवती है जिसे महेन्द्र चाहता है और श्यामा भी जान गई कि यह वही उषा है जिसने कलकत्ते में महेन्द्र की सेवा की थी। श्यामवती के मन में ईर्ष्या की एक हल्की-सी रेखा खिंच गई पर उसने अपना भाव प्रकट नहीं होने दिया। उसने देखा कि उषा, उषा के समान ही लावण्यमयी है। उसका मुख प्रातःकमल की तरह सुन्दर और गोल था। कोमलता मानो शरीर धारण करके आई थी। आँखों में अपूर्व सुन्दरता और आकर्षण था। वह उषा और महेन्द्र की गतिविधि को आलोचना की दृष्टि से देख रही थी। थोड़ी ही देर में कोलाहल मच गया। "महात्मा गांधी की जय" के नारों से वायुमण्डल गूंज उठा। जिस गाड़ी से महात्मा गांधी और शौकत अली आने वाले थे वह प्लेटफॉर्म पर आ चुकी थी। नेताओं और जनता ने गांधी जी को फूल-मालाओं से लाद दिया। वे हाथ जोड़े हुये स्वागत का उत्तर-सा दे रहे थे। गांधी जी के इस भव्य स्वागत का उषा पर बड़ा प्रभाव पड़ा।
स्टेशन से जुलूस निकला जो रास्ते में बने हुये स्वागत-द्वारों और तोरण-पताकाओं के बीच में से होकर नगर कोतवाली के पास वाले मैदान में सभा के रूप में परिणित हो गया। महात्मा गांधी के प्रथम आगमन की स्मृति में कोतवाली के पास वाले उस मैदान का नाम "गांधी चौक" रख दया गया। सन्ध्या समय "आनन्द समाज लायब्रेरी" में गांधी के भाषण का आयोजन किया गया। महेन्द्र, सदाराम, उषा, जानकी और श्यामवती भी भाषण सुनने गये। पहले कुछ स्थानीय नेताओं के भाषण हुये। पण्डित रामदयाल तिवारी चार से छः घण्टे तक लगातार धारावाहिक रूप से भाषण दे सकने की क्षमता रखते थे। वे लगभग दो घण्टे तक बोलते रहे। उन्होंने इतने सुंदर ढंग से गांधी जी के असहयोग आन्दोलन के विषय में समझाया कि लोगों के मन में एकता, दृढ़ता, शान्ति और अहिंसा की हिलोरें सदा के लिये उठीं और स्वतन्त्रता-संग्राम के लिये स्वयंसेवकी की अपार सेना तैयार करने के लिये इस भू-भाग पर नींव खुद गई। गांधी जी के भाषण ने उस नींव पर शिला रख दी जिस पर ऐसा महल बना जिसकी शीतल छाया में, आगे चल कर, अपने नेता पण्डित रविशंकर शुक्ल को स्वाधीन भारत के पुराने और नये मध्यप्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में पा कर रायपुर ने अपने भाग्य पर गर्व किया।
(क्रमशः)

Thursday, October 11, 2007

धान के देश में - 33

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 33 -

महेन्द्र से मिलने के लिये श्यामवती का हृदय कितना व्याकुल और उतावला हो रहा था यह वही जानती थी। रायपुर पहुँचने पर वह द्विविधा में पड़ गई कि महेन्द्र यहाँ होगा या खुड़मुड़ी में किन्तु अन्त में उसकी आन्तरिक प्रेरणा ने उसे खुड़मुड़ी ही जाने के लिये बाध्य किया। चार मील चलने पर खारून नदी मिली। शिवजी का सुहावना मन्दिर बायीं ओर पड़ता है। श्यामा ने मन ही मन शंकर भगवान को प्रणाम किया। नदी में घुटने तक ही जल था। पार करते समय जल की शीतलता ने हृदय में शान्ति प्रदान किया। गाँव के समीप आने पर उसका हृदय जोरों से धड़कने लगा। गाँव के तीनों विशाल पीपल के पेड़ हहरा रहे थे। उनके हहर हहर स्वर ऐसे मालूम हो रहे थे मानो श्यामवती का स्वागत करते हुये कह रहें हों 'आवो, बिटिया, हमारे प्रदेश का अंचल तुम्हारे सुख-शान्ति के लिये सदैव तत्पर है'।
गाँव के तालाब के पास कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्हें क्या पता कि श्यामवती कौन थी। गाँव के एक बूढ़े की नजर उस पर पड़ी। उसने चौंक कर कहा, "श्यामवती बिटिया, तुम हो। जब से गाँव छोड़ा तुम्हारा पता ही नहीं था। कहाँ रही हो अब तक? कहाँ से आ रही हो?"
"सब कुछ बताउँगी दादा। बड़ी लम्बी कहानी है। माँ यहीं तो है न?" श्यामा ने उत्तर दिया।
"कह नहीं सकता बेटी। कुछ दिनों से काम-काज में ऐसा लगा हूँ कि तुम्हारे घर की ओर जाने का मौका ही नहीं मिला।"
"कोई बात नहीं दादा, मैं घर ही तो जा रही हूँ, पता लग ही जायेगा।" कह कर श्यामा तेजी से चलने लगी। घर पहुँच कर उसने देखा कि दरवाजे पर ताला पड़ा है। समझते देन नहीं लगी कि माँ और भैया सिकोला में होंगे। घर की छाया में विश्राम करने बैठ गई। महेन्द्र से मिलने की उत्कण्ठा उभर आई। वह उठी और महेन्द्र के घर की ओर चली। दो-चार कदम चलने के बाद कुछ सोचा और वापस आ कर फिर छाया में बैठ गई। महेन्द्र के सामने जाने में उसे संकोच हो रहा था। वह बाहर से अपने साथ कृत्रिम जीवन के अनुभवों का जो भण्डार ले आई थी उसने चुपके से उसके मन के कानों में कहा, 'तू पहले माँ से न मिल कर महेन्द्र से मिलेगी तो लोग क्या कहेंगे'। किन्तु श्यामवती की यह शंका एकदम निराधार थी। छत्तीसगढ़ के गाँवों में वह वातावरण था ही नहीं जो श्यामवती देख आई थी। यदि वह महेन्द्र के घर माँ से मिलने के पहले ही चली जाती तो भी लोग कुछ नहीं कहते। इस शंका की अपेक्षा श्यामवती की झिझक अधिक काम कर रही थी। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद वह उठी और सिकोला की ओर चली।
बात की बात में खुड़मुड़ी के कोने कोने में खबर फैल गई कि श्यामवती आई है। महेन्द्र को जब पता लगा तब उसे ऐसा लगा मानो कोई कल्पवृक्ष की कल्पना कर रहा हो और कल्पवृक्ष सामने आ जाय। वह उससे मिलने के लिये अधीर हो उठा। उसने सोचा कि वह स्वयं जा कर श्यामा से मिले पर अब उसके पैरों में मालगुजारी की बेली पड़ी थी। साथ ही पुरुष गर्व लेकर दूसरा विचार भी आया 'मैं क्यों मिलूँ, क्या वह मेरे पास नहीं आ सकती थी'। वह विचारों में उलझ रहा था कि घर के एक बूढ़े नौकर की बड़बड़ाहट सुनाई दी 'वाह री छोकरी, खुड़मुड़ी का आधार ले कर पली-बढ़ी और बरसों बाद यहाँ आने पर भी सुमित्रा मालिकन के दर्शन किये बगैर ही सिकोला चली गई'। इससे महेन्द्र को पता लग गया कि श्यामवती चली गई है। उसके दर्प को आघात पहुँचा। सोचा, उसे बड़ा गरूर हो गया है। फिर विचार आया कि उसका ब्याह हो चुका है, उसे अब पिछले जीवन से क्या मतलब। महेन्द्र मन मसोस कर रह गया।
सिकोला पहुँच कर श्यामवती पहले अपने पैतृक घर में गई। राजवती भोजन करने के बाद आँगन में बर्तन माँज रही थी। उसे देख कर श्यामा "माँ" कहती हुई दौड़ कर उससे ऐसी लिपट गई जैसे कोई बछिया अपनी माँ के पास दौड़े। राजो का मन खुशी से नाच उठा। दोनों की आँखें अविरल आँसू बहा रहीं थीं। दोनों एक दूसरे को अपलक नयनों से देख रहीं थीं। भावनाओं की बाढ़ सामान्य स्थिति में आने के बाद राजो के चरणों के पास श्यामवती बैठ गई। राजो ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, "कहाँ रही? कैसी रही? अकेली ही आई है क्या? रास्ते में तुझ पर क्या बीती?" श्यामा ने उसके प्रश्नों के उत्तर देने के बदले कहा, "भैया कहाँ हैं?" उसके इस प्रश्न पर राजवती को ध्यान आया और वह बोली, "अरे, मैं भी कैसी पगली हूँ। सदाराम के बारे में बताना ही भूल गई। वह चन्दखुरी में छोटे मैनेजर की नौकरी कर रहा है। डेढ़ सौ रुपये तनखा है। और हाँ, उसकी शादी भी हो गई है। बड़ी सुंदर और सुशील है मेरी बहू।"
सदाराम के ब्याह की सूचना से श्यामवती को अपार सुख मिला पर साथ ही रंज भी हुआ जिसे उसने यों व्यक्त किया, "भैया के ब्याह में तुम लोगोंने मुझे पूछा तक नहीं। मेरी छोड़ी हुई चिट्ठी से तो तुम्हें पता ही रहा होगा कि मैं कालीमाटी में हूँ। कैसे पूछते, मैंने भी तो तुम्हें कोई चिट्ठी तक नहीं लिखा था।"
"नहीं बिटिया, ऐसी बात नहीं है। सदाराम खुद तुझे लाने के लिये गया था। वहाँ उसे भोला की करतूत मालूम हुई। यह भी पता चला कि तू घर के लिये रवाना हो चुकी है। मैं छिन-छिन तेरा रस्ता देखती रही। रोते रोते मेरी आँखें व्याकुल हो गईं। पर तू नहीं आई। तब हम लोगों को और भी फिकर हुई कि तुझे कहीं किसी विपद् ने तो नहीं घेर लिया। बिटिया, मेरे मन में तेरी ही याद के सिवाय और कुछ नहीं था।" राजो की बात सुन कर श्यामा समझ गई कि जिन दिनों वह आश्रम में नरक-यातना भोग रही थी उन्हीं दिनों सदाराम का ब्याह हुआ। राजवती ने कहा, "अच्छा, अब हाथ-पैर धो कर कुछ खा पी ले। बातें फिर होती रहेंगी। तेरे बिना मैं तो मरी हुई-सी थी। तू क्या आ गई, मेरे प्राण लौट आये।"
हाथ-मुँह धोने के बाद श्यामवती खाने बैठी। राजो ने बचा हुआ भोजन परोस दिया। कितने दिनों बाद श्यामा को माँ के हाथ का भोजन मिला था। अमृत भी उस भोजन के सामने तुच्छ था। एक एक दाने में अक्षय तृप्ति थी। भोजन के उपरान्त माँ-बेटी बातों में खो गईं। श्यामा ने अपनी रामकहानी कह सुनाई। सुन कर राजो अपने आँसुओं की बढ़ न रोक सकी। विपत्तियों के कराल मुख से बच कर आने वाली बेटी को माँ ने हृदय से लगा लिया। फिर राजो ने इधर का सब हाल बताया। दीनदयाल की मृत्यु का प्रसंग आते ही दोनों श्रद्धा और विषम विषाद से रो उठीं। महेन्द्र और सदाराम की ऊँची शिक्षा के विषय में सुन कर श्यामवती फूली न समाई।

