Saturday, October 31, 2009

विष्णु तथा सूर्य के अनेक नामों को जानें

हरि शब्द के अर्थों को आपने "कौन है रे हरि तू? ... साँप है या वानर है कि विष्णु है या साक्षात् यमराज!" पोस्ट में जाना, विष्णु तथा सूर्य के अनेक नामों को भी जानें।

अमरकोष के अनुसार भगवान विष्णु के निम्न नाम हैं:

  • विष्णु
  • नारायण
  • कृष्ण
  • वैकुण्ठ (या बैकुण्ठ)
  • दामोदर
  • हृषीकेश
  • केशव
  • माधव
  • दैत्यारि
  • पुण्डरीकाक्ष
  • गोविन्द
  • गरुड़ध्वज
  • पीताम्बर
  • अच्युत
  • जनार्दन
  • उपेन्द्र
  • चक्रपाणि
  • चतुर्भुज
  • पद्मनाभ
  • मधुरिपु
  • वासुदेव
  • त्रिविक्रम
  • देवकीनन्दन
  • श्रीपति
  • पुरुषोत्तम
  • वनमाली
  • विश्वम्भर
ग्रंथ अमरकोष के अनुसार सूर्य के निम्न नाम हैं:

  • सूर
  • सूर्य
  • अर्यमा
  • आदित्य
  • द्वादशात्मा
  • दिवाकर
  • भास्कर
  • अहस्कर
  • ब्रध्न
  • प्रभाकर
  • विभाकर
  • भास्वान
  • विवस्वान
  • सप्ताश्व
  • हरिदश्व
  • उष्णरश्मि
  • विकर्तन
  • अर्क
  • मार्तण्ड
  • मिहित
  • अरुण
  • पूषा
  • द्युमणि
  • तरणि
  • मित्त्र मित्र
  • चित्रभानु
  • विरोचन
  • विभावसु
  • ग्रहपति
  • त्विषांपति
  • अहर्पति
  • भानु
  • हंस
  • सहस्त्रांशु
  • तपन
  • सविता
  • रवि

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राजा दशरथ की मृत्यु - अयोध्याकाण्ड (20)

Friday, October 30, 2009

हम खुश होते थे सोचकर कि एक साल में दो बार ईद की छुट्टियाँ मिलेंगी

साल में एक ही त्यौहार दो बार आये और दो बार छुट्टियाँ मिले तो क्या कोई खुश नहीं होगा। ईद, मोहर्रम आदि की छुट्टियाँ ऐसी हैं जिनकी कभी न कभी एक साल में दो बार मिलने की सम्भावना होती है, एक बार जनवरी में और एक बार दिसम्बर में।

क्यों होता है ऐसा?

ऐसा इसलिये होता है क्योंकि ये चन्द्र की गति के आधार पर बनाये गये कैलेंडर पर आधारित होते हैं। सूर्य की गति के आधार पर बनाये गये कैलेंडर में वर्ष लगभग 365 दिन का होता है क्योंकि पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में लगभग 365 दिन लगते हैं। किन्तु चन्द्रमा को पृथ्वी का एक चक्कर लगाने में लगभग 29.58 दिन लगते हैं इसलिये चन्द्र की गति के आधार पर बनाये गये कैलेंडर के एक वर्ष में लगभग 355 दिन ही होते हैं। इस प्रकार से दोनों कैलेंडरों में प्रतिवर्ष लगभग 10 दिनों का अन्तर हो जाता है और ये छुट्टियाँ 365 दिनो के बाद आने के बजान 355 दिनों के बाद आती हैं। अब मान लीजिये कि किसी साल ईद जनवरी माह के पहले सप्ताह में आती है तो अगली बार वह उसी साल के दिसम्बर माह के अन्तिम सप्ताह में आयेगी।

जहाँ मुस्लिम कैलेंडर चन्द्र की गति पर आधारित है वहीं हिन्दू कैलेंडर भी चन्द्र की गति पर ही आधारित है और हिन्दू त्यौहार भी प्रतिवर्ष 10 दिन पीछे हो जाते हैं। किन्तु हिन्दू कैलेंडर में चन्द्र की गति के साथ ही साथ सूर्य की गति को भी महत्व देकर उसे भी आधार बनाया गया है। इसीलिये प्रति तीन वर्ष में एक अधिक माह जोड़ दिया जाता है और इस प्रकार से फिर से समायोजन हो जाता है। मुस्लिम कैलेंडर में इस प्रकार के किसी समायोजन का प्रावधान नहीं है।

