जरा कल्पना करें कि आपने कभी कोई रचना नहीं पढ़ी है और आपके पास किसी प्रकार का सन्दर्भ नहीं है। ऐसी स्थिति में क्या आप कुछ लिख पाएँगे? वाल्मीकि के साथ ऐसी ही स्थिति थी, वे आदिकवि थे, प्रथम काव्य रचने वाले। किसी भी प्रकार का सन्दर्भ उनके पास नहीं था किन्तु उन्होंने रामायण जैसा महाकाव्य रच डाला जो कि विश्व-साहित्य में आज भी अपना प्रमुख स्थान रखता है। रामायण के प्रमुख पात्र 'राम' जहाँ आज्ञाकारी पुत्र हैं वहीं आदर्श पति भी हैं; वे आदर्श राजा हैं, प्रजा की भावना के समक्ष उनके लिए अपने सुख का कुछ भी मूल्य नहीं है; जहाँ दीन-हीनों के प्रति उनके हृदय में करुणा तथा दया का भाव है वहीं दुष्टों के प्रति वे अत्यन्त कठोर भी हैं; वे प्रबल योद्धा और परम शूरवीर हैं; राम समस्त मर्यादाओं को निबाहने वाले हैं अतः मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। समस्त विश्व-साहित्य में राम जैसा कोई अन्य पात्र देखने में नहीं आता। राम, रावण जैसे महान अत्याचारी और उसके समर्थकों का विनाश करने वाले हैं, आर्य-संस्कृति की पताका को देश-देशान्तर में फहराने वाले हैं; कहा जाए तो राम भारत के आदिनिर्माता हैं।
राम की कीर्ति-गाथा देश-देशान्तर में फैली हुई है। उनके चरित्र पर अनगिनत ग्रंथों की रचना हुई हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है-’रामायण सत कोटि अपारा’। न केवल हमारे देश की प्रमुख भाषाओं में बल्कि विश्व के अन्य देशों की भी प्रमुख भाषाओं में रामायण की रचना हुई है। समस्त विश्व में रामकथा की लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि राम की कीर्ति-गाथा ने मलेशिया में ‘हिकायत सिरी राम’, थाईलैंड में रामकथा को ‘रामकियेन’ या ‘रामकीर्ति’, कम्बोडिया में ‘रामकोर’, लाओस में ‘फालाक फालाम’ तथा दूसरा ‘फोमचक्र’ जैसे ग्रंथों का रूप धारण किया हुआ है। राम के प्रति श्रद्धा विश्व के सभी समुदाय के लोगों के हृदय में पाई जाती है। जावा, वियतनाम, बर्मा, चीन, जापान, मैक्सिको तथा मध्य अमरीका में रामकथा अत्यन्त लोकप्रिय है।
रामकथा ग्रंथों में वाल्मीकि रचित रामायण का अत्यन्त उच्च स्थान है। वाल्मीकि रामायण एक विशद् ग्रंथ है और आज के जमाने में विस्तृत ग्रंथों को पढ़ने के लिए लोगों के पास समय की कमी है। इसी बात को ध्यान में रखकर हमने वाल्मीकि रामायण का संक्षिप्तीकरण किया है ताकि सभी लोग उसे पढ़ सकें। अब हमारा लक्ष्य है "संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण" के सात काण्डों को ईपुस्तक के रूप में अत्यन्त सस्ते दाम में प्रत्ये कम्प्यूटर तक पहुँचाना। अब संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण ईपुस्तक के रूप में उपलब्ध है!
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रामायण महाकाव्य आयु तथा सौभाग्य को बढ़ाता है और पापों का नाश करता है। इसका नियमित पाठ करने से मनुष्य की सभी कामनाएँ पूरी होती हैं और अन्त में परमधाम की प्राप्ति होती है। सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में एक भार स्वर्ण का दान करने से जो फल मिलता है, वही फल प्रतिदिन रामायण का पाठ करने या सुनने से होता है। यह रामायण काव्य गायत्री का स्वरूप है। यह चरित्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाला है। इस प्रकार इस पुरान महाकाव्य का आप श्रद्धा और विश्वास के साथ नियमपूर्वक पाठ करें। आपका कल्याण होगा।
Saturday, December 25, 2010
Friday, December 24, 2010
तुम क्यों लिखते हो?
