Saturday, September 22, 2007

धान के देश में - 14

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 14 -

आज धनतेरस का दिन है। शाम को गाँव के घर घर के दरवाजों पर कच्ची मिट्टी के तेरह दिये जला कर पूर्व दिशा की ओर मुख करके रखे गये। दरवाजे जगमगा उठे। कहीं कहीं बच्चों ने कम मात्रा में फटाके भी चलाये। दूसरे दिन नरक चौदस का पर्व था। उस दिन घरों के दरवाजों पर चौदह दिये दक्षिण दिशा की ओर मुख करके रखे गये। रात को सुमित्रा ने अपने हाथों से चूल्हा जलाया। उस पर पानी भरा गुंडी रखा और उस पानी में चिरायता, नीम और अन्य कड़वे पौधों के पत्ते और डंठल डाल कर गरम होने रख दिया। रात भर धीमी आँच में उबला हुआ वह पानी 'कड़वा जल' कहलाता है जिससे मातायें अपनी सन्तानों को 'लक्ष्मी पूजा' के दिन अपने हाथों से उबटन लगा कर स्नान करवाती हैं।
दूसरे दिन लक्ष्मी पूजा होने के कारण गाँव के लोग तड़के उठ गये। काम-धाम सब बन्द था। गाँव में विचित्र चहल-पहल और उल्लास था। लोग ठौर ठौर पर इकट्ठे होकर आनन्द से बातें कर रहे थे तो कहीं किसी के आँगन या कमरे में कुछ लोग जुआ भी खेल रहे थे।
पिछली रात महेन्द्र एक पुस्तक पढ़ते बहुत देर तक जागता रहा था। इसलिये सबेरे जल्दी नहीं उठ सका। सुमित्रा स्वयं उसे उठा कर बोली, "बेटा, आज त्यौहार के दिन भी कोई देर तक सोता है। चल, आज तुझे मेरे हाथों से नहाना है।"
"माँ, मैं छोटा बच्चा तो हूँ नहीं जो मुझे नहलाओगी।" महेन्द्र ने हँसते हुये कहा।
"ऐसा नहीं कहते बेटे, लड़का तो माँ के लिये सदा छोटा ही होता है; और फिर आज के दिन माँ ही तो अपने बेटे को नहलाती है।" सुमित्रा महेन्द्र की बात अनसुनी करती हुई बोली। प्रातः कृत्य से निवृत हो महेन्द्र जब आँगन के एक कोने में स्नान करने बैठा तब मना करने पर भी सुमित्रा उसे उबटन लगा कर 'कड़वे जल' से नहलाने लगी। उस समय माँ का प्रेम समुद्र की भाँति लहरें मार रहा था।
दीनदयाल दिन भर घर की बची-खुची सफाई में लगे रहे। बैठक के कमरे में उन्होंने अपने हाथों कुछ यंत्र लिखे। उन्होंने सुमित्रा, राजवती, श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम को अपने पास बुलवाया। उनके आ जाने के बाद उन्होंने उन सबको नये कपड़े दिये।
देखते देखते शाम हो गई। घर घर अनेकों दिये जला दिये गये। छोटा-सा खुड़मुड़ी गाँव दीपकों की चमक में दमक उठा। थोड़ी और देर होने पर दीनदयाल ने लक्ष्मी जी की पूजा की। पूजा के समय सुमित्रा, राजवती, श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम सभी उपस्थित थे। आँगन में घर के अन्य नौकर भी थे। पूजा के बाद महेन्द्र और सदाराम ने खूब सारे फटाके छोड़े। श्यामवती ने भी फुलझड़ियां, चकरियाँ और अनारदाने चलाये। श्यामवती और महेन्द्र एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते थे। दीनदयाल ने भी बच्चों में बच्चे बनकर उल्लास के साथ कुछ फटाके चलाये। उनका उल्लास देख कर महेन्द्र की आनन्द की सीमा न रही।
लक्ष्मी पूजा की रात गाँव में प्रायः कोई नहीं सोया। औरतें 'गोड़िन गौरा' की पूजा और उत्सव में व्यस्त हो गईं। इसके पहले दिन वे औरतें मालगुजार और बड़े किसानों के घर जाकर 'सुआ नाच' नाचती रहीं थीं। बाँस से बने एक टोकनी में चाँवल भर कर उसमें चार-पाँच पतली लकड़ियाँ खड़ी की गई थीं। उन लकड़ियों के ऊपरी भाग में मिट्टी के छोटे-छोटे तोते बनाये गये थे। उस टोकनी को बीच में रख कर स्त्रियाँ गोल घेरे में आधी झुकी हुईं गोल घूम घूम कर, झूम झूम कर नाचती रहीं थीं। उनके मुँह से एक स्वर होकर सहगान के रूप में छत्तीसगढ़ का 'सुआ गीत' गूँज रहा था -
जावहु सुवना नन्दन वन
नन्दन वन आमा गउद लेइ आव,
ना रे सुआ हो, आमा गउद लेइ आव।
जाये बर जाहव आमा गउद बर, कइसे के लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, कइसे के लाहव टोर।
गोड़न रेंगिहव, पंखन उड़िहव, मुँहे में लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, मुँहे में लइहव टोर।
लाये बर लाहव आमा गउदला, काला मैं देहँव धराय,
ना रे सुआ हो, काला मैं देहँव धराय।
गुड़ी में बइठे मोर बंधवइया, पगड़िन देहव अरझाय।
रे सुआ हो, पगड़िन देहव अरझाय।
सुआ नाच के बाद इनाम के रूप में उन्हें जो कुछ भी मिला उसे उन स्त्रियों ने 'गोड़िन गौरा' के लिये इकट्टा कर लिया।
रात को अमोली के घर के सामने सभी स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुये। भीतर एक कमरे में गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जा रही थीं।
लकड़ी के एक पाटे पर चारों कोनों में खम्भे बनाये गये। उनके ऊपरी भाग में दिये रखने के लिये गढ़े किये गये। बीच में शिवजी की मूर्ति बनाई गई। उसके बायीं ओर गौरा माता की मूर्ति का निर्माण किया गया। फिर खम्भों और मूर्तियों को रुपहले और सुनहले वर्क से आच्छादित किया गया। उसके बाद लाल सिन्दूर की मोटी लकीर से भरी हुई माँग वाली एक स्त्री ने बाल बिखरा लिये और पाटे को सिर पर रख लिया। वह सफेद साड़ी पहनी हुई थी। आगे आगे युवक, वृद्ध, बच्चे और स्त्रियाँ चलीं तथा इस प्रकार शिवजी की बारात निकाली गई। चारों खम्भों में जलते हुये दीपकों की ज्योति में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ जगमगा रहीं थीं। सामने लगातार एक ही स्वर और लय में बाजे बज रहे थे। दो-तीन औरतें लटें बिखरा कर झूमती चली जा रहीं थीं। साथ में 'बैगा' भी था। उसके हाथ में कुश की बनी हुई रस्सियाँ थीं। कुछ कदम तक दायें-बायें बाल बिखर कर झुमने के बाद वे औरतें रुक जातीं और क्रम क्रम से अपना दाया-बायाँ हाथ धरती के समानान्तर फैला देती थीं। बैगा 'साँटी' कहलाने वाली उस रस्सी से उनके हाथों को पूरी ताकत से पीटते थे। ऐसा माना जाता है कि उन स्त्रियों के शरीर में देवता का प्रवेश हो जाता है।
जुलूस के लड़के दनादन फटाके छोड़ रहे थे। बाजे और गीत से शोरगुल मचा हुआ था। भीड़ में दूसरी औरतों के साथ राजवती भी गाने में अपने आपको भूल रही थी। केवल श्यामवती आनन्द की उस धमाचौकड़ी में शामिल नहीं हुई। राजो ने उसे साथ चलने के लिये खूब समझाया पर कुछ तो यह सोच कर कि महेन्द्र क्या कहेगा और कुछ पढ़-लिख लेने के संकोच से वह अलग ही रही। महेन्द्र और सदाराम भी रात तक यह सब देखते रहे। रात भर गलियों में घूमने के बाद गाँव के दैहान में बने 'गौरा चबूतरे' पर पाटा रख दिया गया जहाँ लगभग दोपहर तक लोग दर्शन करते रहे। उस समय औरतें गा रही थीं:-
महादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।
अन्त में मूर्तियाँ तालाब में विसर्जित कर दी गईं। शिव-पार्वती की इस पूजा को 'गोड़िन गौरा' कह कर गाँव वाले उत्सव मनाते हैं जो वास्तव में शिव-विवाह की वार्षिक स्मृति है।
(क्रमशः)

