अन्ना हजारे की एक हुँकार पर आबालवृद्ध जनों का एकसूत्र में बँध जाना सिद्ध करता है कि देश की समस्त जनता देश से भ्रष्टाचार का सफाया चाहती है। अन्ना के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अनशन के परिणामस्वरूप जनता की एकसूत्रता से घबराकर देश की अड़ियल सरकार को झुकने के लिए विवश होकर टीम अन्ना के साथ बातचीत करनी तो पड़ी किन्तु तीन मुद्दों पर मामला फिर लटक गया और इस बाबत सभी दलों से राय लेने के लिए प्रधान मन्त्री को सर्वदलीय बैठक बुलानी पड़ी। देश के लोगों की उम्मीद बँधी कि सर्वदलीय बैठक के बाद मामला सुलझेगा किन्तु बैठक के बाद सरकार अपने द्वारा पहले मान ली गई बातों से भी पलट गई और जनता की आशाओं पर तुषारापात हो गया। अब स्वाभाविक रूप से सवाल यह उठता है कि आखिर उस बैठक में क्या हुआ जिससे सरकार अपनी बातों से पलट गई? वास्तव में इस बैठक ने सरकार के इस अनुमान को सच साबित कर दिया कि कोई भी सांसद नहीं चाहता कि संसद की सर्वोच्चता समाप्त हो। सभी जानते हैं कि संसद की इस सर्वोच्चता के कारण ही जीप घोटाला से लेकर, जो कि स्वतन्त्र भारत के प्रथम ज्ञात घोटाला है, 2G स्पैक्ट्रम घोटाला जैसे बड़े-बड़े घोटाले करने वालों में से आजतक किसी एक भी सजा नहीं मिली, उल्टे अधिकांश घोटाले करने वालों को और भी ऊँचे पदों पर बिठा दिया गया।
सर्वोच्च बने रहने वाला यह संसद आखिर है कौन? यह है जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों अर्थात् सांसदों का जमावड़ा, जो कि सर्वोच्च होने के कारण मनमाने रूप से कुछ भी फैसला कर सकता है, घोटाले करने वालों को और भी ऊँचे पदों पर बिठा सकता है, सांसदों को मात्र कुछ साल के कार्य करने के बदले जीवनपर्यन्त पेन्शन दिला सकता है, उनके वेतन तथा भत्तों में कभी भी 200% तक वृद्धि करवा सकता है, कहने का मतलब यह कि कुछ भी मनमानी कर सकता है। संसद की इस मनमानी पर देश की जनता कुछ भी नहीं कर सकती। जो संसद करे वह जनता को, उस जनता को जिसने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद को बनाया है, मानना ही पड़ता है। संसद के बनने तक जनता सर्वोच्च रहती है, जनता के प्रतिनिधि बनने वाले उम्मीदवार जनता के समक्ष आकर वोट की भीख तक माँगते हैं। यदि जनता उन्हें वोट देकर अपना प्रतिनिधि न बनाए तो कभी भी संसद का निर्माण न हो सके। किन्तु एक बार संसद बन जाने के बाद जनता की सर्वोपरिता समाप्त हो जाता है और संसद सर्वोच्च हो जाता है और जनता को उसके नियन्त्रण में आ जाना पड़ता है। जनतारूपी शिव भस्मासुर रूपी संसद को किसी को भी, यहाँ तक कि स्वयं शिव को भी, भस्म कर देने का वरदान दे देते हैं। ऐसे में भला कौन सांसद चाहेगा कि संसद की सर्वोच्चता समाप्त हो जाए? संसद की सर्वोच्चता खत्म हो जाने पर तो देश की जनता ही सर्वोपरि हो जाएगी, जनता का अधिकार एक सांसद के अधिकार से अधिक हो जाएगा। और यही तो सांसद नहीं चाहते। वे संसद को ही सर्वोच्च देखना चाहते हैं। वे भ्रष्टाचार को रोकना नहीं चाहते उल्टे उसे पनपते तथा फलते-फूलते देखना चाहते हैं। सांसदों के इस निश्चय से देश की अड़ियल सरकार, जो अन्ना के आन्दोलन से विवश होकर झुकी थी, को सर्वदलीय बैठक के बाद, सभी सांसदों का साथ मिल जाने से, एक नई ताकत मिल गई और वह अपने वादों से पलट गई तथा फिर से अपने अड़ियल रुख पर आ गई।
