(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
अशोक वाटिका में बन्दिनी सीता-
सहमी थी राक्षसियों से घिरी हुई,
आज हिन्दी बन्दिनी है संविधान में,
अन्य भाषाओं की हुंकार से डरी हुई।
हिन्दी जब संविधान की बन्दिनी नहीं थी-
तब अरबी-फारसी ने उसे खूब नोचा
फिर गौरांगिनी अंग्रेजी ने-
उसे जी भर कर दबोचा।
आज भी अंग्रेजी हिन्दी को निगल रही है
इसी बहाने भारतीयों की मूर्खता उगल रही है।
उन दिनों-
नागरी प्रचारिणी जैसी हिन्दी संस्थाओं ने
हिन्दी के उद्धार का बीड़ा उठाया था-
सतत् अथक परिश्रम के श्रम कण से
राष्ट्रभाषा हिन्दी को आगे बढ़ाया था।
पर आज, शासन की कैद में पा कर हिन्दी को
हिन्दी संस्थाएँ भी मौन हैं,
समझ में नहीं आता कि
राष्ट्रभाषा को उसका उचित स्थान
दिलाने वाला कौन है!
हम अन्य भाषा भाषियों पर दोष मढ़ते हैं
पर हम हिन्दी के हिमायती कान्वेण्ट प्रेमी
हिन्दी का गहन अध्ययन कब करते हैं!
'हिन्दी का व्याकरण नहीं है' सुनकर भी,
हिन्दी भाषियों की शर्म नहीं जागती-
और हमारे अंग्रेजी प्रेम की श्रद्दा नहीं भागती।
संविधान की बन्दिनी हिन्दी देवकी का
हिन्दी उद्धारक कृष्ण कब अवतरेगा,
और हिन्दी में गम्भीर विचारों से
राष्ट्र का कोना-कोना कब भरेगा?
हिन्दी विरोधियों का वर्तमान राष्ट्र विरोध,
किस शुभ घड़ी में मरेगा?
हमारे शासकीय कार्यालयों में ही,
जब हिन्दी का प्रयोग नहीं होता है,
तब हम यही जानते हैं कि राष्ट्र में,
हिन्दी प्रचार का राजकीय प्रयोग
खर्राटे ले कर कुम्भकर्णी नींद सोता है।
कौन जाने कब वह मुहूर्त आवेगा
जब कट्टरता से हिन्दी में शासन चलेगा,
या फिर हमारे हृदयों में
निकम्मे संविधान का सम्मान जलेगा।
निकम्मे संविधान का सम्मान जलेगा।
(रचना तिथिः शनिवार 16-09-1986)