1. कुछ महीनो में 30 दिन होते हैं, कुछ में 31 दिन। कितने महीनों में 28 दिन होते हैं?
2. डॉक्टर ने आपको तीन गोलियाँ दीं जिन्हें प्रत्येक आधे घंटे के अन्तराल में खाना है। सारी गोलियों को खाने में कितने घंटे लगेंगे?
3. मैंने अपने अलार्म घड़ी में सुबह नौ बजे उठने के लिए नौ बजे का अलार्म लगाया और रात्रि आठ बजे सो गया। अलार्म सुनकर उठने तक मैं कितने घंटे सो चुका होउँगा?
4. 30 में आधा का भाग देकर दस जोड़ने पर कौन सी संख्या मिलेगी?
5. एक किसान के पास बीस भेड़े थीं जिनमें से नौ को छोड़ कर शेष मर गईं। बताइये अब किसान के पास कितनी भेड़े हैं?
Saturday, September 19, 2009
स्नैपशॉट एक टिप्पणी का जिसे हमने प्रकाशित नहीं होने दिया था
ज्योंही हमारी "वन्दे मातरम्" वाली पोस्ट प्रकाशित हुई थी त्योंही हिन्दी ब्लोग के व्योम को चीरते हुए इस टिप्पणी रूपी धूमकेतु ने प्रचण्ड वेग के साथ उसकी तरफ़ बढ़ना आरम्भ कर दिया था। किन्तु टिप्पणी मॉडरेशन रूपी दूरबीन से हमने उसे देख लिया था और ब्लोगर बाबा उर्फ गूगल महाराज प्रदत्त टिप्पणी निरस्त करने के अधिकार रूपी अस्त्र का प्रयोग करके उसे जीमेल रूपी महासागर में डुबो दिया था।
आज हम उसी टिप्पणी का स्नैपशॉट आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब आप यह पूछेंगे कि जब आपने उस टिप्पणी को प्रकाशित करने से रोक ही दिया था तो अब क्यों उसका स्नैपशॉट दिखा रहे हैं। तो भाई इसके दो कारण हैं:
पहला
टिप्पणी को प्रकाशित होने से रोक देने के बाद हमें लगा कि इसे रोक कर हमने कुछ भी गलत नहीं किया है क्योंकि ब्लोगिंग हमें ऐसा करने का पूर्ण अधिकार देता है किन्तु यह भी ध्यान में आया कि आखिर विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी तो कोई चीज है। यह सोच कर हम कुछ ग्लानि अनुभव करने लगे।
दूसरा
हमें हमारे पाठकों को भी तो टिप्पणीकर्ता के अन्तःकरण, आचरण और नीयत के आकलन का अवसर देना चाहिए। आप देख भी लेंगे तो हमें भला क्या अन्तर पड़ना है क्योंकि हम तो मानते हैं
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुहाय॥
और
जो बड़ेन को लघु कहै नहिं रहीम घटि जाहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहि॥
अन्त में
क्षमा बड़न को चाहिए ....
तो आखिर में हमने उस टिप्पणी का स्नैपशॉट आप लोगों को दिखाने का निश्चय कर लिया, पर हाँ उसमें हिन्दी ब्लोगिंग के वातावरण को अशुद्ध करने वाले जो विज्ञापन थे उसको जरूर काले रंग से पोत दिया है।
तो यह है उस टिप्पणी का स्नैपशॉटः
अब जब अन्तःकरण की बात चली है यह बताना कुछ अनुचित नहीं होगा कि सलीम मियाँ ने आजकल हमें "चश्माधारी जोकर" के बदले "अवधिया जी" संबोधित करना शुरू कर दिया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो उनका अन्तःकरण कुछ कुछ शुद्ध हुआ है या फिर वैसा कुछ दिखावा करने लगे हैं। खैर जो भी हो, हमें क्या।
आज नवरात्रि पर्व के आरम्भ होने के अवसर पर माता की वन्दना के रूप में अपने पूज्य पिता जी की यह रचना भी समर्पित कर रहा हूँ
जय दुर्गे मैया
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
जय अम्बे मैया,
जय दुर्गे मैया,
जय काली,
जय खप्पर वाली।
वरदान यही दे दो माता,
शक्ति-भक्ति से भर जावें;
जीवन में कुछ कर पावें,
तुझको ही शीश झुकावें।
तू ही नाव खेवइया,
जय अम्बे मैया।
सिंह वाहिनी माता,
दुष्ट संहारिणि माता;
जो तेरे गुण गाता,
पल में भव तर जाता।
तू ही लाज रखैया,
जय अम्बे मैया।
महिषासुर मर्दिनि,
सुख-सम्पति वर्द्धिनि;
जगदम्बा तू न्यारी,
तेरी महिमा भारी।
तू ही कष्ट हरैया,
जय अम्बे मैया।
(रचना तिथिः 12-10-1980)
(उपरोक्त रचना इसी ब्लोग में पहले भी एक बार प्रकाशित कर चुका हूँ किन्तु प्रिय रचना होने के कारण मैंने इसे पुनःप्रकाशित किया।)
आज हम उसी टिप्पणी का स्नैपशॉट आपके समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अब आप यह पूछेंगे कि जब आपने उस टिप्पणी को प्रकाशित करने से रोक ही दिया था तो अब क्यों उसका स्नैपशॉट दिखा रहे हैं। तो भाई इसके दो कारण हैं:
पहला
टिप्पणी को प्रकाशित होने से रोक देने के बाद हमें लगा कि इसे रोक कर हमने कुछ भी गलत नहीं किया है क्योंकि ब्लोगिंग हमें ऐसा करने का पूर्ण अधिकार देता है किन्तु यह भी ध्यान में आया कि आखिर विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी तो कोई चीज है। यह सोच कर हम कुछ ग्लानि अनुभव करने लगे।
दूसरा
हमें हमारे पाठकों को भी तो टिप्पणीकर्ता के अन्तःकरण, आचरण और नीयत के आकलन का अवसर देना चाहिए। आप देख भी लेंगे तो हमें भला क्या अन्तर पड़ना है क्योंकि हम तो मानते हैं
निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुहाय॥
और
जो बड़ेन को लघु कहै नहिं रहीम घटि जाहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहि॥
अन्त में
क्षमा बड़न को चाहिए ....
