लेखक स्व. श्री हरिप्रसाद अवधिया
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
(छत्तीसगढ़ के जन-जीवन पर आधारित प्रथम आंचलिक उपन्यास)
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नागपुर के महाराज बाग में काले पत्थर के बने हुये हाथी से कुछ दूर हट कर हरी दूब के मैदान पर बैठे दो व्यक्ति बात-चीत में अपने आपको भूले हुये थे। कालेज की कुछ लड़कियाँ बेंचों पर बैठ कर रंग-बिरंगी साड़ियों में सिमटी हुईं, जूड़ों में फूलों के हार लगाये बातों मे व्यस्त हैं। कालेज के विद्यार्थियों और दूसरे दर्शकों की भीड़ से महाराज बाग में बड़ी चहल-पहल रहती ही है।
बातें करने वाले दोनों व्यक्ति उठे और धीरे धीरे चलने लगे। उनमें से एक के मुख पर उदासी की रेखा खिंची हुई थी। दोनों महराज बाग की सीमा से लगे हुये, कृषि महविद्यालय में चले गये। वे दोनों और कोई नहीं, महेन्द्र और सदाराम थे। दोनों दीनदयाल की इच्छा से यहाँ कृषि-शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे। उन दिनों रायपुर में कोई कॉलेज नहीं था। इसी लिये उन दोनों को नागपुर में पढ़ना पड़ा।
महेन्द्र और सदाराम यहाँ अपने समय का अधिक से अधिक सदुपयोग करते थे। नागपुर वे लोग पहले-पहल ही आये थे। अतः कुछ दिनों तक छुट्टी के दिन घूम कर नापुर के दर्शनीय स्थलों को देखना और नगर तथा नगर के जन-जीवन से परिचित होना उनके लिये अनिवार्य था।
उस दिन रविवार की छुट्टी थी। महेन्द्र और सदाराम घूमते हुये इतवारी बाजार की ओर चले गये। वहाँ की सँकरी गलियों में करोड़ों का व्यापर होते देख वे भौंचक्के से रह गये। एक बात जो विशेष रूप से उनके ध्यान में आई वह यह थी कि बाजार में अढ़िक संख्या में कुली, मजदूर और हमाल छत्तीसगढ़ के गाँवों से आये हुये थे। बोझ ढोने का काम भी छत्तीसगढ़ी की स्त्रियाँ कर रहीं थीं जो आपस में हँसती और भद्दे मजाक करती हुईं गिरोह बनाकर बैठी थीं। यह देखकर महेन्द्र और सदाराम के हृदय को ठेस लगी। उन लोगों ने छत्तीसगढ़ से आये हुये उन मजदूरों से मेल जोल बढ़ाने का निश्चय किया।
"कोन गाँव ले आये हस जी? (कौन से गाँव से आये हो जी?) महेन्द्र ने उनमें से एक से छत्तीसगढ़ी में पूछा।
अंग्रेजी वेश-भूषा से सुसज्जित कॉलेज के विद्यार्थी के मुँह से अपने देश की बोली सुनकर उस आदमी को इतना अचम्भा हुआ मानो वह स्वप्न देख रहा हो। पहले तो वह झिझक गया पर दुबारा पूछने पर बोला, "कुरुद से"। फिर तो थोड़ी देर की बातचीत में ही वह व्यक्ति उन दोनों से इतना घुल-मिल गया जैसे दूध और पानी मिल जाते हैं। लगभग पन्द्रह मिनट तक बात करने के बाद महेन्द्र ने कहा, "अरे! मैं तो तुम्हारा ना पूछना ही भूल गया।"
"मेरा नाम अधारी है।" वह व्यक्ति बोला।
"अधारी, तुम अपना गाँव छोड़कर यहाँ हमाली करने क्यों आ गये?" सदाराम ने प्रश्न किया।
"क्या कोई अपना गाँव यों ही छोड़ देता है। ऐसा कारण हो गया जो मुझे यहाँ आकर इस तरह से पेट पालना पड़ रहा है। कुरुद में मेरी थोड़ी-सी खेती थी। मैं उसीसे बड़ी कठिनाई से गुजर-बसर करता था। घर में लड़की ब्याह के योग्य हो गई थी। उसके ब्याह के लिये मैंने मालगुजार से जमीन गिरवी रख कर रुपये उधार लिये। तीन साल तक बराबर ब्याज देता रहा। मैं जानता हूँ कि मैं मूल से अधिक ब्याज दे चुका था पर आखिर में मालगुजार ने मुझ पर नालिश कर दी और डिगरी करा मेरा घर-द्वार, जमीन-जायदाद सब हड़प लिया और मुझे यहाँ आकर हमाली करने के लिये विवश होना पड़ा।" कहते कहते अधारी की आँखों से टप-टप आँसू टपकने लगे। मन ही मन उसे अपने गाँव के मालगुजार पर बड़ा क्रोध आया पर उसके इस विचार ने उस क्रोध का गला घोंट दिया कि मेरा तो भाग्य ही ऐसा है। महेन्द्र यह सब सुनकर गम्भीर हो गया। उसने अपने दादा दीनदयाल के हाथ से इस प्रकार का भयानक अत्याचार होते कभी नहीं देखा था। इस अवसर पर अपने दादा का बरबस स्मरण हो आने से महेन्द्र का हृदय आनन्द और गर्व से भर गया।
इसके बाद महेन्द्र और सदाराम अधारी के घर जाने लगे। उसका घर इतवारी बाजार से कुछ आगे रेलवे लाइन के किनारे था। वहाँ छत्तीसगढ़ से आये हुये मजदूरों और हमालों की छोटी सी बस्ती ही थी। वहाँ लगभग पचास-साठ छोटे-छोटे घर थे जहाँ बोली, रहन-सहन, रीति-रिवाज विशुद्ध रूप से छत्तीसगढ़ी देखकर दोनों को इतनी खुशी हुई मानो वे नागपुर में न होकर अपने क्षेत्र के ही किसी गँव में हों। कॉलेज के वातावरण में देखते थे कि विद्यार्थियों की कई टोलियाँ थीं। प्रत्येक टोली के विद्यार्थी अपनी ही धुन में मस्त रहते थे। ऐसा मालूम होता था कि एक कॉलेज न होकर विभिन्न क्षेत्रों की टुकड़ियाँ इकट्ठी हो गई हों। उनके इस रुख से महेन्द्र और सदाराम को वेदना होती थी पर इतवारी के एक कोने में बसी हुई अपने ही लोगों की इस छोटी सी बस्ती में उन्हें शान्ति मिलती थी।
उन दोनों ने देखा कि उस बस्ती के अनपढ़ लोगों को विशेषतः ईसाई मिशनरी के लोग गुमराह करते हैं। वे छोटे-छोटे बच्चों के मन में उनके धर्म के विरुद्ध जड़ें जमा रहे हैं। एक दिन महेन्द्र ने सदाराम से कहा कि उस बस्ती में इस अनुचित परिस्थिति को रोका जाय।
"पर किया क्या जा सकता है?" सदाराम ने गहरी श्वाँस छोड़ते हुये कहा।
"स्वधर्मे निर्धनं श्रेयः - यही हमारा लक्ष्य होगा।" महेन्द्र ने शान्ति से उत्तर दिया।
ठीक इसी समय तार-डाकिये ने आकर तार दिया जिसे पढ़कर दोनों घबरा गये और कॉलेज से छुट्टी लेकर रात को नौ बजे की गाड़ी से रायपुर के लिये रवाना हो गये।
(क्रमशः)
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