मूलतः विज्ञान का विद्यार्थी होने तथा राजनीति में कभी भी बहुत अधिक रुचि न होने के कारण मुझे राजनीति, संविधान आदि के विषय में बहुत अधिक जानकारी नहीं है। किन्तु मुझे लगता है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अंग्रेजों के बनाए गए संविधान को जैसे का तैसा या थोड़ा बहुत फेरबदल करके अपना लेना ही संसद की सर्वोच्चता का कारण हो सकता है। अंग्रेजों के लिए राजा ही सर्वोच्च था, स्वतन्त्र भारत में राजा का स्थान संसद ने ले लिया इसलिए वह सर्वोच्च हो गया। भारत में अत्यन्त प्राचीन काल में राजन्त्र था किन्तु उन दिनों की राजनीति भी प्रजा को ही सर्वोपरि मानने की थी। यही कारण है कि राम प्रजा की भावनाओं का ध्यान रखते हुए तथा प्रजा को सर्वोपरि मानते हुए अपनी धर्मपत्नी सीता तक का भी त्याग कर दिया। महान राजनीतिज्ञ चाणक्य ने प्रजा और राज्य को ही सर्वोपरि बताया है। चाणक्य सूत्र में वे लिखते हैं - 'प्रकृतिकोपः सर्वकोपेभ्यो गरीयान्' अर्थात् राज्य के विरुद्ध प्रजा का कोप समस्त प्रकार के कोपों से भारी होता है। याने कि प्रजा अर्थात् जनता ही सर्वोपरि है। यहाँ पर यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि नन्द वंश के अत्याचारी राजाओं का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को उनके राजसिंहासन पर आरूढ़ित कर उन्हें भारत का सम्राट बनाने वाले महान राजनीतिज्ञ चाणक्य नगर के बाहर पर्णकुटी में निवास करते थे। उन्हें साधारण सी कुटिया में रहते देखकर चीनी यात्री फाह्यान ने उनसे पूछा था, "इतने विशाल साम्राज्य के प्रधान मन्त्री होने पर भी आप इस छोटी सी कुटिया में क्यों निवास करते हैं?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में चाणक्य ने कहा था, "जिस देश का प्रधान मन्त्री छोटी सी कुटिया में निवास करता है उस देश की प्रजा भव्य भवनों में निवास करती है और जिस देश का प्रधान मन्त्री राज-प्रासादों में निवास करता है वहाँ के प्रजाजन झोपड़ियों में निवास करते हैं।"
अस्तु, वर्तमान संविधान को बनाते समय यदि भारत की संस्कृति तथा 'जनता को ही सर्वोपरि मानने वाली' नीति को ध्यान में रखा गया होता तो संसद को कदापि सर्वोच्च स्थान नहीं दिया गया होता।
Friday, August 26, 2011
Monday, August 22, 2011
नवभ्रष्ट लोचन भ्रष्ट मुख कर भ्रष्ट पद भ्रष्टारुणम्
15 अगस्त 1947 के दिन, जब राष्ट्र ने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर स्वतन्त्रता का हार पहना था, शायद ही देश के किसी व्यक्ति ने कल्पना की रही होगी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब भ्रष्टाचार का भस्मासुर इस देश को भस्म कर देने के लिए आमादा हो जाएगा। उस समय तो उनकी कल्पना में भविष्य का भारत एक खुशहाल भारत ही रहा होगा, न कि भ्रष्टाचार और मँहगाई से त्रस्त भारत। उस समय उन्होंने सोचा तक न रहा होगा कि जिस प्रकार से उनके जमाने में अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध प्रदर्शन के लिए लोगों के हुजूम उमड़ पड़ते थे वैसे ही एक दिन ऐसा भी आएगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध प्रदर्शन के लिए न केवल दिल्ली के रामलीला मैदान में 1.25 लाख लोग इकट्ठे हो जाएँगे बल्कि देश के हर हिस्से में लोगों का सैलाब उमड़ पड़ेगा।