Monday, December 31, 2012

नया साल मनाने का एक तरीका यह भी

हमारे मित्र मिश्रा जी, जो कि धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति हैं, ने हमसे पूछा, "बताइये तो सही कि आप नया साल कैसे मनायेंगे?"

हमने कहा, "मिश्रा जी, जीवन में ऐसे कितने ही नये साल आए और गए। अब तो जीवन में वह उत्साह ही नहीं रह गया है जो नया साल मनाने की इच्छा पैदा करे। आप बताइये कि आप किस प्रकार से नया साल मनायेंगे?"

उन्होंने कहा, "ड्यूटी से घर वापस आते रात के लगभग दस तो बज ही जाते हैं। (वे एक पेट्रोल पंप में काम करते हैं और उनकी ड्यूटी लगभग बारह घंटे की होती है) घर आकर रोज की तरह स्नान करूँगा करूँगा। प्रातः स्नान के बाद पूजा अवश्य करता हूँ किन्तु रात्रि स्नान के बाद नहीं। पर आज नये साल के उपलक्ष्य में रात्रि स्नान के बाद भी पूजा कर लूँगा। श्रीमती जी से कहकर कुछ विशिष्ट व्यंजन बनवा लूँगा और पूजा के बाद परिवार सहित भोजन कर लेंगे। इस प्रकार से नया साल मनाना हो जाएगा।"

मैंने तो आज तक अंग्रेजी नये साल मनाने के ऐसे तरीके के बार में कभी नहीं सुना। मैंने तो यही देखा है कि अंग्रेजी नया साल मनाने के लिए लोग नाचते-गाते हैं, खुशियाँ मनाते हैं और नशे में गाफ़िल हो जाते हैं। पर हमारे मिश्रा जी के लिए पूजा-पाठ ही नाचना-गाना, खुशियाँ मनाना और नशे में गाफ़िल होना है। वे तो अंग्रेजी नये साल को हिन्दू तरीके से मना कर ही खुश होते हैं।

Thursday, December 27, 2012

अगर ब्लोगवाणी चाहे तो आज भी फिर से हिन्दी ब्लोगिंग में जान फूँक सकती है

और किसी को लगे, न लगे, पर मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग की प्राणशक्ति बेहद कमजोर हो चुकी है, इसके पीछे कारण यही लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग के लिए अच्छे एग्रीगेटर का न होना। और फिर फेसबुक ने भी तो हिन्दी ब्लोगिंग की प्राणशक्ति को चूस लिया है।

वैसे तो हिन्दी ब्लोगिंग के लिए अनेक एग्रीगेटर्स बने किन्तु हिन्दी ब्लोगिंग को सबसे अधिक किसी एग्रीगेटर ने बढ़ाया तो वह है ब्लोगवाणी। एक समय ऐसा था कि हिन्दी ब्लोगर्स अपना ब्लॉग बाद में खोलते थे, ब्लोगवाणी पहले खोल लिया करते थे। फिर हिन्दी ब्लोगिंग के दुर्भाग्य का उदय हुआ और ब्लोगवाणी ने हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट देना बंद कर दिया। शायद कुछ विघ्नसंतोषी लोगों के द्वारा ब्लोगवाणी की भावनाओं को लगातार ठेस पहुँचाते रहना ही इसका कारण रहा हो सकता है। उसके कुछ दिनों बाद चिट्ठाजगत का बंद हो जाना हिन्दी ब्लोगिंग के लिए "दुबले के लिए दूसरा आषाढ़" साबित हुआ।

ब्लोगवाणी कभी भी बंद नहीं हुई, वह आज भी चल रही है, बस उसमें हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को बंद कर दिया गया है। अगर ब्लोगवाणी चाहे तो आज भी फिर से हिन्दी ब्लोगिंग में जान फूँक सकती है, बस इसके लिए उसे फिर से हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को चालू करना होगा। ब्लोगवाणी के हिन्दी ब्लोगिंग पर बहुत से उपकार हैं जिसे हिन्दी ब्लोगिंग कभी भुला नहीं पायेगी। पर आज एक बार फिर से हिन्दी ब्लोगिंग को ब्लोगवाणी के उपकार की आवश्यकता है। ब्लोगवाणी टीम यदि हिन्दी ब्लोग्स के अपडेट को फिर से चालू कर देगी तो निश्चय ही यह हिन्दी ब्लोगिंग पर उसका सबसे बड़ा उपकार होगा। हिन्दी ब्लोगिंग घिसट-घिसट कर चलने के बजाय एक बार फिर से दौड़ना शुरू कर देगी।

Monday, December 24, 2012

जब मुझे बूढ़े से बच्चा बनना पड़ा

इस पोस्ट का शीर्षक पढ़ कर शायद आप सोच रहे होंगे कि ये जी.के. अवधिया क्या बेपर की हाँक रहा है? भला आदमी बूढ़े से बच्चा कैसे बन सकता है?

