Tuesday, July 25, 2017

गिरिधर की कुण्डलियाँ


सुप्रसिद्ध कवि गिरिधर ने अनेक कुण्डलियाँ लिखी हैं।

प्रस्तुत है गिरिधर कवि रचित गिरिधर की कुण्डलियाँ।

बिना विचारे जो करै

बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह 'गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥

गुनके गाहक सहस नर

गुनके गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय।
जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय॥
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबे सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग सब भये अपावन॥
कह गिरिधर कविराय, सुनौ हो ठाकुर मन के।
बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुनके॥

साँईं सब संसार में

साँईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह 'गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई साँईं॥

बीती ताहि बिसारि दे

बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह 'गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥

साँईं अवसर के परे

साँईं अवसर के परे, को न सहै दु:ख द्वंद।
जाय बिकाने डोम घर, वै राजा हरिचंद॥
वै राजा हरिचंद, करैं मरघट रखवारी।
धरे तपस्वी वेष, फिरै अर्जुन बलधारी॥
कह 'गिरिधर कविराय, तपै वह भीम रसोई।
को न करै घटि काम, परे अवसर के साई॥

साँईं अपने चित्त की

साँईं अपने चित्त की भूलि न कहिये कोइ।
तब लगि मन में राखिये जब लगि कारज होइ॥
जब लगि कारज होइ भूलि कबहु नहिं कहिये।
दुरजन हँसै न कोय आप सियरे ह्वै रहिये।
कह 'गिरिधर' कविराय बात चतुरन के र्ताईं।
करतूती कहि देत, आप कहिये नहिं साँईं॥

साईं ये न विरुद्धिए

साईं ये न विरुद्धिए गुरु पंडित कवि यार।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावनहार॥
यज्ञ करावनहार राजमंत्री जो होई।
विप्र पड़ोसी वैद आपकी जो तपै रसोई॥
कह 'गिरिधर' कविराय जुगन ते यह चलि आई।
इन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं॥

झूठा मीठे वचन कहि

झूठा मीठे वचन कहि, ॠण उधार ले जाय।
लेत परम सुख उपजै, लैके दियो न जाय॥
लैके दियो न जाय, ऊँच अरु नीच बतावै।
ॠण उधार की रीति, मांगते मारन धावै॥
कह गिरिधर कविराय, जानी रह मन में रूठा।
बहुत दिना हो जाय, कहै तेरो कागज झूठा॥

कमरी थोरे दाम की

कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

राजा के दरबार में

राजा के दरबार में, जैसे समया पाय।
साँई तहाँ न बैठिये, जहँ कोउ देय उठाय॥
जहँ कोउ देय उठाय, बोल अनबोले रहिये।
हँसिये नहीं हहाय, बात पूछे ते कहिये॥
कह 'गिरिधर कविराय', समय सों कीजै काजा।
अति आतुर नहिं होय, बहुरि अनखैहैं राजा॥

सोना लादन पिय गए

सोना लादन पिय गए, सूना करि गए देस।
सोना मिले न पिय मिले, रूपा ह्वै गए केस॥
रूपा ह्वै गए केस, रोर रंग रूप गंवावा।
सेजन को बिसराम, पिया बिन कबहुं न पावा॥
कह 'गिरिधर कविराय लोन बिन सबै अलोना।
बहुरि पिया घर आव, कहा करिहौ लै सोना॥

पानी बाढो नाव में

पानी बाढो नाव में, घर में बाढो दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
परमारथ के काज, सीस आगै धरि दीजै॥
कह 'गिरिधर कविराय, बडेन की याही बानी।
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी॥

जाको धन धरती हरी

जाको धन धरती हरी ताहि न लीजै संग।
ओ संग राखै ही बनै तो करि राखु अपंग॥
तो करि राखु अपंग भीलि परतीति न कीजै।
सौ सौगन्धें खाय चित्त में एक न दीजै॥
कह गिरिधर कविराय कबहुँ विश्वास न वाको।
रिपु समान परिहरिय हरी धन धरती जाको॥