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र की बागडोर यदि सच्चे, कर्मठ और ईमानदार जननायकों के हाथ में गई होती तो निश्चित रूप से इस देश में रामराज्य की कल्पना साकार हो गई होती किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया और इस देश को भ्रष्टाचार का एक ऐसा घाव लगा जो कि आज नासूर बन चुका है। आइये देखें कि 1947 के बाद कौन-कौन से प्रमुख घोटाले हुए जिसके कारण आज यह स्थिति बनी हैः
1948
जीप घोटाला
काश्मीर ऑपरेशन के लिए भारतीय सेना को जीपों की आवश्यकता होने पर व्ही.के. कृष्णा मेनन, जो कि उस समय लंदन में भारत के हाई कमिश्नर पद पर थे, ने समस्त नियमों को ताक पर रखकर एक विदेशी कंपनी को क्रय आदेश दिया था। कहा जाता है कि फर्म को 2,000 जीपों के लिए क्रय आदेश दिया गया था जिसके लिए अधिकतम राशि का अग्रिम भुगतान भी कर दिया गया किन्तु कम्पनी ने मात्र 155 जीपें ही प्रदाय की थी। विपक्ष के द्वारा प्रकरण के न्यायिक जाँच के अनुरोध को रद्द करके अनन्तसायनम अयंगर के नेतृत्व में एक जाँच कमेटी बिठा दी गई। बाद में 30 सितम्बर 1955 सरकार ने जाँच प्रकरण को समाप्त कर दिया। यूनियन मिनिस्टर जी.बी. पन्त ने घोषित किया, "सरकार इस मामले को समाप्त करने का निश्चय कर चुकी है। यदि विपक्षी सन्तुष्ट नहीं हैं तो इसे चुनाव का विवाद बना सकते हैं।" 3 फरवरी1956 के बाद शीघ्र ही कृष्णा मेनन को नेहरू केबिनेट में बगैर किसी पोर्टफोलियो का मन्त्री नियुक्त कर दिया गया।
1950
भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित सिविल सर्व्हेंट ए.डी. गोरवाला को शासन संचालन में सुधार के लिए अपनी सिफारिशें
देने के लिए कहा गया। 1951 में उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में अन्य अनेक अवलोकनों के साथ निम्न दो अवलोकन भी थे -
"नेहरू के मन्त्रिमण्डल में कुछ मन्त्री भ्रष्ट थे और इस बात की जानकारी प्रायः सभी को थी।"
"एक अत्यन्त जिम्मेदार सिविल सर्व्हेंट के आफिसियल रिपोर्ट में उल्लेख है कि सरकार अपने मन्त्रियों को बचाने के लिए गलत रास्ते अपनाती है"
(Report on Public Administration, Planning Commission, Government of India 1951 से उद्धृत)
1958
एल.आई.सी. स्कैन्डल
इन्दिरा गांधी के पति फीरोज गांधी ने इस घोटाले को खोला था और वित्त मन्त्री टी.टी. कृष्ण्माचारी, वित्त सचिव एच.एम. पटेल, जीवन बीमा निगम के चेयरमैन एल.एस. वैद्यनाथन आदि के नाम इस घोटाले के साथ जोड़े थे।
उल्लेखनीय है कि मुद्गल प्रकरण (1951), मूंदड़ा डील्स (1963), मालवीय-सिराजुद्दीन घोटाला (1963) और प्रताप सिंह कैरोन प्रकरण (1963) के लिए कांग्रेस के मन्त्रियों तथा मुख्य मन्त्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे किन्तु किसी भी मन्त्री, मुख्य मन्त्री तथा प्रधान मन्त्री ने इस्तीफा नहीं दिया।
