गणेशोत्सव एक प्रमुख हिन्दू त्यौहार है। यह त्यौहार हिन्दुओं में अत्यन्त लोकप्रिय है तथा सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है।
हिन्दू पंचांग के अनुसार गणेशोत्सव भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष चतुर्थी से चतुर्दशी तक मनाया जाता है।
जैसा कि नाम से ही विदित है, गणेशोत्सव के दौरान भगवान श्री गणेश जी, जो कि हिन्दुओं के विशिष्ट देवता हैं, की पूजा की जाती है।
यद्यपि गणेशोत्सव का त्यौहार सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है किन्तु महाराष्ट्र में यह अत्यन्त लोकप्रिय है।
चूँकि भगवान श्री गणेश जी मंगलदायक देवता हैं, इसलिये महाराष्ट्र में उन्हें मंगलमूर्ति के नाम से भी जाना जाता है।
गणेशोत्सव का इतिहास
कहा जाता है कि शिवाजी की माता जीजाबाई ने पुणे के कस्बा गणपति में गणेश जी की स्थापना की थी और पेशवाओं ने गणेशोत्सव को बहुत अधिक बढ़ावा दिया।
मूलतः गणेशोत्सव पारिवारिक त्यौहार था किन्तु बाद के दिनों में लोकमान्य बालगंगाधर ने इस त्यौहार को सामाजिक स्वरूप दे दिया तथा गणेशोत्सव राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया।
लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के प्रयास से गणेशोत्सव छुआछूत जैसी अनेकों सामाजिक बुराइयों का नाश करने वाला एक सशक्त हथियार बन गया।
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Saturday, August 22, 2009
Friday, August 21, 2009
आज मन ठीक नहीं है
कभी-कभी अकारण ही मन उदास हो जाता है। ऐसा मेरे साथ ही नहीं, सभी के साथ होता है। आपने भी अवश्य ही कभी ऐसा महसूस किया होगा। इसके विपरीत कभी-कभी बिना किसी कारण के मन प्रफुल्लित भी होता है। जब मनुष्य प्रफुल्लित होता है तो वह प्रायः आगत के विषय में सोचता है और जब उदास होता है बरबस ही विगत उसकी आँखों के सामने चलचित्र की तरह चलने लगता है। फिर मेरे जैसे उम्रदराज आदमी के लिये तो अतीत का स्मरण बहुत ही आनन्ददायक होता है। वृद्ध लोगों को अतीत की याद करना और वर्तमान में नुक्स निकालना बहुत प्रिय होता है। खैर, मैं वर्तमान में तो चाह कर भी नुक्स नहीं निकालूँगा क्योंकि यह वर्तमान ही है जिसकी वजह से मेरा ये पोस्ट आप लोगों के समक्ष है, अपने अतीत में तो मैं इस प्रकार से आप जैसे प्रेमी लोगों से सम्पर्क कर ही नहीं सकता था। हाँ, मेरी उम्र के अन्य लोगों की तरह मुझे भी अतीत प्यारा लगता है।
तो आज मन कुछ ठीक न होने से मुझे भी अतीत की बहुत सी यादों ने घेर लिया है। बचपन में मुझे मेरी दादी बहुत चाहती थीं। सत्रह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थीं। उस जमाने के चलन के अनुसार भक्ति भाव में डूबे रहना ही उनका जीवन था। मुझे रोज ब्राह्म-बेला में जगा दिया करती थीं। नित्य दूधाधारी मन्दिर में सुबह की आरती, जो कि साढ़े छः-सात बजे हुआ करती थी, में उपस्थित होना उनका नियम था। अपने साथ वे सालों तक मुझे दूधाधारी मन्दिर ले जाती रहीं। मात्र तीसरी कक्षा तक पढ़ी थीं वे, किन्तु रामायण, भागवत का पाठ रोज ही किया करती थीं। 'नरोत्तमदास' रचित "सुदामा चरित" उन्हें अत्यन्त प्रिय था और पूरी तरह से कण्ठस्थ था। मुझे रोज ही पौराणिक कथाएँ सुनाया करती थीं। आज जो संस्कार मुझमें है वह उन्होंने ही मुझे दिया है। मुझमें भी हिन्दू संस्कार कूट कूट कर भरा हुआ है। और इसी कारण से मुझे सुरेश चिपलूनकर जी के लेख बहुत अच्छे लगते हैं (यह अलग बात है कि आक्रामक स्वभाव न होने के कारण मैं वैसे लेख नहीं लिख सकता)।