Friday, September 21, 2007

धान के देश में - 13

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 13 -

दीवाली नजदीक थी। महेन्द्र और सदाराम, खूब सारे फटाके और पूजा के लिये लक्ष्मी जी का चित्र लेकर राजो और श्यामवती के साथ खुड़मुड़ी आ गये। उन सबके आ जाने से दीनदयाल और सुमित्रा को बड़ी खुशी हुई।
गाँव के सभी लोगों पर दीवाली के आनन्द का नशा छाया था। सब अपने-अपने घरों की सफाई और लिपाई पुताई करने में लगे थे। साथ ही जुये का जोर भी बढ़ गया था। खुड़मुड़ी गाँव पाटन थाने के अन्तर्गत है। थाने में सरगर्मी बढ़ गई थी। पुलिस वाले जुये की टोह में गाँव-गाँव का दौरा कर रहे थे। स्वयं सब इस्पेक्टर खुड़मुड़ी आये। गाँव के कोटवार भुलउ ने उनकी बड़ी आवभगत की। चौपाल पर खाट बिछा दी गई। उस पर सब इंसपेक्टर बैठ गये। दारोगा का आगमन सुन कर महेन्द्र और सदाराम भी आ गये। तीनों में बातें होती रहीं। भुलउ चुपचाप बैठा था। गाँव के कुछ लोग भी इकट्ठे हो गये थे। दारोगा ने भुलउ को बताया कि वह रात गाँव में ही रहेगा। सुनकर भुलउ दौड़ता हुआ गया और उसके लिये खाट तथा रसद का प्रबंध कर आया। बेगार और रसद अंग्रेजी शासन के युग में साधारण बात थी। दारोगा आये तो थे जुये की खोज में पर गाँव के दो-चार शौकीन लोगों के साथ स्वयं तास की तीन पत्तियाँ और सोलह कौड़ियों से रात भर जुआ खेलते रहे। दीवाली जो थी और दारोगा शौकीन और दिलचस्प आदमी थे। दूसरे दिन वे दूसरे गाँव के लिये रवाना हो गये।
शाम होने के पहले ही गाँव का नाई चैनसिंह दीनदयाल के घर आता, लालटेनों की चिमनियाँ साफ करता और उनमें मिट्टीतेल भर कर सन्धया होते ही उन्हें जला जाता था। रात को सोने के पहले वह फिर आता और भोजन करके खाट पर लेटे हुये दीनदयाल के सिर और शरीर में तेल मलता और तब तक उसके हाथ-पैर दबाता जब तक वे सो न जाते। उसके बाद महेन्द्र के कमरे में जाता, उसके सिर की मालिश करता, बदन पर तेल मलता और पैर दबाता था। महेन्द्र को यह सब पसन्द नहीं था पर छोटा मालगुजार होने के कारण परिपाटी को निभाना पड़ता था। एक दिन उसने चैनसिंह से पूछा, "क्यों चैन, क्या तुमको हम लोगों की सेवा करना अच्छा लगता है?"
चैनसिंह ने तुरन्त ही उत्तर दिया, "छोटे मालिक, आप लोगों की सेवा करने का मौका बड़े भाग से मिला है। अच्छा क्यों नहीं लगेगा।"
महेन्द्र बोला, "देखो चैन, आदमी आदमी तो सभी बराबर हैं। फिर तुम हमारी सेवा क्यों करो? हम अपने सब काम खुद न कर लिया करें?" लेकिन चैनसिंह के मन में महेन्द्र की बात जमी ही नहीं। वह झट से बोल उठा, "ऐसा कैसे हो सकता है छोटे मालिक? आप ठहरे मालगुजार। आप और हम बराबर कैसे हो सकते हैं? कहीं गंगू तेली भी राजा भोज बन सकता है? आप तो हमारे लिये भगवान हैं" कह कर तुरन्त ही महेन्द्र के पाँव छू लिया।
महेन्द्र ने पूछा, "अच्छा यह बताओ कि गाँव भर के लोगों की हजामत बनाने का तुम्हें क्या मिलता है?" महेन्द्र जानना चाहता था कि गाँव में जो व्यवस्था है उससे लोगों में संतोष है या नहीं।
महेन्द्र की बात सुनकर चैन हँस दिया और इस तरह से समझाया मानो महेन्द्र को कुछ मालूम ही नहीं। उसने कहा, "गाँव भर के लिये नाई, धोबी और रावत (छत्तीसगढ़ में मवेशियों की देख-भाल करने वाले) का प्रबंध साल भर के लिये किया जाता है। नाई गाँव वालों की हजामत बनाता है, धोबी कपड़े धोता है और रावत मवेशियाँ चराता तथा दूध दुहता है। बदले में उसे 'जेवर' मिलता है।
"याने लोग तुम्हें गहने देते है?" महेन्द्र ने अनजान बन कर पूछा।
नहीं छोटे मालिक, जेवर का मतलब गहना नहीं होता। आप जेवर नहीं जानते? जेवर कहते हैं उस अनाज को जो गाँव के मालगुजार और किसान हमें फसल कटने पर देते हैं। हर घर के पीछे हमारा अनाज बंधा रहता है। जब मालिक बहुत ही खुश हो जाते हैं या कोई शुभ अवसर आता है तब वे हम लोगों को एकाध खेत भी इनाम के रूप में दे देते हैं। तालाब के नीचे वाले खेत को बड़े मालिक ने तुम्हारे पिता श्यामलाल के ब्याह के समय मुझे दिया था। तुम्हारे पिता बड़े अच्छे थे। वे इस गाँव के रतन थे। भगवान भी तो उन्हें अधिक चाहते थे, इसीलिये तो जल्दी ही उन्हें अपने पास बुला लिया।" कहते कहते चैनसिंह के मन में श्यामलाल के साथ बिताये हुये दिन याद आ गये और उसकी आँखें डबडबा उठीं।
महेन्द्र भी गम्भीर और उदास हो गया। उसे ऐसा लगा कि पिता की याद में वह अब रो ही देगा। उसने सोचा कि मैं भी कैसा अभागा हूँ जिसे अपने पिता को देखने का सौभाग्य तक नहीं मिला।
(क्रमशः)