पोस्ट का शीर्षक मेरा अपना नहीं है बल्कि रामाधारी सिंह 'दिनकर' जी की एक कविता का है। पता नहीं दिनकर जी ने अपनी कविता में यह प्रश्न किससे पूछा था, किन्तु कई सालों बाद इस कविता को फिर से पढ़ कर मुझे लगा कि कहीं उन्होंने यह प्रश्न मुझ जैसे अकिंचन ब्लोगर, जिसने 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' जैसा अपना एक ब्लोग बना रखा है, से तो नहीं किया है! लीजिए आप भी पढ़ें दिनकर जी की इस कविता को -
तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?
यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई! तुमने यह बुरा किया।
है किसे फिक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अदभुत मान लिया?
कहनेवाले, जाने क्या-क्या कहते आए,
सुनने वालों ने मगर, कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ,
उत्तर क्या उनका कभी जगत ने पाया है?
अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा,
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?
तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने को?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना,
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।
दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का,
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कंपन उठते हैं जिस गहराई से,
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?
जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल,
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं;
उत्तर शायद, हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।
तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग, मानो सारा,
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो, मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर,
मानो, कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।
मृतिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन, मनुष्य की द्वाभा और सघन होती,
धरती की किस्मत और भरमती जाती है।
धो डालो फूलों का पराग गालों पर से,
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो
कितने पानी में हो, इसको जग भी देखे,
तुम पल भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।
सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को;
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जान बूझ गंदला करते अपने जल को।
तुम क्यों लिखते हो? क्या अपने अन्तरतम को
औरों के अन्तरतम के साथ मिलाने को?
अथवा शब्दों की तह पर पोशाक पहन
जग की आँखों से अपना रूप छिपाने को?
यदि छिपा चाहते हो दुनिया की आँखों से
तब तो मेरे भाई! तुमने यह बुरा किया।
है किसे फिक्र कि यहाँ कौन क्या लाया है?
तुमने ही क्यों अपने को अदभुत मान लिया?
कहनेवाले, जाने क्या-क्या कहते आए,
सुनने वालों ने मगर, कहो क्या पाया है?
मथ रही मनुज को जो अनन्त जिज्ञासाएँ,
उत्तर क्या उनका कभी जगत ने पाया है?
अच्छा बोलो, आदमी एक मैं भी ठहरा,
अम्बर से मेरे लिए चीज़ क्या लाए हो?
मिट्टी पर हूँ मैं खड़ा, जरा नीचे देखो,
ऊपर क्या है जिस पर टकटकी लगाए हो?
तारों में है संकेत? चाँदनी में छाया?
बस यही बात हो गई सदा दुहराने को?
सनसनी, फेन, बुदबुद, सब कुछ सोपान बना,
अच्छी निकली यह राह सत्य तक जाने की।
दावा करते हैं शब्द जिसे छू लेने का,
क्या कभी उसे तुमने देखा या जाना है?
तुतले कंपन उठते हैं जिस गहराई से,
अपने भीतर क्या कभी उसे पहचाना है?
जो कुछ खुलता सामने, समस्या है केवल,
असली निदान पर जड़े वज्र के ताले हैं;
उत्तर शायद, हो छिपा मूकता के भीतर
हम तो प्रश्नों का रूप सजाने वाले हैं।
तब क्यों रचते हो वृथा स्वांग, मानो सारा,
आकाश और पाताल तुम्हारे कर में हों?
मानो, मनुष्य नीचे हो तुमसे बहुत दूर,
मानो, कोई देवता तुम्हारे स्वर में हो।
मृतिका रचते हो? रचो; किन्तु क्या फल इसका?
खुलने की जोखिम से वह तुम्हें बचाती है?
लेकिन, मनुष्य की द्वाभा और सघन होती,
धरती की किस्मत और भरमती जाती है।
धो डालो फूलों का पराग गालों पर से,
आनन पर से यह आनन अपर हटाओ तो
कितने पानी में हो, इसको जग भी देखे,
तुम पल भर को केवल मनुष्य बन जाओ तो।
सच्चाई की पहचान कि पानी साफ़ रहे,
जो भी चाहे, ले परख जलाशय के तल को;
गहराई का वे भेद छिपाते हैं केवल,
जो जान बूझ गंदला करते अपने जल को।
Thursday, December 23, 2010
क्या किसी ब्लोगर को यह दिखाई नहीं पड़ता ....