तो आखिर में हमने उस टिप्पणी का स्नैपशॉट आप लोगों को दिखाने का निश्चय कर लिया, पर हाँ उसमें हिन्दी ब्लोगिंग के वातावरण को अशुद्ध करने वाले जो विज्ञापन थे उसको जरूर काले रंग से पोत दिया है।
तो यह है उस टिप्पणी का स्नैपशॉटः
(चित्र को बड़ा कर के देखने के लिए उस पर क्लिक करें)
अब जब अन्तःकरण की बात चली है यह बताना कुछ अनुचित नहीं होगा कि सलीम मियाँ ने आजकल हमें "चश्माधारी जोकर" के बदले "अवधिया जी" संबोधित करना शुरू कर दिया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि या तो उनका अन्तःकरण कुछ कुछ शुद्ध हुआ है या फिर वैसा कुछ दिखावा करने लगे हैं। खैर जो भी हो, हमें क्या।
आज नवरात्रि पर्व के आरम्भ होने के अवसर पर माता की वन्दना के रूप में अपने पूज्य पिता जी की यह रचना भी समर्पित कर रहा हूँ
जय दुर्गे मैया
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
जय अम्बे मैया,
जय दुर्गे मैया,
जय काली,
जय खप्पर वाली।
वरदान यही दे दो माता,
शक्ति-भक्ति से भर जावें;
जीवन में कुछ कर पावें,
तुझको ही शीश झुकावें।
तू ही नाव खेवइया,
जय अम्बे मैया।
सिंह वाहिनी माता,
दुष्ट संहारिणि माता;
जो तेरे गुण गाता,
पल में भव तर जाता।
तू ही लाज रखैया,
जय अम्बे मैया।
महिषासुर मर्दिनि,
सुख-सम्पति वर्द्धिनि;
जगदम्बा तू न्यारी,
तेरी महिमा भारी।
तू ही कष्ट हरैया,
जय अम्बे मैया।
(रचना तिथिः 12-10-1980)
(उपरोक्त रचना इसी ब्लोग में पहले भी एक बार प्रकाशित कर चुका हूँ किन्तु प्रिय रचना होने के कारण मैंने इसे पुनःप्रकाशित किया।)
Friday, September 18, 2009
आखिर धर्म क्या है?
धर्म का उद्देश्य होता है सबकी भलाई करना किन्तु विडम्बना यह है कि धर्म के नाम से आज तक लड़ाइयाँ ही अधिक हुई हैं। अपने धर्म को महान और दूसरे के धर्म को तुच्छ मानने का हमारा पूर्वाग्रह ही इन लड़ाइयों के कारण होते हैं।
इस विषय में मैंने आज तक जो कुछ भी अपने बड़े बुजुर्गों तथा विभिन्न प्रवचनकारियों से जो सुना, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में जो पढ़ा और परिणामस्वरूप जो मेरे विचार बने उससे मैं आपको इस पोस्ट के माध्यम से अवगत कराना चाहता हूँ। मैं यहाँ पर यह भी बता देना चाहता हूँ कि ये विशुद्ध रूप से मेरे अपने विचार हैं, इसे मानने न मानने की इच्छा आपकी है।
जहाँ तक मेरा विचार है धर्म परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता है। एक ही मंजिल के लिए रास्ते अनेक हो सकते हैं। यदि परमात्मा को मंजिल मान लिया जाये तो उस तक पहुँचने के लिए रास्ते भी अनेक हो सकते हैं इसीलिए धर्म अलग अलग हैं। अलग अलग होते हुए भी सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है और वह है परमात्मा तक पहुँचाना। और जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक है तो यही कहा जा सकता है कि सभी धर्म समान हैं, न कोई छोटा है न कोई बड़ा।
समय काल परिस्थिति के अनुसार अलग अलग धर्म बनते रहे हैं और नष्ट भी होते रहे हैं। कुछ धर्म आपस में विलीन भी हुए हैं। जैसे कि किसी काल में भारतवर्ष में मुख्यरूप से तीन धर्म हुआ करते थे वैष्णव, शैव और शाक्त। वैष्णव विष्णु के, शैव शिव के और शाक्त शक्ति के अनुयायी हुआ करते थे। इन धर्मों को मानने वाले भी अपने धर्म और अपने देवता को अन्य के धर्म और अन्य के देवता से महान माना करते थे और इसी कारण से वैष्णव, शैव और शाक्त में आपस में लड़ाई हुआ करती थी। इन लड़ाइयों को समाप्त करने के लिए ही हमारे ऋषि मुनियों, जो कि महान विचारक हुआ करते थे, इन तीनों धर्मों को विलीन कर के एक धर्म बना देने का संकल्प लिया। उन्होंने समझाया कि विष्णु, शिव, शक्ति आदि सभी देवी देवता महान हैं। उन विचारकों के प्रयास से ये तीनों धर्म आपस में विलीन हो गए और परिणामस्वरूप सनातन धर्म का उदय हुआ जिसके अनुयायी सभी देवी देवताओं को मानते थे। महर्षि वाल्मीकि से ले कर आदि शंकराचार्य तक समस्त विचारकों का सदैव प्रयास रहा कि धर्म के नाम से आपस में लड़ाइयाँ न हों।
एक लंबे समय तक आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण ने लोगों को एक सूत्र में बांध के रखा। कालान्तर में भारतवर्ष में विदेशियों का आधिपत्य हो जाने के कारण रामायण की भाषा संस्कृत का ह्रास होने लग गया और वाल्मीकि रामायण का प्रभाव क्षीण होने लग गया। शायद इसी बात को ध्यान में रख कर तथा लोगों को अपने धर्म के प्रति जागरूक रखने के लिए तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की। रामचरितमानस की भाषा संस्कृत न होकर अवधी थी जिसे कि प्रायः सभी लोग समझते थे।
इस अन्तराल में सनातन शब्द हिन्दू शब्द में परिणित हो गया और सनातन धर्म हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा। यह परिवर्त कब, क्यों और कैसे हुआ इसके विषय में विभिन्न विद्वानों का विभिन्न मत है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल में प्रचलित शब्द 'सप्तसिन्धु' से सप्त विलुप्त होकर 'सिन्धु' बना जो कि बाद में 'हिन्दू' हो गया।
