(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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आज धनतेरस का दिन है। शाम को गाँव के घर घर के दरवाजों पर कच्ची मिट्टी के तेरह दिये जला कर पूर्व दिशा की ओर मुख करके रखे गये। दरवाजे जगमगा उठे। कहीं कहीं बच्चों ने कम मात्रा में फटाके भी चलाये। दूसरे दिन नरक चौदस का पर्व था। उस दिन घरों के दरवाजों पर चौदह दिये दक्षिण दिशा की ओर मुख करके रखे गये। रात को सुमित्रा ने अपने हाथों से चूल्हा जलाया। उस पर पानी भरा गुंडी रखा और उस पानी में चिरायता, नीम और अन्य कड़वे पौधों के पत्ते और डंठल डाल कर गरम होने रख दिया। रात भर धीमी आँच में उबला हुआ वह पानी 'कड़वा जल' कहलाता है जिससे मातायें अपनी सन्तानों को 'लक्ष्मी पूजा' के दिन अपने हाथों से उबटन लगा कर स्नान करवाती हैं।
दूसरे दिन लक्ष्मी पूजा होने के कारण गाँव के लोग तड़के उठ गये। काम-धाम सब बन्द था। गाँव में विचित्र चहल-पहल और उल्लास था। लोग ठौर ठौर पर इकट्ठे होकर आनन्द से बातें कर रहे थे तो कहीं किसी के आँगन या कमरे में कुछ लोग जुआ भी खेल रहे थे।
पिछली रात महेन्द्र एक पुस्तक पढ़ते बहुत देर तक जागता रहा था। इसलिये सबेरे जल्दी नहीं उठ सका। सुमित्रा स्वयं उसे उठा कर बोली, "बेटा, आज त्यौहार के दिन भी कोई देर तक सोता है। चल, आज तुझे मेरे हाथों से नहाना है।"
"माँ, मैं छोटा बच्चा तो हूँ नहीं जो मुझे नहलाओगी।" महेन्द्र ने हँसते हुये कहा।
"ऐसा नहीं कहते बेटे, लड़का तो माँ के लिये सदा छोटा ही होता है; और फिर आज के दिन माँ ही तो अपने बेटे को नहलाती है।" सुमित्रा महेन्द्र की बात अनसुनी करती हुई बोली। प्रातः कृत्य से निवृत हो महेन्द्र जब आँगन के एक कोने में स्नान करने बैठा तब मना करने पर भी सुमित्रा उसे उबटन लगा कर 'कड़वे जल' से नहलाने लगी। उस समय माँ का प्रेम समुद्र की भाँति लहरें मार रहा था।
दीनदयाल दिन भर घर की बची-खुची सफाई में लगे रहे। बैठक के कमरे में उन्होंने अपने हाथों कुछ यंत्र लिखे। उन्होंने सुमित्रा, राजवती, श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम को अपने पास बुलवाया। उनके आ जाने के बाद उन्होंने उन सबको नये कपड़े दिये।
देखते देखते शाम हो गई। घर घर अनेकों दिये जला दिये गये। छोटा-सा खुड़मुड़ी गाँव दीपकों की चमक में दमक उठा। थोड़ी और देर होने पर दीनदयाल ने लक्ष्मी जी की पूजा की। पूजा के समय सुमित्रा, राजवती, श्यामवती, महेन्द्र और सदाराम सभी उपस्थित थे। आँगन में घर के अन्य नौकर भी थे। पूजा के बाद महेन्द्र और सदाराम ने खूब सारे फटाके छोड़े। श्यामवती ने भी फुलझड़ियां, चकरियाँ और अनारदाने चलाये। श्यामवती और महेन्द्र एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा देते थे। दीनदयाल ने भी बच्चों में बच्चे बनकर उल्लास के साथ कुछ फटाके चलाये। उनका उल्लास देख कर महेन्द्र की आनन्द की सीमा न रही।
लक्ष्मी पूजा की रात गाँव में प्रायः कोई नहीं सोया। औरतें 'गोड़िन गौरा' की पूजा और उत्सव में व्यस्त हो गईं। इसके पहले दिन वे औरतें मालगुजार और बड़े किसानों के घर जाकर 'सुआ नाच' नाचती रहीं थीं। बाँस से बने एक टोकनी में चाँवल भर कर उसमें चार-पाँच पतली लकड़ियाँ खड़ी की गई थीं। उन लकड़ियों के ऊपरी भाग में मिट्टी के छोटे-छोटे तोते बनाये गये थे। उस टोकनी को बीच में रख कर स्त्रियाँ गोल घेरे में आधी झुकी हुईं गोल घूम घूम कर, झूम झूम कर नाचती रहीं थीं। उनके मुँह से एक स्वर होकर सहगान के रूप में छत्तीसगढ़ का 'सुआ गीत' गूँज रहा था -