सिकोला में सबको खबर लग गई कि श्यामा आई है। दुर्गाप्रसाद दौड़ा आया। राजो से उसे भोला के कारनामों का पता पहले ही लग चुका था। आते ही उसने कहा, "बेटी, अच्छा हुआ जो भगवान ने तुझे दुष्ट भोला से छुटकारा दिला दिया और तू कुशल पूर्वक वापस आ गई।" श्यामवती चुपचाप उठी और दुर्गाप्रसाद के पैर छुये। श्यामवती से कालीमाटी में होने वाली दुर्घटना का सच्चा हाल मालूम होने पर दुर्गाप्रसाद बोला, "बड़ा नालायक था। जब तक यहाँ रहा, गाँव वालों को तंग करता रहा, बाप को बाप न समझा और वहाँ जाने पर राक्षस का काम किया। चलो बच कर भाग निकला यही गनीमत है।"
श्यामवती सदाराम से मिलने के लिये व्यग्र हो रही थी। महेन्द्र से मिलने के लिये भी आकुल थी पर उसके लिये राजो को यह बताना कि 'भैया से मिलना है' जितना सरल था उससे कहीं अधिक यह कहना कठिन था कि 'महेन्द्र से मिलना है'। साथ ही उसे इस बात की भी ग्लानि हो रही थी कि सिकोला आने से पहले जब वह खुड़मुड़ी में थी तो उसे महेन्द्र से मिल लेना चाहिये था।
दो दिन सिकोला में रह कर चन्दखुरी जाने का निश्चय किया गया। दो दिन बीतने पर राजो और श्यामा सिकोला से चलीं। सिकोला से आगे पहला गाँव खुड़मुड़ी ही था। वहाँ पहुँचने पर राजवती ने कहा, "चलो, महेन्द्र से मिल लें और तू सुमित्रा मालकिन के दर्शन भी कर ले।" श्यामा कुछ नहीं बोली। मौन सम्मति का लक्षण था। वह राजो के साथ चुपचाप महेन्द्र के घर की ओर चलने लगी। उसका हृदय सुख-दुःख की भावनाओं से ओत-प्रोत हो रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो प्रलय और सृष्टि एक साथ ही होने वाली है। दोनों महेन्द्र के आँगन में पहुँचे तो देखा कि वह कुर्सी पर बैठा रजिस्टर में कुछ लिख रहा है। पीठ उसकी दरवाजे की ओर थी। राजो ने पुकारा, "महेन्दर"।
महेन्द्र ने मुँह घुमा कर देखा। श्यामवती को अपने पास पाकर उसे कोई विस्मय नहीं हुआ। उसके आने के बारे में तो वह सुन ही चुका था। साथ ही यह भी जानता था कि यदि श्यामा अकेली नहीं आयेगी तो राजो उसे अवश्य ही साथ लायेगी। महेन्द्र के मन में पिछली बातों की स्मृतियों और भावनाओं का तूफान उमड़ रहा था। पर उसने मन पर अंकुश लगा कर शान्त भाव से पूछा, "श्यामवती, कब आई हो?"
श्यामवती महेन्द्र का सामना होते ही काँप उठी थी। उसके चेहरे पर एक के बाद एक भावनायें आ आ कर मिटती जा रही थीं। नेत्र दोनों के एक दूसरे पर लगे हुये थे। श्यामवती सोच रही थी क्या मेरे इस देवता के मन में मेरे लिये अब भी वही भाव है जो पहले था या फिर तब के प्रेम का अंकुर समय की आँधी में कहीं उखड़ तो नहीं गया। जहाँ तक मेरा प्रश्न है सभी परिस्थितियों में मेरा मन तो अपने इस देवता का ध्यान करता ही रहा है। महेन्द्र भी सोच रहा था - क्या श्यामा का मन अब भी वही है जो ब्याह के पहले था।
"तीन दिन हुये आये" श्यामवती ने उत्तर दिया। उसके स्वर का कम्पन महेन्द्र से छिप न सका। दोनों को ऐसा लग रहा था अब रोत हैं - अब रोते हैं। बड़ी कठिनाई से दोनों आँसू रोके हुये थे।
इतने में ही रसोई घर से सुमित्रा बाहर आई। श्यामवती को देख कर पूछा, "कब आई श्यामवती।?"
"तीन दिन हुये।" और श्यामा ने पैर छू कर सुमित्रा को प्रणाम किया आँगन में ही सब बातों में उलझ गये। राजो और सुमित्रा का एक और महेन्द्र-श्यामवती का दूसरा गुट बन कर बातों में खो गया। झिझक जब तक रहती है तभी तक ही रहती है। श्यामवती और महेन्द्र की झिझक मिट गई थी। थोड़ी ही देर में दोनों को ऐसा लगने लगा मानो उनके बीच कोई व्यावधान रहा ही न हो। थोड़ी देर में बचपन से लेकर अब तक की सब बातें हँस हँस कर उन दोनों ने कर डालीं। दोनों एक दूसरे से अपना पूरा पूरा वृतान्त बताते समय कुछ भी नहीं छिपाया। यह जान कर कि महेन्द्र उसे ढूँढने के लिये कलकत्ता गया था और वहाँ उषा का उस पर तिल भर भी प्रभाव नहीं पड़ा, श्यामवती को गर्व का अनुभव हुआ।
सुमित्रा ने एक बात पर ध्यान दिया। उसने देखा कि लम्बे अर्से के बाद श्यामवती को देख कर आज महेन्द्र विशेष रूप से प्रसन्न हुआ है। उसके मन में केवल यही विचार आया कि दोनों का परिचय बचपन से ही घनिष्ठ होने से ऐसा हुआ है। उसने कहा, "श्यामवती, बहुत दिनों के बाद आज तेरे सामने इसे खुश और हँसता हुआ देख रही हूँ। इसे तू ही समझा कि घर और मालगुजारी का बोझ सिर पर पड़ जाने से क्या कोई इस तरह गम्भीर हो जाता है।" श्यामवती चुप रही, वह क्या कहती।
महेन्द्र के घर से निकल कर राजो और श्यामवती ने चन्दखुरी का रास्ता पकड़ा। वहाँ पहुँच कर वे सदाराम और जानकी से स्नेहपूर्वक मिलीं। श्यामा को जानकी बहुत अच्छी लगी। दो दिनों में ही वे दूध और शक्कर की तरह घुल-मिल गईं। दोनों में स्वभाव-साम्यता होना ही इसका एक मात्र कारण था।
कुछ दिन रह कर साथ में जानकी को भी ले कर राजवती और श्यामवती सिकोला लौट आई। सिकोला पहुँच कर श्यामवती अपने ससुर दुर्गाप्रसाद का ध्यान रखने लगी। दुर्गाप्रसाद को शायद पहली ही बार जीवन सुखी और जीवित रहने के योग्य मालूम हुआ। बेटे को खोकर बहू के रूप में उसे बेटी मिल गई थी। कितना अन्तर था भोला और श्यामा में। वह दुष्टता का अवतार था तो यह नम्रता की देवी। यों तो दुर्गाप्रसाद का मन पहले ही भोला से फट चुका था, अब श्यामवती का स्नेह पाकर उसे लगभग भूल ही गया।
राजो और सुमित्रा को एक ही चिन्ता थी कि अब महेन्द्र का ब्याह हो जाना चाहिये। एक महेन्द्र था, जो ब्याह करना ही नहीं चाहता था। और दूसरी श्यामवती थी जो जानती थी कि महेन्द्र क्यों ब्याह नहीं करना चाहता।
(क्रमशः)