समय समय में महावीर, बुद्ध, नानक जैसे अन्य विचारकों ने भी जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों को प्रचलित किया। भारत में मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों आदि के स्थाई रूप में बस जाने पर इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मों को भी भारत में प्रचलित धर्म मान लिया गया।
इस विषय में आप लोगों की जानकरी का स्वागत है।
इस विषय में मैंने आज तक जो कुछ भी अपने बड़े बुजुर्गों तथा विभिन्न प्रवचनकारियों से जो सुना, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा पुस्तकों में जो पढ़ा और परिणामस्वरूप जो मेरे विचार बने उससे मैं आपको इस पोस्ट के माध्यम से अवगत कराना चाहता हूँ। मैं यहाँ पर यह भी बता देना चाहता हूँ कि ये विशुद्ध रूप से मेरे अपने विचार हैं, इसे मानने न मानने की इच्छा आपकी है।
जहाँ तक मेरा विचार है धर्म परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता है। एक ही मंजिल के लिए रास्ते अनेक हो सकते हैं। यदि परमात्मा को मंजिल मान लिया जाये तो उस तक पहुँचने के लिए रास्ते भी अनेक हो सकते हैं इसीलिए धर्म अलग अलग हैं। अलग अलग होते हुए भी सभी धर्मों का उद्देश्य एक ही है और वह है परमात्मा तक पहुँचाना। और जब सभी धर्मों का उद्देश्य एक है तो यही कहा जा सकता है कि सभी धर्म समान हैं, न कोई छोटा है न कोई बड़ा।
समय काल परिस्थिति के अनुसार अलग अलग धर्म बनते रहे हैं और नष्ट भी होते रहे हैं। कुछ धर्म आपस में विलीन भी हुए हैं। जैसे कि किसी काल में भारतवर्ष में मुख्यरूप से तीन धर्म हुआ करते थे वैष्णव, शैव और शाक्त। वैष्णव विष्णु के, शैव शिव के और शाक्त शक्ति के अनुयायी हुआ करते थे। इन धर्मों को मानने वाले भी अपने धर्म और अपने देवता को अन्य के धर्म और अन्य के देवता से महान माना करते थे और इसी कारण से वैष्णव, शैव और शाक्त में आपस में लड़ाई हुआ करती थी। इन लड़ाइयों को समाप्त करने के लिए ही हमारे ऋषि मुनियों, जो कि महान विचारक हुआ करते थे, इन तीनों धर्मों को विलीन कर के एक धर्म बना देने का संकल्प लिया। उन्होंने समझाया कि विष्णु, शिव, शक्ति आदि सभी देवी देवता महान हैं। उन विचारकों के प्रयास से ये तीनों धर्म आपस में विलीन हो गए और परिणामस्वरूप सनातन धर्म का उदय हुआ जिसके अनुयायी सभी देवी देवताओं को मानते थे। महर्षि वाल्मीकि से ले कर आदि शंकराचार्य तक समस्त विचारकों का सदैव प्रयास रहा कि धर्म के नाम से आपस में लड़ाइयाँ न हों।
एक लंबे समय तक आदिकवि वाल्मीकि रचित रामायण ने लोगों को एक सूत्र में बांध के रखा। कालान्तर में भारतवर्ष में विदेशियों का आधिपत्य हो जाने के कारण रामायण की भाषा संस्कृत का ह्रास होने लग गया और वाल्मीकि रामायण का प्रभाव क्षीण होने लग गया। शायद इसी बात को ध्यान में रख कर तथा लोगों को अपने धर्म के प्रति जागरूक रखने के लिए तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की। रामचरितमानस की भाषा संस्कृत न होकर अवधी थी जिसे कि प्रायः सभी लोग समझते थे।
इस अन्तराल में सनातन शब्द हिन्दू शब्द में परिणित हो गया और सनातन धर्म हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाने लगा। यह परिवर्त कब, क्यों और कैसे हुआ इसके विषय में विभिन्न विद्वानों का विभिन्न मत है। ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल में प्रचलित शब्द 'सप्तसिन्धु' से सप्त विलुप्त होकर 'सिन्धु' बना जो कि बाद में 'हिन्दू' हो गया।
समय समय में महावीर, बुद्ध, नानक जैसे अन्य विचारकों ने भी जैन, बौद्ध, सिक्ख आदि धर्मों को प्रचलित किया। भारत में मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों आदि के स्थाई रूप में बस जाने पर इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि धर्मों को भी भारत में प्रचलित धर्म मान लिया गया।
इस विषय में आप लोगों की जानकरी का स्वागत है।
Thursday, September 17, 2009
'हाँ मैं हिन्दू हूँ' कह देने से ही कोई हिन्दू नहीं हो जाता
"हाँ मैं फलाँ खान हिन्दू हूँ" कह देने से कोई मान लेगा क्या कि खाँ साहब हिन्दू हो गए हैं? अरे भाई! कितनी ही फिल्मों में अमरीश पुरी ने चीख-चीख कर कहा कि "मैं अच्छा आदमी हूँ", "मैं अच्छा आदमी हूँ" तो क्या लोगों ने मान लिया? उसको अच्छा आदमी तो किसी ने माना नहीं उल्टे उसकी धुलाई कर दी।
ब्लोगवाणी में अपने ही ब्लोग को क्लिकिया क्लिकिया कर 'आज अधिक पसंद प्राप्त' और 'आज अधिक पढ़े गये' वाली संख्याओं को बढ़ा देने से क्या ब्लोग पॉपुलर हो जाता है? नहीं होता भइया, इतना तो समझना चाहिए कि पीतल पर सोने का पानी चढ़ा देने से पीतल सोना नहीं हो जाता। वो कहते हैं ना "हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते"।
मैं अपने पाठकों से पूछना चाहता हूँ कि क्या किसी के दिखावे का हिन्दू बन जाने से उसकी कद्र बढ़ जायेगी?