Thursday, September 20, 2007

धान के देश में - 12

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 12 -

दिन के तीन बजे दुर्गाप्रसाद रायपुर में दीनदयाल के घर के सामने आ पहुँचा जहाँ श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम को साथ लिये राजवती रहती थी। वह दरवाजे पर ठिठक गया। उसे याद आ गया कि उसके कारण ही राजवती को सिकोला छोड़ना पड़ा था। उसका हृदय जोरों से धक् धक् करने लगा। कुछ देर के लिये असमंजस की स्थिति में चुपचाप खड़ा रहा। फिर साहस कर के उसने आवाज दी, "राजो!"। आवाज सुनकर राजो ने दरवाजा खोला। दुर्गाप्रसाद को देख कर आदर भरे स्वर में "आवो दुर्गाप्रसाद" कह कर उसे घर के भीतर बुला लिया।
कमरे में आकर बैठते ही दुर्गाप्रसाद ने कहा, "राजो, मैं तो समझ रहा था कि तुम अभी तक मुझसे नाराज होओगी। सबसे पहले तुम मुझे पिछली बातों के लिये माफ कर दो।"
राजवती शान्त भाव से बोली, "मैं तो उन बातों को बहुत पहले भी भूल चुकी हूँ। तुम्हें उसके लिये चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। और फिर उसमें तुम्हारा दोष ही कहाँ था? जैसा रिवाज है वैसा ही तो तुमने किया।"
यह जानकर कि राजवती उसके दोषों को भुला चुकी है या वास्तव में कहा जाय कि उसे क्षमा कर चुकी है दुर्गाप्रसाद के हर्ष का पारावार न रहा। जिस काम के लिये वह आया था उस काम के बनने की उम्मीद भी उसे बँधने लगी। उसने गद्-गद् कण्ठ से कहा, "हमारे समाज कि सभी स्त्रियाँ यदि तुम जैसी हो जायें तो कितना अच्छा हो।"
"पर ऐसा होता कहाँ है?" राजवती बोली, "अब देखो न, जिस दिन मैं सिकोला छोड़ कर खुड़मुड़ी आई उसी दिन की बात है कि अगनू की औरत रधिया, भगवानी के घर घुस गई थी। तुम तो जानते ही हो कि रधिया और भगवानी अलग-अलग समाज के हैं फिर भी ऐसा हुआ।"
"अच्छा तुम्हारे मायके की वो रधिया। उसने केवल उतना ही नहीं किया बल्कि कुछ पहले वह भगवानी को भी छोड़कर किसी और के साथ दूसरे गाँव चली गई। राजो, पढ़ाई-लिखाई में अत्यधिक उपेक्षित होने के कारण ही शायद हमारे गाँवों में ऐसा होता है। पहले मुझे भी ये बातें स्वाभाविक लगती थीं और तुम्हारी बातें मुझे चुभती थीं। किन्तु तुमने मेरी आँखें खोल दीं। मैं समझ चुका हूँ कि जब तक ऐसा होता रहेगा, कोई भी हमें इज्जत की नजर से नहीं देखेगा।" दुर्गाप्रसाद ने अपनी बातों में बुद्धिमानी का पुट देते हुये कहा।
"पर दुर्गाप्रसाद, मुझे विश्वास है कि आज नहीं तो कल हमारे गावों से ये बुराइयाँ अवश्य ही दूर हो जायेंगी। खैर छोड़ो इन बातों को, यह बताओ कि तुम्हारा रायपुर कैसे आना हुआ?"
बातों ही बातों में दुर्गाप्रसाद कुछ देर के लिये अपने पर बीती बातों को भूल गया था। पर राजो के इस प्रश्न ने उसे सारी बातें फिर से याद दिला दीं। उदासी फिर से उसके मुख पर दिखाई देने लगी। वह बोला, "राजो, मैं तो बड़ी विपदा में पड़ गया हूँ और उससे छुटकारा पाने के लिये बहुत सी उम्मीदें ले कर तुम्हारे पास आया हूँ।"
"क्या विपदा आ पड़ी तुम पर?"
"यही मेरा भोला...."
"अरे हाँ, मैं तो भोला के बारे में पूछना ही भूल गई थी।" बात काटती हुई राजवती ने कहा, "अब तो वह भी मेरे सदवा जितना ही बड़ा हो गया होगा। उसका ब्याह किया या नहीं?"
"ब्याह तो नहीं किया और उसी सिलसिले में मैं तुम्हारे पास भीख माँगने आया हूँ।" दुर्गाप्रसाद ने राजवती के सामने मुख्य बात रखी।
"तो इसमें भीख माँगने की क्या बात है? मैं तो पहले ही तुम्हें वचन दे चुकी हूँ कि मेरी सामवती का ब्याह तुम्हारे भोला के साथ कर दूँगी।" राजो ने सीधी-सीधी बात कही।
पहले तो दुर्गाप्रसाद ने सोचा था कि वह राजवती को भोला के कपूत होने के विषय में कुछ नहीं बतायेगा। किन्तु राजवती की बातें सुनकर उसकी आत्मा उसे कचोटने लगी। भोला के विषय में राजो को अंधेरे में रखना उसकी आत्मा सहन नहीं कर पा रही थी। उसने निश्चय कर लिया कि वह राजो से कुछ भी नहीं छुपायेगा। वह बोला, "लेकिन राजो, मैं तुम्हें साफ-साफ बता देना चाहता हूँ कि भोला बड़ा कपूत निकल गया है। उसके करम ऐसे हैं कि उसके लिये किसी से लड़की माँगने जाने पर अवश्य ही लड़की वाला मुझे अपमानित कर के बाहर निकाल देगा। तुमने मुझे वचन दिया था इसलिये बहुत हिम्मत जुटा कर तुम्हारे पास आने का साहस कर पाया हूँ।"
उसकी बातें सुनकर राजवती ने कहा, "तुम्हारी अक्कल पर क्या पत्थर पड़ गये हैं दुर्गा? बेटा सपूत हो या कपूत, आखिर होता तो अपना ही बेटा है न। इस उमर में शरारत नहीं करेगा तो क्या बुढ़ापे में करेगा?"
राजवती की सरल बातें सुनकर दुर्गाप्रसाद एकदम गम्भीर होकर बोला, "राजो, तुम तो रीत की बात कहती हो पर भोला बहुत दूर तक बिगड़ चुका है। तुम्हें पता नहीं है कि मुझे तमाचे मार कर उसने बाप-बेटा के बीच की मरजादा भी तोड़ दिया है।"
"जरूर तुमने ही उसके साथ ज्यादती की होगी, तुम्हें भी बराबरी के लड़के से नहीं लगना चाहिये।" राजवती ने कहा।
"ठीक है। मुझे भी उम्मीद है कि ब्याह हो जने पर सामबती बिटिया अवश्य ही उसे सुधार लेगी।" दुर्गाप्रसाद ने आशा भरे स्वर में कहा।
"जरूर सुधर जायेगा अपना भोला। सामबती उसे सुधारे या न सुधारे, ब्याह के बाद पड़े घर-गिरस्ती का बोझ जरूर ही उसे ठीक रास्ते पर ले आयेगा।"
राजवती की बातों से दुर्गाप्रसाद की आशा की ज्योति और प्रज्वलित हो उठी। उसने पूछा, "तो कब तक यह ब्याह हो जायेगा?"
"बैसाख के महीने में ब्याह करना ठीक रहेगा। उस समय सदवा की भी छुट्टी रहेगी। इसी बीच मैं दीनदयाल काका से भी सलाह ले लूँगी।" राजो ने उत्तर दिया।
दीनदयाल से सलाह वाली बात सुनकर दुर्गाप्रसाद की आशा कमजोर पड़ने लगी। वह कुछ सहम सा गया। उसे लगा कि हाथ में तारा आकर फिर आसमान में जा लटका हो। वह जानता था कि सिकोला में नंगा नाच नाचने वाले भोला की बात दीनदयाल से छिपी न होगी। नाउम्मीदी के स्वर में वह बोला, "दीनदयाल मालिक यदि इस ब्याह के लिये राजी नहीं हुये तो?"
"मैं उन्हें तुमसे अधिक जानती हूँ दुर्गा। वे मेरी इच्छा और रास्ते में रुकावट कभी नहीं बनेंगे। मरजादा के लिये उनसे सलाह लेना मेरा धर्म है। उन्होंने मुझे और मेरे बच्चों को सहारा दिया है। वे मेरे लिये परम आदरणीय हैं।" राजवती ने कहा।
राजो का उत्तर सुनकर दुर्गाप्रसाद चुप हो गया। राजो के मान जाने के लिये उसका रोम रोम राजो का धन्यवाद कर रहा था। उसे लग रहा था कि उसका मनोरथ अब सिद्ध हो जायेगा किन्तु दीनदयाल से सलाह वाली बात उसके मन में निराशा भर रही थी।
आशा और निराशा के झूले में झूलते हुये दुर्गाप्रसाद वहाँ से विदा हुआ।
(क्रमशः)