हम लुटते रहे थे, लुटते रहे हैं और लुटते रहेंगे
हजारों वर्षों पूर्व सिकन्दर, मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मोहम्मद गोरी आदि के द्वारा हम लुटते रहे थे। फिर पुर्तगाली, फ्रांसीसी आदि लुटेरों ने आकर हमें लूटा और व्यापारी का भेष धारण कर भारत को लूटने वाले अंग्रेज लुटेरों ने तो विश्व के समृद्धतम देश भारत को कंगाल बना कर ही छोड़ा। हमारे देश की धन-सम्पदा हमारे यहाँ न रहकर विदेशों में चली गई।
आज हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा धन-लोलुप तथाकथित व्यापारियों और सत्ता-लोलुप राजनीतिबाजों के द्वारा लुट रहे हैं। आज भी हमारे देश की धन-सम्पदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने देशों में ले जा रही हैं और हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व उसे स्विस बैंकों में भेजे जा रहे हैं।
आज अमरीका, रूस, जर्मनी, प्रांस और चीन जैसे शक्तिशाली देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमन्त्री आदि का भारत आगमन हो रहा है। क्या वे भारत की विदेशों में बढ़ी हुई साख या सुदृढ़ आर्थिक अर्थ-व्यवस्था से प्रभावित होकर यहाँ आ रहे हैं? कदापि नहीं! उनका मात्र उद्देश्य भारत के बाजार का दोहन करना ही है। स्पष्ट है कि भविष्य में भी हम लुटते ही रहेंगे क्योंकि हमारे देश के कर्ता-धर्ता, अपने राष्ट्र के हितों को ताक में रखकर, उनकी योजनाओं को स्वीकार करते हुए हमारे लुटे जाने के दस्तावेजों पर मुहर लगाए चले जा रहे हैं।
पर हम हैं कि अपनी रचनाओं और उन पर मिली टिप्पणियों पर मुग्ध हैं। हमें अपना लुटना दिखाई ही नहीं देता। हमें लगता ही नहीं कि हम ऐसा कुछ लिखें जिसे देश के करोड़ों लोग पढ़ें और उन्हें समझ में आ जाए कि हम सब लुटे जा रहे हैं, वे अपना लुटना देखकर आक्रोश में आ जाएँ, क्रान्ति करने की ठान लें।
पर क्यों लिखें हम कुछ ऐसा? ऐसा लिखने से हमें टिप्पणियाँ तो नहीं मिलने वाली हैं, गैर-ब्लोगर लोग हमारे पोस्टों को पढ़कर या तो अप्रभावित ही चले जाते हैं या फिर प्रभावित होकर कुछ करने की ठान लेते हैं (सिवा टिप्पणी करने के)। और यह तो जग जाहिर है कि हम टिप्पणी न मिलने वाली कोई बात लिखते ही नहीं हैं क्योंकि टिप्पणियाँ ही तो हम ब्लोगरों की वास्तविक सम्पदा है।
हजारों वर्षों पूर्व सिकन्दर, मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मोहम्मद गोरी आदि के द्वारा हम लुटते रहे थे। फिर पुर्तगाली, फ्रांसीसी आदि लुटेरों ने आकर हमें लूटा और व्यापारी का भेष धारण कर भारत को लूटने वाले अंग्रेज लुटेरों ने तो विश्व के समृद्धतम देश भारत को कंगाल बना कर ही छोड़ा। हमारे देश की धन-सम्पदा हमारे यहाँ न रहकर विदेशों में चली गई।
आज हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा धन-लोलुप तथाकथित व्यापारियों और सत्ता-लोलुप राजनीतिबाजों के द्वारा लुट रहे हैं। आज भी हमारे देश की धन-सम्पदा को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने देशों में ले जा रही हैं और हमारे ही देश के स्वार्थी तत्व उसे स्विस बैंकों में भेजे जा रहे हैं।