हाँ यदि कोई सच्चा मुसलमान बनके दिखायेगा तो जरूर उसकी कद्र होने लगेगी।
क्यों ठीक कह रहा हूँ ना बन्धुओं?
चलते-चलते
सूराखअली के मित्रों को किसी ने बता दिया कि सूराख का मतलब छेद होता है। बस फिर क्या था सारे मित्र उन्हें छेदी छेदी कहने लग गए। अब सूराखअली बेचारे बड़े परेशान। वे इतने परेशान हुए कि अपना नाम ही बदल डालने का निश्चय कर लिया। पहुँच गए पण्डित जी के पास नाम बदलवाने के लिए (मौलवी जी के पास इसलिए नहीं गए क्योंकि मौलवी साहब ने ही तो उनका नाम सूराखअली रखा था)। पण्डित जी ने ज्योतिष की गणना की और बोले भाई हमारी गणना के अनुसार तो तुम्हारा नाम गड्ढासिंह बनता है। बेचारे सूराखअली की परेशानी और बढ़ गई मौलवी जी ने छेद ही बनाया था अब ये पण्डित जी तो छेदा से गड्ढा बना दे रहे हैं। अब क्या करें? सोचा, चलो पादरी से नाम बदलवा लेते हैं और पहुँच गए चर्च के फादर के पास। पादरी ने भी अपना हिसाब किताब लगाया और कहा, "डियर सन, हम तुम्हारा नाम Mr. Hole रख देते हैं।"
ब्लोगवाणी में अपने ही ब्लोग को क्लिकिया क्लिकिया कर 'आज अधिक पसंद प्राप्त' और 'आज अधिक पढ़े गये' वाली संख्याओं को बढ़ा देने से क्या ब्लोग पॉपुलर हो जाता है? नहीं होता भइया, इतना तो समझना चाहिए कि पीतल पर सोने का पानी चढ़ा देने से पीतल सोना नहीं हो जाता। वो कहते हैं ना "हर जो चीज चमकती है उसको सोना नहीं कहते"।
मैं अपने पाठकों से पूछना चाहता हूँ कि क्या किसी के दिखावे का हिन्दू बन जाने से उसकी कद्र बढ़ जायेगी?
हाँ यदि कोई सच्चा मुसलमान बनके दिखायेगा तो जरूर उसकी कद्र होने लगेगी।
क्यों ठीक कह रहा हूँ ना बन्धुओं?
चलते-चलते
सूराखअली के मित्रों को किसी ने बता दिया कि सूराख का मतलब छेद होता है। बस फिर क्या था सारे मित्र उन्हें छेदी छेदी कहने लग गए। अब सूराखअली बेचारे बड़े परेशान। वे इतने परेशान हुए कि अपना नाम ही बदल डालने का निश्चय कर लिया। पहुँच गए पण्डित जी के पास नाम बदलवाने के लिए (मौलवी जी के पास इसलिए नहीं गए क्योंकि मौलवी साहब ने ही तो उनका नाम सूराखअली रखा था)। पण्डित जी ने ज्योतिष की गणना की और बोले भाई हमारी गणना के अनुसार तो तुम्हारा नाम गड्ढासिंह बनता है। बेचारे सूराखअली की परेशानी और बढ़ गई मौलवी जी ने छेद ही बनाया था अब ये पण्डित जी तो छेदा से गड्ढा बना दे रहे हैं। अब क्या करें? सोचा, चलो पादरी से नाम बदलवा लेते हैं और पहुँच गए चर्च के फादर के पास। पादरी ने भी अपना हिसाब किताब लगाया और कहा, "डियर सन, हम तुम्हारा नाम Mr. Hole रख देते हैं।"
Wednesday, September 16, 2009
वन्दे ईश्वररम् क्यों? वन्दे मातरम् क्यों नहीं?
टिप्पणियों का सहारा लेकर प्रचार किया जा रहा है वन्दे ईश्वरम् का। क्या करें जमाना प्रचार और विज्ञापन का है। अब चाहे टीव्ही हो या नेट, जबरन के प्रचार और विज्ञापन को हमें झेलना ही पड़ता है। पर मैं पूछता हूँ कि आखिर वन्दे ईश्वररम् क्यों? वन्दे मातरम् क्यों नहीं?
किसी की भी वन्दना करने के लिए, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, सबसे पहले वन्दना करने वाले का अस्तित्व का होना आवश्यक है। यदि अस्तित्व ही नहीं है तो वन्दना कौन करेगा? अब अस्तित्व तो हमें माता ही प्रदान करती है ना? यदि मान भी लिया जाए कि हमारा अस्तित्व ईश्वर के कारण है तो यह भी मानना पड़ेगा कि हमें अस्तित्व प्रदान करने के लिए ईश्वर प्रत्यक्ष तो आता नहीं, माता के रूप में ही वह आकर हमें अस्तित्व प्रदान करता है। तो फिर वन्दे ईश्वररम् क्यों? वन्दे मातरम् क्यों नहीं?
जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं तो स्वयमेव ही ईश्वर की वन्दना हो जाती है।
और जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं तो अपने आप ही तीन-तीन माताओं की वन्दना हो जाती है। पहली माता 'हमें जन्म देने वाली माता'। यह जन्म देने वाली माता हमारे लिए पूजनीय है। यह माता हमें जीते जी तो अपने गोद में खिलाती है किन्तु मरणोपरान्त यह हमें अपने गोद में नहीं रख सकती। उस समय हमारी दूसरी माता, 'धरती माता', 'हमारी जननी जन्मभूमि माता', आती है हमें अपने गोद में लेने के लिए। वह भी हमारे लिए पूजनीय है और वन्दे मातरम् कहते ही उस माता की भी वन्दना हो जाती है। एक और माता है हमारी, वह है मातृभाषा माता। यदि यह माता न हो तो हम अपनी वन्दना को कभी भी अभिव्यक्त न कर सकें। न वन्दे ईश्वरम् कह सकें और न ही वन्दे मातरम्। तो वन्दे मातरम् कहने से मातृभाषा माता की भी अपने आप ही वन्दना हो जाती है। हमने ईश्वर को कभी देखा ही नहीं है तो क्यों कहें हम वन्दे ईश्वरम्? हम तो वन्दे मातरम् ही कहेंगे क्योंकि हमारे लिए तो माता ही ईश्वर है।
माता की वन्दना के साथ ही साथ हम एक और अत्यावश्यक वन्दना करेंगे, गुरु की वन्दना। यदि गुरु ने हमें ज्ञान नहीं दिया होता तो हम कैसे जान पाते कि ईश्वर है। इसीलिए कहा गया हैः
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय॥
हमारे लिए तो जैसे माता ईश्वर है वैसे ही गुरु भी ईश्वर है। हम तो यही मानते हैं किः
गुरूर्बह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः॥
जिसे भी ईश्वर वन्दना करना है वो करता रहे। हम तो माता और गुरु की ही वन्दना करेंगे क्योंकि हमने उन्हें देखा ही नहीं बल्कि उनका सानिध्य भी पाया है। और वास्तविकता तो यह है कि ईश्वर अपनी वन्दना से प्रसन्न नहीं होता बल्कि प्रसन्न होता है माता और गुरु की वन्दना से।
किसी की भी वन्दना करने के लिए, चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, सबसे पहले वन्दना करने वाले का अस्तित्व का होना आवश्यक है। यदि अस्तित्व ही नहीं है तो वन्दना कौन करेगा? अब अस्तित्व तो हमें माता ही प्रदान करती है ना? यदि मान भी लिया जाए कि हमारा अस्तित्व ईश्वर के कारण है तो यह भी मानना पड़ेगा कि हमें अस्तित्व प्रदान करने के लिए ईश्वर प्रत्यक्ष तो आता नहीं, माता के रूप में ही वह आकर हमें अस्तित्व प्रदान करता है। तो फिर वन्दे ईश्वररम् क्यों? वन्दे मातरम् क्यों नहीं?
जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं तो स्वयमेव ही ईश्वर की वन्दना हो जाती है।
और जब हम वन्दे मातरम् कहते हैं तो अपने आप ही तीन-तीन माताओं की वन्दना हो जाती है। पहली माता 'हमें जन्म देने वाली माता'। यह जन्म देने वाली माता हमारे लिए पूजनीय है। यह माता हमें जीते जी तो अपने गोद में खिलाती है किन्तु मरणोपरान्त यह हमें अपने गोद में नहीं रख सकती। उस समय हमारी दूसरी माता, 'धरती माता', 'हमारी जननी जन्मभूमि माता', आती है हमें अपने गोद में लेने के लिए। वह भी हमारे लिए पूजनीय है और वन्दे मातरम् कहते ही उस माता की भी वन्दना हो जाती है। एक और माता है हमारी, वह है मातृभाषा माता। यदि यह माता न हो तो हम अपनी वन्दना को कभी भी अभिव्यक्त न कर सकें। न वन्दे ईश्वरम् कह सकें और न ही वन्दे मातरम्। तो वन्दे मातरम् कहने से मातृभाषा माता की भी अपने आप ही वन्दना हो जाती है। हमने ईश्वर को कभी देखा ही नहीं है तो क्यों कहें हम वन्दे ईश्वरम्? हम तो वन्दे मातरम् ही कहेंगे क्योंकि हमारे लिए तो माता ही ईश्वर है।
माता की वन्दना के साथ ही साथ हम एक और अत्यावश्यक वन्दना करेंगे, गुरु की वन्दना। यदि गुरु ने हमें ज्ञान नहीं दिया होता तो हम कैसे जान पाते कि ईश्वर है। इसीलिए कहा गया हैः
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूँ पाय।
बलिहारी गुरु आपकी गोविन्द दियो बताय॥
हमारे लिए तो जैसे माता ईश्वर है वैसे ही गुरु भी ईश्वर है। हम तो यही मानते हैं किः
गुरूर्बह्मा गुरूर्विष्णु गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवै नमः॥
जिसे भी ईश्वर वन्दना करना है वो करता रहे। हम तो माता और गुरु की ही वन्दना करेंगे क्योंकि हमने उन्हें देखा ही नहीं बल्कि उनका सानिध्य भी पाया है। और वास्तविकता तो यह है कि ईश्वर अपनी वन्दना से प्रसन्न नहीं होता बल्कि प्रसन्न होता है माता और गुरु की वन्दना से।
Tuesday, September 15, 2009
वो लेख लेख ही क्या जिसे कोई समझ ले
अब आप पूछेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? भाई अभी अभी हमने एक लेख पढ़ा है ऐसा ही। शीर्षक में मुसलमानों से प्रश्न किया गया है कि एक से अधिक पत्नी रखने की अनुमति क्यों है? अब क्या कहें, इस शीर्षक ने हमारा ध्यान खींच लिया। सोचा चलो इस विषय में कुछ जानकारी बढ़ेगी। फिर जब बॉडी में पहुँचे तो पता चला कि मुसलमान इस प्रश्न का उत्तर दे ही नहीं पाते क्योंकि उन्हें खुद ही पता नहीं है। फिर विद्वान लेखक ने बताया कि कुरआन में निर्देश दिया है कि सिर्फ एक ही शादी करो। अब हमने खुद से प्रश्न किया कि इतना पढ़ कर हम क्या समझे? तीन शादी की अनुमति है या सिर्फ़ एक शादी की? बहुत सोचा पर कोई भी उत्तर नहीं सूझा, ठीक वैसे ही जैसे कि लेखक के अनुसार मुसलमान नहीं बता सकते कि तीन शादियों की अनुमति क्यों है।
अब आगे पढ़ा तो पता चला कि दशरथ और कृष्ण की कई बीबियाँ थीं। हम फिर एक बार चकराये कि आखिर ये मामला क्या है। बात तो मुसलमानों की शादी की हो रही थी अब मुसलमानों के बीच दशरथ और कृष्ण कहाँ से घुस आए? कुछ और आगे जाने पर पता चला कि लेख में ईसाई, पादरी, यहूदी, वेद, रामायण, गीता, तलगुद, बाइबिल आदि का भी पदार्पण हो गया है। (मन में एक शंका भी उठी कि कहीं इन सभी की कोई साजिश तो नही है तीन शादी की अनुमति के पीछे?) इन सभी के आगमन के पश्चात् भी अभी तक पता नहीं चल पाया कि आखिर तीन शादियों की इज़ाज़त क्यों है?