Wednesday, September 19, 2007

धान के देश में - 11

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 11 -

आग और घी साथ साथ रख दिये जावें और आग न भड़के! ज्वाला न उठे! यह तो प्रकृति के रोकने से भी नहीं रुक सकता। यही नियम महेन्द्र और श्यामवती के जीवन में भी काम कर रहा था। साथ रहते रहते तो दो दिन में ही किसी धर्मशाला में दो यात्रियों के हृदय में एक दूसरे के प्रति सहानुभूति और स्नेह का अंश उत्पन्न हो जाता है। फिर महेन्द्र और श्यामवती तो बरसों से साथ रह रहे थे। इसलिये एक दूसरे से प्रेम हो जाना आश्चर्य का विषय नहीं था। वरन् यह तो स्वाभाविक ही था। यद्यपि वे बहुत दिनों से एक दूसरे की ओर खिंचते जा रहे थे तो भी वे अपने अपने हृदय में छोटी छोटी लहरों की भाँति उमड़ते हुये आकर्षण को पहले भाँप नहीं सके। सब कुछ समझ सकें तब दोनों हृदय को कसक और वेदना मन में ही दबा कर रखने लगे।

उस दिन रविवार था। महेन्द्र, सदाराम और श्यामवती ने सरोना जा कर छुट्टी बिताने का निश्चय किया था। सबेरे से ही तीनों पैदल ही चल पड़े। पैदल इसलिये कि सरोना रायपुर से पश्चिम में केवल तीन मील ही दूर है। उन लोगों ने हलवाई की दूकान से खरीद कर कुछ मिठाई और पूरियाँ रख लीं। रास्ते में अनेकों विषयों पर बातें करते हुये वे सरोना पहुँच गये। सरोना बड़ा ही रमणीक स्थान है। यहाँ पास पास ही दो तालाब हैं जिनके बीच भगवान शंकर का सुन्दर मन्दिर है। शिवालय के बायीं ओर वाले तालाब में बड़े सुन्दर घाट बने हुये हैं। दहिनी ओर के तालाब में सीढ़ियाँ नहीं हैं। मन्दिर के सामने वाले तट पर से मन्दिर तक जाने की पगडण्डी है। सामने से लगभग पचास कदम की दूरी से देखने पर दोनों तालाब और शिवालय मनोरम दृश्य के साथ दिखाई पड़ते हैं। तालाबों में हवा के झोकों से सदा ही छोड़ी छोटी लहरियाँ उठती रहती हैं। निर्मल जल के कमल पत्रों की भरमार रहती है। कुछ जल-पक्षी निर्मल जल की सतह पर सदैव तैरते रहते हैं। कुछ पक्षी कलरव करते हुये तालाब से किनारे के वृक्षों तक और वृक्षों से तालाब तक उड़ते हुये प्रकृति को नित्य आकर्षक बनाते रहते हैं। तालाबों के चारों ओर फूलों से लदे हुये पौधो और विशाल वृक्षों की घनी झुरमुट है। दूर से देखने पर एक सघन झाड़ी ही दिखाई देती है जिसके बीच शिवालय का चूने से पुता हुआ सफेद ऊपरी भाग दिखाई देता है। वृक्षों में आम के पेड़ ही अधिक हैं। दूसरे पेड़ लाल और पीले कनेर के तथा असंख्य सफेद आँखों से देखती हुई चमेली के हैं। शिव-मन्दिर के ठीक सामने हनुमान जी का छोटा सा मन्दिर है जहाँ गदा और पर्वत लिये बजरंगबली विराजमान हैं। दाहिनी ओर मुख्य मन्दिर से सटा हुआ भगवान राम का मन्दिर है। खुले हुये छोटे-से चौगान में क्यारियाँ बनाई गईं हैं जिनमें रंग-बिरंगे फूलों के पौधे उगाये गये हैं। प्रवेश-द्वार के पास ही भीतर नन्दी की मूर्ति है और उसके ठीक ऊपर ही बड़ा सा घंटा टंगा है। जैसे ही महेन्द्र, श्यामवती और सदाराम झुरमुट के पास पहुँचे, मन्दिर के भीतर किसी ने 'टन्न' से घंटा बजाया जिसकी ध्वनि गम्भीर घोष के साथ कुछ देर तक गूँजती रही। तीनों ने झुरमुट में एक साफ स्थान देख कर आसन जमाया। वहाँ सामान रख कर वे स्नान करने चले गये। स्नानोपरांत उन्होंने शिवजी का दर्शन किया। तब तक भोजन करने का समय भी हो चुका था।