आज अमरीका, रूस, जर्मनी, प्रांस और चीन जैसे शक्तिशाली देशों के राष्ट्रध्यक्ष, प्रधानमन्त्री आदि का भारत आगमन हो रहा है। क्या वे भारत की विदेशों में बढ़ी हुई साख या सुदृढ़ आर्थिक अर्थ-व्यवस्था से प्रभावित होकर यहाँ आ रहे हैं? कदापि नहीं! उनका मात्र उद्देश्य भारत के बाजार का दोहन करना ही है। स्पष्ट है कि भविष्य में भी हम लुटते ही रहेंगे क्योंकि हमारे देश के कर्ता-धर्ता, अपने राष्ट्र के हितों को ताक में रखकर, उनकी योजनाओं को स्वीकार करते हुए हमारे लुटे जाने के दस्तावेजों पर मुहर लगाए चले जा रहे हैं।
पर हम हैं कि अपनी रचनाओं और उन पर मिली टिप्पणियों पर मुग्ध हैं। हमें अपना लुटना दिखाई ही नहीं देता। हमें लगता ही नहीं कि हम ऐसा कुछ लिखें जिसे देश के करोड़ों लोग पढ़ें और उन्हें समझ में आ जाए कि हम सब लुटे जा रहे हैं, वे अपना लुटना देखकर आक्रोश में आ जाएँ, क्रान्ति करने की ठान लें।
पर क्यों लिखें हम कुछ ऐसा? ऐसा लिखने से हमें टिप्पणियाँ तो नहीं मिलने वाली हैं, गैर-ब्लोगर लोग हमारे पोस्टों को पढ़कर या तो अप्रभावित ही चले जाते हैं या फिर प्रभावित होकर कुछ करने की ठान लेते हैं (सिवा टिप्पणी करने के)। और यह तो जग जाहिर है कि हम टिप्पणी न मिलने वाली कोई बात लिखते ही नहीं हैं क्योंकि टिप्पणियाँ ही तो हम ब्लोगरों की वास्तविक सम्पदा है।
Monday, December 20, 2010
भारत में मुसलमानों की सफलता के कारण
(सामग्री 'आचार्य चतुरसेन' के उपन्यास "सोमनाथ" से साभार)
हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ
लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-ये ही आज राजपूत, गूजर, जाट, खत्री, अहीर आदि के रूप में हैं।
परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापित करते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।
विभाजक सत्ता
जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।
भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन
मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।
हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण
जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।
दूषित युद्धनीति
राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।
दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।
तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।
मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।
हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।
यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।
सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।
मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके - उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।
हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ
लगभग चार हजार वर्षों तक हिन्दू संस्कृति निरन्तर विकसित होती रही। देश-देशान्तरों में भी उसका प्रचार हुआ। उसका सम्पर्क दूसरी संस्कृतियों से हुआ, उनका प्रभाव भी उस पर पड़ा, परन्तु उसका अपना रूप बिल्कुल स्थिर ही रहा। विदेशी विजेताओं तक ने उस संस्कृति के आगे सिर झुकाया और उसमें अपने को लीन कर लिया। यद्यपि ये विदेशी-शक, ग्रीक, हूण, सीथियन, सूची, कुशान आदि-हिन्दुओं की वर्ण-व्यवस्था एवं विभिन्न जातीय समुदायों के कारण उनमें पूर्णतया नहीं मिल पाए, परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म, हिन्दू भाषा, साहित्य, रीति-रिवाज, कला और विज्ञान को पूर्णतया अपनाकर हिन्दुओं की अनेक जातियों की भाँति अपनी एक जाति बना ली, और ये हिन्दू जाति का अविच्छिन्न अंग बन गए-ये ही आज राजपूत, गूजर, जाट, खत्री, अहीर आदि के रूप में हैं।