प्रायमरी स्कूल में गणित मेरा प्रिय विषय था। कक्षा में सबसे पहले सवाल मैं ही हल किया करता था। आज सोचता हूँ कि उस जमाने में सीखे हुये रुपया-आना-पैसा, तोला-माशा-रत्ती, मन-सेर-छँटाक, ताव-दस्ता-रीम आदि के सवाल आज किसी काम के नहीं रहे हैं। प्रायमरी स्कूल में गणित में मुझे चालीस में चालीस अंक मिला करते थे। इसी प्रकार इमला (श्रुतलेख) में भी मुझे सोलह में सोलह अंक मिला करते थे।
प्रायमरी स्कूल के बाद अर्थात् मिडिल स्कूल से लेकर कॉलेज तक मैं हमेशा सेकेण्ड क्लास विद्यार्थी ही रहा। मैं मूलतः विज्ञान का छात्र था, गणित, भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र मेरे विषय थे। एक साल तक इंजीनियरिंग कॉलेज, रायपुर में भी पढ़ा किन्तु घर की आर्थिक परिस्थिति अच्छी न होने के कारण उसे छोड़ना पड़ा।
हिन्दी कभी भी मेरा मुख्य विषय नहीं रहा किन्तु हिन्दी से मुझे शुरू से ही प्रेम रहा है। शायद इसका कारण यही हो कि मेरे पिताजी ने हिन्दी में एम.ए. किया था और वे हिन्दी के ही शिक्षक थे। हिन्दी का ज्ञान मुझे वंशानुगत ही मिला है। हिन्दी के ब्लोग्स की बढ़ती संख्या देखकर मुझे बहुत खुशी होती है। कभी कभी हिन्दी ब्लोग्स में हिज्जों और व्याकरण की गलतियाँ देख कर अखरता भी है किन्तु यह भी लगता है कि यह तो स्वाभाविक ही है क्योंकि बहुत से ऐसे ब्लोगर भी हैं जिनकी भाषा हिन्दी न होकर कुछ अन्य है। फिर भी, जैसा कि अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के ब्लोग्स में होता है, हम भी लिखते समय हिज्जों और व्याकरण की गलतियों का ध्यान रखें तो ज्यादा अच्छा होगा।
चलिये, इतना लिखकर मन का गुबार निकल गया और उदासी जाती रही।
तो आज मन कुछ ठीक न होने से मुझे भी अतीत की बहुत सी यादों ने घेर लिया है। बचपन में मुझे मेरी दादी बहुत चाहती थीं। सत्रह वर्ष की उम्र में विधवा हो गई थीं। उस जमाने के चलन के अनुसार भक्ति भाव में डूबे रहना ही उनका जीवन था। मुझे रोज ब्राह्म-बेला में जगा दिया करती थीं। नित्य दूधाधारी मन्दिर में सुबह की आरती, जो कि साढ़े छः-सात बजे हुआ करती थी, में उपस्थित होना उनका नियम था। अपने साथ वे सालों तक मुझे दूधाधारी मन्दिर ले जाती रहीं। मात्र तीसरी कक्षा तक पढ़ी थीं वे, किन्तु रामायण, भागवत का पाठ रोज ही किया करती थीं। 'नरोत्तमदास' रचित "सुदामा चरित" उन्हें अत्यन्त प्रिय था और पूरी तरह से कण्ठस्थ था। मुझे रोज ही पौराणिक कथाएँ सुनाया करती थीं। आज जो संस्कार मुझमें है वह उन्होंने ही मुझे दिया है। मुझमें भी हिन्दू संस्कार कूट कूट कर भरा हुआ है। और इसी कारण से मुझे सुरेश चिपलूनकर जी के लेख बहुत अच्छे लगते हैं (यह अलग बात है कि आक्रामक स्वभाव न होने के कारण मैं वैसे लेख नहीं लिख सकता)।
प्रायमरी स्कूल में गणित मेरा प्रिय विषय था। कक्षा में सबसे पहले सवाल मैं ही हल किया करता था। आज सोचता हूँ कि उस जमाने में सीखे हुये रुपया-आना-पैसा, तोला-माशा-रत्ती, मन-सेर-छँटाक, ताव-दस्ता-रीम आदि के सवाल आज किसी काम के नहीं रहे हैं। प्रायमरी स्कूल में गणित में मुझे चालीस में चालीस अंक मिला करते थे। इसी प्रकार इमला (श्रुतलेख) में भी मुझे सोलह में सोलह अंक मिला करते थे।