चलिये जाने थोड़ा सा हिन्दू पंचांग के बारे में

सामान्य

वेदों में पंचांग (calendar) के अनेकों प्रसंग मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कि हिन्दू पंचांग की उत्पत्ति वैदिक काल में ही हो चुकी थी।

प्रायः सभी हिन्दू पंचांग सूर्य सिद्धान्त में निहित सिद्धान्तों का ही अनुगमन करते हैं।

वैदिक काल के पश्चात् आर्यभट, वाराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डितों ने हिन्दू पंचांग को विकसित किया।

हिन्दू पंचाग के पाँच अंग (1) तिथि (2) वसर (3) नक्षत्र (4) योग और (5) करन होते हैं, इसी कारण से इसका नाम पंचांग (पंच+अंग) पड़ा।
विक्रम तथा शालिवाहन संवत

विक्रम तथा शालिवाहन संवत सर्वाधिक प्रयोग किये जाने वाले हिन्दू कैलेन्डर हैं।

विक्रम तथा शालिवाहन संवत क्रमशः उत्तर भारत व दक्षिण भारत में अधिक लोकप्रिय हैं।

विक्रम तथा शालिवाहन संवत दोनों में ही बारह चंद्रमास होते हैं।

पूर्ण चंद्र वाली रात्रि (पूर्णिमा) के अगले दिन से महीने का आरम्भ होता है।

प्रत्येक चंद्रमास को शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्ष नामक दो पक्षों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चंद्रमास का आरम्भ कृष्णपक्ष से होता है और अन्त शुक्लपक्ष से।
हिन्दू पंचाग के बारह चंद्रमासों के नाम

1. चैत्र
2. वैशाख
3. ज्येष्ठ
4. आषाढ़
5. श्रावण
6. भाद्रपद
7. आश्विन
8. कार्तिक
9. मार्गशीर्ष
10. पौष
11. माघ
12. फाल्गुन

चलते-चलते

त्यौहार के उपलक्ष्य में एक दम्पति ने पण्डित जी को भोजन के लिये निमन्त्रित किया था। पत्नी किचन में गरम गरम पूरियाँ निकाल रही थी और पति डॉयनिंग रूम में पण्डित जी को परस रहा था। पण्डित जी थे कि खाये चले जा रहे थे, खाये चले जा रहे थे।

लगाया गया आटा पूरा चुक गया। पत्नी ने इशारे से पति को बुलाया और बोली, "आटा चुक गया है जी, मैं जल्दी से और आटा गूँथ लेती हूँ, तब तक आप जरा पण्डित जी को बातों में लगा कर उनका हाथ रोकिये।"

पति ने पण्डित जी को बातों में लगाना शुरू किया, "खाना तो अच्छा बना है न पण्डित जी?"

"बहुत सुस्वादु भोजन है यजमान! भगवान तुम्हें सुखी रखे।"

"पूरियाँ कुछ ठंडी हो गई हैं, मैं अभी गरम निकलवा कर लाता हूँ। तब तक आप जरा पानी-वानी पीजिये।"

"पानी तो हम आधा पेट भरने के बाद ही पीते हैं यजमान।"

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सुमन्त का अयोध्या लौटना - अयोध्याकाण्ड (18)

Thursday, October 29, 2009

कौन है रे हरि तू? ... साँप है या वानर है कि विष्णु है या साक्षात् यमराज!