परन्तु मुसलमानों में एक ऐसा जुनून था कि वे ईरान, ग्रीस, स्पेन, चीन और भारत कहीं की भी संस्कृति से प्रभावित नहीं हुए। किसी भी देश की संस्कृति उन्हें अपने में नहीं मिला सकी। वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी विजयिनी संस्कृति का डंका बजाते ही गए। उनके सामने एकेश्वरवाद, मुहम्मद साहब की पैगंबरी, कुरान का महत्व, बहिश्त और दोज़ख के स्पष्ट कड़े सिद्धान्त ऐसे थे, कि किसी भी संस्कृति को उनसे स्पर्द्धा करना असम्भव हो गया। उनके धर्म में तर्क को स्थान न था, तलवार को था। तलवार लेकर अपनी अद्भुत संस्कृति की वर्षा करते हुए, वे जहाँ-जहाँ गए, अपनी राजनैतिक सत्ता एवं सांस्कृतिक सत्ता स्थापित करते गए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतवर्ष अन्य देशों की अपेक्षा अपनी सांस्कृतिक सत्ता पर विशेषता रखता था, और भारत पर मुस्लिम संस्कृति की विजय, अन्य देशों की अपेक्षा भिन्न प्रकार की ही थी। भारत की राजनैतिक सत्ता संयोजक और विभाजक द्वन्द्वों से परिपूर्ण थी। संयोजक सत्ता की प्रबलता होने पर मौर्य, गुप्त, वर्धन आदि साम्राज्य सुगठित हुए, परन्तु जब विभाजक सत्ता का प्रादुर्भाव हुआ, तो केन्द्रीय शक्ति के खण्ड-खण्ड हो गए और देश छोटे-छोटे टुकड़ों में बँट गया।
विभाजक सत्ता
जिस समय भारत में मुस्लिम आगमन हुआ; उस समय विभाजक सत्ता का बोलबाला था। भारत छोटे-छोटे अनियन्त्रित टुकड़ों में बँट गया था। एकदेशीयता की भावना उनमें न रही थी। ये अनियन्त्रित राज्य परस्पर राजनैतिक सम्बन्ध नहीं रखते थे। प्रत्येक खण्ड राज्य अपने ही में सीमित था। यदि किसी एक खण्ड राज्य पर कभी विदेशी आक्रमण होता, तो वह भारत पर आक्रमण नहीं समझा जाता था। यदि कुछ राजा मिलकर एक होते भी थे, तो वैयक्तिक सम्बन्धों से। यह नहीं समझते थे कि यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। धार्मिक और सामाजिक भिन्नताएँ भी इसमें सहायक थीं। दिल्ली का पतन चौहानों का, और कन्नौज का पतन राठौरों का समझा जाता था। इसमें हिन्दुत्व के पतन का भी समावेश है, इस पर विचार ही नहीं किया जाता था। ये छोटी-छोटी रियासतें, साधारण कारणों से ही परस्पर ईर्ष्या-द्वेष और शत्रुभाव से ऐसी विरोधिनी शक्तियों के अधीन हो गई थीं, कि सहायता तो दूर रही, एक के पतन से दूसरी को हर्ष होता था। ऐसी हालत में एक शक्ति को श्रेष्ठ मानकर विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना तो दूर की बात थी।
भ्रातृत्व, एकता और अनुशासन
मुसलमान एकदेशीयता और एकराष्ट्रीयता के भावों से ग्रथित थे। सब मुसलमान बन्धुत्व के भावों से बँधे थे। सामूहिक रोज़ा-नमाज़, खानपान ने उनमें ऐक्यवाद को जन्म दे दिया था। उनकी संस्कृति में एक का मरना सब का मरना, और एक का जीना सबका जीना था। राजपूतों में अनैक्य ही नहीं, घमण्ड भी बड़ा था। इससे कभी यदि वे एकत्र होकर लड़े भी, तो अनुशासन स्थिर न रख सके। मुसलमानों का अनुशासन अद्भुत था। उनके अनुशासन और धार्मिक कट्टरता ने ही उन्हें यह बल दिया, कि अपने से कई गुना अधिक हिन्दू सेना पर भी उन्होंने विजय पाई। युद्ध में जहाँ उन्हें लूट का लालच था, वहाँ धार्मिक