Wednesday, October 10, 2007

धान के देश में - 32

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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इधर जितनी घटनायें हुईं। उन सबको पीछे ठेलकर उस समय पर विचार करें जब रामनाथ के साथ उसे विश्वासपात्र समझ कर परसादी ने श्यामवती को रायपुर के लिये रवाना किया था। यह भी तय हो चुका था कि रामनाथ पहले कलकत्ता जावेगा और वहाँ से फिर रायपुर के लिये प्रस्थान करेगा। कलकत्ता पहुँच कर रामनाथ ने अपना काम किया और श्यामवती को साथ लेकर जबलपुर होकर बम्बई जाने वाली गाड़ी में जा बैठा। रात का समय होने के कारण श्यामवती को कुछ पता न चल सका। गाड़ी जब कटनी पहुँची तब रामनाथ ने कहा, "श्यामवती, बहुत बड़ी भूल हो गई। हम लोग तो दूसरी ही गाड़ी में आ गये। यह कटनी स्टेशन है। यहाँ उतर कर बिलासपुर चलें और वहाँ से रायपुर की गाड़ी पकड़ लेंगे।" दोनों वहीं कटनी में उतर गये। बिलासपुर जाने वाली गाड़ी अगले दिन ही मिलनी थी। इसलिये टांगा करके रामनाथ श्यामवती को एक धर्मशाला में ले गया। वहाँ उन्हें एक कमरा दिया गया।
रामनाथ श्यामवती से बोला, "मैं खाने के लिये कुछ ले कर आता हूँ" और वहाँ से वह मैनेजर के पास आया और एक कुर्सी पर बैठ गया। मैनेजर ने पास ही रखी हुई पेटी खोल कर रामनाथ के हाथ में तीन सौ रुपये गिन दिये। वह सन्तोष के साथ चला गया पर जाते जाते कह गया, "मैनेजर साहब, अब आप जानिये।"
"तुम बेफिकर रहो रामनाथ। हमारे यहाँ पूरा प्रबन्ध है।" मुस्कुरा कर मैनेजर ने उत्तर दिया। जब दो घंटे से अधिक समय बीत गया और रामनाथ वापस नहीं आया तब श्यामवती को चिन्ता हुई। वह कमरे से निकल कर बाहर आई और जैसे ही चाहा कि फाटक से बाहर पैर रखे और रामनाथ का पता लगाने के लिये जावे वैसे ही एक पहरेदार ने उसे रोक लिया और कहा, "कहाँ जा रही हो बाई? तुम्हीं हो न जो आज आई हो? नये आये हुये लोगों को बाहर जाने का हुक्म नहीं है।"
"क्यों? यह कैसी धर्मशाला है? ऐसा तो कहीं भी नहीं होता।" श्यामवती झुँझला कर बोली।
पहरेदार ने हँसते हुये कहा, "यह धर्मशाला नहीं है बाई। यह तो विधवा आश्रम है।" सुन कर श्यामवती को ऐसा लगा कि वह बेहोश होकर गिर रही है। पर उसने अपने आपको संभाला। धीरज उसका न जाने कहाँ खो गया। वह मैनेजर के कमरे में पहुँची। उसको देखते ही तिलक लगाये, रामनामी चादर ओढ़े और सिर पर पगड़ी बाँधे हुये मैनेजर ने स्वागत करते हुये कहा, "आवो देवी आवो। तुम्हारा ही नाम श्यामवती है ना? बैठो, बैठो कुर्सी पर। कहो यहाँ तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं है?" श्यामवती झल्लाई हुई थी। गरज कर बोली, "मैं यहाँ आश्रम में एक पल भी नहीं ठहरना चाहती। मुझे जाने दो।"
"ना, ना, ना" ऐसा भी कहीं हुआ है कि आश्रम में आ कर कोई भी देवी दुखित ही चली जाय। पहले उसका पुनर्विवाह हो जावे, उसके जीवन को किसी का सहारा मिल जावे, तभी वह यहाँ से जा सकती है। तब तक हम उसके जीवन को सुखी बनावेंगे।" और वह निर्लज्जता की हँसी बिखेरने लगा।
"पर आपसे किसने कहा कि मैं विधवा हूँ। मेरे पति तो जीवित हैं। आपका यह कैसा आश्रम है जो सधवा का विधवा-विवाह कराता है?" श्यामवती ने क्रोध से फुफकारते हुये कहा।
मैनेजर पर श्यामवती के क्रोध का प्रभाव नाममात्र के लिये भी नहीं पड़ा। इसके विरुद्ध वह अधिक प्रसन्न मुद्रा से बोला, "श्यामवती देवी, रामनाथ से हमें सब कुछ मालूम हो चुका है। रामनाथ हमारी संस्था के खास लोगों में से है। तुम्हीं एक स्त्री नहीं हो जिसका उसने उपकार किया हो। तुम अपने हत्यारे पति को मरा हुआ ही समझो। ऐसे पति की पत्नी तो विधवा से भी बदतर होती है। और देखो, यहाँ से बाहर जाने का ध्यान स्वप्न तक में भी मत लाना।"
श्यामवती समझ गई कि वह बुरी तरह से फँसा दी गई है। चुपचाप अपने कमरे में आ गई और फूट फूट कर रोने लगी। रोने से जब मन कुछ शान्त हुआ तब विचारों के समुद्र में डूब गई। उसने सोचा कि देवता जैसा दिखने और व्यवहार करने वाला रामनाथ जब ऐसा कर सकता है तब संसार में कोई भी विश्वास के योग्य नहीं है। इसी समय भोजन की थाली लिये एक नौकरानी ने प्रवेश किया और थाली रख कर जाने लगी। श्यामवती चिल्ला कर बोली, "ले जा इसे। मैं कुछ नहीं खाउँगी। भूखी रह कर प्राण दे दूँगी पर यहाँ के एक दाने को भी हाथ नहीं लगाउँगी।" नौकरानी सहम गई और थाली उठा कर चुपचाप चली गई। थोड़ी ही देर में एक दूसरी स्त्री के साथ मैनेजर आया। साथ में भोजन लिये वही नौकरानी भी थी। उस स्त्री और मैनेजर ने श्यामवती से भोजन कर लेने के लिये बड़ा आग्रह किया पर वह कुछ बोली तक नहीं। हताश हो, थाली वहीं रखवा वे तीनों बाहर चले गये। जाते जाते मैनेजर कहता गया कि, "भूख से तिलमिला उठेगी तो आप ही खायेगी।" फिर दिन भर न कोई आया और न श्यामवती ने भोजन ही किया। जाल में फँसी हुई हिरणी की भाँति वह तड़प रही थी। मन अशान्त था। एक एक कर घर के लोग याद आ रहे थे। न जाने कब वह लेट गई और निराश तथा थकी हुई होने के कारण नींद में खो गई।
अत्यधिक उद्विग्नता के कारण श्यामा को नींद में भी चैन नहीं था। वह स्वप्न देखने लगी। उसने देखा कि वह अपनी जन्म-भूमि सिकोला पहुँच गई है। लोग उससे केवल इसीलिये घृणा कर रहे हैं कि वह इतने दिनों तक न जाने कहाँ कहाँ रही और उस पर क्या क्या बीता। तभी लोगों की घृणा ने क्रोध का रूप धारण कर लिया। अब लोग उसे पत्थर मार रहे हैं। वह प्राण बचा कर भाग रही है। अचानक एक पत्थर उसके सिर पर लग गया और सिर से खून बह रहा है। वह धड़ाम से गिर पड़ी। इसी समय किसी ने उसका सिर अपनी गोद में ले लिया। उसने आँखें खोल कर देखा तो वह महेन्द्र है। दोनों की आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बह रही है पर महेन्द्र की गोद में अपना सिर पा कर वह अपना दुःख भूल गई है। उसे असीम शान्ति मिल रही है। इतने में ही उसकी नींद टूट गई। वह बिलख बिलख कर रोने लगी।
