रफी साहब के जन्मदिन पर विशेष
वर्ष 1924 के आज ही तारीख अर्थात् 24 दिसम्बर को एक ऐसे महान गायक का उदय हुआ था जिनकी मधुर आवाज आज भी हमारे कानों में गूँजती रहती है। सुमधुर कण्ठस्वर के स्वामी तथा महान गायक मोहम्मद रफी ने कितने गाने गाये हैं इसका हिसाब ही नहीं है। गायन के लिये 23 बार उन्हें फिल्म फेयर एवार्ड मिला था। उनके कंठस्वर से ही प्रेरणा पा कर ही महेन्द्र कपूर, सोनू निगम जैसे अनेक गायकों ने गायन के क्षेत्र में सफलता अर्जित की।
सामान्यतः पार्श्वगायक प्लेबैक सिंगर उन लोगों के लिए गाने गाते हैं जो गायन के क्षेत्र में सिद्धहस्त नहीं होते। किन्तु मोहम्मद रफी साहब ने तो किशोर कुमार जैसे धुरंधर पार्श्वगायक के लिए भी गाने गाये हैं। किशोर कुमार एक अच्छे गायक और अभिनेता होने के साथ ही साथ निर्माता, निर्देशक और संगीतकार भी थे। अपने गाने स्वयं ही गाया करते थे वे। पर संगीतकार ओ.पी. नैयर रफ़ी साहब के की आवाज से इतने प्रभावित थे कि फिल्म रागिनी (1958) के शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत ‘मन मोरा बावरा गाये…..’ को किशोर कुमार के लिये रफ़ी साहब से ही गवाया था। सन् 1958 में ही फिल्म शरारत में भी मोहम्मद रफ़ी ने फिर से एक बार किशोर कुमार के लिये गाना गाया था। गीत के बोल हैं ‘अजब है दास्ताँ तेरी ऐ जिंदगी…..’। और आखरी बार सन् 1964 में मोहम्मद रफ़ी ने फिल्म बाग़ी शहज़ादा में भी किशोर कुमार के लिये गाया था (इस बात का खेद है कि गीत के बोल मुझे याद नहीं है)।
Saturday, December 24, 2011
Friday, December 23, 2011
शीत की सांझ
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
हल्की सिहरन धुंधली आभा,
सांझ शीत की आती है;
शिशुओं की नींद उनींदी-सी,
अंधियारी छा जाती है।
सूनी-सूनी सड़कें-गलियाँ,
सन्नाटा-सा छा जाता;
सिसकारी में डूबा जनपद,
तन्द्रा में द्रुत अलसाता।
सीस झुका तरुओं में पल्लव,
विहगों को सहलाते हैं;
पंख फुलाये कलरव भूले,
पंछी मन बहलाते हैं।
पश्चिम में रवि की लाली को,
निगल कालिमा खाती है;
शीतलता की ठंडी आहें,
निशि की सिसकी लाती है।
चौपालों में गाँव ठिठुरते,
कहीं अंगीठी जल जाती;
घेर घेर कर लोग तापते,
उष्ण शान्ति तन में आती।
उधर नगर में उष्ण वसन से
लिपट नागरिक फिरते हैं;
ऊनी मफलर स्वेटर में,
शिशिर सांझ पल कटते हैं।
हल्की सिहरन धुंधली आभा,
सांझ शीत की आती है;
शिशुओं की नींद उनींदी-सी,
अंधियारी छा जाती है।
सूनी-सूनी सड़कें-गलियाँ,
सन्नाटा-सा छा जाता;
सिसकारी में डूबा जनपद,
तन्द्रा में द्रुत अलसाता।
सीस झुका तरुओं में पल्लव,
विहगों को सहलाते हैं;
पंख फुलाये कलरव भूले,
पंछी मन बहलाते हैं।
पश्चिम में रवि की लाली को,
निगल कालिमा खाती है;
शीतलता की ठंडी आहें,
निशि की सिसकी लाती है।
चौपालों में गाँव ठिठुरते,
कहीं अंगीठी जल जाती;
घेर घेर कर लोग तापते,
उष्ण शान्ति तन में आती।
उधर नगर में उष्ण वसन से
लिपट नागरिक फिरते हैं;
ऊनी मफलर स्वेटर में,
शिशिर सांझ पल कटते हैं।
Wednesday, December 21, 2011
साहिर लुधियानवी की नजरों में ताजमहल
ताज़ तेरे लिये इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही तुम को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझ से | ताज तुम्हारे लिए प्यार का एक प्रतीक सही और तुम्हारे दिल में इस रमणीक स्थान के लिए सम्मान सम्मान भी सही, पर मेरे प्रिय, मुझसे कहीं और मिला कर। |
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी | शाही दरबार में गरीबों के बसर भला क्या मायने रखता है? और जिस राह पर शाही शान को उकेरा गया है उसमें प्यार भरी आत्माओं का चलना क्या मायने रखता है? |
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तसीर-ए-वफ़ा तू ने सतवत के निशानों को तो देखा होता मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलनेवाली अपने तारीक मकानों को तो देखा होता | मेरे प्रिय, काश तुमने प्यार के इस विज्ञापन के पीछे छुपे धन-दौलत के निशानों को देखा होता। ऐ शाही मकबरे से बहलने वाली, काश तूने गरीबों के अंधेरे मकानों को भी देखा होता। |
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके लेकिन उनके लिये तशहीर का सामान नहीं क्यूँ के वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे | दुनिया में अनगिनत लोगों ने प्यार किया है। कौन कह सकता है कि उनकी भावनाएँ सच्ची नहीं थीं? लेकिन उनके पास अपने प्यार के विज्ञापन के लिए सामान नहीं था अर्थात दौलत नहीं थी क्योंकि वे लोग भी हमारी ही तरह गरीब थे। |
ये इमारात-ओ-मक़ाबिर ये फ़सीलें, ये हिसार मुतल-क़ुल्हुक्म शहनशाहों की अज़मत के सुतूँ दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है जिस में शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ूँ | ये इमारतें, ये मकबरे, ये किले और उनकी दीवारें, ये स्वार्थी शहनशाहों के बड़प्पन की निशानियाँ जिनके ऊपर सुन्दर गुलकारियाँ हैं, उन गुलकारियों के रंगों में तेरे और मेरे पूर्वजों के खून मिला हुआ है। |
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी जिनकी सन्नाई ने बख़्शी है इसे शक्ल-ए-जमील उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील | मेरे प्रिय, जिन्होंने प्यार के इस प्रतीक को इतनी सुन्दर शक्ल दी है उन्होंने भी तो प्यार किया होगा। पर उनके मकबरों पर उनका नाम तक नहीं लिखा गया है और न किसी ने वहाँ जाकर एक मोमबत्ती जलाई है। |
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़ इक शहनशाह ने दौलत का सहारा ले कर हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे! | ये बाग-बगीचे, ये यमुना का किनारा, ये महल, ये रमणीक दरो-दीवारें! एक शहनशाह ने अपनी दौलत से इन्हें ये रूप दिया है। उस शहनशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों के प्यार का मजाक उड़ाया है। इसलिए मेरे प्रिय, तू मुझसे कहीं और मिला कर। |
Thursday, December 1, 2011
होल्डर से जेल पेन तक
सन् 1958 में जब मैं दूसरी कक्षा पास करके तीसरी में पहुँचा तो पहली बार मेरे बस्ते में, जो कि कपड़े का एक साधारण झोला होता था, कापी, कलम और दवात को जगह मिली, दूसरी कक्षा तक तो सिर्फ स्लेट और पेंसिल से काम चल जाता था। कापी, कलम (होल्डर), दवात पाकर मैं बहुत खुश और उत्तेजित था। घर में बाबूजी (अपने पिताजी को मैं बाबूजी कहा करता था) के पास कोरस स्याही की गोली हमेशा मौजूद रहती थी, सो एक गोली के आधे टुकड़े को पीसकर अपनी छोटी सी दवात में घोल ली और कलम के निब को उसमें डुबो-डुबो कर कितना कुछ लिख मारा था मैंने, अपनी कापी में नहीं बल्कि बाबूजी, जो कि अपनी रचनाओं के लिए कोरे कागज का स्टॉक के लिए हमेशा रखा करते थे, के कागजों पर। आराम कुर्सी पर बैठे बाबूजी भी मुझे लिखते देखकर खुश हो रहे थे। कलम-दवात के जैसे ही अब तो आराम कुर्सी भी देखने को नहीं मिलते।
तीसरी से आठवीं कक्षा तक मैं कलम दवात ही प्रयोग करता था। उन दिनों हमें फाउण्टेन पेन से लिखने के लिए सख्त मनाही हुआ करती थी क्योंकि माना जाता था कि वैसा करने से हमारे अक्षर बिगड़ जाएँगे। बाबूजी मुझसे कहते थे कि बेटा तुम लोग को तो निब वाली कलम से लिखने की इजाजत भी है, हमें तो अपने जमाने में भर्रू का कलम बना कर लिखना पड़ता था। हाई स्कूल याने कि नवीं कक्षा पहुँचने के बाद ही मुझे फाउण्टेन पेन, जिसमें निब को बार-बार स्याही में डुबोने की जरा भी झंझट नहीं होती थी, प्रयोग करने के लिए मिला। फाउण्टेन पेन मिलने के बाद दवात में कोरस स्याही या प्रभात नीली स्याही का स्थान कैमल इंक ने ले लिया क्योंकि फाउण्टेन पेन के के भीतर कोरस या प्रभात स्याही सूख जाया करती थी, केवल कैमल स्याही ही उसके लिए उपयुक्त था।
अब तो फाउण्टेन पेन भी बीते जमाने की बात हो चली है क्योंकि उसका स्थान जेल पेन ने ले लिया है। वैसे भी आज के जमाने में आदमी के पास लिखने का काम ही कहाँ रह गया है, कम्प्यूटर ने लिखने के काम को खत्म सा कर दिया है।
तीसरी से आठवीं कक्षा तक मैं कलम दवात ही प्रयोग करता था। उन दिनों हमें फाउण्टेन पेन से लिखने के लिए सख्त मनाही हुआ करती थी क्योंकि माना जाता था कि वैसा करने से हमारे अक्षर बिगड़ जाएँगे। बाबूजी मुझसे कहते थे कि बेटा तुम लोग को तो निब वाली कलम से लिखने की इजाजत भी है, हमें तो अपने जमाने में भर्रू का कलम बना कर लिखना पड़ता था। हाई स्कूल याने कि नवीं कक्षा पहुँचने के बाद ही मुझे फाउण्टेन पेन, जिसमें निब को बार-बार स्याही में डुबोने की जरा भी झंझट नहीं होती थी, प्रयोग करने के लिए मिला। फाउण्टेन पेन मिलने के बाद दवात में कोरस स्याही या प्रभात नीली स्याही का स्थान कैमल इंक ने ले लिया क्योंकि फाउण्टेन पेन के के भीतर कोरस या प्रभात स्याही सूख जाया करती थी, केवल कैमल स्याही ही उसके लिए उपयुक्त था।
अब तो फाउण्टेन पेन भी बीते जमाने की बात हो चली है क्योंकि उसका स्थान जेल पेन ने ले लिया है। वैसे भी आज के जमाने में आदमी के पास लिखने का काम ही कहाँ रह गया है, कम्प्यूटर ने लिखने के काम को खत्म सा कर दिया है।
Sunday, November 27, 2011
कुछ ऐसे भी होते हैं
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
कुछ ऐसे भी होते हैं जो,
गुणहीन हुआ करते हैं;
पर तिकड़मबाजी के कारण
गुणवान दिखा करते हैं।
असलियत छिपाने को अपनी,
ये व्यूह रचा करते हैं;
पद लोलुपता में माहिर ये,
कुर्सी पर पग धरते हैं।
टांग अड़ाते कदम कदम पर,
काम-धाम में अलसाये,
बस यही चाहते हैं झटपट,
माला कोई पहनाये।
तड़क-भड़क में डूबे रहते,
गला फाड़ कर चिल्लाते हैं;
कीड़े जैसे काव्य कुतरते,
गिद्ध बने मँडराते हैं।
ऐसों में कोई कवि हो तो,
कविता चोरी करता है;
अपनी रचना कह कर उसको,
झूम झूम कर पढ़ता है।
जब जब ऐसी कविता सुनते,
याद उसी की आती है;
चोरी की कविता का संग्रह,
जिसकी अनुपम थाती है।
और अगर ऐसा पद लोलुप,
निर्लज्ज कहीं होता है;
तो अच्छे अच्छों को अपने,
तिकड़म जल से धोता है।
सभी जगह मिलते हैं ऐसे,
गुणहीनों की बस्ती है;
मँहगा है गुण पाना जग में,
तिकड़मबाजी सस्ती है।
नाम डूबता ऐसों से ही,
राष्ट्रों का, संस्थाओं का;
जो योग्य हुआ करते हैं उन-
पुरुषों का महिलाओं का।
(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1987)
कुछ ऐसे भी होते हैं जो,
गुणहीन हुआ करते हैं;
पर तिकड़मबाजी के कारण
गुणवान दिखा करते हैं।
असलियत छिपाने को अपनी,
ये व्यूह रचा करते हैं;
पद लोलुपता में माहिर ये,
कुर्सी पर पग धरते हैं।
टांग अड़ाते कदम कदम पर,
काम-धाम में अलसाये,
बस यही चाहते हैं झटपट,
माला कोई पहनाये।
तड़क-भड़क में डूबे रहते,
गला फाड़ कर चिल्लाते हैं;
कीड़े जैसे काव्य कुतरते,
गिद्ध बने मँडराते हैं।
ऐसों में कोई कवि हो तो,
कविता चोरी करता है;
अपनी रचना कह कर उसको,
झूम झूम कर पढ़ता है।
जब जब ऐसी कविता सुनते,
याद उसी की आती है;
चोरी की कविता का संग्रह,
जिसकी अनुपम थाती है।
और अगर ऐसा पद लोलुप,
निर्लज्ज कहीं होता है;
तो अच्छे अच्छों को अपने,
तिकड़म जल से धोता है।
सभी जगह मिलते हैं ऐसे,
गुणहीनों की बस्ती है;
मँहगा है गुण पाना जग में,
तिकड़मबाजी सस्ती है।
नाम डूबता ऐसों से ही,
राष्ट्रों का, संस्थाओं का;
जो योग्य हुआ करते हैं उन-
पुरुषों का महिलाओं का।
(रचना तिथिः शनिवार 31-01-1987)
Saturday, November 26, 2011
पोस्ट प्रकाशित हुई नहीं कि टिप्पणी आ गई
बात अप्रैल 2008 की है। हिन्दी ब्लोगिंग में कदम रखे अधिक समय नहीं हुआ था मुझे, या यों कहें कि अधिकतर लोग मुझे जानते ही नहीं थे। अस्तु, एक दिन मैंने एक पोस्ट लिखी और ज्योंही "प्रकाशित करें" वाला बटन दबाया त्योंही मेरे गूगल टॉक ने सन्देश दिया कि कोई मेल आया है। मैंने मेल खोला तो देखा कि अभी-अभी मैंने जो पोस्ट प्रकाशित किया है उसमें कोई टिप्पणी आई है। याने कि पोस्ट प्रकाशित हुई नहीं कि टिप्पणी आ गई! बहुत बड़ी उपलब्धि थी वो मेरे लिए।
पर उस टिप्पणी ने क्या-क्या गुल खिलाया और मैं कैसे परेशान हुआ यह मैं ही जानता था। अपने उस अनुभव को शेयर करने के लिए मैंने तत्काल फिर एक पोस्ट लिखा जिसे कि पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि उस रोचक पोस्ट को बहुतों ने पढ़ा ही नहीं होगा या जिन्होंने पढ़ा होगा वे भूल चुके होंगे।
तो वह पोस्ट था -
पर उस टिप्पणी ने क्या-क्या गुल खिलाया और मैं कैसे परेशान हुआ यह मैं ही जानता था। अपने उस अनुभव को शेयर करने के लिए मैंने तत्काल फिर एक पोस्ट लिखा जिसे कि पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ क्योंकि उस रोचक पोस्ट को बहुतों ने पढ़ा ही नहीं होगा या जिन्होंने पढ़ा होगा वे भूल चुके होंगे।
तो वह पोस्ट था -
प्रकाशित होना पोस्ट का और आना टिप्पणी का
अब देखिये ना, मैंने ब्लोगर में एक नया पोस्ट कर के प्रकाशित किया नहीं कि फटाक से मेरे गूगल टॉक ने संदेश दिया कि एक नई टिप्पणी आई है। मन प्रसन्नता से झूम उठा, अरे भाई हूँ तो मैं भी साधारण ब्लोगिया ही, टिप्पणी के बारे में जान कर भला कैसे खुश नहीं होउंगा? और इस बार तो बात ही विशेष थी। विशेषता यह थी कि पोस्ट प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी आ गई। जैसे कोई इंतिजार करते हुये बैठा था कि कब ये पोस्ट प्रकाशित हो और कब मैं टिप्पणी करूँ। जब स्कूल में पढ़ता था तो हिन्दी के सर ने अतिशयोक्ति अलंकार का उदाहरण बताया था - 'हनूमान के पूँछ में लगी न पाई आग। लंका सिगरी जल गई गये निशाचर भाग॥' उदाहरण से अच्छी प्रकार से समझ में आ गया था कि अतिशयोक्ति अलंकार क्या होता है। पर पोस्ट प्रकाशित होते ही टिप्पणी आने पर जरा सा भी नहीं लगा कि यह अतिशयोक्ति हो सकती है। और लगे भी क्यों भाई, भले ही अच्छा न लिख पाउँ पर समझता अवश्य हूँ कि मैं भी एक लिख्खाड़ हूँ। अब पोस्ट प्रकाशित होते ही टिप्पणी आ जाने पर यही तो सोचूँगा न कि अब तो मैं बहुत अच्छा लिख्खाड़ हो गया हूँ, भला यह क्यों सोचने लगा कि यह अतिशयोक्ति टाइप की कुछ चीज हो सकती है?
यह भी विचार नहीं आया कि मेरे पोस्ट में तो प्रायः टिप्पणी आती ही नहीं। और आये भी क्यों? मैं खुद तो टिप्पणी करने के मामले में संसार का सबसे आलसी प्राणी हूँ, कभी किसी के ब्लोग में जा कर टिप्पणी नहीं करता। तो भला क्या किसी को क्या पागल कुत्ते ने काटा है कि मेरे ब्लोग में आ कर टिप्पणी करेगा? यह बात अलग है कि दूसरों के ब्लोग में टिप्पणियों को देख कर कुढ़ता अवश्य हूँ। सोचता हूँ कि इतने साधारण लेख पर इतनी सारी टिप्पणियाँ और मेरे सौ टका विशेष लेख पर एक भी नहीं। खैर, यह सोच कर स्वयं को तसल्ली दे लेता हूँ कि अभी लोगों की बुद्धि इतनी विकसित नहीं हुई है कि मेरी बात को समझ पायें। जब सही तरीके से समझेंगे ही नहीं तो भला टिप्पणी क्या करेंगे।
ऐसा भी नहीं है कि मेरे ब्लोग में कभी टिप्पणी आती ही न हो। आती है भइ कभी-कभार चार छः महीने में। अब संसार सहृदय व्यक्तियों से बिल्कुल खाली तो नहीं हो गया है। किसी सहृदय व्यक्ति को तरस आ जाता है कि बेचारा चार छः महीनों से बिना टिप्पणियों के ही लिखा चला आ रहा है, चलो आज इसके ब्लोग पर भी टिप्पणी कर दें।
हाँ तो मैं कह रहा था कि पोस्ट प्रकाशित हुआ नहीं कि टिप्पणी आ गई।
Warning! See Please Here
अरे! यह भी कोई टिप्पणी हुई? ये तो कोई चेतावनी है। टिप्पणीकर्ता 'यहाँ देखो' कह कर शायद यह बता रहा है कि मैंने किसी और स्थान से लेख चोरी कर के अपने ब्लोग में पोस्ट कर दिया है। सरासर चोरी का इल्जाम लग रहा है यह तो। प्रसन्नता काफूर हो गई।
मैंने भी सोचा कि चलो देखें तो सही कि ये कहाँ जाने को कह रहा है, आखिर मैंने चोरी किस जगह से की है। क्लिक कर दिया भैया। अब क्लिक कर देने पर जो शामत आई है उसके बारे में मत ही पूछो तो अच्छा है। न जाने कौन कौन से साइट्स खुलने लगे। चेतावनी पर चेतावनी - आपके कम्प्यूटर में ये वायरस आ गया है, वो वायरस आ गया है, हमसे मुफ्त स्कैन करवायें। मुफ्त स्कैन करवाने पर वायरसों की एक लम्बी फेहरिस्त आ गई जिसे दूर करने के लिये उनके एन्टीवायरस को खरीदने की सलाह दी गई थी। मैने तो केवल एक बार क्लिकिआया था बन्धु, यकीन मानिये कि एक बार क्लिक करने के बाद हिम्मत ही नहीं हुई दुबारा क्लिक करने की। पर न जाने कैसे बिना क्लिक किये ही वो साइट अपने-आप खुल जाती थी कुछ कुछ देर में और मेरे कम्प्यूटर का मुफ्त स्कैन होने लगता था। लगता था कि कोई भूत घुस आया है मेरे कम्प्यूटर में। अब बन्धु मेरे, बड़ी मुश्किल से उस भूत को भगा पाया मैं।
बड़ी कोशिश करके भूत को भगाने के बाद थोड़ा धीरज बंधा और थोड़ी शान्ति मिली। अब मन में विचार आया कि वो टिप्पणी तो अभी भी मेरे ब्लोग में है। यदि मेरे पाठकों ने उस पर क्लिक कर दिया तो? जरूर वह भूत उन्हें भी तंगायेगा। यह टिप्पणी तो बीच रास्ते में केले का छिलका बन कर पड़ा हुआ है, कोई फिसल कर गिर न जाये। इस टिप्पणी को मिटाना ही पड़ेगा।
अब भइ, इससे पहले कभी कोई टिप्पणी मिटाई नहीं थी। अब कभी-कभार आये हुए टिप्पणी को मैं मिटाने क्यों लगा - क्या मैं इतना बेवकूफ़ हूँ कि अपने ब्लोग से टिप्पणी को मिटा दूँ। हाँ तो टिप्पणी मिटाने का मुझे कुछ अनुभव ही नहीं था। मैंने ब्लोगर के एक-एक हिस्से को छान मारा पर टिप्पणी मिटाने के उपाय के बारे में कहीं कुछ न मिला। निदान मैं ब्लोगर के फोरम में गया और ढ़ूँढ़-ढ़ाँढ़ कर टिप्पणी मिटाने का उपाय प्राप्त कर ही लिया और टिप्पणी को मिटा दिया
तो साहब किया टिप्पणीकर्ता सॉफ्टवेयर ने और भरना मुझे पड़ा।
Wednesday, November 23, 2011
आज अगर तुलसी आयें तो
(स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया रचित कविता)
आज अगर तुलसी आयें तो,
सन्देश नहीं दे पायेंगे;
लुप्त देख सद्ग्रंथों को,
आश्चर्यचकित रह जायेंगे।
विनय पत्रिका के बदले में,
घोर अवज्ञा वे पायेंगे;
'मानस' के देश निकाले पर,
भौचक्के से रह जायेंगे।
रामचन्द्र पर रावण का ही,
सब ओर विजय वे पायेंगे;
ऐसे में तुलसी भी कैसे,
शक्ति, शील, सौन्दर्य जगायेंगे!
अंग्रेजी द्वारा हिन्दी की,
घोर उपेक्षा ही पायेंगे;
तब तो तुलसी भी सोचेंगे,
कल हिन्दी को बिसरायेंगे।
लोप भारती का लख तुलसी,
अकुलायेंगे, पछतायेंगे;
जैसे आयेंगे भारत में,
वैसे ही वापस जायेंगे।
(रचना तिथिः 04-08-1985)
आज अगर तुलसी आयें तो,
सन्देश नहीं दे पायेंगे;
लुप्त देख सद्ग्रंथों को,
आश्चर्यचकित रह जायेंगे।
विनय पत्रिका के बदले में,
घोर अवज्ञा वे पायेंगे;
'मानस' के देश निकाले पर,
भौचक्के से रह जायेंगे।
रामचन्द्र पर रावण का ही,
सब ओर विजय वे पायेंगे;
ऐसे में तुलसी भी कैसे,
शक्ति, शील, सौन्दर्य जगायेंगे!