प्रायमरी स्कूल के बाद अर्थात् मिडिल स्कूल से लेकर कॉलेज तक मैं हमेशा सेकेण्ड क्लास विद्यार्थी ही रहा। मैं मूलतः विज्ञान का छात्र था, गणित, भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र मेरे विषय थे। एक साल तक इंजीनियरिंग कॉलेज, रायपुर में भी पढ़ा किन्तु घर की आर्थिक परिस्थिति अच्छी न होने के कारण उसे छोड़ना पड़ा।
हिन्दी कभी भी मेरा मुख्य विषय नहीं रहा किन्तु हिन्दी से मुझे शुरू से ही प्रेम रहा है। शायद इसका कारण यही हो कि मेरे पिताजी ने हिन्दी में एम.ए. किया था और वे हिन्दी के ही शिक्षक थे। हिन्दी का ज्ञान मुझे वंशानुगत ही मिला है। हिन्दी के ब्लोग्स की बढ़ती संख्या देखकर मुझे बहुत खुशी होती है। कभी कभी हिन्दी ब्लोग्स में हिज्जों और व्याकरण की गलतियाँ देख कर अखरता भी है किन्तु यह भी लगता है कि यह तो स्वाभाविक ही है क्योंकि बहुत से ऐसे ब्लोगर भी हैं जिनकी भाषा हिन्दी न होकर कुछ अन्य है। फिर भी, जैसा कि अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं के ब्लोग्स में होता है, हम भी लिखते समय हिज्जों और व्याकरण की गलतियों का ध्यान रखें तो ज्यादा अच्छा होगा।
चलिये, इतना लिखकर मन का गुबार निकल गया और उदासी जाती रही।
Monday, August 17, 2009
लिखता क्या था, अपने आपको ब्लोगर शो करता था
अरे! ये क्या है? बिस्तर पर ये तो मेरा ही पार्थिव शरीर है।
पर मैं तो रात में आराम से सो गया था अब नींद खुलने पर अपने सामने मैं अपने ही मृत शरीर को कैसे देख रहा हूँ? बहुत सोचने पर समझ में आया कि रात में ही किसी समय मेरे प्राण पखेरू उड़ गये थे।
अब मैं अपने ही मृत शरीर को देखते हुए यमदूतों के आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद मेरे लड़के की नींद खुली। मैंने उसे पुकारा किन्तु उसे सुनाई नहीं पड़ा। आखिर सुनाई पड़ता भी कैसे? मैं तो अब आत्मा था। मैं उसे देख-सुन सकता था पर वह मुझे नहीं।
वो तो हकबकाये हुये मेरे मृत शरीर को देख रहा था। कुछ देर के बाद उसे कुछ सूझा और उसने घर के सभी लोगों को जगाना शुरू कर दिया। सभी लोग सुबह-सुबह की मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे अतः इस प्रकार नींद में खलल डालना उन्हें अच्छा नहीं लगा और वे कुनमुनाने लग गये।
उन्हें जबरदस्ती उठा कर लड़के ने कहा, "तुम लोगों को कुछ पता भी है? पापा तो रेंग गये।"
"ये क्या कह रहे हैं आप? रात को तो अच्छे भले थे।" बहू ने कहा।
"बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ। जाकर देख लो।" यह कह कर लड़का रिश्तेदारों को फोन लगाने लग गया।
घर के लोगों ने मेरे शरीर को बिस्तर से उठा कर उत्तर दिशा की ओर सिर रख कर जमीन पर लिटा दिया। औरतें उस शरीर को चारों ओर घेर कर बैठ गईं।
बहू ने कहा, "अभी-अभी पिछले हफ्ते तो ही ये बिस्तरा खरीदा था बड़े शौक से अपने लिये। इनका बिस्तर कल धोने के लिये गया था इस कारण से ये बिस्तर इनके लिये लगा दिया था। अब तो दान में देना पड़ेगा इस बिस्तर को। बहुत अखरेगा।"