मैं यमराज भी हूँ और विष्णु भी, पवन भी हूँ और इन्द्र भी, अगर तोता हूँ तो मेढक भी हूँ और सिंह हूँ तो घोड़ा भी।

जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ हरि की। हरि याने कि हिन्दी का एक शब्द! हरि शब्द तो एक है पर आपको शायद ही पता हो कि इसके कितने अर्थ हैं। संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार हरि शब्द के अर्थ हैं

यमराज, पवन, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, विष्णु, सिंह, किरण, घोड़ा, तोता, सांप, वानर और मेढक

उपरोक्त अर्थ तो अमरकोष से है और अमरकोष में ही बताया गया है कि विश्वकोष में कहा गया है कि वायु, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, यम, उपेन्द्र (वामन), किरण, सिंह घोड़ा, मेढक, सर्प, शुक्र और लोकान्तर को 'हरि' कहते हैं।

देखें अमरकोष के पृष्ठ का स्कैन किया गया चित्र


यमक अलंकार से युक्त एक दोहा याद आ रहा है जिसमें हरि शब्द के तीन अर्थ हैं

हरि हरसे हरि देखकर, हरि बैठे हरि पास।
या हरि हरि से जा मिले, वा हरि भये उदास॥
(अज्ञात)

पूरे दोहे का अर्थ हैः

मेढक (हरि) को देखकर सर्प (हरि) हर्षित हो गया (क्योंकि उसे अपना भोजन दिख गया था)। वह मेढक (हरि) समुद्र (हरि) के पास बैठा था। (सर्प को अपने पास आते देखकर) मेढक (हरि) समुद्र (हरि) में कूद गया। (मेढक के समुद्र में कूद जाने से या भोजन न मिल पाने के कारण) सर्प (हरि) उदास हो गया।

तो ऐसी समृद्ध भाषा है हमारी मातृभाषा हिन्दी! इस पर हम जितना गर्व करें कम है!!

चलते-चलते

डॉ. सरोजिनी प्रीतम की एक हँसिकाः

क्रुद्ध बॉस से
बोली घिघिया कर
माफ कर दीजिये सर
सुबह लेट आई थी
कम्पन्सेट कर जाऊँगी
बुरा न माने गर
शाम को 'लेट' जाऊँगी।

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ऋषि भरद्वाज के आश्रम में- अयोध्याकाण्ड (15)

Wednesday, October 28, 2009

मृत्यु निकट अनुभव

मृत्यु निकट अनुभव उन व्यक्तियों के अनुभवों का संग्रह तथा अध्ययन है जो कि मृत्यु के अत्यन्त समीप से गुजर चुके होते हैं (जैसे कि हृदयाघात से बच जाने वाले लोग, दुर्घटना में मौत के पास पहुँच जाने के बाद भी जीवित रह जाने वाले लोग आदि)। अध्ययन से ज्ञात होता है कि ऐसे लोगों को विभिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं जैसे कि स्वयं को अपने ही शरीर से बाहर होते देखना, चरम भय, चरम शांति, अत्यन्त सुरक्षित महसूस करना, भयानक गर्मी का अनुभव, देवताओं की उपस्थिति, अलौकिक प्रकाश का दर्शन आदि।

मृत्यु निकट अनुभव परामनोविज्ञान से सम्बन्धित विषय है और इस विषय में संसार भर में अनेकों शोध कार्यों किये जा रहे हैं।
  • कुछ संस्कृतियाँ और व्यक्ति मृत्यु निकट अनुभव को अपसामान्य घटना और मृत्यु पश्चात् असाधारण तथा आध्यात्मिक झलक के रूप में देखते हैं।
  • चूँकि इस प्रकार के प्रकरणों का वर्णन आमतौर से ऐसे व्यक्ति करते हैं जो कि मौत के बहुत करीब पहुँच कर वापस आये होते हैं, इसलिये इन्हें मृत्यु निकट अनुभव का नाम दिया गया है।
  • श्री रेमंड मूडी के द्वारा सन् 1975 में लिखी गई पुस्तक "Life After Death" ने "मृत्यु निकट अनुभव" के प्रति आम लोगों की जिज्ञासा एव रुचि को बढ़ा दिया। इस विषय की लोकप्रियता को देखते हुये श्री मूडी ने सन् 1978 में International Association for Near-Death Studies (IANDS) नामक संस्था की स्थापना की।
  • गेलुप पोल (Gallup poll) के अनुसार लगभग अस्सी लाख अमेरिकनों ने "मृत्यु निकट अनुभव" करने का दावा किया है।
  • कुछ प्रकरणों में व्यक्तियों के मृत्यु निकट अनुभव उनके विश्वास के अनुसार बदले हुये पाये गये हैं अर्थात् व्यक्ति का जैसा विश्वास था वैसा ही उसने मृत्यु निकट अनुभव किया।
अधिकतर व्यक्तियों के मृत्यु निकट अनुभव निम्न क्रम में पाये गये हैं।