जावहु सुवना नन्दन वन
नन्दन वन आमा गउद लेइ आव,
ना रे सुआ हो, आमा गउद लेइ आव।
जाये बर जाहव आमा गउद बर, कइसे के लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, कइसे के लाहव टोर।
गोड़न रेंगिहव, पंखन उड़िहव, मुँहे में लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, मुँहे में लइहव टोर।
लाये बर लाहव आमा गउदला, काला मैं देहँव धराय,
ना रे सुआ हो, काला मैं देहँव धराय।
गुड़ी में बइठे मोर बंधवइया, पगड़िन देहव अरझाय।
रे सुआ हो, पगड़िन देहव अरझाय।
नन्दन वन आमा गउद लेइ आव,
ना रे सुआ हो, आमा गउद लेइ आव।
जाये बर जाहव आमा गउद बर, कइसे के लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, कइसे के लाहव टोर।
गोड़न रेंगिहव, पंखन उड़िहव, मुँहे में लइहव टोर,
ना रे सुआ हो, मुँहे में लइहव टोर।
लाये बर लाहव आमा गउदला, काला मैं देहँव धराय,
ना रे सुआ हो, काला मैं देहँव धराय।
गुड़ी में बइठे मोर बंधवइया, पगड़िन देहव अरझाय।
रे सुआ हो, पगड़िन देहव अरझाय।
सुआ नाच के बाद इनाम के रूप में उन्हें जो कुछ भी मिला उसे उन स्त्रियों ने 'गोड़िन गौरा' के लिये इकट्टा कर लिया।
रात को अमोली के घर के सामने सभी स्त्री-पुरुष इकट्ठे हुये। भीतर एक कमरे में गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जा रही थीं।
लकड़ी के एक पाटे पर चारों कोनों में खम्भे बनाये गये। उनके ऊपरी भाग में दिये रखने के लिये गढ़े किये गये। बीच में शिवजी की मूर्ति बनाई गई। उसके बायीं ओर गौरा माता की मूर्ति का निर्माण किया गया। फिर खम्भों और मूर्तियों को रुपहले और सुनहले वर्क से आच्छादित किया गया। उसके बाद लाल सिन्दूर की मोटी लकीर से भरी हुई माँग वाली एक स्त्री ने बाल बिखरा लिये और पाटे को सिर पर रख लिया। वह सफेद साड़ी पहनी हुई थी। आगे आगे युवक, वृद्ध, बच्चे और स्त्रियाँ चलीं तथा इस प्रकार शिवजी की बारात निकाली गई। चारों खम्भों में जलते हुये दीपकों की ज्योति में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ जगमगा रहीं थीं। सामने लगातार एक ही स्वर और लय में बाजे बज रहे थे। दो-तीन औरतें लटें बिखरा कर झूमती चली जा रहीं थीं। साथ में 'बैगा' भी था। उसके हाथ में कुश की बनी हुई रस्सियाँ थीं। कुछ कदम तक दायें-बायें बाल बिखर कर झुमने के बाद वे औरतें रुक जातीं और क्रम क्रम से अपना दाया-बायाँ हाथ धरती के समानान्तर फैला देती थीं। बैगा 'साँटी' कहलाने वाली उस रस्सी से उनके हाथों को पूरी ताकत से पीटते थे। ऐसा माना जाता है कि उन स्त्रियों के शरीर में देवता का प्रवेश हो जाता है।
जुलूस के लड़के दनादन फटाके छोड़ रहे थे। बाजे और गीत से शोरगुल मचा हुआ था। भीड़ में दूसरी औरतों के साथ राजवती भी गाने में अपने आपको भूल रही थी। केवल श्यामवती आनन्द की उस धमाचौकड़ी में शामिल नहीं हुई। राजो ने उसे साथ चलने के लिये खूब समझाया पर कुछ तो यह सोच कर कि महेन्द्र क्या कहेगा और कुछ पढ़-लिख लेने के संकोच से वह अलग ही रही। महेन्द्र और सदाराम भी रात तक यह सब देखते रहे। रात भर गलियों में घूमने के बाद गाँव के दैहान में बने 'गौरा चबूतरे' पर पाटा रख दिया गया जहाँ लगभग दोपहर तक लोग दर्शन करते रहे। उस समय औरतें गा रही थीं:-
महादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।
अन्त में मूर्तियाँ तालाब में विसर्जित कर दी गईं। शिव-पार्वती की इस पूजा को 'गोड़िन गौरा' कह कर गाँव वाले उत्सव मनाते हैं जो वास्तव में शिव-विवाह की वार्षिक स्मृति है।
(क्रमशः)