भारत सरकार ने भ्रष्टाचार मामलों की जाँच के लिए 1962 में शान्तनम कमेटी का गठन किया था जिसके द्वारा 1964 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, "लोगों में व्यापक रूप से यह धारणा पाई जाती है कि मन्त्रियों में सत्यनिष्ठा की कमी कोई असामान्य बात नहीं है और पिछले सोलह सालों में कुछ मन्त्रियों ने गैरकानूनी तौर पर बहुत सारा धन कमाने, अपने पुत्रों तथा रिश्तेदारों को भाईभतीजावाद द्वारा अच्छा जॉब दिलवाने और सार्वजनिक जीवन की निर्मलता से पूर्णतः असम्बद्ध तरीकों से अन्य प्रकार के फायदे उठाने का कार्य किया है।" (There is widespread impression that failure of integrity is not uncommon among ministers and that some ministers, who have held office during the last sixteen years have enriched themselves illegitimately, obtained good jobs for their sons and relations through nepotism and have reaped other advantages inconsistent with any notion of purity in public life.)
1965
यह ज्ञात होने पर कि उड़ीसा के मुख्य मन्त्री बीजू पटनायक (नवीन पटनायक के पिता) ने कलिंग ट्यूब्स नामक अपनी स्वयं की कम्पनी को सरकारी ठेका देकर फायदा पहुँचाया है, उन्हें इस्तीफा देने पर विवश किया गया था।
1970
नागरवाला काण्ड
भारतीय स्टेट बैंक की संसद मार्ग शाखा के चीफ कैशियर व्ही.पी. मेहता ने केवल टेलीफोन द्वारा प्राप्तआदेश पर, बगैर किसी बैंकिंग इंस्ट्रुमेंट (विथड्राल फॉर्म, चेक, ड्राफ्ट आदि) के, नागरवाला नामक व्यक्ति को रु.60 लाख का भुगतान कर दिया। बताया जाता है कि मेहता को यह विश्वास था कि फोन पर इन्दिरा गांधी ने आदेश दिया था। नागरवाला कांड की जाँच करने वाले अधिकारी की सड़क दुर्घटना में तथा नागरवाला की जेल में मृत्यु हो जाने के कारण यह प्रकरण हमेशा के लिए रहस्यमय बन कर रह गया।
1974
मारुति घोटाला
1974 में मारुति घोटाले के प्रकरण में इन्दिरा गांधी का नाम उभरा था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने पैसेन्जर कार के निर्माण हेतु पक्षपातपूर्वक गलत तरीके से अपने पुत्र को लाइसेंस उपलब्ध करवाया था।
1976
तेल घोटाला
हांग कांग की कुओ ऑयल कम्पनी (Kuo Oil Co) के साथ वर्तमान कीमत पर ही भविष्य में भी तेल उपलब्ध कराने के लिए 200 मिलियन डालर का कान्ट्रैक्ट किया गया था जिसमें देश को रु.13 करोड़ का चूना लगा। ऐसा माना जाता है कि उन रुपयों को इन्दिरा गांधी और संजय गांधी के खातों में जमा किया गया था।
1980
THAL Vaishet project घोटाला
पेट्रोलियम सेक्रेटरी एच.एन. बहुगुणा, एन.एन. कापड़िया, पेट्रोलियम मन्त्री पी.सी. सेठी और के.पी. उन्नीकृष्णन पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने इटली के Snamprogetti की subsidiary कम्पनी को THAL Vaishet project का कान्ट्रैक्ट, नियमों को ताक में रखकर, दे दिया।
1981
महाराष्ट्र सीमेंट घोटाला
महाराष्ट्र के मुख्य मन्त्री ए.आर. अन्तुले ने सार्वजनिक खपत के सीमेंट को पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाकर गलत तरीके से प्रायवेट बिल्डर्स को दे दिया।
1986
जर्मन सबमैरिन घोटाला
कहा जाता है कि जर्मन फर्म HDW से दो सबमैरिन की खरीदी के इन्दिरा सरकार ने रिश्वत लेकर किया था।
1987
बोफोर्स घोटाला
रु.64 करोड़ लेकर 155mm howitzer सौदा स्वीडिश कम्पनी बोफोर्स को दिया गया। इस घोटाले से राजीव गांधी का नाम जुड़ा हुआ है।
1991
जैन हवाला प्रकरण