जगप्रसिद्ध सर गंगाराम के द्वारा करुणा से उत्प्रेरित होकर वास्तविक भावना से जो विधवा-आश्रम स्थापित किये गये थे उनसे इस विधवा आश्रम का कतई सम्बंध नहीं था। कुछ स्वार्थी दुराचारियों ने मिल कर इस भ्रष्टाचार-आश्रम की स्थापना की थी जहाँ वे इन्द्रिय लोलुप लोग निरीह, असहाय अबलाओं को अपने स्वेच्छानुसार शिकार बनाते थे। शाम को वही नौकरानी भोजन की दूसरी थाली ले कर आई। उसने देखा कि सबेरे की थाली जहाँ की तहाँ और ज्यों की त्यों पड़ी है। वह उल्टे पाँव लौट गई और जा कर उसने मैनेजर को सूचना दी। मैनेजर ने उस स्त्री को भेजा जो पहले उसके साथ आई थी। उसका नाम अहल्या था। वह स्त्री विभाग में मुखिया था। सब काम अहल्या के द्वारा होते थे। अहल्या सफेद साड़ी पहनी हुई थी। उसके गोरे चेहरे पर चेचक के हल्के दाग थे। अधिक पान खाने से ओठ सदैव लाल रहते थे। माथे पर बड़ा सा गोलाकार सिन्दूर लगा था। अवस्था पैंतीस और चालीस के बीच थी पर उसमें अभी तक उत्कट आकर्षण था। कमरे में प्रवेश करते ही बहुत मधुर स्वर से अहल्या ने कहा, "श्यामवती, सबेरे से तुमने कुछ खाया नहीं है। कुछ तो खा लो।" पर श्यामवती चुप रही। अहल्या ने बड़े प्रेम से उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, "देखो, ऐसे काम नहीं चलेगा। भोजन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। न खाने से अन्न का अपमान होता है।" अब की बार श्यामवती ने धीरे से उत्तर दिया, "तुम कुछ भी कहो, मैं नहीं खाउँगी। भूख-प्यास से प्राण दे दूँगी।" इस उत्तर से अहल्या को क्रोध आ गया। झटके से श्यामा का हाथ छोड़ कर फुफकारती हुई बोली, "देखूँगी, कब तक अकड़ दिखाती है।" फिर वह झपाटे से बाहर चली गई। नौकरानी आई और भोजन की नई थाली रख कर सबेरे वाली थाली उठा ले गई। श्यामवती की ओर उसने देखा तक नहीं।
श्यामवती सबेरे आश्रम के आँगन में स्थित कुएँ में स्नान कर लेती थी। इसके बाद वह अपने कमरे में जो घुसती तो निकलने का नाम न लेती। दिन भर भगवान के नाम की रट लगाये रहती थी। सुबह-शाम नौकरानी थाली रख जाती पर वह उधर देखती तक नहीं थी। थोड़े समय के लिये ही कमरे से बाहर आने में ही श्यामवती को आश्रम के रंग-ढंग मालूम हो गये। वहाँ प्रायः पूर्ण रूप से निर्लज्ज स्त्रियाँ ही थीं जो बनाव-श्रृंगार में व्यस्त वासना की मूर्तियाँ ही कही जा सकती थीं। श्यामवती को देख कर कोई मुँह बिचकाती तो कोई आवाज सकती थी कि आश्रम के भाग्य खुल गये जो यहाँ सती सावित्री का आगमन हुआ है। श्यामा को इन बातों की चिन्ता नहीं थी।
चार दिनों से अन्न-जल ग्रहण न करने से श्यामवती में कमजोरी आ गई पर उसकी अन्तरात्मा में एक ऐसी दिव्य शक्ति उभर रही थी कि उसे विश्वास हो गया कि वह इसी प्रकार मृत्यु तक सरलता से समय बिता देगी। चौथे दिन मैनेजर और अहल्या को चिन्ता हुई कि कहीं श्यामवती सचमुच ही मर न जाये। उन लोगों को इतना तो मालूम हो गया था कि उसका निश्चय अटल है। पर उन्हें अपने हथकण्डों पर अधिक विश्वास था। उपाय सोच कर भोजन के समय वे दोनों नौकरानी के हाथ भोजन की थाली रखा कर श्यामवती के कमरे में आये। आते ही मैनेजर ने जोर से चिल्ला कर कहा, "खाना खाती है नहीं।"
श्यामवती अपनी पूरी आन्तरिक शक्ति से चिल्ला उठी, "नही, नहीं, नहीं।"
"अच्छा देखता हूँ कैसे नहीं खाती है" कह कर मैनेजर ने अहल्या को इशारा किया। उसने श्यामवती के हाथ जकड़ कर पकड़ लिये। मैनेजर ने उसके दोनों गाल दबाये जिससे उसका मुँह खुल गया। नौकरानी ने चाँवल का एक कौर मुँह में डाला। मैनेजर ने श्यामा के दबाये हुये गालों को इसलिये छोड़ दिया कि वह कौर निगल सके। मुँह छूटते ही श्यामवती ने वह कौर उगल दिया। यह देख कर अहल्या और मैनेजर हैरान हो गये। उनकी धारणा थी कि भूख से तिलमिलाती हुई श्यामा अवश्य ही खा लेगी। हैरानी के साथ साथ मैनेजर को क्रोध भी आया पर उसने स्वयं कुछ नहीं किया। लअहल्या से केवल इतना ही कह कर बाहर चला गया कि, "अब इसे तुम ही संभालो।" अहल्या गरज कर बोली, "हरामजादी, चार दिनों से तहलका मचा रखा है। खाती है या नहीं?" श्यामवती चुप रही। उसके चुप्पी से अहल्या घायल नागिन-सी हो गई। उसने साड़ी के आँचल में छिपा और कमर में लिपटा हुआ चमड़े का हण्टर निकाला और लगी श्यामवती को धड़ाधड़ पीटने। श्यामवती ने आह तक नहीं की। प्रत्येक मार पर वह मन ही मन भगवान का नाम ले रही थी। सात-आठ हण्टर पड़ने पर वह बेहोश हो गई। अहल्या भोजन की थाली वहीं छोड़ नौकरानी के साथ बाहर चली गई। न जाने कब श्यामवती को होश आया। वह पूरे शरीर में असह्य वेदना का अनुभव कर रही थी। उसकी आँखें लगातार आँसू बहा रहीं थी।
चार दिन और बीत गये पर श्यामा का संकल्प और भी अधिक अटल होता गया। अब वह लेटी ही रहती थी। उसमें चलने-फिरने की भी समार्थ्य नहीं रह गई थी।