खैर साहब, अब हम और आगे बढ़े तो यह पता चला कि कुरआन के अनुसार "बहु-विवाह कोई आदेश नहीं बल्कि एक अपवाद है।" अब फिर हम कनफ्यूजिया गए। लेख के शीर्षक से तो लगता है कि यह तो पता है कि तीन शादियों की अनुमति है पर क्यों है यह नहीं पता। पर यहाँ तक पढ़ने पर पता चला कि अनुमति तो है ही नहीं। अब बताइए कि हम क्या समझें?
अब कहाँ तक बताएँ साहब, लेख तो ज्ञान का विशुद्ध खजाना था क्योंकि उसमें अलग अलग देशों में स्त्री पुरुषों का अनुपात, किस देश में कितने विवाहित हैं और कितने अविवाहित और भी बहुत सारी ऐसी ही बातों की जानकारी दी गई थी। फिर अन्त में बताया गया था कि औरत के सम्मान और उसकी रक्षा के लिये अनुमति दी गई है। अब तो साहब दिमाग भन्ना गया। भला कैसे नहीं भन्नायेगा, कुछ ही देर पहले तो इसी लेख में पढ़ा था कि कुरआन सिर्फ एक ही शादी की अनुमति देता है और अब आखरी में फिर पढ़ रहे हैं कि इस्लाम एक से अधिक शादी की अनुमति देता है।
याने कि इस्लाम तो तीन शादी कि इजाजत देता है पर कुरआन सिर्फ़ एक ही शादी कि अनुमति देता है।
भाई मैं तो कुछ समझ नहीं पाया, यदि आप लोगों में से किसी को समझ में आ पाये तो हमें भी समझाने की कृपा करना। पर यह अनुरोध आप लोगों से ही है उस लेखक से नहीं क्योंकि यदि कहीं वह समझाने आ जायेगा तब तो मैं पूरा पागल हो जाउँगा।
खैर इतना तो समझ में आ गया कि पढ़ कर समझ में आ जाए तो वो कोई लेख नहीं होता। लेख उसी को कहते हैं जिसका शीर्षक कुछ कहे, बॉडी कुछ और कहे, शीर्षक पढ़ कर विषय कुछ लगे, बॉडी बॉडी पढ़ कर कुछ और। याने कि सब कुछ एकदम गड्ड मड्ड और गोल गोल हो। भला वो लेख भी कोई लेख है जिसे पढ़ने वाला समझ ले? लिखना ही है तो ऐसा लिखो कि पढ़ने वाला सिर धुनने लगे।
चलते चलते
एक एजेंट (कोई प्रचारक मत समझ लेना भाई) एक सज्जन के पास फिर आ धमका। वो उस सज्जन के पास पहले इतने बार आ चुका था कि उन्हें उसकी सूरत देखते ही खुन्दक आ जाती थी। पिछली बार यह कह कर उसे भगाया था कि अब तू मेरे पास फिर कभी मत आना।
तो इस बार उस एजेंट के आते ही चीख पड़े, "तू फिर आ गया लसूढ़े।"
एजेंट भी तैश में आ गया और बोला, "शर्म आनी चाहिए आपको जो मुझे लसूढ़ा कह रहे हैं। आज तक कितने ही लोगों ने मुझे गरियाया है, धकियाया है, यहाँ तक कि धक्के दे कर बाहर भी फिंकवा दिया है पर किसी ने भी लसूढ़ा नहीं कहा। आपको मुझसे माफी मांगना चाहिए।"
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आज ही का एक और लेख - ब्लोगवाणी से अनुरोध
अब आगे पढ़ा तो पता चला कि दशरथ और कृष्ण की कई बीबियाँ थीं। हम फिर एक बार चकराये कि आखिर ये मामला क्या है। बात तो मुसलमानों की शादी की हो रही थी अब मुसलमानों के बीच दशरथ और कृष्ण कहाँ से घुस आए? कुछ और आगे जाने पर पता चला कि लेख में ईसाई, पादरी, यहूदी, वेद, रामायण, गीता, तलगुद, बाइबिल आदि का भी पदार्पण हो गया है। (मन में एक शंका भी उठी कि कहीं इन सभी की कोई साजिश तो नही है तीन शादी की अनुमति के पीछे?) इन सभी के आगमन के पश्चात् भी अभी तक पता नहीं चल पाया कि आखिर तीन शादियों की इज़ाज़त क्यों है?