इस पर उसकी चाची-सास अर्थात् मेरे भाई की पत्नी ने कहा, "कोई जरूरत नहीं है नये बिस्तरे को दान-वान में देने की। जल्दी से इसे अन्दर रख दो और वो जो पुराना फटा वाला बिस्तर है उसे यहाँ लाकर कोने में रख दो।"
रिश्तेदार आने शुरू हो गये।
किसी ने कहा, "सुना है कि कुछ लिखते विखते भी थे।"
मेरे मित्रों में से एक ने, जो कि अपने आप को बहुत बड़ा लेखक समझते थे, कहा, "लिखता क्या था, अपने आपको ब्लोगर शो करता था। उसके लिखे को यहाँ कोई पूछता नहीं था इसलिये इंटरनेट में जबरन डाल दिया करता था।"
एक सज्जन बोले, "अब जैसा भी लिखते रहे हों, जो भी करते रहे हों, मरने के बाद तो कम से कम उनकी बुराई तो मत करो।"
मित्र ने कहा, "बुराई कौन साला कर रहा है? अब किसी के मर जाने पर सच्चाई तो नहीं बदल जाती! सच तो यह है कि उम्र भले ही साठ से अधिक की हो गई हो पर बड़प्पन नाम की चीज तो छू भी नहीं गई थी उसे। हमेशा अपनी ही चलाने की कोशिश करता था। एक नंबर का अकड़ू था। जो कोई भी उससे मिलने आ जाता उसे जबरन अपने पोस्ट पढ़वाता था। दूसरों का लिखा तो कभी पढ़ता ही नहीं था। खैर आप मना कर रहे हैं तो अब आगे और मैं कुछ नहीं कहूँगा।"
मेरे लड़के ने कहा, "पापा तो साठ साल से भी अधिक जीवन बिताकर गए हैं यह तो खुशी की बात है। नहीं तो आजकल तो लोग पैंतालीस-सैंतालीस में ही सटक लेते हैं। हमें किसी प्रकार का गम मना कर उनकी आत्मा को दुःखी नहीं करना है, बल्कि लम्बी उमर सफलतापूर्वक जीने के बाद उनके स्वर्ग जाने की खुशी मनाना है। आप लोग बिल्कुल गम ना करें।"
मेरे भाई के लड़के ने कहा, "भैया बिल्कुल सही कह रहे हैं। अब हमें चाचा जी का क्रिया-कर्म बड़े धूम-धाम से करना है। पुराने समय में दीर्घजीवी लोगों की शव-यात्रा बैंड बाजे के साथ होती थी। हम भी बैंड बाजे का प्रबंध करेंगे।"
"पर आजकल तो बैंड बाजे का चलन ही खत्म हो गया है, कहाँ से लाओगे बैंड बाजा?" एक रिश्तेदार ने प्रश्न किया।
"तो फिर ऐसा करते हैं कि डीजे ही ले आते हैं।"
"पर भजन-कीर्तन वाला डीजे कहाँ मिलता है, डीजे का प्रयोग तो लोग नाच नाच कर खुशी मनाने के लिये करते हैं।"
"तो बात तो खुशी की ही है, हम लोग भी शव-यात्रा में नाचते-नाचते ही चलेंगे।"
"पर भाई मेरे! लोग नाचेंगे कैसे? नाचने के लिये तो पहले मत्त होना जरूरी है जो कि बिना दारू पिये कोई हो ही नहीं सकता। अब यह तो शव-यात्रा है, कोई बारात थोड़े ही है जो पहले लोगों को दारू पिलाई जाये?"
"भला दारू क्यों नहीं पिलाई जा सकती? आखिर मरने वाला भी तो दारू पीता था। लोगों को दारू पिलाने से तो उनकी आत्मा को और भी शान्ति मिलेगी।"
"अरे! क्या ये दारू भी पीते थे?" किसी ने पूछा।
"ये दारू भी पीते थे से क्या मतलब? पीते थे और रोज पीते थे। पूरे बेवड़े थे। बेवड़े क्या वो तो पूरे ड्रम थे ड्रम। एक क्वार्टर से तो कुछ होता ही नहीं था उन्हें। और जब दारू उन्हें असर करती थी तो उनके ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे। धर्म-कर्म की बातें करते थे। राम और कृष्ण की कथा बताया करते थे। रहीम और कबीर के दोहे कहा करते थे। हम लोग तो भयानक बोर हो जाते थे। अब ये बातें भला पीने के बाद करने की हैं? करना ही है तो किसी की ऐसी-तैसी करो, किसी को गाली दो, किसी को कैसे परेशान किया जा सकता है यह बताओ। सारा नशा किरकिरा कर दिया करते थे।"
"तो तुम क्यों सुनते रहते थे? उठ कर चले क्यों नहीं जाया करते थे?"