1. एक अत्यन्त अप्रिय ध्वनि/शोर सुनाई पड़ना (संदर्भः लाइफ आफ्टर डेथ)।

2. स्वयं के मरे हुये होने का ज्ञान।

3. सुखद भावनाओं, शांति और स्थिरता का अनुभव।

4. शरीर से बाहर होकर हवा में तैरते हुये आसपास के क्षेत्र को देखने का अनुभव।

5. नीले सुरंग, जिसके अंत में चमकदार प्रकाश या कोई उपवन हो, में तैरते हुये जाने का अनुभव।

6. मरे हुये लोगों या आध्यात्मिक चरित्रों से मुलाकात।

7. अलौकिक प्रकाश दिखाई पड़ना(प्रायः समझा जाता है कि वह प्रकाश उस देवता का रूप होता है जिस पर व्यक्ति का अटूट विश्वास होता है)।

8. स्वयं के जीवन-काल का पुनरीक्षण अर्थात् जीवन में घटित घटनाओं का चलचित्र के समान दिखाई पड़ना।

9. एक आखरी सीमा में पहुँच जाना (Reaching a border or boundary)।

10. अपने स्वयं के शरीर में फिर से, प्रायः अनिच्छापूर्वक, पहुँचा हुआ महसूस करना।

11. निर्वस्त्र होने पर भी उष्णता (गर्मी) महसूस करना।

Rasch model-validated NDE मापदंड के अनुसार मृत्यु निकट अनुभव का केन्द्र शांति, आनन्द और एकलयता, जिनमें गूढ़ तथा रहस्यमय आध्यात्मिक अनुभव निहित होते हैं, से घिरा रहता है।

मृत्यु निकट अनुभव के प्रति आम लोगों की रुचि को मूलतः एलिसाबेथ कुबलेर रोस (Elisabeth Kübler-Ross), जार्ज रिचे (George Ritchie), पी.एम.एच एटवाटर (P.M.H. Atwater) के शोध कार्यों और रेमण्ड मूडी की पुस्तक "लाइफ आफ्टर डेथ" ने उकसाया। परिणामस्वरूप मृत्यु निकट अनुभव के क्षेत्र में अध्ययन एवं शोधकार्यों के लिये सन् 1978 में "इंटरनेशनल एसोसियेशन फॉर नियर डेथ स्टडीज" नामक संस्था की स्थापना हुई।

चलते-चलते

एक राजनीतिबाज की मृत्यु हो गई। यमदूत उसकी आत्मा को यमराज के पास ले गए। यमराज ने चित्रगुप्त से उसके कर्मों का लेखा-जोखा पूछा। चित्रगुप्त ने बताया कि इसके कर्मों में मात्र तीन सुकर्म हैं और शेष कुकर्म।

यमराज ने राजनीतिबाज से कहा, "कुकर्मों की सजा तो तुम्हें मिलेगी ही पर तुम्हारे द्वारा किए गए तीन सुकर्मों के बदले तुम तीन चीजें माँग सकते हो, माँगो क्या माँगते हो?"

मृतात्मा ने कहा, "मैं कुछ माँगू उससे पहले यह बताओ कि बाद में कहीं मुकर तो नहीं जाओगे?"

यमराज ने आश्वस्त उसे कर दिया कि उसकी तीन माँगे अवश्य ही पूरी की जायेंगी।

मृतात्मा ने कहा, "तो यमराज, मेरी पहली माँग ये है कि सबसे पहले तो ये जो तुम्हारे पास जो तुम्हारी सवारी याने कि भैंसा बैठा है उसके दो सींगों को एक कर दो।"

यमराज ने भैंसे के सींगों को जोड़ कर एक बना दिया।

मृतात्मा फिर बोला, "मेरी दूसरी माँग है कि अब सींग को अपने मुँह में डाल लो।"