जिस दिन अहल्या ने श्यामा को हण्टर मारे उसी दिन उसके हृदय को भी गहरा धक्का लगा। उसने हृदय में उठते हुये पश्चाताप के अंकुर को कुचल देना चाहा, किन्तु उसका स्त्री मन आड़े आ जाता था। वह आप ही आप बड़बड़ा उठी, 'आखिर यह दुर्बलता और पश्चाताप की भावना मुझमें कब तक बनी रहेगी।' फिर अहल्या अपने कामों में ऐसी लग गई जैसे कुछ हुआ ही न हो किन्तु उसके भीतर ही भीतर बहुत कुछ हो रहा था। उसकी दुर्बलता या स्त्री सुलभ कोमलता और पश्चाताप की भावना क्रम क्रम से उसके हृदय में प्रबल होती जा रही थी। साथ ही साथ सदयता और सहृदयता भी उस भावना के साथ उभरती जा रही थी। वास्तव में वह निर्दय नहीं थी किन्तु परिस्थितियों ने उसे निर्दय बना दिया था। श्यामवती के अटल निश्चय का प्रभाव उस पर धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था। उसके मानस-पटल पर वह दिन उभर आया जब उसे भी श्यामवती के जैसे ही इस आश्रम में लाया गया था। उसे भी यहाँ के जीवन से वैसी ही घृणा हुई थी जैसी आज श्यामवती को हो रही है। उसने भी निश्चय किया था कि वह गंदगी में कभी लिप्त नहीं होगी किन्तु उसे निश्चय अटल न रह सका था। फिर आश्रम के गंदे वातारवरण और प्रलोभन ने उसकी कोमल भावनाओं पर कालिमा पोत दिया था। कालिमा ने निर्लज्जता को जन्म दिया, निर्लज्जता ने कठोरता को, और उसका नारी-चरित्र न जाने कैसे परिवर्तित हो गया। श्यामवती की दृढ़ता ने उसी कालिमा को ही मिटाना प्रारम्भ कर दिया। अहल्या की अन्तरात्मा काँप उठी। उसे भीतर से धिक्कार पर धिक्कार मिलने लगा। मन ने कहा 'मक्कार औरत, जिस नारी जाति की हमारे देश में, उसके अलौकिक गुणों, धैर्य, सहनशीलता के कारण सीता, सावित्री, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा, पार्वती, गायत्री, चण्डी, काली, महामाया के रूप में पूजा की जाती है, तू उसी मातृजाति का भीषण कलंक बन चुकी है। तूने कितनों को कलंकित होने में सहायता दी है और आज भी एक पवित्र नारी का जीवन नष्ट करने पर तुली हुई है। अहल्या पश्चाताप की लपटों में जलने लगी। उसके हृदय का कलुष तब तक उसके नयनों से बहता रहा जब तक उसका हृदय उज्वल न हो गया। वह अपने कमरे से निकल कर सीधे श्यामवती के कमरे में गई। श्यामा को उसने उसी सहज प्रेम से उठा कर बैठाया जो एक नारी के हृदय में दूसरी नारी के लिये होता है। मधुर स्वर में बोली, "श्यामा, जिस भगवान को तुम रट रही हो उसी की सौगन्ध है जो तुम भोजन न करो तो।"
अहल्या के स्वर का वास्तविक परिवर्तन श्यामवती से छिपा न रह सका। वह अहल्या की बात से प्रभावित हुई और उसका हृदय अनायास ही उसकी ओर आकर्षित भी हुआ। सत्य सत्य को पहचान न सके - यह हो ही नहीं सकता। फिर भी अहल्या पर सहसा विश्वास न कर वह बोली, "कहीं यह तुम्हारी नई चाल तो नहीं है?" सुनकर अहल्या को लगा मानो वह रौरव नर्क में ढकेल दी गई हो। उसने शान्ति, संयम और दृढ़ता से कहा, "मुझ पर विश्वास करो। मैं तुम्हें यहाँ से निकालने के साथ ही साथ स्वयं भी निकल जाउँगी। जिस अन्तर्यामी परमात्मा से मेरे जीवन का कोई भी क्षण छिपा नहीं है मैं उसी परमात्मा की सौगन्ध खा कर कहती हूँ कि मैं जो कुछ कह रही हूँ, सच है।"
अब श्यामवती के लिये अविश्वास करने की कोई गुंजाइश नहीं रह गई। उसने सोचा कि अहल्या जब भगवान की शपथ खा रही है तब उस पर विश्वास न करना भगवान के ऊपर ही अविश्वास करने के बराबर होगा। वह भोजन करने के लिये राजी हो गई। अहल्या के आनन्द की सीमा न रही। वह बाहर आई और रसोईघर से दूध का गिलास स्वयं उठा लाई। श्यामवती ने दूध पिया। उसे उसमें रुचि नहीं मालूम हुई पर शान्ति और शक्ति अवश्य ही मिली। अहल्या ने वहाँ से बच निकलने का उपाय सोचा और श्यामार से वैसा ही करने के लिये कहा जैसा वह कहती जावेगी।
अहल्या ने बड़े उल्लास के साथ श्यामवती के द्वारा अनशन तोड़ने की सूचना मैनेजर को जाकर दी। सुन कर उसे सन्तोष हुआ। उसने धूर्तता से पूछा, "रास्ते में आ जाने के लिये श्यामवती को कितने दिन लगेंगे?"
"तुम तो जानते ही हो कि किसी स्त्री के ऊपर, उसके यहाँ आने के महीने भर बाद ही, हम लोग अपने जादू चलाते हैं। पर श्यामवती जरा दूसरे मिजाज की है इसलिये उसके मामले में दो से तीन महीने भी लग सकते हैं। किन्तु तुम निश्चिंत रहो, मैं इसे ठीक रास्ते पर ले आउँगी।"
"अच्छा, तू जो चाहे कर।" कह कर मैनेजर ने चाहा कि अहल्या को अपने आलिंगन में समेट ले पर 'हटो' कह कर अहल्या तेजी से भाग गई।
अहल्या के कहे अनुसार अब श्यामवती ने मैनेजर के साथ अपने व्यवहार की कठोरता कम कर दिया। अहल्या ने मैनेजर पर ऐसा प्रभाव डाला कि उसे पूरा विश्वास हो गया कि अहल्या श्यामा पर अपना असर डाल रही है। ज्यों ज्यों उसका विश्वास दृढ़ से दृढ़तर होता गया त्यों त्यों वह अहल्या और श्यामवती को सथ रहने का अधिक से अधिक अवसर देता गया। एक दिन अहल्या और श्यामवती साथ साथ तरकारी-भाजी खरीदने बाजार गईं। वे बाजार जाने के स्थान पर सीधे स्टेशन पहुँच गईं जहाँ कटनी-बिलासपुर रेल छूटने ही वाली थी। उन्होंने शीघ्रतापूर्वक टिकट कटाया और एक डिब्बे में बैठ गईं। दो-तीन मिनट बाद ही गाड़ी छूटी पर वे दो-तीन मिनट उन्हें दो-तीन युगों के समान प्रतीत हुये। डर और आशंका से उनका हृदय धक् धक् कर रहा था। प्रति क्षण उन्हें ऐसा लग रहा था कि कोई न कोई आता ही है जो उन्हें घसीटता हुआ ले जाकर फिर उसी नर्क में पटक देगा जहाँ से निकल कर वे आई हैं। किन्तु गाड़ी की रफ्तार बढ़ने के साथ उनका डर कम होते जा रहा था और सन्तोष तथा शान्ति बढ़ती जा रही थी। शहडोल आने पर अहल्या उतर गई। पास ही के गाँव में उसका घर था जहाँ स्वालम्बन, सदाचार और सुख से शेष जीवन बिताने का उसने वज्र-निश्चय कर लिया था। बिछुड़ते समय दोनों गले लग कर मिलीं। उनकी आखों में वह निश्छल आँसू छलछला आया जो जीवन भर के लिये दो हृदयों को एक कर देता है। श्यामा का हृदय कृतज्ञता से भर गया।
बिलासपुर पहुँचने पर श्यामवती ने गाड़ी बदली और रायपुर आ गई। यहाँ की एक एक वस्तु में आत्मीयता पा कर उसका हृदय उल्लास से भर गया। स्टेशन से निकल कर उसने सीधा खुड़मुड़ी का रास्ता लिया।
(क्रमशः)