"अरे भई, जब उनके पैसे से दारू पीते थे तो उन्हें झेलना भी तो पड़ता था। और फिर जल्दी घर जाकर घरवाली की जली-कटी सुनने से तो इन्हें झेल लेना ही ज्यादा अच्छा था।"
ये बातें चल ही रहीं थी कि बहू ने मेरे लड़के को इशारे अपने पास बुलाया और एक ओर ले जाकर कहा, "ये क्या डीजे, नाचने-गाने और दारू की बात हो रही है? और तुम भी इन सब की हाँ में हाँ मिलाये जा रहे हो। इस सब में तो पन्द्रह-बीस हजार खर्च हो जायेंगे। कहाँ से आयेंगे इतने रुपये?"
"तो तुम क्यों चिन्ता में घुली जा रही हो? तुम्हें खर्च करने के लिये कौन कह रहा है?"
"पर जानूँ भी तो आखिर खर्च करेगा कौन?"
"मैं करूँगा, मैं।" लड़के ने छाती फुलाते हुए कहा।
"वाह! अपने लड़के की खटारी मोटर-सायकल की मरमम्त के लिये पाँच हजार तो हाथ से छूटते नहीं हैं और जो मर गया उसके लिये इतने रुपये निकाले जा रहे हैं। इसी को कहते हैं 'जीयत ब्रह्म को कोई ना पूछे और मुर्दा की मेहमानी'। खबरदार जो एक रुपया भी खर्च किया, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"
"अरे बेवकूफ, तुम कुछ समझती तो हो नहीं और करने लगती हो बक-बक। इसी को कहते हैं 'अकल नहीं और तनखा बढ़ाओ'। अगर मेरे पास रुपये होते तो मैं भला अपने बेटे को क्यों नहीं देता? पर बाप का अन्तिम संस्कार तो करना ही पड़ेना ना!"
"बेटे के लिये नहीं थे तो बाप के लिये अब कहाँ से आ गये रुपये?"
"बुढ़उ ने खुद दिये थे मुझे पचास हजार रुपये परसों, अपने बैंक खाते में जमा करने के लिये। कुछ कारण से उस दिन मैं बैंक नहीं जा पाया और दूसरे दिन बैंक की छुट्टी थी। उनके और मेरे अलावा और किसी को पता ही नहीं है कि उन्होंने मुझे रुपये दिये थे। अब उन रुपयों में से उन्हीं के लिये अगर पन्द्रह-बीस हजार खर्च कर भी दूँ तो भी तो तुम्हारे और तुम्हारी औलाद के लिये अच्छी-खासी रकम बचेगी। साथ ही साथ समाज में मेरा खूब नाम भी होगा। अब गनीमत इसी में है कि तुम चुपचाप बैठो और मुझे भी अपने बाप का क्रिया-कर्म करने दो।"
फिर लड़के ने वापस मण्डली में आकर कहा, "भाइयों, आप लोगों ने जैसा सुझाया है सब कुछ वैसा ही होगा। डीजे भी आयेगा और दारू भी। बस आप लोग दिलखोल कर पीने और नाचने के लिये तैयार हो जाइये।"
इतने में ही एक आदमी ने आकर कहा, "हमें खबर लगी है कि जी.के. अवधिया जी की मृत्यु हो गई है, कहाँ है उनकी लाश?"
हकबका कर मेरे लड़के ने पूछा, "आपको क्या लेना-देना है उनसे?"