पुण्य की भावना भी थी। धन और पुण्य दोनों को तलवार के बल पर वे लूटते थे। काफिरों को मौत के घाट उतारना या उन्हें मुसलमान बनाना, ये दोनों काम ऐसे थे, जिनसे उन्हें लोक-परलोक के वे सब सुख प्राप्त होने का विश्वास था, जिनके लुभावने वर्णन वे सुन चुके थे। और जिन पर बड़े-से-बड़े मुसलमान को भी अविश्वास न था। इसी ने उनमें स्फूर्ति और एकता एवं विजयोन्माद उत्पन्न कर दिया। हिन्दुओं में ऐसा कोई भाव न था। जात-पाँत के झगड़ों ने उनकी बन्धुत्व-भावना नष्ट कर दिया था, और विभाजक सत्ता ने उनकी राजनैतिक एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया था। तिस पर सत्ताधारियों की गुलामी ने उनमें निराशा, विरक्ति और खिन्नता के भाव भी भर दिए थे। ऐसी हालत में देश-प्रेम या राष्ट्र-प्रेम उनमें उत्पन्न ही कहाँ से होता? राजपूतों में राजपूतीपन का जरूर जुनून था, पर इस रत्ती-भर उत्तेजक शक्ति के बल पर वे सिर्फ पतंगे की भाँति जल ही मरे, पाया कुछ नहीं।
हिन्दू समाज व्यवस्था ही पराजय का कारण
जब कोई नया आक्रमणकारी आता, प्रजा राजा को सहयोग देने की जगह अपना माल-मत्ता लेकर भाग जाती थी। राजा के नष्ट होने पर वह दूसरे राजा की अधीनता बिना आपत्ति स्वीकार कर लेती थी। राजपूत अन्य जाति के किसी योद्धा या राजनीतिज्ञ को कुछ गिनते ही न थे। इसी से कड़े से कड़े समय में भी राजा और प्रजा में एकता के भाव नहीं उदय होते थे। परन्तु मुसलमानों में भंगी से लेकर सुलतान तक एक ही जाति थी। प्रत्येक मुसलमान तलवार चलाकर काफिरों को मारकर पुण्य कमाने का या मरकर गाज़ी होने का इच्छुक रहता था। इस प्रकार हिन्दू समाज-व्यवस्था ही हिन्दुओं की पराजय का एक कारण बनी।
दूषित युद्धनीति
राजपूतों की युद्धनीति भी दूषित थी। सबसे बड़ा दूषण हाथियों की परम्परा थी। सिकन्दर के आक्रमण तथा दूसरे अवसरों पर प्रत्यक्ष ही हाथी पराजय का कारण बने थे। मुस्लिम अश्वबल विद्युत-शक्ति से शत्रु को दलित करता था। परन्तु हिन्दू सेनानी तोपों का आविष्कार होने पर भी हाथी पर ही जमे बैठे रहकर स्थिर निशाना बनने में वीरता समझते थे।
दूसरी वस्तु स्थिर होकर लड़ना तथा पीछे न हटना, उनके नाश का कारण बने। अवसरवादिता को वहाँ स्थान ही न था। युद्ध-योजना दुस्साहस पर ही निर्भर थी। बौद्धिक प्रयोग तो वहाँ होता ही न था। पीठ दिखाना घोर अपमान समझा जाता था। युद्ध में जय-प्राप्ति की भावना न थी, किन्तु जूझ मरने की थी। यद्यपि राजपूत साधारण कारणों से आपस में तो आक्रमण करते थे, पर विदेशियों पर इन्होंने कभी आक्रमण नहीं किया।
तीसर दोष, सेनापतियों का आगे होकर उस समय तक युद्ध करना, जब तक कि वे मर न जावें, युद्ध न था, वरन् मृत्यु-वरण था। यह नीति महाभारत से लेकर राजपूतों के पतन तक भारत में देखी गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि भारतीय युद्ध-कला का नेतृत्व योद्धाओं के हाथ में रहा, सेनापति के हाथ में नहीं। सेनापति का तो भारतीय युद्धों में अभाव ही रहा। भारतीय युद्धों के इतिहास में तो आगे चलकर केवल दो ही रणनीति-पण्डित हुए, एक मेवाड़ के महाराज राजसिंह, दूसरे छत्रपति शिवाजी। और दैव-विपाक से दोनों ही ने अपनी क्षुद्र शक्ति से आलमगीर औरंगजेब की प्रबल वाहिनी से टक्कर ली, तथा उसे सब तरह से नीचा दिखाया।