अंग्रेजी द्वारा हिन्दी की,
घोर उपेक्षा ही पायेंगे;
तब तो तुलसी भी सोचेंगे,
कल हिन्दी को बिसरायेंगे।
लोप भारती का लख तुलसी,
अकुलायेंगे, पछतायेंगे;
जैसे आयेंगे भारत में,
वैसे ही वापस जायेंगे।
(रचना तिथिः 04-08-1985)
Tuesday, November 22, 2011
मजाकिया गूगल
गूगल, जो कि इन्टरनेट में उपलब्ध जानकारी को खोज-खोज कर हमें आसानी के साथ दिखाता है, को एक प्रमुख सर्च इंजिन के रूप में जाना जाता है। किन्तु इन्टरनेट की सबसे बड़ी विज्ञापन कम्पनी गूगल महज एक सर्च इन्जिन ही नहीं बल्कि और भी बहुत कुछ है। यह हमारी समस्याओं के साथ ही साथ हमारे साथ हँसी-किल्लोल भी करता है, कैलेण्डर के रूप में हमारे जन्मदिन तथा विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं को स्मरण रखता है और साथ ही हमारे हित के लिए और भी बहुत सारे काम करता है।
हमारे मनोरंजन के लिए गूगल विदूषक का भी काम करता है क्योंकि उसे पता है कि बगैर हास-परिहास के जिन्दगी नीरस है। यदि ऐसा न होता तो संस्कृत के प्राचीन नाट्यों में विदूषक पात्र की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? अस्तु हम गूगल के हास-परिहास के किंचित उदाहरण यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
अंग्रेजी के ‘Tilt’ शब्द का अर्थ होता है झुकाना। अब आप गूगल सर्च में Tilt शब्द को टाइप करके खोजें तो गूगल परिणामों को झुका हुआ याने कि तिरछा दिखा कर यह भी बता देता है कि झुकाना क्या होता है। इसी प्रकार से अंग्रेजी के Askew शब्द, जिसका अर्थ टेढ़ा या तिरछा होता है, को खोजने से भी परिणाम तिरछे आते हैं।
अब आप गूगल में Do a barrel roll, याने कि बेलन की तरह घुमा कर दिखाओ, टाइप करके खोज कर देखिए। परिणाम आते ही पहले एक गोल चक्कर लगाएँगे।
तो है ना गूगल मजाकिया भी!
हमारे मनोरंजन के लिए गूगल विदूषक का भी काम करता है क्योंकि उसे पता है कि बगैर हास-परिहास के जिन्दगी नीरस है। यदि ऐसा न होता तो संस्कृत के प्राचीन नाट्यों में विदूषक पात्र की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? अस्तु हम गूगल के हास-परिहास के किंचित उदाहरण यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
अंग्रेजी के ‘Tilt’ शब्द का अर्थ होता है झुकाना। अब आप गूगल सर्च में Tilt शब्द को टाइप करके खोजें तो गूगल परिणामों को झुका हुआ याने कि तिरछा दिखा कर यह भी बता देता है कि झुकाना क्या होता है। इसी प्रकार से अंग्रेजी के Askew शब्द, जिसका अर्थ टेढ़ा या तिरछा होता है, को खोजने से भी परिणाम तिरछे आते हैं।
अब आप गूगल में Do a barrel roll, याने कि बेलन की तरह घुमा कर दिखाओ, टाइप करके खोज कर देखिए। परिणाम आते ही पहले एक गोल चक्कर लगाएँगे।
तो है ना गूगल मजाकिया भी!
Thursday, November 17, 2011
प्राचीन भारत में नगरीय सभ्यता
मोहन जोदड़ो की खुदाई में मिले विशाल नगर के अवशेष ने यह तो सिद्ध कर दिया है कि आज से लगभग पाँच हजार साल पहले भारत में नगर हुआ करते थे जो आज के आधुनिक नगरों जैसे ही होते थे। सन् 2001 में खम्बात की खाड़ी में समुद्र के भीतर 120 फुट नीचे एक नगर का अवशेष मिला जो कि, कार्बन डेटिंग के अनुसार, 9500 वर्ष पुराना है। (लिंक) इससे सिद्ध होता है कि भारत में हड़प्पा सभ्यता के लगभग 4500 वर्ष पहले भी नगर थे।
ये तो हुए पुरातात्विक साक्ष्य! पर प्राचीन भारत में विशाल नगरों के साक्ष्य विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं। वाल्मीकि रचित रामायण में अयोध्या नगरी, मिथिला नगरी, लंकापुरी, विशाला नगरी आदि के विस्तृत विवरण हैं।रामायण में लिखा है कि उन भव्य नगरों में सुन्दर मन्दिर, विशाल अट्टालिकायें, सुन्दर-सुन्दर वाटिकाएँ, बड़ी बड़ी दुकानें इत्यादि हुआ करती थीं। अमूल्य आभूषणों को धारण किये हुये स्त्री-पुरुष आदि नगर की सम्पन्नता का परिचय देते थे। चौड़ी-चौड़ी और साफ सुथरी सड़कों को देख कर ज्ञात होता था कि नगर के रख-रखाव और व्यवस्था बहुत ही सुन्दर और प्रशंसनीय होती थी।
उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उस काल में आज की ही तरह से नगरों का निर्माण तथा उनका रख-रखाव हुआ करता था। नगरों की साफ-सफाई तथा रख-रखाव के लिए अवश्य ही आज के जैसे ही स्वायत्तशासी संस्थाएँ भी रहा करती होंगी।
भारत में अत्यन्त प्राचीन काल में भी विशाल नगरों का होना भारत के गौरव का द्योतक है तथा भारत का यह गौरव विश्व भर में भारत को एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। भारत को विश्व भर में विशिष्ट स्थान प्राप्त होना यूरोपियनों, विशेषकर अंग्रेजों, को बिल्कुल पसन्द नहीं आया क्योंकि वे स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ समझते थे। इसलिए अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश बनाने के बाद सबसे पहला काम तो यह सिद्ध करने का किया कि प्राचीन भारत में सही ढंग से इतिहास लिखने की प्रथा ही नहीं थी और जो भी प्राचीन भारतीय ग्रंथ हैं उनमें इतिहास है ही नहीं, जो कुछ भी है वह गल्प मात्र है। सन् 1909 में प्रकाशित इम्पीरियल गजेटियर कहता है "ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में हिन्दुओं ने कभी भी सही इतिहास लिखने का प्रयास ही नहीं किया। उन्होंने केवल सामान्य साहित्य ही छोड़ा है जिसमें कहीं-कहीं पर ऐतिहासिक वर्णन भी है, किन्तु, जैसा कि स्पष्ट दिखाई देता है, केवल आकस्मिक वर्णन को इतिहास नहीं समझा जा सकता।" (देखें इम्पीरियल गजेटियर का निम्न स्नैपशॉट)
उसी गजेटियर में एक अन्य स्थान पर लिखा है "यह पहले ही कहा जा चुका है कि हिन्दुओं ने अपने वसीयत के रूप में हमें कोई भी ऐसी ऐतिहासिक वस्तु नहीं दी है जिसे कि सच्चा इतिहास माना जा सके......" (देखें स्नैपशॉट)
कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए हमारे ग्रन्थों को झुठलाया, एक स्थान पर तो गजेटियर यह भी कहता है कि 'यद्यपि हिन्दू रामायण को महाभारत से प्राचीन मानते हैं किन्तु उसमें निहित सामग्री को पढ़ने से यूरोपियन विद्वानों को यही प्रतीत होता है कि रामायण की रचना महाभारत के बाद हुई है और यूरोपियन विद्वान महाभारत काल को रामायण काल से पहले का काल मानते हैं'।
हमारे ग्रन्थों के अर्थ तो उन्हों तोड़ा-मरोड़ा ही, साथ ही उन्होंने भारत पर आर्यों का आक्रमण जैसे कपोल-कल्पना को भी जन्म दे दिया ताकि भारत की श्रेष्ठता कभी सिद्ध ही न हो सके।
आज जो भारत का इतिहास पढ़ाया जाता है उसे कोई भी जरा सी भी बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भारत का इतिहास मान ही नहीं सकता। वह तो भारत के दुश्मनों के द्वारा लिखा गया उनका स्वयं का इतिहास है जिसमें उन्होंने, चाहे वे मुगल रहे हों या फिर अंग्रेज, स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ दर्शाया है। और सबसे बड़े दुःख की बात तो यह है कि उसी झूठे इतिहास को आज भी हमारे देश में पढ़ाया जाता है।
कोई भी गुलाम देश जब आजाद होता है तो सबसे पहले वह गुलाम बनाने वालों की भाषा, संस्कृति, उनके द्वारा रचे गए इतिहास इत्यादि को त्याग कर अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपने द्वारा रचे गए सच्चे इतिहास को अपनाता है, अपनी संस्कृति के आधार पर संविधान, शिक्षा-नीति इत्यादि का निर्माण करता है। किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् तत्कालीन तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं ने हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं किया। अपने देश की मूल भाषा संस्कृत को रसातल में ढकेल कर अंग्रेजी को महत्वपूर्ण बना दिया। अब जब हम अपनी मूलभाषा को ही नहीं जानेंगे तो भला अपनी संस्कृति को कैसे समझ पाएँगे? अपना सच्चा इतिहास कहाँ से रच पाएँगे?
ये तो हुए पुरातात्विक साक्ष्य! पर प्राचीन भारत में विशाल नगरों के साक्ष्य विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में भी मिलते हैं। वाल्मीकि रचित रामायण में अयोध्या नगरी, मिथिला नगरी, लंकापुरी, विशाला नगरी आदि के विस्तृत विवरण हैं।रामायण में लिखा है कि उन भव्य नगरों में सुन्दर मन्दिर, विशाल अट्टालिकायें, सुन्दर-सुन्दर वाटिकाएँ, बड़ी बड़ी दुकानें इत्यादि हुआ करती थीं। अमूल्य आभूषणों को धारण किये हुये स्त्री-पुरुष आदि नगर की सम्पन्नता का परिचय देते थे। चौड़ी-चौड़ी और साफ सुथरी सड़कों को देख कर ज्ञात होता था कि नगर के रख-रखाव और व्यवस्था बहुत ही सुन्दर और प्रशंसनीय होती थी।
उपरोक्त वर्णन से ज्ञात होता है कि उस काल में आज की ही तरह से नगरों का निर्माण तथा उनका रख-रखाव हुआ करता था। नगरों की साफ-सफाई तथा रख-रखाव के लिए अवश्य ही आज के जैसे ही स्वायत्तशासी संस्थाएँ भी रहा करती होंगी।
भारत में अत्यन्त प्राचीन काल में भी विशाल नगरों का होना भारत के गौरव का द्योतक है तथा भारत का यह गौरव विश्व भर में भारत को एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। भारत को विश्व भर में विशिष्ट स्थान प्राप्त होना यूरोपियनों, विशेषकर अंग्रेजों, को बिल्कुल पसन्द नहीं आया क्योंकि वे स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ समझते थे। इसलिए अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश बनाने के बाद सबसे पहला काम तो यह सिद्ध करने का किया कि प्राचीन भारत में सही ढंग से इतिहास लिखने की प्रथा ही नहीं थी और जो भी प्राचीन भारतीय ग्रंथ हैं उनमें इतिहास है ही नहीं, जो कुछ भी है वह गल्प मात्र है। सन् 1909 में प्रकाशित इम्पीरियल गजेटियर कहता है "ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में हिन्दुओं ने कभी भी सही इतिहास लिखने का प्रयास ही नहीं किया। उन्होंने केवल सामान्य साहित्य ही छोड़ा है जिसमें कहीं-कहीं पर ऐतिहासिक वर्णन भी है, किन्तु, जैसा कि स्पष्ट दिखाई देता है, केवल आकस्मिक वर्णन को इतिहास नहीं समझा जा सकता।" (देखें इम्पीरियल गजेटियर का निम्न स्नैपशॉट)
उसी गजेटियर में एक अन्य स्थान पर लिखा है "यह पहले ही कहा जा चुका है कि हिन्दुओं ने अपने वसीयत के रूप में हमें कोई भी ऐसी ऐतिहासिक वस्तु नहीं दी है जिसे कि सच्चा इतिहास माना जा सके......" (देखें स्नैपशॉट)
कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजों ने अपनी श्रेष्ठता बताने के लिए हमारे ग्रन्थों को झुठलाया, एक स्थान पर तो गजेटियर यह भी कहता है कि 'यद्यपि हिन्दू रामायण को महाभारत से प्राचीन मानते हैं किन्तु उसमें निहित सामग्री को पढ़ने से यूरोपियन विद्वानों को यही प्रतीत होता है कि रामायण की रचना महाभारत के बाद हुई है और यूरोपियन विद्वान महाभारत काल को रामायण काल से पहले का काल मानते हैं'।
हमारे ग्रन्थों के अर्थ तो उन्हों तोड़ा-मरोड़ा ही, साथ ही उन्होंने भारत पर आर्यों का आक्रमण जैसे कपोल-कल्पना को भी जन्म दे दिया ताकि भारत की श्रेष्ठता कभी सिद्ध ही न हो सके।
आज जो भारत का इतिहास पढ़ाया जाता है उसे कोई भी जरा सी भी बुद्धि रखने वाला व्यक्ति भारत का इतिहास मान ही नहीं सकता। वह तो भारत के दुश्मनों के द्वारा लिखा गया उनका स्वयं का इतिहास है जिसमें उन्होंने, चाहे वे मुगल रहे हों या फिर अंग्रेज, स्वयं को भारतीयों से श्रेष्ठ दर्शाया है। और सबसे बड़े दुःख की बात तो यह है कि उसी झूठे इतिहास को आज भी हमारे देश में पढ़ाया जाता है।
कोई भी गुलाम देश जब आजाद होता है तो सबसे पहले वह गुलाम बनाने वालों की भाषा, संस्कृति, उनके द्वारा रचे गए इतिहास इत्यादि को त्याग कर अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपने द्वारा रचे गए सच्चे इतिहास को अपनाता है, अपनी संस्कृति के आधार पर संविधान, शिक्षा-नीति इत्यादि का निर्माण करता है। किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् तत्कालीन तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं ने हमारे देश में ऐसा कुछ भी नहीं किया। अपने देश की मूल भाषा संस्कृत को रसातल में ढकेल कर अंग्रेजी को महत्वपूर्ण बना दिया। अब जब हम अपनी मूलभाषा को ही नहीं जानेंगे तो भला अपनी संस्कृति को कैसे समझ पाएँगे? अपना सच्चा इतिहास कहाँ से रच पाएँगे?
Sunday, November 13, 2011
जानने योग्य कुछ रोचक बातें
- जावा और सुमात्रा में करीब 3,500 प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी पाए जाते हैं।
- जापान में करीब 3,000 प्रकार के फूल पाए जाते हैं हैं।
- ‘टर्न’ नाम की चिड़िया हर साल लगभग 20,000 मील का सफर तय करती है।
- नारियल का पेड़ याने कि ‘पाम ट्री’ 6 मीटर से लेकर 30 मीटर तक ऊँचे होते हैं।
- बैंक ऑफ अमरीका पहले बैंक ऑफ इटली के नाम से जाना जाता था।
- सूर्य में पाई जाने वाली गैसों का 94 प्रतिशत केवल हाइड्रोजन गैस होती है।
- विशुद्ध सोने के आभूषण बनाए ही नहीं जा सकते।
Saturday, November 12, 2011
मोबाइल फोन से सम्बन्धित कुछ रोचक जानकारी
- विश्व के 4 अरब से अधिक मोबाइल फोन में से लगभग 1 अरब स्मार्ट फोन हैं।
- लगभग 3 अरब मोबाइल फोन SMS के लिए सक्षम हैं और, शायद आपको विश्वास न हो, लगभग 1 अरब से कुछ कम मोबाइल फोन में SMS की सुविधा ही नहीं है।
- कुल फेसबुक प्रयोगकर्ताओं का एक तिहाई हिस्सा लगभग बीस करोड़ मोबाइल फोन के द्वारा फेसबुक में आते हैं।
- मोबाइल इन्टरनेट प्रयोग का 91% प्रतिशत सिर्फ सोशल नेटवर्क्स के लिए ही पयोग किया जाता है जबकि डेस्कटॉप इन्टरनेट प्रयोग का 79% हिस्सा ही सोशन नेटवर्क्स के लिए प्रयुक्त होता है।
- संसार की कुल जनसंख्या के 70% प्रतिशत लोग मोबाइल का प्रयोग करते हैं।
- सन् 2014 में मोबाइल इन्टरनेट प्रयोग डेस्कटॉप इन्टरनेट प्रयोग से आगे हो जाएगा।
Thursday, November 10, 2011
शरद् ऋतु का अनुपम शारदीय आनन्द
मेघरहित नील-धवल स्फटिक-सा निर्मल अम्बर, श्वेत-धवल कास सुमन का वस्त्र धारण किए पंक-रहित धरा, भाँति-भाँति के पुष्पो से पल्लवित मधुकर-गुंजित उपवन एवं वाटिकाएँ, शान्त वेग से प्रवाहित कल कल नाद करती सरिताएँ, कमल तथा कुमुद से शोभित तड़ाग, चहुँ ओर शीतल-मंद-बयार का प्रवाह, अमृत की वर्षा करती चन्द्र-किरण शरद् ऋतु के आगमन का द्योतक हैं।
हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन तथा कार्तिक माह को शरद् ऋतु की संज्ञा दी गई है। शरद् ऋतु आते तक वृष्टि का अन्त हो चुका होता है। मौसम मनोरम हो जाता है। दिवस सामान्य होते हैं तो रात्रि में शीतलता व्याप्त रहती है। यद्यपि शरद् की शुरवात आश्विन माह के आरम्भ से हो जाती है किन्तु शरद् के सौन्दर्य का आभास शरद् पूर्णिमा अर्थात् क्वार माह की पूर्णिमा से ही शुरू होता है।
शरद ऋतु ने वाल्मीकि, कालिदास तथा तुलसीदास जैसे महान काव्यकारों के रस-लोलुप मन को मुग्ध-मोहित किया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं -
रात्रि: शशांकोदित सौम्य वस्त्रा, तारागणोन्मीलित चारू नेत्रा।
ज्योत्स्नांशुक प्रावरणा विभाति, नारीव शुक्लांशुक संवृतांगी।।
चन्द्र की सौम्य एवं धवल ज्योत्सना से सुशोभित रात्रि किसी श्रवेत वस्त्र धारण किए हुए सुन्दरी के समान प्रतीत हो रही है। उदित चन्द्र इसका मुख तथा तारागण इसके उन्मीलित नेत्र हैं।
ऋतु संहार में कवि कालिदास कहते हैं -
काशांसुका विचक्रपद्म मनोज्ञ वस्त्र, सोन्मादहंसरव नूपुर नादरम्या।
आपक्वशालि रूचिरानतगात्रयष्टि : प्राप्ताशरन्नवधूरिव रूप रम्या।।
कास के श्वेत पुष्पों के वस्त्र से धारण किए हुए नव-वधू के समना शोभायमना शरद-नायिका का मुख कमल-पुष्पों से निर्मित है। उन्मादित राजहंस की मधुर ध्वनि ही, इसकी नूपुर-ध्वनि है। पके हुए बालियों से नत धान के पौधों के जैसे तरंगायित इसकी देह-यष्टि किसका मन नहीं मोहती?
रामचरित मानस में तुलसीदास जी राम के मुख से कहलवाते हैं -
बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥
फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥
हे लक्ष्मण! वर्षा व्यती हो चुकी और शरद ऋतु का आगमन हो चुका है। सम्पूर्ण धरणी कास के फूलों से आच्छादित है।मानो (कास के सफेद बालों के रूप में) वर्षा ऋतु ने अपनी वृद्धावस्था को प्रकट कर दिया हो।
तुलसीदास जी तो शरद का प्रभाव पक्षियों पर भी बताते हुए कहते हैं -
जानि सरद ऋतु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥
जिस प्रकार से समय पाकर सुकृत (सुन्दर कार्य) अपने आप आ जाते हैं उसी प्रकार से शरद् ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए हैं।
शरद् ऋतु को भारतीय संस्कृति में धार्मिक रूप से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है। आश्विन माह में माता दुर्गा ने महिषासुर का, भगवान श्री राम ने रावण तथा कुम्भकर्ण का, भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का और कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया था। यही कारण है कि आश्विन एवं कार्तिक दोनों ही माह पवित्र महीने माने गए हैं। इन दोनों माह में हिन्दू त्यौहारों की भरमार होती है यथा नवरात्रि, दशहरा दीपावली, देव प्रबोधनी एकादशी आदि।
Wednesday, November 9, 2011
समझ में नहीं आता कि भारत की जनता अब अपने आप को समझदार क्यों समझने लगी है?
अभी-अभी आनलाइन दैनिक भास्कर में एक समाचार समाचार पढ़ा - "वाह रे ''सरकार'', सोनिया के विदेश दौरों की ही जानकारी नहीं!" अब बताइये भला, सरकार के लिए सोनिया गांधी के विदेश यात्राओं की जानकारी रखना जरूरी है क्या? सरकार तो सरकार ठहरी, पूरे देश की मालिक! यह तो उसकी मर्जी है कि किसके विदेश यात्रा का हिसाब रखे और किसके न रखे! जनता की बुद्धि पर तरस आता है जो यह सोचती है कि विदेश यात्रा में आखिर खर्च तो होता है और खर्च का हिसाब रखा जाना चाहिए क्योंकि पैसा तो जनता का है! जनता को जानना चाहिए कि एक बार उसने टैक्स के रूप में सरकार को पैसे दे दिए तो वह पैसा सरकार का हो गया। सरकार को दे देने के बाद उस पैसे पर जनता का हक रहा ही कहाँ? टैक्स पटा देने के बाद उसकी औकात रह जाती है क्या हिसाब पूछने की? चाहे वह पैसा यू.पी.ए. अध्यक्ष के विदेश यात्राओं में खर्च हो या फिर घोटालों के के द्वारा काले धन में परिणित होकर विदेशी बैंकों में जमा हो जाए, जनता को क्या करना है उससे? समझ में नहीं आता कि भारत की जनता अब अपने आप को समझदार क्यों समझने लगी है?