यमराज घबराया, पर कर ही क्या सकता था? उसने भैंसे के सींग को अपने मुँह में डाल लिया।

अब मृतात्मा ने कहा, "यमराज! अब यदि तुमने मेरे सारे कुकर्मों सुकर्म में नहीं बदला तो मैं माँगूंगा कि सींग फिर से दो हो जाए।"

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भीलराज गुह - अयोध्याकाण्ड (13)

Tuesday, October 27, 2009

ब्लॉगर खाया हो या न हो, अघाया जरूर होता है

हाँ, अघाया होता है हिन्दी ब्लॉगर, खाया चाहे हो या न हो। वो दर्द और पीड़ा से अघाया होता है। डेजी मरती है पाबला जी की और दर्द तथा पीड़ा से अघा जाता है दिनेशराय द्विवेदी तभी तो लिखता है "डेज़ी तुम्हें आखिरी सलाम! तुम बहुत, बहुत याद आओगी!", अघा जाता है शरद कोकास तभी तो लिखता है "डेज़ी नहीं रही पाबला जी !!"

हिन्दी ब्लॉगर अघाया होता है अपने धर्म के अपमान से, अपने शहीद क्रान्तिकारी राष्ट्रभक्तों की अवहेलना से, अपने बुजुर्गों की बेइज्जती से, अपने लोगों पर होने वाले अन्याय से, अपनी शिक्षा के खोखलेपन से, अपने नेताओं के भ्रष्टाचार से, ....

अधिक क्या कहूँ, समझदार के लिए इशारा ही बहुत होता है। पता नहीं आपने खाया है या नहीं पर मैं जानता हूँ कि आप भी अघाये हुए हैं। आप स्वयं ही बता सकते हैं कि आप किससे अघाये हुए हैं।

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तमसा के तट पर - अयोध्याकाण्ड (11)

Monday, October 26, 2009

फिजिक्स के विद्यार्थी थे पर मनोविज्ञान पढ़ाया और फँस गए उम्र भर के लिए

मनोविज्ञान हमारा विषय कभी रहा ही नहीं पर पढ़ाया जरूर है इस विषय को। और उसी चक्कर में उम्र भर के लिए फँस भी गए। कैसे फँस गए यह सिर्फ आपको ही बता रहे हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हैं, पर गुजारिश है कि आप किसी और को मत बताइगा प्लीज।

तो हम थे उस समय एम.एससी. फर्स्ट ईयर में, भौतिकशास्त्र विषय था हमारा। वार्षिक परीक्षा के कुछ दिन ही शेष थे। एक दिन हमारी एकमात्र छोटी बहन, जो कि बी.ए. फर्स्ट ईयर में पढ़ रही थी, ने हमसे कहा, "भैया, हम लोगों के सायकोलॉजी वाले सर पता नहीं पता नहीं कैसे पढ़ाते हैं कि कुछ समझ नहीं आता। लगता है हम सभी सहेलियाँ इस साल मनोविज्ञान में फेल हो जायेंगी। आप हम लोगों को सायकोलॉजी पढ़ा देंगे क्या?"

हमने कहा, "मैं भला मनोविज्ञान क्या जानूँ? ये तो मेरा विषय ही नहीं है। खैर, तुम्हारी मनोविज्ञान वाली पुस्तक दो पढ़ के देखते हैं और यदि समझ में आ जाएगा तो पढ़ा भी देंगे।"

उसने तत्काल हमें मनोविज्ञान की पुस्तक दे दी। पढ़ा तो विषय बहुत रोचक लगा। उसी दिन ही दो-तीन चेप्टर पढ़ गये और अगले ही दिन से सायकोलॉजी का क्लास लेने के लिए तैयार हो गये।

