Thursday, February 17, 2011

ऋतुराज वसन्त


(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)

निर्मल नभ, मन्द पवन,
पुष्प-गन्ध की व्यापकता,
खग-कलरव, उन्मन भव,
मत्त मदन की मादकता।

अलि गण गुंजन, मुकुलित चुम्बन,
अमराई में मंजरि जाल,
रक्तिम टेसू, अग्नि अन्देशू,
विरह वह्नि की भीषण ज्वाल।

सरसों का पीताम्बर,
अभ्रहीन नीलाम्बर,
उन्मन उन्मन सबका मन,
शीतल निर्झर, कोकिल का स्वर,
ऋतु वसन्त का अनमोल रतन।

(रचना तिथिः रविवार 15-02-1981)

Wednesday, February 16, 2011

हम चाहते तो हैं कि भ्रष्टाचार हट जाए तो फिर भ्रष्टाचार आखिर हटता क्यों नहीं?

हममें से कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो न चाहे कि भ्रष्टाचार हट जाए। हम सभी यही कामना करते हैं कि हमारे देश मे भ्रष्टाचार का पूर्ण रूप से नाश हो जाए।

तो प्रश्न यह उठता है कि आखिर भ्रष्टाचार हटता क्यों नहीं?

और इस प्रश्न का सीधा सा जवाब यही है कि हम केवल चाहते है कि भ्रष्टाचार हट जाए किन्तु भ्रष्टाचार को हटाने के लिए हम स्वयं कुछ भी प्रयास नहीं करते। हम सोचते हैं कि कोई दैवी चमत्कार हो जाए, किसी महान व्यक्ति का अभ्युदय हो जाए जो भ्रष्टाचार को हटा दे, हम जानते हैं कि हमारे नेता भ्रष्ट हैं किन्तु हम उन्हीं से उम्मीद रखते हैं कि वे भ्रष्टाचार को हटा दे।

पर क्या केवल सोच ही लेने से कोई कार्य सिद्ध हो जाता है? कार्य को सिद्ध करने के लिए परिश्रम करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है; कहा भी गया हैः

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥

(जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।)

भ्रष्टाचार हटाने के लिए हम स्वयं तो कोशिश करते ही नहीं पर यदि कोई अन्य इसके लिए प्रयास कर रहा हो तो हम उसका साथ तक देने की जहमत नहीं उठाते। हम यही सोचते हैं कि "कौन फालतू की बला मोल ले?" "कौन खुद को मुसीबत में डाले?" "हमें इससे क्या करना है?" "हमने क्या भ्रष्टाचार मिटाने का ठेका ले रखा है?" और भी कई ऐसी बातें सोच लेते हैं हम और भ्रष्टाचार मिटाने वाले को किंचितमात्र सहयोग तक नहीं देते। परिणाम यह होता है कि भ्रष्टाचार मिटाने में प्रयासरत वह अन्य व्यक्ति अन्त-पन्त पूर्णतः निराश होकर प्रयास करना बन्द कर देता है।

अनेक बार तो हम अपने स्वार्थ और सुविधा के लिए स्वयं ही भ्रष्टाचार करने लगते हैं जैसे कि यदि हम रेल से यात्रा कर रहे हैं और हमारे लिए बर्थ का रिजर्वेशन नहीं हो पाया है तो टीटी को हम स्वयं ही अधिक रुपये देकर बर्थ पाने की कोशिश करने लगते हैं। क्या हमारा यह कार्य भ्रष्टता की सीमा में नहीं आता? हमारे मकान का नक्शा जल्दी स्वीकृत कराने के लिए स्वयं जाकर घूस देने का प्रस्ताव करते हैं, यह जानते हुए भी कि घूस लेना जितना बड़ा भ्रष्टाचार है, घूस देना भी उतना ही बड़ा भ्रष्टाचार है।

सच बात तो यह है कि हमें ऐसी शिक्षा ही नहीं मिली है जो हमें गलत कार्य करने से रोके। पाश्चात्य नीतियों पर आधारित हमारे देश की शिक्षा ने हमें घोर स्वार्थी और सुविधाभोगी बना कर रख दिया है। ऐसे में हमारे देश से भ्रष्टाचार कैसे मिट सकेगा?