भोजन कनरने के पहले सदाराम ने कहा, "पूरियाँ थोड़ी-सी हैं। मिठाई से पेट भरने का नहीं। दूध होता तो बड़ा अच्छा होता।"

"तो क्या किया जाय?" महेन्द्र ने पूछा।

"यही किया जाय कि मैं गाँव तक जाता हूँ और दूध लेकर अभी आता हूँ।" कहते हुये सदाराम उठ खड़ा हुआ और लगभग दो फर्लांग की दूरी पर स्थित गाँव की ओर चला गया।

श्यामवती और महेन्द्र अकेले रह गये। इस प्रकार एकान्त में रहने का उनका यह पहला ही अवसर था। श्यामवती के सिर से उसकी गुलाबी साड़ी का आँचल कुछ नीचे खिसक गया था। उसके केश घने काले बादलों की तरह दिखाई दे रहे थे। माथे पर एकाध लट हवा के हल्के झोंके में इधर-उधर उड़ रही थी। महेन्द्र की आँखें उसके चिबुक से कपोल और कपोल से लटों तक विचर रहीं थीं। दोनों के दिल की धड़कन बढ़ गई थी। हृदय में एक अद्भुत गुदगुदी के साथ कम्पन भी था। श्यामवती सिर नीचा किये कनखियों से महेन्द्र की मोहिनी मुद्रा को निहार रही थी। कुछ क्षणों तक दोनों स्तब्ध और शान्त रहे। वातावरण शन्त था। केवल किसी पक्षियों का मधुर स्वर रह रह कर शान्ति भंग कर देता था। महेन्द्र ने मुस्कुराते हुये कहा, "श्यामा, आज तुम यहाँ खाना बनाती तो वह स्वर्ग के भोजन से भी अधिक स्वादिष्ट होता।"

कुछ संकोच के साथ श्यामवती ने सिर ऊपर कर महेन्द्र के चेहरे पर आँखें गड़ा दीं और मधुर मुस्कान से अपने ओठों की सुन्दरता दुगुनी करती हुई बोली, "तो तुमने पहले क्यों नहीं कहा। मिठाई और पूरी खरीद क्यों लाये? मैं यहीं खाना पका देती।" सहसा कुछ आवेश से श्यामवती की कलाई पकड़ कर महेन्द्र ने कहा, "भोजन पकाने से तुम्हारी यह नरम कलाई मोच न खा जाती - थक जाती। इसीलिये नहीं कहा, समझी।"

"चलो हटो। मुझे इतनी कमजोर समझते हो।" कह कर श्यामा ने कटाक्ष किया पर हाथ छुड़ाने की कोशिश नहीं की। दोनों के शरीर में बिजली की लहर-सी दौड़ रही थी। दोनों बेसुध-से हुये जा रहे थे। श्यामवती सिहरन के साथ अद्भुत आनन्द का अनुभव कर रही थी। उसकी इच्छा हो रही थी कि महेन्द्र प्रलय तक और उसके बाद भी उसकी कलाई पकड़ा ही रहे और वह उसके वक्ष में सिर टिका कर शिथिल हो, वहीं अपना समस्त जीवन व्यतीत कर दे। बरसों की दबी हुई भावना उभर आई थी।

"अरे, हाथ क्यों पकड़ लिया तुमने? क्या जीवन भर के लिये मेरा हाथ पकड़ोगे?-" श्यामवती एक ही सांस में जाने किस प्रेरणा के आवेश में कह गई, मानो उसका हृदय ग्रामोफोन का रेकार्ड हो जो प्रेरणा रूपी सुई से बज उठा हो।

"निश्चय तो यही है श्यामा कि तुम्हारा हाथ जीवन भर के लिये पकड़ा रहूँ।" गम्भीरता से कलाई से हाथ हटा कर अपनी हथेली पर रख कर उसे कुछ दबाया। श्यामवती न कुछ बोली और न इसका कुछ विरोध ही किया। उसे ऐसा लगा मानो वह पृथ्वी से ऊपर सातवें आसमान में पहुँच गई है। वहाँ चारों ओर केवल प्रकाश जगमगा रहा है। दो ओर रुपहले खम्भे हैं जिन पर दिव्य ज्योति सिंहासन पर महेन्द्र बैठा है और वह उसके चरणों पर पुष्पांजलि समर्पित कर रही है। महेन्द्र ने उसे अपनी बायीं ओर बैठा लिया है। कुछ ही क्षणों में उसे होश आया। वह सहमी-सी ठंडी श्वास छोड़ती हुई बोली, मेरा ऐसा भाग्य कहाँ? इस बात को क्या मेरी माँ, तुम्हारी माताजी और दादा जी पसन्द करेंगे?"

"हाँ यह तो है" कहकर महेन्द्र भी उदास हो गया। वह वो जमाना था जब लड़के-लड़कियाँ उद्दंडता या माँ-बाप की परवाह न करते हुये आत्महत्या न करके विरह की आग में तिल-तिल कर जलना स्वीकार कर लेते थे।

"महेन्द्र," रुँधे गले से श्यामवती कहने लगी, "मेरा हृदय तो तुम्हारा हो चुका है और तुम भी मेरे हो। पर इससे क्या? इस जन्म में तो हम एक दूसरे के होकर भी मिल नहीं सकते पर अगले जन्म में हम अवश्य ही साथ-साथ रह कर जीवन बितायेंगे।" उसकी आँखें छलछला रही थीं।

"हाँ श्यामा, तुम्हारा कहना ठीक ही है। हृदय पर पत्थर रख कर वेदना में तड़पते हुये ही हमें जीवन बिताना पड़ेगा।" कह कर महेन्द्र ने धीरे से श्यामवती का हाथ छोड़ दिया। दो तीन मिनट तक दोनों ऐसे ही शान्त बैठे रेहे जैसे दोनों का कुछ खो गया हो। इसी बीच महेन्द्र की इच्छा हुई कि वह श्यामवती को अपने बाहुपाश में कस कर जकड़ते हुये आलिंगन कर ले पर उसी क्षण दूध ले कर सदाराम वापस आ गया।

जब वे सरोना से लौटे तो शाम हो चुकी थी।

(क्रमशः)

Tuesday, September 18, 2007

धान के देश में - 10

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 10 -
अपने बेटे भोला के निर्दय हाथों से तमाचे खाने के बाद दुर्गाप्रसाद ने अत्यधिक लज्जा और ग्लानि का अनुभव किया। किसी को मुँह दिखाने की इच्छा नहीं होती थी। समस्त संसार उसे सूना लग रहा था। जीवन बोझ लगने लगा था। आँखों के सामने अंधेरा सा छाया रहता था। भूख-प्यास मर चुकी थी। घर के भीतर चुपचाप लेटे या बैठे रहना उसकी दिनचर्या बन गई थी। पूरे पन्द्रह दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकला।

घोर निराशा में डूबा हुआ वह घर में बैठा था कि सहसा एक विचार उसके मन में कौंधा, आशा की एक क्षीण किरण उसे नजर आई। एक पल के लिये उसके चेहरे से उदासीनता गायब सी हो गई। वह विचार करने लगा कि जो वह सोच रहा है क्या वह वास्तव में हो पायेगा, क्या राजो मानेगी। कभी उसे लगता कि प्रयास करने में क्या हर्ज है शायद राजो मान जाये। फिर सोचता कि कहीं राजो ने उसका अपमान करके निकाल दिया तो? बहुत देर तक वह आशा और निराशा के हिंडोले में झूलता उहापोह में पड़ा रहा। आखिर एकाएक वह उठ खड़ा हुआ। धोती और 'सलूखा' पहन, हाथ में लाठी ले खुड़मुड़ी की ओर चल पड़ा।

चलते-चलते उसके मन में एक विचार आता था तो एक विचार जाता था। कभी आशा से उसका चेहरा चमक उठता था तो कभी वह घोर निराशा में डूब जाता था और चेहरे पर उदासीनता की कालिमा छा जाती थी। गहन चिन्तन में डूबे वह लम्बे-लम्बे डग बढ़ाता चला जा रहा था। उसे पता ही नहीं चला कि तेज कदमों से चलता हुआ वह कब खुड़मुड़ी पहुँच गया। वह सीधे राजवती के घर के सामने पहुँचा किन्तु वहाँ तो ताला जड़ा हुआ था। दुर्गाप्रसाद को आश्चर्य हुआ और उसकी निराशा भी बढ़ गई।

वहाँ तक आते समय दुर्गाप्रसाद ने देखा था कि रास्ते में गाँव का नाई एक पेड़ के नीचे किसी की हजामत बना रहा था। वह वापस और चैनसिंह के पास पहुँचा। तब तक हजामत बनवाने वाला जा चुका था और चैनसिंह अपना सामान समेट रहा था।

दुर्गाप्रसाद ने चैनसिंह से कहा, "राम राम ठाकुर।"

"राम राम जी मण्डल" चैनसिंह ने भी जवाब दिया।

फिर बिना कुछ भूमिका के ही दुर्गाप्रसाद ने तुरन्त उत्तर दिया, "राजो से मिलने आया था चैन, पर उसके घर में ताला लगा है।"

"आजकल तो वह यहाँ नहीं रहती। वह तुम्हें रायपुर में मिलेगी। आवो, बैठो, चिलम पी लो।" चैनसिंह ने सूचना देते हुये कहा।

दुर्गाप्रसाद बोला, "नहीं भैया, मुझे मत रोको। मैं अभी ही रायपुर जाउँगा।"

"चिलम पीने में देर ही कितनी लगेगी। लो चिलम तैयार भी हो गई-" कहते-कहते चैनसिंह ने अपनी धोती के एक छोर से गाँठ में बँधी हुई तमाखू के सूखे पत्ते का एक टुकड़ा निकाला और उसे बायीं हथेली पर रखा। दाहिने हाथ के अँगूठे से रगड़ कर चूरा करने के बाद उसे चिलम में भरा और उसे जला कर अपने मुँह पर रख दिया। उसने एक बड़े जोर की कश खींची और फिर चिलम दुर्गाप्रसाद के हाथ में दे दिया। दुर्गाप्रसाद ने भी एक के बाद एक लगातार दो-तीन कश लेकर मुँह और नाक से धुँआ बाहर फेंका और चिलम वापस करके "अच्छा, चलता हूँ चैनसिंह।" कहते हुये रायपुर की ओर चल पड़ा। रायपुर की ओर ज्यों-ज्यों उसके कदम बढ़ते जाते थे त्यों-त्यों उसके मन में उथल-पुथल बढ़ती जाती थी। सिकोला से खुड़मुड़ी तक तो वह निश्चिंत चला आया था मानो किसी ने उस पर चलते ही रहने का जादू कर दिया हो। पर अब उसके हृदय में एक साथ ही लज्जा, ग्लानि, पश्चाताप, आशा और निराशा की आँधी उठ रही थी। फिर भी आशा के तेज झकोरे उसे रायपुर की ओर बढ़ाते जा रहे थे।