रु.64 करोड़ के जैन हवाला प्रकरण में लालकृष्ण अडवानी, विद्याचरण शुक्ल, सी.के. जैफर शरीफ, आरिफ मोहम्मद खान, मदन लाल खुराना, कल्पनाथ राय, एन.डी. तिवारी जैसे नामी नेताओं के साथ अन्य अनेक लोगों पर आरोप लगाए गए थे।
हर्षद मेहता काण्ड
कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर रु.10,000 करोड़ के घोटाले का मामला सामने आने पर उसके लिए हर्षद मेहता, भारतीय स्टेट बैंक सहित कुछ अन्य प्रमुख बैंको पर आरोप लगाए गए थे।
चारा घोटाला
बताया जाता है कि बिहार के मुख्य मन्त्री लालू प्रसाद यादव, अन्य राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाही ने मिल कर रु.950 करोड़ का चूना लगाया था।
1996
गलत तरीके से ऋण वितरणः
कहा जाता है कि इण्डियन बैंक के पूर्व चेयरमेन तथा मैनेजिंग डायरेक्टर एम. गोपालकृष्णन ने अन्य लोगों से मिलकर गलत तरीके से रु.1,500 करोड़ का ऋण वितरित कर दिया था।
टेलीकॉम घोटाला
सुखराम पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने कई टेलीकॉम कम्पनियों से पक्षपात करने के लिए रिश्वतें ली थीं। सुखराम के घर से 1 मिलियन डालर की रकम छोटे नोटों की शक्लों में पाई गई थीं।
1999
यू.टी.आई. का म्युचुअल फंड घोटाला
2002
केतन पारेख शेयर घोटाला, सत्यम घोटाला, आदर्श घोटाला, कॉमन वेल्थ घोटाला,2 G स्पैक्ट्रम घोटाला, हथियार, गोली, जैकेट खरीदी घोटाला
इसके बाद के घोटालों से तो आप सारे लोग परिचित ही हैं।
शासकों तथा अधिकारियों का कर्तव्य है देश में भ्रष्टाचार को रोकना, किन्तु उपरोक्त घोटालों को देखकर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार को रोकने वाले लोग ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। इन भ्रष्टाचारी शासकों तथा अधिकारियों का वर्णन करने के लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि
नवभ्रष्ट लोचन भ्रष्ट मुख कर भ्रष्ट पद भ्रष्टारुणम्
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भ्रष्टाचार विकरालतर से विकरालतम रूप धारण करता चला गया। सैकड़ों लाख करोड़ रुपये, जिन्हें जनता की हित तथा देश के विकास के लिए जनता ने सरकार को टैक्स के रूप में दिए थे, देश से निकल कर काले धन के रूप में विदेशों में चले गए। भ्रष्टाचारी अमीर होते चले गए और जनता मँहगाई की चक्की में पिसती चली गई।
आज जरूरत है भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिटा देने की। काले धन के रूप में विदेश में जमा रकम को वापस देश में लाने की और जिनके के कारण जनता की गाढ़ी कमाई का रुपया विदेश चला गया उन लोगों को उनकी करतूतों की सजा देने की। और यह तो स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिए देश की जनता अब कटिबद्ध हो चुकी है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राष्ट्र की बागडोर यदि सच्चे, कर्मठ और ईमानदार जननायकों के हाथ में गई होती तो निश्चित रूप से इस देश में रामराज्य की कल्पना साकार हो गई होती किन्तु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया और इस देश को भ्रष्टाचार का एक ऐसा घाव लगा जो कि आज नासूर बन चुका है। आइये देखें कि 1947 के बाद कौन-कौन से प्रमुख घोटाले हुए जिसके कारण आज यह स्थिति बनी हैः
1948
जीप घोटाला