Tuesday, October 9, 2007

धान के देश में - 31

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

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सदाराम और महेन्द्र के नागपुर से चले जाने के बाद जानकी चिन्तित रहने लगी। एक सप्ताह बाद जब उसे सदाराम का पत्र मिला तब उसकी चिन्ता कपूर के तरह उड़ गई। उसके बाद उसे सदाराम के पत्र लगातार मिलते रहे पर किसी में भी विवाह के विषय में कुछ भी नहीं लिखा होता था जिससे उसके हृदय को ठेस लगती थी। जो जानकी सदाराम के सामने ऐसी बनी रहती थे कि उसके हृदय के भाव भाँपे न जा सकें वह अब सदाराम को पाने के लिये व्याकुल हो उठी थी। आखिर उसकी खुशी का दिन भी आया जब कि महेन्द्र का इस आशय का पत्र मिला कि सदाराम की शादी के लिये राजवती राजी हो गई है। पत्र पा कर उसका आवेश उभरा नहीं पर आँखों में आनन्द के आँसू अवश्य ही छलक आये। जानकी के पिता रतीराम को तो कोई ऐतराज था ही नहीं। अतः ब्याह पक्का हो गया और मुहूर्त निश्चित कर लिया गया।
सदाराम के ब्याह में श्यामवती का रहना आवश्यक ही नहीं वरन् अनिवार्य था क्यों कि ब्याह में बहन ही तो नेग करती है। टाटानगर जाने के पहले श्यामवती अपने ससुर दुर्गाप्रसाद की पगड़ी के छोर में बाँध कर जो चिट्ठी छोड़ गई थी उससे सबको पता था कि वह टाटानगर में है। उसे लिवा लाने के लिये सदाराम टाटानगर गया। वहाँ मजदूरों की बस्ती में पहुँच कर उसने पता लगाया तो परसादी से सब कुछ जान कर बड़ा दुःखी हुआ। यह सुन कर और भी भय और व्यथा हुई कि रामनाथ के साथ श्यामवती पन्द्रह-बीस दिनों पहले ही रायपुर के लिये रवाना कर दी गई है। वह अभी तक न तो रायपुर पहुँची थी, न खुड़मुड़ी और न ही सिकोला। सदाराम टाटानगर से लौट आया। उससे सब बातें और भोला की शैतानी सुन कर राजो सिर पीट पीट कर रोने लगी। उसे सबने ढाढ़स बँधाया। श्यामवती के गायब हो जाने की खबर से महेन्द्र के हृदय में अधीरता, विषाद, चिन्ता और व्यथा का तूफान उठ खड़ा हुआ। सब तो हुआ पर श्यामवती की अनुपस्थिति के कारण सदाराम का ब्याह रोकना उचित न था।
बड़ी धूमधाम के साथ सदाराम की बारात लेकर महेन्द्र नागपुर गया और जानकी के साथ सदाराम का ब्याह हो गया। वापस आ कर सब अपने अपने काम में लग गये। जानकी और सदाराम चन्दखुरी चले गये। महेन्द्र रायपुर में रह गया और सुमित्रा और राजो खुड़मुड़ी चली गईं। महेन्द्र को चिन्ता थी कि जब श्यामवती टाटानगर से रायपुर के लिये रवाना हो चुकी पर रायपुर नहीं आई तो अवश्य ही वह किसी मुसीबत में पड़ गई होगी। परसादी से सदाराम को और सदाराम से महेन्द्र को मालूम हो चुका था कि श्यामवती जिस रामनाथ के साथ रायपुर भेजी गई थी वह पहले कलकत्ता जाने वाला था। शायद वे दोनों कलकत्ते में ही किसी विपत्ति में पड़ गये हों। इस विचार से महेन्द्र की अन्तरात्मा काँप उठी। किन्तु उसने धीरज धारण किया और निश्चय किया कि वह श्यामवती को ढूँढ निकालेगा। वहाँ उसे खेती के कुछ औजार भी खरीदना था। इसलिये वह कलकत्ता चला गया।
कलकत्ता पहुँच कर महेन्द्र ने श्यामवती को ढूँढने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उसने एक एक गली और सड़क की खाक छानी। उसके मन में एक अन्य विचार भी आया जिसके तहत उसने वेश्यालयों में भी जा कर श्यामवती को खोजने का प्रयत्न किया पर वह कहीं नहीं मिली। एक दिन रास्ता चलते समय महेन्द्र बहुत ही अधिक चिन्तातुर था। एकदम अनमना हो कर चल रहा था। चारों ओर का कोलाहल भी उसे दूर से आती हुई क्षीण ध्वनि के समान लग रहा था। सहसा पीछे से आती हुई एक मोटर की चपेट में वह आ गया और धड़ाम से सड़क पर गिर पड़ा। ड्रायव्हर ने पूरी ताकत से मोटर रोकने का प्रयत्न किया था पर दुर्घटना हो ही गई। चोट तो बहुत नहीं लगी पर वह बेहोश अवश्य ही हो गया।
मोटर से एक युवती उतर कर बेसुध महेन्द्र के पास आई। वह बहुत अधिक घबराई हुई थी। उमर उसकी कोई सत्रह-अठारह वर्ष की थी। उसके वस्त्र बहुमूल्य थे। गले में कीमते 'नेकलेस', हाथों में सोने की चूड़ियाँ और माथे पर गोल बिन्दी थी। उसके अनुपम सौन्दर्य पर करुणा की छाया झलक रही थी जिससे उसकी सुन्दरता और भी निखर आई थी। ड्रायव्हर की सहायता से उसने महेन्द्र के संज्ञाहीन शरीर को मोटर में रख दिया। अब तक लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी। लोगों को समझा-बुझा कर वह युवती महेन्द्र को अपने साथ उसका इलाज करवाने ले गई।
सड़क पर सड़क पार कर मोटर एक आलीशान मकान के सामने रुकी। यही उस युवती का घर था। दो-तीन नौकर दौड़ कर आये जिनकी सहायता से महेन्द्र को एक कमरे में पहुँचाया गया। कमरे में मुलायम बिस्तर और गद्दे वाला पलंग बिछा था। उस पर महेन्द्र को लिटा दिया गया। डॉक्टर बुलवा कर महेन्द्र का उपचार करवाया गया। डॉक्टर ने महेन्द्र के चोटों पर मरहम-पट्टी कर दी और उस युवती को बताया कि डरने की कोई बात नहीं है, आधे घंटे के भीतर होश आ जायेगा।
महेन्द्र बेहोश पड़ा था। वह युवती उसकी सेवा में लगी थी कि दो और युवतियों ने कमरे में प्रवेश किया। दोनों ही पहली युवती से अवस्था में बड़ी थीं। आते ही एक बोली, "उषा, यह कौन है? कहाँ से उठा लाई हो इसे?" उषा ने उत्तर दिया, "उठा नहीं लाई शशि, ये मेरी मोटर के नीचे आ गये थे। लइसलिये उपचार के लिये ले आई हूँ।" इसी बीच बेहोशी की हालत में महेन्द्र ने दो-तीन बार श्यामवती का नाम लिया। शशि ने तीसरी युवती से कहा, "अरुणा, यह तो किसी श्यामवती का पुजारी जान पड़ता है। इसे ले आने से उषा को क्या मिलेगा?"
"मिलेगा क्या खाक।" कह कर अरुणा मुस्कुराई और बोली, "चल शशि उस उषा को यहीं मरने दे।" शशि और अरुणा तितली की भाँति वहाँ से चली गईं। उषा को उन दोनों का ढंग पसन्द नहीं था। उषा, शशि और अरुणा सगी बहनें थीं। उषा सबसे छोटी थी। धीरे धीरे महेन्द्र को होश आया। उसने आँखें खोल कर छत की ओर देखा और विचारों की श्रृंखला जोड़ने में लग गया। उसे याद आया कि वह मोटर के नीचे आ कर बेहोश हो गया था। वह कह उठा, "मैं कहाँ हूँ?"
"आप मेरे घर में हैं। मैं उषा हूँ। आप मेरी मोटर के नीचे आ कर बेसुध हो गये थे।" उषा बोली।
महेन्द्र को स्वस्थ होने में केवल एक दिन का ही समय लगा और जाने के लिये तैयार हो गया पर उषा ने बड़ा आग्रह किया कि वह दो-चार दिन रह कर पूरी तरह स्वस्थ हो कर जाये। महेन्द्र भी कुछ कमजोरी का अनुभव कर रहा था और उषा के आग्रह में इतनी अधिक नम्रता और आकर्षण था कि कम से कम चार दिन वहीं रुक जाने के लिये महेन्द्र को बाध्य होना ही पड़ा। महेन्द्र को मालूम हुआ कि उषा के परिवार में उसके माता-पिता, एक भाई और अरुणा, शशि तथा उषा तीन बहनें थीं। महेन्द्र का परिचय पा कर उन सभी ने प्रसन्नता व्यक्त की। उस घर में सभी हँसमुख और प्रसन्न थे। जो भी महेन्द्र से बात करता, मुस्कुराता ही रहता। केवल उषा ही ऐसी थी जिसके चन्द्रमुख पर विषाद के बादल छाये रहते थे। घर के लोग जब तब उसे झिड़कते ही रहते और वह चुपचाप सभी की बातें सुन लिया करती थी। उस घर में दिन-रात कोई न कोई आता-जाता रहता था। शशि और अरुणा हँस हँस कर उनका स्वागत करती थीं। उस मकान में आने वालों के स्नान, भोजन, मनोरंजन का प्रबन्ध था, फिर भी वह मकान कोई धर्मशाला नहीं था। शशि और अरुणा संगीत छेड़ कर आगन्तुकों को मनोरंजन करती थीं। केवल उषा ही अपने कमरे में बैठी रहती थी। अकस्मात उसके कमरे में कोई आ जाता तो उसे केवल 'मनहूस कहीं की' कह कर चला जाता था। महेन्द्र ने इन सब बातों का जल्दी ही अध्ययन कर लिया। महेन्द्र की देखभाल उषा के सिवाय और कोई नहीं करता था।
चौथे दिन सबेरे उषा चाय लेकर महेन्द्र के पास आई। आज महेन्द्र चला जाने वाला था। चाय का ट्रे टेबल पर रख कर उषा एक ओर खड़ी हो गई।
"बैठो उषा" महेन्द्र ने कहा।
वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गई।
"उषा, तुम्हारे घर यह सब क्या होता है?"
"कुछ न पूछो महेन्द्र बाबू" एक गहरी निःश्वास छोड़ कर उषा बोली, हम कुलीन घराने के हैं पर पिता जी और भैया ने मुसाफिरों के मनोरंजन का व्यवसाय अपना लिया है। हम तीनों बहनों में से एक का भी विवाह जान-बूझ कर नहीं किया गया है। मेरी दोनों बहनें न मालूम कैसे इस व्यवसाय में रुचि रखती हैं पर मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।"
महेन्द्र सुन कर स्तब्ध रह गया। वह गहरी चिन्ता में डूब गया। उसके चेहरे पर विषाद की रेखा उभर आई। इसी समय शशि और अरुणा भी वहाँ आ गईं। कुछ देर तक तो दोनों महेन्द्र और उषा को देखती रहीं फिर अरुणा ने हँस कर पूछा, "घुल-मिल कर क्या बातें हो रही हैं महेन्द्र बाबू?" महेन्द्र के कुछ कहने के पहले ही नाक-भौं सिकोड़ कर उषा बोली, "बातें क्या हो रहीं हैं। महेन्द्र बाबू आज जा रहे हैं इसी पर चर्चा चल रही थी।"
अच्छा, अच्छा" कह कर शशि और अरुणा तेजी से चली गईं। दोनों ने समझ लिया कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी।
दोपहर को भोजन करने के बाद महेन्द्र जब उस घर से जाने लगा तब उषा के सिवाय कोई उससे मिलने नहीं आया। पहुँचाने के लिये वह दरवाजे तक आई और दोनों ने अभिवादन किया। उसी समय महेन्द्र ने बटुये से सौ का नोट निकाल कर उषा के हाथ में रख दिये। उषा तिलमिला उठी। नोट को वापस करती हुई बोली, "महेन्द्र बाबू, इस घर के और लोगों के समान मुझे भी आप नीच और गिरी हुई समझते हैं। ये रुपये वापस लीजिये।" महेन्द्र अवाक् हो गया। उसने यह सोच कर रुपये वापस ले लिये कि उषा की भावना और हृदय को इससे ठेस लगी है। किन्तु कहा, "नहीं उषा, यह बात नहीं है। मैं तुम्हें कुछ दिये बिना ही चला जाऊँ तो तुम्हारे घर के लोग तुम्हारी आफत न कर देंगे?"
वह बोली, "वे लोग मेरी क्या आफत कर सकते हैं। आफत तो मैं उन्हीं लोगो की किया करती हूँ महेन्द्र बाबू। मैंने तो निश्चय कर लिया है कि इस नरक से एक न एक दिन बच निकलूँगी। पढ़ी-लिखी हूँ। नौकरी कर के पेट पाल लूँगी।"
"भगवान करे ऐसा ही हो।" कह कर महेन्द्र वहाँ से चला गया। जब तक वह दिखता रहा, उषा दरवाजे पर खड़ी रही। महेन्द्र के आँखों से ओझल होने पर ही वह भीतर गई।
कलकत्ते में श्यामवती को ढूँढने का निष्फल प्रयास के बाद महेन्द्र रायपुर लौट गया और वहाँ से खुड़मुड़ी चला गया।
(क्रमशः)