अगले दिन हमारी बहन के साथ उसकी पाँच छः सहेलियाँ आ गईं पढ़ने के लिए।

हमने कहा, "आज हम तुम लोगों को मनुष्य के मस्तिष्क के विषय में बतायेंगे। मस्तिष्क के तीन स्तर होते हैं - चेतन, अचेतन और अवचेतन। अंग्रेजी में इन्हें conscious, semi-conscious और unconscious कहा जाता है। जब हम जानते-बूझते किसी कार्य को करते हैं तो वह चेतन के द्वारा किया गया कार्य होता है किन्तु यदि किसी कार्य को अनजाने में करते हैं वह अचेतन का कार्य होता है। तुम लोगों ने देखा होगा तुम दो सहेलियाँ अपनी अपनी सायकल से कॉलेज जा रही हो और साथ ही साथ बातें भी कर रही हो। तुम लोगों का पूरा ध्यान बातें करने में ही लगा रहता है पर सड़क में मोड़ आने पर सायकल का हेंडल अपने आप मुड़ जाता है, सामने से किसी बड़ी गाड़ी आने पर सड़क के बीचोबीच चलती सायकलें किनारे आ जाती हैं पर बातों का सिलसिला कहीं पर भी नहीं टूटता। जब तुम लोग कॉलेज पहुँच जाती हो तो तुम्हें लगता है कि 'अरे! हम तो कॉलेज पहुँच गए'। याने कि तुम लोग जानती थीं कि तुम आपस में बाते कर रहीं थीं पर यह नहीं जानती थीं कि सायकल सही सही चलने का काम अपने आप हो रहा था। तो आपस में बातें करने वाला कार्य तुम लोगों का चेतन मस्तिष्क कर रहा था और सही सही सायकल चलाने का कार्य तुम्हारा अचेतन मस्तिष्क कर रहा था। चेतन तभी तक कार्य करता है जब तक हम जागते रहते हैं किन्तु अचेतन सोते-जागते चौबीसों घंटे कार्य करता है। सपने भी अचेतन ......."

अरे! अरे!! ये क्या? मैं तो आप लोगों का ही क्लास लेने लगा। थोड़ी धुनकी में आ गया था मैं। पर अब इससे आगे आप लोगों को और बोर नहीं करूँगा।

तो साहब, हमारा इस प्रकार पढ़ाना उन सभी को पसंद आया। उनमें हमारी बहन की एक बहुत प्यारी (और सुन्दर भी) सहेली भी हमारे मुहल्ले में ही रहती थी। अक्सर क्लास लेने के बाद भी हमसे कुछ कुछ पूछने आ जाती थी। हमारे पास से वो हमारी माँ के पास पहुँच जाती थी और उनके काम में हाथ बँटा दिया करती थी। वापस जाने के पहले हमारी दादी को भी उनकी पसंद की चर्चा याने कि धार्मिक चर्चा के लिए थोड़ा समय देना नहीं भूलती थी।

बहुत दिनों तक ऐसा ही चलता रहा। फिर हमारी नौकरी लग गई तो हम रायपुर छोड़ कर नरसिंहपुर चले गए अकेले। लगता है कि हमारे चले जाने के बाद भी उसका हमारे घर में वैसा ही सिलसिला चलता रहा क्योंकि सन 1975 में स्थानान्तरित होकर रायपुर आने पर हमने पाया कि हमारी माँ, दादी, पिताजी सभी की वो लाडली बन चुकी थी।

अब सबकी यही जिद थी कि हम शादी कर लें उसके साथ। सबसे ज्यादा दबाव तो हमारी दादी का था।किसी प्रकार उसके बाद भी एक साल तक तो हम टालते रहे पर अन्ततः शादी कर ही ली उसके साथ और आज तक भुगत रहे हैं।


चलते-चलते

हम दोस्तों के साथ रोज बार चले जाया करते थे। रात में वापस आने पर, जैसा कि आप अनुमान लगा ही सकते हैं, रोज ही हमें श्रीमती जी हड़काती थीं। जब हम बिना कोई प्रतिक्रिया किए चुपचाप सुन लेते थे तो आखिर में कहती थी 'देख लेना एक दिन भीख मांगोगे'

एक दिन हमने सोचा कि कहती तो ये ठीक ही है और इसकी बात में हमारी भलाई भी है, हमको दारू छोड़ देना चाहिए। बस क्या था छोड़ दिया पीना। यार दोस्त आए, हमें बहुत मनाया पर हम भी अपने निश्चय पर अटल रहे। इस प्रकार पूरे पच्चीस दिन बीत गए। पच्चीसवें दिन पूरी मित्र मण्डली ने हमें बधाई दी और कहा कि यार तुम्हें पीना छोड़े पच्चीस दिन हो गए हैं। इसी खुशी में हम लोगों ने एक पार्टी रखी है। हमने कहा भाई तुम्हारी पार्टी तो दारू वाली ही होगी, मेरा वहाँ क्या काम? उन्होंने कहा कि यार तुम भी अजीब आदमी हो! अरे भई, तुम ड्रिंक्स मत लेना पर खाना तो खा सकते हो ना।