काश्मीर ऑपरेशन के लिए भारतीय सेना को जीपों की आवश्यकता होने पर व्ही.के. कृष्णा मेनन, जो कि उस समय लंदन में भारत के हाई कमिश्नर पद पर थे, ने समस्त नियमों को ताक पर रखकर एक विदेशी कंपनी को क्रय आदेश दिया था। कहा जाता है कि फर्म को 2,000 जीपों के लिए क्रय आदेश दिया गया था जिसके लिए अधिकतम राशि का अग्रिम भुगतान भी कर दिया गया किन्तु कम्पनी ने मात्र 155 जीपें ही प्रदाय की थी। विपक्ष के द्वारा प्रकरण के न्यायिक जाँच के अनुरोध को रद्द करके अनन्तसायनम अयंगर के नेतृत्व में एक जाँच कमेटी बिठा दी गई। बाद में 30 सितम्बर 1955 सरकार ने जाँच प्रकरण को समाप्त कर दिया। यूनियन मिनिस्टर जी.बी. पन्त ने घोषित किया, "सरकार इस मामले को समाप्त करने का निश्चय कर चुकी है। यदि विपक्षी सन्तुष्ट नहीं हैं तो इसे चुनाव का विवाद बना सकते हैं।" 3 फरवरी1956 के बाद शीघ्र ही कृष्णा मेनन को नेहरू केबिनेट में बगैर किसी पोर्टफोलियो का मन्त्री नियुक्त कर दिया गया।
1950
भारत सरकार द्वारा प्रतिष्ठित सिविल सर्व्हेंट ए.डी. गोरवाला को शासन संचालन में सुधार के लिए अपनी सिफारिशें
देने के लिए कहा गया। 1951 में उनके द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में अन्य अनेक अवलोकनों के साथ निम्न दो अवलोकन भी थे -
"नेहरू के मन्त्रिमण्डल में कुछ मन्त्री भ्रष्ट थे और इस बात की जानकारी प्रायः सभी को थी।"
"एक अत्यन्त जिम्मेदार सिविल सर्व्हेंट के आफिसियल रिपोर्ट में उल्लेख है कि सरकार अपने मन्त्रियों को बचाने के लिए गलत रास्ते अपनाती है"
(Report on Public Administration, Planning Commission, Government of India 1951 से उद्धृत)
1958
एल.आई.सी. स्कैन्डल
इन्दिरा गांधी के पति फीरोज गांधी ने इस घोटाले को खोला था और वित्त मन्त्री टी.टी. कृष्ण्माचारी, वित्त सचिव एच.एम. पटेल, जीवन बीमा निगम के चेयरमैन एल.एस. वैद्यनाथन आदि के नाम इस घोटाले के साथ जोड़े थे।
उल्लेखनीय है कि मुद्गल प्रकरण (1951), मूंदड़ा डील्स (1963), मालवीय-सिराजुद्दीन घोटाला (1963) और प्रताप सिंह कैरोन प्रकरण (1963) के लिए कांग्रेस के मन्त्रियों तथा मुख्य मन्त्रियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे किन्तु किसी भी मन्त्री, मुख्य मन्त्री तथा प्रधान मन्त्री ने इस्तीफा नहीं दिया।
भारत सरकार ने भ्रष्टाचार मामलों की जाँच के लिए 1962 में शान्तनम कमेटी का गठन किया था जिसके द्वारा 1964 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, "लोगों में व्यापक रूप से यह धारणा पाई जाती है कि मन्त्रियों में सत्यनिष्ठा की कमी कोई असामान्य बात नहीं है और पिछले सोलह सालों में कुछ मन्त्रियों ने गैरकानूनी तौर पर बहुत सारा धन कमाने, अपने पुत्रों तथा रिश्तेदारों को भाईभतीजावाद द्वारा अच्छा जॉब दिलवाने और सार्वजनिक जीवन की निर्मलता से पूर्णतः असम्बद्ध तरीकों से अन्य प्रकार के फायदे उठाने का कार्य किया है।" (There is widespread impression that failure of integrity is not uncommon among ministers and that some ministers, who have held office during the last sixteen years have enriched themselves illegitimately, obtained good jobs for their sons and relations through nepotism and have reaped other advantages inconsistent with any notion of purity in public life.)