Monday, October 8, 2007

धान के देश में - 30

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 30 -

जिन दिनों महेन्द्र और सदाराम नागपुर में पढ़ रहे थे उन दिनों खुड़मुड़ी में सुमित्रा और राजवती उनकी मंगल-कामना करती हुईं एक एक दिन गिन रहीं थीं कि कब उनकी पढ़ाई समाप्त हो और वे वापस आयें। अन्त में वह दिन आ पहुँचा। इतवारी में चलने वाले सुधार कार्य को जानकी के हाथों सौंप कर महेन्द्र और सदाराम रायपुर आ गये। उन दिनों सुमित्रा और राजवती रायपुर में ही थीं। उनसे भेंट होते ही महेन्द्र और सदाराम ने उनके पैर छुये। उन्हें देख कर सुमित्रा और राजो की आँखें आनन्द के आँसू से छलक गईं। दोनों के मन में एक ही विचार उठ रहा था कि आज दीनदयाल होते तो खुशी से फूले न समाते। जैसे फसल पकने के समय ओले गिरकर उसे नष्ट कर दें वैसे ही कठोर कराल काल ने उन्हें निगल लिया।
नागपुर से आने के तीन दिन बाद ही एक कागज लेकर सरकारी चपरासी आया। महेन्द्र ने कागज लेकर पढ़ा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वह नौकरी का कागज था जिसमें यह सूचित किया गया था कि महेन्द्र को चन्दखुरी के सरकारी खेती के फॉर्म में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर नियुक्त किया गया है। उन दिनों शासन की ओर से स्वयं ही कभी कभी योग्य व्यक्ति को ढूँढ कर नौकरी दे देने प्रयत्न किया जाता था। इसीलिये महेन्द्र की शिक्षा का पता लगा कर शासने स्वयं उसे नौकरी दे दी थी। महेन्द्र वह कागज लेकर अकेले ही चन्दखुरी गया और वह नौकरी सदाराम के लिये ठीक कर आया। जब सदाराम को इस बात का पता लगा तब वह महेन्द्र से बोला, "यह तुमने क्या किया। नौकरी तो तुम्हें दी गई थी और तुम ठीक कर आये मेरे लिये।"
"ठीक ही तो किया। मुझे नौकरी करनी नहीं है और तुम्हें नौकरी की आवश्यकता है।" महेन्द्र ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।
"हम लोग तो पहले से ही दादा दीनदयाल के उपकारों के बोझ से दबे हैं और अब तुम भी...."
सदाराम बात काट कर तुरन्त ही महेन्द्र बोला, "तुम्हें यह नौकरी करनी ही पड़ेगी। मैं नियुक्ति पत्र ले आया हूँ। वेतन १५०) मासिक है। मैं समझता हूँ इससे तुम राजो को सुखी रख सकोगे। नौकरी पर जाने के लिये अभी एक सप्ताह का समय बाकी है। तब तक खुड़मुड़ी से हो आवेंगे।" सदाराम कुछ नहीं बोला। कृतज्ञता से उसका हृदय भर गया।
इसके बाद ही सुमित्रा, राजवती, महेन्द्र और सदाराम खुड़मुड़ी चले गये। वहाँ गाँव के लोगों ने महेन्द्र और सदाराम का बड़ा स्वागत और सम्मान किया। प्रत्येक किसान नारियल लेकर महेन्द्र से मिलने आया। खुड़मुड़ी में पाँच दिन रहने के बाद सदाराम चन्दखुरी चला गया और असिस्टेंट मैनेजर के पद पर सरकारी नौकरी करने लगा। महेन्द्र ने राजो से कहा कि वह भी सदाराम के साथ चली जाये जिससे उसे अपने हाथ से रोटी पकाने का कष्ट न उठाना पड़े पर राजवती चाहती थी कि वह खुड़मुड़ी में ही रह कर सुमित्रा और महेन्द्र की सेवा करती रहे। उसकी इच्छा के विरुद्ध जाना उचित न समझ कर महेन्द्र कुछ नहीं बोला और राजो सदाराम के साथ नहीं गई।
महेन्द्र स्वाभाविक रूप से गम्भीर हो गया था। गाँव का पूरा बोझ उसके सिर पर आ पड़ा था। गाँव वाले सरल हृदय और श्रद्धावान थे। उनके हृदय में जैसा सम्मान दीनदयाल के लिये था वैसा ही सम्मान महेन्द्र के लिये भी था। जिन गाँवों में मालगुजारों का व्यवहार किसानों को नीचा और अपने आपको ऊँचा दिखाने वाला होता था वहाँ अवश्य ही लोगों में घोर असन्तोष रहता था पर खुड़मुड़ी में तो यह दशा थी कि जहाँ मालगुजार का पसीना बहने का अवसर आता वहाँ किसान उसके लिये अपना खून बहा देने के लिये तैयार रहते थे। सबसे पहला काम महेन्द्र ने जो किया वह था दीनदयाल के स्मारक के रूप में गाँव के तालाब के किनारे शिव जी का एक सुन्दर मन्दिर बनवाने का। उसने गाँव के मुख्य मुख्य किसानों के सामने अपना विचार रखा जिसे सबने बहुत पसन्द किया और तालाब के किनारे उचित स्थान निश्चित कर शिवालय का निर्माण किया गया। इसके बाद महेन्द्र ने काम-धाम की ओर ध्यान दिया। उसने देखा कि दीनदयाल के मरने के बाद से अब तक खेती-बाड़ी के काम, उपज और आय में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है बल्कि उन्नति ही हुई है। इसके मूल में राजवती ही थी। सुमित्रा को तो खेती-किसानी के विषय में कुछ मालूम ही नहीं था पर राजो इस काम में पारंगत थी। वह अपने घर का काम समझ कर सुमित्रा को हर समय खेती सम्भालने, गाँव की व्यवस्था करने और लगान तथा नहर का टैक्स वसूल कर सरकारी खजाने में जमा करने में सहायता देती रही।
महेन्द्र ने खेती में उन्नति करने का निश्चय किया और किसानी के नये नये औजार मंगाने ने के लिये आर्डर भेज दिया। कामों में व्यस्त रहते हुये भी वह भूला नहीं था कि सदाराम का ब्याह जानकी के साथ कराने के लिये राजो को अवश्य ही राजी करना है। एक दिन उसे अवसर मिल गया। दोपहर का समय था। चिलचिलाती धूप संसार को त्रस्त कर रही थी। सनसनाती हुई गरम लू चल रही थी। बीच बीच में हहरा कर हवा प्रचण्ड वेग से बह उठती थी जिसके चपेट में सूखे पत्ते और धूल के ऊँचे खम्भे मँडरा कर आकाश में उठते और मिट जाते थे। महेन्द्र अपने कमरे में लेटा हुआ एक उपन्यास पढ़ कर मन बहला रहा था। बाजू के कमरे में सुमित्रा और राजो बातें कर रहीं थीं। जो महेन्द्र के कमरे से साफ सुनाई दे रही थीं। उसने पुस्तक बन्द कर दी और सुनने लगा।
"अब महेन्द्र का ब्याह हो जाना चाहिये।" राजो कह रही थी।
"हाँ, मेरे भी जीवन की सबसे बड़ साध यही है कि बहू घर आये। फिर तो मेरा काम रात दिन रामायण पढ़ कर जीवन की घड़ियाँ काटना ही रह जायेगा।" सुमित्रा उल्लास में भर कर बोली।
तभी महेन्द्र ने अपना कमरा छोड़ कर इस कमरे में प्रवेश किया और कहा, "राजो, तुम्हें मेरे ब्याह की फिकर क्यों पड़ी है। सदाराम की शादी करो न। लेकिन यह तो बताओ कि पढ़-लिख कर बाबू बन जाने के बाद वह गाँव की छोकरियों को पसन्द करेगा?"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो बोली, "क्यों? पसन्द क्यों नहीं करेगा? पसन्द नहीं करेगा तो क्या उसके लिये इन्द्र की अप्सरा आयेगी?"
"अगर तुम चाहो तो मैं सदाराम के लिये इन्द्र की अप्सरा ही ला दूँ।" महेन्द्र की बात से राजो चौंक उठी।
"तुम केवल मुझे खुश करने के लिये बातें बना रहे हो। भला ऐसा भी कभी हुआ है कि घूरे में से सरग का सपना देखा जाय।" राजवती ने अविश्वास से कहा।
अब महेन्द्र काफी गम्भीर होकर बोला, "राजो, मैं नागपुर में सदाराम के लिये एक लड़की पसन्द कर चुका हूँ। उसका नाम जानकी है। सदाराम और जानकी एक दूसरे को चाहते भी हैं। पर दो बातें हैं। एक यह कि जानकी तुम्हारी जाति की नहीं है और दूसरी यह कि वह बाल-विधवा है। यदि तुम चाहो तो सदाराम और जानकी का ब्याह करके दोनों के जीवन को सुखी बना सकती हो।"
महेन्द्र की बात सुन कर राजो सोच में पड़ गई। उसकी आँखों के सामने श्यामवती का दुःखी जीवन झूल गया जिसके लिये वह स्वयं को जिम्मेदार समझती थी। उसने सोचा कि एक की जिन्दगी तो बर्बाद हो ही चुकी है, कहीं ऐसा न हो कि सदाराम को भी दुःखी जीवन व्यतीत करना पड़े। अन्त में उसने उत्तर दिया, "मुझे मंजूर है। तुम सदाराम का ब्याह जहाँ और जिससे करना चाहो करो पर पहले तुम्हारा ब्याह होना चाहिये।"
राजो का उत्तर सुन कर महेन्द्र ने सन्तोष से कहा, "पहले तो वही ब्याह होगा जो पहले लग चुका है।"
(क्रमशः)