Tuesday, November 8, 2011
चावल - संसार के सर्वाधिक लोगों का प्रिय अनाज
कम से कम भारत में शायद ही कोई व्यक्ति होगा जिनसे चावल या उससे बने खाद्य सामग्री का प्रयोग न किया हो। चावल जहाँ बंगाल, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश आदि अनेक राज्यों का प्रमुख भोजन है वहीं पंजाब, हरयाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों, जहाँ का प्रमुख भोजन गेहूँ है, में भी चावल के बिना भोजन को अपूर्ण ही माना जाता है। यद्यपि आज बंगाल और बिहार राज्य भी चावल उगाने लगे हैं किन्तु कुछ दशक पूर्व तक इन दोनों राज्यों में छत्तीसगढ़ के द्वारा ही चावल की आपूर्ति हुआ करती थी क्योंकि छत्तीसगढ़ का मुख्य फसल चावल है और इसीलिए उसे "धान का कटोरा" के नाम से भी जाना जाता है। बहरहाल, चावल किसी राज्य का मुख्य भोजन हो या न हो, थोड़ी मात्रा में चावल खाना सभी राज्यों में पसन्द किया जाता है। यही कारण है कि समस्त भारत में चावल से बने खाद्य पदार्थ जैसे कि सादा राइस, मसाला राइस, राइस पुलाव, राइस बिरयानी इत्यादि आसानी के साथ उपलब्ध हो जाते हैं।
भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही चावल को महत्व दिया जाता रहा है। 'धान्य' के रूप में इसे साक्षात् लक्ष्मी ही कहा गया है। चावल के बगैर कोई भी पूजा सम्पन्न नहीं होती। दही और चावल का टीका लगाया जाता है। सुदामा ने कृष्ण को तंदुल अर्थात चावल ही भेंट किए थे। चावल को संस्कृत में 'अक्षत' के नाम से जाना जाता है।
एशिया के अनेकों देश ऐसे हैं जहाँ पर लोग औसतन दिन में दो से तीन बार तक चावल खाते हैं। म्यांमार में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 195 किलो चावल खाता है जबकि कम्बोडिया और लाओस में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 160 किलो चावल खाता है। एशिया की अपेक्षा अमेरिका और यूरोप के लोग चावल कम खाते हैं, अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 7 किलो और यूरोप में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 3 किलो चावल खाता है।
मानव ने सबसे पहले चावल की ही खेती की थी। हड़प्पा सभ्यता में, जो कि आज से लगभग पाँच हजार साल पुरानी है, चावल की खेती के प्रमाण मिले हैं।
किसी भी देश में उगने वाले चावल के अधिकतर भाग का उपभोग उसी देश में हो जाया करता है। यही कारण है कि विश्व के देशों में उगाए जाने वाले चावल का मात्र पाँच प्रतिशत ही निर्यात होता है। चावल का निर्यात करने में पहला नंबर है थाईलैंड का जो लगभग पचास लाख टन चावल का निर्यात करता है, दूसरे और तीसरे नंबर के चावल निर्यातक हैं अमेरिका और वियतनाम जहाँ से क्रमशः तीस लाख टन और बीस लाख टन चावल निर्यात होते हैं।
कहा जाता है कि संसार भर में धान की 1,40,000 से भी अधिक किस्में उगाई जाती हैं किन्तु शोधकर्ताओं के लिए बनाए गए अन्तर्राष्ट्रीय जीन बैंके में धान की लगभग 90000 किस्में ही जमा की जा सकी हैं। भारत में चावल की कुछ लोकप्रिय किस्में हैं - बासमती, गोविंद भोग, तुलसी भोग, तुलसी अमृत, बादशाह भोग, विष्णु भोग, जवाफूल, एच.एम.टी. इत्यादि।
धान की खेती करना अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। पारम्परिक तरीके से धान बोने हेतु एक एकड़ खेत को तैयार करने के लिए किसान को कीचड़ से सनी मिट्टी पर हल तथा बैलों के साथ लगभग बत्तीस कि.मी. चलना पड़ता है। धान के पौधे रोपने के लिए कमर से नीचे झुक कर एक-एक पौधे को जमीन में लगानी होती है जो कि एक कमर तोड़ देने वाला कार्य है। धान के फसल के लिए पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि धान की खेती पानी से लबालब भरे खेत में ही की जाती है।
धान का प्रत्येक हिस्सा उपयोगी होता है। धान की फसल काट लेने के बाद बचा हुआ पैरा मवेशियों को खिलाने के काम में आता है। धान के पैरे से रस्सी भी बनाई जाती है। धान के भूसे को उपलों के साथ मिला कर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। धान से लाई और चिवड़ा बनाया जाता है। चावल को सड़ा कर शराब तथा बियर बनाई जाती है। चावल के दानों को रंग कर रंगोली बनाई जाती है। चावल की पालिश के समय निकले छिलकों से तेल निकाला जाता है जिसे खाद्य तेल के रूप में तथा साबुन, सौन्दर्य सामग्री इत्यादि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से ही चावल को महत्व दिया जाता रहा है। 'धान्य' के रूप में इसे साक्षात् लक्ष्मी ही कहा गया है। चावल के बगैर कोई भी पूजा सम्पन्न नहीं होती। दही और चावल का टीका लगाया जाता है। सुदामा ने कृष्ण को तंदुल अर्थात चावल ही भेंट किए थे। चावल को संस्कृत में 'अक्षत' के नाम से जाना जाता है।
एशिया के अनेकों देश ऐसे हैं जहाँ पर लोग औसतन दिन में दो से तीन बार तक चावल खाते हैं। म्यांमार में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 195 किलो चावल खाता है जबकि कम्बोडिया और लाओस में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 160 किलो चावल खाता है। एशिया की अपेक्षा अमेरिका और यूरोप के लोग चावल कम खाते हैं, अमेरिका में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 7 किलो और यूरोप में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष औसतन 3 किलो चावल खाता है।
मानव ने सबसे पहले चावल की ही खेती की थी। हड़प्पा सभ्यता में, जो कि आज से लगभग पाँच हजार साल पुरानी है, चावल की खेती के प्रमाण मिले हैं।
किसी भी देश में उगने वाले चावल के अधिकतर भाग का उपभोग उसी देश में हो जाया करता है। यही कारण है कि विश्व के देशों में उगाए जाने वाले चावल का मात्र पाँच प्रतिशत ही निर्यात होता है। चावल का निर्यात करने में पहला नंबर है थाईलैंड का जो लगभग पचास लाख टन चावल का निर्यात करता है, दूसरे और तीसरे नंबर के चावल निर्यातक हैं अमेरिका और वियतनाम जहाँ से क्रमशः तीस लाख टन और बीस लाख टन चावल निर्यात होते हैं।
कहा जाता है कि संसार भर में धान की 1,40,000 से भी अधिक किस्में उगाई जाती हैं किन्तु शोधकर्ताओं के लिए बनाए गए अन्तर्राष्ट्रीय जीन बैंके में धान की लगभग 90000 किस्में ही जमा की जा सकी हैं। भारत में चावल की कुछ लोकप्रिय किस्में हैं - बासमती, गोविंद भोग, तुलसी भोग, तुलसी अमृत, बादशाह भोग, विष्णु भोग, जवाफूल, एच.एम.टी. इत्यादि।
धान की खेती करना अत्यन्त श्रमसाध्य कार्य है। पारम्परिक तरीके से धान बोने हेतु एक एकड़ खेत को तैयार करने के लिए किसान को कीचड़ से सनी मिट्टी पर हल तथा बैलों के साथ लगभग बत्तीस कि.मी. चलना पड़ता है। धान के पौधे रोपने के लिए कमर से नीचे झुक कर एक-एक पौधे को जमीन में लगानी होती है जो कि एक कमर तोड़ देने वाला कार्य है। धान के फसल के लिए पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि धान की खेती पानी से लबालब भरे खेत में ही की जाती है।
धान का प्रत्येक हिस्सा उपयोगी होता है। धान की फसल काट लेने के बाद बचा हुआ पैरा मवेशियों को खिलाने के काम में आता है। धान के पैरे से रस्सी भी बनाई जाती है। धान के भूसे को उपलों के साथ मिला कर ईंधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। धान से लाई और चिवड़ा बनाया जाता है। चावल को सड़ा कर शराब तथा बियर बनाई जाती है। चावल के दानों को रंग कर रंगोली बनाई जाती है। चावल की पालिश के समय निकले छिलकों से तेल निकाला जाता है जिसे खाद्य तेल के रूप में तथा साबुन, सौन्दर्य सामग्री इत्यादि बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
Sunday, November 6, 2011
देव प्रबोधनी एकादशी अर्थात् देव उत्थान एकादशी अर्थात देव उठनी एकादशी
कार्तिक मान के शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन, जिसे कि देव प्रबोधनी एकादशी, देव उत्थान एकादशी तथा देव उठनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है, क्षीरसागर में शेषशय्या पर शयन करते हुए भगवान विष्णु के योगनिद्रा से जागृत होने का दिन है। इसी दिन से शादी-विवाह आदि जैसे समस्त मांगलिक कार्यों का, जो कि देव के शयन काल के दौरान नहीं मनाए जा सकते, पुनः आरम्भ हो जाता है। पद्मपुराण के अनुसार इस दिन भगवान शालिग्राम तथा माता तुलसी का विवाह हुआ था।
आप सभी को देव प्रबोधनी एकादशी की शुभकामनाएँ!
भगवान शालिग्राम और माता तुलसी आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण करें!
(चित्र iskconsurat.com से साभार)
आप सभी को देव प्रबोधनी एकादशी की शुभकामनाएँ!
भगवान शालिग्राम और माता तुलसी आपकी मनोकामनाएँ पूर्ण करें!
Saturday, November 5, 2011
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विषय में कुछ जानकारी
जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की? अस्तु।
- नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था।
- उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था।
- सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।
- जानकीदास बोस को ब्रिटिश सरकार ने रायबहादुर का खिताब दिया था और वे चाहते थे कि उनका पुत्र आई.सी.एस. (आज का आई.ए.एस.) अधिकारी बने, इसलिए पिता का मन रखने के लिए सुभाष चन्द्र बोस सन् 1920 में आई.सी.एस. अधिकारी बने।
- महज एक साल बाद ही अर्थात् सन् 1921 में वे अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर आए।
- सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
- गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
- गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
- तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस को ग्यारह बार गिरफ्तार किया और अन्त में सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया।
- 1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।
- यूरोप में रहते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1933 से ’38 तक ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्वीजरलैण्ड, तुर्की और युगोस्लाविया की यात्राएँ कर के यूरोप की राजनीतिक हलचल का गहन अध्ययन किया और उसके बाद भारत को स्वतन्त्र कराने के उद्देश्य से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
- नेताजी का नारा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
- 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जाते हुए व लापता हो गए तथा उसके बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
- नेताजी की मृत्यु (?) आज तक इतिहास का एक रहस्य बना हुआ है?
Thursday, November 3, 2011
'तुमको पिया दिल दिया बड़े नाज से....' गाने के संगीत निर्देशक - जी.एस. कोहली
एक उच्च कोटि के फिल्म संगीत निर्देशक में जो प्रतिभाएँ होनी चाहिए, उन सभी प्रतिभाओं के होने के बावजूद भी संगीतकार जी.एस. कोहली को बतौर स्वतन्त्र संगीत निर्देशक के कुछ गिनी-चुनी कम बजट वाली तथा स्टंट फिल्में ही मिल पाईं। वैसे तो उन्होंने सन् 1960 में प्रदर्शित अपनी पहली ही फिल्म 'लम्बे हाथ' के गीत "प्यार की राह दिखा दुनिया को रोके जो नफरत की आँधी...." से अपनी पहचान बना ली थी, पर सर्वाधिक लोकप्रियता उन्हें सन् 1963 में प्रदर्शित फिल्म 'शिकारी' के गीत "तुमको पिया दिल दिया बड़े नाज से...." से ही मिली।
एक लम्बे समय तक संगीत निर्देशक ओ.पी. नैय्यर के सहायक रहे जी.एस. कोहली के संगीत में नैय्यर साहब के स्वर तथा रीदम शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। कोहली जी के संगीत में गायक कलाकारों के कण्ठस्वर के साथ बाँसुरी, सितार, सेक्सोफोन, गिटार, ग्रुप वायलिन आदि वाद्ययन्त्रों का संयोजन धुन को अत्यन्त कर्णप्रिय बना देता था, और उस पर ढोलक की विशिष्ट थाप तो धुन क मादकता से भर देता था। जरा याद करें 'अगर मैं पूछूँ जवाब दोगे ये दिल क्यों मेरा तड़प रहा है....', 'माँगी हैं दुआएँ हमने सनम इस दिल को धड़कना आ जाए...' जैसी गानों को! याद करके ही फड़क उठेंगे आप।
नैय्यर जी की तरह कोहली जी ने लता जी से कभी भी परहेज नहीं किया इसलिए कोहली जी के संगीत संयोजन में गाये लता जी के गानों को सुन कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि नैय्यर जी और लता जी का भी साथ बना होता तो वह 'सोने पर सुहागा; ही होता!
एक लम्बे समय तक संगीत निर्देशक ओ.पी. नैय्यर के सहायक रहे जी.एस. कोहली के संगीत में नैय्यर साहब के स्वर तथा रीदम शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है। कोहली जी के संगीत में गायक कलाकारों के कण्ठस्वर के साथ बाँसुरी, सितार, सेक्सोफोन, गिटार, ग्रुप वायलिन आदि वाद्ययन्त्रों का संयोजन धुन को अत्यन्त कर्णप्रिय बना देता था, और उस पर ढोलक की विशिष्ट थाप तो धुन क मादकता से भर देता था। जरा याद करें 'अगर मैं पूछूँ जवाब दोगे ये दिल क्यों मेरा तड़प रहा है....', 'माँगी हैं दुआएँ हमने सनम इस दिल को धड़कना आ जाए...' जैसी गानों को! याद करके ही फड़क उठेंगे आप।
नैय्यर जी की तरह कोहली जी ने लता जी से कभी भी परहेज नहीं किया इसलिए कोहली जी के संगीत संयोजन में गाये लता जी के गानों को सुन कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि नैय्यर जी और लता जी का भी साथ बना होता तो वह 'सोने पर सुहागा; ही होता!
Tuesday, November 1, 2011
यदि सरदार पटेल ने दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति न दिखाई होती तो हैदराबाद भी भारत के लिए कश्मीर के जैसा ही हमेशा के लिए सरदर्द बन गया होता
जब पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को भारत परतन्त्रता की बेड़ियों से आजाद हुआ तो उस समय लगभग 562 देशी रियासतें थीं जिन पर ब्रिटिश सरकार का हुकूमत नहीं था। उनमें से जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोडक़र अधिकतर रियासतों ने स्वेज्छा से भारत में अपने विलय की स्वीकृति दे दी। जूनागढ़ का नवाब जूनागढ़ का विलय पाकिस्तान में चाहता था। नवाब के इस निर्णय के कारण जूनागढ़ में जन विद्रोह हो गया जिसके परिणामस्वरूप नवाब को पाकिस्तान भाग जाना पड़ा और जूनागढ़ पर भारत का अधिकार हो गया। हैदराबाद का निजाम हैदराबाद स्टेट को एक स्वतन्त्र देश का रूप देना चाहता था इसलिए उसने भारत में हैदराबाद के विलय कि स्वीकृति नहीं दी। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतन्त्रता मिल चुकी थी किन्तु 18 सितम्बर 1948 तक, याने कि पूरे 1 वर्ष, 1 माह और 4 दिन तक हैदराबाद भारत से अलग ही रहा। इस पर तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने हैदराबाद के नवाब की हेकड़ी दूर करने के लिए 13 सितम्बर 1948 को सैन्य कार्यवाही आरम्भ कर दिया (यद्यपि वह सैन्य कार्यवाही ही था किन्तु उसे पुलिस कार्यवाही बतलाया गया था जिसका नाम 'ऑपरेशन पोलो' रखा गया था)। भारत की सेना के समक्ष निजाम की सेना टिक नहीं सकी और उन्होंने 18 सितम्बर 1948 को समर्पण कर दिया। हैदराबाद के निजाम को विवश होकर भारतीय संघ में शामिल होना पड़ा।
सरदार पटेल शुरू से ही हैदराबाद पर सैनिक कार्यवाही करना चाहते थे किन्तु तत्कालीन प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू सैनिक कार्यवाही के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि सैन्य कार्यवाही के द्वारा हैदराबाद मसले को सुलझाने में पूरा खतरा तथा अन्तर्राष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न होने की सम्भावना थी। वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक कार्रवाई को स्थगित कर दिया जाए। तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन भी नेहरू के ही पक्ष में थे। नेहरू की इस असहमति के कारण ही हैदराबाद के ऊपर सैन्य कार्यवाही करने में सरदार पटेल को इतना विलम्ब हुआ। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी. रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि 'जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता'।
अब आप ही सोचिए कि यदि सरदार पटेल ने उस समय अपनी दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सैन्य कार्यवाही नहीं किया होता तो क्या आज हैदराबाद भी कश्मीर की तरह से भारत के लिए हमेशा का सरदर्द नहीं बन गया होता?
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि ''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।"
सरदार पटेल शुरू से ही हैदराबाद पर सैनिक कार्यवाही करना चाहते थे किन्तु तत्कालीन प्रधान मन्त्री जवाहर लाल नेहरू सैनिक कार्यवाही के पक्ष में नहीं थे। उनका विचार था कि सैन्य कार्यवाही के द्वारा हैदराबाद मसले को सुलझाने में पूरा खतरा तथा अन्तर्राष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न होने की सम्भावना थी। वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक कार्रवाई को स्थगित कर दिया जाए। तत्कालीन गवर्नर जनरल माउंटबेटन भी नेहरू के ही पक्ष में थे। नेहरू की इस असहमति के कारण ही हैदराबाद के ऊपर सैन्य कार्यवाही करने में सरदार पटेल को इतना विलम्ब हुआ। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी. रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि 'जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता'।
अब आप ही सोचिए कि यदि सरदार पटेल ने उस समय अपनी दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए सैन्य कार्यवाही नहीं किया होता तो क्या आज हैदराबाद भी कश्मीर की तरह से भारत के लिए हमेशा का सरदर्द नहीं बन गया होता?
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि ''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।"
इन बातों को आप जानते हैं, फिर भी दोहरा रहा हूँ
- शल्यचिकित्सा के जनक सुश्रुत हैं।
- 'सिद्धान्त शिरोमणि' के रचयिता हैं सुविख्यात भारतीय गणितज्ञा एवं ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य!
- पृथ्वी के द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने में लगने वाले समय की शुद्ध गणना आज से हजारों साल पहले कर ली थी। उनके अनुसार उसका मान 365.258756484 दिन था।
- तथाकथित पाइथागोरस के प्रमेय को हजारों साल पहले बोधायन ने खोज लिया था। बोधायन को 'पाई' के मान की भी जानकारी थी।
- नौकायन की कला का जन्म ६००० वर्ष पूर्व सिन्धु नदी में हुआ था।
- तक्षशिला विश्वविद्यालय विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय है।
- श्रीधराचार्य ने ग्यारहवीं शताब्दी में द्विघातीय समीकरणों का प्रतिपादन किया।
- अठारहवीं सदी तक भारत संसार का सबसे सम्पन्न देश था।
- भारत की सम्पदा से आकर्षित होकर क्रिस्टोफर कोलम्बस भारत को खोजने निकला था पर भारत को खोजने के लिए निकले कोलंबस ने अमेरिका को खोज डाला।
- सैकड़ों वर्षों से चली आ रही गलतफ़हमी को दूर करते हुए अमेरिकी संस्था IEEE ने यह सिद्ध कर दिया है कि बेतार के संचार का आविष्कार मारकोनी ने नहीं बल्कि प्रोफ़ेसर जगदीश चन्द्र बोस ने किया था।
Monday, October 31, 2011
अमीर भारत की जनता को गरीब बनाने वाले काले अंग्रेज
यह तो हम सभी जानते हैं कि सोने की खदानें भारत में न तो आज हैं और न कभी पहले ही थी। फिर भी इतना सोना था भारत में कि उसे "सोने की चिड़िया" कहा जाता था। फिर प्रश्न यह उठता है कि आरम्भ ले लेकर अठारहवीं शताब्दी तक भारत विश्व का सबसे धनाढ्य देश कैसे बना रहा? जब भारत में सोने की खानें ही नहीं थीं तो फिर इतना सारा सोना वहाँ आया कहाँ से? जाहिर है कि उन देशों से आया होगा जहाँ सोने की खदानें हैं। पर इतिहास गवाह है कि कई हजार साल के अपने इतिहास में भारत ने कभी भी किसी अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया, किसी को भी लूटा नहीं। जब लूटा नहीं तो फिर भी दूसरे देशों से सोना कैसे आ गया? कोई किसी को सेंत-मेत में सोना तो देने से रहा। भारत ने लूटा नहीं और दूसरे देशों ने सेंत-मेंत में दिया नहीं फिर भी भारत में दूसरे देशों से न केवल सोना बल्कि चाँदी, हीरे, लाल जैसे अन्य रत्न आते रहे। लूट-खसोट से नहीं बल्कि व्यापार से। भारत कोई असभ्य देश नहीं था जो दूसरों को लूटता, लूटने का काम तो सिर्फ असभ्य ही करते हैं। भारत अत्यन्त प्राचीनकाल से ही सभ्य देश रहा है। प्राचीनकाल से ही भारत का व्यापार अत्यन्त समृद्ध रहा है। भारत के उत्पादनों की संसार भर के देशों में माँग थी और भारत का निर्यात विश्व के कुल निर्यात का एक तिहाई था। भारत के समृद्ध व्यापार ने भारत को एक ऐसा गड्ढा बना कर रख दिया था जिसमें दुनिया भर से धन-दौलत आ-आ कर भरने के तो सत्रह सौ साठ रास्ते थे पर उसमें उसे निकल जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था। यही कारण है कि भारत विश्व का सर्वाधिक धनाढ्य देश बन गया था। भारत के अनेक मन्दिरों तथा राजा-महाराजओं के धनागार में वह धन इकट्ठा होते रहता था।
अत्यन्त प्राचीनकाल से ही भारत का व्यापारिक सम्बन्ध भारत से बाहर के देशों से स्थापित हो चुका था। भारत में बने कपड़ों की प्रायः सभी देशों में माँग बनी ही रहती थी, भारत के मसालों के लिए तो अन्य देश के लोग मसालों के वजन के बराबर सोना तक देने के लिए तैयार रहते थे। यह व्यापारिक सम्बन्ध मुग़ल अमलदारी में फिर से नये सिरे से फिर स्थापित हुआ। मुग़ल-साम्राज्य की समाप्ति तक अफ़गानिस्तान दिल्ली के बादशाह के अधीन था तथा अफ़गानिस्तान के जरिये बुखारा, समरकंद, बलख, खुरासान, खाजिम और ईरान से हजारों यात्री तथा व्यापारी भारत में आते रहते थे। बादशाह जहांगीर के राज्यकाल में तिजारती माल से लदे चौदह हजार ऊँट प्रतिवर्ष बोलान दर्रे से भारत आते थे। इसी प्रकार पश्चिम में भड़ोंच, सूरत, चाल, राजापुर, गोआ और करबार तथा पूर्व में मछलीपट्टनम तथा अन्य बन्दरगाहों से सहस्रों जहाज प्रतिवर्ष अरब, ईरान, टर्की, मिस्र, अफ्रीका, लंका, सुमात्रा, जावा, स्याम और चीन आते-जाते थे।