(क्रमशः)

Monday, September 17, 2007

धान के देश में - 9

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 9 -

समय का प्रवाह सबके लिये होता है जिस समय मे भोला और दुर्गाप्रसाद के बीच यह सब चल रहा था उस समय राजवती रायपुर मे थी

दीनदयाल ने यह तय किया कि श्यामलाल, सदाराम और श्यामवती की पढ़ाई का प्रबंध रायपुर मे कर दिया जये और राजो उन तीनो की अभिभाविका बनकर रायपुर मे रहे जब राजवती को दीनदयाल ने यह सब बताया तब उसकी खुशी के आँसू छलक पडे थे उसने दीनदयाल के दोनो पैर पकड कर कृतज्ञता व्यक्त की थी

निश्चित योजना के अनुसार तीनों बच्चे और राजो रायपुर भेज दिये गये। महेन्द्र और सदाराम प्रायमरी में दाखिल करा दिये गये। प्रायमरी पास कर लेने के बाद वे अंग्रेजी स्कूल में साथ-साथ पढ़ने लगे। श्यामवती की शिक्षा का प्रबन्ध तब किया गया जब वह भी सात वर्ष की हो गई। उन दिनों रायपुर में कॉलेज थे ही नहीं सिर्फ गिने चुने विद्यालय ही थे। कॉलेज के नाम से केवल 'राजकुमार कॉलेज' ही था जहाँ छत्तीसगढ़ के रियासतों के राजकुमारों को ऊँची शिक्षा दी जाती थी। अस्तु, महेन्द्र और सदाराम मन लगाकर पढ़ते हुये एक के बाद एक कक्षायें पास करते गये।

श्यामवती भी पढ़ने में कुछ कम नहीं थी। प्रायमरी पास करने के बाद उसे भी अंग्रेजी स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया जो ईसाई मिशन के द्वारा संचालित होता था। राजवती का विचार था कि श्यामवती को अंग्रेजी न पढ़ाई जावे पर दीनदयाल के सामने उसकी एक न चली और श्यामवती अंग्रेजी सीखने लगी।
पढ़ाई के कारण महेन्द्र को अपने दादा दीनदयाल और अपनी माता सुमित्रा के पास रहने का अवसर कम मिलता था। राजो ही उसके लिये सब कुछ थी। वह उसे 'राजो माँ' कहता था। राजवती के लिये उसके हृदय में स्नेह था, सम्मान था। राजो भी उसका पूरा-पूरा ध्यान रखती थी। गर्मी की छुट्टी होते ही राजो के साथ तीनों खुड़मुड़ी चले जाते थे। उन दिनों गाँवों में कदाचित् ही कोई पढ़ा-लिखा होता था। उन तीनों को शिक्षित होते देख गाँव के लोग गर्व से फूले नहीं समाते थे। वे लोग उनका अदब करते और कहते, "छोटा मालगुजार महेन्द्र तो बड़ा साहब बनेगा और सदाराम भी कोई अच्छी नौकरी करेगा।"
किन्तु शिक्षा ने उन तीनों और गाँव वालों के बीच एक खाई भी बना दी थी। गाँव वाले उन्हें अब बड़े लोग समझते थे और कई लोग तो उनसे बातें करने में भी झिझकते थे। यह सब देख-सुन कर उन तीनों के हृदय में ठेस भी लगती थी कि ये लोग हमसे दूर क्यों खिंचे जा रहे हैं। उधर स्त्रियाँ और लड़कियाँ श्यामवती का सत्कार करतीं पर कई औरतें ताने दे कर कहतीं, "सामबती तो 'मेम साहब' बन रही है।" कोई कहती, "सामबती के भाग अच्छा है नहीं तो वह भी हमारे समान गोबर बीनती।" यह सब सुनकर श्यामवती मुस्कुरा देती थी। गाँव की उन स्त्रियों पर उसे गुस्सा तो न आता था पर दीनदयाल के प्रति उसके हृदय में बहुत अधिक स्नेह और कृतज्ञता थी।

इस वर्ष महेन्द्र और सदाराम मैट्रिक में थे। श्यामवती चौथी अंग्रेजी पास कर चुकी थी। गाँव की चार वर्ष की दुबली-पतली श्यामा अब सुंदर तरुणी श्यामवती थी जिसका एक-एक कदम मदमस्त यौवन की ओर बढ़ता जा रहा था। उसके घुंघराले बाल, कजरारी आँखें, गोल कपोल, मोहक चिबुक, आकर्षक उभार, गठा शरीर और गेहुँआ रंग ने उसे अत्यधिक सुन्दर बना दिया था। स्वभाव उसने माँ से पाया था इसलिये उसमें अनोखी और न दबने वाली चंचलता के साथ गम्भीरता भी थी। उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह भी मैट्रिक पास कर ले पर उसकी माता राजवती को इसकी चिन्ता ही नहीं थी। वह तो सोचती थी कि श्यामवती की तकदीर ही है कि उसने चौथी अंग्रेजी तक पढ़ लिया, नहीं तो लड़कियों और विशेषकर गाँव की लड़कियों को पढ़ाता ही कौन है।"

राजवती के सामने चिन्ता और समस्या थी तो उसके ब्याह की।

(क्रमशः)

Sunday, September 16, 2007

धान के देश में - 8

लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)

- 8 -
राजवती ने जब से सिकोला छोड़ा तबसे दुर्गाप्रसाद उदास रहने लगा। उसने कभी नहीं सोंचा था कि राजो अपने निश्चय में इतनी अटल होगी और सिकोला छोड़कर चली ही जावेगी। उसके सभी अरमान मिट्टी में मिल गये। राजो के ऊपर उसे बहुत क्रोध आया। एक पैशाचिक विचार भी उसके मन में उठा कि क्यों न वह राजो का अपने साथ सम्बन्ध होने की बात पूरे गाँव में फैला कर उसे बदनाम कर दे। ऐसा करने से राजो स्वयं ही बदनामी से बचने के लिये उसका हाथ पकड़ लेगी। पर तत्काल ही उसके आत्मा ने उसे ठोकर दी। बेचारी अबला के साथ इस प्रकार का व्यवहार करना अन्याय है। और फिर इस तरह से बिना उसकी मर्जी के उसे अपने घर ले आने से क्या जीवन सुखी होगा? बदनामी सहकर भी यदि वह मेरे घर नहीं आई तो? अन्त में दुर्गाप्रसाद ने निश्चय किया कि वह अप राजवती का नाम तक नहीं लेगा। साथ ही साथ किसी दूसरी स्त्री का सपने में भी ध्यान तक नहीं करेगा। अपने बेटे भोला के सहारे शेष जीवन काट देगा।