Sunday, October 7, 2007

धान के देश में - 29

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 29 -

टाटानगर में जब लोगों ने भोला और बुधराम को एक साथ देखा तब सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। आपस में तरह तरह की बातें होने लगीं। अधिकांश लोग इसी नतीजे पर पहुँचे कि इस तरह के झगड़े और मनमुटाव तो होते ही रहते हैं। फिर उसे ही लेकर कोई कहाँ तक चल सकता है। एक बात पर सभी एक मत थे और कहते थे कि भोला जैसा भोला आदमी दूसरा कोई नहीं होगा, क्योंकि जिस आदमी ने उसकी इज्जत पर हमला किया था उसी को उसने अपना लिया।
श्यामवती को बुधराम के वापस आ जाने और भोला का उसके साथ रहने से आश्चर्य हुआ और भोला पर बेहद क्रोध भी आया पर वह न तो कुछ बोली और न बोलना ही चाहती थी। वह बार बार सोचती थी कि इनको क्या सूझा जो उस बदमाश को साथ ले आये। अन्त में उसकी विचार धारा इस नतीजे पर आकर रुक गई कि बुधराम के बिना उनका पीना रुक गया था, इसीलिये उसे ढूँढ कर ले आये।
कारखाने के मैनेजर से सिफारिश कर भोला ने बुधराम को नौकरी भी दिला दी। दोनों फिर पहले जैसे एक हो गये और शराब की दूकान पर जाकर पीने लगे किन्तु अबकी बार परिस्थिति विपरीत थी। भोला बड़ी चालाकी से कम पीता था और बुधराम को इतनी अधिक पिलाता था कि वह दीन-दुनियाके साथ साथ अपने आपको भी पूरी तरह भूल जाता था।
भोला और बुधराम अलग अलग सेक्शन में काम करते थे। कुछ दिनों के बाद भोला को भी बुधराम के ही सेक्शन में काम करने का अवसर मिल गया। दोनों भट्ठी में कोयला झोंकने का काम करते थे। एक दिन ज्यों ही बुधराम कोयला झोंकने के लिये झुका त्यों ही भोला ने अपनी पूरी ताकत लगाकर उसे भट्ठी में ढकेल दिया। ठीक उसी समय मैनेजर किसी काम से उधर से निकल रहा था और उसने इस घटना को देख लिया। भोला वहाँ से बेतहाशा भागा और मैनेजर "पकड़ो, पकड़ो" कहता हुआ उसके पीछे दौड़ा पर भोला निकल ही भागा। मैनेजर ने सबको बताया कि भोला खूनी है और उसने बुधराम को भट्ठी के भीतर झोंक दिया है। सुनते ही सब सन्न रह गये। पुलिस को भी सूचना दे दी गई।
भोला हाँफता हुआ घर पहुँचा। उसका रौद्र रूप देखकर श्यामवती एकदम घबरा गई। भोला ने गरज कर कहा, "तुम्हारी इज्जत पर डाका डालने वाले बुधराम को मैंने भट्ठी में ढकेल कर जला दिया है। अब मैं जरूर पकड़ा जाउँगा। मैं नहीं चाहता कि मेरे बाद और कोई तुम्हें छेड़े। इसलिये तुम्हें भी जिन्दा नहीं छोड़ूँगा।" इतना कह कर वह तेजी से घर के भीतर घुस गया और कुछ ही क्षणों में हाथ में फरसा लिये श्यामवती की ओर झपटा। वह समझ गई कि उस पर खून सवार है। प्राणों के मोह ने उसे चपल बना दिया और वह बिजली की भाँति बाहर भागी। उसके पीछे हाथ में फरसा उठाये भोला दौड़ा। श्यामवती परसादी के घर में घुस गई। भोला भी उसके पीछे-पीछे परसादी के घर में घुसने वाला ही था कि उसने देखा कुछ लोग उसके पीछे दौड़े चले आ रहे हैं। उन लोगों को देख कर भोला परसादी के घर में घुसने के बदले एक ओर भाग गया। अब तक कुछ सिपाही भी आ गये थे पर भोला काफी दूर भाग कर सुरक्षित हो गया था। पुलिस ने भोला के घर की तलाशी ली। दो-एक उसके पीछे दौड़े और अन्त में उसके घर के चारों ओर कड़ा पहरा बैठा दिया गया कि शायद वह कहीं लुक-छिप कर आवे।
परसादी के घर घुसते ही श्यामवती बेहोश होकर गिर पड़ी। लोगों ने उसका उपचार किया और वह होश में आई। उसके प्रति सभी की सहानुभूति थी। उससे भोला का घर छुड़वा दिया गया - इस डर से कि कहीं भोला मौका-बेमौका आ न जाय और उसकी हत्या न कर दे। श्यामवती परसादी के घर रहने लगी। भोला की खोज पुलिस के द्वारा जारी थी। श्यामवती इस अचानक आ पड़ने वाली विपत्ति से एकदम घबरा गई थी। धीरे धीरे जब वह कुछ स्वस्थ हुई तब उसे मायके के लोग याद आये। उन लोगों से मिलने के लिये उसका हृदय क्षुब्ध और अशान्त हो उठा। एक दिन वह परसादी से बोली, "परसादी भैया, मैं यहाँ अकेली रह कर क्या करूँगी। इसलिये रायपुर लौट जाना चाहती हूँ जहाँ से खुड़मुड़ी चली जाउँगी।" परसादी काफी बुद्धिमान था और उसने दुनिया देखी थी। वह बोला, "बहन, मैं तु्म्हें अकेली नहीं जाने दूँगा। कुछ दिन ठहरो। तब तक यदि कोई रायपुर जाने वाला होगा तो उसके साथ तुम्हें भेज दूँगा।" कुछ दिन बीतने पर परसादी को पता लगा कि रामनाथ नाम का एक मजदूर रायपुर जाने वाला है। उसके साथ श्यामवती को भेजना निश्चित किया गया।
रामनाथ को कलकत्ते में कुछ आवश्यक काम था इसलिये श्यामवती और रामनाथ दोनों पहले कलकत्ते के लिये रवाना हो गये जहाँ से काम निबटाने के बाद दोनों रेल में सवार होकर रायपुर के लिये चल पड़े।
(क्रमशः)