Tuesday, February 15, 2011

भारतीय कहानियाँ

मनोरंजन मनुष्य की एक स्वाभाविक आवश्यकता है। दिनभर काम करने के कारण शरीर में जो थकान उत्पन्न होती है उसे दूर करने के लिए जितनी भरपूर नींद जरूरी है उतना ही जरूरी मनोरंजन भी है। आज हमारे पास सिनेमा, टीवी, सीडी और डीवीडी जैसे मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध हैं किन्तु एक जमाना वह भी था जब ये सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं। उस जमाने में लोगों के मनोरंजन का एक मात्र साधन था आपस में मिलजुल कर बैठना तथा किस्से कहानी कहकर, फाग आदि लोकगीत और संगीत गा-बजाकर, रामलीला, कृष्णलीला या नाटक देखकर मन बहलाना।

वर्तमान दिनों में उपलब्ध आधुनिक सुविधाएँ यद्यपि हमारा मनोरंजन तो करती हैं किन्तु इन्होंने हमें स्वयं तक सीमित तथा आत्म-केन्द्रित बनाकर रख दिया है। आज किसी को किसी की कुछ परवाह ही नहीं है, यदि कोई मिल गया तो हँस-बोल लिए और यदि न मिला तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारा आपसी मेल-जोल समाप्त होता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप हमारा सामाजिक रूप से परस्पर हेल-मेल और प्रेम-स्नेह समाप्तप्राय होते जा रहा है।

अस्तु, हम पुराने जमाने की बात कर रहे थे। उस जमाने में भी गीत संगीत और नाटक आदि के अवसर सीमित होते थे क्योंकि फाग केवल होली के समय गाया जाता था और रामलीला, कृष्णलीला आदि की निश्चित दिनों की अवधि हुआ करती थी, ऐसे में किस्सा कहानी कहना और सुनना ही लोगों के मनोरंजन का मुख्य साधन हुआ करता था। एक आदमी किस्सा सुनाने वाला होता था और बाकी सुनने वाले। किस्सा सुनाने वालों की अपनी-अपनी विशिष्ट शैली हुआ करती थी जो लोगों को बाँध कर रख दिया करती थी। मुझे आज भी याद है कि मेरे बचपन के दिनों में सारे बच्चे एक खोंचे वाले को चारों ओर से घेर कर घंटों इसीलिए बैठे रहते थे कि वह सुखसागर, आल्हा-ऊदल आदि की कहानियाँ बड़े ही रोचक ढंग से सुनाया करता था। प्रतिदिन रात को जब तक मेरी दादी मुझे कहानियाँ न सुनातीं, मैं सोता ही नहीं था। उनके मुख से सुनी हुईं अनेक पौराणिक कहानियाँ आज भी मुझे याद हैं।

भारत में किस्से-कहानियों का प्रचलन अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है और भारत में कथा-साहित्य का स्थान हमेशा से ही उच्च रहा है। ऋग्वेद, विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि वैदिक ग्रन्थों में वर्णित अनेक आख्यान वैदिक काल में कहानियों की लोकप्रियता के प्रतीक हैं। कहानियों की लोकप्रियता के कारण ही सिंहासनद्वात्रिंशतिका (सिंहासन बत्तीसी), वेतालपंचविंशतिका (बैताल पच्चीसी), हितोपदेश, पञ्चतन्त्र, आदि ग्रंथों की रचना हुईं। भारत की इन्हीं कहानियों से प्रभावित होकर अरबी-फारसी में हातिमताई, अलिफ-लैला (अरेबियन नाइट्स) आदि कहानियाँ लिखी गईं। हातिमताई, अलिफ-लैला जैसी अरबी कहानियों में तो एक कहानी के भीतर दूसरी, दूसरी के भीतर तीसरी जैसी कई कहानियों की श्रृंखला ही बनी हुई है।

सामान्यतः आख्यान अर्थात् कहानी का उद्गम भारत को ही माना जाता है और भारत की कहानियों से ही प्रभावित होकर ग्रीस, रोम, अरब, फ़ारस, अफ्रीका आदि देशों में भी कहानी रचने का प्रचलन हुआ। ऐसी बात नहीं है कि विदेशी कहानियों से भारत प्रभावित ही नहीं हुआ, भारत में भी अनेक विदेशी कहानियों ने आकर अपने आपको भारतीय रूप ढाला है। कालान्तर में, भारत में अंग्रेजों के शासन हो जाने के कारण, भारत की कहानियाँ अंग्रेजी के शॉर्ट स्टोरीज़ से बहुत अधिक प्रभावित हुईं।

Monday, February 14, 2011

प्राचीन भारत में गणित (Mathematics in ancient India)

प्राचीन आचार्यों ने धार्मिक अनुष्ठानों को के आयोजन के लिए विशिष्ट तिथियाँ नियत किया था जिनकी गणना के लिए ज्योतिष अर्थात् खगोल शास्त्र (Astronomy) का सम्पूर्ण ज्ञान आवश्यक था और खगोलीय गणनाएँ गणित के ज्ञान के बिना असम्भव थीं। इसी प्रकार से विभिन्न यज्ञों के लिए वेदियों का त्रिभुज, चतुर्भुज, षट्भुज, अष्टभुज, वृताकार आदि विभिन्न आकार में बनाने का विधान था जिसके लिए अंकगणित (arithmetic), बीजगणित (algebra), ज्यामिति (geometry),  त्रिकोणमिति (trignometry) आदि का ज्ञान होना अत्यावश्यक था। यही कारण है कि भारत में गणित का प्रचलन वैदिक काल से ही चला आ रहा है। वेदों के उपग्रन्थ शुल्बसूत्र में गणित के अनेक सूत्र पाए जाते हैं। प्राचीन भारत में अंकगणित (arithmetic), बीजगणित (algebra), ज्यामिति (geometry),  त्रिकोणमिति (trignometry) आदि गणित के अनेक विभागों में बहुत अधिक विकास हुआ था। आज जिसे स्कूलों में "पाइथागोरस साध्य" (Pythagoras' Theorem) के नाम से पढ़ाया जाता है उसके विषय में पाइथागोरस से हजारों साल पूर्व हमारे देश के आचार्यों को जानकारी थी और उसके प्रयोग का विवरण बोधायन के शुल्बसूत्र में मिलता है।

सिंधु घाटी की सभ्यता (ई.पू. 2500 ई.पू. 1700 तक) के अवशेष भी भारत में गणित के ज्ञान होने को ही इंगित करते हैं। खुदाई में मिले मकानों का निर्माण पूर्णतः गणितीय विधियों के आधार पर ही हुआ था। हड़प्पा के निवासियों ने नापतौल (weights and measures) की एक विशिष्ट पद्धति का विकास कर लिया था और अंकों के दशमलव पद्धति से पूर्णतः परिचित थे। लंबाई को नापने के लिए उन्होंने विभिन्न प्रकार की इकाइयों की खोज कर ली थीं। उस जमाने का एक इंडस इंच आज के1.32 इंच (3.35 से.मी.) के बराबर हुआ करता था और उसका दसगुना अर्थात् 13.2 इंच के बराबर उनका एक फुट होता था। खुदाई में मिले एक कांसे की पट्टी (bronze rod) पर 0.367 इंच की दूरियों पर निशान बने मिले हैं जिससे यह जानकारी मिलती है कि 36.7 इंच की सौ इकाइयों वाली लंबाई नापने की उनके पास एक और पद्धति थी। उस स्केल पर बने निशानों की बराबर दूरी की विशुद्धता ने आज के विद्वानों को आश्चर्य में डाल रखा है।

प्राचीन वैदिक धर्म के क्षय होने के बाद से ईसा पश्चात् 500 तक का समय भारतीय गणित का अन्धकारमय समय माना जाता है। इस अन्धकारपूर्ण समय के व्यतीत हो जाने के आर्यभट्ट प्रथम ने भारत के प्राचीन गणित को पुनः एक नई दिशा देने का कार्य किया। आर्यभट्ट ने खगोल विद्या के एक नये युग का आरम्भ करते हुए सूर्य तथा चन्द्र ग्रहणों को समझने के लिए नए सिद्धान्त दिए तथा खगोलीय गणना को त्रिकोणमिति द्वारा करने कि विधि का विकास किया। आर्यभट्ट ने ही कुसुमपुर में गणित के केन्द्र की स्थापना की जहाँ पर गणित तथा खगोल शास्त्र के विभिन्न विषयों पर शोधकार्य हुआ करता था। उस काल में भारत में उज्जैन भी गणित का एक बहुत बड़ा केन्द्र था। वाराहमिहिर जैसे गणित के प्रकाण्ड पण्डित उज्जैन केन्द्र से ही सम्बन्धित थे। ईसा पश्चात् सातवीं शताब्दी में ब्रह्मगुप्त उज्जैन केन्द्र के एक और आधारस्तम्भ बने जिन्होनें अंकप्रणाली में बहुत से महत्वपूर्ण विकास के कार्य किया।

आर्यभट्ट प्रथम के समय से लगभग ईसा पश्चात् 150 तक के समय में  विभिन्न गणितज्ञों ने संख्या के सिद्धान्त (theory of numbers), अंकगणित कार्यप्रणाली  (arithmetical operations) ज्यामिति  (geometry), भिन्न कार्यप्रणाली (operations with fractions), सामान्य समीकरण (simple equations), क्यूबिक समीकरण (cubic equations), क्वार्टिक समीकरण (quartic equations), क्रमचय और संचय (permutations and combinations) जैसे गणित के विभिन्न विषयों में उल्लेखनीय कार्य किया। इसी दौरान भारतीय गणितज्ञों ने अनन्त के सिद्धान्त (theory of the infinite), जिसमें विभिन्न श्रेणी सापेक्षिक स्तर के अनन्त (different levels of infinity) शामिल थे, का आश्चर्यजनक रूप से विकास कर लिया, यहाँ तक कि 2 के आधार वाला लघुगुणक logarithms to base 2 तक को भी समझ लिया।

प्राचीन भारतीय ग्रंथों का शोधपूर्ण अध्ययन से प्राचीन भारतीय गणित तथा विज्ञान के विषय में और भी बहुत सारी महत्वपूर्ण जानकारी मिलने की भरपूर सम्भावनाएँ हैं किन्तु ये समस्त ग्रंथ संस्कृत भाषा में है और हमारे साथ विडम्बना यह है कि भारतीय होने के बावजूद भी हम संस्कृत नहीं जानते। हमारे प्राचीन विद्वानों द्वारा खोजे तथा अन्वेषित किए गए खोजों तथा आविष्कारों को उनसे कई हजारों साल बाद पुनः खोज और अन्वेषित करके पाश्चात्य विद्वानों ने उन खोजों और आविष्कारों का श्रेय प्राप्त कर लिया है और हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि, जिन्होंने विश्व को अनेक महत्व वैज्ञानिक देन दिया है, उन श्रेय से वंचित रह गए हैं। भारत ने विश्व को क्या-क्या महत्वपूर्ण देन दिए हैं इस बात की जानकारी भी हम भारतीयों को विदेशी विद्वानों से ही मिलती है क्योंकि हम स्वयं को किसी प्रकार का अनुसन्धान करने में असफल पाते हैं। मैक्समूलर और कनिंघम जैसे अने पाश्चात्य विद्वान अपने शोधकार्यों के लिए अत्यन्त रुचि और लगन के साथ संस्कृत सीख सकते हैं किन्तु हम भारतीय नहीं।

विश्व के प्रायः समस्त विद्वान इस बात से सहमत हैं कि बौधायन, मानव, आपस्तम्ब, कात्यायन, पाणिनि, आर्यभट, वराहमिहिर, भास्कर १, ब्रह्मगुप्त, पृथूदक, हलायुध, आर्यभट २ आदि भारत प्राचीन विद्वानों के महत्वपूर्ण देन को संसार कभी भी नहीं भुला सकता।