अब पार्टी में हमें दोस्तों ने सिर्फ एक घूँट ले लेने के लिए इतनी मिन्नत की कि हमने हाँ कर दी। बस फिर क्या था। कोई कभी सिर्फ एक घूँट ले कर रह सकता है?

जब वापस लौटे तो फिर वही हड़काना - मैं कहती थी ना कि आप कभी भी पीना नहीं छोड़ सकते ... ऐसा... वैसा ... आदि आदि इत्यादि और आखिर में 'देख लेना एक दिन भीख मांगोगे'

हम तो जानते ही थे कि आखिर में क्या कहा जायेगा इसलिए हमने पहले से ही जुगाड़ कर लिया था याने कि एक भीख मांगने वाले को दस रुपये देकर साथ लाये थे जो कि दरवाजे के पास बैठा था। जब श्रीमती जी ने 'देख लेना एक दिन भीख मांगोगे' कहा तो हम बोले चलो जरा दरवाजे तक।

दोनों के दरवाजे तक आ जाने पर हमने उस भिखमंगे को बुला कर कहा, "तुम क्या करते हो भाई?"

"भीख मांगता हूँ साहब।"

"कभी दारू पी है?"

"अरे साहब, भीख मांग कर बड़ी मुश्किल से एक टाइम के खाने का जुगाड़ होता है। भला मैं दारू कहाँ से पी सकता हूँ। नहीं, मैं दारू नहीं पीता।"

हमने उस भिखारी को जाने के लिए कह दिया और सीना फुला कर मैडम से बोले, "देखा मैडम! जो लोग दारू नहीं पीते वो ही भीख मांगते हैं।

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पिता के अन्तिम दर्शन - अयोध्याकाण्ड (9)

Sunday, October 25, 2009

अब मरने वाले की बुराई कैसे करें ...

मुहल्ले का कुख्यात गुंडा लल्लू लाटा मर गया। गुंडा तो था किन्तु उसके संबंध बड़े बड़े नेताओं से भी थे अतः उसकी अच्छी साख भी थी। लोग उसे छुपे तौर पर गुंडा कहते पर खुले तौर पर उस एक संभ्रांत व्यक्ति ही कहा करते थे।

तो लल्लू लाटा मर गया। मरना तो खैर प्रत्येक प्राणी की नियति है और जन्म के साथ ही मरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। एक दिन आखिर सभी को मरना ही पड़ता है। अस्तु, तो लल्लू लाटा मर गया। संभ्रांत होने के कारण उसकी मृत्यु के पश्चात् मुहल्ले में एक शोक सभा आयोजित करने की योजना भी बन गई। मुहल्ला समिति के प्रमुख को एक छोटा सा भाषण भी देना था।

समिति प्रमुख के सामने बड़ी समस्या खड़ी हो गई, आखिर बोले तो क्या बोले। कोई भी अच्छा कार्य, जिसे कि लल्लू लाटा ने किया हो, उसे याद ही नहीं आ रहा था। और फिर किसी दिवंगत की बुराई भी तो नहीं की जा सकती। भई, अब किसी के मरने के बाद उसकी बुराई कैसे करें?

अंततः समिति प्रमुख ने सभा में कहा, "ये माना कि लल्लू लाटा एक नंबर का कमीना था। पूरा हरामी था। कई बार डाके डाले थे उसने और कितनों की हत्याएँ भी की थी। मुहल्ले की बहू बेटियों पर हमेशा बुरी नजर रखा करता था। मुहल्ले का ऐसा कोई भी निवासी नहीं होगा जिसे कि उसने परेशान न किया हो। फिर भी वो अपने भाई कल्लू काटा से लाख गुना अच्छा था!"



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सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह - अयोध्याकाण्ड (7)