मुसलमानों का भर्ती क्षेत्र अद्वितीय था। अफगानिस्तान और उसके आस-पास की मुस्लिम जातियाँ, जो भूखी और खूँखार थीं, जिन्हें लूट-लालच और जिहाद का जुनून था, जो काफिरों से लड़कर मरना, शहीद होना और जीतना मालामाल होना समझते थे, भर्ती के समाप्त न होने वाले क्षेत्र थे। मुसलमानों को कभी भी सैनिकों की कमी न रही। महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी की सेनाओं में अनगिनत मनुष्यों की मृत्यु होती थी, परन्तु टिड्डी दल की भाँति उन्हें अनगिनत और सैनिक मिल जाते थे। उन्हें इन अभियानों में तो धन-जन की क्षति होती थी, उससे उन्हें अधैर्य और निराशा नहीं होती थी, क्योंकि उन्हें अटूट धन-रत्न, सुन्दर दास-दासी और ऐश्वर्य प्राप्त होते थे, साथ ही धार्मिक ख्याति और लाभ होने का भी विश्वास था। वे इन्हें धर्मयुद्ध समझते और सदा उत्साहित रहते थे।
हिन्दुओं का भर्ती क्षेत्र सदा संकुचित था, वह एक राज्य या एक जाति और एक वर्ग तक ही सीमित था। छोटी-छोटी रियासतें थीं। उनमें भी केवल क्षत्रिय लड़ते थे। अन्य वर्गों की उन्हें कोई सहायता ही नहीं प्राप्त होती थी। इसलिए वे युद्धोत्तर-काल में निरन्तर क्षीण होते जाते थे। उनकी युद्धकला ऐसी दूषित थी कि एक-दो दिन के युद्ध में ही उनके भाग्यों का समूल निपटारा हो जाता था। फिर कुछ करने-धरने-संभलने की तो कोई गुंजाइश ही न थी।
यदि आप कौटिल्य अर्थशास्त्र में वर्णित युद्ध-नीति पर गम्भीर दृष्टि डालें, तो आपको आश्चर्यचकित हो जाना पड़ेगा। उसमे ऐसी विकसित युद्ध-कला की व्याख्या है, कि जिसके आधार पर सब मानवीय और अमानवीय तत्वों तथा गुण-दोषों को युद्ध के उपयोग में लिया है। बड़े दुःख का विषय है कि राजपूतों को इस युद्ध-कला से वंचित रहना पड़ा; उनकी युद्ध-कला केवल मृत्यु-वरण कला थी।
सेनानायक की जब तक मृत्यु न हो जाए, तब तक युद्ध में आगे बढ़कर वैयक्तिक पराक्रम प्रकट करते रहना बड़ी भयानक बात थी। इसकी भयानकता तथा घातकता का यह एक अच्छा उदाहरण है कि पृथ्वीराज ने संयोगिता के वरण में अपने सौ वीर सामन्तों में से साठ को कटा डाला और फिर किसी भाँति वह उनकी पूर्ति न कर सका। जिससे तराइन के युद्धों में उसे पराजित होकर अपना और भारतीय हिन्दू राज्य का नाश देखना पड़ा। राणा साँगा, राणा प्रताप तथा पानीपत के तृतीय युद्ध के अवसरों पर सेनानायकों की इस प्रकार क्षति होने पर, उसकी पूर्ति न होने पर ही हिन्दुओं को पराजय का सामना करना पड़ा।
मुसलमानों की सेना में प्रत्येक महत्वाकांक्षी योद्धा को उन्नत होने, आगे बढ़ने तथा युद्ध-क्षेत्र में तलवार पकड़ने का अधिकार तथा सुअवसर प्राप्त था। यहाँ तक, कि क्रीत दासों को भी अपनी योग्यता के कारण, न केवल सेनापतियों के पद प्राप्त होने के सुअवसर मिले, प्रत्युत वे बादशाहों तक की श्रेणी में अपना तथा अपने वंश का नाम लिखा सके। कुतुबुद्दीन, इल्तमश, बलवन आदि ऐसे व्यक्ति थे जो दास होते हुए भी अद्वितीय पराक्रमी और शक्तिशाली थे। इस प्रकार आप देखते हैं कि मुसलमान आक्रान्ताओं ने भारत में आकर यहाँ की जनता को अस्त-व्य्त, राज्यों को खण्ड-खण्ड, राजाओं को असंगठित और राजनीति तथा युद्ध-नीति में दुर्बल पाया। अलबत्ता उनमें शौर्य, साहस और धैर्य अटूट था। परन्तु केवल इन्हीं गुणों के कारण वे सब भाँति सुसंगठित मुसलमानों पर जय प्राप्त न कर सके - उन्हें राज्य और प्राण दोनों ही खोने पड़े।
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