1965
यह ज्ञात होने पर कि उड़ीसा के मुख्य मन्त्री बीजू पटनायक (नवीन पटनायक के पिता) ने कलिंग ट्यूब्स नामक अपनी स्वयं की कम्पनी को सरकारी ठेका देकर फायदा पहुँचाया है, उन्हें इस्तीफा देने पर विवश किया गया था।
1970
नागरवाला काण्ड
भारतीय स्टेट बैंक की संसद मार्ग शाखा के चीफ कैशियर व्ही.पी. मेहता ने केवल टेलीफोन द्वारा प्राप्तआदेश पर, बगैर किसी बैंकिंग इंस्ट्रुमेंट (विथड्राल फॉर्म, चेक, ड्राफ्ट आदि) के, नागरवाला नामक व्यक्ति को रु.60 लाख का भुगतान कर दिया। बताया जाता है कि मेहता को यह विश्वास था कि फोन पर इन्दिरा गांधी ने आदेश दिया था। नागरवाला कांड की जाँच करने वाले अधिकारी की सड़क दुर्घटना में तथा नागरवाला की जेल में मृत्यु हो जाने के कारण यह प्रकरण हमेशा के लिए रहस्यमय बन कर रह गया।
1974
मारुति घोटाला
1974 में मारुति घोटाले के प्रकरण में इन्दिरा गांधी का नाम उभरा था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने पैसेन्जर कार के निर्माण हेतु पक्षपातपूर्वक गलत तरीके से अपने पुत्र को लाइसेंस उपलब्ध करवाया था।
1976
तेल घोटाला
हांग कांग की कुओ ऑयल कम्पनी (Kuo Oil Co) के साथ वर्तमान कीमत पर ही भविष्य में भी तेल उपलब्ध कराने के लिए 200 मिलियन डालर का कान्ट्रैक्ट किया गया था जिसमें देश को रु.13 करोड़ का चूना लगा। ऐसा माना जाता है कि उन रुपयों को इन्दिरा गांधी और संजय गांधी के खातों में जमा किया गया था।
1980
THAL Vaishet project घोटाला
पेट्रोलियम सेक्रेटरी एच.एन. बहुगुणा, एन.एन. कापड़िया, पेट्रोलियम मन्त्री पी.सी. सेठी और के.पी. उन्नीकृष्णन पर आरोप लगाए गए कि उन्होंने इटली के Snamprogetti की subsidiary कम्पनी को THAL Vaishet project का कान्ट्रैक्ट, नियमों को ताक में रखकर, दे दिया।
1981
महाराष्ट्र सीमेंट घोटाला
महाराष्ट्र के मुख्य मन्त्री ए.आर. अन्तुले ने सार्वजनिक खपत के सीमेंट को पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाकर गलत तरीके से प्रायवेट बिल्डर्स को दे दिया।
1986
जर्मन सबमैरिन घोटाला
कहा जाता है कि जर्मन फर्म HDW से दो सबमैरिन की खरीदी के इन्दिरा सरकार ने रिश्वत लेकर किया था।
1987
बोफोर्स घोटाला
रु.64 करोड़ लेकर 155mm howitzer सौदा स्वीडिश कम्पनी बोफोर्स को दिया गया। इस घोटाले से राजीव गांधी का नाम जुड़ा हुआ है।
1991
जैन हवाला प्रकरण
रु.64 करोड़ के जैन हवाला प्रकरण में लालकृष्ण अडवानी, विद्याचरण शुक्ल, सी.के. जैफर शरीफ, आरिफ मोहम्मद खान, मदन लाल खुराना, कल्पनाथ राय, एन.डी. तिवारी जैसे नामी नेताओं के साथ अन्य अनेक लोगों पर आरोप लगाए गए थे।