"अरे हमें ही तो ले जाना है उनकी लाश को। मैं सरकारी अस्पताल से आया हूँ उनकी लाश ले जाने के लिये, पीछे पीछे मुर्दागाड़ी आ ही रही होगी। उन्होंने तो अपना शरीर दान कर रखा था।"
वे लोग मेरे शरीर को ले गये और मेरी शव-यात्रा के लिये आये हुये लोगों को बिना पिये और नाचे ही मायूसी के साथ वापस लौट जाना पड़ा।
उनके जाते ही यमदूत मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला, "चलो, तुम्हें ले जाने के लिये आया हूँ। जो कुछ भी तुमने अपने जीवन में पाप किया है उस की सजा तो नर्क पहुँच कर तुम्हें मिलेगी ही पर अपने ब्लोग में ऊल-जलूल पोस्ट लिखने की, किसी के ब्लोग में, यहाँ तक कि जो लोग तुम्हारे ब्लोग में टिप्पणी किया करते थे उनके ब्लोग में भी, टिप्पणी नहीं करने की सजा तो तुम्हें अभी ही यहीं पर मिलेगी।"
इतना कह कर उसने अपना मोटा-सा कोड़ा हवा में लहराया ही था कि मेरी चीख निकल गई और चीख के साथ ही मेरी नींद भी खुल गई।
आपको माधवराव सप्रे जी की कहानी एक टोकरी भर मिट्टी भी अवश्य ही पसंद आएगी।
पर मैं तो रात में आराम से सो गया था अब नींद खुलने पर अपने सामने मैं अपने ही मृत शरीर को कैसे देख रहा हूँ? बहुत सोचने पर समझ में आया कि रात में ही किसी समय मेरे प्राण पखेरू उड़ गये थे।
अब मैं अपने ही मृत शरीर को देखते हुए यमदूतों के आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद मेरे लड़के की नींद खुली। मैंने उसे पुकारा किन्तु उसे सुनाई नहीं पड़ा। आखिर सुनाई पड़ता भी कैसे? मैं तो अब आत्मा था। मैं उसे देख-सुन सकता था पर वह मुझे नहीं।
वो तो हकबकाये हुये मेरे मृत शरीर को देख रहा था। कुछ देर के बाद उसे कुछ सूझा और उसने घर के सभी लोगों को जगाना शुरू कर दिया। सभी लोग सुबह-सुबह की मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे अतः इस प्रकार नींद में खलल डालना उन्हें अच्छा नहीं लगा और वे कुनमुनाने लग गये।
उन्हें जबरदस्ती उठा कर लड़के ने कहा, "तुम लोगों को कुछ पता भी है? पापा तो रेंग गये।"
"ये क्या कह रहे हैं आप? रात को तो अच्छे भले थे।" बहू ने कहा।
"बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ। जाकर देख लो।" यह कह कर लड़का रिश्तेदारों को फोन लगाने लग गया।
घर के लोगों ने मेरे शरीर को बिस्तर से उठा कर उत्तर दिशा की ओर सिर रख कर जमीन पर लिटा दिया। औरतें उस शरीर को चारों ओर घेर कर बैठ गईं।
बहू ने कहा, "अभी-अभी पिछले हफ्ते तो ही ये बिस्तरा खरीदा था बड़े शौक से अपने लिये। इनका बिस्तर कल धोने के लिये गया था इस कारण से ये बिस्तर इनके लिये लगा दिया था। अब तो दान में देना पड़ेगा इस बिस्तर को। बहुत अखरेगा।"
इस पर उसकी चाची-सास अर्थात् मेरे भाई की पत्नी ने कहा, "कोई जरूरत नहीं है नये बिस्तरे को दान-वान में देने की। जल्दी से इसे अन्दर रख दो और वो जो पुराना फटा वाला बिस्तर है उसे यहाँ लाकर कोने में रख दो।"
रिश्तेदार आने शुरू हो गये।
किसी ने कहा, "सुना है कि कुछ लिखते विखते भी थे।"
मेरे मित्रों में से एक ने, जो कि अपने आप को बहुत बड़ा लेखक समझते थे, कहा, "लिखता क्या था, अपने आपको ब्लोगर शो करता था। उसके लिखे को यहाँ कोई पूछता नहीं था इसलिये इंटरनेट में जबरन डाल दिया करता था।"