 यह तो हम सभी जानते हैं कि जो समय बीत गया उसे फिर से वापस लाया नहीं जा सकता। समय बीतने के साथ ही उम्र भी बढ़ते जाती है, और बीते हुए उम्र को भी फिर से वापस नहीं लाया जा सकता। पर बीते चुके उम्र में कल्पना के सहारे जाया तो जा सकता है।

बात यह हुई कि मेरे मित्र गुप्ता जी ने मुझसे कहा कि उनके पुत्र, जो कि कक्षा पीपी२ में पढ़ता है, के स्कूल की पत्रिका छप रही है और वे अपने पुत्र के नाम से कु सामग्री उसमें छपने के लिए देना चाहते हैं, अतः मैं उन्हें या तो नेट से कुछ खोज कर दूँ या स्वयं कुछ लिख कर दूँ। मैंने सोचा कि चलो इसी बहाने कुछ लिख लिया जाए। पर मेरी सोच तो बूढ़ी हो चुकी है क्योंकि मैं बूढ़ा आदमी हूँ। इसलिए मैंने अपनी कल्पना के सहारे, अपने बचपन में वापस जाकर, स्वयं को बच्चा बनाया और उन्हें यह लिखकर दियाः

क्रिसमस की छुट्टी

क्रिसमस की छुट्टी हैं आईं।
खुशियों की ये लहरें लाईं॥
चुन्नू मुन्नू मेरे घर आए।
सब मिलकर हम नाचे गाये॥

मम्मी पापा प्यार जताते।
अपने संग पिकनिक ले जाते॥
खुशियों के हम गीत हैं गाते।
मामा मेरे ढोल बजाते॥

चह चह चहके चिड़िया रानी।
दाना चुगाती इसे है नानी॥
बहना मेरी बड़ी सयानी।
होकर बड़ी ये बनेगी रानी॥

कल कल करती नदिया बहती।
झर झर बहता झरना॥
नदिया झरना कहते हमसे।
सीखो हमसे आगे बढ़ना॥

तो ऐसे बनना पड़ा मुझे बूढ़े से बच्चा।

Wednesday, November 14, 2012

छत्तीसगढ़ का "गोंड़िन गौरा" पर्व

दीपावली की रात्रि को छत्तीसगढ़ के गोंड़ "गोंड़िन गौरा" पर्व मनाते हैं। दीपावली की रात्रि आरम्भ होते ही गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। इसके लिए लकड़ी के एक पाटे पर चारों कोनों में खम्भे बनाये जाते हैं तथा उनके ऊपरी भाग में दिये रखने के लिये गढ़े कर दिये जाते हैं। बीच में शिवजी की मूर्ति बनाई जाती है। शिव जी की मूर्ति की बायीं ओर गौरा माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता है। फिर खम्भों और मूर्तियों को रुपहले और सुनहले वर्क से आच्छादित किया जाता है। उसके बाद लाल सिन्दूर की मोटी लकीर से भरी हुई माँग वाली एक स्त्री बाल बिखरा लिये और पाटे को सिर पर रखती है। उस स्त्री के साथ युवक, वृद्ध, बच्चे और स्त्रियाँ बाजे-गाजे के साथ जुलूस के रूप में पूरे गाँव भर या शहरों में मुहल्ले मुहल्ले घूमते हैं। यह जुलूस शिव जी की बारात होती है।

लटें बिखरा कर औरतों का झूमना, हाथों में 'साँटी' (कोड़े) लगवाना आदि इस बारात के आकर्षण होते हैं।

रात भर गलियों में घूमने के बाद 'गौरा चबूतरे' पर पाटा रख दिया जाता है और औरतें गाती हैं -

महादेव दुलरू बन आइन, घियरी गौरा नाचिन हो,
मैना रानी रोये लागिन, भूत परेतवा नाचिन हो।
चन्दा कहाँ पायेव दुलरू, गंगा कहाँ पायेव हो,
साँप कहाँ ले पायेव ईस्वर, काबर राख रमायेव हो।
गौरा बर हम जोगी बन आयेन, अंग भभूत रमायेन हो,
बइला ऊपर चढ़के हम तो, बन-बन अलख जगायेन हो।