हर्षद मेहता काण्ड
कानून की कमजोरियों का फायदा उठाकर रु.10,000 करोड़ के घोटाले का मामला सामने आने पर उसके लिए हर्षद मेहता, भारतीय स्टेट बैंक सहित कुछ अन्य प्रमुख बैंको पर आरोप लगाए गए थे।
चारा घोटाला
बताया जाता है कि बिहार के मुख्य मन्त्री लालू प्रसाद यादव, अन्य राजनीतिज्ञ तथा नौकरशाही ने मिल कर रु.950 करोड़ का चूना लगाया था।
1996
गलत तरीके से ऋण वितरणः
कहा जाता है कि इण्डियन बैंक के पूर्व चेयरमेन तथा मैनेजिंग डायरेक्टर एम. गोपालकृष्णन ने अन्य लोगों से मिलकर गलत तरीके से रु.1,500 करोड़ का ऋण वितरित कर दिया था।
टेलीकॉम घोटाला
सुखराम पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने कई टेलीकॉम कम्पनियों से पक्षपात करने के लिए रिश्वतें ली थीं। सुखराम के घर से 1 मिलियन डालर की रकम छोटे नोटों की शक्लों में पाई गई थीं।
1999
यू.टी.आई. का म्युचुअल फंड घोटाला
2002
केतन पारेख शेयर घोटाला, सत्यम घोटाला, आदर्श घोटाला, कॉमन वेल्थ घोटाला,2 G स्पैक्ट्रम घोटाला, हथियार, गोली, जैकेट खरीदी घोटाला
इसके बाद के घोटालों से तो आप सारे लोग परिचित ही हैं।
शासकों तथा अधिकारियों का कर्तव्य है देश में भ्रष्टाचार को रोकना, किन्तु उपरोक्त घोटालों को देखकर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार को रोकने वाले लोग ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। इन भ्रष्टाचारी शासकों तथा अधिकारियों का वर्णन करने के लिए सिर्फ यही कहा जा सकता है कि
नवभ्रष्ट लोचन भ्रष्ट मुख कर भ्रष्ट पद भ्रष्टारुणम्
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भ्रष्टाचार विकरालतर से विकरालतम रूप धारण करता चला गया। सैकड़ों लाख करोड़ रुपये, जिन्हें जनता की हित तथा देश के विकास के लिए जनता ने सरकार को टैक्स के रूप में दिए थे, देश से निकल कर काले धन के रूप में विदेशों में चले गए। भ्रष्टाचारी अमीर होते चले गए और जनता मँहगाई की चक्की में पिसती चली गई।
आज जरूरत है भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिटा देने की। काले धन के रूप में विदेश में जमा रकम को वापस देश में लाने की और जिनके के कारण जनता की गाढ़ी कमाई का रुपया विदेश चला गया उन लोगों को उनकी करतूतों की सजा देने की। और यह तो स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिए देश की जनता अब कटिबद्ध हो चुकी है।
Subscribe to:
Posts (Atom)