भारत की अकूत धन-सम्पदा को प्राप्त करने के लालच में यवन, शक, हूण, तुर्क, मुगल आदि जैसी असभ्य और बर्बर जातियों ने बार-बार आक्रमण करते रहे। अनेकों बार लूटे जाने के बावजूद भी भारत की धन-सम्पदा अकूत ही बनी रही। अंग्रेजों के आने तक भारत संसार का सबसे धनी देश बना ही रहा। शाहजहां की धन-दौलत का अनुमान तक कोई भी इतिहासज्ञ नहीं लगा सका है। उसका स्वर्ण-रत्न-भण्डार संसार भर में अद्वितीय था। गोलकुण्डा से ही उसे तीस करोड़ की सम्पदा प्राप्त हुई थी, आज के तीस करोड़ नहीं बल्कि आज से लगभग चार सौ साल पहले के तीस करोड़ रुपये। शाहजहां ने मक्का में काबा मस्जिद में एक ठोस सोने की एक मोमबत्ती, जिसमें सबसे बहुमूल्य हीरा जड़ा था जिसकी कीमत एक करोड़ रुपये थी, भेंट की थी। कहा जाता है कि शाहजहां के पास इतना धन था कि फ्रांस और पर्शिया के दोनों महाराज्यों के कोष मिलाकर भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते थे। तख्त-ए-ताउस सोने के ठोस पायों पर बना हुआ था जिसमें मोतियों और जवाहरात के दो मोर बने थे। उसमें पचास हजार मिसकाल हीरे, मोती और दो लाख पच्चीस मिसकाल शुद्ध सोना लगा था, जिसकी कीमत सत्रहवीं शताब्दी में तिरपन करोड़ रुपये आँकी गई थी। इससे पूर्व इसके पिता जहांगीर के खजाने में एक सौ छियानवे मन सोना तथा डेढ़ हजार मन चाँदी, पचास हजार अस्सी पौंड बिना तराशे जवाहरात, एक सौ पौंड लालमणि, एक सौ पौंड पन्ना और छः सौ पौंड मोती थे। शाही फौज अफसरों की दो हजार तलवारों की मूठें रत्नजटित थीं। दीवाने-खास की एक सौ तीन कुर्सियाँ चाँदी की तथा पाँच सोने की थीं। तख्त-ए-ताउस के अलावा तीन ठोस चाँदी के तख्त और थे, जो प्रतिष्ठित राजवर्गी जनों के लिए थे। इनके अतिरिक्त सात रत्नजटित सोने के छोटे तख्त और थे। बादशाह के हमाम में जो टब सात फुट लम्बा और पाँच फुट चौड़ा था, उसकी कीमत दस करोड़ रुपये थी। शाही महल में पच्चीस टन सोने की तश्तरियाँ और बर्तन थे। वर्नियर कहता है कि बेगमें और शाहजादियाँ तो हर वक्त जवाहरात से लदी रहती थीं। जवाहरात किश्तियों में भरकर लाए जाते थे। नारियल के बराबर बड़े-बड़े लाल छेद करके वे गले में डाले रहती थीं। वे गले में रत्न, हीरे व मोतियों के हार, सिर में लाल व नीलम जड़ित मोतियों का गुच्छा, बाँहों में रत्नजटित बाजूबंद और दूसरे गहने नित्य पहने रहती थीं।
भारत की इस अथाह धनराशि के विषय में एशियाई देश तो जानते ही थे, यूरोपीय देशों में भी इसकी चर्चा होती थी। किन्तु फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देशों के पास भारत पहुँचने का कोई आसान जरिया नहीं था। फिर पन्द्रहवीं शताब्दी में पुर्तगाली वास्को डा गामा ने भारत पहुँचने का समुद्री रास्ता खोज लिया। भारत की अकूत धन-सम्पदा को देखकर उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने जब वापस जाकर यहाँ के वैभव के बारे में यूरोप को बताया तो यूरोपीय लोगों का मुँह में पानी आने लग गया। उन्हें पता चल गया था कि भारत के एक समुद्री तट से दूसरे समुद्री तट में जाकर व्यापार करने वाले जहाजों में अपार धन होता है। बस फिर क्या था, हिन्द महासागर यूरोपीय समुद्री डाकुओं से पट गया। पुर्तगाल और स्पेन के समुद्री डाकू दो सौ साल तक भारतीय जहाजों को लूटते रहे। यहाँ तक कि पुर्तगालियों ने मंगलौर, कंचिन, लंका, दिव, गोआ और बम्बई के टापू को अपने अधिकार में ही ले लिया।
वैसे तो उन दिनों अधिकांश यूरोपीय देश लुटेरे ही थे किन्तु उनमें सबसे पहला नंबर इंग्लैंड का था क्योंकि इंगलैंड अठारहवीं शताब्दी के आरम्भ तक घोर दरिद्रता, निरक्षरता और अन्धविश्वासों का दास बना हुआ था। कृषि वहाँ होती नहीं थी, व्यापार, उद्योग-धंधे वहाँ थे नहीं। इंगलैंड के पीछे न तो किसी जातीय सभ्यता का इतिहास था और न ही किसी प्राचीन संस्कृति की छाप। पर सत्रहवीं शताब्दी के पहले इंग्लैंड के लुटेरे भारत तक पहुँच ही नहीं पाए क्योंकि उनके पास भारत आने के रास्ते का नक्शा नहीं था। रानी एलिजाबेथ के शासनकाल में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक डाकू, जो कि ‘समुद्री कुत्ते’ के नाम से विख्यात था, एक पुर्तगालियों के जहाज को लूट लिया तो उसमें उसे लूट के माल के साथ भारत आने का समुद्री नक्शा भी मिल गया। भारत के धन-वैभव के विषय में उन्होंने सुन ही रखा था इसलिए इस नक्शे के मिल जाने पर ही ईंस्ट इंडिया कंपनी की नींव का पहला पत्थर डाला गया।
भारतीय जलमार्ग के नक्शे के मिल जाने के लगभग तीस साल बाद सन् 1608 में अंग्रेजों का ‘हेक्टर’ नामक एक जहाज सूरत के बन्दरगाह में आकर लगा। जहाज का कप्तान का नाम हाकिन्स था जो कि पहला अंग्रेज था जिसने भारत की भूमि पर कदम रखा था। उन दिनों भारत में बादशाह जहांगीर तख्तनशीन थे। हाकिन्स ने आगरा जाकर इंग्लिस्तान के बादशाह जेम्स प्रथम का पत्र और सौगात बादशाह को भेंट की। आगरा की विशाल अट्टालिकाएँ, नगर का वैभव और बादशाह जहांगीर के ऐश्वर्य को देखकर उसकी आँखें चुँधिया गईं। ऐसी शान का शहर उसने अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं था, देखना तो दूर उसने ऐसे वैभवशाली नगर की कभी कल्पना भी नहीं की थी। चिकनी-चुपड़ी बातें करके उसने बादशाह को खुश कर लिया और अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाने तथा व्यापार करने का फर्मान भी जारी करवा लिया। इतना ही नहीं इस बात की भी इजाजत ले ली कि मुगल दरबार में अंग्रेज एलची रहा करे। थोड़े ही समय पश्चात् सर टॉमस रो इंग्लिस्तान के बादशाह का एलची बनकर मुगल-दरबार आया और उसने अंग्रेज व्यापारियों के लिए और भी सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। अंग्रेजों को कालीकट और मछलीपट्टनम में भी कोठियाँ बनाने की इजाजत मिल गई। अपनी बातों के जाल में उसने बादशाह को ऐसा उलझाया कि बादशाह ने यह फर्मान भी जारी कर दिया कि अपनी कोठी के अन्दर रहने वाले कम्पनी के किसी मुलाजिम के कसूर करने पर अंग्रेज स्वयं उसे दण्ड दे सकते हैं। यह एक विचित्र बात थी क्योंकि अंग्रेजों ने अपने साथ अपने देश से किसी नौकर को नहीं लाया था बल्कि उन्होंने भारतीयों को ही अपना नौकर बना कर रख लिया था। इस प्रकार से इस फर्मान के तहत अंग्रेजों को अपने भारतीय नौकरों का न्याय करने और उन्हें सजा देना का अधिकार मिल गया। ऐसा फर्मान जारी करना बादशाह की सबसे बड़ी भूल थी। फर्मान जारी करते वक्त उस बादशाह ने सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन ये अंग्रेज बादशाह के उत्तराधिकारी तक को दण्ड दने लगेंगे और यदि उनका विरोध किया जाएगा तो वे प्रजा का संहार कर डालेंगे तथा बादशाह के उत्तराधिकारी को बागी कहकर आजीवन कैद कर लेंगे।
शुरू-शुरू में उनका व्यापार भारत में नहीं चला क्योंकि वे प्रायः काँच के सस्ते सामान के थैले लादे शहर-शहर गली- गली में घूम-घूम कर उन सामानों को बेचते फिरते थे। औरंगजेब के समय तक भारत के अन्दर अंग्रेज व्यापारियों की स्थिति लगभग वैसी ही थी, जैसे आज घूम-घूम कर हींग बेचने वाले काबुलियों की होती है। हाँ यह जरूर था कि बंदर की भाँति लाल-लाल चेहरेवाले फिरंगी के मुँह से उनकी अटपटी भाषा सुनने को बालक और स्त्रियाँ आतुर रहते, उनके आने पर उनके काँच के सस्ते सामान को हँसी उड़ाते और उन्हें तंग करते थे।
किन्तु बाद में वे अपने देश से सोना-चाँदी, जो कि प्रायः समुद्री डाकुओं की लूट का माल होता था, बेचना शुरू किया और उनका यह धंधा जोर-शोर के साथ चल निकला और वे मुनाफा कमने लगे। भारत से वापस इंग्लैंड जाते समय वे भारत से कच्चे रेशम, रेशम के बने कपड़े, उम्दा किस्म का शोरा सस्ते में खरीद कर ले जाते थे जिनकी वहाँ पर खूब माँग थी।
सूरत में उनकी कोठी पहले से ही थी। बाद में उन्होंने पटना और मछलीपट्टनम, जो कि उन दिनों गोलकुण्डा राज्य के अन्तर्गत बन्दरगाह था, में भी कोठियाँ बनवा डालीं। व्यापार के बढ़ने के साथ ही साथ बालासोर, कटक, हरिहरपुर आदि में भी अंग्रेजों की कोठियाँ बन गईं। विजयनगर के महाराज से जमीन माँग कर अंग्रेजों ने मद्रास में सेंट जार्ज का किला भी बनवा लिया। इस प्रकार से मुगल-राज्य से बाहर अंग्रेजों का एक स्वतन्त्र केन्द्र स्थापित हो गया।
यद्यपि ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में सिर्फ व्यापार करने की इजाजत मिली थी, वह कम्पनी ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधि नहीं थी, किन्तु अब इस कंपनी ने अपने निजी धन-जन से भारत के भागों को हथियाना शुरू कर दिया। और मजे की बात तो यह है कि उनका निजी धन-जन भी भारत की ही थी याने कि भारत से कमाई गई रकम से भारत के लोगों को ही सैनिक बना कर भारतीय लोगों पर ही आक्रमण करना। इस प्रकार से उस काल में भारत की बीस करोड़ जनता पर ब्रिटेन के मात्र सवा करोड़ निवासियों का वर्चस्व होने की शुरुवात हो गई।
सन् 1661 में इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपना सिक्का चलाने, रक्षा के लिए फौज रखने, किले बनाने और आवश्यकता पड़ने पर लड़ाई लड़ने के भी अधिकार प्रदान कर दिए। यह दूसरी विचित्र बात थी क्योंकि जिस भारत पर इंग्लैंड के राजा का किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था, उसी भारत पर व्यापार करने वाली अंग्रेजी कंपनी को इंग्लैंड के राजा ने राजनैतिक अधिकार दे दिया और यहाँ के सत्ताधारियों के कान में जूँ भी नहीं रेंगी। यही वह अधिकार था जिसने बाद में भारत में अंग्रेजों की सत्ता स्थापित की।
औरंगजेब की अनुदार नीति ने चारों ओर छोटी-छोटी परस्पर प्रतिस्पर्धा करने वाली रियासतें भारत में पैदा कर दी, जिससे केन्द्रीय शक्ति निर्बल हो गई और हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य खण्डित हो गया। औरंगजेब की मृत्यु के कुछ वर्षों बाद ही मद्रास और बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी के षड्यन्त्र चलने लगे, जिनके फलस्वरूप औरंगजेब की मृत्यु के पचास वर्ष बाद प्लासी का युद्ध हुआ। उस समय अंग्रेजों का हित इस बात में था कि औरंगजेब की अनुदार नीति के कारण जो अव्यवस्था और अनैक्य भारत के हिन्दू-मुसलमानों में स्थापित हो चुका था, वह कायम ही रखा जाए और उन्होंने यही अपनी नीति बना ली।
इतने सब के बावजूद भी उस समय तक सभ्यता, शक्ति और व्यवस्था में भारतीय अंग्रेजों से श्रेष्ठ थे। परन्तु उनमें एक बात की कमी थी। वह कमी थी उनके भीतर राष्ट्रीयता या देश-भक्ति की भावना का न होना। यद्यपि भारत की शक्ति बहुत अधिक थी, किन्तु वह बिखरी हुई थी, छोटे-छोटे राजा-रजवाड़ों में बँटी हुई थी। अंग्रेजों और दूसरी यूरोपियन जातियों ने यह बात जान ली और उन्होंने इससे लाभ उठाकर एक शक्ति को दूसरी शक्ति से लड़ाने का धन्धा आरम्भ कर दिया। दिखाने के लिए उन्होंने अपना रूप निष्पक्ष का रखा, परन्तु भीतर ही भीतर भाँति-भाँति की साजिशों और चालों को चलकर उन्होंने बिखरी हुई भारतीय शक्तियों में ऐसा संग्राम खड़ा कर दिया कि वे शक्तियाँ स्वयं ही एक-दूसरे से टकराकर चकनाचूर होने लगीं। परिणाम यह हुआ कि संसार का सर्वाधिक धनाढ्य देश भारत अंग्रेजों के अधिकार में आ गया और उन्होंने उस सर्वाधिक सम्पन्न देश को लूट-लूट कर दुनिया का सबसे बड़ा कंगाल देश बना डाला।
किन्तु भारत के पास आज भी ऐसी प्राकृति सम्पदाएँ हैं जो अन्य देशों के पास नहीं है। मीठे फलों, पत्तीदार सब्जियों तथा अन्य बहुत सारी वस्तुओं के लिए यूरोपीय देश आज भी भारत पर आश्रित हैं। भारतीयों की श्रम-शक्ति और बुद्धि-चातुर्य अद्भुत है। इन्हीं कारणों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से भारत ने फिर से तेजी सम्पन्नता प्राप्त करना शुरू कर दिया। आज भी भारत बहुत अमीर है पर वहाँ की जनता गरीब है। अमीर भारत की जनता को गरीब बनाने का श्रेय सिर्फ उन काले अंग्रेजों को जाता है जिनके हाथ में स्वतन्त्रता के बाद सत्ता की बागडोर चली गई और जिन्होंने तरह-तरह के घोटाले कर-कर फिर से भारत को लूटना शुरू कर दिया। सन उन्नीस सौ अड़तालीस में घोटाले की जो शुरुवात हुई वह दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ती गई तथा आज तक जारी है। इन काले अंग्रेजों ने ही अमीर भारत की जनता को गरीब बना डाला और स्वयं को अमीर।
Saturday, October 29, 2011
"घास खोद रहा हूँ - इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं" - श्रीलाल शुक्ल
व्यंग और कटाक्ष के माध्यम से कटुसत्य उघाड़ कर रख देना हर किसी के बस की बात नहीं है। श्रीलाल शुक्ल इसी विधा के धनी थे। लोकहित और प्रजातन्त्र के नाम पर आज जो राजनीतिक संस्कृति फल-फूल रही है, उसे एक छोटे से कस्बे शिवपालगंज की पंचायत, वहाँ के कॉलेज प्रबन्धन समिति और कोऑपरटिव्ह सोसाइटी के सूत्रधार वैद्यजी का रूप देकर अत्यन्त सरलता के साथ प्रस्तुत कर देने जैसा कार्य शुक्ल जी के विलक्षण व्यंग लेखन का अद्वितीय उदाहरण है। उनका लेखन भारतीय ग्राम्य तथा नगरीय जीवन के नैतिक पतन, स्वार्थपरता और मूल्यहीनता को परत-दर-परत उघाड़ कर रख देता है।
इस देश के नियम और कानून को दर्शाते हुए वे लिखते हैं -
"स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक व्ह्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियाँ जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।"
शुक्ल जी के कटाक्ष हर किसी को तिलमिला कर रख देते हैं। उनकी कृति "राग दरबारी" से लिए गए उनके कटाक्ष के कुछ नमूने यहाँ पर प्रस्तुत हैं -
इस देश के नियम और कानून को दर्शाते हुए वे लिखते हैं -
"स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक व्ह्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियाँ जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालीस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।"
शुक्ल जी के कटाक्ष हर किसी को तिलमिला कर रख देते हैं। उनकी कृति "राग दरबारी" से लिए गए उनके कटाक्ष के कुछ नमूने यहाँ पर प्रस्तुत हैं -
- आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर ट्रेन को रोज की तरह दो घंटा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घंटा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुये उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।
- प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय, की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देशी कारीगरों के हस्तकौशल और वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब दुनिया में अकेले हमीं को आती है।
- रिश्वत, चोरी, डकैती- अब तो सब एक हो गया है.....पूरा साम्यवाद है!
- विद्यालय के एक-एक टुकड़े का अलग-अलग इतिहास था। सामुदायिक मिलन -केन्द्र गाँव-सभा के नाम पर लिये गये सरकारी पैसे से बनवाया गया था। पर उसमें प्रिंसिपल का दफ्तर था और कक्षा ग्यारह और बारह की पढ़ाई होती थी। अस्तबल -जैसी इमारतें श्रमदान से बनी थीं। टिन -शेड किसी फ़ौजी छावनी के भग्नावशेषों को रातोंरात हटाकर खड़ा किया गया था। जुता हुआ ऊसर कृषि-विज्ञान की पढ़ाई के काम आता था। उसमें जगह-जगह उगी हुई ज्वार प्रिंसिपल की भैंस के काम आती थी। देश में इंजीनियरों और डॉक्टरों की कमी है। कारण यह है कि इस देश के निवासी परम्परा से कवि हैं। चीज़ को समझने के पहले वे उस पर मुग्ध होकर कविता कहते हैं। भाखड़ा-नंगल बाँध को देखकर वे कहते हैं, "अहा! अपना चमत्कार दिखाने के लिए, देखो, प्रभु ने फिर से भारत-भूमि को ही चुना।" ऑपरेशन -टेबल पर पड़ी हुई युवती को देखकर वे मतिराम-बिहारी की कविताएँ दुहराने लग सकते हैं।
- उन्हें देखकर इस फिलासफी का पता चलता था कि अपनी सीमा के आस-पास जहाँ भी ख़ाली ज़मीन मिले, वहीं आँख बचाकर दो-चार हाथ ज़मीन घेर लेनी चाहिए।
- अंग्रेजों के ज़माने में वे अंग्रेजों के लिए श्रद्धा दिखाते थे। देसी हुकूमत के दिनों में वे देसी हाकिमों के लिए श्रद्धा दिखाने लगे। वे देश के पुराने सेवक थे। पिछले महायुद्ध के दिनों में, जब देश को ज़ापान से ख़तरा पैदा हो गया था, उन्होने सुदूर-पूर्व में लड़ने के लिए बहुत से सिपाही भरती कराये। अब ज़रूरत पड़ने पर रातोंरात वे अपने राजनीतिक गुट में सैंकड़ों सदस्य भरती करा देते थे। पहले भी वे जनता की सेवा जज की इजलास में जूरी और असेसर बनकर, दीवानी के मुकदमों में जायदादों के सिपुर्ददार होकर और गाँव के ज़मींदारों में लम्बरदार के रूप में करते थे। अब वे कोऑपरेटिव यूनियन के मैनेजिंग डाइरेक्टर और कॉलिज के मैनेजर थे। वास्तव में वे इन पदों पर काम नहीं करना चाहते थे क्योंकि उन्हें पदों का लालच न था। पर उस क्षेत्र में ज़िम्मेदारी के इन कामों को निभानें वाला कोई आदमी ही न था और वहाँ जितने नवयुवक थे, वे पूरे देश के नवयुवकों की तरह निकम्मे थे; इसीलिए उन्हें बुढ़ापे में इन पदों को सँभालना पड़ा था।
- पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।
- तब वकीलों ने लंगड़ को समझाया। बोले कि नक़ल बाबू भी घर-गिरिस्तीदार आदमी है। लड़कियाँ ब्याहनी हैं। इसलिए रेट बढ़ा दिया है। मान जाओ और पाँच रूपये दे दो। पर वह भी ऐंठ गया। बोला कि अब यही होता है। तनख्वाह तो दारू-कलिया पर खर्च करते हैं और लड़कियाँ ब्याहने के लिए घूस लेते हैं। नक़ल बाबू बिगड़ गया। गुर्राकर बोला कि जाओ, हम इसी बात पर घूस नहीं लेंगे। जो कुछ करना होगा क़ायदे से करेंगे। वकीलों ने बहुत समझाया कि ‘ऐसी बात न करो, लंगड़ भगत आदमी है, उसकी बात का बुरा न मानो,’ पर उसका गुस्सा एक बार चढ़ा तो फिर नहीं उतरा।
Friday, October 28, 2011
यम द्वितीया याने कि भाई दूज
पौराणिक मान्यता के अनुसार यम तथा यमुना, जो कि सूर्य एवं संज्ञा की सन्तानें थीं, में परस्पर बहुत अधिक स्नेह था। अलग-अलग दायित्व मिल जाने उन्हें एक-दूसरे से दूर होना पड़ा। यमुना ने अपने भाई यम को अपने घर आने के लिए अनेक बार निमन्त्रित किया किन्तु कार्याधिक्य तथा व्यस्तता के कारण वे यमुना के घर नहीं जा पाते थे। एक बार कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमराज को कुछ अवकाश मिला तो वे अपनी बहन यमुना के घर पहुँच गए। अपने घर अपने भाई यम को आए देखकर यमुना अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनका बहुत आदर-सत्कार किया, विविध प्रकार के व्यञ्जन बना कर उन्हें खिलाया और उनके भाल पर तिलक लगाया। बदले में यम ने भी यमुना को अनेक प्रकार के उपहार दिए।
बहन के घर से विदा लेते समय यम ने यमुना से वर माँगने का आग्रह किया। इस पर यमुना ने उनसे प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपने घर आने का तथा उन समस्त भाइयों का, जो कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपनी बहन के घर भोजन कर उन्हें भेंट दें, कल्याण करने का वचन ले लिया।
यही कारण है कि यम द्वितीया याने कि भाई दूज के दिन भाई अपने बहन के घर जाकर भोजन करते हैं तथा उन्हें भेंट देते हैं। जिनकी बहनें नहीं होतीं, उन्हें भाई दूज के दिन गाय के कोठे में बैठकर भोजन करना पड़ता है।
बहन के घर से विदा लेते समय यम ने यमुना से वर माँगने का आग्रह किया। इस पर यमुना ने उनसे प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपने घर आने का तथा उन समस्त भाइयों का, जो कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन अपनी बहन के घर भोजन कर उन्हें भेंट दें, कल्याण करने का वचन ले लिया।
यही कारण है कि यम द्वितीया याने कि भाई दूज के दिन भाई अपने बहन के घर जाकर भोजन करते हैं तथा उन्हें भेंट देते हैं। जिनकी बहनें नहीं होतीं, उन्हें भाई दूज के दिन गाय के कोठे में बैठकर भोजन करना पड़ता है।
Wednesday, October 26, 2011
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
माँ लक्ष्मी की कृपा से आपका जीवन सदैव धन-धान्य, सुख-सम्पत्ति से परिपूर्ण रहे।
(चित्र देशीकमेंट.कॉम से साभार)
Tuesday, October 25, 2011
नरक चौदस - नरकासुर के नाश का दिन
दीपावली के पाँच दिनों के पर्व का दूसरा दिन, अर्थात् लक्ष्मीपूजा के एक दिन पहले वाला दिन, नरक चौदस कहलाता है। नरक चौदस के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात् लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दिये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं।
नरक चौदस के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं जिनमें से एक नरकासुर वध की कथा भी है। कहा जाता है कि नरक चौदस के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। प्राग्ज्योतिषपुर में राज्य करने वाला नरकासुर एक अत्यन्त ही क्रूर असुर था। उसने इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परास्त किया था तथा सोलह हजार देवकन्याओं का हरण कर रखा था। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर से वध करके उसका संहार किया और उन सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई। उन समस्त कन्याओं ने अपने मुक्तिदाता श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। नरकासुर का वध करने के कारण ही श्री कृष्ण को 'नरकारि' के नाम से भी जाना जाता है, 'नरकारि' शब्द नरक तथा अरि के मेल से बना हुआ है, नरक अर्थात नरकासुर और अरि का अर्थ है शत्रु। नरकासुर का मित्र मुर नामक असुर का भी श्री कृष्ण ने वध किया था इसलिए उनका नाम 'मुरारि' भी है।
नरकासुर का अत्याचार रूपी तिमिर का नाश होने की स्मृति में ही आज भी नरक चौदस के दिन अन्धकार पर प्रकाश की विजय के रूप में दिए जलाए जाते हैं।
नरक चौदस के साथ अनेक पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं जिनमें से एक नरकासुर वध की कथा भी है। कहा जाता है कि नरक चौदस के दिन ही भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। प्राग्ज्योतिषपुर में राज्य करने वाला नरकासुर एक अत्यन्त ही क्रूर असुर था। उसने इन्द्र, वरुण, अग्नि, वायु आदि सभी देवताओं को परास्त किया था तथा सोलह हजार देवकन्याओं का हरण कर रखा था। देवताओं की प्रार्थना पर भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर से वध करके उसका संहार किया और उन सोलह हजार कन्याओं को मुक्ति दिलाई। उन समस्त कन्याओं ने अपने मुक्तिदाता श्री कृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। नरकासुर का वध करने के कारण ही श्री कृष्ण को 'नरकारि' के नाम से भी जाना जाता है, 'नरकारि' शब्द नरक तथा अरि के मेल से बना हुआ है, नरक अर्थात नरकासुर और अरि का अर्थ है शत्रु। नरकासुर का मित्र मुर नामक असुर का भी श्री कृष्ण ने वध किया था इसलिए उनका नाम 'मुरारि' भी है।
नरकासुर का अत्याचार रूपी तिमिर का नाश होने की स्मृति में ही आज भी नरक चौदस के दिन अन्धकार पर प्रकाश की विजय के रूप में दिए जलाए जाते हैं।
(चित्र देशीकमेंट.कॉम से साभार)
Saturday, October 22, 2011
रामलाल - एक भुला दिए गए फिल्म संगीत निर्देशक
मैं सुबह की चाय पी रहा था और मेरे कानों में गूँज रहे थे पड़ोस से आती हुई गीत के बोल 'तेरे खयालों में हम तेरी ही ख्वाबों में हम....'। सुनकर मन झूम उठा और मैं सन् 2011 से सन् 1964 में पहुँच गया जब फिल्म व्ही. शांताराम जी की 'फिल्म गीत गाया पत्थरों ने', जिस फिल्म का यह गाना है, रिलीज हुई थी। फिल्म के गाने खूब लोकप्रिय हुए थे। फिल्म के संगीत निर्देशक थे रामलाल।