अन्त में मूर्तियाँ तालाब में विसर्जित कर दी जाती हैं।

शिव-पार्वती की इस पूजा को 'गोड़िन गौरा' कहा जाता है जो कि वास्तव में शिव-विवाह की वार्षिक स्मृति है।

Sunday, May 13, 2012

बेटी बचाओ, सृष्टि बचाओ

लेखः के.आर. मीना
भरतपुर


कांई थारो करयो रे कसूर

 सही है सरकारें आर्थिक मदद के अलावा कर क्या सकती हैं। वे जो परम्पराएँ हैं, जो बेटी वालों से दुश्मन-सा व्यवहार करती हैं। वो जो झूठी शान है जो बेटियों के पिता को झुकने पर मजबूर करती है, उन्हें कौन बंद करेगा? अगर आर्थिक प्रोत्साहन से बेटियां बराबरी का दर्जा पा सकतीं तो भला पैसे वाले, पढ़े-लिखे लोगों में बेटों की बेजा चाह क्यों होती? आखिर पूरा समाज और वो माँएँ, जो इस समूची सृष्टि की निर्माता हैं, बेटी को बचाने, उसे मान दिलाने कब आगे आयेंगी?

सात वार, नौ त्यौहार

 राजस्थान पूरे देश में एक अलग ही उदहारण है। बेटी के घर वालों को बेटे वाले दुश्मन की तरह देखते हैं। बड़े और गढ़े हुए छोटे-मोटे त्योहारों पर भी बेटे वालों को झोली भरकर मिठाई चाहिए। सास का बेस, ससुर के कपड़े। जेठ का सूट, जेठानी की साड़ी। बगल वाली उस चाची का भी बेस, जिससे 10 साल से बोलचाल बंद है। अनगिनत लिफाफे- देवर का पाँच सौ का, दोस्तों के दो-दो सौ के। ये क्या है? क्यों है? कौन रोकेगा? कहा जाता है, बेटे को पढाया-लिखाया है। हमारे भी अरमान हैं। तो क्या बेटी और बेटी वालों के अरमान मर गये? उन्होंने भी सोचा होगा - भले, अपने जैसे समधी मिलें। जब इतना सब कुछ हर त्यौहार पर सालों साल मांगते रहेंगे, तो आप भले कैसे हुए?

झुके कौन?

मानसिकता यह भी है कि बेटी पैदा हुई तो शादी होगी। बेटे वालों के आगे झुकना होगा। इसलिए या तो बेटी को पैदा ही नहीं होने देते। या पैदा होने के बाद मार देते हैं। या नहीं मारते तो अच्छी शिक्षा नहीं देते। बेटा अच्छे, मँहगे स्कूल में। ....और बेटी सरकारी स्कूल में। क्यों? हैरत देखिए- अपनी बेटी के लिए सबकुछ अच्छा चाहने वाली माँ ही सास बनकर बहू के घरवालों को उम्र भर इसलिए कोसती रहती है कि देवर के दोस्तों का एक लिफाफा (लिफाफे में बंद कुछ रूपये-पैसों के रूप में दी जाने वाली भेंट या विदाई) कम पड़ गया था। हो सकता कि यह कु-व्यवस्था पुरुषों ने ही शुरू की हो। लेकिन महिलाएँ इन्हें धर्म मानकर इनका पालन करती रहीं हैं जिससे महिला ही महिला कि दुश्मन बनती गई और आज भी बनी हुई है। यही हाल रहा तो सृष्टि को, वंश को आगे बढ़ाने वाली माँ ही एक दिन चीख कर कहेगी कि मुयी कोख न होती तो मैं दुनिया के सारे झंझटों से आजाद हो जाती। तब क्या होगा? सृष्टि का। वंश का। सास के बेस का। जेठ-जेठानी के कपड़ों का। देवर के लिफाफे और दूल्हे की कार का? जरा सोचिए। ठहर कर एक मिनिट तो सोचिए। बेटियाँ भी बेटों से बढ़ कर होती हैं। उन्हें मत मारिए। उनका मान कीजिए। आप बहुत बड़े हो जाएँगे। अपनी बेटियों की नजर में। दुनियां की नजर में। खुद की नजर में।