खैर साहब, अब हम और आगे बढ़े तो यह पता चला कि कुरआन के अनुसार "बहु-विवाह कोई आदेश नहीं बल्कि एक अपवाद है।" अब फिर हम कनफ्यूजिया गए। लेख के शीर्षक से तो लगता है कि यह तो पता है कि तीन शादियों की अनुमति है पर क्यों है यह नहीं पता। पर यहाँ तक पढ़ने पर पता चला कि अनुमति तो है ही नहीं। अब बताइए कि हम क्या समझें?
अब कहाँ तक बताएँ साहब, लेख तो ज्ञान का विशुद्ध खजाना था क्योंकि उसमें अलग अलग देशों में स्त्री पुरुषों का अनुपात, किस देश में कितने विवाहित हैं और कितने अविवाहित और भी बहुत सारी ऐसी ही बातों की जानकारी दी गई थी। फिर अन्त में बताया गया था कि औरत के सम्मान और उसकी रक्षा के लिये अनुमति दी गई है। अब तो साहब दिमाग भन्ना गया। भला कैसे नहीं भन्नायेगा, कुछ ही देर पहले तो इसी लेख में पढ़ा था कि कुरआन सिर्फ एक ही शादी की अनुमति देता है और अब आखरी में फिर पढ़ रहे हैं कि इस्लाम एक से अधिक शादी की अनुमति देता है।
याने कि इस्लाम तो तीन शादी कि इजाजत देता है पर कुरआन सिर्फ़ एक ही शादी कि अनुमति देता है।
भाई मैं तो कुछ समझ नहीं पाया, यदि आप लोगों में से किसी को समझ में आ पाये तो हमें भी समझाने की कृपा करना। पर यह अनुरोध आप लोगों से ही है उस लेखक से नहीं क्योंकि यदि कहीं वह समझाने आ जायेगा तब तो मैं पूरा पागल हो जाउँगा।
खैर इतना तो समझ में आ गया कि पढ़ कर समझ में आ जाए तो वो कोई लेख नहीं होता। लेख उसी को कहते हैं जिसका शीर्षक कुछ कहे, बॉडी कुछ और कहे, शीर्षक पढ़ कर विषय कुछ लगे, बॉडी बॉडी पढ़ कर कुछ और। याने कि सब कुछ एकदम गड्ड मड्ड और गोल गोल हो। भला वो लेख भी कोई लेख है जिसे पढ़ने वाला समझ ले? लिखना ही है तो ऐसा लिखो कि पढ़ने वाला सिर धुनने लगे।
चलते चलते
एक एजेंट (कोई प्रचारक मत समझ लेना भाई) एक सज्जन के पास फिर आ धमका। वो उस सज्जन के पास पहले इतने बार आ चुका था कि उन्हें उसकी सूरत देखते ही खुन्दक आ जाती थी। पिछली बार यह कह कर उसे भगाया था कि अब तू मेरे पास फिर कभी मत आना।
तो इस बार उस एजेंट के आते ही चीख पड़े, "तू फिर आ गया लसूढ़े।"
एजेंट भी तैश में आ गया और बोला, "शर्म आनी चाहिए आपको जो मुझे लसूढ़ा कह रहे हैं। आज तक कितने ही लोगों ने मुझे गरियाया है, धकियाया है, यहाँ तक कि धक्के दे कर बाहर भी फिंकवा दिया है पर किसी ने भी लसूढ़ा नहीं कहा। आपको मुझसे माफी मांगना चाहिए।"
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आज ही का एक और लेख - ब्लोगवाणी से अनुरोध
ब्लोगवाणी से अनुरोध
ब्लोगवाणी में एक बटन होता है पसंद वाला। याने कि यदि आपको किसी का लेख पसंद आया है तो आप इस बटन को क्लिक कर के बता सकते हैं कि आपने इस लेख को पसंद किया है। बड़े काम का है ये बटन! यह बटन बताता है कि किस लेख को कितने अधिक लोगों ने पसंद किया। अधिक पसंद पाकर ब्लोगर अधिक उत्साहित होता है और उसकी 'कुछ और अच्छा' लिखने की धुन बढ़ जाती है।
बहुत से लोग तो ब्लोगवाणी के हाशिये में अधिक पसंद किया गया देख कर ही लेख पढ़ जाते हैं। इसका मतलब है कि यह पसंद बटन अच्छे लेखों को आगे की ओर ठेलता है।
अब मैं आता हूँ असली बात पर। मैंने महसूस किया है कि इस अच्छे उद्देश्य वाले बटन का गलत प्रयोग भी किया जा सकता है और कहीं कहीं किया भी जा रहा है। भला कौन ब्लोगर नहीं चाहेगा कि उसे अधिक से अधिक पसंद मिले। उदाहरण के लिए मैं ही ब्लोगवाणी पर अपने लेख के आगे के पसंद बटन को कुछ कुछ अन्तराल में चटका देता हूँ। इस तरह से मेरे पोस्ट की पसंद संख्या बढ़ते जाती है और मेरा पोस्ट हाशिये में ऊपर बढ़ते जाता है।
तो मेरा ब्लोगवाणी वालों से एक अनुरोध है कि वे कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि किसी भी कम्प्यूटर से पसंद वाली बटन में प्रत्येक 24 घंटे में सिर्फ एक बार ही चटका लगाया जा सके। एक से अधिक बार चटका लगाये जाने पर पसंद की संख्या न बढ़ पाये।
बहुत से लोग तो ब्लोगवाणी के हाशिये में अधिक पसंद किया गया देख कर ही लेख पढ़ जाते हैं। इसका मतलब है कि यह पसंद बटन अच्छे लेखों को आगे की ओर ठेलता है।