उन दिनों फिल्म संगीत निर्देशक के रूप में रामलाल चौधरी, नौशाद, सचिनदेव बर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ.पी. नैयर आदि जैसे, जाना-माना नाम नहीं था। बहुत कम लोग उन्हें उसके पहले शायद जानते रहे हों, विशेषकर शांताराम जी की ही फिल्म 'सेहरा' के गीत 'पंख होते तो उड़ आती रे...' और 'तकदीर का फसाना....' के लिए। हालाकि उन्होंने उसके पहले हुस्नबानो फिल्म में भी संगीत दिया था पर उससे उनकी पहचान नहीं बन पाई थी।
रामलाल चौधरी फिल्म संगीत जगत की एक भूली हुई प्रतिभा हैं जिन्होंने सन् 1944 में फिल्मी संसार में पदार्पण किया था। उन दिनों वे संगीतकार राम गांगुली के सहायक हुआ करते थे। 'जिंदा हूँ इस तरह के गमे जिंदगी नहीं....' और 'देख चाँद की ओर मुसाफिर....' गानों में उनका बाँसुरी वादन तथा शहनाई वादन इतना अधिक पसंद किया गया कि वे एक प्रकार से बाँसुरी वादक तथा शहनाई वादक के रूप में ही जाने जाने लगे। सी. रामचंद जी ने फिल्म 'नवरंग' के गीत 'तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ....' में उनके शहनाई वादन का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है।
स्वतन्त्र संगीतकार के रूप में रामलाल चौधरी के पी.एल संतोषी ने सन् 1950 में फिल्म 'तांगावाला', जिसमें राज कपूर और और वैजयन्ती माला प्रमुख कलाकार थे, के लिए पहली बार मौका दिया था। उस फिल्म के लिए रामलाल ने 6 गानों की धुनें बना भी ली थीं किन्तु दुर्भाग्य से किसी कारणवश उस फिल्म का निर्माण ही रुक गया और वह फिल्म कभी बन ही नहीं सकी। दुर्भाग्य ने उनका साथ बाद में भी नहीं छोड़ा और सेहरा तथा गीत गाया पत्थरों ने फिल्मों में अत्यन्त लोकप्रिय संगीत देने के बावजूद भी उन्हें आगे फिल्में नहीं मिलीं। आज रामलाल एक भुला दिए गए संगीतकार बन कर रह गए हैं।
उन दिनों फिल्म संगीत निर्देशक के रूप में रामलाल चौधरी, नौशाद, सचिनदेव बर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, रवि, ओ.पी. नैयर आदि जैसे, जाना-माना नाम नहीं था। बहुत कम लोग उन्हें उसके पहले शायद जानते रहे हों, विशेषकर शांताराम जी की ही फिल्म 'सेहरा' के गीत 'पंख होते तो उड़ आती रे...' और 'तकदीर का फसाना....' के लिए। हालाकि उन्होंने उसके पहले हुस्नबानो फिल्म में भी संगीत दिया था पर उससे उनकी पहचान नहीं बन पाई थी।
रामलाल चौधरी फिल्म संगीत जगत की एक भूली हुई प्रतिभा हैं जिन्होंने सन् 1944 में फिल्मी संसार में पदार्पण किया था। उन दिनों वे संगीतकार राम गांगुली के सहायक हुआ करते थे। 'जिंदा हूँ इस तरह के गमे जिंदगी नहीं....' और 'देख चाँद की ओर मुसाफिर....' गानों में उनका बाँसुरी वादन तथा शहनाई वादन इतना अधिक पसंद किया गया कि वे एक प्रकार से बाँसुरी वादक तथा शहनाई वादक के रूप में ही जाने जाने लगे। सी. रामचंद जी ने फिल्म 'नवरंग' के गीत 'तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ....' में उनके शहनाई वादन का बहुत सुन्दर प्रयोग किया है।
स्वतन्त्र संगीतकार के रूप में रामलाल चौधरी के पी.एल संतोषी ने सन् 1950 में फिल्म 'तांगावाला', जिसमें राज कपूर और और वैजयन्ती माला प्रमुख कलाकार थे, के लिए पहली बार मौका दिया था। उस फिल्म के लिए रामलाल ने 6 गानों की धुनें बना भी ली थीं किन्तु दुर्भाग्य से किसी कारणवश उस फिल्म का निर्माण ही रुक गया और वह फिल्म कभी बन ही नहीं सकी। दुर्भाग्य ने उनका साथ बाद में भी नहीं छोड़ा और सेहरा तथा गीत गाया पत्थरों ने फिल्मों में अत्यन्त लोकप्रिय संगीत देने के बावजूद भी उन्हें आगे फिल्में नहीं मिलीं। आज रामलाल एक भुला दिए गए संगीतकार बन कर रह गए हैं।
Thursday, October 20, 2011
भारत में अंग्रेजी शिक्षा
जब भारत को एक ब्रिटिश उपनिवेश बना लिया गया तो सुचारु रूप से शासन तथा व्यवस्था चलाने के लिए अंग्रेजों को बड़ी संख्या में अधिकारियों तथा कर्मचारियों, विशेषकर क्लर्कों, की आवश्यकता महसूस हुई। अधिकारी नियुक्त करने के लिए तो वे ब्रिटेन से अंग्रेजों को, अच्छी कमाई का प्रलोभन देकर, भारत ले आते थे किन्तु वहाँ से क्लर्कों को भी लाना उनके लिए बहुत कठिन और खर्चीला कार्य था। अतः उन्होंने भारतीय लोगों को क्लर्क के रूप में नियुक्त करने का निश्चय किया। चूँकि उनके समस्त कार्य अंग्रेजी में ही होते थे, भारतीय क्लर्कों को अंग्रेजी को ज्ञान होना अत्यावश्यक था। इस बात को ध्यान में रखते हुए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सन् 1813 में भारतीयों को अंग्रेजी सिखाने के लिए कुछ धन का प्रावधान रखा ताकि उन्हें भारत से ही क्लर्क तथा अनुवादक प्राप्त हो सकें। 1833 के चार्टर एक्ट के पश्चात् भारत में अंग्रेजी अधिकारिक रूप से कार्यालयीन भाषा बन गई। सन् 1844 में लॉर्ड हॉर्डिंग्ज ने घोषणा की कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीयों को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगी। इस घोषणा के पीछे क्लर्क और अनुवादक प्राप्त करने के साथ ही निम्न उद्देश्य भी थे जैसे किः
अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश स्थापित तो कर लिया था पर उसे कायम रखने में भारत की यह शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी बाधा थी। कुछ उदारवादी भारतीयों ने, यह सोचकर कि अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य का ज्ञान होगा, अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ कर दिया किन्तु उनकी संख्या नगण्य थी। किन्तु अंग्रेज तो चाहते थे कि अधिक से अधिक संख्या में भारतीय अंग्रेजी के भक्त बन जाएँ इसलिए उन्होंने मक्कारी से काम लिया और सरकारी नौकरी का प्रलोभन देना शुरू किया। मध्यम वर्गीय भारतीयों के लिए, जिनकी स्थिति उन दिनों बहुत अच्छी नहीं थी, यह एक बहुत बड़ा प्रलोभन था क्योंकि सरकारी नौकरी में वेतन तो अच्छा था ही और 'ऊपर की कमाई' भी होती थी। 'ऊपर की कमाई' को भारत में एक प्रकार से अंग्रेजों की ही देन ही कहा जा सकता है क्योंकि अंग्रेजों ने ऐसे-ऐसे सरकारी नियम-कानून बना रखे थे जिससे कि भारतीयों को येन-केन-प्रकारेन लूटा जा सके। अब यदि अंग्रेज अधिकारियों को भारतीयों को लूटने का भरपूर अवसर प्राप्त था तो भला सरकारी नौकरी करने वाले स्थानीय लोगों को भला लूट का थोड़ा-बहुत हिस्सा 'ऊपर की कमाई' के रूप में कैसे न मिलता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीयों को अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय सरकारी नौकर भी लूटने लगे। भारतीय शिक्षा जहाँ लोगों मे संतोष, त्याग और परमार्थ की भावना उत्पन्न करती थी वहीं अंग्रेजी शिक्षा उनमें लोभ और स्वार्थ की भावना ही पैदा करती थी, अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था का आधार लूट-खसोट जो था। अंग्रेजों की लूट का आलम यह था कि तंग आकर किसानों ने किसानी छोड़ दी, पुराने खानदान गारत कर दिए गए, ग्राम पंचायतों को नष्ट कर डाला गया और उनके द्वारा संचालित पाठशालाओं को तोड़ डाला गया, न्याय प्रक्रिया को ऐसा जटिल बना दिया गया कि केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही न्यायालय से कुछ उम्मीद रख पाते थे, गरीब जनता के लिए न तो कानून था और न ही इन्साफ। पुलिस के चक्कर में जो फँस जाता था उसका तो बेड़ा ही गर्क हो जाता था। भारत के अत्यन्त कुशल कारीगरों को अयोग्य और असहाय बना दिया गया ताकि हस्तनिर्मित वस्तुओं के स्थान पर अंग्रेजों के यंत्र निर्मित वस्तुएँ बेची जा सकें।
अस्तु, अंग्रेजी पढ़े लोगों की कमाई और रुतबा देखकर भारतीयों का अंग्रेजी के प्रति रुझान बढ़ता ही चला गया। अंग्रेज समझ रहे थे कि अंग्रेजी शिक्षा का असर भारतीयों पर वैसा ही पड़ रहा है जैसा वे चाहते थे। यह उनकी एक बहुत बड़ी सफलता थी। अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने समस्त भारतीयों को तन से भारतीय किन्तु मन से अंग्रेज बनाने की वृहत् योजना बना डाली जिसके तहत सन् 1835 में "मैकॉले के मिनट" का सूत्रपात किया गया। "मैकॉले का मिनट" अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी मक्कारी थी किन्तु भारतीय उस मक्कारी को समझ नहीं पाए क्योंकि उसे भारत में शिक्षा के विकास तथा लोककल्याण का मुखौटा पहना दिया गया था। भारतीयों को इसके विषय में लच्छेदार भाषा में बताया गया कि इसका उद्देश्य "साहित्य का पुरुद्धार करना तथा साहित्य को बढ़ावा देना, भारत के शिक्षित निवासियों को प्रोत्साहन देना तथा विज्ञान का परिचय तथा बढ़ावा देना" है। ("For the revival and promotion of literature and the encouragement of the learned natives of India, and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories.")
उपरोक्त मिनट के पीछे छुपी हुई मक्कारी धूर्त मैकॉले के उस स्पष्टीकरण में स्पष्ट नजर आती है जिसमें उसने कहा था, "हमें एक ऐसा वर्ग बनाने की पुरजोर कोशिश करनी ही होगी जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम करें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि, खयाल और बोली अंग्रेजी हो।" ("We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern, a class of persons Indian in blood and color, but English in taste, in opinions, words and intellect.")
मक्कार मैकॉले भारतीयों के मनो-मस्तिष्क में अंग्रेजी भाषा को कूट-कूट कर भर देना चाहता था ताकि भारतीयों के दिलो-दिमाग से अंग्रेज और अग्रेजी विरोधी भावना ही खत्म हो जाए, और, हमारे दुर्भाग्य से, वह अपने इस उद्देश्य में न केवल सफल हुआ बल्कि बुरी तरह से सफल हुआ। हम शिक्षा में रमकर अपनी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, रीति-रिवाज आदि सब को भूलते चले गए।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी दुर्भाग्य ने हमारा साथ नहीं छोड़ा क्योंकि सत्ता की बागडोर अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भारतीय अंग्रजों के हाथ में आ गया और उन्होंने भारत में विदेशियों के बनाए शिक्षा-नीति और व्यवस्था को जारी रहने दिया जिसका परिणाम आज यह देखने को मिलता है कि हमारे अपने बच्चे ही हमसे पूछते हैं कि 'चौंसठ याने सिक्सटी' फोर ही होता है ना? हिन्दी गिनती, हिन्दी माह, हिन्दी वर्णमाला क्या होते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है।
- वे समझते थे कि अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय ब्रिटिश उपनिवेश के प्रति अधिक निष्ठावान रहेंगे।
- इस घोषणा से भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने वाली मिशनरियों को फायदा मिलेगा क्योंकि उन्हें लगता था कि अंग्रेजी पढ़ा-लिखा व्यक्ति, चाहे वह प्रभावशाली भारतीय परिवार का ही क्यों न हो, आसानी के साथ अपना धर्म त्यागकर ईसाई धर्म अपना लेगा।
अंग्रेजों ने भारत में अपना उपनिवेश स्थापित तो कर लिया था पर उसे कायम रखने में भारत की यह शिक्षा व्यवस्था बहुत बड़ी बाधा थी। कुछ उदारवादी भारतीयों ने, यह सोचकर कि अंग्रेजी शिक्षा से पाश्चात्य संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य का ज्ञान होगा, अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करना आरम्भ कर दिया किन्तु उनकी संख्या नगण्य थी। किन्तु अंग्रेज तो चाहते थे कि अधिक से अधिक संख्या में भारतीय अंग्रेजी के भक्त बन जाएँ इसलिए उन्होंने मक्कारी से काम लिया और सरकारी नौकरी का प्रलोभन देना शुरू किया। मध्यम वर्गीय भारतीयों के लिए, जिनकी स्थिति उन दिनों बहुत अच्छी नहीं थी, यह एक बहुत बड़ा प्रलोभन था क्योंकि सरकारी नौकरी में वेतन तो अच्छा था ही और 'ऊपर की कमाई' भी होती थी। 'ऊपर की कमाई' को भारत में एक प्रकार से अंग्रेजों की ही देन ही कहा जा सकता है क्योंकि अंग्रेजों ने ऐसे-ऐसे सरकारी नियम-कानून बना रखे थे जिससे कि भारतीयों को येन-केन-प्रकारेन लूटा जा सके। अब यदि अंग्रेज अधिकारियों को भारतीयों को लूटने का भरपूर अवसर प्राप्त था तो भला सरकारी नौकरी करने वाले स्थानीय लोगों को भला लूट का थोड़ा-बहुत हिस्सा 'ऊपर की कमाई' के रूप में कैसे न मिलता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भारतीयों को अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय सरकारी नौकर भी लूटने लगे। भारतीय शिक्षा जहाँ लोगों मे संतोष, त्याग और परमार्थ की भावना उत्पन्न करती थी वहीं अंग्रेजी शिक्षा उनमें लोभ और स्वार्थ की भावना ही पैदा करती थी, अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था का आधार लूट-खसोट जो था। अंग्रेजों की लूट का आलम यह था कि तंग आकर किसानों ने किसानी छोड़ दी, पुराने खानदान गारत कर दिए गए, ग्राम पंचायतों को नष्ट कर डाला गया और उनके द्वारा संचालित पाठशालाओं को तोड़ डाला गया, न्याय प्रक्रिया को ऐसा जटिल बना दिया गया कि केवल आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग ही न्यायालय से कुछ उम्मीद रख पाते थे, गरीब जनता के लिए न तो कानून था और न ही इन्साफ। पुलिस के चक्कर में जो फँस जाता था उसका तो बेड़ा ही गर्क हो जाता था। भारत के अत्यन्त कुशल कारीगरों को अयोग्य और असहाय बना दिया गया ताकि हस्तनिर्मित वस्तुओं के स्थान पर अंग्रेजों के यंत्र निर्मित वस्तुएँ बेची जा सकें।
अस्तु, अंग्रेजी पढ़े लोगों की कमाई और रुतबा देखकर भारतीयों का अंग्रेजी के प्रति रुझान बढ़ता ही चला गया। अंग्रेज समझ रहे थे कि अंग्रेजी शिक्षा का असर भारतीयों पर वैसा ही पड़ रहा है जैसा वे चाहते थे। यह उनकी एक बहुत बड़ी सफलता थी। अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने समस्त भारतीयों को तन से भारतीय किन्तु मन से अंग्रेज बनाने की वृहत् योजना बना डाली जिसके तहत सन् 1835 में "मैकॉले के मिनट" का सूत्रपात किया गया। "मैकॉले का मिनट" अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी मक्कारी थी किन्तु भारतीय उस मक्कारी को समझ नहीं पाए क्योंकि उसे भारत में शिक्षा के विकास तथा लोककल्याण का मुखौटा पहना दिया गया था। भारतीयों को इसके विषय में लच्छेदार भाषा में बताया गया कि इसका उद्देश्य "साहित्य का पुरुद्धार करना तथा साहित्य को बढ़ावा देना, भारत के शिक्षित निवासियों को प्रोत्साहन देना तथा विज्ञान का परिचय तथा बढ़ावा देना" है। ("For the revival and promotion of literature and the encouragement of the learned natives of India, and for the introduction and promotion of a knowledge of the sciences among the inhabitants of the British territories.")
उपरोक्त मिनट के पीछे छुपी हुई मक्कारी धूर्त मैकॉले के उस स्पष्टीकरण में स्पष्ट नजर आती है जिसमें उसने कहा था, "हमें एक ऐसा वर्ग बनाने की पुरजोर कोशिश करनी ही होगी जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम करें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि, खयाल और बोली अंग्रेजी हो।" ("We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern, a class of persons Indian in blood and color, but English in taste, in opinions, words and intellect.")
मक्कार मैकॉले भारतीयों के मनो-मस्तिष्क में अंग्रेजी भाषा को कूट-कूट कर भर देना चाहता था ताकि भारतीयों के दिलो-दिमाग से अंग्रेज और अग्रेजी विरोधी भावना ही खत्म हो जाए, और, हमारे दुर्भाग्य से, वह अपने इस उद्देश्य में न केवल सफल हुआ बल्कि बुरी तरह से सफल हुआ। हम शिक्षा में रमकर अपनी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, रीति-रिवाज आदि सब को भूलते चले गए।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी दुर्भाग्य ने हमारा साथ नहीं छोड़ा क्योंकि सत्ता की बागडोर अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भारतीय अंग्रजों के हाथ में आ गया और उन्होंने भारत में विदेशियों के बनाए शिक्षा-नीति और व्यवस्था को जारी रहने दिया जिसका परिणाम आज यह देखने को मिलता है कि हमारे अपने बच्चे ही हमसे पूछते हैं कि 'चौंसठ याने सिक्सटी' फोर ही होता है ना? हिन्दी गिनती, हिन्दी माह, हिन्दी वर्णमाला क्या होते हैं, उन्हें मालूम ही नहीं है।
Tuesday, October 18, 2011
साँप जो घोसला बनाता है
किंग कोबरा ही एक मात्र साँप है जो कि घोसला बनाता है और उसकी रक्षा भी करता है। किन्तु नर किंग कोबरा घोसले नहीं बनाते, घोसला सिर्फ मादा किंग कोबरा बनाती है अपने अण्डों के लिए।
किंग कोबरा विषैले साँपों में सबसे लम्बे साँप होते हैं, प्रायः इनकी लम्बाई 18 फुट (5.5 मीटर) तक पाई जाती है। सामना करने की स्थिति में किंग कोबरा अपने शरीर के एक तिहाई भाग को जमीन से ऊपर उठा सकता है और वैसी ही स्थिति में आक्रमण करने के लिए आगे सरक भी सकता है। क्रोधित किंग कोबरा की फुँफकार बड़ी भयावनी होती है। किंग कोबरा का विष इतना अधिक खतरनाक होता है कि उसकी मात्र 7 मि.ली. मात्रा 20 आदमी या 1 हाथी तक की मृत्यु का कारण बन सकती है। वैसे किंग कोबरा साँप आदमियों से भरसक बचने के प्रयास में रहते हैं किन्तु विषम परिस्थितियों में फँस जाने पर प्रचण्ड रूप से आक्रामक हो जाते हैं।
किंग कोबरा साँप प्रायः भारत के अधिक वर्षा वाले जंगली तथा मैदानी क्षेत्र, दक्षिणी चीन तथा एशियाई के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में पाए जाते हैं तथा अलग-अलग क्षेत्रों में इनका रंग भी अनेक प्रकार के होते हैं। वृक्षों पर, जमीन पर और पानी में ये सुविधापूर्वक रह सकते हैं। किंग कोबरा का मुख्य आहार अन्य जहरीले तथा गैर-जहरीले साँप ही होते हैं, वैसे ये छिपकिल्लियों, अण्डों तथा कुछ अन्य छोटे जन्तुओं को भी खा जाते हैं।
किंग कोबरा विषैले साँपों में सबसे लम्बे साँप होते हैं, प्रायः इनकी लम्बाई 18 फुट (5.5 मीटर) तक पाई जाती है। सामना करने की स्थिति में किंग कोबरा अपने शरीर के एक तिहाई भाग को जमीन से ऊपर उठा सकता है और वैसी ही स्थिति में आक्रमण करने के लिए आगे सरक भी सकता है। क्रोधित किंग कोबरा की फुँफकार बड़ी भयावनी होती है। किंग कोबरा का विष इतना अधिक खतरनाक होता है कि उसकी मात्र 7 मि.ली. मात्रा 20 आदमी या 1 हाथी तक की मृत्यु का कारण बन सकती है। वैसे किंग कोबरा साँप आदमियों से भरसक बचने के प्रयास में रहते हैं किन्तु विषम परिस्थितियों में फँस जाने पर प्रचण्ड रूप से आक्रामक हो जाते हैं।
किंग कोबरा साँप प्रायः भारत के अधिक वर्षा वाले जंगली तथा मैदानी क्षेत्र, दक्षिणी चीन तथा एशियाई के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में पाए जाते हैं तथा अलग-अलग क्षेत्रों में इनका रंग भी अनेक प्रकार के होते हैं। वृक्षों पर, जमीन पर और पानी में ये सुविधापूर्वक रह सकते हैं। किंग कोबरा का मुख्य आहार अन्य जहरीले तथा गैर-जहरीले साँप ही होते हैं, वैसे ये छिपकिल्लियों, अण्डों तथा कुछ अन्य छोटे जन्तुओं को भी खा जाते हैं।
Thursday, October 13, 2011
मुश्किलें होती हैं आसान बड़ी मुश्किल से
महानायक अमिताभ बच्चन के लिए आज भला कौन सा काम ऐसा होगा जो मुश्किल होगा? हो सकता है कि उनके लिए भी कुछ काम मुश्किल वाले हों किन्तु आम लोग तो यही सोचते हैं कि शोहरत और दौलत वाले लोगों के लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं होता। अस्तु, आज अमिताभ जी के लिए भले ही कोई काम मुश्किल न हो पर एक समय ऐसा भी था जबकि उनके सामने मुश्किलें ही मुश्किलें थीं। हम सभी जानते हैं कि मुश्किलों को आसान करना सबसे बड़ा मुश्किल काम है पर अमिताभ बच्चन ने दृढ़ संकल्प और पुरुषार्थ का साथ कभी नहीं छोड़ा और मुश्किलें आसान होती चली गईं।
मेरे हिन्दी वेबसाइट के कुछ पाठक कभी-कभी अपनी पसंद की पोस्ट लिखने की फरमाइश भी कर देते हैं। कल ही मेरे एक स्नेही पाठक ने मुझसे चैट में आकर अमिताभ बच्चन पर पोस्ट लिखने के लिए कहा तो मैनें जवाब दिया था कि उनके विषय में तो पहले ही इतना लिखा जा चुका है कि अब मैं क्या लिखूँ? फिर भी कोशिश करूँगा। और उस चैट के परिणाम के रूप में यह पोस्ट आपके सामने है।
सन् 1969 में जब अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ प्रदर्शित हुई थी तो उस समय मेरी उम्र 19 साल की थी और उस जमाने के अन्य तरुणों के समान ही मुझमें भी सिनेमा के प्रति रुझान उन्माद की सीमा तक थी। दोस्तों के साथ हर प्रदर्शित होने वाली फिल्म को देखना उन दिनों एक शान सा लगता था इसलिए यह सुन लेने के बाद भी कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ एक फ्लॉप फिल्म है, मैने दोस्तों के साथ रायपुर के श्याम टॉकीज में वह फिल्म देखी। यद्यपि फिल्म मुझे बहुत पसंद आई थी, दोस्तों ने उस फिल्म को नापसंद ही किया क्योंकि, उन दिनों सिनेमा का जादू अपनी चरम पर होने के बावजूद भी, अधिकतर रोमांस और मारधाड़ वाली फिल्में ही पसंद की जाती थीं। ‘सात हिन्दुस्तानी’ ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फिल्म थी जिन्होंने कमर्शियल सिनेमा कभी बनाया ही नहीं। सो पत्र-पत्रिकाओं आदि में तो फिल्म की बहुत तारीफ हुई और अमिताभ के अभिनय को भी खूब सराहा गया पर फिल्म को जैसी चलनी थी, चली नहीं या सही माने में कहा जाए तो फिल्म बुरी तरह से पिट गई। अमिताभ बच्चन की आवाज से प्रभावित होकर मृणाल सेन ने उन्हें 1969 में ही प्रदर्शित अपनी फिल्म ‘भुवन सोम’ में‘नरेटर’ (पार्श्व उद्घोषक) का कार्य दिया याने किफिल्म में उनकी आवाज अवश्य थी पर उन्हें परदे पर कहीं दिखाया नहीं गया था। मुझे आज भी याद है कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म तो थोड़ी बहुत चली भी थी पर ‘भुवन सोम’ बिल्कुल ही नहीं चली थी।
इस प्रकार फिल्म पाने के लिए अमिताभ बच्चन का संघर्ष जारी हो गया। फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी अमिताभ बच्चन के बारे में भी जानकारी छपती रहती थी। अपनी भी हालत उन दिनों ऐसी थी कि पत्र-पत्रिकाएँ खरीदने के लिए तो दूर, कोर्स की पुस्तकें तक खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे अपने पास, इसलिए पठन के अपने शौक को पूरा करने के लिए प्रत्येक दिन का तीन से चार घण्टे "किशोर पुस्तकालय", जो कि पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी था, में बीतते थे। सो पढ़ने को मिलता था कि अमिताभ को फिल्में नहीं मिल रहीं थी, हाँ मॉडलिंग के ऑफर जरूर मिल रहे थे पर मॉडलिंग वे करना नहीं चाहते थे। जलाल आगा की विज्ञापन कम्पनी में, जो विविध भारती के लिए विज्ञापन बनाती थी, वे अपनी आवाज अवश्य दे देते थे ताकि जीवन-यापन के लिए सौ-पचास रुपये मिलते रहें, आखिर सात हिन्दुस्तानी फिल्म के मेहनताने के रूप में मिले पाँच हजार रुपये कब तक चलते?