एक सज्जन बोले, "अब जैसा भी लिखते रहे हों, जो भी करते रहे हों, मरने के बाद तो कम से कम उनकी बुराई तो मत करो।"
मित्र ने कहा, "बुराई कौन साला कर रहा है? अब किसी के मर जाने पर सच्चाई तो नहीं बदल जाती! सच तो यह है कि उम्र भले ही साठ से अधिक की हो गई हो पर बड़प्पन नाम की चीज तो छू भी नहीं गई थी उसे। हमेशा अपनी ही चलाने की कोशिश करता था। एक नंबर का अकड़ू था। जो कोई भी उससे मिलने आ जाता उसे जबरन अपने पोस्ट पढ़वाता था। दूसरों का लिखा तो कभी पढ़ता ही नहीं था। खैर आप मना कर रहे हैं तो अब आगे और मैं कुछ नहीं कहूँगा।"
मेरे लड़के ने कहा, "पापा तो साठ साल से भी अधिक जीवन बिताकर गए हैं यह तो खुशी की बात है। नहीं तो आजकल तो लोग पैंतालीस-सैंतालीस में ही सटक लेते हैं। हमें किसी प्रकार का गम मना कर उनकी आत्मा को दुःखी नहीं करना है, बल्कि लम्बी उमर सफलतापूर्वक जीने के बाद उनके स्वर्ग जाने की खुशी मनाना है। आप लोग बिल्कुल गम ना करें।"
मेरे भाई के लड़के ने कहा, "भैया बिल्कुल सही कह रहे हैं। अब हमें चाचा जी का क्रिया-कर्म बड़े धूम-धाम से करना है। पुराने समय में दीर्घजीवी लोगों की शव-यात्रा बैंड बाजे के साथ होती थी। हम भी बैंड बाजे का प्रबंध करेंगे।"
"पर आजकल तो बैंड बाजे का चलन ही खत्म हो गया है, कहाँ से लाओगे बैंड बाजा?" एक रिश्तेदार ने प्रश्न किया।
"तो फिर ऐसा करते हैं कि डीजे ही ले आते हैं।"
"पर भजन-कीर्तन वाला डीजे कहाँ मिलता है, डीजे का प्रयोग तो लोग नाच नाच कर खुशी मनाने के लिये करते हैं।"
"तो बात तो खुशी की ही है, हम लोग भी शव-यात्रा में नाचते-नाचते ही चलेंगे।"
"पर भाई मेरे! लोग नाचेंगे कैसे? नाचने के लिये तो पहले मत्त होना जरूरी है जो कि बिना दारू पिये कोई हो ही नहीं सकता। अब यह तो शव-यात्रा है, कोई बारात थोड़े ही है जो पहले लोगों को दारू पिलाई जाये?"
"भला दारू क्यों नहीं पिलाई जा सकती? आखिर मरने वाला भी तो दारू पीता था। लोगों को दारू पिलाने से तो उनकी आत्मा को और भी शान्ति मिलेगी।"
"अरे! क्या ये दारू भी पीते थे?" किसी ने पूछा।
"ये दारू भी पीते थे से क्या मतलब? पीते थे और रोज पीते थे। पूरे बेवड़े थे। बेवड़े क्या वो तो पूरे ड्रम थे ड्रम। एक क्वार्टर से तो कुछ होता ही नहीं था उन्हें। और जब दारू उन्हें असर करती थी तो उनके ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे। धर्म-कर्म की बातें करते थे। राम और कृष्ण की कथा बताया करते थे। रहीम और कबीर के दोहे कहा करते थे। हम लोग तो भयानक बोर हो जाते थे। अब ये बातें भला पीने के बाद करने की हैं? करना ही है तो किसी की ऐसी-तैसी करो, किसी को गाली दो, किसी को कैसे परेशान किया जा सकता है यह बताओ। सारा नशा किरकिरा कर दिया करते थे।"
"तो तुम क्यों सुनते रहते थे? उठ कर चले क्यों नहीं जाया करते थे?"
"अरे भई, जब उनके पैसे से दारू पीते थे तो उन्हें झेलना भी तो पड़ता था। और फिर जल्दी घर जाकर घरवाली की जली-कटी सुनने से तो इन्हें झेल लेना ही ज्यादा अच्छा था।"
ये बातें चल ही रहीं थी कि बहू ने मेरे लड़के को इशारे अपने पास बुलाया और एक ओर ले जाकर कहा, "ये क्या डीजे, नाचने-गाने और दारू की बात हो रही है? और तुम भी इन सब की हाँ में हाँ मिलाये जा रहे हो। इस सब में तो पन्द्रह-बीस हजार खर्च हो जायेंगे। कहाँ से आयेंगे इतने रुपये?"