अब मैं आता हूँ असली बात पर। मैंने महसूस किया है कि इस अच्छे उद्देश्य वाले बटन का गलत प्रयोग भी किया जा सकता है और कहीं कहीं किया भी जा रहा है। भला कौन ब्लोगर नहीं चाहेगा कि उसे अधिक से अधिक पसंद मिले। उदाहरण के लिए मैं ही ब्लोगवाणी पर अपने लेख के आगे के पसंद बटन को कुछ कुछ अन्तराल में चटका देता हूँ। इस तरह से मेरे पोस्ट की पसंद संख्या बढ़ते जाती है और मेरा पोस्ट हाशिये में ऊपर बढ़ते जाता है।
तो मेरा ब्लोगवाणी वालों से एक अनुरोध है कि वे कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि किसी भी कम्प्यूटर से पसंद वाली बटन में प्रत्येक 24 घंटे में सिर्फ एक बार ही चटका लगाया जा सके। एक से अधिक बार चटका लगाये जाने पर पसंद की संख्या न बढ़ पाये।
Monday, September 14, 2009
पप्पू ने छुए पैर माता पिता के
पप्पू अपने तीन चार मित्रों के साथ हमारे पास आकर बोला, "अंकल जी, आप हमें कुछ हिन्दी पढ़ाया कीजिए ना।"
हम खुश हुए कि चलो अपने मातृभाषा के प्रति बच्चों में रूचि तो जाग रही है। पढ़ाने के लिए तत्काल राजी हो गए और बोले, "ठीक है, कल से हम रोज सुबह आठ बजे से तुम लोगों को पढ़ाया करेंगे।" फिर सोचा चलो लगे हाथ हिन्दी के साथ ही साथ थोड़ी सी संस्कार की भी शिक्षा दे दें इसलिए यह भी जोड़ दिया, "पर तुम लोगों को रोज सुबह अपने माता पिता के पैर छूने होंगे।"
दूसरे दिन सुबह आठ बजे सभी पहुँच गए हमारे पास। हमने पूछा, "क्यों पैर छुए तुम लोगों ने अपने माता पिता के?"
कुछ बच्चों ने कहा कि वे भूल गए और कुछ ने नजरें नीची कर लीं पर पप्पू ने अकड़ते हुए कहा, "हाँ अंकल जी, मैंने छुए हैं पैर अपनी मम्मी पापा के।"
" तब तो वे बहुत खुश हुए होंगे।" हम भी खुश हो कर बोले।
"उन्हें पता ही कहाँ चला अंकल जी, मैं तो मुँह अंधेरे ही उठ गया था और जब मम्मी पापा सो रहे थे तभी चुपके से पैर छू लिए उनके। अब आप ही सोचिए कि यदि वे देख लेते तो मुझे कितना इंसल्टिंग फील होता?"
चलते चलते
एक आदमी दौड़ा जा रहा था और दूसरा उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग रहा था। लोगों को जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर मामला क्या है। पहला आदमी तो आगे निकल गया पर दूसरे को लोगों ने पकड़ लिया और पूछा कि क्या मामला है। उसने कहा कि कुछ नहीं आपस का मामला है। पर लोगों की उत्सुकता शान्त नहीं हुई। बोले जब तक सच्ची बात नहीं बताएगा हम तुझे छोड़ेंगे नहीं। हार कर उसने बताया, "स्साला, अपनी पोस्ट पढ़वा लिया और मेरी पोस्ट पढ़ने की बारी आई तो भाग रहा है।"
हम खुश हुए कि चलो अपने मातृभाषा के प्रति बच्चों में रूचि तो जाग रही है। पढ़ाने के लिए तत्काल राजी हो गए और बोले, "ठीक है, कल से हम रोज सुबह आठ बजे से तुम लोगों को पढ़ाया करेंगे।" फिर सोचा चलो लगे हाथ हिन्दी के साथ ही साथ थोड़ी सी संस्कार की भी शिक्षा दे दें इसलिए यह भी जोड़ दिया, "पर तुम लोगों को रोज सुबह अपने माता पिता के पैर छूने होंगे।"
दूसरे दिन सुबह आठ बजे सभी पहुँच गए हमारे पास। हमने पूछा, "क्यों पैर छुए तुम लोगों ने अपने माता पिता के?"
कुछ बच्चों ने कहा कि वे भूल गए और कुछ ने नजरें नीची कर लीं पर पप्पू ने अकड़ते हुए कहा, "हाँ अंकल जी, मैंने छुए हैं पैर अपनी मम्मी पापा के।"
" तब तो वे बहुत खुश हुए होंगे।" हम भी खुश हो कर बोले।
"उन्हें पता ही कहाँ चला अंकल जी, मैं तो मुँह अंधेरे ही उठ गया था और जब मम्मी पापा सो रहे थे तभी चुपके से पैर छू लिए उनके। अब आप ही सोचिए कि यदि वे देख लेते तो मुझे कितना इंसल्टिंग फील होता?"
चलते चलते
एक आदमी दौड़ा जा रहा था और दूसरा उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भाग रहा था। लोगों को जानने की उत्सुकता हुई कि आखिर मामला क्या है। पहला आदमी तो आगे निकल गया पर दूसरे को लोगों ने पकड़ लिया और पूछा कि क्या मामला है। उसने कहा कि कुछ नहीं आपस का मामला है। पर लोगों की उत्सुकता शान्त नहीं हुई। बोले जब तक सच्ची बात नहीं बताएगा हम तुझे छोड़ेंगे नहीं। हार कर उसने बताया, "स्साला, अपनी पोस्ट पढ़वा लिया और मेरी पोस्ट पढ़ने की बारी आई तो भाग रहा है।"
Sunday, September 13, 2009
प्रसिद्ध रमणीक स्थल
आइये निहारें शोभा विश्व के इन प्रसिद्ध रमणीक स्थलों की!
खो जाएँ प्रकृति के सौन्दर्य में!!
भूल जाएँ चिन्ता, फिकर, वैमनष्य आदि को!!!
खो जाएँ प्रकृति के सौन्दर्य में!!
भूल जाएँ चिन्ता, फिकर, वैमनष्य आदि को!!!
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