कालचक्र चलता गया। क्षण घण्टों में, घण्टे दिनों में, दिन महीनों और महीने वर्षों में सरकने लगे। दुर्गाप्रसाद खेती-किसानी में कड़ी से कड़ी मेहनत कर रहा था। दो चार सौ बचाने की उसकी बड़ी साध थी पर उसका भाग्य ही अच्छा नहीं था। उसका बेटा भोला कपूत निकल गया था। वह अब सोलह-सत्रह वर्ष का हो चुका था। दु्र्गाप्रसाद जो कुछ बचाता था, भोला उसे उड़ा देता था। इकलौता होने के कारण वह दुर्गाप्रसाद के लिये शनीचर का अवतार सा हो गया। धीरे-धीरे एक-एक कर उसे बुरी लत लगने लगी। शरीर से तो वह बलिष्ठ था ही, उसे पहलवानी का भी शौक था। ताकत के दम्भ में वह लोगों को अकारण ही सताता भी था। सबेरे तालाब पर अड्डा जमा लेता और औरतों से छेड़-छाल कर दोपहर तक 'ददरिया' (छत्तीसगढ़ का एक लोकगीत) गाता रहता था। अक्सर वह गा उठता था -

बटकी में बासी अउ चुटकी में नून।
मैं गावथँव ददरिया तैं खड़े-खड़े सुन॥
फुटहा रे मन्दिर के कलस नइ हे।
जिनगानी बीतथय, तोर दरस नइ हे॥

भोला दिन तो ताश और जुआ खेल कर बिताता और आधी रात तक भूत, प्रेत, टोनही और डायनों की खोज में खेतों, नालों और श्मशान की खाक छानता था। कभी-कभी वह केवल छोटी सी धोती पहना हुआ नंग धड़ंग किसी भैंसे की पीठ पर उचक कर बैठ जाता और सीटी बजाते हुये दूर तक भैंसे की सवारी किया चलता चला जाता। उस समय भोला साक्षात् यमराज जान पड़ता था।
दुर्गाप्रसाद बहुत दुःखी था। उसे समझा समझा कर थक गया था। वह सदैव उससे यही कहता, "बेटा मेरी ओर देखो। गाँव में मेरी जो इज्जत बनी हुई है उसे मिट्टी में मत मिलावो। खेती-बाड़ी की ओर ध्यान दो। मेरे जीते जी सँभल जावो।" जब तक वह समझाता भोला उसे आग बरसाती हुई आँखों से देखता, पर अपने उबलते हुये गु्स्से को दबाकर बाप-बेटे की मर्यादा नहीं टूटने देता था।

एक दिन दुर्गाप्रसाद कहीं गया हुआ था। घर सूना था। अवसर पाकर भोला ने कोठे से बहुत-सा धान निकाला। किन्तु अचानक ही दुर्गाप्रसाद वापस आ गया। भोला को बहुत सा धान निकाले देख कर समझ गया कि अनाज सस्ते दामों में बेच कर भोला जुआ खेलेगा। उससे न रहा गया। कड़क कर बोला, "भोला, अनाज कहाँ ले जा रहा है? रख दे सब वापस कोठे में।"

सुनते ही भोला घायल शेर की तरह गरज कर बोला, "क्यों? क्या इस अनाज पर मेरा कोई हक नहीं है? क्या मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ?"

यद्यपि भोला का उत्तर क्रोध से भरा हुआ था तो भी उसमें पिता-पुत्र का नाता व्यक्त होने के कारण दुर्गाप्रसाद के क्रोध को कुछ शीतल कर गया। उसने कुछ नरमाहट से कहा, "बेटा, ऐसी बात नहीं है। अनाज ही क्या सब कुछ तुम्हारा है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम सब कुछ जुये में बर्बाद कर दो।"

"जुआ खेलूँ या डाका डालूँ - तुम्हें क्या। तुमने जन्म दिया है, मेरे भाग्य के ठेकेदार तो नहीं हो। मैं तो धान बेचकर ही रहूँगा।" भोला गरजा।

अब दुर्गाप्रसाद से भी नहीं रहा गया। फुफकारते हुये उसने कहा, "देखता हूँ कैसे ले जाता है अनाज। कुछ कमाया भी है या बस फूँकना ही सीखा है।"

"क्यों कमाऊँ? क्या तुम मर गये हो जो मैं काम करूँ?" भोला ने टका सा उत्तर दिया। सुनकर दुर्गाप्रसाद तिलमिला उठा। उसने गरजते हुये कहा, "बस बहुत हो गया। रख दे अनाज।" इतना कहकर उसने स्वयं ही धान को वापस कोठे में रखने के लिये उठाना शुरू किया। भोला से रहा न गया। उसने उछल कर पिता का हाथ पकड़ लिया और मरोड़ने लगा। फिर उसे दो तमाचे जमाये और एक जोरदार धक्का दिया जिससे दुर्गाप्रसाद धम्म से जमीन पर गिर गया। इतना करके भोला गुस्से में बड़बड़ाता हुआ बाहर चला गया बिखरा हुआ बाप-बेटे के बीच मर्यादा टूटने का साक्षी बना धान ज्यों का त्यों पड़ा था।

दुर्गाप्रसाद की आँखों के सामने अंधेरा सा छा गया। वह धीरे-धीरे उठा। हल्ला सुनकर कुछ लोग आँगन में जमा हो गये थे किन्तु बीच-बचाव करने का साहस किसी में न था। भोला के जाने के बाद एक ने दुर्गाप्रसाद को संभाला तो दूसरा भोला को कोसता हुआ बोला, "बड़ा कपूत है। आज तो बाप का भी लिहाज नहीं किया।" दुर्गाप्रसाद ने संयत स्वर में कहा, "जाने दो भैया, कोस कर क्या मैं अपना बुरा चेतूँ? इकलौता है न। इसीलिये सिर पर चढ़ा है। भाग तो मेरे ही फूटे हैं।"

लोगों को दुर्गाप्रसाद पर बड़ा तरस आया।

(क्रमशः)