"तो तुम क्यों चिन्ता में घुली जा रही हो? तुम्हें खर्च करने के लिये कौन कह रहा है?"
"पर जानूँ भी तो आखिर खर्च करेगा कौन?"
"मैं करूँगा, मैं।" लड़के ने छाती फुलाते हुए कहा।
"वाह! अपने लड़के की खटारी मोटर-सायकल की मरमम्त के लिये पाँच हजार तो हाथ से छूटते नहीं हैं और जो मर गया उसके लिये इतने रुपये निकाले जा रहे हैं। इसी को कहते हैं 'जीयत ब्रह्म को कोई ना पूछे और मुर्दा की मेहमानी'। खबरदार जो एक रुपया भी खर्च किया, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"
"अरे बेवकूफ, तुम कुछ समझती तो हो नहीं और करने लगती हो बक-बक। इसी को कहते हैं 'अकल नहीं और तनखा बढ़ाओ'। अगर मेरे पास रुपये होते तो मैं भला अपने बेटे को क्यों नहीं देता? पर बाप का अन्तिम संस्कार तो करना ही पड़ेना ना!"
"बेटे के लिये नहीं थे तो बाप के लिये अब कहाँ से आ गये रुपये?"
"बुढ़उ ने खुद दिये थे मुझे पचास हजार रुपये परसों, अपने बैंक खाते में जमा करने के लिये। कुछ कारण से उस दिन मैं बैंक नहीं जा पाया और दूसरे दिन बैंक की छुट्टी थी। उनके और मेरे अलावा और किसी को पता ही नहीं है कि उन्होंने मुझे रुपये दिये थे। अब उन रुपयों में से उन्हीं के लिये अगर पन्द्रह-बीस हजार खर्च कर भी दूँ तो भी तो तुम्हारे और तुम्हारी औलाद के लिये अच्छी-खासी रकम बचेगी। साथ ही साथ समाज में मेरा खूब नाम भी होगा। अब गनीमत इसी में है कि तुम चुपचाप बैठो और मुझे भी अपने बाप का क्रिया-कर्म करने दो।"
फिर लड़के ने वापस मण्डली में आकर कहा, "भाइयों, आप लोगों ने जैसा सुझाया है सब कुछ वैसा ही होगा। डीजे भी आयेगा और दारू भी। बस आप लोग दिलखोल कर पीने और नाचने के लिये तैयार हो जाइये।"
इतने में ही एक आदमी ने आकर कहा, "हमें खबर लगी है कि जी.के. अवधिया जी की मृत्यु हो गई है, कहाँ है उनकी लाश?"
हकबका कर मेरे लड़के ने पूछा, "आपको क्या लेना-देना है उनसे?"
"अरे हमें ही तो ले जाना है उनकी लाश को। मैं सरकारी अस्पताल से आया हूँ उनकी लाश ले जाने के लिये, पीछे पीछे मुर्दागाड़ी आ ही रही होगी। उन्होंने तो अपना शरीर दान कर रखा था।"
वे लोग मेरे शरीर को ले गये और मेरी शव-यात्रा के लिये आये हुये लोगों को बिना पिये और नाचे ही मायूसी के साथ वापस लौट जाना पड़ा।
उनके जाते ही यमदूत मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला, "चलो, तुम्हें ले जाने के लिये आया हूँ। जो कुछ भी तुमने अपने जीवन में पाप किया है उस की सजा तो नर्क पहुँच कर तुम्हें मिलेगी ही पर अपने ब्लोग में ऊल-जलूल पोस्ट लिखने की, किसी के ब्लोग में, यहाँ तक कि जो लोग तुम्हारे ब्लोग में टिप्पणी किया करते थे उनके ब्लोग में भी, टिप्पणी नहीं करने की सजा तो तुम्हें अभी ही यहीं पर मिलेगी।"
इतना कह कर उसने अपना मोटा-सा कोड़ा हवा में लहराया ही था कि मेरी चीख निकल गई और चीख के साथ ही मेरी नींद भी खुल गई।
आपको माधवराव सप्रे जी की कहानी एक टोकरी भर मिट्टी भी अवश्य ही पसंद आएगी।
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