फिर सुनील दत्त की फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में उन्हें काम मिला। उस फिल्म में उन्होंने एक गूँगे का का किरदार अदा किया। विचित्र सा लगता है कि फिल्म भुवन सोम में अमिताभ की आवाज थी तो वे स्वयं नहीं थे और रेशमा और शेरा में अमिताभ थे तो उनकी आवाज नहीं थी। 1971 में ही प्रदर्शित उनकी अन्य फिल्में थीं संजोग, परवाना और आनंद। संजोग चली ही नहीं, परवाना कुछ चली किन्तु उसमें अमिताभ का रोल एंटी हीरो का था, इसलिए फिल्म के चलने का श्रेय हीरो नवीन निश्चल को अधिक मिला, आनन्द खूब चली किन्तु फिल्म का हीरो उन दिनों के सुपर स्टार राजेश खन्ना के होने से अमिताभ बच्चन को फिल्म का फायदा कम ही मिला पर इतना जरूर हुआ कि अमिताभ बच्चन दर्शकों के बीच और भी अधिक स्थापित हो गए।
ऋषि दा ने अपनी फिल्म गुड्डी में भी अतिथि कलाकार बनाया पर इससे अमिताभ को कुछ विशेष फायदा नहीं मिला। फिर उन्हें रवि नगाइच के फिल्म प्यार की कहानी (1971) में मुख्य भूमिका मिली। नायिका तनूजा और सह कलाकार अनिल धवन के होने के बावजूद भी फिल्म चल नहीं पाई और अमिताभ के संघर्ष के दिन जारी ही रहे। उन दिनों अमिताभ बच्चन को जैसा भी रोल मिलता था स्वीकार कर लेते थे।
सन् 1972 में आज के महानायक की फिल्में थीं – बंशी बिरजू, बांबे टू गोवा, एक नजर, जबान, बावर्ची (पार्श्व उद्घोषक) और रास्ते का पत्थर। बी.आर. इशारा की फिल्म एक नजर में उनके साथ हीरोइन जया भादुड़ी थीं। फिल्म के संगीत को बहुत सराहना मिली पर फिल्म फ्लॉप हो गई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फिल्म एक नजर के गाने आज भी संगीतप्रेमियों के जुबान पर आते रहते हैं खासकर ‘प्यार को चाहिये क्या एक नजर…….’, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा…….’, ‘पहले सौ बार इधर और उधर देखा है…….’ आदि। इसी फिल्म से अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी एक दूसरे को चाहने लगे। ये जया भादुड़ी ही थीं जिन्होंने संघर्ष के दिनों में अमिताभ को संभाले रखा।
सन् 1973 में अमिताभ जी की फिल्में बंधे हाथ, गहरी चाल और सौदागर विशेष नहीं चलीं। पर प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर की अपूर्व सफलता और उनके एंग्री यंगमैन के रोल ने उन्हें विकास के रास्ते पर ला खड़ा किया। फिल्म जंजीर के बाद अमिताभ बच्चन सफलता की राह पर ऐसे बढ़े कि फिर उन्होंने मुड़कर पीछे कभी नहीं देखा।
तो मित्रों जीवन के संघर्ष को अमिताभ जी के जैसे ही दृढ़ संकल्प शक्ति और पुरुषार्थ से ही जीता जा सकता है क्योंकि मुश्किलें होती हैं आसान बड़ी मुश्किल से।
मेरे हिन्दी वेबसाइट के कुछ पाठक कभी-कभी अपनी पसंद की पोस्ट लिखने की फरमाइश भी कर देते हैं। कल ही मेरे एक स्नेही पाठक ने मुझसे चैट में आकर अमिताभ बच्चन पर पोस्ट लिखने के लिए कहा तो मैनें जवाब दिया था कि उनके विषय में तो पहले ही इतना लिखा जा चुका है कि अब मैं क्या लिखूँ? फिर भी कोशिश करूँगा। और उस चैट के परिणाम के रूप में यह पोस्ट आपके सामने है।
सन् 1969 में जब अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ प्रदर्शित हुई थी तो उस समय मेरी उम्र 19 साल की थी और उस जमाने के अन्य तरुणों के समान ही मुझमें भी सिनेमा के प्रति रुझान उन्माद की सीमा तक थी। दोस्तों के साथ हर प्रदर्शित होने वाली फिल्म को देखना उन दिनों एक शान सा लगता था इसलिए यह सुन लेने के बाद भी कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ एक फ्लॉप फिल्म है, मैने दोस्तों के साथ रायपुर के श्याम टॉकीज में वह फिल्म देखी। यद्यपि फिल्म मुझे बहुत पसंद आई थी, दोस्तों ने उस फिल्म को नापसंद ही किया क्योंकि, उन दिनों सिनेमा का जादू अपनी चरम पर होने के बावजूद भी, अधिकतर रोमांस और मारधाड़ वाली फिल्में ही पसंद की जाती थीं। ‘सात हिन्दुस्तानी’ ख्वाज़ा अहमद अब्बास की फिल्म थी जिन्होंने कमर्शियल सिनेमा कभी बनाया ही नहीं। सो पत्र-पत्रिकाओं आदि में तो फिल्म की बहुत तारीफ हुई और अमिताभ के अभिनय को भी खूब सराहा गया पर फिल्म को जैसी चलनी थी, चली नहीं या सही माने में कहा जाए तो फिल्म बुरी तरह से पिट गई। अमिताभ बच्चन की आवाज से प्रभावित होकर मृणाल सेन ने उन्हें 1969 में ही प्रदर्शित अपनी फिल्म ‘भुवन सोम’ में‘नरेटर’ (पार्श्व उद्घोषक) का कार्य दिया याने किफिल्म में उनकी आवाज अवश्य थी पर उन्हें परदे पर कहीं दिखाया नहीं गया था। मुझे आज भी याद है कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म तो थोड़ी बहुत चली भी थी पर ‘भुवन सोम’ बिल्कुल ही नहीं चली थी।
इस प्रकार फिल्म पाने के लिए अमिताभ बच्चन का संघर्ष जारी हो गया। फिल्मी पत्र-पत्रिकाओं में कभी-कभी अमिताभ बच्चन के बारे में भी जानकारी छपती रहती थी। अपनी भी हालत उन दिनों ऐसी थी कि पत्र-पत्रिकाएँ खरीदने के लिए तो दूर, कोर्स की पुस्तकें तक खरीदने के लिए पैसे नहीं होते थे अपने पास, इसलिए पठन के अपने शौक को पूरा करने के लिए प्रत्येक दिन का तीन से चार घण्टे "किशोर पुस्तकालय", जो कि पुस्तकालय के साथ वाचनालय भी था, में बीतते थे। सो पढ़ने को मिलता था कि अमिताभ को फिल्में नहीं मिल रहीं थी, हाँ मॉडलिंग के ऑफर जरूर मिल रहे थे पर मॉडलिंग वे करना नहीं चाहते थे। जलाल आगा की विज्ञापन कम्पनी में, जो विविध भारती के लिए विज्ञापन बनाती थी, वे अपनी आवाज अवश्य दे देते थे ताकि जीवन-यापन के लिए सौ-पचास रुपये मिलते रहें, आखिर सात हिन्दुस्तानी फिल्म के मेहनताने के रूप में मिले पाँच हजार रुपये कब तक चलते?
फिर सुनील दत्त की फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ (1971) में उन्हें काम मिला। उस फिल्म में उन्होंने एक गूँगे का का किरदार अदा किया। विचित्र सा लगता है कि फिल्म भुवन सोम में अमिताभ की आवाज थी तो वे स्वयं नहीं थे और रेशमा और शेरा में अमिताभ थे तो उनकी आवाज नहीं थी। 1971 में ही प्रदर्शित उनकी अन्य फिल्में थीं संजोग, परवाना और आनंद। संजोग चली ही नहीं, परवाना कुछ चली किन्तु उसमें अमिताभ का रोल एंटी हीरो का था, इसलिए फिल्म के चलने का श्रेय हीरो नवीन निश्चल को अधिक मिला, आनन्द खूब चली किन्तु फिल्म का हीरो उन दिनों के सुपर स्टार राजेश खन्ना के होने से अमिताभ बच्चन को फिल्म का फायदा कम ही मिला पर इतना जरूर हुआ कि अमिताभ बच्चन दर्शकों के बीच और भी अधिक स्थापित हो गए।
ऋषि दा ने अपनी फिल्म गुड्डी में भी अतिथि कलाकार बनाया पर इससे अमिताभ को कुछ विशेष फायदा नहीं मिला। फिर उन्हें रवि नगाइच के फिल्म प्यार की कहानी (1971) में मुख्य भूमिका मिली। नायिका तनूजा और सह कलाकार अनिल धवन के होने के बावजूद भी फिल्म चल नहीं पाई और अमिताभ के संघर्ष के दिन जारी ही रहे। उन दिनों अमिताभ बच्चन को जैसा भी रोल मिलता था स्वीकार कर लेते थे।
सन् 1972 में आज के महानायक की फिल्में थीं – बंशी बिरजू, बांबे टू गोवा, एक नजर, जबान, बावर्ची (पार्श्व उद्घोषक) और रास्ते का पत्थर। बी.आर. इशारा की फिल्म एक नजर में उनके साथ हीरोइन जया भादुड़ी थीं। फिल्म के संगीत को बहुत सराहना मिली पर फिल्म फ्लॉप हो गई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि फिल्म एक नजर के गाने आज भी संगीतप्रेमियों के जुबान पर आते रहते हैं खासकर ‘प्यार को चाहिये क्या एक नजर…….’, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा…….’, ‘पहले सौ बार इधर और उधर देखा है…….’ आदि। इसी फिल्म से अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी एक दूसरे को चाहने लगे। ये जया भादुड़ी ही थीं जिन्होंने संघर्ष के दिनों में अमिताभ को संभाले रखा।
सन् 1973 में अमिताभ जी की फिल्में बंधे हाथ, गहरी चाल और सौदागर विशेष नहीं चलीं। पर प्रकाश मेहरा की फिल्म जंजीर की अपूर्व सफलता और उनके एंग्री यंगमैन के रोल ने उन्हें विकास के रास्ते पर ला खड़ा किया। फिल्म जंजीर के बाद अमिताभ बच्चन सफलता की राह पर ऐसे बढ़े कि फिर उन्होंने मुड़कर पीछे कभी नहीं देखा।
तो मित्रों जीवन के संघर्ष को अमिताभ जी के जैसे ही दृढ़ संकल्प शक्ति और पुरुषार्थ से ही जीता जा सकता है क्योंकि मुश्किलें होती हैं आसान बड़ी मुश्किल से।
Tuesday, October 11, 2011
शरद रैन उजियारी - सुधा वृष्टि सुखकारी
रात्रि में शीतलता का सुखद अनुभव तथा दिवस में भगवान भास्कर के किरणों की प्रखरता में ह्रास इस बात का द्योतक है कि पावस के पंक से मुक्ति प्राप्त हुए पर्याप्त समय व्यतीत हो चुका है। सरिता एवं सरोवरों का यौवन, उनके जल के सूखने से, क्षीण होते जा रहा है। असंख्य उड्गनों से युक्त घनविहीन निर्मल नभ सुशोभित होने लगा है। वाटिकाएँ अनेक प्रकार के पुष्पों से सुसज्जित होने लगी हैं तथा मधुकरों के गुंजन से गुंजायमान होने लगी हैं। यद्यपि शीत ऋतु की शुरुवात अभी नहीं हुई है किन्तु प्रातः काल की बेला में पुष्प-पल्लवों एवं तृणपत्रों पर तुषार के कण मोती के सदृश दृष्टिगत होने लगे हैं। तृणों की हरीतिमा पर, पारिजात के पल्लवों पर, कदली के पत्रों पर, चहुँ ओर मोती ही मोती बिखरने लगे हैं। कितने प्यारे लगते हैं पत्तों और बूटों पर बिखरे शबनम के ये कतरे! इन्हें देखकर प्रतीत होने लगता है कि धरा मुक्तामय बन चुकी है! ओस की इन्हीं बूँदों के सौन्दर्य से प्रभावित होकर राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है -
है बिखेर देती वसुन्धरा मोती सबके सोने पर
रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होने पर
और विरामदायिनी अपनी सन्ध्या को दे जाता है
शून्य-श्याम-तनु जिससे उसका नया रूप छलकाता है!
नवरात्रि पर्व समाप्त हो चुका है। असत्य पर सत्य के विजय के रूप में अहंकारी रावण का पुतला दहन हो चुका है। और हिन्दू पंचांग के हिसाब से आश्विन माह की पूर्णिमा अर्थात् शरद् पूर्णिमा का आगमन हुआ है। शरद् पूर्णिमा को हिन्दू मान्यताओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है क्योंकि इस विशिष्ट पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा का संयोग, समस्त नक्षत्रों में प्रथम नक्षत्र, अश्वनी नक्षत्र से होता है। अश्वनी नक्षत्र के स्वामी आरोग्यदाता अश्वनीकुमार हैं। शरद् पूर्णिमा को भारत में एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। महिलाएँ इस दिन कौमुदी व्रत, जिसे कि कोजागर व्रत के नाम से भी जाना जाता है, धारण करती हैं।
शरद पूर्णिमा को गुरु-शिष्य परम्परा का भी एक विशिष्ट दिन माना जाता है तथा इस रोज शिष्य अपने गुरु से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राधा ने कृष्ण को शरद पूर्णिमा से ही नृत्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया था, तभी तो "चन्द्रप्रभा" लिखते हैं -
जमुना पुलिन निकट वंशीवट
शरद रैन उजियारी हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।
शरद पूर्णिमा की रात को रास की रात भी कहा जाता है क्योंकि श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को रासलीला रचाया था।
पौराणिक मान्ताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा अपनी समस्त सोलह कलाओं से युक्त होता है और इस रात्रि में चन्द्र की शुभ्र ज्योत्सना शीतलता के साथ सुधा की वृष्टि करती है, इसीलिए शायद चन्द्रमा का एक नाम 'सुधाकर' भी है। चन्द्रमा के अन्य नाम हैं - चन्द्र, शशि, शशी, शशांक, सुधांशु, शुभ्रांशु, हिमांशु, निशापति, कलानिधि, इन्दु और सोम। हिन्दू मन्दिरों में शरद पूर्णिमा की अर्धरात्रि को देवी-देवताओं के पूजन के पश्चात् पायस (खीर) का प्रसाद वितरण किया जाता है। शरद पूर्णिमा की सन्ध्या में लोग अपने अपने घरों में खीर बनाकर उसे ऐसे स्थान में रखते हैं जहाँ पर उस पर चन्द्रमा की किरणें पड़ती रहें ताकि वह खीर अमृतमय हो जाए। अर्धरात्रि में उस अमृतमय खीर का सेवन किया जाता है।
आप सभी को शरद् पूर्णिमा की शुभकामनाएँ देते हुए मैं कामना करता हूँ कि इस शरद ऋतु के साथ ही साथ यह पूरा वर्ष आपके लिए मंगलमय हो!
है बिखेर देती वसुन्धरा मोती सबके सोने पर
रवि बटोर लेता है उनको सदा सवेरा होने पर
और विरामदायिनी अपनी सन्ध्या को दे जाता है
शून्य-श्याम-तनु जिससे उसका नया रूप छलकाता है!
नवरात्रि पर्व समाप्त हो चुका है। असत्य पर सत्य के विजय के रूप में अहंकारी रावण का पुतला दहन हो चुका है। और हिन्दू पंचांग के हिसाब से आश्विन माह की पूर्णिमा अर्थात् शरद् पूर्णिमा का आगमन हुआ है। शरद् पूर्णिमा को हिन्दू मान्यताओं में विशिष्ट स्थान प्राप्त है क्योंकि इस विशिष्ट पूर्णिमा की रात्रि में चन्द्रमा का संयोग, समस्त नक्षत्रों में प्रथम नक्षत्र, अश्वनी नक्षत्र से होता है। अश्वनी नक्षत्र के स्वामी आरोग्यदाता अश्वनीकुमार हैं। शरद् पूर्णिमा को भारत में एक त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। महिलाएँ इस दिन कौमुदी व्रत, जिसे कि कोजागर व्रत के नाम से भी जाना जाता है, धारण करती हैं।
(चित्र देशीकमेंट.कॉम से साभार)
शरद पूर्णिमा को गुरु-शिष्य परम्परा का भी एक विशिष्ट दिन माना जाता है तथा इस रोज शिष्य अपने गुरु से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि राधा ने कृष्ण को शरद पूर्णिमा से ही नृत्य की शिक्षा देना प्रारम्भ किया था, तभी तो "चन्द्रप्रभा" लिखते हैं -
जमुना पुलिन निकट वंशीवट
शरद रैन उजियारी हरि को नचन सिखावैं राधा प्यारी।
शरद पूर्णिमा की रात को रास की रात भी कहा जाता है क्योंकि श्री कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को रासलीला रचाया था।
पौराणिक मान्ताओं के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात्रि को चन्द्रमा अपनी समस्त सोलह कलाओं से युक्त होता है और इस रात्रि में चन्द्र की शुभ्र ज्योत्सना शीतलता के साथ सुधा की वृष्टि करती है, इसीलिए शायद चन्द्रमा का एक नाम 'सुधाकर' भी है। चन्द्रमा के अन्य नाम हैं - चन्द्र, शशि, शशी, शशांक, सुधांशु, शुभ्रांशु, हिमांशु, निशापति, कलानिधि, इन्दु और सोम। हिन्दू मन्दिरों में शरद पूर्णिमा की अर्धरात्रि को देवी-देवताओं के पूजन के पश्चात् पायस (खीर) का प्रसाद वितरण किया जाता है। शरद पूर्णिमा की सन्ध्या में लोग अपने अपने घरों में खीर बनाकर उसे ऐसे स्थान में रखते हैं जहाँ पर उस पर चन्द्रमा की किरणें पड़ती रहें ताकि वह खीर अमृतमय हो जाए। अर्धरात्रि में उस अमृतमय खीर का सेवन किया जाता है।
आप सभी को शरद् पूर्णिमा की शुभकामनाएँ देते हुए मैं कामना करता हूँ कि इस शरद ऋतु के साथ ही साथ यह पूरा वर्ष आपके लिए मंगलमय हो!
Friday, October 7, 2011
भारतीय फिल्मों में गीतों का चलन
बिरला ही कोई व्यक्ति होगा जो फिल्मी गीतों का दीवाना न हो। भारतीय फिल्मों के गीत न केवल भारत में अपितु संसार भर के देशों में भी लोकप्रिय होते रहे हैं। एक जमाना था जब रूस में तो राज कपूर की फिल्मों के गीतों की तूती बोलती थी, रशियन लोग हिन्दी गाने गुनगुना कर खुश होते थे। फिल्मी गीतों पर आधारित रेडियो प्रोग्राम बिनाका गीतमाला ने कई दशकों तक रेडियो श्रोताओं को सम्मोहित कर के रखा था। रेडियो सीलोन, विविध भारती, आल इण्डिया रेडियो आदि का अस्तित्व ही फिल्मी गीतों से था।
भारत में सिनेमा के आने के पहले नाटक और नौटंकियों का चलन था। उस जमाने में बहुत सी नौटंकी कम्पनियाँ हुआ करती थीं जो कि पूरे भारत में अपना ताम-झाम लेकर घूम-घूम कर नाटक-नौटंकी दिखाया करती थीं, भारत में जगह-जगह लगने वाले मेलों में तो इन नौटंकी कम्पनियों की धूम हुआ करती थी। फिल्म "तीसरी कसम" की नायिका तो ऐसी ही एक नौटंकी कम्पनी की हीरोइन ही थी तथा फिल्म "गीत गाता चल" में भी नौटंकी कम्पनियों का बहुत अच्छा सन्दर्भ है। इन नाटकों तथा नौटंकियों में संवाद के साथ गीत गाने का भी चलन था, वास्तव में लोग नाच-गाना देखने के लिए ही नौटंकियों में जाया करते थे। बाद में सिनेमा का चलन हो जाने पर शनैः-शनैः नौटंकी कम्पनियाँ समाप्त हो गईं तथा सिनेमा को ही नाटक-नौटंकियों का एक नया रूप माना जाने लगा। यही कारण है कि फिल्मों में गानों का रिवाज चल निकला।
सिनेमा के प्रारम्भिक दिनों में फिल्म में काम सिर्फ उन्हीं कलाकारों को काम मिलता था जिन्हें गायन तथा संगीत का बी ज्ञान हो क्योंकि उन्हें अपना गाना खुद ही गाना पड़ता था। फिर सन् 1935 में न्यू थियेटर ने अपनी फिल्म "धूप छाँव" में प्लेबैक गायन का सिस्टम शुरू किया और इस नये सिस्टम ने भारतीय फिल्म संगीत के स्वरूप को ही पूरी तरह से बदल डाला। प्रभात पिक्चर्स ने केशवराव भोले को, जिन्हें कि पश्चिमी ऑर्केस्ट्रा का पर्याप्त अनुभव था, गानों में पियानो, हवायन गिटार और वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के प्रयोग के लिए नियुक्त किया जिसके परिणामस्वरूप शान्ता आप्टे, जिसके ऊपर फिल्म "दुनिया ना माने" (1937) में एक पूर्ण अंग्रेजी गाना फिल्माया गया, प्रभात पिक्चर्स की अग्रणी कलाकार बन गईं। सन् 1939 में व्ही. शान्तारम ने फिल्म "आदमी" में एक बहुभाषी गाना रखा। प्लेबैक सिस्टम का प्रयोग शुरू हो जाने पर ऐसे गायकों को भी फिल्मों में गाने का मौका मिलने लगा जिन्हें अभिनय में रुचि नहीं थी। पारुल घोष, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालावाली, राजकुमारी, अरुण कुमार आदि शरू-शुरू के प्लेबैक सिंगर थे।
के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे आदि के समय में गाने सिर्फ शास्त्रीय संगीत के आधार पर बनाये जाते थे और उनमें बहुत कम वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता था किन्तु प्लेबैक सिस्टम आने के बाद गानों में लोक-संगीत तथा पाश्चात्य संगीत का भी पुट आने लगा। भारत के अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के लोक-संगीत होने का बहुत बड़ा फायदा फिल्म संगीत को मिलने लगा। फिल्मी गीतों की धुनों में बंगाली, पंजाबी आदि लोक-संगीतों का प्रयोग करके गानों को मधुरतर से मधुरतम रूप दिया जाने लगा और लोग उन धुनों पर थिरकने लगे। लोगों में उन दिनों फिल्मी गानों के प्रति उन्माद का कैसा आलम था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1925 में बनी फिल्म इन्द्रसभा में 71 गाने थे।
कालान्तर में नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम से फिल्म संगीत दिन-प्रतिदिन निखरता ही चला गया।
सन् 1950 से 1975-80 तक भारतीय फिल्म संगीत का स्वर्णकाल रहा। फिर उसके बाद मैलोडियस संगीत ह्रास के दिन आने लगे, फिल्मी गानों में मैलोडी के स्थान पर हारमोनी बढ़ने लग गई और फिल्म संगीत का एक नया रूप आया जिसका चलन अभी भी है।
भारत में सिनेमा के आने के पहले नाटक और नौटंकियों का चलन था। उस जमाने में बहुत सी नौटंकी कम्पनियाँ हुआ करती थीं जो कि पूरे भारत में अपना ताम-झाम लेकर घूम-घूम कर नाटक-नौटंकी दिखाया करती थीं, भारत में जगह-जगह लगने वाले मेलों में तो इन नौटंकी कम्पनियों की धूम हुआ करती थी। फिल्म "तीसरी कसम" की नायिका तो ऐसी ही एक नौटंकी कम्पनी की हीरोइन ही थी तथा फिल्म "गीत गाता चल" में भी नौटंकी कम्पनियों का बहुत अच्छा सन्दर्भ है। इन नाटकों तथा नौटंकियों में संवाद के साथ गीत गाने का भी चलन था, वास्तव में लोग नाच-गाना देखने के लिए ही नौटंकियों में जाया करते थे। बाद में सिनेमा का चलन हो जाने पर शनैः-शनैः नौटंकी कम्पनियाँ समाप्त हो गईं तथा सिनेमा को ही नाटक-नौटंकियों का एक नया रूप माना जाने लगा। यही कारण है कि फिल्मों में गानों का रिवाज चल निकला।
सिनेमा के प्रारम्भिक दिनों में फिल्म में काम सिर्फ उन्हीं कलाकारों को काम मिलता था जिन्हें गायन तथा संगीत का बी ज्ञान हो क्योंकि उन्हें अपना गाना खुद ही गाना पड़ता था। फिर सन् 1935 में न्यू थियेटर ने अपनी फिल्म "धूप छाँव" में प्लेबैक गायन का सिस्टम शुरू किया और इस नये सिस्टम ने भारतीय फिल्म संगीत के स्वरूप को ही पूरी तरह से बदल डाला। प्रभात पिक्चर्स ने केशवराव भोले को, जिन्हें कि पश्चिमी ऑर्केस्ट्रा का पर्याप्त अनुभव था, गानों में पियानो, हवायन गिटार और वायलिन जैसे पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के प्रयोग के लिए नियुक्त किया जिसके परिणामस्वरूप शान्ता आप्टे, जिसके ऊपर फिल्म "दुनिया ना माने" (1937) में एक पूर्ण अंग्रेजी गाना फिल्माया गया, प्रभात पिक्चर्स की अग्रणी कलाकार बन गईं। सन् 1939 में व्ही. शान्तारम ने फिल्म "आदमी" में एक बहुभाषी गाना रखा। प्लेबैक सिस्टम का प्रयोग शुरू हो जाने पर ऐसे गायकों को भी फिल्मों में गाने का मौका मिलने लगा जिन्हें अभिनय में रुचि नहीं थी। पारुल घोष, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अम्बालावाली, राजकुमारी, अरुण कुमार आदि शरू-शुरू के प्लेबैक सिंगर थे।
के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे आदि के समय में गाने सिर्फ शास्त्रीय संगीत के आधार पर बनाये जाते थे और उनमें बहुत कम वाद्य यन्त्रों का प्रयोग किया जाता था किन्तु प्लेबैक सिस्टम आने के बाद गानों में लोक-संगीत तथा पाश्चात्य संगीत का भी पुट आने लगा। भारत के अनेक क्षेत्रों में अनेक प्रकार के लोक-संगीत होने का बहुत बड़ा फायदा फिल्म संगीत को मिलने लगा। फिल्मी गीतों की धुनों में बंगाली, पंजाबी आदि लोक-संगीतों का प्रयोग करके गानों को मधुरतर से मधुरतम रूप दिया जाने लगा और लोग उन धुनों पर थिरकने लगे। लोगों में उन दिनों फिल्मी गानों के प्रति उन्माद का कैसा आलम था इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सन् 1925 में बनी फिल्म इन्द्रसभा में 71 गाने थे।
कालान्तर में नौशाद, सी. रामचंद्र, चित्रगुप्त, हेमंत कुमार, रोशन, एस.डी. बर्मन, खय्याम, जयदेव, सलिल चौधरी, मदन मोहन, शंकर जयकिशन, ओ.पी. नैयर, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन जैसे तीव्र कल्पनाशील संगीतकारों और मोहम्मद रफ़ी, मुकेश, किशोर कुमार, महेन्द्र कपूर, लता मंगेशकर, सुमन कल्याणपुर, आशा भोंसले जैसे प्रतिभावान गायक गायिकाओं के संगम से फिल्म संगीत दिन-प्रतिदिन निखरता ही चला गया।
सन् 1950 से 1975-80 तक भारतीय फिल्म संगीत का स्वर्णकाल रहा। फिर उसके बाद मैलोडियस संगीत ह्रास के दिन आने लगे, फिल्मी गानों में मैलोडी के स्थान पर हारमोनी बढ़ने लग गई और फिल्म संगीत का एक नया रूप आया जिसका चलन अभी भी है।
Saturday, October 1, 2011
हिन्दी की प्यारी बहन उर्दू
जब भारत की अनेक भाषाओं की बात चले तो उर्दू को भुला देना बहुत मुश्किल होता है। देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू ऐसी दो ऐसी बहनें हैं जो एक-दूसरे के बिना रह ही नहीं सकतीं। रोजमर्रा की बोलचाल वाली हमारी हिन्दी में सैकड़ों ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है जो कि उर्दू के हैं और हिन्दी ने उसे अपना लिया है - जैसे कि हम "विशेष रूप से" कहने के स्थान पर प्रायः "खास तौर पर" का इस्तेमाल (अब यहीं देखिए कि मैंने "प्रयोग" जैसे हिन्दी शब्द के स्थान पर "इस्तेमाल" जैसा उर्दू शब्द टाइप कर डाला) करते हैं। हमें कभी भी नहीं लगता कि "खास" (विशेष), "तौर" (रूप या प्रकार), "शख्स" (व्यक्ति) "सुबह" (प्रातः), "आरजू" (अभिलाषा), "रिश्ता" (सम्बन्ध) इत्यादि शब्द हिन्दी के न होकर उर्दू के हैं, उल्टे हमें ये सारे शब्द हिन्दी के ही लगते हैं। इसी प्रकार से उर्दू के विद्वान भी सैकड़ों हिन्दी शब्दों को अपनी उर्दू रचना में शामिल कर लेते हैं। बिना एक दूसरे के शब्दों को अपनाए हिन्दी और उर्दू में से किसी भी एक का काम चल ही नहीं सकता। हिन्दी के सुविख्यात साहित्यकार प्रेमचंद जी की रचनाओं में न केवल उर्दू शब्दों के भरमार मिलते हैं बल्कि उन्होंने अपनी कृतियों को उर्दू लिपि में ही लिखा था।
यह भी सही है कि आम लोगों के बीच हिन्दी के चलन में आने बहुत पहले ही से उर्दू का चलन था। यही कारण है कि हिन्दी के आरम्भिक दिनों की रचनाओं में उर्दू शब्दों की बहुतायत पाई जाती है। देवकीनन्दन खत्री जी, जिन्होंने अपने जमाने में हिन्दी को सबसे अधिक पाठक दिए, जानते थे कि उन दिनों उर्दू का चलन हिन्दी की अपेक्षा बहुत ज्यादा है इसीलिए उन्होंने अपने उपन्यास "चन्द्रकान्ता" के आरम्भ में ढेर सारे उर्दू शब्दों का प्रयोग किया और "चन्द्रकान्ता सन्तति" के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते शनैः-शनैः उनका प्रयोग कम करते हुए हिन्दी के अधिक से अधिक शब्दों का प्रयोग किया है।
उर्दू वास्तव में तुर्की का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है "पराया" या "खानाबदोश"। हिन्दी की तरह ही उर्दू का जन्म भारत में हुआ है और यह भाषा कैसे बनी यह जानना भी बहुत रोचक है। मुगल शासनकाल में उनकी सैनिक छावनी में फारसी, अरबी, हिन्दी तथा हिन्दी की विभिन्न उपभाषाओं के जानने वाले सैनिक एक साथ रहा करते थे जिन्होंने आपस की बोलचाल के लिए एक नई भाषा विकसित कर ली जो कि उर्दू कहलाई। यही कारण है कि उर्दू को लोग अक्सर खेमे की या छावनी की भाषा कहा करते थे। अमीर खुसरो, मीर तक़ी मीर, मिर्जा ग़ालिब, फैज़ अहमद फैज़ जैसे विद्वानों को यह भाषा भा गई और उन्होंने इसका साहित्यिक रूप विकसित करना शुरू कर के इस एक प्रकार से कविता की भाषा बना दिया। ब्रिटिश शासन के आने पर इसने राज्य भाषा का दर्जा भी पा लिया। भारत-पाक विभाजन के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वालों के साथ यह भाषा पाकिस्तान चली गई और वहाँ की मुख्य भाषा बन गई।
उर्दू भाषा की एक अलग प्रकार की अपनी मिठास है जो कि मुंशी प्रेमचंद, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, बलवन्त सिंह जैसे अनेकों रचनाकारों को लुभाती रही। भारत में सवाक् सिनेमा के आने पर हिन्दुस्तानी भाषा अर्थात् उर्दू मिश्रित हिन्दी के रूप में यह फिल्मों में छा गई और आम जनता इससे अच्छी तरह से वाक़िफ़ होने लगी। आज भी भारत में उर्दू के कद्रदानों की संख्या बहुत अधिक है क्योंकि उर्दू खालिस तौर पर एक हिन्दुस्तानी ज़ुबान है।
यह भी सही है कि आम लोगों के बीच हिन्दी के चलन में आने बहुत पहले ही से उर्दू का चलन था। यही कारण है कि हिन्दी के आरम्भिक दिनों की रचनाओं में उर्दू शब्दों की बहुतायत पाई जाती है। देवकीनन्दन खत्री जी, जिन्होंने अपने जमाने में हिन्दी को सबसे अधिक पाठक दिए, जानते थे कि उन दिनों उर्दू का चलन हिन्दी की अपेक्षा बहुत ज्यादा है इसीलिए उन्होंने अपने उपन्यास "चन्द्रकान्ता" के आरम्भ में ढेर सारे उर्दू शब्दों का प्रयोग किया और "चन्द्रकान्ता सन्तति" के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते शनैः-शनैः उनका प्रयोग कम करते हुए हिन्दी के अधिक से अधिक शब्दों का प्रयोग किया है।
उर्दू वास्तव में तुर्की का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है "पराया" या "खानाबदोश"। हिन्दी की तरह ही उर्दू का जन्म भारत में हुआ है और यह भाषा कैसे बनी यह जानना भी बहुत रोचक है। मुगल शासनकाल में उनकी सैनिक छावनी में फारसी, अरबी, हिन्दी तथा हिन्दी की विभिन्न उपभाषाओं के जानने वाले सैनिक एक साथ रहा करते थे जिन्होंने आपस की बोलचाल के लिए एक नई भाषा विकसित कर ली जो कि उर्दू कहलाई। यही कारण है कि उर्दू को लोग अक्सर खेमे की या छावनी की भाषा कहा करते थे। अमीर खुसरो, मीर तक़ी मीर, मिर्जा ग़ालिब, फैज़ अहमद फैज़ जैसे विद्वानों को यह भाषा भा गई और उन्होंने इसका साहित्यिक रूप विकसित करना शुरू कर के इस एक प्रकार से कविता की भाषा बना दिया। ब्रिटिश शासन के आने पर इसने राज्य भाषा का दर्जा भी पा लिया। भारत-पाक विभाजन के समय भारत छोड़कर पाकिस्तान जाने वालों के साथ यह भाषा पाकिस्तान चली गई और वहाँ की मुख्य भाषा बन गई।
उर्दू भाषा की एक अलग प्रकार की अपनी मिठास है जो कि मुंशी प्रेमचंद, ख़्वाज़ा अहमद अब्बास, सआदत हसन मंटो, कृष्ण चन्दर, इस्मत चुग़ताई, बलवन्त सिंह जैसे अनेकों रचनाकारों को लुभाती रही। भारत में सवाक् सिनेमा के आने पर हिन्दुस्तानी भाषा अर्थात् उर्दू मिश्रित हिन्दी के रूप में यह फिल्मों में छा गई और आम जनता इससे अच्छी तरह से वाक़िफ़ होने लगी। आज भी भारत में उर्दू के कद्रदानों की संख्या बहुत अधिक है क्योंकि उर्दू खालिस तौर पर एक हिन्दुस्तानी ज़ुबान है।
Thursday, September 29, 2011
लता मंगेषकर की 82वें जन्मदिन पर उनके द्वारा पचास से अस्सी दशक तक गाये सुमधुर गीतों की सूची
मेलोडियस फिल्मी गीतों की बात हो और लता मंगेषकर का नाम न आए ऐसा हो ही नहीं सकता। जी हाँ, वही लता मंगेषकर जिन्होंने कल अपना वाँ जन्म दिन मनाया है। हमारी शुभकामानाएँ हैं कि भारतीय फिल्म संगीत के क्षेत्र की स्वर कोकिला लता मंगेषकर जी दीर्घजीवी हों। लता मंगेषकर जी के कण्ठ-माधुर्य के विषय में कुछ बताना सूरज को दिया दिखाना ही है। यह उनकी मधुर कण्ठ स्वर का ही कमाल है कि पाकिस्तानी कहा करते थे कि भारत हमें लता मंगेषकर दे दे और कश्मीर ले ले।
तो प्रस्तुत है लता मंगेषकर के द्वारा पचास से अस्सी दशक तक गाये सुमधुर गीतों की सूची जिनमें उनके द्वारा गाये गए सोलो, डुएड और कोरस गीत सम्मिलित हैं।
फिल्मी गीतों की विस्तृत सूची के लिए देखें - सुमधुर संगीत
मेरा नया ब्लॉग - संक्षिप्त महाभारत
तो प्रस्तुत है लता मंगेषकर के द्वारा पचास से अस्सी दशक तक गाये सुमधुर गीतों की सूची जिनमें उनके द्वारा गाये गए सोलो, डुएड और कोरस गीत सम्मिलित हैं।
गीत के बोल | गायक/गायिका | संगीत निर्देशक | गीतकार | फिल्म | प्रदर्शन वर्ष | |
चले जाना नहीं नैन मिलाके | लता मंगेषकर | हुस्नलाल भगतराम | राजेन्द्र कृशन | बड़ी बहन | 1950 | |
छुप छुप खड़े हो | लता मंगेषकर, प्रेमलता | हुस्नलाल भगतराम | कमर जलालाबादी | बड़ी बहन | 1950 | |
गोरे गोरे ओ बाँके छोरे | लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | समाधि | 1950 | |
जो दिल में खुशी बन कर आये | लता मंगेषकर | हुस्नलाल भगतराम | राजेन्द्र कृशन | बड़ी बहन | 1950 | |
महफिल में जल उठी शमा | लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | प्यारेलाल संतोषी | निराला | 1950 | |
आ जाओ तड़पते हैं अरमां | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जायपुरी | आवारा | 1951 | |
बचपन के दिन भुला न देना | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | दीदार | 1951 | |
भोली सूरत दिल के खोटे | चीतलकर, लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अलबेला | 1951 | |
दम भर जो उधर मुँह फेरे | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | आवारा | 1951 | |
धीरे से आजा री अँखियन में | लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अलबेला | 1951 | |
इक बेवफा से प्यार किया | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जायपुरी | आवारा | 1951 | |
घर आया मेरा परदेसी | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | आवारा | 1951 | |
जबसे बलम घर आये | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जायपुरी | आवारा | 1951 | |
ले जा मेरी दुआयें ले जा | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | दीदार | 1951 | |
शाम ढले खिड़की तले | चीतलकर, लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अलबेला | 1951 | |
शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के | चीतलकर, लता मंगेषकर | सी.रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अलबेला | 1951 | |
तेरे बिना आग ये चांदनी तू आ जा | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | आवारा | 1951 | |
ठंडी हवायें लहरा के आयें | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | नौजवान | 1951 | |
तुम न जाने किस जहाँ में | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | सजा | 1951 | |
ऐ मेरे दिल कहीं और चल | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | दाग | 1952 | |
बचपन के मुहब्बत को | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1952 | |
चांदनी रातें प्यार की बातें | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | जाल | 1952 | |
न मिलता गम तो बरबादी के | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | अमर | 1952 | |
ये रात ये चांदनी फिर कहाँ | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | जाल | 1952 | |
अकेली मत जइयो राधे जमुना के पार | मोहम्मद रफी, लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
बचपन के मुहब्बत को | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
झूले में पवन के आई बहार | मोहम्मद रफी, लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
किसी ने अपना बना के मुझको | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | पतिता | 1953 | |
मोहे भूल गये साँवरिया | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
मुहब्बत ऐसी धड़कन है | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | हसरत जयपुरी | अनारकली | 1953 | |
मेरे किस्मत के खरीदार अब तो आ जा | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | शैलेन्द्र | अनारकली | 1953 | |
आ जा री आ निंदिया तू आ | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | दो बीघा जमीन | 1953 | |
आ जा रे अब मेरा दिल पुकारा | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | आह | 1953 | |
बचपन के मुहब्बत को | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
दूर कोई गाये | लता मंगेषकर, मोहाम्मद रफी, शमशाद बेगम | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
दुआ कर गमे दिल खुदा से दुआ कर | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | शैलेन्द्र | अनारकली | 1953 | |
झूले में पवन के आई बहार | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफ़ी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
किसी ने अपना बना के मुझको | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | पतिता | 1953 | |
मिट्टी से खेलते हो बार बार किसलिये | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | पतिता | 1953 | |
मोहे भूल गये साँवरिया | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
मुहब्बत ऐसी धड़कन है | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | हसरत जयपुरी | अनारकली | 1953 | |
राजा की आयेगी बारात | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | आह | 1953 | |
तू गंगा की मौज मैं जमुना का धारा | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफ़ी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | बैजू बावरा | 1953 | |
याद किया दिल ने कहाँ हो तुम | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | पतिता | 1953 | |
ये शाम की तनहाइयाँ ऐसे में तेरा गम | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | आह | 1953 | |
ये जिंदगी उसी की है जो किसी का हो गया | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अनाकली | 1953 | |
जिंदगी प्यार की दो चार घड़ी होती है | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अनाकली | 1953 | |
आ नील गगन तले प्यार हम करें | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | बादशाह | 1954 | |
देखो वो चांद छुपके | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | एस.एच. बिहारी | शर्त | 1954 | |
दिल जले तो जले | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | टैक्सी ड्राइव्हर | 1954 | |
जादूगर सैंया छोड़ो मोरी बैंया | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
जायें तो जायें कहाँ | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | टैक्सी ड्राइव्हर | 1954 | |
मन डोले मेरा तन डोले | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
मेरा बदली में छुप गया चांद रे | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
मेरा दिल ये पुकारे आजा | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
ऊँची ऊँची दुनिया की दीवारें | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
सुन रसिया मन बसिया | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
सुन री सखी मोहे सजना बुलाये | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
तेरी याद में जल कर देख लिया | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | नागिन | 1954 | |
अपलम चपलम | लता मंगेषकर, उषा खन्ना | सी. रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | आजाद | 1955 | |
भुला नहीं देना | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | कुमार बाराबंकवी | बारादरी | 1955 | |
फैली हुई है सपनों की बाहें | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | हाउस नं. 44 | 1955 | |
इचक दाना बीचक दाना | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | श्री 420 | 1955 | |
जा री जा री ओ कारी बदरिया | लता मंगेषकर | सी. रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | आजाद | 1955 | |
जीवन के सफर में राही | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | साहिर लुधियानवी | मुनीमजी | 1955 | |
कितना हसीं है मौसम | चीतलकर, लता मंगेषकर | सी रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | आजाद | 1955 | |
मेरा सलाम ले जा | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | उड़न खटोला | 1955 | |
मोरे सैंया जी उतरेंगे पार | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | उड़न खटोला | 1955 | |
मुझपे इल्जामे बेवफाई है | लता मंगेषकर | सी रामचन्द्र | जां निसार अख्तर | यास्मीन | 1955 | |
राधा ना बोले ना बोले ना बोले रे | लता मंगेषकर | सी रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | आजाद | 1955 | |
ओ जाने वाले मुड़ के जरा | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | श्री 420 | 1955 | |
प्यार हुआ इकरार हुआ है | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | श्री 420 | 1955 | |
रमैया वस्ता वैया | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | श्री 420 | 1955 | |
सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | सीमा | 1955 | |
आ जा के इंतजार में | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | हलाकू | 1956 | |
आ जा सनम मधुर चांदनी में हम | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | चोरी चोरी | 1956 | |
दिल का न करना ऐतबार कोई | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | हलाकू | 1956 | |
गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा | लता मंगेषकर | एस.एस. मोहिन्दर | तनवीर नक़वी | शीरी फरहाद | 1956 | |
उस पार साजन इस पार सारे | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | चोरी चोरी | 1956 | |
जा रे जा बालमवा | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | बसंत बहार | 1956 | |
जागो मोहन प्यारे | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलन्द्र | जागते रहो | 1956 | |
जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | चोरी चोरी | 1956 | |
नैन मिले चैन कहाँ | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | बसंत बहार | 1956 | |
पंछी बनूँ उड़ती फिरूं मस्त गगन में | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | चोरी चोरी | 1956 | |
रसिक बलमा | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | चोरी चोरी | 1956 | |
ये रात भीगी भीगी | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | चोरी चोरी | 1956 | |
ये वादा करो चांद के सामने | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | राजहठ | 1956 | |
आ लौट के आजा मेरे मीत | लता मंगेषकर | एस एन त्रिपाठी | भरत व्यास | रानी रूपमती | 1957 | |
ऐ मालिक तेरे बंदे हम | लता मंगेषकर | वसंत देसाई | भरत व्यास | दो आँखें बारह हाथ | 1957 | |
बोल री कठपुतली डोरी | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | कठपुतली | 1957 | |
वृन्दावन का कृशन कन्हैया | लता मंगेषकर मोहम्मद रफी | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | मिस मेरी | 1957 | |
चांद फिर निकला | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | पेइंग गेस्ट | 1957 | |
छुप गया कोई रे दूर से पुकार के | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | चम्पाकली | 1957 | |
दुनिया में हम आये हैं तो | लता मंगेषकर, मीना मंगेषकर, उषा मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
घूंघट नहीं खोलूंगी सैंया तोरे आगे | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
होली आई रे कन्हाई | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
जीवन की बीना का तार बोले | लता मंगेषकर | एस एन त्रिपाठी | भरत व्यास | रानी रूपमती | 1957 | |
झूमे रेऽऽ नीला अम्बर झूमे | लता मंगेषकर, तलत महमूद | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | एक गाँव की कहानी | 1957 | |
मतवाला जिया डोले पिया | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
मेरी वीणा तुम बिन रोये | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | देख कबीरा रोया | 1957 | |
नाच रे मयूर झनझना के घुंघरू | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | कठपुतली | 1957 | |
नगरी नगरी द्वारे द्वारे | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
ओ जानेवालों जाओ न घर अपना छोड़ के | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
ओ मेरे लाल आ जा | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मदर इंडिया | 1957 | |
ओ रात के मुसाफिर | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | मिस मेरी | 1957 | |
फिर वही शाम वही गम | तलत महमूद, लता मंगेषकर | सी रामचंद्र | राजेन्द्र कृशन | बारिश | 1957 | |
सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया | लता मंगेषकर | रवि | प्रेम धवन | एक साल | 1957 | |
तारों की जुबाँ पर है | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | सी रामचन्द्र | परवेज शम्सी | नौशेरवान-ए-आदिल | 1957 | |
तू प्यार करे या ठुकराये | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | देख कबीरा रोया | 1957 | |
ये मर्द बड़े दिल सर्द | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | राजेन्द्र कृशन | मिस मेरी | 1957 | |
जरा सामने तो आओ छलिये | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | एस एन त्रिपाठी | भरत व्यास | जनम जनम के फेरे | 1957 | |
आ जा रे परदेसी | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | मधुमती | 1958 | |
चाहे पास हो चाहे दूर हो | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | भरत व्यास | सम्राट चन्द्रगुप्त | 1958 | |
