कल एक व्यापारी मित्र ने अनुरोध किया कि मैं उनका बैंक अकाउंट खोलने का फॉर्म भर दूँ। फॉर्म तो मैंने भर दिया किन्तु फॉर्म भरने के लिए पेन निकालते समय विचार आया कि न जाने कितने दिनों से मैंन कुछ लिखने के लिए पेन का प्रयोग नहीं किया है। आजकल पेन तो सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए ही निकलता है, या फिर कभी कोई फॉर्म भरने के लिए। कुछ, सार्थक या निरर्थक ही सही, लिखने के लिए मैंने पेन का प्रयोग कब किया था, बहुत सोचने पर भी याद नहीं आया। अब लिखना होता ही कहाँ है? अब तो सिर्फ कम्प्यूटर में टाइप करना ही होता है।
विचारों के सागर में गोते लगाता हुआ मैं धीरे-धीरे बीते हुए समय की ओर जाने लगा। आज जेल पेन, उसके पहले बॉल पेन, बॉल पेन के पहले फाउंटेन पेन और उसके भी पहले कलम-दवात।
दवात को धो-पोंछ कर उसमें स्याही भरना...
स्याही भरते समय हाथ, कभी-कभी कपड़ों, का काला हो जाना...
लिखते समय कलम का निब टूट जाने पर परेशान होना...
लिखावट सुन्दर न होने के कारण गुरुजी से डाँट पड़ना और कभी-कभी मार खाना...
पर यह सब मैं लिख क्यों रहा हूँ? शायद इसलिए कि अतीत में जीते रहना वृद्धों का स्वभाव बन जाता है।
वैसे भी प्रेमचंद जी ने अपने उपन्यास 'गोदान' में लिखा है -
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दु:खों और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता।