हम लोगों में कम से कम इतनी मर्यादा तो कायम है कि आज भी छोटे अपनों से बड़ों का लिहाज करते हैं। यदि किसी को अपने से बड़े पर किसी कारणवश क्रोध आ भी जाये तो वह अपने उस क्रोध को दबाने का भरसक प्रयत्न करता है। किन्तु कई बार ऐसा भी हो जाता है कि छोटा अपने क्रोध को दबा नहीं पाता और अपने से बड़े पर भड़क उठता है।
यदि ऐसा हो जाये तो बड़े का कर्तव्य हो जाता है कि वह छोटे की भावनाओं का सम्मान करते हुए उसे क्षमा कर दे, कहा भी गया है
"क्षमा बड़न को चाहिये ..."।
छोटे के द्वारा अपने से बड़े पर भड़कना प्राचीनकाल से ही होता चला आया है यहाँ तक कि एक बार देवर्षि नारद, जो कि श्री विष्णु के सबसे बड़े भक्त हैं, भी भगवान विष्णु पर भड़क उठे थे। तुलसीदास जी ने रामायण में इस कथा को अत्यन्त रोचक रूप से प्रस्तुत किया हैः
जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को शाप दिया
रामचरितमानस से एक कथाहिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी जिसके निकट ही गंगा जी प्रवाहित होती थीं। उस गुफा की पवित्रता देखकर नारद जी वहीं बैठ कर तपस्या में लीन हो गये। नारद मुनि की तपस्या से देवराज इन्द्र भयभीत हो उठे कि कहीं देवर्षि नारद अपने तप के बल से इन्द्रपुरी को अपने अधिकार में न ले लें। इन्द्र ने नारद की तपस्या भंग करने के लिये कामदेव को उनके पास भेज दिया। वहाँ पहुँच कर कामदेव ने अपनी माया से वसन्त ऋतु को उत्पन्न कर दिया। वृक्षों और लताओं में रंग-बिरंगे फूल खिल गये, कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे। कामाग्नि को भड़काने वाली शीतल-मन्द-सुगन्ध सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती अप्सराएँ नृत्य व गान करने लगीं।
किन्तु कामदेव की किसी भी कला का नारद मुनि पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तब कामदेव को भय सताने लगा कि कहीं देवर्षि मुझे शाप न दे दें। हारकर वे देवर्षि के चरणों में गिर कर क्षमा माँगने लगे। नारद मुनि को थोड़ा भी क्रोध नहीं आया और उन्होंने कामदेव को क्षमा कर दिया।
नारद मुनि के मन में अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। नारद जी क्षीरसागर में पहुँच गये और सारी कथा श्री विष्णु को सुनाई। भगवान विष्णु तत्काल समझ गये कि इनके मन को अहंकार ने घेर लिया है। उन्होंने अपने मन में सोचा कि मैं ऐसा उपाय करूँगा कि नारद का अहंकार भी दूर हो जाये।
श्री हरि ने अपनी माया से नारद जी के रास्ते में सौ योजन का एक अत्यन्त सुन्दर नगर रच दिया। उस नगर में शीलनिधि अत्यन्त वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्वमोहिनी नाम की ऐसी रूपवती कन्या थी जिसके रूप को देख कर साक्षात् लक्ष्मी भी मोहित हो जायें। विश्वमोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिये अनगिनत राजा उस नगर में आये हुए थे।
नारद जी उस नगर के राजा के यहाँ पहुँचे तो राजा ने उनका यथोचित सत्कार कर के उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गये। उस कन्या की हस्तरेखा बता रही थी कि उसके साथ जो ब्याह करेगा वह अमर हो जायेगा, उसे संसार में कोई भी जीत नहीं सकेगा और संसार के समस्त चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे। इन लक्षणों को नारद मुनि ने अपने तक ही सीमित रखा और राजा को उन्होंने अपनी ओर से बना कर कुछ अन्य अच्छे लक्षणों को कह दिया।
अब नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिये कि यह कन्या मुझे ही वरे। उन्होंने श्री हरि को स्मरण किया और भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हो गये। नारद जी ने उन्हें सारा विवरण बता कर कहा, "हे नाथ आप मुझे अपना सुन्दर रूप दे दीजिये।"
भगवान हरि ने कहा, "हे नारद! हम वही करेंगे जिससे तुम्हारा परम हित होगा। तुम्हारा हित करने के लिये हम तुम्हें हरि (हरि शब्द का एक अर्थ बन्दर भी होता है) का रूप देते हैं।" यह कह कर प्रभु अन्तर्धान हो गये साथ ही उन्होंने नारद जी बन्दर जैसा मुँह और भयंकर शरीर दे दिया। माया के वशीभूत हुए नारद जी को इस बात का ज्ञान नहीं हुआ। वहाँ पर छिपे हुए शिव जी के दो गणों ने भी इस घटना को देख लिया।
ऋषिराज नारद तत्काल विश्वमोहिनी के स्वयंवर में पहुँच गये और साथ ही शिव जी के वे दोनों गण भी ब्राह्मण का वेश बना कर वहाँ पहुँच गये। वे दोनों गण नारद जी को सुना कर कहने लगे कि भगवान ने इन्हें इतना सुन्दर रूप दिया है कि राजकुमारी सिर्फ इन पर ही रीझेगी। उनकी बातों से नारद जी अत्यन्त प्रसन्न हुए। स्वयं भगवान विष्णु भी उस स्वयंवर में एक राजा का रूप धारण कर आ गये। विश्वमोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजारूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी।
मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी अतः राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरते देख वे विकल हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने व्यंग करते हुए नारद जी से कहा जरा दर्पन में अपना मुँह तो देखये! मुनि ने जल में झाँक कर अपना मुँह देखा और अपनी कुरूपता देख कर अत्यन्त क्रोधित हो उठे। क्रोध में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुँह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से प्राप्त हो चुका था।
नारद जी को भगवान विष्णु पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आ रहा था उनकी बहुत ही हँसी हुई थी। वे तुरन्त विष्णु जी से मिलने के लिये चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी, जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्वमोहिनी भी थीं, से हो गई। उन्हें देखते ही नारद जी ने कहा, "हमारे साथ तुमने जो किया है उसका फल तुम अवश्य पाओगे। तुमने मनुष्य रूप धारण करके विश्वमोहिनी को प्राप्त किया है इसलिये मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा, तुमने हमें स्त्री वियोग दिया इसलिये तुम्हें भी स्त्री वियोग सह कर दुःखी होना पड़ेगा और तुमने हमें बन्दर का रूप दिया इसलिये तुम्हें बन्दरों से ही सहायता लेना पड़ेगा।"
नारद के शाप को श्री विष्णु ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और उन पर से अपनी माया को हटा लिया। माया के हट जाने से अपने द्वारा दिये शाप को याद कर के नारद जी को अत्यन्त दुःख हुआ किन्तु दिया गया शाप वापस नहीं हो सकता था। इसीलिये श्री विष्णु को श्री राम के रूप में मनुष्य बनना पड़ा और शिव जी के उन दोनों गणों को रावण और कुम्भकर्ण के रूप में राक्षस बनना पड़ा।