दिल का खिलौना हाये टूट गया | लता मंगेषकर | वसंत देसाई | भरत व्यास | गूंज उठी शहनाई | 1958 | |
दिल की दुनिया बसाके सँवरिया | लता मंगेषकर | सी रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अमरदीप | 1958 | |
दिल तड़प तड़प के कह रहा है | लता मंगेषकर, मुकेश | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | मधुमती | 1958 | |
घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | मधुमती | 1958 | |
हम प्यार में जलने वालों को | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | जेलर | 1958 | |
जाना था हमसे दूर | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | अदालत | 1958 | |
जीवन में पिया तेरा साथ रहे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | वसंत देसाई | भरत व्यास | गूंज उठी शहनाई | 1958 | |
मस्ती भरा है समां | लता मंगेषकर, मन्ना डे | दत्ताराम | हसरत जयपुरी | परवरिश | 1958 | |
मेरे मन का बावरा पंछी | लता मंगेषकर | सी रामचन्द्र | राजेन्द्र कृशन | अमरदीप | 1958 | |
नींद ना मुझको आये | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | प्यारेलाल संतोषी | पोस्ट बाक्स 999 | 1958 | |
सारी सारी रात तेरी याद सताये | लता मंगेषकर | रोशन | फार्रुख कैसर | अजी बस शुक्रिया | 1958 | |
तेरे सुर और मेरे गीत | लता मंगेषकर | वसंत देसाई | भरत व्यास | गूंज उठी शहनाई | 1958 | |
उनको ये शिकायत है | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | अदालत | 1958 | |
यूँ हसरतों के दाग | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | अदालत | 1958 | |
बन के पंछी गाये प्यार का तराना | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | अनाड़ी | 1959 | |
भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | छोटी बहन | 1959 | |
धीरे धीरे चल ऐ चांद गगन में | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | लव मेरेज | 1959 | |
दिल का खिलौना हाये टूट गया | लता मंगेषकर | वसंत देसाई | भरत व्यास | गूंज उठी शहनाई | 1959 | |
दिल की नजर से | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | अनाड़ी | 1959 | |
दुनियावालों से दूर | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | उजाला | 1959 | |
झूमता मौसम मस्त महीना | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | उजाला | 1959 | |
कहे झूम झूम रात ये सुहानी | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | लव मेरेज | 1959 | |
कोई रंगीला सपनों में आके | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | उजाला | 1959 | |
लागी छूटे ना अब तो सनम | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | चित्रगुप्त | मजरूह सुल्तानपुरी | काली टोपी लाल रूमाल | 1959 | |
मैं रंगीला प्यार का राही | लता मंगेषकर, सबीर सेन | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | छोटी बहन | 1959 | |
तेरा जाना दिल के अरमानों का लुट जाना | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | अनाड़ी | 1959 | |
तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ | लता मंगेषकर, महेन्द्र कपूर | एन दत्ता | साहिर लुधियानवी | धूल का फूल | 1959 | |
तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे | हेमन्त कुमार | कल्याणजी आनन्दजी | गुलशन बावरा | सट्टा बाजार | 1959 | |
वो चांद खिला | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | अनाड़ी | 1959 | |
आ अब लौट चलें | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | जिस देश में गंगा बहती है | 1960 | |
आँखों में रंग क्यों आया | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | एक फूल चार काँटे | 1960 | |
आहा रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिये | लता मंगेषकर, तलत महमूद | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | उसने कहा था | 1960 | |
अजीब दास्तां है ये | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | दिल अपना और प्रीत पराई | 1960 | |
बदले बदले मेरे सरकार नजर आते हैं | लता मंगेषकर | रवि | शकील बदाँयूनी | चौदहवीं का चांद | 1960 | |
बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | एक फूल चार काँटे | 1960 | |
बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | जिस देश में गंगा बहती है | 1960 | |
बेकस पे करम कीजिये | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
दिल अपना और प्रीत पराई | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | दिल अपना और प्रीत पराई | 1960 | |
दो सितारों का जमीं पर है मिलन | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | कोहिनूर | 1960 | |
है आग हमारे सीने में | गीता दत्त, लता मंगेषकर, महेन्द्र कपूर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | जिस देश में गंगा बहती है | 1960 | |
जाने कैसे सपनों में खो गईं अँखियाँ | लता मंगेषकर | रवि शंकर | शैलेन्द्र | अनुराधा | 1960 | |
जारे बदरा बैरी जा | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | बहाना | 1960 | |
जब रात है ऐसी मतवाली | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
कैसे दिन बीत कैसी बीती रतियाँ | लता मंगेषकर | रवि शंकर | शैलेन्द्र | अनुराधा | 1960 | |
मचलती आरजू खड़ी बाहें पसारे | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | उसने कहा था | 1960 | |
मेरा दिल अब तेरा ओ साजना | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | दिल अपना और प्रीत पराई | 1960 | |
मेरी जान कुछ भी कीजिये | लता मंगेषकर, मुकेश | कल्याणजी आनन्दजी | कमर जलालाबादी | छलिया | 1960 | |
मुहब्बत की झूठी कहानी पे रोये | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
ओ बसंती पवन पागल | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | जिस देश में गंगा बहती है | 1960 | |
ओ सजना बरखा बहार आई | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | शैलेन्द्र | परख | 1960 | |
प्यार किया तो डरना क्या | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
तन रंग लो जी आज मन रंग लो | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | कोहिनूर | 1960 | |
तेरी महफिल में किस्मत आजामा कर हम भी देखेंगे | लता मंगेषकर, शमशाद बेगम | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | कमर जलालाबादी | छलिया | 1960 | |
ये दिल की लगी कम क्या होगी | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मुगल-ए-आजम | 1960 | |
ये वादा करें चांद के सामने | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | के एल परदेसी | दिल भी तेरा हम भी तेरे | 1960 | |
जिंदगी भर नहीं भूलेगी ओ बरसात की रात | लता मंगेषकर | रोशन | साहिर लुधियानवी | बरसात की रात | 1960 | |
अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम | लता मंगेषकर | जयदेव | साहिर लुधियानवी | हम दोनों | 1961 | |
बदली से निकला है चांद | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | संजोग | 1961 | |
भूली हुई यादें मुझे इतना ना सताओ | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | संजोग | 1961 | |
दिल मेरा एक आस का पंछी | लता मंगेषकर, सुबीर सेन | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | आस का पंछी | 1961 | |
दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो रे | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | गंगा जमना | 1961 | |
इक मंजिल राही दो | लता मंगेषकर, मुकेश | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | संजोग | 1961 | |
घर आजा घिर आये बदरा साँवरिया | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | शैलेन्द्र | छोटे नवाब | 1961 | |
इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा | लता मंगेषकर, तलत महमूद | सलिल चौधरी | राजेन्द्र कृशन | छाया | 1961 | |
जा रे, जा रे उड़ जा रे पंछी | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | मजरूह सुल्तानपुरी | माया | 1961 | |
जीत ही लेंगे बाजी हम तुम | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | खैयाम | कैफी आजमी | शोला और शबनम | 1961 | |
जिया हो जिया कुछ बोल दो | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | जब प्यार किसी से होता है | 1961 | |
ज्योति कलश छलके | लता मंगेषकर | सुधीर फड़के | पं. नरेन्द्र शर्मा | भाभी की चूड़ियाँ | 1961 | |
सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | जब प्यार किसी से होता है | 1961 | |
तस्वीर तेरी दिल में जिस दिन से उतारी है | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | सलिल चौधरी | मजरूह सुल्तानपुरी | माया | 1961 | |
वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | संजोग | 1961 | |
आज छेड़ो मुब्बत की शहनाइयाँ | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | सन आफ इंडिया | 1962 | |
आपकी नजरों ने समझा प्यार के काबिल हमें | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | अनपढ़ | 1962 | |
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | रोशन | मजरूह सुल्तानपुरी | आरती | 1962 | |
आवाज दे के हमें तुम बुलाओ | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | प्रोफेसर | 1962 | |
बोल मेरी तकदीर में क्या है | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | हरियाली और रास्ता | 1962 | |
दिल तोड़ने वाले तुझे दिल ढूँढ रहा है | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | सन आफ इंडिया | 1962 | |
एहसान तेरा होगा मुझ पर | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | जंगली | 1962 | |
है इसी में प्यार की आबरू | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | अनपढ़ | 1962 | |
कभी तो मिलेगी कहीं तो मिलेगी | लता मंगेषकर | रोशन | मजरूह सुल्तानपुरी | आरती | 1962 | |
कहीं दीप जले कहीं दिल | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | कैफी आजमी | बीस साल बाद | 1962 | |
मैं चली मैं चली | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | प्रफेसर | 1962 | |
मैं तो तुम संग नैन मिला के | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | मनमौजी | 1962 | |
मुझे कितना प्यार है तुमसे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | दिल तेरा दीवाना | 1962 | |
तेरा मेरा प्यार अमर | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | असली नकली | 1962 | |
तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | असली नकली | 1962 | |
देखो रूठा ना करो | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | सचिन देव बर्मन | हसरत जयपुरी | तेरे घर के सामने | 1963 | |
एक घर बनाउँगा तेरे घर के सामने | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | सचिन देव बर्मन | हसरत जयपुरी | तेरे घर के सामने | 1963 | |
हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | दिल एक मंदिर | 1963 | |
हँसता हुआ नूरानी चेहरा | कमल बारोट, लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | फारुख कैसर | पारसमणि | 1963 | |
जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | रोशन | साहिर लुधियानवी | ताजमहल | 1963 | |
मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की कसम | लता मंगेषकर | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मेरे महबूब | 1963 | |
उइ माँ उइ माँ ये क्या हो गया | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | फारुख कैसर | पारसमणि | 1963 | |
पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | रोशन | साहिर लुधियानवी | ताजमहल | 1963 | |
पंख होती तो उड़ आती रे | लता मंगेषकर | रामलाल | हसरत जयपुरी | सेहरा | 1963 | |
रात भी है कुछ भीगी भीगी | लता मंगेषकर | जयदेव | साहिर लुधियानवी | मुझे जीने दो | 1963 | |
रुक जा रात ठहर जा रे चंदा | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | दिल एक मन्दिर | 1963 | |
तकदीर का फसाना | लता मंगेषकर | रामलाल | हसरत जयपुरी | सेहरा | 1963 | |
वो दिल कहाँ से लाउँ तेरी याद जो भुला दे | लता मंगेषकर | रवि | राजेन्द्र कृशन | भरोसा | 1963 | |
वो जब याद आये बहुत याद आये | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | फारुख कैसर | पारसमणि | 1963 | |
याद में तेरी जाग जाग के हम | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | मेरे महबूब | 1963 | |
अगर मुझसे मुहब्बत है | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | आप की परछाइयाँ | 1964 | |
इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | नौशाद | शकील बदाँयूनी | लीडर | 1964 | |
हमने तुझको प्यार किया है जितना | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | इन्दीवर | दुल्हा दुल्हन | 1964 | |
हर दिल जो प्यार करेगा | लता मंगेषकर, महेन्द्र कपूर, मुकेश | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | संगम | 1964 | |
जय जय हे जगदम्बे माता | लता मंगेषकर | चित्रगुप्त | मजरूह सुल्तानपुरी | गंगा की लहरें | 1964 | |
झूम झूम ढलती रात | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | कैफी आजमी | कोहरा | 1964 | |
जो हमने दास्तां अपनी सुनाई | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | वह कौन थी | 1964 | |
मेरी आँखों से कोई नींद लिये जाता है | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | पूजा के फूल | 1964 | |
नगमा-ओ-शेर की सौगात किसे पेश करूँ | लता मंगेषकर | मदन मोहन | साहिर लुधियानवी | गजल | 1964 | |
नैना बरसे रिमझिम रिमझिम | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | वह कौन थी | 1964 | |
ओ मेरे सनम ओ मेरे सनम | लता मंगेषकर, मुकेश | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | संगम | 1964 | |
आज फिर जीने की तमन्ना है | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | शैलेन्द्र | गाइड | 1965 | |
अजी रूठ कर अब कहाँ जाइयेगा | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | आरजू | 1965 | |
बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | आरजू | 1965 | |
दिल जो न कह सका | लता मंगेषकर | रोशन | साहिर लुधियानवी | भीगी रात | 1965 | |
गाता रहे मेरा दिल | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | शैलेन्द्र | गाइड | 1965 | |
गुमनाम है कोई | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | गुमनाम | 1965 | |
काँटों से खींच के ये आँचल | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | शैलेन्द्र | गाइड | 1965 | |
परदेसियों से ना अँखियाँ मिलाना | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | आनन्द बख्शी | जब जब फूल खिले | 1965 | |
तुम्हीं मेरे मन्दिर तुम्हीं मेरी पूजा | लता मंगेषकर | रवि | राजेन्द्र कृशन | खानदान | 1965 | |
ये समां समां है ये प्यार का | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | आनन्द बख्शी | जब जब फूल खिले | 1965 | |
छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा | हेमन्त कुमार, लता मंगेषकर | रोशन | मजरूह सुल्तानपुरी | ममता | 1966 | |
दुनिया में ऐसा कहाँ सबका नसीब है | लता मंगेषकर | रोशन | आनन्द बख्शी | देवर | 1966 | |
नैनों में बदरा छाये | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | मेरा साया | 1966 | |
ओ मेरे शाहेखुबा | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | लव्ह इन टोक्यो | 1966 | |
रहें ना रहें हम | लता मंगेषकर | रोशन | मजरूह सुल्तानपुरी | ममता | 1966 | |
रहते थे कभी जिनके दिल में | लता मंगेषकर | रोशन | मजरूह सुल्तानपुरी | ममता | 1966 | |
तू जहाँ जहाँ चलेगा | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजा मेहंदी अली खां | मेरा साया | 1966 | |
दिल की गिरह खोल दो | लता मंगेषकर, मन्ना डे | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | रात और दिन | 1967 | |
दुनिया करे सवाल | लता मंगेषकर | रोशन | साहिर लुधियानवी | बहू बेगम | 1967 | |
हम तुम युग युग से ये गीत मिलन के | लता मंगेषकर, मुकेश | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | आनन्द बख्शी | मिलन | 1967 | |
होठों पे ऐसी बात | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | ज्वेल थीफ | 1967 | |
कभी रात दिन हम दूर थे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | आनन्द बख्शी | आमने सामने | 1967 | |
रात और दिन दिया जले | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | शैलेन्द्र | रात और दिन | 1967 | |
सावन का महीना पवन करे सोर | लता मंगेषकर, मुकेश | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | आनन्द बख्शी | मिलन | 1967 | |
चन्दन सा बदन | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | इंदीवर | सरस्वतीचन्द्र | 1968 | |
हमने देखी है इन आँखों की महकती खुशबू | लता मंगेषकर | हेमन्त कुमार | गुलजार | खामोशी | 1968 | |
मैं तो भूल चली बाबुल का देश | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | इंदीवर | सरस्वतीचन्द्र | 1968 | |
ना तुम बेवफा हो ना हम बेवफा हैं | लता मंगेषकर | मदन मोहन | राजेन्द्र कृशन | एक कली मुसकाई | 1968 | |
फूल तुम्हें भेजा है खत में | लता मंगेषकर, मुकेश | कल्याणजी आनन्दजी | इंदीवर | सरस्वतीचन्द्र | 1968 | |
ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | साहिर लुधियानवी | इज्जत | 1968 | |
गर तुम भुला ना दोगे | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | यकीन | 1969 | |
किसी राह में किसी मोड़ पर | लता मंगेषकर, मुकेश | कल्याणजी आनन्दजी | आनन्द बख्शी | मेरे हमसफर | 1969 | |
कोरा कागज था ये मन मेरा | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | आनन्द बख्शी | आराधना | 1969 | |
मेरा परदेसी ना आया | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | आनन्द बख्शी | मेरे हमसफर | 1969 | |
अच्छा तो हम चलते हैं | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | आन मिलो सजना | 1970 | |
बिंदिया चमकेगी चूड़ी खनकेगी | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | दो रास्ते | 1970 | |
हम थे जिनके सहारे | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | इन्दीवर | सफर | 1970 | |
झिलमिल सितारों का आँगन होगा | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | जीवन मृत्यु | 1970 | |
आजा तुझको पुकारे मेरे गीत रे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | आनंद बख्शी | गीत | 1970 | |
मिलो ना तुम तो हम घबरायें | लता मंगेषकर | मदन मोहन | कैफी आजमी | हीर रांझा | 1970 | |
ना कोई उमंग है | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनंद बख्शी | कटी पतंग | 1970 | |
रंगीला रे तेरे रंग में | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | नीरज | प्रेम पुजारी | 1970 | |
तुम मुझे यूँ भुला ना पाओगे | लता मंगेषकर | शंकर जयकिशन | हसरत जयपुरी | पगला कहीं का | 1970 | |
यूँ ही तुम मुझसे बात करती हो | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | इन्दीवर | सच्चा झूठा | 1970 | |
चलो दिलदार चलो | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | गुलाम मोहम्मद | कैफ भोपाली | पाकीजा | 1971 | |
चलते चलते यूँ ही कोई मिल गया था | लता मंगेषकर | गुलाम मोहम्मद | कैफी आजमी | पाकीजा | 1971 | |
इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा | लता मंगेषकर | गुलाम मोहम्मद | मजरूह सुल्तानपुरी | पाकीजा | 1971 | |
इस जमाने में इस मुहब्बत ने | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | महबूब की मेंहदी | 1971 | |
खिलते हैं गुल यहाँ | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | नीरज | शर्मीली | 1971 | |
मुझे तेरी मुहब्बत का साहारा मिल गया होता | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | आप आये बहार आई | 1971 | |
रैना बीति जाये | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनंद बख्शी | अमर प्रेम | 1971 | |
ढाढ़े रहियो ओ बाँके यार | लता मंगेषकर | गुलाम मोहम्मद | मजरूह सुल्तानपुरी | पाकीजा | 1971 | |
बीती ना बिताई रैना | लता मंगेषकर, भूपेन्द्र | राहुल देव बर्मन | गुलजार | परिचय | 1972 | |
एक प्यार का नगमा है | लता मंगेषकर, मुकेश | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | संतोष आनन्द | शोर | 1972 | |
गुम है किसी के प्यार में | किशोर कुमार,लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | रामपुर का लक्ष्मण | 1972 | |
पत्ता पत्ता बूटा बूटा | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | मजरूह सुल्तानपुरी | एक नजर | 1972 | |
अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | अभिमान | 1973 | |
अँखियों को रहने दे | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | बाबी | 1973 | |
बनाके क्यूं बिगाड़ा रे | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | गुलशन बावरा | जंजीर | 1973 | |
दीवाने हैं दीवानों को ना घर चाहिये | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | गुलशन बावरा | जंजीर | 1973 | |
हम तुम एक कमरे में बंद हों | लता मंगेषकर, शैलन्द्र सिंग | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | बाबी | 1973 | |
झूठ बोले कौवा काटे | लता मंगेषकर, शैलन्द्र सिंग | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | बाबी | 1973 | |
लूटे कोई मन का नगर | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | अभिमान | 1973 | |
ना मांगूँ सोना चांदी | लता मंगेषकर, शैलन्द्र सिंग | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | आनंद बख्शी | बाबी | 1973 | |
पिया बिना पिया बिना | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | अभिमान | 1973 | |
तेरा मेरा साथ रहे | लता मंगेषकर | रवीन्द्र जैन | रवीन्द्र जैन | सौदागर | 1973 | |
तेरे मेरे मिलन की ये रैना | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | अभिमान | 1973 | |
तेरी बिंदिया रे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | सचिन देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | अभिमान | 1973 | |
ये दिल और उनकी निगाहों के साये | लता मंगेषकर | जयदेव | पद्मा सचदेव | प्रेम पर्वत | 1973 | |
एक डाल पर तोता बोले | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | रवीन्द्र जैन | रवीन्द्र जैन | चोर मचाये शोर | 1974 | |
कहीं करती होगी वो मेरा इंतिजार | लता मंगेषकर, मुकेश | राहुल देव बर्मन | मजरूह सुल्तानपुरी | फिर कब मिलोगी | 1974 | |
करवटें बदलते रहे | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनंद बख्शी | आप की कसम | 1974 | |
रजनीगंधा फूल तुम्हारे | लता मंगेषकर | सलिल चौधरी | योगेश | रजनीगंधा | 1974 | |
वादा कर ले साजना | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | कल्याणजी आनन्दजी | गुलशन बावरा | हाथ की सफाई | 1974 | |
अब के सजन सावन में | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | आनंद बख्शी | चुपके चुपके | 1975 | |
भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | राजेश रोशन | आनंद बख्शी | जूली | 1975 | |
चुपके चुपके चल री पुरवैया | लता मंगेषकर | सचिन देव बर्मन | आनंद बख्शी | चुपके चुपके | 1975 | |
मेरे नैना सावन भादों | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनंद बख्शी | महबूबा | 1976 | |
दिल तो है दिल | लता मंगेषकर | कल्याणजी आनन्दजी | प्रकाश मेहरा | मुकद्दर का सिकन्दर | 1978 | |
सत्यं शिवं सुन्दरम | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | नरेन्द्र शर्मा | सत्यं शिवं सुन्दरम | 1978 | |
यशोमति मैया से | लता मंगेषकर, मन्ना डे | लक्ष्मीकांत प्यारेलाल | नरेन्द्र शर्मा | सत्यं शिवं सुन्दरम | 1978 | |
शीशा हो या दिल हो | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | कैफी आजमी | आशा | 1980 | |
मुझे छू रही हैं तेरी गर्म साँसे | लता मंगेषकर, मोहम्मद रफी | राजेश रोशन | गुलजार | स्वयंवर | 1980 | |
हम बने तुम बने इक दूजे के लिये | लता मंगेषकर, एस पी बालसुब्रमणियम | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | आनन्द बख्शी | एक दूजे के लिये | 1981 | |
जिंदगी की ना टूटे लड़ी | लता मंगेषकर, नितिन मुकेश | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | सन्तोष आनन्द | क्रान्ति | 1981 | |
तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बन्धन अन्जाना | लता मंगेषकर, एस पी बालसुब्रमणियम | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | आनन्द बख्शी | एक दूजे के लिये | 1981 | |
देखो मैंने देखा है ये इक सपना | अमित कुमार, लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनन्द बख्शी | लव्ह स्टोरी | 1981 | |
देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुये | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | शिव हरि | जावेद अख्तर | सिलसिला | 1981 | |
तुझ संग प्रीत लगाई सजना | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | राजेश रोशन | इन्दीवर | कामचोर | 1982 | |
दिखाई दिये यूँ | लता मंगेषकर | खय्याम | मीर तकी मीर | बाजार | 1982 | |
मेरी किस्मत में तू नहीं शायद | लता मंगेषकर, सुरेश वाडकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | सन्तोष आनन्द | प्रेम रोग | 1983 | |
ये गलियाँ ये चौबारा | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | सन्तोष आनन्द | प्रेम रोग | 1983 | |
ऐ दिले नादां | लता मंगेषकर | खय्याम | जां निसार अख्तर | रजिया सुल्तान | 1983 | |
मुहब्बत है क्या चीज हमको बताओ | लता मंगेषकर, सुरेश वाडकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | सन्तोष आनन्द | प्रेम रोग | 1983 | |
तुझसे नाराज नहीं जिंदगी | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | गुलजार | मासूम | 1983 | |
भँवरे ने खिलाया फूल | लता मंगेषकर, सुरेश वाडकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | सन्तोष आनन्द | प्रेम रोग | 1983 | |
जब हम जवां होंगे | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | आनन्द बख्शी | बेताब | 1983 | |
जिंदगी प्यार का गीत है | लता मंगेषकर | उषा खन्ना | सावन कुमार | सौतन | 1983 | |
हमें और जीने की चाहत ना होती | लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | गुलशन बावरा | अगर तुम ना होते | 1983 | |
सागर किनारे दिल ये पुकारे | किशोर कुमार, लता मंगेषकर | राहुल देव बर्मन | जावेद अख्तर | सागर | 1985 | |
दुश्मन ना करे दोस्त ने वो काम किया है | लता मंगेषकर | राजेश रोशन | इन्दीवर | आखिर क्यूँ | 1985 | |
तुमसे मिल कर ना जाने क्यूँ | लता मंगेषकर, शब्बीर कुमार | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | एस एच बिहारी | प्यार झुकता नहीं | 1985 | |
मैं तेरी दुश्मन दुश्मन तू मेरा | लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | आनन्द बख्शी | नगीना | 1986 | |
मन क्यूं बहका रे बहका आधी रात को | आशा भोंसले, लता मंगेषकर | लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल | वसन्त देव | उत्सव | 1986 | |
दिल दीवाना बिन सजना के माने ना | लता मंगेषकर | राम लक्ष्मण | असद भोपाली | मैने प्यार किया | 1989 | |
कबूतर जा जा जा | लता मंगेषकर, एस पी बालसुब्रमणियम | राम लक्ष्मण | असद भोपाली | मैने प्यार किया | 1989 | |
मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ हैं | लता मंगेषकर | शिव हरि | आनन्द बख्शी | चांदनी | 1989 |
फिल्मी गीतों की विस्तृत सूची के लिए देखें - सुमधुर संगीत
मेरा नया ब्लॉग - संक्षिप्त महाभारत
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